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ढाळ ३
सं० १८५० में रूपचंद अखैरामजी ने भीखणजी स्वामी में १५९ दोष निकाले। उनको स्वामीजी ने लिपिबद्ध कर लिया। उन दोषों से कतिपय दोषों का जयाचार्य ने निम्नोक्त गीतिका में निराकरण किया है। दोष संख्यानुसार गाथाओं के पहले लिखे गये हैं। उनकी समग्र तालिका परिशिष्ट) में देखें।
दूहा रूपचंद अखैरामजी, अठारे पचासे पेख। गण सूं टळी भिक्षु मझै, काढ्या दोष अनेक ।। के यक बोल अछता कह्या, के यक बोल निर्दोष ।
जाणी भिक्षु थापिया, त्यां में कह्या अणहुंता दोष ।। ३ सूत्र थी तथा जीत थी, सुध ववहार सुजाण।
केयक बोल त्यां माहिला,. आखू उद्यम आण।। (१. रजूहरण सूं माखी उडावणी नहीं) ।
सुध' ववहार सुणो भवजीवा ॥धुपदं ।। ४ रजोहरण ने पूंजणी सेती, काम पड्यां साधु माखी उडावै।
ते पिण पक्की वायु री जेणा थी, तिण मांहि दोषण किणविध थावै।। ( २. सूर्य उगां विण पडिलेहण करणी नहीं) ५ चक्र दीठे छतै करै पडिलेहण, जद कीडियादिक प्रगट दृष्टि में आवै॥
तिण बेला आहार ओषध नहि लेणो, रवि प्रगट ववहार जाणी बहिर ल्यावै॥ (४. गोचरी नीकळ्यां पछै ठिकाणे आयां पेहिलां कठेइ वैसणो नही) ६ गोचरी गयां ठिकाणे आयां पहली, अंतर घर विण बेठां दोषण नांहि।
दशवकालिक पंचमारे पहिले उद्देशै, साधु ने आहार करणो कह्यो गोचरी मांहि। (५. बायां ने थानक में बेसण देणी नहीं। ६. बायां सूं चरचा बात करणी नहीं। ७. बायां साह्यो जोवणो नही। ८. बायां ने वैसाणे ते आछो खावा रे अर्थे)
१. लय-आ अनुकंपा जिन आगन्या में। २. दसवेआलियं ५।२।८२,८३
३४० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था