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________________ ६१ अवनीतां नै कहि बतलावै, स्वामी, तिण में पिण जाणो मोटी खामी। अवनीतां नै ऊंचो करै कोइ हाथ, तिणरै निश्चै बंधै कर्म सात ।। ६२ अवनीतां रो जाय वखांण मंडावै, बले और लोकां नै बोलावै। जे कोइ इसडी करै दलाली, ते पिण धर्म सूं होय जायै खाली।। ६३ अवनीतां नै च्यार तीर्थ मांहै जाणे, ते पिण पहिले गुणठांणै। अवनीतां री कोइ करै पखपात, तिण रै आय चूको मिथ्यात ।। अवनीतां तूं करै आलाप संलाप, तिण रै पिण बंधै चीकणा पाप। अवनीतां नै वंदणा करै जोड़ी हाथ, तिण रै वेगो आवै मिथ्यात ।। ६५ अवनीतां री भाव भक्ति करै कोई, बले आदर सनमान दै सोई। तिण रै सरधा न दीसै साची, गुरु री पिण प्रतीत काची।। ६६ अवनीतां तूं करै विनय नरमाई, तिण रै लागी मिथ्यात री साई। घणो - घणो जो यां कनै जावै, तो सम्यक्त्व वैगी गमावै ।। ६७ अवनीत नै भागल पूरा, बले आळ दे कूडा-कूडा। अवनीतां री मांनै कोइ बात, ते तो बूड चूका साख्यात ।। ६८ कोइ भणवा रा लालच रो घाल्यो, त्यारै कने जायै कोई चाल्यो। ते तो गुरु रौ न मांनै हटको, तिण रो तो हूंतो दीसै छे गटको।। चरचा बोल सीखै त्यां आगै, तिण रै डंग मिथ्यात रो लागै। अवनीतां रो संसतो परचो न करणो, यांरो संग जाबक परहरणो।। सम्यक्त रा अतिचार संभाळो, तो अवनीतां नै दीजौ टाळो। जोवो आणंद श्रावक री रीत, राखै सूत्र री परतीत ।। ७१ औ अवगुण बोलै चिठाय-चिठाय, किण ही भोळा रै संक प. जाय। जो उ न करै त्यांरी पखपात, तिण रो काटणो सोहरो मिथ्यात।। ૭ર अवनीतां री गाढी झाळे पख कोई, ते नहीं छोडै झूठा जाणै तोही। ते बूडसी अवनीतां रै लारै, त्यां जैहलै दीयो जनम बिगाडै ॥ ७३ कोई लीधी टेक न म्हेलै, आपरै मन मांनै ज्यूं ठेळे। श्री जिन धर्म री रीत न जांण, मूढ मूर्ख थको यूंही तांणे॥ ७४ यां कनै करै पोसो समाई, यां कनै करै पचखांण जाई। तिणरी पिण जाणजो मति काची, जिन मारग में न कीधी आछी।। ७५ जे अवनीतां रा पखपाती, त्यांरी सुण-सुण बळ ऊठै छाती। अवनीतां रो करै उघाड़, जब पिण मूंहढो देवै बिगाड।। १. संस्तव - परिचय। लघु रास : ४०९
SR No.006153
Book TitleTerapanth Maryada Aur Vyavastha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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