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प्रज्ञापुरुष जयाचार्य
छोटा कद, छरहरा बदन, छोटे-छोटे हाथ-पांव, श्यामवर्ण, दीप्त ललाट, ओजस्वी चेहरा--यह था जयाचार्य का बाहरी व्यक्तित्व।
अप्रकंप संकल्प, सुदृढ़ निश्चय, प्रज्ञा के आलोक से आलोकित अंतःकरण, महामनस्वी, कृतज्ञता की प्रतिमूर्ति, इष्ट के प्रति सर्वात्मना समर्पित, स्वयं अनुशासित, अनुशासन के सजग प्रहरी, संघ व्यवस्था में निपुण, प्रबल तर्कबल और मनोबल से संपन्न, सरस्वती के वरदपुत्र, ध्यान के सूक्ष्म रहस्यों के मर्मज्ञ यह था उनका आंतरिक व्यक्तित्व।
तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के वे अनन्य भक्त और उनके कुशल भाष्यकार थे। उनकी ग्रहण-शक्ति
और मेधा बहुत प्रबल थी। उन्होंने तेरापंथ की व्यवस्थाओं में परिर्वतन किया और धर्मसंघ को नया रूप देकर विकास का दीर्घायु बना दिया।
जयाचार्य ने राजस्थानी भाषा में साढ़े तीन लाख श्लोक प्रमाण साहित्य लिखा। साहित्य की अनेक विधाओं में उनकी लेखनी चली। उन्होंने भगवती जैसे महान् आगम ग्रंथ का राजस्थानी भाषा में पद्यमय अनुवाद प्रस्तुत किया। उसमें ५०१ गीतिका है। उसका ग्रंथमान है--साठ हजार पद्य प्रमाण। जन्म-वि.सं.१८६०,रोयट (पाली मारवाड़) दीक्षा-वि.सं.१८६६ जयपुर युवाचार्य पद-वि.सं.१८६४, नाथद्वारा आचार्य पद-वि.सं. १६०८, बीदासर निर्वाण-वि.सं. १६३८, जयपुर