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जद मूढो बिगाडे, अवगुण बोलै, तिण पोता नो स्वार्थ ओळख्यो, पिण साधुपणो आज्ञा न ओळखी, इसा इहळोक रा अर्थी त्यां सूं विनय करणी आवणो अति कठिन छै। ए अवनीत रा लक्षण सर्व छोडै वनीत रा गुण सर्व आदरै पैंताळीसा रा वरस रा लिखत में अंशमात्र अवगुण बोलण रा त्याग कह्या छै। ते माटे उतरती बात करे ते भाग्यहीण, मन सहित सुणै ते पिण भाग्यहीण, तथा सुणी आचार्य ने न कहै ते पिण भाग्यहीण, यां तीनां नै तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।।
इति दशवैकाळिक' मैं कह्यो। ते आज्ञा अखंड आराध्या, इहलोक परलोक में सुख कल्याण हुवै।
इति जयाचार्य कृत बड़ी हाजरी।
१. दसवैकआळियं,५।२।४५,४०
गण विशुद्धिकरण बड़ी हाजरी : १९७