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१०४ घणां भेळा रयां में दोष बतावै, विवेक रो विकळ धर्म रो धेखी।
लोळपी के कष्ट खमणो दुर्लभ है, तसु प्रकृति रोग के उलंठ विशेखी। १०५ गुरु छंदे रयां शीख सुमति वृद्धि हुवै, निर्मळ चरण नी धारणा होवे।
प्रकृति वश हुवे नित्य गुरु वच सुण, प्रत्यक्ष गुण ने तो मूढ़न जोवे ।। १०६ बाणी सुणी ने केइ सल्य काढ़े, दोष निर्दोष बहु बोल धारे।
संपति गणि नी वलि सारण बारण, इत्यादिक गुण ते मूढ़ क्यूं न विचारे। १०७ द्रव्य क्षेत्र काळ भाव जाणे, आचारज अवसर देख घणां भेळा राखे ।
अवसर देखे तो अल्प ठाणे रहे, पिण मूर्ख बिच में पड़ी कांइ चाखे॥ (१०१ चिणा रा होळा नै सेक्या मकीया रा कण ले। १०२ गोबूंदा में ओषद री लकरी वासी राखी।
१०६ पाछली रात रा पग मात्रा सूं छांदै, चोपडै) १०८ चणा रा होळा मकिया रा कण लेणा, शरीर रे राख मसळे निशि मांहि।
रात्रि लघु नीत स्यूं कर धोवे, तप्त मिटावा ने तन रे पिण लगाहि ।।
(१०७ डावडो पड़ेला आमना जणाइ खेतसीजी) १०९ ऊंची जायगां साधु उतरिया, डावडा२ ने कहै या नहीं रहणो।
ते पिण हेला निंदा टाळवा काजै, तिणरो जीवणो बंछी न बोलणो बेणो॥
(११० लिखत करावणौ नहीं) ११० लिखत करावै ते दृढ़ मर्यादा, तिण माहे दोष कहै ते अयाण ।
आचार्य नी आणां धारणा वर्तवो, प्रथम उद्देशे पंचमें ठाण ॥ १११ आचार्य ने दृष्टि चित्त केडे वर्तवू, सर्व कार्य में आगल तसु करणा।
प्रथम आचारंग पंचमध्ययनें, चोथा उद्देशा मांहि ए निरणा।। (११३ कपड़ो विना पडिलेह्यां न वैहरणो।
११६ आयाँ रे कपड़ो कह्यो ज्यूं पनों राखणो इत्यादिक घणा कहया) ११२ कपड़ो जाचे ते उपर स्यूं पडिलेहणो, आर्यां रे पछेवड़ी च्यार।
तीन हाथ रा पना री च्यारूं, राख्या में दोष न दीसे लिगार ।।
(१२० आहार किसी वार री मरजादा नहीं) ११३ आहार किसी बार करणो साधु ने, वृहतकल्प रे पंचमें उद्देशे न्याय।
सूर्य उग्यां थी वृत्ति आहार री, आथम्यां सुधी कही जिनराय ।। (१२१ आहार में घी सूं चूरे तो सवाद आवै। १२२ कोरी रोटी न भावे तो तरकारी ल्यावै।
५. कप्पसुत्तं ५।६
१. उदंड २. छोटा बच्चा।
३. ठाणं ५।१६७ ४. आयारो ५४६८
३५० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था