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ढाळ ६ दोहा
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असूझतो घर किम हुवै, तसु विवरो कहिवाय।
असूझतो घर ना हुवै, ढाळ छठी में न्याय॥ गयो गोचरीये मुनिराज, गृही घर असणादिक काज। सचित्त स्यूं कर खरड्या के नाय, इसडी साधू रे मन-माय।। साधु वयोँ नहि ते प्रस्ताव, तुज कर सूं लेवा रा न भाव। थोड़ा घणो हलावी हाथ, गृहस्थ दिखावे मुनि ने विख्यात॥ साधु हाथ देख्यो अवलोय, सचित्त रत खरड्यो कर जोय। हुवो असूझतो घर तेथ, तिण दिन बहिरणो नहि ते खेत॥ आहार पाणी आदि वस्तु वरणी, बाजोटादिक राख कतरणी। तिणरी वस्तु ते क्षेत्र मझार, तिणहिज दिवस न लेणी लिगार॥ हुवो असूझतो ते खेत, तिहां दूजा री वस्तु सचेत । तिणहिज दिन मुनिवर लेवे, तिण मांय दोष कुण केढे ॥ सचित स्यूं खरड्यो के नाय, मुनि कहे तूं हाथ मति हलाय। वा पछे गृह हाथ हलाय, साधु ने बतावे ताय। साधु सचित्त स्यूं खरड्यो कर जाण, तिणरा कर स्यूंन लेवे पिछाण। तेहिज असूझतो हुवो सोय, घर असूझतो नहि कोय ।। मुनि गृही ने असूझतो देख, हां नां न कह्यो सुविशेख। तिणरा कर स्यूं लेवा रा न भाव, 'आरे कियो नहीं' ते प्रस्ताव॥ बहिरावा में उठ्यो धर मन्न, तेहिज असूझतो तिण दिन्न । घर असूझतो मत जाणो, आरे न कियो ते न्याय पिछाणो॥ किणरे मनुष्य घणां घर मांय, एकण ने आरे कीधो ताय। बीजा ने तो आरे नहीं कीधा, सहु उठ्या बहिरावण सीधा।। ज्यारे सचित्त रो संघटो होय, तेहिज असूझतो अवलोय । तिण दिन त्यांरा हाथ सूं न लेणो, पिण घर असूझतो नहि कहणो।। गृही घर गयो बहिरण मुनिराज, गृहस्थ उठ्यो बहिरावण काज। साधु हां नां कह्यो नहिं चाव, सूझतो छै तो लेवा रा भाव।।
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१. लय-विना रा भाव सुण सुण गूंजै।
२. स्वीकृति नहीं दे।
पंरपरा नी जोड़ : ढा०६ : ३५९