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बड़ा आश्चर्य है कि रोग, जरा और मरण जैसे तीन-तीन भीषण शत्रु तुम्हारे पीछे चले आ रहे हैं। यह तो इनसे छुटकारा पाने के लिए पलायन का अवसर है, फिर भी अरे मूर्ख ! तुम सोए पड़े हो?
• चांद और सूरज दो बैल हैं, दिन और रात्रि घड़माल हैं। जलरूपी आयु कम होता ___ जा रहा है। यह मृत्यु एक विकराल रेहट है।'
ढाल दूसरी में-सुमति और कुमति का पार्थक्य दिखलाने की दृष्टि से देवरानी और जेठानी का रूपक अपने ढंग का एक नया उपक्रम है।
सुपात्र और कुपात्र के नीर क्षीर विवेक संबंधी कुछ पद्यों का निष्कर्ष इस प्रकार है० तैल ज्यादा होने पर मिट्टी में नहीं डाला जाता। बीज बहुत होने पर ऊषर में नहीं
बोए जाते। • सोना अधिक है, इसलिए क्या कोई बेड़ी बनाएगा? दूध है, इसलिए क्या कोई
सर्प को पिलाएगा? ० हाथी अधिक हैं तो क्या उन्हें कोई भार ढोने में काम लेगा ? धन बहुत है तो क्या
कोई कुपात्र पोषा जाएगा?३
धर्म वहां होता है जहां विवेक है। विवेक के बिना केवल धार्मिक कहलाने वाला मजाक का पात्र बनता है। इसी तथ्य का द्योतक एक बहन को संबोधित कर लिखा गया व्यंग्य कितना मार्मिक है :
१. ० तीन अरि लारै लग्या, रोग जरा मरण जान।
इण न्हासण रै अवसरे, क्यूं सूतो मूढ़ अयाण॥ ० बळद जेम चन्द सूर छै, दिवस रात्रि घड़माळ।
जळ आयु ओछो करै, ए काळ रेंट विकराळ।
उपदेश री चौपी, ढाळ २, गा० १-५ ३. जो तेल घणो तो. बेल माही न ढोलै।
बह बीज हवै तो, उषर में न झकोलै। घणो स्वर्ण हुवै तो, सांकल केम करावै। बहु दूध हुवै तो सर्प भणी किम पावै।। घणा गजेन्द्र हुवै तो, भार अर्थ स्यूं वावै तिम धन बहु है तो, किम कुपात्र पोषावै।। (ढाल ५, गा० २,३,४) ० कजिया झगड़ा राड, करवा तीखी घणी. महडे मंहपति बांध. बाजे बाई समझणी। ० गाळ्यां-गीत सराप, निन्दा करै पर तणी, पर नां मर्म प्रकाश, बाजे बाई समझणी। ० बाह्य क्रिया देखाय, फिरे श्रावका वणी, अन्तर कपट विशेष, बाजे बाई समझणी। ० नवकरवाळी हाथ, कै ली निन्द्या तणी, अहो निश पर नी बात, बाजे बाई समझणी।
(ढाळ १४, गा० १,५,६,१४)