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५२ तिण लेखे पिण थे इज भंडा, ज्ञानादिक गुण खोइ बूडा।
जो थे दोष कह्या यांमै कूडा, जब तो थे जाबक पूरा बूडा।। ५३ थे गुरां रै दिया अणहुंता आळ, हिवै रुळसो कितोएक काळ।
थे दोनूं विधि बूडा इण लेखै, साच झूठ तो केवळी देखै ।। ५४ छमस्थ ते तो यां अहिलाण, थानै जाबक झूठा जाणै ।
यां कनै पहिला अवगुण कहिवाय, पछै कष्ट करै इण न्याय ।। ५५ यारा वचन नै सैंठा झालै, यानै पग-पग झूठा घालै।" मूल :४६७ भिक्षु स्वाम इम रस रै मांय, अवनीतां नै इम ओळखाय ।
बले बुद्धिवंत 8 ते कहै, इम वाय दंड ओढ जाता गण मांय॥ ४६८ तीजै अविनीत पंचपदरै मांहि, नाम घाल्यो घणां दिन ताहि।
गणपति रै मुख वंदणा कीधी, मांहि आवा री इम धार लीधी। ४६९ अधिक अविनीत रै तिण सूं संभोग, गण में इण पिण धारोपरयोग।
. पंचम अवनीत पिण गण मांय, आवा नै त्यारी अथाय ।। ४७० कह्यो आप तो दीक्षा विण त्यागज लीधा, पिण स्वरूपचंदजी न कीधा।
इण विधि गण में आवा री धारी, जद दोष न रह्या लिगारी।। ४७१ पिण दीक्षा विण थांनै मांहि न लीधा, तिण सूं अवगुण अछता कीधा।
छठो गुणठांणो कहिता धर प्रेम, बले अवगुण बोले केम॥ ४७२ इण विधि थे तो प्रत्यक्ष अन्याई, थारी बोली में संधि न काई।
बुद्धिवंत हुवै तिके इण रीत, यांनै कष्ट करै धरी प्रीत॥ ४७३ स्वाम भिक्षु बले रास रै मांहि, त्यारो संग परचो वरज्यो ताहि ।
ते रास नी गाथा कहूं तूं सोय, ते सांभळजो . सहु कोय॥ भिक्षुकृत रास :५६ "अवनीत अवगुण बोलै अनेक, बुद्धिवंत न मांनै एक।
यांनै जांणै पूरा अवनीत, यारी मूल न आणे प्रतीत। ५७ अवनीतां रो करे विश्वास, तो हुवै बोध बीज रो नास।
च्यार तीर्थ सूं पड़िया कानै, त्यांरी बात अज्ञानी मानै। ५८ अवनीतां रो करै परसंग, तो साधां सूं जायै मन भंग।
औ साधां नै असाधु सरधावै, झूठा-झूठा अवगुण बतावै॥ ५९ अवनीतां रो जाय सुणै वखांण, तिण लोपी जिनवर आण।
अवनीतां री तहत करै कोई वाणी, आ दुरगति नी अहलांणी।। ६० किण रै अशुभ उदै हुवे आण, ते करै अवनीतां री तांण।
त्यां झूठा नै साचा दे ठेहराई, त्यारै अनंत संसार री साई॥ ४०८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था