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________________ १ २ ३ ४ ५ ६ 60 ८ 'विनो कीजै एहवा सतगुरु तणो रे || ध्रुपदं ॥ आज्ञा मझै रै, समीप रहै तो रुड़ी रीत । चेष्टा रे, तिण नै श्रीवीर को सुवनीत ।। मूळ छै, विनय निरवाण साधन रो काज । पड़या, ते गया संजम तप सूं भाज॥ अवनीत भारीकर्मा एहवा || ध्रुपदं ॥ ते प्रत्यनीक अंतर में गुरु नो पापियो, उण तत्त्व न जाण्यो रूड़ी रीत । उण रैकूड-कपट नै धेठापणो घणो, तिणनै श्रीवीर कह्यो अवनीत ॥ जो तप कर काया कष्टै आपणी, तै जश कीरत कै खावा ध्यान । के पूजा श्लाघा रो भूखो थको, पिण विनय करणो नहीं आसान ॥ अवनीत नै आपो दमवो दोहिलो, तिणरा अथिर परिणाम रहे सदीव । ओ किणविध पाळे गुरु री आगन्या, जे क्रोधी अहंकारी दुष्टी जीव ॥ कोइ गुरु री आज्ञा लोपी चेलो करै, तिण छोडी छै जिण शासण री रीत । ते फिट-फिट होसी समझं लोक में, परभव में पिण होसी घणो फजीत ॥ वैराग्य घट्यो नै आपो वस नही, तिण रै रहे चेला करण रो ध्यान । उण नै शिष्य मिल्यां तो शिथिल पड़ै, बले वधै लोळपणो नै अभिमान || ९ विनीत शिष्य रे शिष्य री मन ऊपनी, पिण गुरु री आज्ञा विन न करै चाव। तिण आत्मा दमनै इन्द्र्यां वस करी, शिष्य मिल्यां न मिल्यां सरल स्वभाव ॥ जो अवनीत आगै घर छोड़े तेहनै रे, तो वनीत बोलै सुत्तर रै न्याय । हुं गुरु री आज्ञा विन चेलो किम करूं, हूं दिख्या दे सूंपूं गुरु नै जाय ॥ १० केइ उपगारी कंठकळाधर साध री, प्रशंसा जश कीरत बोलै लोग । अविनीत अभिमानी सुण-सुण परजलै, उण रै हरष ११ जो कंठकळा न हुवै अवनीत रै, तो लोकां आगे बोलै विपरीत । यां गाय गाय रिझाया लोकां भणी, कहै हूं तत्त्व ओळखाउं रूडी रीत ॥ घटै नै बधै सोग || जे चालै निरंतर गुरु री ते जाणवर्ते गुरु री अंग विनय तो जिन शासण रो जे विनय करण सूं उपराठा १. लय : आउखो टूट्यां नै सांधो को नहीं । १९२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
SR No.006153
Book TitleTerapanth Maryada Aur Vyavastha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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