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२७१ मृगसिर विद नवमी' तेजसी नै कही छै, सर्व साबत बात सही छै।
चौमासो उतस्यां मुनि राया, गुरु रा दर्शन करिवा आया। २७२ छठो अविनीत कहै गुरु आगै, सांभळजो अनुरागै।
हुं बे दिन त्यां रही गण मांहि आयो, घणी ढीलाइ देखी त्यां मांह्यो। २७३ विविध बेरीत जाण्यो त्यांरो ठागो, तिण सूं पाछो पगां आय लागो।
काती सुदि ग्यारस नदी रै मांह्यो, तिहां नाम चर्चा रै ते आयो।। २७४ मोनै कह्यो थे मांनो म्हारी बात, नहीं तो मरतूं करी अपघात।
नांगळो लेइ नै पासो लीधो, मुझ देखतां प्रगट प्रसीधो॥ २७५ नांगळो लेइ नै तिरछो नडीयो, पछै दाढ देइ अडवडीयो।
जद दया आइ म्हारै मन माह्यो, वचन दियो जावा रो ताह्यो।। २७६ छठै कही ए अधिक अविनीत री बात, ओछी अधिकी जाणै जगनाथ।
म्हारै पिण बैहम पड्यो मन मांय, तिण सूं चित्त विभ्रम अथाय॥ २७७ पिण तीनूं में जावा रा पचखांण, दूजा चौथा में जासू जाण ।
कदा ए फेर दीक्षा लेवै जाण, तो पिण यांमै जावा रा पचखांण। २७८ बले क्षेत्र में रहिवा तणा नेम, उतरती पिण करवा रा एम।
आचार्य रै मूंहढे ए जाण, किया जावजीव पचखांण। २७९ गुरु कह्यो त्यांग भांगै ए सोय, तो भव-भव रक्तपीती होय।
पछै गुरु नै वांदी नै गण सूं निकळियो, विचै अधिक अविनीतज मिलियो। २८० तिण लेवा रा किया अनेक उपाय, दिन इक निशि खप करी ताय।
तिण रै तो सैमल हुओ नाय, मिलियो दूजो चोथा सुं जाय।। २८१ अधिक अविनीत पूठा थी ध्यायो, ते तीनां कनै चल आयो।
त्यां भेळो थावा रो उपायज कीधो, पिण त्यां तिण नै मांहि न लीधो। २८२ दूजो चोथो छठो विहार करीनै, गया कोश अनेक चली नैं।
'धुर तीजो पंचम' तिण वेलो, आहार पाणी तीनां रै भेळो ।। २८३ तीनूंह गुरु दिश कियो विहार, गण में आवा री धार।
इह अवसर गणपति रै पायो, ओ तो 'बाव' थकी चल आयो ।। २८४ मूलजी कछी कुलंबी जांण, मुनि वेस श्रावक पहिछाण।
गुरु रो दर्शण करि बोल्यो ताम, आयो आपरा दर्शण काम।। २८५ बिच मांहि मिलिया तीन अविनीत, म्हांसूं बांधी अधिक प्रीत ।
मोनै दिख्या देवा उपदेश दीधो, कहै कार्य हिव तुम सीधो।।
१. कार्तिक विद नवमी होनी चाहिए।
२. चतुर्भुजजी, कपूरजी छोगजी,(लघु)।
३९२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था