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९१ असाधु टालोकर नै सरधै साध, साधां नै सरधै असाध।
दोनूं प्रकारै मूरख बूडै, ते पिण जाय बैसती तूंडै।। ९२ एहवा अभिमानी नै अविनीत, होसी चिहुं गति मांहि फजीत।
यांनै मूंडा कह्यां लोकां आगै, यां रा पखपाती रै दाह लागै। ९६ ए अवनीतां रा कह्या अहलाण, कोई आप म लीजो तांण।
__ अवगुण एहवा छै जिण मांय, ते छोड्यां विण सुख नहीं थाय। ९४ अविनीत तो बके घणा दिन रात, कूड कपट सहित करै बात।
विविध पणै देवै छै आळ, कर रह्या झूठी झंखाल॥ ९५ रास माहै टाळोकर नै ताम, इम ओळखाया भिक्खु स्वाम।" मूल :४७४ अधिक अविनीत प्रमुख चिहुं ताहि, बीजा चोथा सूं करि निरमाइ।
पोतै प्राछित ले संभोग रो नाम, कीधो प्रपंच रै काम।। ४७५ तीजो चउथो अविनीत तिवार, कर दियो तुरत विहार। ___इण विधि करै जुदा कदे भेळा, जांणै नाचै कुबुद्धि खेला।। ४७६ ए कपट अर्थे कीयो नाम संभोग, पोतै दंड लेई घाल्या सोग।
ते पिण ठागो बिखर जासी ताम, घणी फूट फजीती पांम।। ४७७ चोथो अविनीत जसोल थी धार, आयो गणि पै 'वीठोजै' वे वार।
बे कर जोड़ खमावै सोय, कहै आपरो सरणो मोय ।। ४७८ काळवादी प्रमुख नीकळ्या ताय, गया थोड़ा मांहि विललाय।
ओहिज शासन छै सुविसाल, रहितो दीसै बहु काळ ।। ४७९ आपरा अवगुण बोलूं न कांई, बले पर नै बोलण देऊं नाही।
शासण सन्मुख हूं तो छू सार, भलो बांळू शासण रो उदार। ४८० आप तो मौनै साता उपजाई, काम काज असणादिक ताही।
मघराजजी रा पुन्य अति भारी, यांनै अडचल न हुवै लिगारी।। ४८१ पोथी पांनां हूं उपाडूं जेह, मघराजजी रा छै एह।
म्हां दोयां सूं निरमाइ बहु करी तांम, तिण सूं संभोग रो कीयो नाम। ४८२ ते पिण बीजा ने दंड दिराय, कियो संभोग रो नाम ताय।
जय कहै-थे निकळिया सोय, नव मास पछै अवलोय। ४८३ छठो अवनीत निकळियो ताय, थारै लेखै नवी दीक्षा आय।
दोय मांहि आया एक वंदणा में नाम, त्यांनै दंड दिरायो ताम।।
३. सन्तोजी।
१. नम्रता। २. कपूरजी
लघु रास : ४११