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सरस गणपति
सुख वृधि
शरणा, सुगुरु आण मर्याद०॥
सोरठा २३ लिखत फतू मांहि, बारै बोल कह्या अछ।
वरस तेतीसै ताहि, निरणो कीज्यो जोयनै।। २४ ऊभी नै अवलोय, जो कीड़ी सूझै नहीं।
- विहार-सक्ति घट्या सोय, संलेखणा मंडणो मही।। २५ ए दोनू बोल अवलोय, फतूजी नै ईज छै।
अवरां रे नहिं कोय, न्याय पैंताळी लिखत में। २६ आंख्यादिक वृद्ध गिलाण, कारणीक जे कोई हुवै।
व्यावच तसु अगिलाण, करणी रूड़ी रीत तूं। संलेखणां री सोय, ताकीदी करणी नही।
वैराग वधै ज्यूं सोय, बीजा नै करणो सही। २८ विहार करण री रीत, काची निजर हुवै तदा।
बहु खप कर धर पीत, चलावणौ तेह नै सही।। २९ लिखत पैंताळी मांय, इण विध आख्यो स्वाम जी।
ते बिहुं बोल इण न्याय, फतूजी नैंइज छै।। ३० बीजा जे दस बोल, सगळी अज्या नै अछै।
लिखत अनेरा तोल, तेह में दस नी रहिस छै।। ३१ तेतीसा लिखत नी जोड़, मम कृत सोरठिया दुहा।
द्वादस तणों निचोड़, निरणय कीजो देखनैं।
१.देखें ढा. १८ ।
लिखतां री जोड़ : ढा० २ : ११