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________________ इकीसवीं हाजरी पंच सुमति तीन गुप्त महाव्रत अखंड आराधणां । ईर्ष्या भाषा एषणा में सावचेत रहिणो । आहारपाणो लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देख नै णो पूजतां परिठवतां सावधानपणै रहणो । मन वचन काया गु में सावचेत रहिणो। तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी । भीखणजी स्वांमी सूत्र सिद्धान्त देख श्रद्धा आचार प्रगट कीधा - विरत धर्म, अविरत अधर्म | आज्ञा माहै धर्म, आज्ञा बारै अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछे द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव रो मार्ग छै । तथा विविध प्रकार री मर्यादा बांधी। संवत् १८५० रे वरस मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो- सर्व सांधां नै सुद्ध आचार पालणो नै मांहोमां काढ़ो हेत राखणो । तिण ऊपर मर्यादा बांधी - कोइ टोळा रा साधसाधवियां में साधपणो सरधो तिको टोळा मांहे रहिजो, कोइ कपट दगा सूं साधां भेळो मांहि रहै तिण नै अनंता सिद्धां री आण छै, पांच पदां री आंण छै । साध नाम धराय नै असाधां भेळो रह्यां अनंत संसार बधै छै । जिण रा परिणांम चोखा हुवै ते इतरी परी उपजावो। किण ही साध - साधव्यां रा ओगुण बोल नै किण ही नै फार नै मन भांग नै खोटा सरधावण रा त्याग छै । किण सूं इ साधपणो पळतो दीसै नहीं अथवा सभाव किण सूं ही मिलतो दीसै नहीं अथवा कषाइ धेठो जांण नै कोइ कनै न राखे अथवा खेत्र आछो न बतायां अथवा कपड़ादिक रे कारणे अथवा अजोग जांण नै ओर साधु गण सूं दूरो करै अथवा आप नै गण सूं दूर करतो जांण नै इत्यादिक अनेक कारण उपने टोळा सूं न्यारो पड़े तो किणही साध - साधवियां री निंद्या करण रा ओगुण बोलण राहुतो अणहुंतो खूंचणो काढण रा त्याग छै । रहिसे- रहिसे लोकां रे संका घाल नै आसा उतारण रा त्याग छै। कदाच कर्म जोगे अथवा क्रोध रे वसै साध - साधवियां नै असाध सरधे आप में पिण साधपणो सरध नै फेर साधपणो लेवे तो पिण अठीरा साधसाधव्यां री संका घालण रा त्याग छै । खोटा कहिण रा त्याग ज्यूं रा ज्यूं पाळणा छै । पछै यूं कहिण रा पिण त्याग छै-म्हे तो फैर साधपणो लीधो, अबे म्हारे आगला सां रो अटकाव कोइ नही, यूं कहिण रा पिण त्याग छै । किण ही साध - साधव्यां ने साध-साधव्यां री आसता उतरै, साध आर्य्यां री संका पड़ै ज्यूं असाधपणो सरधे ज्यूं बोलण रा त्याग छै । किण ही साध आर्यां में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो, अथवा गुरां नै कहणो, पिण ओरां नै न कहिणो । घणां दिन आडा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उहीज छै, प्राछित रा धणी नै याद आवै तो प्राछित उण नै पिण लेणो । नहीं वे तो उण नै मुसकल छै । ए सर्व संबत् १८५० रा लिखत में कह्यो । तथा संवत् १८५२ रे वरस मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो - किण ही साध इकीसवीं हाजरी : २९५
SR No.006153
Book TitleTerapanth Maryada Aur Vyavastha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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