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है कि साधु-साध्वियां गृहस्थों के संग-परिचय में न फंसे। जयाचार्य ने लिखा है:१ "थे तो चतुर सीखो सुध चरचा रे, थे तो परहर देवो परचा।
ए तो परचा आछा नाही, तूं तो समझ राख हिया मांहि।। २ परचो राखे ते नर भोळा, तिण रो जीव करे डाळा डोळा।
परचा स्यूं ओळंभो पावै, तिणरी क्यां ही शोभा नहीं थावे।। ३ परचा वाळो जो क्षेत्र भोळावै, तो मन रळियायत थावे ।
परचा वाळे क्षेत्र नहीं मेलै, दो दाव कपट बहु खेले।। ४ पछै आमण-दमण थको जावे, पिण मन में तो बह दुख पावे।
रात-दिवस जाये हिंजरतां, परचावाळां रो ध्यानज धरतां।। ५ एहवा परचा रा फळ जाणी, तिण ने परहरे उत्तम प्राणी।
जिणरे परचा रो पड़ियो सभावो, छूटण रो कठण उपायो।। ६ जबर समझ हुवै हिया मांड्यो, तो उ तुरंत देवै छिटकायो।
तिण रे प्रीत औरा स्यूं पूरी, गणपति स्यूं प्रीत अधूरी।। ७ परचावाळा साहमों नहीं जोवै, बले नयण वयण नहीं मोवै।
परचो छूटण रो एह उपायो, जय गणपति एम जणायो। ८ परचा वाळा री भावना भावे, जाणै दरशण करवा कद आवै।
__ आयां देख हिये अति हरषे, जाणै जंवरी नग नै परखै। ९ उगणीसे वर्ष उगणीसे, मृगसर विद सातम दिवसे।
प्रथम मरजादा दिन सुखदायो, परचा नै जयजश ओलखायो। निद्रा, हास्य, विकथा, ये साधना के विघ्न हैं, इसलिए नींद को बहुमान न दें, हास्य और विकथा का वर्जन करें तथा ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मा को भावित करें।
निदं च न बहुमन्नेज्जा, सप्पहासं विवज्जए।
मिहो कहाहिं न रमे सज्झायम्मि रओ सया।। सज्झाय-सज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स। विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणो॥ महाव्रतों, समिति-गुप्तियों तथा गण की छोटी बड़ी सभी मर्यादाओं का सम्यग् पालन करने वाला मुनि आचार्य की आराधना करता है, श्रमणों की आराधना करता है, और सब लोगों की दृष्टि में वह पूज्य होता है। तथा जो उनका सम्यग् पालन नहीं करता, वह न आचार्य की आराधना करता है और न लोकों की दृष्टि में पूज्य होता है।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं।। आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं॥
परिशिष्ट : गणपति सिखावण : ४६१