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________________ ५३१ सरधा आचार सर्व बात सीधी, पक्की आसता धार लीधी। च्यार तीर्थ देखंता प्रसिधी, माह विद अष्टम दीक्षा दीधी।। ५३२ निज आतम ना अवगुण गावै, वारंवार अपराध खमावै। कर्म जोग करि गण सूं टळीया, अवगुण बोल्या अलीया॥ ५३३ भाग्य दिशा अधिकेरी कहाय, तिण सूं आया शासण मांय। तसुं न्यारा थका अवगुण बोलंता, हिव निज आतम निदंता ।। ५३४ आप तीर्थंकर देव समान, गुण इत्यादिक प्रधान। आगै छोटा हुंता त्यां संतां नै जान, करै नमस्कर तज मांन।। ५३५ शासण री सहु रीत प्रसिधी, अंगीकार सहु कीधी। बडै मोती ऋष चैत्र मास रै मांहि, कह्यो अधिक अवनीत नै ताहि।। ५३६ थे कुलवंत जातिवंत धार, किम निकळिया गण बार। जद कहै मन में जांणी हुंती कांई, और री और हुय गई त्यांही॥ ५३७ गण बार मै रहिसां यांही, आ सुपनैई जांणी नांहि। मोती ऋष कह्यो अवैई विचारी, आतम भणी सुधारो॥ ५३८ अधिक अविनीत बोल्यो इम वाय, अब तो धार लीधो मन मांय। भीखणजी स्वामी नै श्रद्धो स्यूं जाणो, जद कह्यो तीर्थंकर समाणो॥ ५३९ भिक्षु भारीमाल ऋषिराय आराधूं, म्हां निकळियां पहिला सऊ साधू। चैत्र मास में ए हुइ बात, मोती ऋषि सूं साख्यात।। ५४० अधिक अविनीत नै पंचम अविनीत, जद दोनूं भेळा कुपीत । थोडे दिवस तूंटण हुई प्रसिद्धो, अधिक अविनीत नै छोडी दीधो।। ५४१ पंचम अविनीत तिहां थी सीधी, गणपति नहीं दिशि लीधी। घणां कोसां थी आयो चलाय, गणपति पासै ताय ।। ५४२ गणपति पूछयां उत्तर दियो एम, सांभळजो धर प्रेम। अढी द्वीपना तस्कर घोर, त्यां सूं टाळोकर अधिका चोर॥ ५४३ हूं पिण अढी द्वीपना चोर, ज्यांसू अधिको घोर। इम कहीनै नवी दिख्या लीधी, छेदोपस्थपनीक प्रसिधी॥ ५४४ वैशाख विद सातम लीधी दिख्या, घणा संत देखता सु सिख्या। अधिक अविनीत री बहु कपटाई, तिण सूं जाणी दियो छिटकाई।। ५४५ ऊपर सूं तो मीठो बोलतो, पिण मन में छल खेलंतो। बलि मुझ कहितो वच एम, थारै म्हारै ए प्रेम ।। ५४६ जाणक पूर्व भवनो रागो, तिण सूं मिल्यो ए सागो। बलि कहितो थे बाजोट ऊपर बैसो नाहि,तो हूं पिण न बैतूं ताहि॥ लघु रास : ४१५
SR No.006153
Book TitleTerapanth Maryada Aur Vyavastha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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