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गणपति सिखावण ११. (पृष्ठ ६१ टिप्पण ३ से संबंधित)
मर्यादा पत्र
( परिषद् में वाचन के लिए आचार्य श्री तुलसी द्वारा प्राचीन मर्यादा पत्र के आधार पर संगृहीत) सर्व साधु-साध्वियां पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति की अखण्ड आराधना करें। ईर्या, भाषा, एषणा में विशेष सावधान रहें । चलते समय बात न करें। सावद्य भाषा न बोलें। आहार पानी पूरी जांच करके लें। शुद्ध आहार भी दाता का अभिप्राय देखकर हठ-मनुहार से लें। वस्त्र - पात्र आदि लेते व रखते समय तथा 'पूंजने' व 'परठने' में पूर्ण सावधानी बरतें, प्रतिलेखन व प्रतिक्रमण करते हुए बात न करें।
भिक्षु स्वामी ने सूत्र सिद्धान्त देखकर सेम्यक् श्रद्धा और आचार की प्ररूपणा की। त्याग धर्म, भोग अधर्म, व्रत धर्म, अव्रतअधर्म, आज्ञा धर्म, अनाज्ञा अधर्म, असंयति के की बांछा करना राग, मरने की बाच्छा करना द्वेष और संसार समुद्र से उस के तरने की बाच्छा करना वीतराग देव का धर्म है ।
भिक्षु स्वामी ने न्याय, संविभाग और समभाव की वृद्धि के लिए तथा पारस्परिक प्रेम, कलह - निवारण और संघ की सुव्यवस्था के लिए अनेक प्रकार की मर्यादाएं की उन्होंने लिखा
१ सर्व साधु साध्वियां एक आचार्य को आज्ञा में रहें ।
२ विहार, चातुर्मास आचार्य की आज्ञा से करें ।
३ अपना-अपना शिष्य (शिष्याएं) न बनाएं।
४ आचार्य भी योग्य व्यक्ति को दीक्षित करें। दीक्षित करने पर भी कोई अयोग्य निकले तो उसे गण से अलग कर दें।
५ आचार्य अपने गुरु, भाई या शिष्य को अपना उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियां सहर्ष स्वीकार करें।
गण की एकता के लिए यह आवश्यक है कि उसके साधु-साध्वियों में सिद्धान्त या प्ररूपणा का कोई मत भेद न हो। इसीलिए भिक्षु स्वामी ने कहा है- "कोई सरधा, आचार, कल्प या सूत्र का कोई विषय अपनी समझ में न आए अथवा कोई नया प्रश्न उठे वह आचार्य व बहुश्रुत से चर्चा जाए, किन्तु दूसरों से चर्च कर उन्हें शंकाशील न बनाया आचार्य व बहुश्रुत साधु जो उत्तर दे, वह अपने मन में जचे तो मान ले, न जचे तो उसे 'केवली' गम्य कर दें, किन्तु गण में भेद न डालें, परस्पर दलबन्दी न करें ।”
गण की अखण्डता के लिए यह आवश्यक है कि कोई साधु-साध्वी आपस में दल
४५८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था