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सिंघाडे विचरे जे त्रिण चउ मुनि, बांधै बे जणां जिल्लो तिण मांय। टोळो भळायो तसु मुरजी बिना, ए पिण मोटो रोग कहाय।। दिसां' जावै त्यां पिण एकठ करै, आगे-पाछै जइ भेळा होय। मांहों मां गुह्य करै अळखामणा, त्यांरो च्यार तीरथ में अपजस होय॥ पेलां रा लाभ तणी बंछा करे, पांती में पामै नहीं संतोष। चोथे ठाणे दुख सेज्जा कही, ए पिण अवगुण छोड्यां मोख॥ बात उतरती सासण री करै, अविनीत साध श्रावक सूं प्रीत। आज्ञा मर्यादा सुध पाळे नहीं, इण लखणां जाण लीज्यो अवनीत।। सासण दीपावै सोभावै घणों, गणपति सुविनीतां तूं प्रीत । आराधै आज्ञा मर्यादा गुणी, इण लखणां जाण लीज्यो सुवनीत ।। संवत उगणीसै पच्चीस में, माघ वदि तेरस में रविवार । जोड़ कीधी जिल्लो ओळखायवा, जयजश आणी हरष अपार॥
३. ठाणं ४।४५०॥
१. जंगल । २. एकत्व।
१०६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था