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२६ कोइ चारित्र लेवा उठीयो, केइ चारित्र पाळे ताय।
तिण चारितियां नै चारित्र थकी, भिष्ट करवा करै उपाय।। २७ उत्कष्टा ग्यांनी केवळी, त्यां रे संजम तप री समाधि।
ते तो प्रतिबोधे भव्य जीव नै, त्यां रा बोले अवगुणवाद।। २८ न्याय मार्ग छै सुध मुगत रो, तिण सूं तपतो रहै दिन रात।
तिण मार्ग सूं चूकाय दे, खोटी सरधा हिया में घात।। २९ आचार्य उवज्झाया त्यां कनै, साधु हुवो छोड़े मायाजाल।
बले भणियो सिद्धंत त्यां कनै, त्यां नै ही निंदे मूर्ख बाल।। ३० आचार्य उवज्झाया तेह नी, न करै सेवा भगत मन सुध ।
विनो वियावच पण करै नही, अहमेव पणां री बुध ।। ३१ आचार्य उवज्झाया त्यां कनै, ग्यांन दर्शन चारित्र पाय।
त्यां सूं पिण मूढ करै बरोबरी, बलै सनमुख झगड़े आय।। ३२ आचार्य उवज्झाया त्यां कनै, समझे कियो परत संसार ।
बलै संजम रे सनमुख किया, त्यां रा अवगुण बोले वारूवार॥ ३३ आचार्य उवज्झाया गण थकी, अवनीत नै देवै दूर टाळ।
जब अवनीत क्रोध तणे वसै, हेले दे दे झूठा आळ ।। ३४ आचार्य उवज्झाया तेह नी, वंदणा छुड़ावै संका घाल।
उत्तमा री उतारै आसता, दुष्ट अवनीत री ए चाल।। ३५ आचार्य उवज्झाया ऊपरै, कोइ पड़िवजै पूरो मिथ्यात।
तिण अवनीत नै संवलो सूजै नहीं, करै जोम' नै गाढ री बात।। ३६ कोइ बहुश्रुती निश्चै नही, ते कहै हुं छू बहुश्रुती साध।
मो बरोबर सुतर कुण भण्यो, अभिमांनी करै झूठो विवाद।। ३७ कोइ तपसी तो निश्चै नहीं, ते कहै हुँ छू तपसी घोर ।
तिण नै तीन लोक रा चोर सूं, उत्कष्टो कह्यो वीर चोर॥ ३८ बालक तपसी गरढा ग्लान छै, त्यां री न करै वैयावच देख।
ते छती सगत धेठो थको, बलै राखे त्यां ऊपर धेष।। ३९ बलै कपट केलव झूठो कहै, हुं करूं छू वैयावच ताय।
पिण दुष्ट परिणांमा तेह नै, उळटी देवे अंतराय ।। ४० कलह कारणी कथा कहै, बलै घालै मांहि-मांहि खेद ।
आंमी-सामी करै लगावणी, पाडै च्यार तीर्थ में भेद।।
१.अभिमान।
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तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था