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ढाळ ३३
'सुमत सदा हिरदै धरो रे लाल॥धुपदं॥
कुमति दिशा अति छोड़ नै रे, सुमति दिशा दिल धार रे सोभागी। आचार्य उवज्झाय पे रे लाल, घर छोड़ थयो अणगार रे सोभागी।। वमन पित्त रुधिरे भर्यो, तन उदारीक असार । सड़ण पड़ण विधंसण सभाव छै, वर्ण हेते करै आहार।। रूप रस गन्ध फर्श कारणे, करै असणादिक नों भोग। एह भव तीर्थ च्यार में, हेलवा निंदवा जोग।। सरस आहार स्वाद कारणे, खाए सराय-सराय । चारित्र नां है कोयला, बले और अनर्थ है आय ।। तन फुटराइ२ कारणे गोरादिक वर्ण काज। मूर्छा थको आहार भोगवै, त्यांरी परभव किम रहसी लाज। कै जीभ्या रा लोळपी, ए भव फिट-फिट होय। परभव दुख पामे घणां, विविध प्रकार नां जोय।। इम जाणी लोळपणों तजै, टाळे आतम दोष। राग द्वेष तजतां थंका, पामै चारित्र पोष॥
१. लय-सीता अगन में पेसतां रे। २.सुन्दरता
शिक्षा री चोपी : ढा० ३३ : १३३