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देख-देख ने हरखती कांइ, परम प्रीत अधिकाय। एहवा सिष गणपति तणी, करै विविध प्रकारे सहाय।। विविध सहाय करै घणां कांइ, सुरवर सुरी सुजाण। एहवा सिष गणपति तणों काइ, वारू सुणै वखाण।। वारू वखांणज सांभळे कांइ, अन्य समय पिण आय। एहवा सिष गणपति तणीं कांइ, सेव करै चित ल्याय॥ उत्तराध्ययन विर्षे कह्यो कांइ, प्रथम अध्ययनज अंत। विनयवंत ने पूजतां काई, चिहुविध देव सुतंत॥ च्यार जाति ना देवता, फुन मनुष्य तणां बहु वृंद।
ते पिण सिष सुवनीत ने, पूजै अति आनंद __ औदारिक तनु छोड नै काइ, पावै सिव पद तंत।
देव हुवै तो दीपतो कांइ, अल्प-रज' महर्द्धिवंत ॥ प्रवर चारित्र पाळण तणीं, निर्मळ जेहनीं नीत। आचारज गुण आगला कांइ, शिष्य सुगुणो सुवनीत ।। उगणीसै पणबीस में कांइ, बिद वैसाख सुबीज। सिष सुगुरु सेव्यां लहै कांइ, विविध प्रकारे रीझ ॥
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१.हळुकर्मी।
शिक्षा री चोपी: ढा० १८ : १०९