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'बाजे बाई समझणी ॥धुपदं ।। असणादिक असुध, दीये साधां भणी, आप डूबै ओरां न डूबोय के। उद्देसीक नितपिंड आहार, देवण हुलसी घणी, डरे नहीं मन मांय ।। कजिया झगड़ा राङ, करवा तीखी घणी, मुंहडे मुहपति बांध।। हिंस्या झूठ अदत्त, लेवै न चूकै अणी, करत कतोहळ ख्याल ।। गाळ्यां-गीत सराप, निंदा करे पर तणी, पर ना मर्म प्रकास। बाह्य क्रिया देखाय, फिरे श्रावका बणी, अन्तर कपट विशेष ।। करलो वचन कहै कोय, जाणै आई भूतणी, धुकती रहै क्रोध मांय॥ मो सम कुण छै ओर, हूं छू सभा मंडणी, मगरूरी बहुमान।।
कपट झपट नै झोड़, झखाळ करै घणी, ठगारी श्रावका जाण।। __ कुगुरु कुदेव कुधर्म नी, महिमा करै घणी, सुगुरु सुदेव सूं द्वेष।।
संत मुनि नै देख, मुंह मचकोड़णी, अनाचारयां स्यूं पीत।। धर्म द्वेषी स्यूं हेत, नाम श्रावका बणी, जोड़ी जुगती मिली आण।
नवतत्त्व री नहीं ठीक, बणी बडधर्मणी, अहोनिश आरत ध्यान।। १४ नवकरवाळी हाथ, कै ली निन्दया तणी, अहोनिश पर नी बात।।
सामायिक पोसा मांहि, करै विकथा घणी, न मांनै किण री सीख।। १६ करै समाई मांहि, बात पेला तणी, आपो बखाणे आप।। १७ मत करो बायां बात, समाई में घणी, रीस करै मन मांहि ।।
आधाकर्मी आहार, देवा हरखी घणी बलै तिण में जांणै धर्म ।।
घालै थानक में गार, छ काया नै मरदणी, दडै लीपै साधु रै काज।। २० पड़दा परेच कनात, बांधण आघी घणी, मूळ न जाणै दोष ।। २१ इसड़ी सुणियां बात, दोरी लागै घणी, पिण जोर लागै नहीं कांय ।।
पाप पोट बहु बांध, बणी नरक बींदणी, न जाणै धर्म नै कर्म ।। मूंहडे मुंहपती बांध, हाथै लीधी पूंजणी, बाणी बोलै सखर सवाद।। निरलज लज्जा रहीत, धूतारी कांमणी, राखै मन ना दुष्ट व्यापार ।।
साध साधवियां रे मांहि, भांत घलावणी, उभां ही देवै लड़ाय ।। २६ मोसा मर्म प्रकास, पर घर भांजणी, देवै अछता आळ।। २७ इसका खेदा करै ताहि, कर्म बहु बांधणी, मर नै दुरगति जाय।
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१. लय-मत करज्यो
अहंकार।
उपदेश री चौपी : ढा० १४ : १५५