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________________ होने वाली हरकतों का चित्रण हैं यद्यपि इस कृति में किसी व्यक्ति का नाम नहीं लिया गया है किन्तु इतिहास के अवलोकन से जो इसके नायक सिद्ध होते हैं वे हैं-तेरापंथ के तृतीय आचार्य रायचन्दजी के पास सं. १८८० में दीक्षित होने वाले जयपुर के मुनि श्री फतेचन्दजी। ये जाति के सरावगी थे। स्त्री को छोड़ कर वैराग्य भाव से दीक्षा ग्रहण की थी, किन्तु छिद्रान्वेषी प्रकृति के होने के कारण थोड़े दिनों के बाद ही संघ के अन्दर दलबन्दी सी करते हुए छुप-छुप कर गण के साधुओं के अवर्णवाद बोलने लगे और मतभेद डालने लगे। पर यह बात कब तक छिपी रह सकती थी? पता लगने पर पूछा गया तो इन्होंने शंकाएं रखीं। उनके समाधान के साथ प्रायश्चित्त दिया गया। पुनः वैसा करने का प्रत्याख्यान करते हुए एक लिखित भी लिखा। किन्तु अपनी प्रकृति नहीं बदल सके और सं. १८९० में अलग हो गए और तीन दिन तक बहुत अवगुण बोले। संघ में ३२ दोष निकाले। इन्ही सारे प्रसंगों की इस ढाल में विस्तृत चर्चा और स्पष्टीकरण है। इसको १ ढाल है जिसमें १५ दोहे, ३ सोरठे तथा १८० गाथाएं हैं तथा ९ पद्य परिमाण वार्तिका है। कुल मिला कर इसके २०७ पद्य हैं। सं. १९३३ चै. शु० २ के दिन इसकी सम्पूर्ति हुई। उपसंहार इस प्रकार इन अलग-अलग कृतियों में तेरापंथ संघ में अनुशासन और व्यवस्था संबंधी अनेक आवश्क बातों का सुन्दर समावेश हुआ। ये कृतियां क्रमबद्ध नहीं लिखी गई हैं, अतः कई स्थलों पर पाठकों को पुनरावृत्ति का भी आभास होता है। पर यह तात्कालिक नई-नई व्यवस्थाओं को जमाने की दृष्टि से अत्यन्त आवश्क था। श्रीमज्जयाचार्य ने अपनी सूझबूझ और दूरदर्शिता से दुर्गम पथ को भी सरल एवं सार्वजनिक बना दिया। उस पथ को सजाने, संवारने में इन कृतियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। . श्रीमद्जयाचार्य के शताब्दी-समारोह के पुण्य प्रसंग पर उनके बहुमुखी विशाल राजस्थानी साहित्य का परम श्रद्धेय आस्थाकेन्द्र युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी एवं महामहिम युवाचार्य श्री (वर्तमान में आचार्यश्री) महाप्रज्ञ के निर्देशन में सांगोपांग सम्पादन हुआ । मुझे भी इस ग्रन्थ के माध्यम से उस कार्य में सम्पृक्त होकर श्रीमज्जयाचार्य के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करने का सहज मौका मिला। इसके लिए अपने आपको कृतार्थ मानता अपनी बात इस ग्रन्थ के सम्पादन में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य पाठ-निर्धारण का था। यद्यपि मुनिश्री नवरत्नमलजी की देख-रेख में अत्यन्त परिश्रम-पूर्वक इसमें समाविष्ट कृतियों की पांडु लिपियां पहले ही तैयार हो चुकी थीं, फिर भी मूल प्रतिलिपियों से उनका मिलान और शंकास्पद स्थलों को पाठ्य निर्धारण-कार्य दुरुह और श्रम साध्य था। विविधमुखी प्रवृत्तियों में अत्यन्त व्यस्त होते हुए भी श्रद्धेय गुरुदेव श्री तुलसी ने उसके लिए मुझे
SR No.006153
Book TitleTerapanth Maryada Aur Vyavastha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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