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याचित करते हैं। उसका भी संविभाग होता है। किसी के पास प्रमाण से अधिक वस्त्र नहीं हो सकता और दूसरे से कम भी नहीं। आहार भी गृहस्थों के यहां से माधुकरी वृत्ति से थोड़ा-थोड़ा अनेक घरों से याचित करते हैं ताकि किसी पर भार न पड़े। प्राप्त आहार का संविभाग होता है।
भगवान महावीर ने कहा-'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो'-असंविभाग को मोक्ष नहीं मिलता। संविभाग के इस नियम का तेरापंथ में दृढ़ता से पालन होता है।
तेरापंथ के साधु-साध्वी देश भर में विहरण एवं चातुर्मास प्रवास करते हैं। हर दल के साथ वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि धर्मोंपकरण होते हैं जो उसकी जीवनचर्यां के लिए आवश्यक होते हैं, लेकिन किसी का उन पर अधिकार नहीं होता। वे संघ के अधिकार में होते हैं। चातुर्मास एवं विहारोपरान्त आचार्य के उपपात में आने पर दल का अग्रणी सहवर्ती साधुओं को उनके साथ के समस्त धर्मोपकरणों को तथा स्वयं को भी आचार्य के चरणों में समर्पित कर कहता है-'गुरुदेव ! ये आपके साध-साध्वियां. ये धर्मोपकरण, पुस्तकें, पात्र-वस्त्रादिक और मैं स्वयं को आपके चरणों में उपस्थित करता हूं। अब आप जैसी आज्ञा देंगे, वैसा ही करूंगा।' यह समर्पण किसी व्यक्ति या व्यक्तियों का दूसरे व्यक्ति के आगे नहीं, व्यष्टि को है।
दल के अग्रणी का भी अपने सहवर्ती सन्तों पर कोई स्वामित्व नहीं। सब साधुसाध्वियां एक आचार्य के शिष्य हैं, परस्पर गुरुभाई हैं। कोई किसी को अपना शिष्य नहीं बना सकता। आचार्य को ही दीक्षा प्रदान करने का सर्वाधिकार है। आचार्य की आज्ञा से आवश्यकतानुसार कोई भी साधु-साध्वी दीक्षा दे सकते हैं। लेकिन शिष्य रूप में नहीं, अपने ही एक कनिष्ठ गुरु भाई के रूप में धर्म संघ के सदस्य के रूप में सबको समान अधिकार है। सत्ता का स्रोत आचार्य हैं. उसकी आज्ञा प्रधान है। उसके द्वारा नियक्त अग्रणी उसी की सत्ता का संवाहक होता है। संघ में किसी का किसी पर अधिकार नहीं है। सब अन्ततः एकमेव आचार्य को, धर्म संघ को ही समर्पित है। अपनी व्यक्तिगत सत्ता का सम्पूर्ण विसर्जन समाजवादी व्यवस्था की अनिवार्य शर्त है, जिसका श्रेष्ठतम रूप तेरापंथ धर्म संघ में मिलता है।
विषमता का एक स्रोत पद होता है। तेरापंथ में कार्य का सम्यक् विभाजन है, उत्तरदायित्व का वितरण है, किन्तु पदों की व्यवस्था नहीं है। आचार्य स्वयं ही अपने उत्तराधिकारी को मनोनीत करता है जो उसके बाद अपना पद ग्रहण करता है। पद के लिए कोई उम्मीदवार नहीं हो सकता। धर्म संघ की व्यवस्था इतनी समतामूलक है कि विशेषाधिकार एवं पद का यहां अस्तित्व ही नहीं है। सेवा के लिए यहां भरपूर स्थान है, सत्ता के लिए किंचित भी नहीं । सेवा सब के लिए अनिवार्य है। रुग्ण एवं ग्लान साधुसाध्वियों की सेवा का दायित्व सब पर है, उसमें किसी को किसी भी आधार पर मुक्ति