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४३९ जिण तरु छाया बैठो सुख पावै, ऊठी उखारवो चावै।
गुरू भणी कहिता सीमंधर सागै, आप भिक्षु जिम आगै।। ४४० तिण हिज जीभ सूं अवगुण बोलै, इम द्वेष तणै वस झोलै।
गुरू नै कहिता तीर्थंकर जेम, बिहु टक में धर प्रेम॥ ४४१ त्यांरा पिण लोकां में अवगुण गावै, थांनै ए पिण लाज न आवै।
छतीस गुणां सहित कहंता, त्यांरा अवर्णवाद वदंता।। ४४२ दिवस पहिलै कह्या सुद्ध आचारी, हिवै कहिवा लागा अणाचारी।
पहिलै दिवस तो जाण्या पुरस मोटा, पछै किसै दोष थया खोटा। ४४३ टाळोकर नै कहिता नित्य खोटा, हिवै किण विध जाण्या मोटा।
अवगुण रा नित्य त्याग करंता, हिवै तेहिज त्याग भागंता ।। ४४४ क्षेत्रां में एक रात्रि उपरंत, नित्य रहिवा रा त्याग करंत।
अंस अवगुण बोलण रा त्याग, जै तो नित्य करता धर राग॥ ४४५ पांना ले जावण रा पचखांण, ते पिण भांग्या जाण ।
सहु अनंत सिद्धां री साखे पचखांण, बले पंचपदां री आण॥ ४४६ घणा हरष सूं लिख्यो म्हे जाणी, वदता इम नित्य वाणी।
सरमा सरमी थी लिख्यो नहीं कांइ, इम नित्य लिखता त्यांही।। ४४७ ए सहु त्याग किया चकचूर, ते गया वहती रै पूर।
__ एक ही त्याग भांगै दिल व्यापी, तिण नै कह्यो महा पापी।। ४४८ तो नित्य-नित्य त्याग भांगो बहुवार, थारो किम होसी निस्तार।
एहवा सूंसां रा भागला' मांय, चरण तीर्थं किम थाय॥ ४४९ ओस बिंदु जिम नर भव जांणो, ओ तो तिरवा रो दुर्लभ टांणो।
किंचित् कष्ट वेदी विप्रतारयो, मानव भव काय हारयो ।। ४५० नरक निगोद ना दुख अगाद, क्यूं नवी कीधा झै याद ।
जनम मरण रा दुख वीसरिया, ते तो उळटै मारग पडिया। ४५१ सम्यक्त्व चरण अमोलक पायो, ते तो जैहलै साटे गमायो।
तुज मति ए किम ऊपनी माट्ठी, थारी छाती हुई किम काट्ठी।। ४५२ सतगुरु नै तो अनुकंपा आवै, जै कर्मां सूं भारी क्यूं थावै।
शासण सूं तो जगत तिरै छै, ए पाप पिंड क्यूं भरै छै । .४५३ स्वाम भिक्षु संत अधिक सनूरा, ए बापड़ा क्यूं पड्या दूरा।
शिव सुख हेतु सुखदाई, यांनै - कुमति ईसी क्यूं आई। ४५४ शासण वन मुनि फूल्यो नै फळिया, जै जवासिया कांय टळिया।
काल अनंत भ्रमत मग पायो, यां सैंहज में कांइ गमायो॥
लघु रास : ४०३