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अधिक पुस्तकें थीं तो किसी के पास बिल्कुल ही नहीं। जयाचार्य के मन में यह बात अखरती थी अतः एक दिन आपने अग्रणी साधु-साध्वियों के सामने एक प्रश्न रखा-आप लोगों के साथ रहने वाले साधु-साध्वियां किसकी निश्रा में हैं ?
सभी ने एक स्वर में उत्तर दिया-आचार्य श्री की निश्रा में। तब आपने दूसरा प्रश्न किया-पुस्तकें किसकी निश्रा में है? सबने उत्तर दिया वे तो जिसके पास हैं, उसी की निश्रा में हैं। जयाचार्य-तब आप अपनी निश्रा की पुस्तकें दूसरे साधु-साध्वियों से कैसे उठवाते हैं ? अब से जो व्यक्तिगत पुस्तकें रखेगा, वह उनका भार स्वयं उठाएगा। अपने साथ वाले साधु-साध्वियों से नहीं।जयाचार्य की इस आकस्मिक घोषणा से सभी अग्रणी स्तब्ध हो गये। कुछ व्यक्तियों ने विनय-पूर्वक पूछा-गुरुदेव ! अकेले हम इतनी पुस्तकें कैसे उठायेंगे? आप आज्ञा दें, वैसे करें। तब जयाचार्य ने कहा-तो फिर संघ को समर्पित क्यों नहीं कर देते ? संघ अपने उसकी व्यवस्था करेगा।
उसी दिन से अनेक अग्रगण्य साधुओं ने अपनी-अपनी पुस्तकें लाकर जयाचार्य को तथा साध्वियों ने महासती सरदारांजी को सौंप दी। जयाचार्य ने उन सभी पुस्तकों को ग्रहण कर अपेक्षानुसार समर्पकों को देकर शेष पुस्तकें अन्य सिंघाड़ों में वितरित कर दी और एक मर्यादा बना दी कि अब सभी पुस्तकें संघ की होंगी। अतः चातुर्मास के बाद जब आचार्य के दर्शन करें, तब उन्हें वापिस सौंपना होगा। इसका फलित यह हुआ कि सामूहिक रूप से काम आने वाली सभी वस्तुओं पर व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं रहा।
दूसरा कदम था-श्रम संविभाग के संबंध में। प्रारम्भ से यह परम्परा चली आ रही थी कि कुछ सामूहिक कार्य दीक्षा-पर्याय में छोटे साधुओं को ही करने होते थे, भले ही वे वृद्ध क्यों न हों!
जयाचार्य ने उसको बदलकर उसके स्थान पर सभी सदस्यों के लिए श्रम करना अनिवार्य कर दिया।
इस प्रकार स्थान, आहार एवं धर्मोपकरण आदि किसी वस्तु पर किसी का व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं रहा, और एक धर्म सम्प्रदाय में अनायास ही एक ऐसी व्यवस्था का प्रादुर्भाव हो गया, जिसे समाजवाद के समकक्ष रखा जा सकता है।
समाजवादी व्यवस्था का प्रथम सूत्र है कि जीवन के साधनों पर किसी का व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं होना चाहिए। वे समष्टिक हैं, उसी के रहें, उसके अंग रूप में समान रूप से आवश्यकतानुसार सब के काम आएं। कोई किसी से सम्पन्न या विपन्न नहीं रहे। तेरापंथ साधु संघ में आज लगभग सात सौ साधु-साध्वियां हैं, उनमें किसी का भी आवश्यक धर्मोपकरण, आहार एवं आवास पर कोई स्वामित्व नहीं हैं। वे अणगार हैं, उनका अपना कोई आवास नहीं है। जहां भी जाते हैं, किसी का आवास मांग कर उसकी अनुमति से अपने नियत समय तक रहते हैं। उठते हैं, सोते हैं। आवश्यकतानुसार वस्त्र