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ढाळ ७
भिक्षु स्वाम भला भिक्षु स्वाम भला अति ही उजला।
मर्यादा पाळ्या थी जीव निर्मळा ॥धुपदं ।। १ सर्व संत सतियां ने जोय, भारीमाल आज्ञा में सोय ॥भिक्षु०||
चउमासो ने शेषे काळ विहार, भारीमाल आज्ञा थी सार, भिक्षु०॥ विण आज्ञा रहिणो न किण ही ठाम, दीक्षा देणी भारीमाल रे नाम। दीक्षा देइ ने सूपनो आण, आज्ञा बिना नहीं राखणो जाण ।। आचार्य विण और रे जाण, चेला करण तणा पचखांण। और साधा ने आवे प्रतीत, तेहवो भारमाल ने शिष्य करणो वदीत। भारमलजी री इच्छा होय, जद गुरु भाइ अथवा चेला ने सोय।
भार टोळा रो सूपे जश जाण, सर्व संत सतियां ने चालवो तसु आण॥ ___ बांधी ए परंपर रीत, सर्व . संत सतियां सुवदीत।
एकण री आज्ञा रे मांय, चालणो एहवी रीत शोभाय ।। साधु-साधवियां रो चाले मग्ग, जठा तांइ ए रीत उदग्ग। अशुभ कर्म रे योगे कोय, टोळा मां सूं फाड़ातोड़ो करि सोय॥ एक दोय त्रिण आदि निकळेह, हुवै बुगल ध्यानी बहू धुर्ताइ करेह।
तिण ने साधु श्रद्धणो नाहि, गिणवो नही चिउं तीर्थ मांहि ।। ८ ते चिहुं तीर्थ ना निदंक सोय, तेहने वांदे पूजे कोय।
ते पिण छै जिन आज्ञा बार, ए भिक्षु रा वयण उदार ।। कदा कोई दीक्षा ले फेर, अवर साधां ने असाधु श्रद्धायवा हेर। तो पिण उण ने साधु न सरधणो न्हाळ, उण ने छेड़विया तो ओ देवे आळ।। तिण री पिण बात न मानणी जेह, उण तो अनंत संसार आरे कियो दीसेह।
कदा कर्म धक्को दीधा कोय, टोळा थकी जो टळे तो सोय।। ११ उण रे टोळा रा संत सत्यां रा जाण, हूंता अणहूंता अंश मात्र पिछाण।
अवगुण बोळण रा पांचूं पद री आण, अनंत सिद्धां री साख करी पचखांण। १२ किण ही साधू साधवी रा जाण, शंका पड़े ज्यूं बोलण रा पचखांण।
जो कदाचित ओ विटळ होय, सूंस प्रते भांगे ते जोय॥
१. लय-लाला कृष्णपुरी १७६ तेरापंध : मर्यादा और व्यवस्था