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'नंदन वन भिक्षु गण में वसोरी, हे जी प्राण जाय तो पग म खिसोरी । नंदन वन० ।। धुपदं ॥ गण मांहि ज्ञान - ध्यान सोभेरी, हे जी दीपक मंदिर मांहि जिसोरी टाळोकर नो भणवौ न सोभै, नाक विना ओ तो मुखडुं जिसो ॥ अवनीत री देसना न दीपै, गणिका तणों सिणगार जिसो || दुखदाई क्षुद्र जवा सरीखो, निंदक टाळोकर वमन जिसो ॥ सासण में रंगरत्ता रहो, सुर शिव पद मांहि वास बसो | भाग्य ले भिक्षुगण पायो, रत्न चिंतामणि पिण न ईसो ॥ गणपति कोप्यां ही गाढा रहो, समचित सासण मांहि लसो ॥ आड- डोड चित में म आणो, मोह कर्म नों तज दो नसो ॥ बार-बार यों कहियै तुम्है, अचल रहो पिण मति रे सुसो || खेल खिलाड्यां रो याद करो, अडिगपणें थे तो गण में बसो ॥ उणी गुणतीस फागुण री, जयजश आणा में सुख विलसो ॥
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१. लय : मन वृंदावन जाय वस्यो री । ११४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था