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साधु जायगां पडिलेही विमास, हेठे सचित्त निकळ्यो तास।
घर असूझतो थयो ताय, कांइक आरे कीधो इण न्याय ।। १५ (६) गयो गृही घर बहिरण मुनिंद, तिण ने पहिला वरज्यो तज धंध।
तूं ऊठे मत कदाचित सोय, थारे हेठे सचित्त जो होय।। तिण सूं चोफेर जायगां पडिलेहूं, तथा और कने आहार लेऊं। इम बरज्यो तिण ने ऋषिराज, गृही उठ्यो बहिरावण काज।। हेठे सचित निकल्यो पिछाण, तेहिज असूझतो थयो जाण । घर असूझतो थयो, नाय आरे कीधो नहीं मन-मांय॥ घर बाहिर मुनि ने देख, गृहस्थ उठ्यो बहिरावण विशेख।
हेठे सचित्त देखी मुनिराय, तेहिज असूझतो थयो ताय ।। (८) घर बाहिर मुनि ने देख, अजयणा करी वस्तु विशेख।
आधी पाछी करे कोइ गृहस्थ, अशुद्ध थया दातार ने ते वस्त। (९) घर में आया देखी मुनिराज, असंयति गृही साधु रे काज।
साध नां नां करता जोरी दावे, सचित्त संघटा स्यूं वस्तु उठावे॥ थयो असूझतो ते दातार, बले वस्तु असूझती धार।
घर असूझतो नहि कहीज, किण ही क्षेत्र न लेणी ते चीज। (१०) मुनि ने खबर नहीं ते टाणे, साधु ने बहिरावण वस्तु आणे।
आवता सचित्त संघटीजे, ते दातार वस्तु असूझती कहिजे॥ (११) साधु आरे कीधो तिण वार, बहिरावण उठ्यो दातार।
सचित्त रहित पुरुष रो जोय, चालतां संघटो हुवो सोय।। २४ सचित्त रो संघटो हुओ नाहि, किलामना न उपनी कांई।
तिण ने असूझतो नही कहेणो, सुध ववहार जाणी ने लेणो॥ (१२) साधु दातार ने कियो आरे, सचित्त सहित पुरुष नो तिंवारे।
संघटो थया हुई जीव घात, इम असूझतो घर थात ।। किण ने कियो मुनि आर, बहिरावा ने चाल्यो दातार।
इतले किण ही मूळा री दीधी, तथा और सचित्त री प्रसिद्धी॥ २७ (१३) तथा बहिरावण जाता सागी, मेहादि जळ नी छांटा लागी।
घर असूझतो थयो तेथ, तिण दिन लेणो नहीं ते खेत ।। २८ (१४) कछोटी रे संघटै बैठी बाई, तिण रे सरीर लागे छै ताहि।
जळ लोट्यो लूण रो ठाम, कछोटी रे संघटे पड्यो ताम।। १. कठोती ३. बर्तन २. लोटा
३६० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था