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मुक्त समय प्रदान किया, इससे मेरा कार्य काफी सुगम हो गया। पूज्य प्रवरों के प्रति अपनी भाव-भीनी श्रद्धा समर्पित करता हुआ यह कामना करता हूं कि मेरे हर क्षेत्र में इसी तरह वरद सान्निध्य तथा प्रेरक संबल प्राप्त होता रहे और मैं अपनी मंजिल की ओर बढ़ता रहूं।
प्रथम वार यह पुस्तक 'जयाचार्य शताब्दी समारोह' (अनुशासन-वर्ष) के संदर्भ में सन् १९८३ में प्रकाशित हुई थी। यह सुखद संयोग की बात है कि अब इसका पुनर्मुद्रण 'आचार्य भिक्षु निर्वाण द्विशताब्दी' के शुभ अवसर पर हो रहा है।
आचार्य भिक्षु अनुशासन के पुरोधा थे। वे तेरापंथ धर्म संघ को अनुशासन का उदाहरण बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने विभिन्न प्रयोग किये तथा प्राण संचारक बहुमूल्य सूत्र प्रदान किये। वर्तमान परिस्थिति में उनकी अत्यन्त अपेक्षा लग रही है।
यह कृति जन-जन में अनुशासन, मर्यादा एवं संगठन के प्रति जागरूकता पैदा करने में हेतुभूत बने, इसी शुभाशंसा के साथ।
मुनि मधुकर
वि० सं० २०६० माघ शुक्ला ३ जलगांव (महाराष्ट्र)