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ढाळ १३ दोहा
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देवै श्रीजिन देशना, भाखै भिन-भिन भेद। चित्त लगाई सांभळो, आणी, अधिक उमेद ॥
'सांभळ श्रीजिन सीखड़ी, वारू बाण विसाल। सयाणा। अस्ति भाव सूं आविया, नव तत्व आदि निहाल ।सयाणा।।
__ सांभळ श्री ॥ध्रुपदं॥ पाप अठारै परहरो, धर चित्त संवर धीर। तप करि कर्मज तोड़िया, सिवपुर में हुवै सीर।। संजम तप सुध साचव्यां, सुभ फळ सुरपद सार । दुर्गति हिंसादिक कियां, दुर्गति दुःख दातार।। पुन्य पाप करि प्राणियो, संचरियै संसार। संवर निर्जरा सोभता, मेलै मुक्ति मझार॥ जिन-मार्ग जयकारियो, निर्मळ नै निर्दोख। धीरपणै जन धार नै, महिमागर वर मोख।। सुध जिन मार्ग सेव नै, सुर केइ होय दीपंत । ऋधि मोटी रळियामणा, महासुख महाजोत क्रांत।। चारु थित चिहूकाळ नी, विह. सोभै हार। मुकट कुंडळ मुख ऊजळो,। पेखत पांमै प्यार॥ बाजुबंध नै बेरखा, कड़ि कणदोरो कंत। छव गहिणा हियै छाविया, रतन तिलक भळकंत॥ महामागर वर मुद्रिका, निर्मळ गात्र निहाल। गल्लस्थळ नै रेखा पडै, वरै वस्त्र सुविसाल। सुख एहवा पामै सही, एक लहै अवतार। शिवपुर वेग सिधावसी, संजम तप फळ सार॥ महाआरंभी महापरिग्रही, पंचैद्री वध प्रताप। मांस भखै मदिरा पीयै, सहे नरक में संताप॥
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१. लय-स्वाम स्वरूप सुहामणा
उपदेशरी चौपी : ढा० १३ : १५१