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१२ एहवा अभिमानी अविनीत लोकां कनै, एहवी जणावै ऊंधी रेस।
उतारे उत्तम साधां री आसता, तिण छोड्यो छै सतगुरु नो आदेस॥ १३ गुरु रा पिण गुण सुण नै विलखो हुवै, ओगुण सुणै तो हरषित थाय। ___एहवा अभिमानी अविनीत तेहनें, ओळखाउं भवजीवां नै इण न्याय॥ १४ कोइ प्रत्यनीक अवगुण बोलै गुरु ताणां, अविनीत गुरुद्रोही पासे आय।
तो उत्तर पडउत्तर न दै तेहनै, अभ्यंतर में मन रळियायत थाय।। १५ प्रत्यनीक ओगुण बोलै तेहनी, जो आवै उण री पूरी परतीत।
तो अविनीत एकट करै उणसूं घणी, ओ गुरु रा अवगुण बोलै विपरीत ।। १६ बले करै अभिमानी गुरु सूं बरोबरी, तिणरे प्रबल अविनय नै अभिमान।
ओ जद तद टोळा में आछो नहीं, ज्यूं बिगड्यो बिगाडै सड़ियो पान। १७ ओ खिण माहै रंग विरंग करतो थको, बले गुरु सू पिण जाये खिण में रूंस।
जब गूंथै अज्ञानी कूड़ा गूंथणा, और अविनीत सूं मिलवा री मन हूंस॥ १८ जो अवनीत नै अवनीत भेळा हुवै, तो मिल-मिल करै अज्ञानी गूझ ।
क्रोध रे वस करै गुरु री आसातना, पिण आपो नहीं खोजै मूढ अबूझ।। १९ जो अवनीत अवनीत सूं एकट करै, ते पिण थोड़ा में बिखर जाय।
त्यारे क्रोध अहंकार नै लोळपणो घणो, ते टोळा में केम खटाय॥ २० उणनै छोटै नै छांदै चलावण तणी, ते पिण अकल नहीं घट माय ।
बडां रै पिण छादै चाल सकै नहीं, तिण अवनीत रा दुख माहे दिन जाय॥ पुस्तक पाना नै वस्त्र पातरा, इत्यादिक साधु रा उपधि अनेक।
गुरु और साधां नै देता देख नै, तो गुरु सूं पिण राखै मूरख धेष ।। २२ जब करे माहोमां खेदो ईसको, बले बांछै उत्तम साधां री घात।
तिण जन्म बिगाड्यो करे कदागरो, करे माहोमां मन भांगण री बात। २३ एहवा अभिमानी अवनीत री, करे भोळा भारीकर्मा परतीत।
उणरा लखण परिणाम कह्या छै पाड़वा, कोइ चतुर अटकळसी तिण री रीत॥
अथ इहां पिण अवनीत नै ओळखायो-गुरु रा गुण सुणी विलखो हुवै, अवगुण सुण राजी हुवै, तिण नै अवनीत कह्यो। प्रत्यनीक अवगुण बोलै तिण नै उत्तर पडुत्तर न देवै मन में रळियायत हुवै तिण नै अवनीत कह्यो। आज्ञा विना दीक्षा देवै खिण में रंग विरंग हुवै। विनीतां सूं इ ईसको
गण विशुद्धिकरण बड़ी हाजरी : १९३