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दोहा
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१ क्रोधी मांनी लोळपी, वलि अविनय कपट अथाय।
(तिण री) वणी खुराबी अति घणी, ते सुणज्यौ चित्त लाय॥ चौपाई'षट अवनीत' तणों अधिकार, ते सांभळज्यो बह विस्तार। मूळगा नाम अछै तसुं ताही, ते तौ इहां नहीं कहिवाई।। अधिक अवनीत दूजो तीजो ताम, चौथो पांचमो छठो ए नाम। एहिज नाम संज्ञा थी जांणी, ते ओळख लीज्यो पहिछांणी॥
हिवै अधिक अवनीत वर्णन अपछंदा' अविनीत, टाळोकर होसी घणा फजीत ॥ध्रुपदं॥ गण मांहि एक अधिक अवनीत, तिण दुष्टी री खोटी रीत।
स्वार्थ पूगतो जाण्यो तिवार, जद गण में अधिक हुँसीयार। ५ स्वार्थ काजै गुरु नै अधिक रीझावै, गण गणपति रा गुण गावै।
जाणै आचार्य-पदवी म्हारै घरे आसी, ओ तौ पुद्गल सुख नों प्यासी॥ तिण सूं गण में रहै घणुं फळियो नै फूळ्यो, ओतो आपरै स्वार्थ भूल्यो।
बले साधां नै डरावी कहै इम ताम, थारै पड़सी म्हांसूइज काम॥ ७ परम भक्ता गुरु रो अति पूरो, निज स्वारथ काज सनूरो।
सासण नै ओ तो अधिक दिढावै, गुरु रा गुण पिण अति गावै॥ ८ मुझ बंधव नै पदवी आसी, तो म्हारो कुडव-काण बध जासी।
मुझ घर पदवी आसी अमोल, तिण सूं म्हारौ पिण रहिसी तोल।। बंधव रै तो संजम नी नीत, इण रै स्वारथ री छै प्रीत ।
पछै स्वार्थ पूगतो जाण्यो नांही, जब कलुष भाव मन मांहि ।। १० जिम-जिम स्वारथ देख्यौ हीन, तिम-तिम होय गयो दीन।
जिम-जिम स्वारथ घटतो दीठो, तिम-तिम क्रोध अंगीठो॥ ११ जिम-जिम स्वारथ घटतो देखी, तिम-तिम क्रोध विशेषी।
जिम-जिम स्वारथ दीठो अधूरो, तिम-तिम बिगड्यो नूरो॥ १२ जिम-जिम स्वारथ अणसीझंतो, तिम-तिम मन खीजंतो।
ओ स्वार्थ अर्थे बाह्य सुविनीत, इण रै गणिका वाली प्रीत । १. छोगजी चतुर्भुज जी आदि । विस्तृत जानकारी के लिए
देखें-'शासन समुद्र' भाग ६ (मुनि नवरत्नमलजी लिखित) २. लय-पुन्यवंतो जीव पाछिल"
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लघु रास : ३७१