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॥ श्री जिनाय नमः ॥
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" ( गुर्जरलाषांतरोपेता) ॥ स्याघादमंजरी ॥
*EEEEEETARA मूलकर्ता-श्री हेमचंज्ञचार्य. टीकाकार-श्री मल्लिषेणसूरि. गुर्जरजाषांतर कर्ता तथा उपावी प्रसिध्द कर्ता श्रावक हीरालाल वि. हंसराज..
(जामनगरवाळा.) ___azzaz TREEEEE . संवत १ए६०--सने १५०
किंमत रु. ४-0-0
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से जामनगर “जैनन्नास्करोदय" गपखानामां गप्यु.
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प्रस्तावना.
-- - क्यां हेमचं गुरुनी अति मिष्ट वाणी। __ वाणी कहां नदधिगनिर मालिषेणी ॥ क्यां न्यायशास्त्र परिगुंफित जैनवाणी। ___ मारी अहो! मति कहां अति दोष खाणी ॥१॥ अहो! सुझजनो !! कनिकालकेवनी महान् आचार्य श्री हेमचंइजी महाराजना नामश्री आने कोइ पण अजाण्यु नश्री. एबुं कहे. वाय डे के, ते श्री महान् प्राचार्यजीए सामात्रणक्रोम श्लोकोनी रचना करी. परंतु तेमाना आने घणा थोमाज ग्रंथो उपलब्ध थाय डे. तोपण तेमना हस्तकमलथी रचाएला अतिविझता नरेला आजे जे ग्रंथो दृष्टिगोचर याय बे, ते खरेखर तेमनुं अतिनत्कृष्ट ज्ञान सूचवे जे. आ अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामनी श्री वीरप्रन्नुनी स्तुतिरूप हा. त्रिंशिका पण ते महान् आचार्य श्री हेमचंदजीमहाराजनी रचेली . ते बत्रीसे काव्योमां ते आचार्यजी महाराजे एटलो तो गंभीर नावार्थ सूचव्यो ने. के ते जोर विज्ञानाना अंतःकरणमां तेमनी विक्ष्ता माटे अत्यंत चमत्कार नपने ले. ते बत्रीसीपर महाविहान् आचार्यमहाराज श्रीमविषेणसूरिजीए आशरे त्रणहजार श्लोकोना पूरवाली न्यायना विषायथी नरपूर स्याक्षादमंजरी नामनी टीका रचेली ने, अने ते टीका, श्रीमल्लिषेणमूरिजीनु अति नम, ज्ञान सूचवे बे. आवा न्या
र आ आचार्यजीमहाराजनी जन्म । दीक्षा । भाचार्यपद विगेनी सालो। तथा तेमणे शुं शुं कार्यों कर्या । ते संबंधि विस्तारथी वृत्तांत । अमारां तरफथी बहार पडला जैनधर्मनो प्राचीनइतिहास भाग पे हेलाना पृष्ट १४८ तथा भाग बीजाना पृष्ट २६ थी ८१ मुधीमा आपलं छे । तेथी अहीं फरीने लख्य नथी।
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यना विषयोथी नरपूर महान् ग्रंथ- गुजराती नाषांतर करवानुं कार्य घणुं मुश्केल ; उतां पण शक्तिविनानुं बालक जेम पोताना चरणोव चालवानो प्रयत्न करे, तेम में पण आ साहस माथे उगव्यु ने; अने तेम करतां बालक जोके समथमीयुं खा पी जाय रे, तोपण सुजनो तेनी हांसी नही करतां, तेने जेम बेतुं करे , तेम मारी बुझि पण अल्प होवाथी, आ महान् ग्रंथना गुजराती भाषांतरमां जोके प्रमादना वशश्री अथवा मतिमंदपणाश्री घणा दोषो आवेला होशे, तोपण तेमाटे विछज्जनो मने दमा करी, ते सुधारीने वांचशे; अने मारापर कृपा लावी मने पण जो तेमाटेनी सूचना करशे, तो हुँ तेमनो मारा खरा अंतःकरणथी उपकार मानी, बीजी आवृत्तिमां ते दोषो सुधारवानी तक लेश्श.
गच्छतः स्खलनं क्वापि । नवत्येव प्रमादतः ॥ हसंति उर्जनास्तत्र । समादधति सज्जनाः ॥१॥ लां. श्रावक हीरालाल पि. हंसराज,
(नामनगरमता.)
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अनुक्रमणिका.
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अंक. विषय. १ टीकाकारनुं मंगलाचरण .... .... २ मूनकर्तानु मंगलाचरण ३ प्रन्नुना चार अतिशयोनुं वर्णन .... ४ प्रनु- यथार्थवादीपणुं .... ५ प्रन्नुनो आश्रय नही करनारान्नु मत्सरीपणुं ६ औलुक्यमतनुं खमन ......... ७ सामान्यविशेषनुं स्वरूप ..... - एकांत नित्याऽनित्यपदनुं खंमन । ए जगत्क्रर्तानुं खंमन .... .... १० ईश्वरना जगत्कर्तापणानो पूर्वपद ११ ईश्वर एक डे इत्यादिक पूर्वपद १२ ईश्वरना जगत्कर्तापणानुं खंमन १३ ईश्ववरना एकपणादिकनुं खमन .... १४ वेदवाक्यो- अप्राणपणुं .... .... १५ ईश्वरने नित्यपणाआदिकनी अप्राप्ति . १६ वैशेषिकमतनुं खंमन .... .... १७ समवायर्नु निराकरण .... .... १० समवायने स्वीकारवामां दोष .... .. १ए व्यादिक उ पदार्थोनुं निरुपण २० झान अने आत्माना अत्यंतनेदर्नु उपाधिपणुं.... २१ कर्ताकरण- स्वरूप ....
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६०
६४
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१२
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अंक. विषय. २२ मुक्तिनुं स्वरूप .... .... .... .... ....
१०० २३ आत्माना व्यापकपणा, खंमन ....
१०० २४ आत्माना शरीरप्रमाणन मंमन .... २५ अदपादना मतनुं खंमन .... ....
१५३ २६ बल, जाति अने निग्रहस्थानोनुं अस्वीकारवापणुं १२५. २७ अपादना सोल पदार्थोनुं स्वरूप .... .... .... १२ ५० बार प्रकारना प्रमेयोनुं खमन.... .... .... २ए बल, जाति अने निग्रहस्थानोनुं विस्तारथी स्वरूप १३२ ३० जैमनीयना मतनुं खंकन .... .... .... .... १३० ३१ वेदोक्तहिंसा वर्णन .... .... ..... .... १३५ ३२ वेदोक्तहिंसा पण अनर्थ करनारी .... .... .... १४० ३३ जिनालयादिक बंधाववामां थती हिंसानो खुलासो.... १४३ ३४ वेदोक्तविधिवमे करेला संस्कारादिकनुं विषमपणुं १४न ३५ हिंसामाटे उत्सर्ग अपवादनुं स्वरूप ....
१६३ ३६ नित्यपरोक्शानवादीनुं खंमन ....
१६६ ३४ वेदांतमतनुं खंमन .... .... ....
१७७ ३७ अईतवाद- अतात्विकपणुं .... .... ३ए 'पुरुष एवेदं ' इत्यादि वेदवाक्यनो अर्थ ४० नियत वाच्यवाचकनावनुं खंरुन
१ए३ ४१ एकांतसामान्यवाद .... .... ४२ एकांतविशेषवाद .... ....
१एन ४३ स्वतंत्र सामान्य विशेषवाद
२०० धध सामान्य विशेषोनयात्मकवाद .... ४५ शब्दनुपौनिकपणुं .... ....
२००
१७७
१५
२०२
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पृष्ट.
२१०
१२०
२३१ २३६
قد
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२५३
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२६ए ចុចទ
حد
....
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३०६
अंक. विषय. ४६ सांख्यमतनुं खंभन .... .... ४७ सांख्यमतना पदार्थोनुं निरुपण ४७ सांख्योनो त्रण प्रकारनो बंध.... ४ए बौक्षमतनुं खंमन .... .... ५० दणिकवादनुं स्वरूप .... ..... ५१ एकांतज्ञानवादीननुं खंकन .... ५२ शून्यबादीनखंडन .... .... ५३ दणनंगवादनुं खंगन.... .... ५५ वणिकवादमां वोसनानी अप्राप्ति ५५ नास्तिक मत खंमन .... ५६ निनोक्तमत मंझन ..... ५७ स्याहादमत स्थापन .... .... ५७ ६व्य पर्यायर्नु स्वरूप..... .... . ५ए सप्तनंगीतुं स्वरूप ........ .... ६० सकलादेश विकलादेश- स्वरूप .... ६१ एकांतवादीननुं प्रमाणमार्गथी च्युतथवापणुं .... ६५ अनेकांतवादना चार नेदोनुं व्याख्यान ६३ प्रन्नुना शासनना साम्राज्यपणानुं व्याख्यान ६५ एकांतनित्यानित्यवादना विशेष दोषो ६५ उर्नय, नय अने प्रमाणनुं वर्णन ... १६ सात नयोनुं वर्णन .... .... . ६७ मितात्मवादनुं खंकन .... ..... ६७ अन्यदर्शनानुं मत्सरीपणुं ...... ६५ प्रनुना वचनातिशयनी प्रौढता .....
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३१५ ३२१ ३१६
३३५
३४१
२४७
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३५४ ३५०
३६३
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..... ३७१
३७७
३४ ४०३ ४००
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क.
विषय.
१० जगत्नो नार करवामां प्रभुनुंज समर्थपणुं
११ टीकाकारनी प्रशस्ति .... ७२ भाषांतरकारनी प्रशस्ति
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जाहेरखबर.
तैयार ग्रंथो.
स्यादाद मंजरी - (मूल- टीका) तथा गुजराती
जाषांतर सहित श्री विजयानंदाज्यूदय महाकाव्य (गुजराती जाषांतर सहित किं. रु. ३-०-0 जैनधर्मनो प्राचीनइतीहास जाग पहेलो .... किं. रु. १-०-0 जैनधर्मनो प्राचीनइतीहास जाग बीजो.... किं. रु. १-०-0 ( पोस्टेज जुदुं ).
....
तैयार यता ग्रंथो.
सेनप्रश्न ( मूल - तथा गुजराती जाषांतर
सहित )
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किं. रु. ५-0-0 जैनधर्मनो प्राचीन इतिहास जाग त्रीजो.... किं. रु. १-०-०
किं. रु.५-0-0
सुखबोधिकाटीका (मूलमात्र ) उपदेशरत्नाकर जाषांतर.... आनंदघन होते ( अर्थसहित )
किं. रु. ४-0-0 किं. रु. १-0-0 ( पोस्टेज जुदुं ).
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पृष्ट.
४११
४१६
४१५
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किं. रु. ४-0-0
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॥ नमः सर्वज्ञाय ॥
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(गुर्जरभाषांतरोपेता) ॥ स्याहादमंजरी ॥
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(मूलकर्ता-श्री हेमचंद्राचार्य. टीकाकार-श्री मल्लिषेणसूरि.)
(गुजरातीभाषांतरकर्ता-पं० श्रा हीरालाल हंसराज.)
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यस्य ज्ञानमनन्तवस्तुविषयं यः पूज्यते दैवतै । नित्यं यस्य वचो न दुन्नयकृतैः कोलाहलै प्यते ॥ रागद्वेषमुखा द्विषां च परिषत् क्षिप्ताक्षणायेन सा । स श्रीवीरविभुर्विधूतकलुषां बुद्धिं विधत्तां मम ॥ १ ॥ निस्सी
- अर्थः-श्रीजिनायनमः ॥ श्रीशांतिनाथस्य नवाननेंदु-भूयाजनानां प्रमदाब्धिवृद्धयै । यत्रोदिते वै परतीर्थनाथ-स्तेनाऽभिलाषाःप्रययुर्विनाशम् ॥ १ ॥ सत्याऽसत्योरुदुग्धोदककलविधिविद्धंसराजात्मनेन । हीरालालेन भक्त्या खपरहितकृते गुर्जराख्योरुवाचा ॥ अर्थो मुग्धप्रबोधप्रकटनसबलो गुंफ्यते न्याययुक्त्या। ग्रंथस्याऽस्येह चारि-त्रविजयगुरुतः सुप्रसादान्मनोज्ञः ॥ २ ॥ अनंतवस्तुओना विषयवाळू जेमनुं ज्ञान छे, तथा जे देवोथी पूजाय छे अने जेमनुं वचन अन्यायवादिओए करेला कोलाहलोथी लोपातुं नथी, तथा रागद्वेष छे मुख्य जेमां एवा अंतरंग शत्रुओनी ते प्रसिद्ध समाने जेमणे क्षणवारमांज पराभव आपलो छे, एवा ते श्रीवीरप्रभु मने निर्मळ बुद्धि आपो ? ॥१॥ अपार बुद्धिना एक जीवितने धारण
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......२ - -- मप्रतिभैकजीवितधरौ निःशेषभूमिस्पृशां । पुण्यौघेन सरस्वतीसुरगुरू स्वाहैकरूपौ दधद् ॥ यः स्याद्वादमसाधयन्निजवपुर्दृष्टान्ततः सोऽस्तु मे । सद्बुद्धयम्बुनिधिप्रबोधविधये श्रीहेमचन्द्रः प्रभुः ॥ २ ॥ ये हेमचन्द्रं मुनिमेतदुक्तग्रन्थार्थसेवामिषतः श्रयन्ते । सम्प्राप्य ते गौरवमुज्ज्वलानां पदं कलानामुचितं भवन्ति ॥३॥ मातर्भारति सन्निधेहि हृदि मे येनेयमाप्तस्तुते । निर्मातुं विवृति प्रसिद्धयति जवादारम्भसम्भावना ।। यद्वा विस्मृतमोष्ठयोः स्फुरति यत्सारस्वतः शास्वतो । मन्त्रः श्रीउदयप्रभेतिरचनारम्यो ममाहनिशम् ॥ ४ ॥ । ५ । इह हि विषमदुःषमाररजनितिरस्कारभास्करानुकारिणा । ६ । वसुधातलाऽवतीर्णसुधासारिणीदेश्यदेशनावितानपरमाईतीकृतश्रीकुमारपालक्ष्मापालप्रवर्तिताऽभयदानाऽभिधान जीवातुसंजीवित
करनार एवा सरस्वती अने बृहस्पतिने सर्व प्राणीओना पुण्यना समूहवडे पोताना एक अंगरूपे धारण करनारा, तथा जेमणे पोताना शरीरना दृष्टांतथी स्याद्वादने साधेलो छे, ते श्रीहेमचंद्रनी महाराज मारा सद्धद्धिरूपी समुद्रना उल्लास माटे थाओ ? ॥ २ ॥ जे माणसो आ चालता ग्रंथना अर्थनी सेवाना मिषथी श्रीहेमचंद्रजी महाराजनो आश्रय करे छे, तेओ ( स्याद्वादरूप न्यायविषयमां) महत्ता पामीने निर्मळ कळाओना योग्य स्थानकरूप थाय छे. ॥ ३ ॥ हे सरस्वती माता ! तुं मारा हृदयमां निवास कर ? के जेथी आ यथार्थवक्तानी स्तुतिनी टीका करवाना प्रारंभनी संभावना तुरत सिद्ध थाय ; अथवा मने विस्मृति थइ ! केमके 'श्रीउदयप्रभ' एवी रचनाथी मनोहर थएलो ( अर्थात् ते नामरूपी) शास्वतो सरस्वती संबंधि मंत्र तो मारा होठउपरे हमेशां स्फुरायमान थइ रह्यो छे ! ॥ ४ ॥ । ५। अहीं भयंकर दुःखम नामना (पांचमा ) आरारूपी रात्रिने दूर करवामां सूर्यसरखा । ६। तथा पृथ्वीतलउपर उतरेली अमृतनी नेहेरसरखी देशनाना समूहथी परम जैनी
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नानाजीवप्रदत्ताशीर्वादमाहात्म्यकल्पाऽवधिस्थायिविशदयशःशरीरेण ।। निरवद्यचातुर्विद्य निर्माणैकब्रह्मणा श्रीहेमचन्द्रमूरिणा । ८ । जगत्प्रसिद्धश्रीसिद्धसेनदिवाकरविरचितद्वात्रिंशद्वात्रिंशिकानुसारि श्रीवर्द्धमानजिनस्तुतिरूपमयोगव्यवच्छेदाऽन्ययोगव्यवच्छेदाऽभिधानं द्वात्रिंशिकाद्वितयं विद्वज्जनमनस्तत्वाऽवबोधनिबन्धनं विदधे । ९ । तत्र च प्रथमद्वात्रिंशिकायाः सुखोन्नेयत्वाद्व्याख्यानमुपेक्ष्य द्वितीयस्यास्तस्या निःशेषदुर्वादिपर्षदधिक्षेपदक्षायाः कतिपयपदार्थविवरणकरणेन स्वस्मृतिबीजप्रबोधविधि(वधीयते । १० । तस्याश्चेदमादिकाव्यम् ।।
करेला, एवा श्रीकुमारपाळराजाए प्रवर्तावेला अभयदान नामना जीवाडनारां औषधथी जीवेला विविध प्रकारना जीवोए दीधेला आशीर्वादना माहात्म्यथी छेक कल्पांतकाळमुधि स्थिर रहेनारुं छे यशरूपी शरीर जेमनु एवा। ७ । दूषणरहित एवी (लक्षण, साहित्य, तर्क अने आगम) नामनी चारे विद्या बनाववामां एक ब्रह्मासरखा, एवा श्रीहेमचंद्र नामना आचार्य महाराजे । ८ । जगतमा प्रख्याती पामेला श्रीसिद्धसेनदिवाकरजीए रचेली बत्रीसवत्रीसीओने अनुसरीने श्रीवर्धमानप्रभुनी स्तुतिरूप 'अयोगव्यवच्छेदिका अने अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामनी बे बत्रीसीओ बनावी छे, के जे विद्वान् माणसोना मनने तत्वोनुं ज्ञान कराववामां कारणभूत छे, । ९ । हवे तेमां पेहेली द्वात्रिंशिका ( बत्रीसी ) सुखे समजाय तेवी होवाथी तेनुं व्याख्यान छोडीने, सर्व दुर्वादिओनी सभानु खंडन करवामां समर्थ, एवी ते बीजी बत्रीसीना केटलाक पदार्थोनुं विवेचन करवावडे करीने मारी याददास्तीना (मारा संस्कारना) बीजना ज्ञाननी विधि हुं करूंछु । १० । ते बीजी द्वात्रिंशिकानुं आ पहेलु काव्य छे.
१ लक्षणागमसाहित्यतर्वाश्चातुर्विद्यम् ।
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अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्यसिद्धान्तममर्त्य पूज्यम् ।
श्रीवर्द्धमानं जिनमाप्तमुख्यं
स्वयंभुवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥ १ ॥ अनंतविज्ञानवाळा, दोषोविनाना, अवाध्यसिद्धांत वाळा, देवोने पूजवालायक, यथार्थवक्ताओमां मुख्य, तथा स्वयंभू एवा श्रीवर्धमान जिनेश्वरनी स्तुति करवाने हुं प्रयत्न करीश. ॥ १ ॥
| ११ | श्रीवर्द्धमानं जिनमहं स्तोतुं यतिष्य इति क्रियासंबन्धः । १२ । किंविशिष्टमनन्तमप्रतिपाति विशिष्टं सर्वद्रव्यपर्यायविषयत्वेनोत्कृष्टं ज्ञानं केवलाख्यं विज्ञानं ततोऽनन्तं विज्ञानं यस्य सोऽनन्तविज्ञानस्तं । १३ । तथा अतीता निःसत्ताकीभूतत्वेनाऽतिक्रान्ता दोषा रागादयो यस्मात्स तथा तं । १४ । तथा अवाध्यः परैर्बाधितुमशक्यः सिद्धान्तः स्याद्वादश्रुतलक्षणो यस्य स तथा तं । ११ । अमर्त्या देवास्तेषामपि पूज्यमाराध्यम् | १६ | अत्र च श्रीवर्द्धमानस्वामिनो विशेषणद्वारेण चत्वारो मूलाति
| ११ | श्रीवर्धमानप्रभुनी स्तुति करवाने हुं प्रयत्न करीश, एवो क्रियासंबंध छे. । १२ । ते श्रीवर्धमानप्रभु केवा ? तो के अनंत एटले ( कदापि पण ) पार्छु नहीं पडनाएं, अने विशिष्ट एटले सर्वद्रव्यपर्यायोना विषयपणायें करीने उत्कृष्ट, एवं केवल नामनुं ज्ञान होवाथी अनंतविज्ञानवाळा, । १३ । तथा अतीत एटले सत्तामां पण नही रहेवाथी दूर एल छे, रागादिक दोषो जेमनाथी एवा । १ । तथा अबाध्य एटले अन्यदर्शनी ओथी बाधित करवाने अशक्य छे स्याद्वादरूप सिद्धांत जेमनो एवा ( अर्थात् जेमणे कहेला स्याद्वादरूपी सिद्धांतने बाधित करवाने कोइ पण अन्य दर्शनीओ समर्थ नथी, एवा ) । १५ । तथा अमर्त्य एटले जे देवो, तेओने पण पूजवा योग्य, एवा. । १६ । वळी अहीं
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शयाः प्रतिपादितास्तत्राऽनन्तविज्ञानमित्यनेन भगवतः केवलज्ञानलक्षणविशिष्टज्ञानाडानन्त्यप्रतिपादनाज् ज्ञानाऽतिशयः । १७ । अतीतदोषमित्यनेनाऽष्टादशदोष संक्षयाऽभिधानादपायापगमाऽतिशयः । १८ । अबाध्यसिद्धान्तमित्यनेन कुतीथिकोपन्यस्तकुहेतुसमूहाऽशक्यबाधस्याद्वादरूपसिद्धान्तप्रणयनभणनाद्वचनाऽतिशयः । १९ । अमर्त्यपूज्यमित्यनेनाऽकृत्रिमभक्तिभरनिर्भरसुराऽसुरनिकायनायकनिर्मितमहाप्रातिहार्यसपर्यापरिज्ञापना
श्रीवर्धमानप्रभुना (उपर कहेला चारे ) विशेषणोद्वाराए चार मूळ अतिशयो, अंगीकार करेला छे ; अने तेमां अनंतविज्ञान (एटले अनंतविज्ञानवाळा ) एम कहीने प्रभुना केवलज्ञानना लक्षणवाळां ज्ञाननु अनंतपणुं अंगीकार करवाथी 'जानातिशय ' ( नामनो पेहेलो अतिशय जणाव्यो छे.)। १७ । 'अतीतदोष ' ( एटले दोषविनाना) एम कहीने अढारे दोषोनो' सम्यक् प्रकारे क्षय कहेवाथी ‘अपायापगमातिशय' (नामनो बीजो अतिशय जणाव्यो छे.)। १८ । 'अबाध्यसिद्धांत' (एटले बाधारहित सिद्धांतवाळा) एम कहीने कुतीर्थीओए स्थापन करेला जूठा हेतुओना समूहथी जेने बाधा पहोंची शकती नथी, एवा स्याद्वादरूप सिद्धांतनी (प्रभुनी ) रचना कहेवाथी (तेमनो) ' वचनातिशय' (नामनो त्रीजो अतिशय जणाव्यो छे.)। १९ । ' अमर्त्यपूज्य' (एटले देवोने पूजनीक ) एम कहीने खास अंतःकरणनी भक्तिना समूहथी परिपूर्ण थाला देवदानवोना समूहना स्वामिओए (इंद्रोए) करेली महाप्रातिहार्यनी पूजाना जणाववाथी (प्रभुनो) 'पूजातिशय'
१ अंतरायदानलाभ-वीर्यभोगोपभोगगाः । हासो रत्यरती भीति-र्जुगुप्सा शोक एव च ॥१॥ कामो मिथ्यात्मज्ञानं-निद्राचाविरतिस्वथा । रागो द्वेषश्च नो दोषा-स्तेषामष्टादशाप्यमी ॥२॥
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त्पूजाऽतिशयः ।२०।अत्राह परः । अनन्तविज्ञानमित्येतावदेवास्तु नाऽतीतदोषमिति । गतार्थत्वादोषाऽत्यत्यं विनाऽनन्तविज्ञानत्वस्याऽनुपपत्तेरस्रोच्यते । २१ । कुनयमताऽनुसारिपरिकल्पिताप्तव्यवच्छेदार्थमिदं । २२ । तथाचाहुराजीविकनयाऽनुसारिणः ॥ ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य । कर्तारः परमं पदं ॥ गत्वाऽागच्छन्ति भूयोऽपि । भवं तीर्थनिकारतः । इति । तन्नूनं न ते अतीतदोषाः। कथमन्यथा तेषां तीर्थनिकारदर्शनेऽपि भवाऽवतारः।२३॥ आह।यद्येवमतीतदोषमित्येवाऽस्तु अनन्तविज्ञानमित्यतिरिच्यते । दोषाऽत्ययेऽवश्यंभावित्वादनन्तविज्ञानत्वस्य । २४ । न । कैश्चिद्दोषाऽभावेऽपि त(नामनो चोथो अतिशय जणाव्यो छे.) । २० । अहीं वादी शंका करे छे के (प्रभुन ) ' अनंतविज्ञानवाळा' एटलुंज विशेषण रहेवा दो ? पण 'दोषविनाना' ए विशेषणनी जरूर नथी, केमके तेनो समावेश उपरना विशेषणमां आवी जाय छे ; कारणके दोषोना नाशविना अनंतविज्ञानपणानी प्राप्ति थती नथी. (हवे ते शंकाना खुलासामाटे) अहीं कहे छे. । २१ । जूठा न्यायवाळा मतने अनुसरनाराओए कल्पेला आप्तने जूदा पाडवामाटे आ विशेषण आप्युं छे. । २२ । केमके आजीविक मतने अनुसरनारा तेवी रीते (नीचे प्रमाणे) कहे छे. 'धर्मतीर्थना करनारा जानीओ मोक्षमा जइने, फरीने पण पोताना तीर्थनी हानीथी (तिरस्कारथी ) अर्थात् पोताना तीर्थनो तिरस्कार थतो जोइने संसारमा आवे छे (फरी अवतार ले छे) माटे खरेखर तेवा (ज्ञानीओ) दूषणोविनाना नथी ; अने जो तेम न होत तो (पोताना) तीर्थनो तिरस्कार जोइने पण तेओ संसारमां शामाटे अवतार लेत ? । २३ । वळी वादी कहे छे के, जो एम होय तो 'दोषविनाना' एटलुन विशेषण रहेवा दो ? पण त्यारे 'अनंतविज्ञानवाळा' ए विशेषण वधारे पडतुं छे (नकामुं छे.) केमके दोषोनो विनाश थवाथी 'अनंतविज्ञानपणुं' अवश्यन
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से जामनगर “जैनन्नास्करोदय" गपखानामां गप्यु.
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।२७। ननु तर्हि अबाध्यसिद्धान्तमित्यपार्थक' यथोक्तगुणयुक्तस्याऽव्यभिचारिवचनत्वेन तदुक्तसिद्धान्तस्य बाधाऽयोगात् ।। २८ । न । अभिप्रायाऽपरिज्ञानात् । निर्दोषपुरुषप्रणीत एव अबाध्यः सिद्धान्तो। नाऽपरेऽपौरुषेयाद्याः । असम्भवादिदोषाघ्रातत्वात् इति ज्ञापनार्थ । २९ । आत्ममात्रतारकमूकाऽन्तकृत्केवल्यादिरूपमुण्ड'केवलिनो यथोक्तसिद्धान्तप्रणयनाऽसमर्थस्य व्यवच्छेदार्थ वा विशेषणमेतत् ।३०। अन्यस्त्वाह ।
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भावो सर्वथा प्रकारे जोया छे, अने जेणे सर्वे भावो सर्वथा प्रकारे जोया छे तेणे एक भाव (पण ) सर्वथा प्रकारे जोयो छे.' । २७ । वळी अहीं वादी शंका करे छे के, त्यारे ' अबाध्य सिद्धांतवाळा' ए विशेषण निरर्थक छे, केमके उपर वर्णवेला गुणवाळा जिनना वचनोने अव्यभिचारिपणुं होवाथी, अर्थात् तेवा गुणवाळा जिनेश्वरनां वचनो तो व्यभिचारविनानांज होय छे, अने तेथी तेमणे कहेला सिद्धांतमां बाधा होयज नही. । २८ । हवे ते वादीने कहे छे के, एम नही, (ए तारुं कहेवं अमारा ) अभिप्रायने जाण्याविना थयेलुं छे. केमके दूषणरहित पुरुषे जे सिद्धांत रचेलो छे, तेवो रचेलोज सिद्धांत बाधाविनानो कहेवाय, पण बीजा अपौरुषेय आदिक एटले पुरुषनी रचनाविनाना (वेदादिकोने ) बाधाविनाना कहेवाय नही ; केमके तेवा सिद्धांतो असंभव आदिक दूषणोवाळां छे एवं जणाववा माटे ( अमोए ' अबाध्यसिद्धांतवाळा' ए विशेषण आपेलुं छे.)। २९ । अथवा फक्त पोतानेन तारनारा एवा मुंगा केवली अने अंकृतकेवली आदिकरूप बहारना अतिशयविनाना केवलीओ, उपर वर्णवेला सिद्धांतोने रचवामां असमर्थ होवाथी तेओने जूदा पाडवामाटे ए विशेषण जाणी लेवु. । ३० । वळी अहीं वादी
१ निरर्थकं। २ बायातिशयरहिताः ।
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अमर्त्यपूज्यमिति न वाच्यं । यावता' यथोद्दिष्टगुणगरिष्ठस्य त्रिभुवनविभोरमर्त्यपूज्यत्वं न कथंचन व्यभिचरतीति । ३१ । सत्यं । लौकिकानां हि अमर्त्या एव पूज्यतया प्रसिद्धास्तेषामपि भगवानेव पूज्य इति विशेषणेनाऽनेन ज्ञापयन्नाचार्यः परमेश्वरस्य देवाधिदेवत्वमावेदयति ।३२। एवं पूर्वार्द्ध चत्वारोऽतिशया उक्ताः । ३३ । अनन्तविज्ञानत्वं च सामान्यकेवलिनामप्यवश्यंभावीत्यतस्तव्यवच्छेदाय श्रीवर्द्धमानमितिविशेष्यपदमपि विशेषणरूपतया व्याख्यायते । ३४ । श्रिया चतुस्त्रिंशदनिशयसमृद्धयनुभवात्मकभावार्हत्यरूपया वर्द्धमानं वर्धिष्णुं । ३५ । नन्वतिशयानां परिमिततयैव सिद्धान्ते प्रसिद्धत्वात्कथं वर्द्धमानतोपपत्तिरिति
कहे छे के देवोने पूजनीक' ए विशेषण कहेवानी जरूर नथी, केमके उपर वर्णवेला सर्व गुणोवाळा जगतना स्वामीने देवोथी पूजनीकपणुं कोइ पण रीते अवटमान नथी, अर्थात् तेवा गुणोवाळाने देवो पूजे, ए असंभवित नथी. । ३१ । (त्यारे तेने कहे छ के, ते तारूं कहेवू ) सत्य छे पण लौकिको (सामान्य) देवोने पूजनीक लेखे छे, ए प्रसिद्ध छे. अने तेओने पण जिनेश्वरज पूजनीक छे; एवीरीते ते विशेषणथी जणावता थका आचार्यजी जिनेश्वरनुं देवाधिदेवपणुं जणावे छे. । ३२ । एवीरीते पूवधिमां चार अतिशयो कह्या. । ३३ । हवे अनंतविज्ञानपणुं तो सामान्य केवलिओने पण अवश्य लागु पडशे, तेथी तेओने जूदा पाडवामाटे 'श्रीवर्धमान' एवा विशेष्यपदनुं पण विशेषणतरिके व्याख्यान कराय छे. । ३४ । श्री एटले चोत्रीस अतिशयोनी समृद्धिना अनुभवरूप भाव अरिहंतनी लक्ष्मीए करीने वृद्धि पामता । ३५ । (अहीं वादी शंका करे के) सिद्धांतमां तो अतिशयोनी अमुकज संख्या प्रसिद्ध होवाथी
१ सामस्त्येन ।
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चेन्न । ३६ । यथा निशीथचूर्णौ भगवतां श्रीमदर्हतामष्टोत्तरसहस्रसङ्ख्यबाह्यलक्षणसङ्ख्या उपलक्षणत्वेनाऽन्तरङ्गलक्षणानां सत्वादीनामानन्त्यमुक्तमेवमतिशयानामधिकृतपरिगणनायोगेऽप्यपरिमितत्वमविरुद्धं । ततो नाऽतिशयश्रिया वर्द्धमानत्वं दोषाश्रय इति । ३७ । अतीतदोषता चोपशान्तमोहगुणस्थानवर्तिनामपि सम्भविनीत्यतः क्षीणमोहाख्या प्रतिपातिगुणस्थानप्राप्तिप्रतिपत्त्यर्थं जिनमितिविशेषणं ।३।। रागादिजेतृत्त्वाजिनः । समूलकाषङ्कषितरागादिदोष इति । ३९ । अबाध्यसिद्धान्तता च श्रुतकेवल्यादिष्वपि दृश्यतेऽतस्तदपोहायाs|प्तमुख्यमितिविशेषणं । ४ ० । आप्तिर्हि रागद्वेषमोहानामैकान्तिक' आत्यन्तिकश्च क्षयः । सा येषामस्ति ते वृद्धिपणानी प्राप्ति केम कही शकाय? (तो तेने कहेवु के) एम नही । ३६ । केमके निशीथचूर्णिमा श्रीमान् अरिहंत भगवानना एक हमारने आठ बाह्य लक्षणो कहेला छे, अने उपलक्षणथी सत्वादिक अंतरंग लक्षणो अनंतां कहेलां छे; एवी रीते अतिशयोनी जोके अमुक संख्या कहेली छे, छतां तेओर्नु अपरिमितपणुं कहेवामां विरोध नथी ; अने तेथी (प्रभुनु) अतिशयोनी लक्ष्मीथी वृद्धि पामवापणुं दोषयुक्त नथी. ॥३७॥ वळी ‘दोषरहितपणुं' तो उपशांतमोह नामना (अग्यारमा) गुणठाणापर रहेलाओने पण संभवे छे, तेथी क्षीणमोह नामना पाछा नही पडनारा (बारमा) गुणठाणानी प्राप्ति अंगीकार करवा माटे 'जिन' ए विशेषण आपलं छे. । ३८ । रागादिकने जीतनार होवाथी 'जिन, ' एटले छेक मूळमाथी जेणे रागादिक दोषोने उखेडी नाखेला छे. । ३९ । बाधारहित सिद्धांतपणुं तो श्रुतकेवलि आदिकमां पण देखाय छे, तेथी तेआने जूदा पाडवा माटे 'आप्तमुख्य' ए विशेषण आपेलुं छे. । ४० । 'आप्ति' एटले रागद्वेष अने मोहनो एकांत अने अत्यंत क्षय ; अने तेवी
१ निःशेषीकृतेऽपि पुनरुद्भवमाशंक्य आत्यंतिकः अभूयःसंभवदोषविनाशः
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खल्वाप्ताः । ४१ । अादित्त्वान्मत्वर्थीयोऽच् प्रत्ययः । ४२ । तेषु मध्ये मुखमिव सर्वाङ्गानां प्रधानत्वेन मुख्यं । ४३ । शाखादेर्य इति तुल्ये यः । ४४ । अमर्त्यपूज्यता च तथाविधगुरूपदेशपरिचर्यापर्याप्तविद्याचरणसंपन्नानां सामान्यमुनीनामपि न दुर्घटा। अतस्तन्निराकरणाय स्वयंभुवमितिविशेषणं । ४५ । स्वयमात्मनैवपरोपदेशनिरपेक्षतयाऽवगततत्वो भवतीति स्वयंभूः स्वयंसंबुद्धस्तमेवंविधं चरमजिनेन्द्रं स्तोतुं स्तुतिविषयीकर्तामहं यतिष्ये यत्नं करिष्यामि । ४६ । अत्र चाचार्यो भविष्यत्कालप्रयोगेण योगिनामप्यशक्याऽनुष्ठानं भगवद्गुणस्तवनं मन्यमानःश्रद्धामेव स्तुतिकरणेऽ साधारणं कारणं ज्ञापयन् यत्नकरणमेव मदधीनं न पुनर्यथावस्थितभगवगुणस्तवनसिद्धिरितिसूचितवान् । ४७ । अहमिति च गतार्थत्वेऽपि परो
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रीतनो क्षय नेओने होय ते 'आप्त' कहेवाय । ४१ । 'अादिपणाथी मत्वर्थी-अच्-प्रत्यय आवलो छे.' । ४२ । वळी जेम सर्व अंगोमां मुख श्रेष्ट छे, तेम तेवा आप्तोमां पण जे मुख्य छे. । ४३ । 'शाखादेर्य' ए सूत्री तुल्य अर्थमां 'य' प्रत्यय थयेलो छे. । ४४ । वळी देवोथी पूजनीकपणुं तो सुगुरुना उपदेशथी अने सेवाथी प्राप्त थयेली विद्याचरणनी संपदावाळा सामान्य मुनिओने पण दुर्लभ नथी, तेथी तेओने जूदा पाडवा माटे 'स्वयंभुवं' ए विशेषण आपेलुं छे. । ४५ । स्वयं एटले पोतानी मेळेज अर्थात् परना उपदेशनी अपेक्षा राख्याविना जे तत्वने जाणे ते 'स्वयंभ' एटले पोतानी मेळेज बोध पामेला, एवा छेल्ला (चोवीसमा) जिनेश्वरने हुं स्तुतिविषय करवाने यत्न करीश. । ४६ । अहीं आचार्य महाराज भविष्यकाळना प्रयोगे करीने योगीओथी पण न थइ शके, एवा प्रभुना स्तवनने मानता थका, स्तुति करवामां फक्त श्रद्धानेन असाधारण कारण जणावता थका ‘यत्न करवो' एज मारे आधीन छे, पण प्रभुना यथास्थित गुणोना स्तवननी सिद्धि मारे आधीन नथी, एम
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पदेशाऽन्याऽनुवृत्त्यादिनिरपेक्षतया निनश्रद्धयैव स्तुतिप्रारम्भ इतिज्ञापनार्थ । ४८ । अथवा श्रीवर्द्धमानादिविशेषणचतुष्टयमनन्तविज्ञानादिपदचतुष्टयेन सह हेतुहेतुमद्भावेन व्याख्यायते । ४९ । यत एव श्रीवर्द्धमानमतएवाऽनन्तविज्ञानं श्रिया कृत्स्नकर्मक्षयाविर्भूताऽनन्तचतुष्क संपद्रुपया व. र्द्धमानं ।५ ० । यद्यपि श्रीवर्द्धमानस्य परमेश्वरस्याऽनन्तचतुष्कसंपत्तेरुत्पत्त्यनन्तरं सर्वकालं तुल्यत्वाच्चयाऽपचयौ न स्तस्तथापि निरपचयत्वेन शाश्वतिकाऽवस्थानयोगाद्वर्द्ध मानत्वमुपर्यते । ५१ । यद्यपि च श्रीवर्द्धमान विशेषणेनाऽनन्तचतुष्काऽन्तीवित्वेनाऽनन्तविज्ञानत्वमपिसिद्धं तथाप्यन
(तेमणे) सूचव्यु छे. । ४७ । 'हुं' एम अंदरथी निकळी आवतुं हतुं, छतां पण परने उपदेश देवामां बीजानी अनुवृत्ति आदिकनी अपेक्षा राख्याविना फक्त पोतानी श्रद्धाथीज स्तुतिनो प्रारंभ करेलो छे, एम जणाववा माटे 'अहं' शब्द वापरेलो छे. । ४८ । अथवा 'श्रीवर्धमानादिक' चारे विशेषणो 'अनंतविज्ञानादिक' बारे पदोनी साथे हेतुहे. तुमद्भावे करीने हवे व्याख्यान कराय छे. । ४९ । जेथी लक्ष्मीथी वृद्धि पामता तेथीज अनंत विज्ञानवाळा ; श्री एटले सर्व कर्मोना क्षयथी प्रगट थएलां अनंतचतुष्टय (ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने वीर्यरूप) लक्ष्मीथी वृद्धि पामता. । ६० । जोके श्रीवर्धमान प्रभुने अनंतचतुष्टयनी संपत्ति प्राप्त थया पछी सर्व काळे तेनुं तुल्यपणुं होवाथी तेमां वधघट थती नथी, तोपण पटाडो न थवाथी शाश्वती अवस्थाना योगथी वृद्धिपणुं उपचारी लेवाय छे. । ५१ । वळी जोके 'लक्ष्मीथी वृद्धि पामता' ए विशेषणवडे अनंतचतुष्टयनो अंदर समावेश थवाथी 'अनंतविज्ञानपणं' पण सिद्ध थाय छे, तोपण अनंतविज्ञानज परोपकारमा विशेष साधनभूत होवाथी,
१ अनंतज्ञानदर्शनचारित्रवीर्याणि ।
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न्तविज्ञानस्यैव परोपकारसाधकतमत्वाद्भगवत्प्रवृत्तेश्च परोपकारकनिबन्धनत्वादनन्तविज्ञानत्वं शेषाऽनन्तत्रयात्पृथग निर्झर्याऽाचार्थेणोक्तं ।५२। ननु यथा जगन्नाथस्याऽनन्तविज्ञानं परार्थं तथाऽनन्तदर्शनस्य केवलज्ञानाऽपरपर्यायस्य पारार्थ्यमव्याहतमेव केवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यामेव हि स्वामी क्रमप्रवृत्तिभ्यामुपलब्धं सामान्यविशेषात्मकं पदार्थसार्थ परेभ्यःप्ररूपयति।तकिमर्थ तन्नोपात्तमितिचेदुच्यते । ५३ । विज्ञानशब्देन तस्याऽपि संग्रहाददोषः । ज्ञानमात्राया उभयत्राऽपि समानत्वात् ।१४। यएव हि अभ्यन्तरीकृत समताख्यधर्मा विषमताधर्मविशिष्टा ज्ञानेन गम्यन्तेऽर्थास्त एव अभ्यन्तरीकृतविषमताधर्माः समताधर्मविशिष्टा दर्शनेन गम्यन्ते जीव
अने प्रभुनी प्रवृत्ति पण फक्त परोपकारनाज निबंधनरूप होवाथी, अनंतविज्ञानपणाने बाकीना त्रणथी जूदं पाडीने आचार्यजीए कहेलं छे. । ५२ । अहीं कोई शंका करे के, जेम जगतना स्वामीनुं अनंतविज्ञान परोपकारमाटे छे, तेम अनंतदर्शन के जेनुं बीजं नाम केवळदर्शन छ, ते पण परोपकारमाटे योग्यज छे, केमके प्रभु तो अनुक्रमे प्रवृत्तिवाळां एवां केवळज्ञान अने केवळदर्शनथीन प्राप्त थयेला सामान्यविशेषरूप पदार्थोना समूहनो परप्रते उपदेश करे छे, तो शामाटे तेने अंगीकार न कयु ? तेने माटे कहे छे के, । ५३ । विज्ञान शब्दथी तेने पण ग्रहण करेलु होवाथी तेमां दूषण नथी. केमके ज्ञाननी इयत्तानु बन्ने तरफ तुल्यपणुं छे, । ५४ । कारण के आत्माना स्वभावथी गौण करेल छे सामान्यनो धर्म जेओमां, अने विशेष धर्म छे मुख्य जेओमां एवा जे पदार्थो ज्ञानवडे जणाय छे, तेन पदार्थो गौण करेल छे विशेषधर्म नेओमां अने मुख्य छ सामान्य धर्म जेओमां एवा थया थका दर्शने करीने ज
१ इयत्तायाः। २ गौणीकृत । ३ सामान्याख्यधर्माः। ४ विशेषधर्मयुक्ताः ।
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स्वाभाव्यात् । ५५ । सामान्यप्रधानमुपतर्जनीकृत विशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते । तथा प्रधानविशेषमुपसन्नीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति । ५६ । तथा यत एव जिनमत एवाऽतीतदोषं रागादिनेतृत्वाद्धि जिनः । नचाऽनिनस्याऽतीतदोषता।१७। तथा यत एवाऽप्तमुख्यमत एवाऽबाध्यसिद्धान्तं आतो हि प्रत्ययित उच्यते । तत आप्तेषु मुख्यं श्रेष्ठं । आप्तमुख्यत्वं च प्रभोरविसंवादिवचनतया विश्वविश्वासभूमित्वात् । अत एवाऽबाध्यसिद्धान्तं । न हि यथावज्ञानाऽवलोकितवस्तुवादी सिद्धान्तः कुनयैर्बाधितुं शक्यते ।५८। यत एव स्वयंभुवमत एवाऽमर्त्यपूज्यं । पूज्यते हि देवदेवो जगत्रयविल
च
णाय छे. । ५५ । केमके सामान्य धर्म छे मुख्य जेमां अने गौण करेल छे विशेषधर्म जेमां, एवी रीतना पदार्थ- जे ग्रहण एटले जाणवू, ते दशन कहेवाय छ; अने मुख्य छे विशेषधर्म जेमा तथा गौण करेल छे सामान्यधर्म जेमां, एवा पदार्थ- जे जाणवं, ते ज्ञान कहेवाय छे. १९६। वळी जेथी 'जिन' छे तेथीज ते दोषविनाना छे; रागादिकने जीतनारा होवाथी 'जिन' छे; वळी जे 'जिन' नथी तेओने दूषणरहितपणुं घटतुं नथी. । १७ । वळी जेथी आप्तोमा मुख्य छे तेथीन ते बाधारहित सिद्धांतवाळा छे ; जे प्रतीतिवान् होय ते आप्त कहेवाय, अने तेवा आप्लोमां प्रभु मुख्य छे; केमके (पोताना) विसंवादरहित वचनपणायें व. रीने ते जगतने विश्वासना स्थानकभूत होवाथी तेमने आप्तोमा मुख्यपणुं छे अने तेथीन ते बाधारहित सिद्धांतवाळा छे ; वळी यथास्थित ज्ञानथी जोएली वस्तुओने कहेनारा सिद्धांतने कुनयवादीओ बाधा पहोंचाडी शकता नथी. । ५८ । वळी जेथीन पोतानी मेळे बोध पामेला छे, तेथीन देवाने ते पूजवालायक छ ; केमके त्रणे जगतमा विलक्षण छे ल
१ गाणीकृत।
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क्षणलक्षणेन स्वयंसम्बुद्धत्वगुणेन सौधर्मेन्द्रादिभिरमत्यैरिति । ५९ । अत्र च श्रीवर्द्धमानमितिविशेषणतया यव्याख्यातं तदयोगव्यवच्छेदाऽभिधानप्रथमद्धात्रिंशिकाप्रथमकाव्यतृतीयपादवर्तमानं श्रीवर्धमानाऽभिधमात्मरूपमिति विशेष्यमनुवर्तमानं बुद्धौ संप्रधार्य विजेयं तत हि आत्मरूपमितिविशेष्यपदं । प्रकृष्ट आत्मा आत्मरूपस्तं परमात्मानमिति यावत्' । ६० । आवृत्त्या वा विशेषणमपि विशेष्यतया व्याख्येयमिति प्रथमवृत्तार्थः । ६१ । अस्यां च स्तुतावन्ययोगव्यवच्छेदोऽधिकृतस्तस्य च तीर्थान्तरीयपरिकल्पिततत्त्वाभासनिरासेन तेषामाप्तत्वव्यवच्छेदः स्वरूपं । तच्च भगवतो यथाऽवस्थितवस्तुतत्ववादित्त्वख्यापनेनैवप्रामाण्यमश्नुते । ६२ । क्षण जेनु एवा पोतानी मेळे बोध पामवापणाना गुणें करीने (आ) देवाधिदेव सौधर्मेंद्रादिक देवोथी पूजाय छे. । ५९ । वळी अहीं 'श्रीवर्धमान' ए पदनुं जे विशेषणरूपें व्याख्यान करेलुं छे, ते अयोगव्यवच्छेदिका नामनी पेहेली बत्रीसीना पेहेला काव्यना त्रीजा पादमा रहेला 'श्रीवर्धमानाभिधमात्मरूप' एवी रीतना विशेष्यने बुद्धिपूर्वक चाल्यु आवतुं जाणीने कयु छे एम जाणवं. अने त्यां 'आत्मरूपं' ए विशेष्यपद छे ; उत्तम आत्मा ते आत्मरूप, तेवा परमात्मानी (हुं स्तुति करीश) एम जाणवु. । ६० । अथवा पुनरावृत्तिथी ते विशेषण- पण विशेष्यरूपें व्याख्यान करी लेवू. एवी रीते पहेला काव्यनो अर्थ जाणवो.
।६१ आ स्तुतिमां अन्यदर्शनीओना योगने जूदा पाडवानुं अंगीकार करेलुं छे, अने तेनु स्वरुप ए छे के, अन्यदर्शनीओए कल्पेला जूठा तत्वोन खंडन करीने तेओर्नु आप्तपणुं जूई पाडवू ; अने ते कार्य जिनेश्वरप्रभुनुं सत्य वस्तुतत्ववादीपणुं जणाववावडेज प्रमाणवाळं थाय छे ; । ६२ । आथी करीने स्तुतिकार त्रणे जगतना स्वामीना सर्व गु
१ पर्यायः ।
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अतः स्तुतिकारस्त्रिजगद्गुरोर्निःशेषगुणस्तुतिश्रद्धालुरपि सद्भूतवस्तुवादित्वाख्यं गुणविशेषमेत्र वर्णयितुमात्मनोऽभिप्रायमाविष्कुर्वन्नाह |
अयं जनो नाथ तव स्तवाय गुणान्तरेभ्यः स्पृहयालुरेव । विगाहतां किन्तु यथार्थवादमेकं परीक्षाविधिदुर्विदग्धः ॥ २ ॥
हे स्वामी ? परीक्षा करवामां पोताने पंडित मानतो एवो आ माणस स्तुतिमाटे आपना बीजा गुणोप्रते ( पण ) इच्छावाळो छे; तोपण एक यथार्थवाद नामना गुणमां प्रवेश करो ? अर्थात् तेज गुणनी स्तुति करो!
। १ । हेनाथ अयं मल्लक्षणो जनस्तव गुणान्तरेभ्यो यथार्थवादव्यतिरिक्तेभ्योऽनन्यसाधारणशारीरलक्षणादिभ्यः स्पृहयालुरेव श्रद्धालुरेव किमर्थ स्तत्राय स्तुतिकरणाय । इयं तादर्थ्येचतुर्थी पूर्वत्र तु स्पृहेर्व्याप्यं वेति लक्षणा । तव गुणान्तराण्यपि स्तोतुं स्पृहावानेवाऽयंजन इति भावः । २ । ननु यदि गुणान्तरस्तुतावपि स्पृहयालुता तत्किमर्थं तत्रोपेक्षेत्या
णोनी स्तुतिमाटे श्रद्धावाळा छे, छतां पण ( तेमना ) यथार्थवस्तुवादी - पणा नामना गुणविशेषनुंभ वर्णन करवाने पोतानो अभिप्राय प्रगट क - रता था कहे छे.
| १ | हे स्वामि ! आ हुं आपना यथार्थवाद शिवायना, बीजाओमां नही जणाता एवा शरीरसंबंधि लक्षणादिक गुणोप्रते स्तुति करवा माटे श्रद्धालुज छउं; (अहीं ‘पूर्वत्रस्पृहेर्व्याप्यं वा' ए सूत्रथी तादर्थ्यमां चतुर्थी विभक्ति छे.) अर्थात् आपना बीजा गुणोनी स्तुति करवा माटे पण आ माणस इच्छावाकोज छे, एवो भाव जाणवो. । २ । ज्यारे ( प्रभुना ) बीजा गुणोनी स्तुतिमां पण इच्छा छे, तो तेमां शामाटे उपेक्षा
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शङ्कयोत्तराईमाह । ३ । किंत्वित्यम्युपगमविशेषद्योतने निपातः ।। एकमेकमेव यथार्थवादं यथाऽवस्थितवस्तुतत्वप्रख्यापनाख्यं त्वदीयं गुणमयं जनो विगाहतां स्तुतिक्रियया समन्ताद् व्याप्नोतु तस्मिन्नेकस्मिन्नपि हि गुणे वर्णिते तन्त्रान्तरीयदैवतेभ्यो वैशिष्टयख्यापनद्वारेण वस्तुतः सर्वगुणस्तवनसिद्धेः । ५ । अथ प्रस्तुतगुणस्तुतिः सम्यपरीक्षाक्षमाणामेव दिव्यदृशा मौचिती मञ्चति नाऽवाग्दृशां भवादृशामित्याशङ्कां विशेषगद्वारेण निराकरोति । ६ । यतोऽयं जनः परीक्षाविधिदुर्विदग्धः अधिकृतगुणविशेषपरीक्षणविधौ दुर्विदग्धः पण्डितंमन्य इति यावत् । ७ । अयमाशयो यद्यपि जगद्गुरोर्यथार्थवादित्वगुणपरीक्षणं मादृशां मतेरगोचर.
ག ཁག་ འའའོང་བ་པ་ करवी जोइए ? एवी शंका करीने उत्तरार्ध कहे छे. । ३ । 'किंतु' ए स्वीकार जणाववा माटेनो अव्यय छे. । ४ । तोपण यथार्थवाद एटले सत्य वस्तुस्वरूपने जणाववारूप तमारा गुणनी आ माणस स्तुति करवावडे चारेकोरथी व्याप्त थाओ? अर्थात् तमारा ते गुणनी स्तुति करो? केमके ते एकन गुणतुं वर्णन करते छते अन्यदर्शनीओना देवोथी श्रेष्टता जणाववाए करीने तत्वथी सर्व गुणोना स्तवननी सिद्धि थाय छे. । ५ । आ चालता गुणनी स्तुति तो सारी रीते परीक्षा करवाने समर्थ एवा अतींद्रियज्ञानीओनेज करवी उचित छ, पण तमारा जेवा छद्मस्थोने करवी उचित नथी ; एवी रीतनी शंकानुं विशेषणद्वारथी निराकरण करे छे. ।६। केमके आ माणस (श्रीहेमचंद्राचार्य) परीक्षाविधिमांदुर्विदग्ध छे, एटले
आ चालता गुणविशेषनी परीक्षा करवामां पोताने पंडित माननारो छे ; । ७ । भावार्थ ए छे के, जोके जगद्गुरुना सत्यवादीपणारूप गुणनी परीक्षा मारी बुद्धिथी थइ शके तेम नथी तोपण भक्ति अने श्रद्धान श्र
अतींद्रियज्ञानिनां । २ योग्यतां । ३ छग्रस्थानां
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स्तथाऽपि भक्तिश्रद्धाऽतिशयात् तस्यामहमात्मानं विदग्धमिवमन्य इति । विशुद्धश्रद्धाभनिव्यक्तिमानवरूपत्वात्स्तुतेरितिवृत्तार्थः ॥ २॥
।८ । अथ ये कुतीर्थ्याः कुशास्त्रवासनावासितस्वान्ततया त्रिभुवनखामिनं स्वामित्वेन न प्रतिपन्नास्तानपि तत्त्वविचारणां प्रतिशिक्षयन्नाह ।
गुणेष्वसूशं दधतः परेऽमी ___ माशिश्रियन्नाम भवन्तमीशं । तथापि सम्मील्य विलोचनानि
विचारयन्तां नयवम सत्यम् ॥ ३ ॥ ___(हे प्रभु!) गुणोमा अदेखाइने धारण करता, एवा आ अन्यदर्शनीओ आपने ईश्वरतरीके भले नहीं मानो ? तोपण आंखो वींचीने सत्य न्यायमार्गने (तो) विचारो? ॥ ३ ॥
१। अमी इति तत्वातत्वविमर्शबाह्यतया दूरीकरणाहत्वाद्विप्रकृष्टाः' परे कुतीथिका भवन्तं त्वां अनन्यसामान्यसकलगुणनिलयमपि मा ईशं
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तिशयथी तेमां हुं पोताने पंडितनी पेठे मार्नु छ, केमके निर्मळ श्रद्धा अने भक्तिने प्रगट करवी, तेन मात्र स्तुतिनुं स्वरूप छे; एवी रीते बीना काव्यनो अर्थ जाणवो.
।८ । हवे जे कुतीर्थीओ कुशास्त्रोनी वासनाथी वासित थएलां मने करीने, त्रण जगतना स्वामीने स्वामीरूपे नथी मानता, तेओने पण तत्वविचारनी शीखामण देता थका कहे छे.
।१ । 'अमी' एटले खराखोटानो विचार नही करनारा होवाथी दूर करवा लायक छे, तेथी अन्य एवा कुतीर्थीओ, बीनामां नही जणातां
१ इदमः प्रत्यक्षकृते । समीपतरवर्ति चैतदोरूपं ॥. अदसस्तु विप्रकृष्टे । तदिति परोक्षं विजानीयात् ॥१॥
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शिश्रियन् मा स्वामित्वेन प्रतिपद्यन्तां । यतो गुणेष्वसूयां दधतो गुणेषु बद्धमत्सराः । २ । गुणेषु दोषाविष्करणं ह्यसूया । यो हि यत्र मत्सरीभवति स तदाश्रयं नानुरुध्यते यथा माधुर्यमत्सरी करभः पुंड्रेक्षकाण्डं । गुणाश्रयश्च भवान् । ३ । एवं परतीथिकानां भगवदाज्ञाप्रतिप्रत्तिं प्रतिषिध्य स्तुतिकारो माध्यस्थ्यमिवास्थाय तान् प्रति हितशिक्षामुत्तरार्द्धनोपदिशति । ४ । तथापि त्वदाज्ञाप्रतिपत्तेरभावेऽपि लोचनानि नेत्राणि सम्मील्य मिलितपुटीकृत्य सत्यं युक्तियुक्तं नयवर्त्म न्यायमार्ग विचारयन्तां विमर्शविषयीकुर्वन्तु । ५ । अत्र च विचारयन्तामित्यात्मनेपदेन फलवकर्तृविषयेणैवं ज्ञापयत्याचार्यो यदवितथनयपथविचारणया तेषामेव फलं वयं केवलमुपदेष्टारः । ६ । किं तत्फलमिति चेत्प्रेक्षावत्तेतिब्रूमः । ७ ।
www एवा सर्व गुणोना स्थानकरूप एवा पण आपने स्वामीतरिके भले नही मानो? केमके तेओ गुणोमां असूया एटले मत्सर धरनारा छे. । २ । गुणोमा जे दोषोने प्रगट करवा ते असूया कहेवाय. वळी जेम मीठाशप्रते मत्सर धरनारो उंट धोळी शेरडीना समूहने स्वीकारतो नथी, तेम जे जेनाप्रते मत्सरवाळो होय, ते तेनो आश्रय स्वीकारतो नथी. अने. आप तो गुणोना आश्रयरूप छो. । ३ । एवी रीते अन्यदर्शनीओ प्रते जिनेश्वर प्रभुनी आज्ञाना स्वीकारनो निषेध करीने, स्तुतिकारे जाणे मध्यस्थपणुं धारण कयुं होय नही तेम तेओप्रते उत्तरार्धे करीने हवे हितशिक्षानो उपदेश आपे छे के, । ४ । तेओ आपनी आज्ञाने भले न स्वीकारो, तोपण आंखो वींचीने युक्तिवाळा एटले सत्य न्यायमार्गने तो विचारो? । ५ । अहीं 'विचारयंतां' एवी रीतना आत्मनेपदवाळां कियापदथी ‘करनारने फळ होय' एम होवाथी आचार्य महाराज एम जणावे छे के, जो सत्य न्यायमार्गपूर्वक तेओ विचार करे तो (तेथी) तेओनेज फल छे, अमो तो केवळ उपदेश देनारा छीए. । ६ । तेथी
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सम्मील्य विलोचनानीति च वदतः प्रायस्तत्वविचारणमेकाग्रताहेतुनयननिमीलनपूर्वकं लोके प्रसिद्धमित्यभिप्रायः । ८। अथवा अयमुपदेशस्तेभ्योऽ रोचमानएवाचार्येण वितीयते । ततोऽस्वदमानोऽप्ययं कटुकौषधपानन्यायेनायतिसुखत्वाद्भवद्भिर्ने। निमील्य पेय एवेत्याकूतं । ९ । ननु च यदि पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकिता तत्किमर्थं तान्प्रत्युपदेशक्लेश इति । १० । नैवं परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मनां प्रतिपाद्यगतां रुचिमरुचिंवानपेक्ष्य हितोपदेशवृत्तिदर्शनात्तेषां हि परार्थस्यैव स्वाथत्वेनाभिमतत्वात् । न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थस्तथा
तेओने शुं फळ थाय ? एम जो कोइ पूछे, तो अमो कहीए छीइ के बुद्धिवान्पणुं प्राप्त थाय. । ७ । ' आंखो वींचीने ' एम कहेवाथी एवो अभिप्राय जणाव्यो के, प्रायें करीने तत्वविचारनुं कार्य एकाग्रपणाना हेतुरूप आंखो वींचवापूर्वक थाय, एम दुनियामां प्रसिद्ध छे. । ८ । अथवा (हे अन्यदर्शनीओ!) आ उपदेश तमोने बीलकुल पसंद पडे तेवो नथीज, छतां पण आचार्यजी ते उपदेश देछे, तेथी स्वादविनानो पण आ, कडवां औषधने पीवाना न्याये करीने आगामीकाळमां सुखकारी होवाथी तमारे आंखो वींचीने पण पीवोज, एवो अभिप्राय छे. । ९ । अहीं वादी शंका करे छे के, ज्यारे परमेश्वरना वचनमा अत्यंत अविवेकथी तेओने अरुचिपणुं छे त्यारे तेओने वळी उपदेश देवा माटे तकलीफ शामाटे वेठवी जोइए ? । १० । तो तेने कहेछे के, एम नही ; कारण के परोपकारमान उत्तम प्रवृत्तिवाळा महात्माओ शिष्यनी रुचि अथवा अरुचिनी अपेक्षा राख्याविना हितोपदेशनी प्रवृत्तिवाळा देखाय छे; केमके ते महात्माओए परमार्थनेन स्वार्थतरिके मानेलो छे; तेम हि
१ शिष्यविषयां ।
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चार्षम् । ११ । 'रूसउ वा परो मा वा । विसं वा परियत्तउ । भासियव्वा हिया भासा । सपख्खगुणकारिया।।१२। उवाच च वाचकमुख्यः ॥ न भवति धर्मःश्रोतुः । सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् ॥ ब्रुवतोऽनुग्रहबुया। वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ।। । इति वृत्तार्थः
।१३ । अथ यथावन्नयवर्त्मविचारभेव प्रपञ्चयितुं पराभिप्रेततत्वानां प्रामाण्यं निराकुर्वन्नादितस्तावत्काव्यषट्केनौलूक्यमताभिमततत्वानि दूषयितुकामस्तदन्तःपातिनो प्रथमतरं सामान्यविशेषौ दूषयन्नाह ।
खतोऽनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजो' भावा न भावान्तरनेयरूपाः।
तोपदेशशिवाय बीजो कोइ तात्विक परमार्थ छे नही ; ऋषिओ पण कहे छे के, । ११ । सामो माणस रोष करो अथवा म करो, अथवा (गमे तो) तेने झेर व्यापी जाओ, तो पण शत्रुने पण गुण करनारी एवी हितकारी भाषा बोलवी. । १२ । उमास्वातिनी पण कहे छे के, हितकारी उपदेश सांभळवाथी सर्व सांभळनाराओने कंइ एकांते धर्म थतो नथी, पण कृपाबुद्धिथी उपदेश आपता उपदेशकने तो एकांते धर्म थायज छे. एवी रीते त्रीजा काव्यनो अर्थ जाणवो.
। १३ । हवे सत्यन्यायमार्गना विचारनुज विवेचन करवा माटे अन्यदर्शनीओए मानेलां तत्वोनी सत्यतानुं खंडन करता थका, पेहेलां तो छ काव्योए करीने वैशेषिकमते (कणादनामते) मानेलां तत्वोनुं दूषण देखाडवानी इच्छावाळा थया थका ते तत्वोनी अंदर रहेलां प्रथम सामान्य अने विशेषतुं खंडन करता थका कहे छे.
१ रुषतु वा परो मा वा, विषं वा पर्यटतु । भाषितव्या हिता भाषा, सपक्षगुणकारिता-इतिच्छाया. २ उमाखातिरिति । ३ अन्वयव्यतिरेकयुक्ताः ।
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परात्मतत्त्वादतथात्मतत्वाद्
द्वयं वदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति ॥ ४ ॥ पदार्थो पोतानी मेळेज सामान्यविशेषने भजनारा छे; पण ते पदार्थो एवा नथी के जेमां सामान्य अने विशेषनुं जूदा पदार्थतरिके प्रतीति करावनारुं स्वरूप होय. माटे जूठा एवा जूदा पदार्थना स्वरूपतरिके ते बन्नेने कहेता थका अकुशल वैशेषिकादिको स्खलना पामे छे. ॥ ४ ॥
| १ | अभवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावाः पदार्था आत्मपुद् - लादयस्ते स्वत इति । सर्वं हि वाक्यं 'सावधारणमामनन्तीति स्वत एवात्मीयस्वरूपादेवानुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजः । २ । एकाकारा प्रतीतिरेकशब्दवाच्यताचानुवृत्तिर्व्यतिवृत्तिर्व्यावृत्तिर्विजातीयेभ्यः सर्वथाव्यवच्छेदस्ते उभे अपि संवलिते भजन्ते आश्रयन्तीति अनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजः । सामान्यविशेषोभयात्मका इत्यर्थः । ३ । अस्यैवार्थस्य व्यतिरेकमाह । ४ । न भावान्तरनेयरूपा इति । नेति निषेधे । भावान्तराभ्यां पराभिमताभ्यां
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। १ । जे थया, थाय छे, अने थशे, ते भावो एटले आत्मा अने पुद्गलादिक जे पदार्थों, ते पोताना स्वरूपथीज अनुवृत्ति अने व्यतिवृत्तिने एटले सामान्यविशेषने भजनारा छे. ( सर्व वाक्यने एवकार सहित कहे छे.) । २ । तुल्य आकारनी खातरी अने तुल्य नामपणुं ते ' अनुवृत्ति ' अने जूढ़ी जातवाळाओथी सर्वथा प्रकारे जे जूदापणुं ते 'व्यतिवृत्ति ' कहेवाय ; अने ते बन्ने साथै रहीने एकी वखतेज जे पदार्थोनो आश्रय करे छे, ते पदार्थो अनुवृत्तिव्यतिवृत्तिने भजनारा, एटले सामान्यविशेष बन्नेमय कहेवाय. एवो भावार्थ जाणवो । ३ । हवे तेज अर्थनो फेरअर्थ कहे छे । ४ । ते पदार्थो सामान्यविशेषरूप जूदा पदार्थनी
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१ एवकारसहितं ।
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द्रव्यगुणकर्मसमवायेभ्यः पदार्थान्तराभ्यां भावव्यतिरिक्तसामान्यविशेपाभ्यां नेयं प्रतीतिविषयं प्रापणीय रूपं यथासंख्यमनुवृत्तिव्यतिवृत्तिलक्षणं स्वरूपं येषां ते तथोक्ताः । ५ । स्वभाव एव हि अयं सर्वभावानां यदनुवृत्तिव्यावृत्तिप्रत्ययौ स्वत एव जनयन्ति । ६ । तथा हि । घट एव तात्वत्पृथुत्रुघ्नोदराद्याकारवान् प्रतीतिविषयीभवन् सन् अन्यानपि तदाकृतिभृतः पदार्थान् घटरूपतया घटैकशब्दवाच्यतया च प्रत्याययन् सामान्याख्यां लभते । ७ । स एव चेतरेभ्यः सजातीयविनातीयेभ्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावैरात्मानं व्यावर्तयन् विशेषव्यपदेश'मश्नुते । इति न सामान्यविशेषयोः पृथकपदार्थान्तरत्वकल्पनं न्याय्यं । पदार्थधर्मत्वेनैव तयोः प्र
ག་ན་ཀན་ ཡས་ ཚ प्रतीति करावनारा स्वरूपवाळा नथी ; (अहीं 'न' निषेधने अर्थे छे.) अर्थात् अन्यदर्शनीओए (वैशेषिकोए) द्रव्य, गुण, कर्म अने समवायथी जूदा पदार्थतरिके मानेला एवा सामान्यविशेषे करीने अनुक्रमे प्रतीतिलायक अनुवृत्ति अने व्यावृत्तिना स्वरूपवाळा नथी. ।।सर्व पदार्थो पोतानी मेळेज सामान्य अने विशेषपणानी प्रतीति उत्पन्न करे छे; केमके तेवो तेमनो स्वभाव छे. । ६ । जेमके घडो पेहेला पोहोळा अने वळेला पेटारआदिकना आकारवाळो जणातो थको, तेवी आकृतिवाळा बीना पदार्थोने (पण ) घडारूपे अने घडा शब्दनाजः नामथी जणावतो थको सामान्यरूप नामने प्राप्त थाय छे ; । ७ । अने तेज घडो बीना पोतानी जातिवाळा अने बीजी जातिवाळाओथी द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावे करीने पोताने जूदो पाडतो थको विशेषरूप नामने प्राप्त थाय छे; माटे सामान्य अने विशेषनी जुदा पदार्थतरिके कल्पना करवी, ए व्याजबी नथी; केमके ते बन्ने तो पदार्थोंना धर्म छे एवी खातरी थाय
१ उच्चारणं ।
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....... -२४ तीयमानत्वात् । ८ । न च धर्मा धम्मिणः सकाशादत्यन्तं व्यतिरिका एकान्तभेदे विशेषणविशेष्यभावाऽनुपपत्तेः । करभरासमयोरिव धर्मम्मिव्यपदेशाऽभाव प्रसङ्गाच ।९। धर्माणामपि च पृथक्पदार्थान्तरत्वकल्पने एकस्मिन्नेव वस्तुनि पदार्थानन्त्यप्रसङ्गः । अनन्तधर्मकत्त्वाद्वस्तुनः ।१०। तदेवं सामान्यविशेषयोः सतत्त्वं यथावदनवबुध्यमाना अकुशला अतत्त्वाभिनिविष्ट दृष्टयस्तीर्थान्तरीयाः स्खलन्ति न्यायमार्गाशश्यन्ति निरुत्तरीभवन्तीत्यर्थः । स्खलनेन चात्र प्रामाणिकजनोपहसनीयता ध्वन्यते । ११ । किं कुर्वाणाः । द्वयं अनुवृत्तिव्यावृत्तिलक्षणं प्रत्ययद्वयं वदन्तः । १२ । कस्मादेतत्प्रत्ययद्वयं वदन्त इत्याह । १३ । परात्मतत्वात्परौ पदार्थेभ्यो
छ । ८ । वळी धर्मो धर्मीथी अत्यंत जुदा होयन नहीं ; एकांतभिन्न मानवाथी, उंट अने गधेडाने जेम तेम विशेषण अने विशेष्यभावनी प्राप्ति थती नथी ; अने तेथी तेओ वच्चे रहेढुं धर्मधर्मीपणुं टकी शकतुं नथी. । ९ । वळी धर्मोंने पण जो जूदा पदार्थतरिके लेखवामां आवे, तो एकज पदार्थमां अनंत पदार्थोनो प्रसंग आवशे; कारण के पदार्थना धर्मो अनंता छे. । १० । माटे एवी रीते सामान्यविशेषना छतापणाने योग्यरीते नही जाणता (अने तेथी ) अतत्वमां कदाग्रहयुक्त दृष्टिवाळा अन्यदर्शनीओ न्यायमार्गथी स्खलना पामे छे, अर्थात् उत्तर आपवाने असमर्थ थाय छे ; अने तेवी रीते स्खलना पामवावडे प्रमाणिक माणतोथी तेओ हांसीने पात्र थाय छे, एम अहीं जणाव्युं छे. । ११ । शुं करता थका ? तो के अनुवृत्ति व्यावृत्तिरूप लक्षणवाळा बन्ने प्रतीतिविषयने कहेताथका (स्खलायमान) थाय छे. । १२ । हवे केवी रीते ते बन्ने प्रतीतिविषयने कहेता थका ? ते कहे छे । १३ । पर एटले पदा
१ अनिष्टापादनं प्रसंगः । २ कदाप्रहिक ।
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व्यतिरिक्तत्त्वादन्यौ परस्परनिरपेक्षौ च यो सामान्यविशेषौ तयोर्यदात्मतत्वं स्वरूपमनुवृत्तिव्यावृत्तिलक्षणं तस्मात्तदाश्रित्येत्यर्थः । १४ । ('गम्ययपःकर्माधारे' इत्यनेन पञ्चमी) । १५ । कथंभूतात्परात्मतत्वादित्याह । १६ । अतथात्मतत्वात् (माभूत्पराभिमतस्य परात्मतत्वस्य सत्यरूपतेति विशेषणमिदं) यथा येनैकान्तभेदलक्षणेन प्रकारेण परैः प्रकल्पितं न तथा तेन प्रकारेणात्मतत्वं स्वरूपं यस्य तत्तथा तस्मात् । १७ । यतः पदार्थेष्वविष्वग्भावन' सामान्यविशेषौ वर्तते । तैश्च तौ तेभ्यः परत्वेन कल्पितौ । परत्वं चान्यत्वं । तच्चैकान्तभेदाऽविनाभावि । १८ । किंच पदार्थेभ्यः सामान्यविशेषयोरेकान्तभिन्नत्वे स्वीक्रियमाणे एकवस्तुविषय
र्थोथी भिन्न होवाथी, जूदा, अने वळी माहोमांहे अपेक्षाविनाना एवा जे सामान्यविशेष, तेओनुं अनुवृत्ति अने व्यावृत्तिना लक्षणवाळं स्वरूप कहेवाथी. । १४ । (अहीं " गम्ययपःकर्माधारे" ए सूत्रथी पांचमी विभक्ति थइ छे.) । १५ । हवे ते जूदा पदार्थनु स्वरूपपणुं केवु छे ? ते कहे छे. । १६ । ते स्वरूप जूठं छे (परें मानेला (सामान्यविशेषना) जूदा पदार्थपणाना स्वरूपने सत्यस्वरूपनी प्राप्ति न थाओ? तेटलामाटे आ विशेषण आपेलं छे.) कारण के जे एकांतभिन्नलक्षणवाळा प्रकारे करीने अन्योए स्वरूप कल्पेलुं छे, ते प्रकारे ते नथी, माटे ते जूळू स्वरूप छे ।। १७ । केमके, सामान्यविशेष तो पदार्थोमा अभिन्नभावे करीने रहेला छे, अने ते वैशेषिकोए तो तेओने ते पदार्थोथी जूदा कपेला छे ; वळी जूदापणुं एटले अन्यपणु, अने ते अन्यपणुं एकांत भेदविना होतुं नथी । १८ । वळी पदार्थोथी सामान्यविशेषनुं जो एकांत जूदापणुं अंगीकार करीयें तो, एक पदार्थमा रहेली एवी अनुवृत्तिव्या
१ अभिनभावेन ।
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अनुवृत्तिव्यावृत्तिरूपं प्रत्ययद्वयं नोपपद्येत । १९ । एकान्ताभेदेचान्यतरस्यासत्वप्रसङ्गः । सामान्यविशेषव्यवहाराऽभावश्च स्यात् । सामान्यविशेषोभयात्मकत्वेनैव वस्तुनः प्रमाणेन प्रतीतेः । २० । परस्परनिरपेक्षप. क्षस्तु पुरस्तान्निर्लोठयिष्यते । २१ । अत एव तेषां वादिनां स्खलनक्रिययोपहसनीयत्वमभिव्यज्यते । २२ । यो हि अन्यथा स्थितं वस्तुस्वरूपमन्यथैव प्रतिपयमानः परेभ्यश्च तथैव प्रज्ञापयन् स्वयं नष्टः परान्नाशयति । न खलु तस्मादन्य उपहासपात्रमिति वृत्तार्थः ॥ ४ ॥ . । २३ । अथ तदभिमतावेकान्तनित्याऽनित्यपक्षौ दूषयन्नाह । ... आदीपमाव्योम समस्वभावं
स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि वस्तु । वृत्तिरूप बे प्रतीति थती नथी, । १९ । अने जो एकांत अजूदापणुं मानीयें तो, ते बन्नेमांथी एकने (एटले कांतो पदार्थने अने कांतो सामान्यविशेषने ) अछतापणानो प्रसंग आवशे ; तेमन सामान्यविशेषना व्यवहारनो पण विनाश थाय, केमके सामान्य अने विशेष एम बन्नेना खरूपपणावडेन पदार्थनी प्रमाणपूर्वक प्रतीति थाय छे. । २० । वळी ते सामान्यविशेष माहोमांहे अपेक्षाविनाना छे, ए पक्षनुं खंडन आगळ करवामां आवशे. । २१ । आथीन तेओर्नु स्खलनपणुं थाय छे, अने तेथी तेओनी हांसी प्रगटरीते कराय छे. । २२ । केमके, जे माणस जूदी रीतना वस्तुना स्वरूपने, तेथी उलटीनरीते (पोते) अंगीकार करतो थको, अने बीजाओने पण उलटीनरीते समजावतो थको पोते नष्ट थइने बीजानों पण नाश करे छे, ते माणप्त शिवाय खरेखर बीजो कोइ हांसीने पात्र नथी. एवी रीते चोथा काव्यनो अर्थ जाणवो.' - । २३ । हवे ते वैशेषिकोए मानेला एकांतनित्य अने एकांत अनित्य पक्षनुं दूषण देखाडता थका कहे छे....
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तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्य
दिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥५॥ दीपकथी मांडीने छेक आकाशसुधिना पदार्थो तुल्य स्वभाववाळा छे ; केमके, तेओ स्याद्वादनी मर्यादान उल्लंघन करता नथी. छतां पण (आकाशादिक एकांते) नित्यन छे, अने बीजा (दीपकादिक एकांते) अनित्यन छे, एवी रीतनां निरर्थक वचनो तो (हे प्रभु!) आपना शासनसाथे वैर राख नाराओनां छे. ॥ ५ ॥
। १ । आद पं दीपादारभ्य आव्योम व्योम मर्यादाकृत्य सर्व वस्तु पदार्थस्वरूपं समस्वभावं समस्तुल्यः स्वभावः स्वरूपं यस्य तत्तथा । किंच वस्तुनः स्वरूपं द्रव्यपयायात्मकमिति ब्रूमः । । । तथा च वाचकमुख्यः " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति” । ३ । समस्वभावत्वं कुत इति विशेषणद्वारेण हेतुमाह । स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि । ४ । स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं । ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादो नित्यानित्याद्यनेकधर्मशब
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।१। छेक दीपकथी मांडीने आकाशसुधिना सर्व पदार्थोनुं स्वरूप तुल्य छे स्वभाव जेनो एवं छे ; एटले के पदार्थ- स्वरूप द्रव्यपर्यायरूप छे, एम अमो कहीये छीए. । २ । श्री उमास्वाति महाराज पण कहे छे के — उत्पत्ति, विनाश अने स्थिरतावाढं सत् छे.' । ३ । ( पदार्थहैं) तुल्य स्वभावपणुं शामाटे छे ? ते जणाववामाटे विशेषणरूपे हेतु कहे छे के, पदार्थ ले ते स्याद्वादनी मर्यादाने उल्लंघन करनार नथी. । ४ ।, 'स्य.त् ' ए अनेकांतने जगावनारो अव्यय छे, तेथी स्याद्वाद एटले अ-' नेकांतवाद, अर्थात् नित्य अने अनित्य आदिक अनेक धर्मवाळा एक पदाथनो स्वीकार ; (एटलेके एक पदार्थमां नित्य अने अनित्य आदिक अनेक धर्मो समाएला छे; एम जे मानवु ते स्याद्वाद कहेवाय.) एवी
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लैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत् । तस्य मुद्रा मर्यादा तां नाऽतिभिनत्ति नातिक्रामतीति स्याद्वादमुद्रानतिभेदि । ५ । यथा हि न्यायैकनिष्ठे राजनि राज्यश्रियं शासति सति सर्वाः प्रजास्तन्मुद्रां नातिवर्त्तितुमीशते । तदतिक्रमे तासां सर्वार्थहानिभावादेवं विजयिनि निष्कण्टके स्याद्वादमहानरेन्द्रे तदीयमुद्रां सर्वेऽपि पदार्था नातिक्रामन्ति । तदुल्लङ्घने तेषां स्वरूपव्यवस्थाहानिप्रसक्तेः । ६ । सर्ववस्तूनां समस्वभावत्वकथनं च पराभीष्ट - स्यैकं वस्तु व्योमादि नित्यमेवान्यच्च प्रदीपाद्यनित्यमेत्रेति वादस्य प्रतिक्षेपबीजं । ७ । सर्वे हि भावा द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्याः पर्यायार्थिकनयादेशा' त्पुनरनित्यास्तत्रैकान्ताऽनित्यतया परैरङ्गीकृतस्य प्रदीपस्य ता
रीतना स्याद्वादनी जे मर्यादा, तेनुं जे पदार्थ उल्लंघन करे नही, तेने स्याद्वादनी मुद्राने नहीं उल्लंघनारो कहीयें. । ५ । जेम एक न्यायनीज प्रवृत्तिवाको राजा ज्यारे राज करतो होय त्यारे, सर्व प्रजा तेनी मोहोरनुं ( सिक्कानुं ) उल्लंघन करी शकती नथी, केमके जो ते मोहोरनुं उल्लंघन करे तो, तेने सर्व अर्थनी हानि थाय छे; तेम स्याद्वादरूपी महान् राजा निष्कंटकरीते विजय पामते छते, तेनी मर्यादाने सर्व पदार्थो उल्लंघन करता नथी; केमके तेनुं उल्लंचन करवाथी तेओना स्वरूपनी व्यवस्थानी हानि थाय छे । ६ । बळी सर्व पदार्थोनुं जे तुल्यस्वभावपणुं कह्युं ते, 'एक आकाशादि वस्तु नित्यज छे, अने बीजी प्रदीप आदिक वस्तु अनित्यज छे' एवी रीते परे ( वैशेषिके ) मानेला मतनुं खंडन करवामां बीजरूप छे । ७ । सर्व पदार्थो द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षावडे नित्य छे, अने पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए अनित्य छे; तेमां एकांत अनित्यपणावडे वादीओए अंगीकार करेला दीपकनुं पेहेलां तो
१ प्राधान्यात् अपेक्षातो वा ।.
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२९ बन्नित्याऽनित्यत्वव्यवस्थापने दिङ्मातमुच्यते । ८ । तथा हि । प्रदीपपर्यायापन्नास्तैजसाः परमाणवः स्वरसत'स्तैलक्षयाद्वाताभिघाताद्वा ज्योतिःपर्यायं परित्यज्य तमोरूपं पर्यायान्तरमासादयन्तोऽपि नैकान्तेनानित्याः पुद्गलद्रव्यरूपतयाऽवस्थितत्वात्तेषां । नह्येतावतैवाऽनित्यत्वं यावता पूर्वपर्यायस्य विनाश उत्तरपर्यायस्य चोत्पादः । ९ । न खलु मृव्यं स्थासककोश'कुशूलशिवकघटाद्यवस्थान्तराण्यापद्यमानमप्येकान्ततो विनष्टं । तेषु मृट्टव्यानुगमस्याऽाबालगोपालं प्रतीतत्वात् । १० । न च तमसः पौद्गलिकत्वमसिद्धं । चाक्षुषत्वान्यथानुपपत्तेः प्रदीपालोकवत् । ११ । अथ यच्चाक्षुषं तत्सर्व स्वप्रतिभासे आलोकमपेक्षते । नचैवं तमस्तत्कथं चाक्षुषं
wwwwwwwwwww नित्याऽनित्यपणुं स्थापन करवामाटे कंइंक कर्हाये छीए. । ८ । दीपकरूप पर्यायने प्राप्त थएला तेजसंबंधि परमाणुओ स्वभावथी तेलना क्षयथी अथवा वायुना जोरथी प्रकाशरूप पर्यायने तनीने अंधकाररूप बीजा पर्यायने पामता थका पण एकांते अनित्य नथी, केमके पुद्गलद्रव्यरूपे तो तेओ रहेलांज छे ; वळी ज्यांसुधि पेहेलांना पर्यायनो विनाश अने पछीना पर्यायनी उत्पत्ति थाय त्यांसुधि कंइं अनित्यपणुं घटेज नही.।९। नेमके माटीरूप द्रव्य, त्रांस, कोश, कोठी, घटिका तथा घडा आदिकरूप जूदी नूदी अवस्थाने पामतुं थकुं पण खरेखर एकांतथी नाश पाम्युं नथी ; केमके तेओमां जे मोटीरूप द्रव्यनो चालु क्रम आवेलो छे, तेने बाळक अने गोवाळ सुद्धां पण जाणे छे. । १० । वळी अंधकारनुं पुद्गलिकपणुं कंइ असिद्ध नथी, केमके जो तेम नहोत तो दपिकना अजवाळांनी पेठे दृष्टिथी ते देखात नही. । ११ । अहीं वादी शंका करे छे के जे वस्तु चक्षुथी देखाय, ते सघळी पोताने देखाडवामा प्रकाशनी
१ खभावतः । २ मृत्पात्रविशेषः ।
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। १२ । नैवमुलूकादीनामालोकमन्तरेणापि तत्प्रतिभासात् । १३ । यैस्तु अस्मदादिभिरन्यच्चाक्षुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते तैरपि तिमिरमालोकयिष्यते विचित्रत्वाद्भावानां । १४ । कथमन्यथा पीतश्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाद्या आलोकापेक्षदर्शनाः। प्रदीपचन्द्रादयस्तु प्रकाशान्तरनिरपेक्षाः । इति सिद्धं तमश्चाक्षुषं । १५ । रूपवत्वाच्च स्पर्शवत्वमपि प्रतीयते । शीतस्पर्शप्रत्ययजनकत्वात् । १६ । यानि त्वनिबिडावयवत्वमप्रतिवातित्वमनुद्भूतस्पर्शविशेषत्वमप्रतीयमानखण्डावयविद्रव्यप्रतिभागत्वमित्यादीनि तमसः पौद्गलिकत्वनिषेधाय परैःसाधनान्युपन्यस्तानि । तानि प्रदीपप्रभादृष्टान्तेनैव प्रतिषेध्यानि । तुल्ययोगक्षेमत्वात् । १७ । न
अपेक्षा राखे छे ; पण अंधकाररूप पदार्थ तेवो नथी, तो तेने चक्षुथी देखाय एवो केम कहेवाय ? । १२ । तो तेने कहे छे के, एम नहीं 3 केमके घुबडादिकोने प्रकाशविना पण ते देखाय छे. । १३ । वळी जे आपण आदिकोने चक्षुथी देखाय तेवा बीना घटादिक पदार्थो प्रकाशविना देखाता नथी, तेओथी पण अंधकार तो (प्रकाशविना पण ) देखाय छे; माटे पदार्थोनु विचित्रपणुं छे. । १४ । अने जो तेम विचित्रपणुं नहोत तो पीळा अने सफेद एवा सुवर्ण अने मोती आदिको प्र. काशथी देखानारा केम थात ? अने दीपक तथा चंद्रादिको बीजा प्रकाशविना पण देखानारा केम थात? माटे अंधकार चक्षुथी जोइ शकाय छे, एम सिद्ध थयु. । १५ । वळी ते रूपवाळ होवाथी तेनु स्पर्शपणुं पण जणाय छे, केमके ते ठंडा स्पर्शनी प्रतीति उत्पन्न करे छे. । १६ । वळी अंधकारनुं पुगलिकपणुं निषेधवामाटे ते अन्यदर्शनीओए तेमां निविडअवयवपणुं नथी, अटकायतपणुं नथी, स्पर्शविशेषपणुं नथी, तेम तेनु कोइ अवयवबाळा पदार्थ- टुकडापणुं देखातुं नथी, इत्यादिक जे कारणो आप्यां छे, ते सघळां कारणोनु तुल्यपणाना योगथी दीपकनी कांतिना
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च वाच्यं तैजसा परमाणवः कथं तमस्त्वेन परिणमन्त इति । पुद्गलानां 'तत्तत्सामग्री सहकृतानां विसदृशकार्योत्पादकत्वस्यापि दर्शनात् । १८ । दृष्टोह्यार्द्रेन्धनसंयोगवशाद्भास्वर रूपस्यापि वन्हेर भास्वर रूपधूम रूप कार्योत्पादः । इति सिद्धो नित्त्याऽनित्यः प्रदीपः । १९ । यदापि निर्वाणादर्वाग् देदीप्यमानो दीपस्तदापि नवनवपर्यायोत्पादविनाशभाक्तत्वात् प्रदीपत्वान्त्रयाच्च नित्याऽनित्य एव । २० । एवं व्योमपि । उत्पादव्ययधौव्यात्मकत्वान्नित्याऽनित्यमेव । तथा हि । २१ । अवगाहकानां जीवपुद्गलानामवगाहदानोपग्रह एव तल्लक्षणं " अवकाशदमाकाशमिति " व`चनात् । यदा चावगाहका जीवपुद्गलाः संयोगतो' विश्रसातो वा एकस्मान्नभःप्रदेशात्प्रदेशान्तरमुपसर्पन्ति तदा तस्य व्योम्नस्तैरवगाहकैः सम
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दृष्टांतथी खंडन थइ शके छे. । १७ । वळी तेजरूप परमाणुओ अंधकाररूप ते शाना थइ जाय ? एम पण ( हे वादीओ ! तमारे ) न कहेवुं ; केमके पलोने ते ते सामग्रीओनो ज्यारे संयोग थाय छे, त्यारे तेओमां तेमना स्वभावथी जुदीज रीतना कार्यनुं उत्पत्तिपणं पण देखाय छे; | १८ | केमके लीलां काष्टोना संयोगथी कांतिवाळो अग्नि पण कांतिविनाना धुंवाड रूप कार्यनी उत्पत्ति करे छे. एवी रीते दीपक नित्याऽनित्य सिद्ध थयो । १९ । वळी बुझाया पेहेलां दीपक जो के बळतो हतो, तोपण नवा नवा पर्यायोनी उत्पत्ति अने विनाश करतो होवाथी, तेमज दीपकपणं साथे चाल्युंज आवतुं होवाथी, ते नित्याऽनित्यज छे. । २० । एवी रीते आकाश पण उत्पत्ति, विनाश अने स्थिररूप होवाथी नित्याऽनित्यज छे, ते कहे छे. । २१ । अंदर रहेनारा जे जीव अने पगलो, तेओने स्थानक देवाना उपकाररूप आकाशनुं
१ उपकारः । २ पुरुषशक्तितः । ३ खभावतः ।
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मेकस्मिन्प्रदेशे विभाग' उत्तरस्मिंश्च प्रदेशे संयोगः । संयोगविभागौ परस्परं विरुद्ध धम्म । तद्भेदे चावश्यं धर्मिणो भेदः । २२ । तथा चाहुः " अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा यद्विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्वेति" । २३ । ततश्च तदाकाशं पूर्वसंयोगविनाशलक्षण परिणामापत्त्या विनष्टं । उत्तरसंयोगोत्पादाख्यपरिणामानुभवाच्चोत्पन्नमुभयताकाशद्रव्य
लक्षण छे. कह्युं छे के ' अवकाशने देनारुं, ते आकाश. ' । वळी ज्यारे मां रहेनारा जीव पुद्गलो कोइनी प्रेरणाथी अथवा स्वभावथी आकाशना एक भागमांथी बीजा भागमां जाय छे, त्यारे ते अवगाहकोनी साथे ते आकाशनो एक भागमां वियोग अने बीजा भागमां संयोग थाय छे, अने संयोगवियोग तो मांहोमांहे विरुद्ध धर्मवाळा छे; तेम तेओमां भेद होते छते धर्मीनो ( आकाशनो ) पण अवश्य भेद थाय छे. । २२ । वळी विषे ( शास्त्रकारो ) कहे छे के 'भेद अथवा भेदहेतु तेनेज कहीयें के, जेमां विरुद्ध धर्मनुं आरोपण होय, अने कारण संबंधि भि न्नता होय. ' ( अर्थात् भेद बे प्रकारनो छे, एक लक्षणथी अने बीजो कारणथी. जेमके घडानो स्वभाव पाणी धारण करवानो छे, अने वस्त्रनो स्वभाव शीत हरण करवानो छे; ए तेओ वच्चेनो ' लक्षणभेद' छे. अने घडो माटीथी उत्पन्न थाय छे, अने वस्त्र तंतुथी उत्पन्न थाय छे; ए तेओ वच्चेनो ' कारणभेद ' छे. ) । २३ | तेथी ते आकाश पूर्वना संयोगना विनाशरूप परिणामनी प्राप्तिथी नष्ट थयुं, अने उत्तरना संयोगनी उत्पत्तिरूप परिणामना अनुभवथी उत्पन्न थयुं ; अने आकाशद्र
१ प्रातिपूर्विकाऽप्राप्तिर्विभागः । २ अप्राप्तिपूर्विका प्राप्तिः संयोगः । ३ उभयथा भेदो वस्तूनां लक्षणभेदात्कारणभेदाच्चेति । अयमेव हि घटपटयोर्भेदो यजलाहरणादि शीतत्राणादिविरुद्धधर्माध्यासः ॥ अयमेव हि भेदहेतुर्वा यन्मृत्पिडादितंलादिकारणभेदः ।
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स्यानुगतत्वाच्चोत्पादव्यययोरेकाकाशाधिकरणत्वं । २४ । तथा च " यदप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यमिति" नित्यलक्षणमाचक्षते तदपास्तं । एवंविधस्य कस्यचिद्वन्तुनोऽभावात् " तद्भावाऽव्ययं नित्यमिति" तु सत्यं नित्यलक्षणं । २५ । उत्पादविनाशयोः सद्भावेऽपि तद्भावादन्वयिरूपान व्येति तन्नित्यमिति तदर्थस्य' घटमानत्वात् । २६ । यदि हि अप्रच्यु. तादिलक्षणं नित्यमिष्यत तदोत्पादव्यययोनिराधारत्वप्रसङ्गः । न च तयोयोगे नित्यत्वहानिः । २७ । =|| द्रव्यं पर्यायवियुतं । पर्याया द्रव्यवजिताः ॥ व कदा केन किंरूपा । दृष्टा मानेन केन वा ।। इतिवचनात्
व्य तो बन्नेमा सामेल रहेलुं छे ; तेथी उत्पत्तिमा अने विनाशमां एकज अ'काशनुं सहचारीपणुं छे. । २४ । वळी तेथी, 'जेनो नाश नथी, उत्पत्ति नथी, अने एक स्थिरपणे रहे छे, ते नित्य छे' एवी रीतनुं जे नित्य लक्षण ( अन्यदर्शनीओ) कह छे, तेनु खंडन कर्यु ; केमके तेवा प्रकारनी कोइ पण वस्तु नथी. माटे 'तेना भावनो एटले स्वभावनो विनाश न थवो, ते नित्य ' ए नित्यनू सत्य लक्षण छे. । २५ । केमके उत्पत्ति अने विनाश होते छते पण चालता आवता स्वभावी जे खसे नही ते 'नित्य,' अने तेवी रीतनं नित्यनुं लक्षण नित्यपणाना अर्थने योग्य छे. । २६ । वळी जेनो विनाश थतो नथी' इत्यादिक (उपर कहेला) लक्षणवाळू ( अन्यदर्शनीओए मानेलु) 'नित्य ' जो मानीए, तो उत्पत्ति अने विनाशने निराधारपणानो प्रसंग आवे छे; तेमज उत्पत्ति अने विनाशनो संयोग होते छते कंइं नित्यपणानो नाश थतो नथी. । २७ । कां छे के, पर्यायविनानुं द्रव्य अने द्रव्यविनाना पर्यायो क्या ? क्यारे ? कोणे ? केवा ? अथवा कया प्रमाणथी जोया
१ नित्यत्वार्थस्य ।
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। २८ । लौकिकानामपि घटाकाशंपटाकाशमितिव्यवहारप्रसिद्धराकाशस्य नित्याऽनित्यत्वं । २९ । घटाकाशमपि हि यदा घटापगम पटेनाक्रान्तं तदा पटाकाशमितिव्यवहारः । ३० । न चायौपचारिकत्वादप्रमाणमेव । उपचारस्यापि किञ्चित्माधर्माद्वारेण मुख्यार्थम्पर्शित्वात् ।२।। नभतो हि यत्किल सर्वव्यापकत्वं मुख्यं परिमाणं तत्तदायघटाटादिपम्बन्धिनियतपरिणामवशात्कल्पित भेदं सत्प्रतिनियतदेशव्यापिनया व्यवह्रियमाणं घटाकाशपटाकाशादितत्तद्वयपदेशनिबन्धनं भवति । ३२ । तत्तवटादिसम्बन्धे च व्यापकत्वेनावस्थितस्य व्योम्नेऽवस्थान्तरापतिस्ततश्वावस्थाभेदेऽवस्थावतोऽनि भेदस्तामा ततोऽपिवग्भ गदिति सिद्धं नि
छ ? । २८ । लाककमां पण 'आ घड.वाळं आकाश, आ वस्त्रवाळू आकाश' एका व्यवहारनी प्रसिद्धि होवाथी आकाशन नित्यपगुं अने अनित्य र पण योग्य न छे ; । २९ । केमके घडावाळं आकाश पण ज्यारे बडो खसी जवाथी वस्त्रवडे युक्त थयुं त्यारे ते वस्त्रत्राळं आकाश कयेवाय, एवो व्यवहार छे. । ३० । वळी आ व्यवहार उपचारिक होव.थी प्रमाणविनानो एटले कई जूठोज कहेवाय नहीं, केमके उपचार पण कंइंक तुल्यधर्मपणायें करीने मुख्य अथेने स्पर्श करे छे, एटले अनुप्सरे छे. । ३१ । आकाशन सर्वव्यापकपणारूप ने मख्य परिमाण छे, ते, तेमां रहेला घटपटादिसंबंधि अमुक परिणामना वशथी भेदवाळं थयुं थकं, अमुक भागमा व्यापकपणायें करीने व्यवहार करातुं थ 'घडावाळं आकाश, वस्त्रवाळं आकाश' इत्यादिक नामोना कारणरूप थाय छे ; । ३२ । तेथी ते घडादिकना संबंधमां व्यापकपणायें करीने रहेला आकाशने जूही अवस्थानी प्राप्ति थाय छे, अने तेथी अवस्थासंबंधि भेद होते छते, ते अवस्थाओ तेमां अभेदपणे वर्तती होवाथी अव. स्थावाळानो एटले आकाशनो पण भेद थाय छे. एवी रीते आकाशन
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३५ त्यानित्यत्वं व्योम्नः । ३३ । स्वायंभुवा' अपि हि नित्याऽनित्यमेव वस्तु प्रपन्नास्तथा चाहुस्ते त्रिविधः खल्वयं धम्मिणः परिणामो धर्मलक्षणावस्थारूपः । ३४ । सुवर्ण मि । तस्य धर्मपरिणामो वर्द्धमानरुचकादिः । धर्मस्य तु लक्षणपरिणामोऽनागतत्वादिः । ३५ । यदा खल्वयं हेमकारो वर्द्धमानकं भक्त्वा रुचकमारचयति तदा वर्द्धमानको वर्तमानतालक्षणं हित्वा अतीततालक्षणमापद्यते । रुचकस्तु अनागततालक्षणं हित्वा वर्तमानतामापद्यते । वर्तमानतापन्न एव रुचको नवपुराणभावमापद्यमानोऽवस्थापरिणामवान् भवति । ३६ । सोऽयं त्रिविधः परिणामो धमिणः । ३७ । धर्मलक्षणावस्थाश्च धमिणो भिन्नाश्चाभिन्नाश्च ।३८ । तथा च । ते धर्म्यभेदात्तन्नित्यत्वेन नित्याः । भेदाच्चोत्पत्तिविनाशविषनित्य ऽनित्यपणुं सिद्ध थयं. । ३३ । मांसामतःळा पण पदार्थन नित्यऽनित्य न नाने छे. तेओ कहे छ के, धर्म, लक्षण अने अवस्थारूप, एवो त्रण प्रकारनो धर्मीनो परिणाम छ. । ३४ । जेमके मुवर्ण धर्मी छ, अने तेनो धर्मपरिणाम हार तथा कंटा आदिक छ ; अने धर्मनु ने अनागतपणादिक खरूप ते धर्मन लक्षणपरिणाम छे. । ३५ । ज्यारे कोइ सोनी हार भांगाने कंठो बनाव छ, त्योर हार वर्तमानपण रूप लक्षणने तजीने अतीतपणारूप लक्षणने प्राप्त थाय छे, अने कंठो अनागतपणाना लक्षणने तीन वर्तमानपण.ने पामे छ ; तेम वर्तमानपणाने पामेलोन कंठो नवा जुनाना भावने प्राप्त थतो थको अवस्थाना परिणामवाळी थाय छ ; ( ए पण धर्मोनोन अवस्थापरिणाम छे.) । ३६ । एवी रीतनो त्रण प्रकारनो धर्मीनो परिणाम छे. । ३७ । वळी ते धर्म, लक्षण अने अवस्थारूपपरिणामी धर्मीथी भिन्न अंने अभिन्न पण छे. । ३८ । वळी ते धर्मीना अभेदथी तेना नित्यपणायं करीने नित्य छे,
१ सांख्या अपि । २ ग्रीवाभरणं ॥
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यत्वमित्युभयमुपपन्नमिति । ३९ । अथोत्तरार्द्ध वित्रियते । ४० । एवं चोत्पादव्ययौ व्यात्मकत्वे सर्व भावनां सिद्धेऽपि । तद्वस्तु एकं आकाशात्मादिकं नित्यमेवान्यच्च प्रदीपघटादिकमनित्यमं त्रेत्येवकारोऽत्रापि सम्बध्यते । इत्थं हि दुर्नयवादापत्तिः । ४१ । अनन्तधर्म्मात्मके वस्तुनि स्वाभिप्रेतनित्यत्वादिधर्म्मसमर्थनप्रवणाः शेषधर्म्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना दुर्नया इति तल्लक्षणात् । ४२ । इत्यनेनोल्लेखेन त्वदाज्ञाद्विषतां भवत्प्रणीतशासनविरोधिनां प्रलापाः प्रलपितान्यमम्बद्धवाक्यानीति यावत् । ४३ । अत्र च प्रथममादीपमिति परप्रसिद्ध्याऽनित्यपक्षोल्लेखेऽपि यइतरत्र यथासंख्यपरिहारेण पूर्वतरं नित्यमेवैकमित्युक्तं तंव ज्ञापयति यद
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अने भेदी उत्पत्ति विनाश होवाथी अनित्य छे; एवी रीते नित्याऽनित्यपणुं प्राप्त थयुं. । ३९ । हवे उत्तरार्धनुं विवरण कराय छे. । ४० । एव ते सर्व पदार्थों उत्पत्ति, विनाश अने स्थिरपणुं सिद्ध थया छतां पण आकाश तथा आत्मादिक केटलाक पदार्थों नित्यज छे, अने दीपक तथा घडादिक केटलाक बीजा पदार्थों अनित्यज छे, ( एत्रकारने अहीं पण जोडी लेवो ) एम कहेवाथी जूठा न्यायवादनी प्राप्ति थइ । ४१ । अनंत धर्मवाळी वस्तुमां ( पण ) पोतानी मरजी मुजब बाकीना धर्मनो तिरस्कार करीने नित्यपणादिक धर्मने दृढ करवामां तत्पर रहेनाराओ दुर्नी कहेवाय छे, केमके तेओनुं ते लक्षण छे । ४२ । एवी रीतना ( हे प्रभु ! ) तमारा शासनना विरोधी ओनां निरर्थक वचनो छे. । ४३ । वळी अहीं वैशेषिकोना मतप्रमाणे अनित्यपक्षना प्रकारमां प्रथम दीपक छे, छतां पण उत्तरार्धमां ते अनुक्रमने छोडीने पेहेलां ' एक नित्यज छे' एम जे कह्युं छे, ते एम जणावे छे के, जे अनित्य छे ते पण कोइ
१ बद्धकक्षाः । २ प्रकारेण ।
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नित्यं तदपि नित्यमेव कथंचिद्यच्च नित्यं तदप्यनित्यमेव कथंचित् । त्प्रकान्तवादिभिरप्येकस्यामेव पृथिव्यां नित्याऽनित्यत्वाभ्युपगमात् ।४४ । तथा च प्रशस्तकरः' सा तु द्विविधा नित्याऽनित्या च । परमाणुलक्षणा नित्या । कार्यलक्षणा त्वनित्येति । ४५ । न चात्र परमाणुद्रव्यकार्यलक्षणविषयद्वयभेदान्नैकाधिकरणं नित्याऽनित्यत्वमिति वाच्यं । पृथिवीत्वस्योभयत्राप्यव्यभिचारात् । एवमवादिप्वीति । ४६ । आकाशेऽपि संयोगविभागाङ्गीकारात्तैरनित्यत्वं युक्त्या प्रतिपन्नमेव । ४७ । तथा च स एवाह शब्दकारणत्वव वनात्संयोगविभागाविति नित्याऽनित्यपक्षयोः संवलितत्वं एतच्च लेशतो भावितमेवेति । ४८ । प्रलापप्रायत्वं च परवचनानामित्थं समर्थनीयं । ४९ । वस्तुनस्तावदर्थक्रियाकारित्वं लक्षणं । तरीते नित्य छे, अन जे नित्य छे ते पण कोइ रीते अनित्य छे ; केमके ते वैशेषिकोए पण एकज पृथ्वीमां नित्याऽनित्यपणं स्वीकार्य छे. । ४४ । तेनो भाष्यकार कहे छ के, पृथ्वी बे प्रकारनी छे ; नित्य अने अनित्य ; परमाणुरूपे नित्य छे, अने कार्यरूपे अनित्य छे. । ४५ । वळी (पृथ्वीमां) एक परमाणुद्रव्यपणुं अने बीजें कार्यपणुं, एम बे भेद जूदा होवाथी साथे वर्तनारुं नित्याऽनित्यपणुं नथी आवतुं, एम न बोलवं; केमके पृथ्वीपणुं तो ते बन्नेमां रहेलुं छे ; अने एवीज रीते जलादिकमां पण जाणवं. । ४६ । वळी आकाशमां पण संयोगवियोगने स्वीकारवाथी तेओए अनित्यपणुं युक्तिथी मानेलुन छे. । ४७ । तेओ कहे छे के ‘आकाश शब्दन कारण छे' एम कहेवाथी ते आकाशमा संयोगवियोग थया, अने तेथी नित्याऽनित्यपक्षनुं तेमां एकी वखते होवापणुं थयं, अने ते लेशथी जणाव्युं छे. । ४८ । हवे ते वैशेषिकोतुं निरर्थकवचनपणुं तो नीचे प्रमाणे जाणवू. । १९ । 'अर्थक्रिया करवी' ए पदार्थ- लक्षण
१ भाष्यकारः । २ द्वथणुकादिलक्षणा ।
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चैकान्तनित्याऽनित्यपक्षयोन घटते । ५० । अप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपो हि नित्यः । ५१ । स च क्रमेणार्थक्रियां कुर्वीत अक्रमेण वा अन्योन्यव्यवच्छेदरूणां प्रकारान्तरासम्भवात् । ५२ । तत्र न तावत्क्रमेण । स हि कालान्तरभाविनीः क्रियाः प्रथमक्रियाकाल एव प्रसह्य कुर्यात् । समर्थस्य कालक्षेपायोगात् । कालक्षेपिणो वाऽसामर्थ्यप्राप्तेः । ५३ । समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं तमथं करोतीति चेन्न । तर्हि तस्य सामर्थ्यमपरसहकारि । सापेक्षवृत्तित्वात् । सापेक्षमसमर्थमिति न्यायात् । ५४ । न तेन सहकारिणोऽपेक्ष्यन्तेऽपितु कार्यमेव सहकारिष्वसत्वभवत् तानपेक्षते इति चेत् तत् किं स भावोऽसमर्थः समर्थो वा । ५५ । छे, अने ते एकांत नित्याऽनित्य पक्षमां घटतुं नथी. । ५० । तेओ एम कहे छे के 'जनो नाश नही, उत्पत्ति नहीं अन जे स्थिररूपे रहे छे ते नित्य छे.' । ५१ । हवे ते नित्य पदार्थ क्रमथी अर्थक्रिया करे छे ? के क्रमविना करे छे ? केमके परस्पर जूदा स्वरूपवाळी ए बे प्रकारनी क्रियाशिवाय त्रीनो प्रकार नथी. । ५२ । हवे तेमां क्रमथी तो करतो नथी, केमके ते समर्थ होवाथी केटरेक काळे थनारी क्रियाने पेहेली कियावखतेन बळात्कारे पण करी लेत, कारणके समर्थ विलंब करे नहीं; अथवा जो विलंब करे, तो ते असमर्थ कहेवाय. । ५३ । समर्थ छतां पण ते ते मददगारनो सहाय होते छते ते ते अर्थने करे छे, एम जो वादी कहे, तो ते अयुक्त छे ; केमके तेथी तो तेनुं समर्थपणुं अपेक्षावाळं होवाथी बीनानी मददवाळं थयु; अने अपेक्षावाळं ते 'असमर्थ' एवो न्याय छे. । ५४ । ते पदार्थ मददगारोनी अपेक्षा राखतो नथी, पण मददगारो न होते छने कार्यज न थतुं थकुं तेओनी अपेक्षा राखे छे, एम जो कहे, तो ते पदार्थ समर्थ छ के असमर्थ ? । ५५ । जो
१ परस्परपृथभूतानां क्रियाणां ।
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समर्थकि सहकारिमुखप्रेक्षणदीनानि तान्यपेक्षते । न पुनर्झटिति घटयति । ५६ । ननु समर्थमपि बीजमिलानला निलादिसहकारिसहितमेवांकुरं करोति नान्यथा । ५७ । तत् किं तस्य सहकारिभिः किञ्चिदुपक्रियेत न वा । ५८ । यदि नोपक्रियेत तदा सहकारिसन्निधानात्प्रागिव किं न तदाप्यर्थक्रियायामुद्रास्ते । ५९ । उपक्रियेतचेत्स तर्हि तैरुपका- रोऽभिन्नो भिन्नो वा क्रियत इति वाच्यं । ६० । अभेदे स एव क्रियते । इति भमिच्छतो मूलक्षतिगयता । कृतकत्वेन तस्यानित्यत्वापत्तेः ॥ ६१ ॥ भेदे तु स कथं तस्याकारः किं न सह्यविन्ध्यादेरपि । ६२ । तत्संवन्धत्तस्यायमिति चेत् उपकार्योपकारयोः कः सम्बन्धः । ६३ । न तात्रसंयोगो द्रव्योरेव तस्य भावात् । ६४ । अत्र तु उपकार्यं द्रव्यं
?
समर्थ छे तो मददगारनं मोहोड़ जोइ बैठेला एवा तेओनी शामांट अपेक्षा राखे छे अने जलदिथी कां नथी करतो ? । ५६ । (त्यारे वादी कहे ले के ) समर्थ एवं पण चीज पृथ्वी, पाणी अने वायु आदिक म ददगार मळवथीज अंकुरो उत्पन्न करे छे, पण बीजी रीते करतु नथी. । ५७ । ( तेनो उत्तर ए के ) त्यारे मददगारो तेने कई उपकार करे छे नही ? । १८ । जो उपकार न करता होय, तो मददगारोनी • मददवखते पण प्रथमनीपेठे कार्य करवामां ते केम अत्रकातुं नथी ।। ५९ । अने जो तेने उपकार करता होय, तो तेओ उपकार भिन्न करे छे ? के अभिन्न करे छ ? ते कहेतुं । ६० । जो अभिन्न करे तो तेज कराय छे; एवी रीते लाभ इच्छां मूळनीन हानि थइ; केमके तेने कृतकपणाथी अनित्यपगानी प्राप्ति थइ । ६१ । अने जो भिन्न उपकार करे, तो तेनो शामांट ? अने सह्यविध्याचलादिकनो केम नही ? । ६२ । तेना संबंधी आ तेनो उपकार छे, एम जो कहेशो तो, उपकार्य अने उपकारनो शो संबंध छे ? । ६३ । संयोगसंबंध तो नथी, के
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उपकारश्च क्रियेति न संयोगः । ६५ । नापि समवायस्तस्यैकत्वाद् व्यापकत्वाच्च प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावेन सर्वत्र तुल्यत्वान्न नियतैः सम्बन्धिभिः संबन्धो युक्तः । ६६ । नियतसंबन्धिसंबन्धे चाङ्गीक्रियमाणे तत्कृत उपकारोऽस्य समवायस्याभ्युपगन्तव्यस्तथा च सत्युपकारस्य भेदाऽभेदकल्पना तदवस्थैव । ६७ । उपकारस्य समवायादभेदे समवाय एव कृतः स्यात् । भेदे पुनरपि समवायस्य न नियतसम्बन्धिसंबंधत्वं । तन्नैकान्तनित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां कुरुते । ६८ । नाप्यक्रमेण । न को भावः सकलकालकलाकलापभाविनीयुगपत् सर्वाः क्रियाः करोतीति प्रातीतिकं । ६९ । कुरुतां वा तथापि द्वितीयक्षणे किं कुर्यात् । ७० । करणे वा क्रमपक्षभावी दोषः । अकरणे त्वर्थक्रियाकारित्वाऽभावादवस्तु
मके ते तो बे द्रव्योवच्चेन होय. । ६४ । अहीं द्रव्य उपकार्य छे, अने उपकार क्रिया छे, तेथी संयोगसंबंध नथी. । ६५ । तेम समवायसंबंध पण नथी, केमके ते तो एक अने व्यापक होवाथी नजीक अने दूरना अभावें करीने सर्व जगोए तल्य होवाथी नियतसंबंधिओ साथे तेनो संबंध योग्य नथी ।६६ । केमके जो नियतसंबंधिनो संबंध लेइए, तो तेनो करेलो उपकार आ समवायने जाणवो ; अने तेम थवाथी तो उपकारनी भेदाऽभेदनी कल्पना तेमन रही ; । ६७ । केमके उपकार जो समवायथी अभिन्न होय तो समवायज करायो, अने भिन्न होय तो फरीने पण समवायन नियतसंबंधिो साथे संबंधपणुं आवतुं नथी ; माटे एकांत नित्य पदार्थ क्रमवडे तो क्रिया करतो नथी. । ६८ । तेम क्रमविना पण करतो नथी, केमके एक पदार्थ सर्व काळना समूहमा थनारी सर्व क्रियाओ एकीवखते करतो नथी, एम चोकस छे ; । ६९ । अथवा तेम करे, तोपण बीजा क्षणमां शुं करे ? । ७० । करे तो क्रमवाळो दोष आवे, भने न करे तो अर्थक्रियाकरवापणाना अभावथी तेने अपदार्थपणानो प्र
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त्वप्रसङ्गः । ७१ । इत्येकान्तनित्यात् क्रमाक्रमाभ्यां व्याप्तार्थक्रिया व्यापकानुपलब्धित्रलाध्यापकनिवृत्तौ निवर्तमानास्वव्याप्यमर्थक्रियाकारित्वं निवर्तयति । अर्थक्रियाकारित्वं च निवर्तमानं स्वव्याप्यं सत्त्वं निवर्तयतीति नैकान्तनित्यपक्षो युक्तिक्षमः । ७२ । एकान्ताऽनित्यपक्षोऽपि न कसीकरणाहः । ७३ । अनित्यो हि प्रतिक्षणविनाशी । स च न क्रमेणार्थक्रियासमर्थो । देशकृतस्य कालकृतस्य च क्रमस्यैवाऽभावात् । ७४ । क्रमो हि पौर्वापर्य । तच्च क्षणिकस्यासम्भवि । ७५ । अवस्थितस्यैव हि नानादेशकालव्याप्तिर्देशक्रमः कालक्रमश्चाभिधीयते । न चैकान्तविनाशिनि सास्ति । यदाहुः । ७६ ।। यो यत्रैव स तत्रैव । यो यदैव तदैव सः॥ न देशकालयोाप्ति-र्भावानामिह विद्यते |७७ । न च सन्तानापेक्षया पूर्वोत्तरक्षणानां क्रमः सम्भवति । सन्तानस्याऽवस्तुत्वात् । वस्तुत्वेऽपि संग आवशे. । ७१ । एवी रीते एकांत नित्यथी क्रम अक्रमवडे व्यापक न मलवाथी, व्यापेली अर्थक्रिया, व्यापकनो नाश होते छते नाश पामती थकी, पोतामां व्यापेला अर्थक्रियाकरवापणानो नाश करे छे ; अने अर्थ क्रियाकरवापणुं नष्ट थतुं थकुं पोतामां व्यापेला छतापणानो नाश करे छे, तेथी एकांत नित्यवाद युक्तिवाळो नथी. । ७२ । तेमज एकांत अनित्यवाद पण स्वीकारवा लायक नथी. । ७३ । अनित्य छे ते क्षणक्षणप्रते विनश्वर छे, अने ते क्रमवडे अर्थक्रियामां समर्थ नथी, केमके तेने देशक्रम अने काळक्रमनो अभाव छे. । ७४ । क्रम एटले परंपरा, अने ते क्षणिकने होय नही; । ७५ । केमके स्थित रहेनारनेज जूदा जूदा देशकाळनी व्याप्तिवाळा देशक्रम अने काळक्रम होय छे, पण एकांत विनश्वरमां ते व्याप्ति होती नथी ; कां छे के-। ७६ । जे ज्यां छे, ते त्यांज छे, अने जे ज्यारेज छे, ते त्यारेज छे; केमके पदार्थोने अहीं देशकाळनी व्याप्ति होती नथी. । ७७ । वळी संताननी अपेक्षावडे पे
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तस्य यदि क्षणिकत्वं न तर्हि क्षणेभ्यः कश्चिद्विशेषः । अथाऽक्षणिकत्वं तर्हि समाप्तः क्षणभङ्गवादः । ७८ । नाप्यक्रमेणार्थक्रिया क्षणिके सम्भवति । ७९ । सोको बीजपूरादिरूपादिक्षणो' युगपदनेकान् रसादिक्षणान् जनयन् एकेन खभावेन जनयेन्नानास्वभावैर्वा । ८० । यद्येकेन तदा तेषां रसादिक्षणानामेकत्वं स्यादेकस्वभावजन्यत्वात् । ८१ । अथ नानास्वभावैर्जनयति किञ्चिद्रूपादिकमुपादानभावेन किंचिद्रसादिकं सहकारित्वेनेतिचेत् । तर्हि स्वभावास्तस्यात्मभूता अनात्मभूता वा । ८२ । अनात्मभूताश्चेत्स्वभावत्वहानिः । यद्यात्मभूतास्तर्हि तस्यानेकत्वं । अने
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हेलांना अने पछीना क्षणोनो क्रम संभवतो नथी, केमके संतान कंइं पदार्थ नथी; वळी तेना पदार्थपणामां पण ज्यारे क्षणिकपणुं छे, त्यारे क्षणोथी कंइ विशेष नथी ; अने जो अक्षणिकपणुं मानशो तो तमारो सणिकवाद समाप्त थयो. । ७८ । वळी क्षणिकमां क्रमविना पण अर्थक्रिया संमवती नथी । । ७९ । केमके बीजोरां आदिकना रूपादिकनो ते एक क्षण, एकी वखते रसादिक अनेक क्षणोने उत्पन्न करतो थको एक खभाववडे उत्पन्न करे ? के जूदा जूदा स्वभाववडे उत्पन्न करे ! । ८० । जो एक स्वभावे उत्पन्न करे, तो ते रसादिकक्षणोनुं एकपणुं थाय, केमके ते एक स्वभावथी उत्पन्न थया;। ८१ । अने जूदा जूदा खमावोथी उपादान भावें करीने कंइंक रूपादिकने अने सहकारीपणायें करीने कंइंक रसादिकने जो उत्पन्न करे, तो तेना स्वभावो आत्मरूप छ ? के अनात्मरूप छे । । ८२ । जो अनात्मरूप होय तो स्वभावपणानी हानि थाय छे ; अने जो आत्मरूप होय तो अनेक स्वभाव होवाथी तेने अनेकपणुं आवे छे ; अथवा स्वभावोर्नु एकपणुं थाय छे; के
१ बौद्धमते क्षणशब्देन पदार्थसंज्ञा क्षणिकलात्क्षणः ॥
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कस्वभावत्वात् । स्वभावानां वा एकत्वं प्रसज्येत । तदव्यतिरिक्तत्वात्तेषां तस्य चैकत्वात् । ८३ । अथ य एव एकत्रोपादानभावः स एवान्यत्र सहकारिभाव इति न स्वभावभेद इष्यते । तर्हि नित्यस्यैकरूपस्यापि क्रमेण नानाकार्यकारिणः स्वभावभेदः कार्यसांकर्यं च कथमिष्यते क्षणिकवादिना । ८४ । अथ नित्यमेकरूपत्वादक्रमं अक्रमाच्च क्रमिणां नानाकार्याणां कथमुत्पत्तिरितिचेदहो स्वपक्षपाती देवानांप्रियो यः खलु स्वयमेकस्मान्निरंशाद्रूपादिक्षणात्कारणाद्युगपदनेककारणसाध्यान्यनेककार्याण्यङ्गीकुर्वाणोऽपि परपक्षे नित्येऽपि वस्तुनि क्रमेण नानाकार्यकरणेऽपि विरोधमुद्भावयति । तस्मात्क्षणिकस्यापि भावस्याऽक्रमेणार्थक्रिया दुर्घटा | ८५ | इत्यनित्यैकान्तादपि क्रमाक्रम योर्व्यापक योनिवृत्त्यैवव्याप्यार्थी क्रियापिव्यावर्तते । तद्वयावृत्तौ च सत्त्वमपि व्यापकानुपलब्धिबलेनैव निवर्तते । इत्ये
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मके ते तेओनाथी अभिन्न छे, अने तेने एकपणुं छे. । ८३ । वळी जे एक जगोए उपादानभाव छे, तेज बीजी जगोए सहकारी भाव छे, माटे स्वभावभेद नथी, एम जो मानशो, तो नित्य अने एकरूप एवा पण अनुक्रमे जूदा जूदा कार्य करनार पदार्थनो स्वभावभेद अने कार्यनुं मिश्रण क्षणिकवादी केम माने छे ? । ८४ । हवे नित्य छे ते एकरूप होवाथी क्रमविनानुं छे, माटे क्रमवाळां जूदां जूदां कार्योंनी उत्पत्ति तेनाथी केम थाय ? एम जो कहे तो, अहो ! पोतानो पक्षपाती ते मूर्ख वादी पोते एक अने विभागरहित एवा रूपादिकक्षणरूप कारणथी, एकीवखते अनेक कारणोथी बनी शके एवां अनेक कार्योंने स्वीकारतो छतो पण सामा पक्षनी नित्य वस्तुमां पण अनुक्रमे जूदां जूदां कार्यो करवामां पण विरोध जणावे छे !! तेथी क्षणिक भावने पण क्रमविनानी अर्थक्रिया दुर्लभ छे. । ८५ । एवी रीते एकांत अनित्यथी पण व्यापक एवा क्रम अले अक्रमना विनाशथीज व्याप्य एवी अर्थक्रिया पण नष्ट
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___- ----- -४४ - कान्ताऽनित्यवादोऽपि न रमणीयः । ८६ । स्याद्वादे तु पूर्वोत्तराकारप. रिहारस्वीकारस्थितिलक्षणपरिणामेन भावानामर्थक्रियोपपत्तिरविरुद्धा ।।७। न चैकत्र वस्तुनि परस्परविरुद्धधर्माध्यासाऽयोगादसन् स्याद्वाद इति वाच्यं । नित्यानित्यपक्षविलक्षणस्य पक्षान्तरस्याङ्गीक्रियमाणत्वात्तथैव च स(रनुभवात् तथा च पठन्ति । ८८ 1 =|| भागे सिंहो नरो भागे । योऽर्थो भागद्वयात्मकः ॥ तमभागं विभागेन । नरसिंहं प्रचक्षते ॥= इति । ८९ । वैशेषिकैरपि चित्ररूपस्यै कस्यावयविनोऽभ्युपगमादेकस्यैव पटादेश्चलाचलरक्तारक्तावृत्तानावृत्तत्वादिविरुद्धधर्माणामुपलब्धेः ।९० । सौगतैरप्येकत्र चित्रपटीज्ञाने नीलानीलयोर्विरोधानङ्गीकारात् । ९१ । अत्र च यद्यप्य
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थाय छे, अने ते नष्ट होते छते व्यापक नही मळवाथी छतापगुं पण नष्ट थाय छे ; माटे एकांत अनित्यवाद पण सारो नथी. । ८६ । स्याद्वादमां तो पूर्वाकारनो त्याग अने उत्तराकारनो स्विकार, तथा स्थितिरूप परिणामें करीने ( अर्थात् उत्पाद व्यय अने ध्रुवरूप परिणामें करीने) पदार्थोने अर्थक्रियानी प्राप्ति विरोधविनानी छे. । ८७ । वळी 'एकन पदार्थमां परस्पर विरुद्ध धर्मनुं आरोपण होय नही' एम विचारि स्याद्वाद जूठो छे, एम नही बोलवू ; कारण के नित्यथी पण जूदो अने अनित्यथी पण जूदो एवो स्याद्वादरूप पक्षांतर स्वीकारेलो छे ; अने तेवीज रीते सर्व माने छे. तेओ कहे छे के, । ८८ । एक भागमां सिंह अने बीजा भागमां मनुष्य, एवी रीते जे पदार्थ बे भागवाळो होय, तेवा विभागविनानाने नरसिंह कहे छे. । ८९ । वळी वैशेषिकोए पण एकन पदार्थमां चलाऽचलपj, रताश अरताश, आच्छादितपणुं अने अनाच्छादितपणुं, इत्यादि विरुद्ध धर्म मळवाथी, अवयववाळा पदार्थने विचित्रखरूपवाळो मानेलो छे. । ९० । बौद्धोए पण एकन चित्रना ज्ञानमां श्याम अश्यामनो विरोध मान्यो नथी. । ९१ । वळी अहीं आ वैशे
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धिकृतवादिनः प्रदीपादिकं कालान्तरावस्थायित्वात्क्षणिकं न मन्यन्ते । तन्मते पूर्वापरान्तावच्छिन्नायाः सत्ताया एवानित्यतालक्षणात् । तथापि बुद्धिसुखादिकं तेऽपि क्षणिकतयैव प्रतिपन्नाः । इति तदधिकारेऽपि क्षणिकवादचर्चा नानुपपन्ना । ९२ । यदापि च कालान्तरावस्थायि वस्तु तदापि नित्यानित्यमेव । क्षणोऽपि न खलु सोऽस्यि यत्र वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं नास्तीति काव्यार्थः ॥
।९३ । अथ तदभिमतमीश्वरस्य जगत्कर्तृत्वाभ्युपगमं मिथ्याभिनिवेशरूपं निरूपयन्नाह ।
कास्ति कश्चिजगतः स चैकः
स सर्वगः स खवशः स नित्यः । इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्यु
स्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥६॥ जगत्नो कोइक कर्ता छे, वळी ते एक छे, ते सर्वज्ञ अथवा सर्वव्यापी छे, ते पोताने वश छे, अने ते नित्य छे ; एवी रीतनी कदाग्रह
षिको दीपकादिकने कालांतरसुधि स्थिर रहेवाथी जो के क्षणिक नथी मानता (केमके तेमना मतमां तो सादिसांतवाळी सत्तानेज अनित्यतानुं लक्षण मानेलं छे) तो पण बुद्धिसुखादिकने तेओए पण क्षणिकरूपेज मान्या छे, माटे तेमना अधिकारमा पण क्षणिकवादनी चर्चा अयोग्य नथी. । ९२ । जो के पदार्थ कालांतरसुधि रहेनारो छे, तो पण नित्याऽनित्यज छे ; वळी तेवो कोइ क्षण पण नथी, के जेमा उत्पत्ति वि. नाश अने ध्रुवरूप पदार्थ नथी. एवी रीते पांचमां काव्यनो अर्थ जाणवो.
। ९३ । हवे तेणे मानेला इश्वरना जगत्क"पणाना स्वीकारने मिप्याकदामहरूप निरूपण करता थका कहे छे.
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रूप विडंबना तो तेओनी छे, के हे प्रभु ! नेओने आप शिखामण आपनारा नथी. ॥ ६ ॥
।१ । प्रत्यक्षादिप्रमाणोपलक्ष्यमाणचराचररूपस्य विश्वत्रयस्य कश्चिदनिर्वचनीयस्वरूपः पुरुषविशेषः कती सृष्टा अस्ति विद्यते । २ । ते हि इत्थं प्रमाणयन्ति उर्वीपर्वततर्वादिकं सर्व बुद्धिमत्कत्तुं कार्यत्वात् । यद्यत्कार्य तत्तत्सर्वं बुद्धिमत्कत्तुं यथा घटस्तथा चेदं तस्मात्तथा । ३ । व्यतिरेके व्योमादि । ४ । यश्च बुद्धिमांस्तत्क" स भगवानीश्वर एवे. ति । ५। न चायमसिद्धो हेतुर्यतो भूभूधरादेः स्वस्वकारणकलापजन्यतया अवयवितया वा कार्यत्वं सर्ववादिनां प्रतीतमेव । ६ । नाप्यनैकान्तिको विरुद्धो वा । विपक्षादत्यन्तव्यावृत्तत्वात् । ७ । नापि कालात्ययापदिष्टः। प्रत्यक्षानुमानागमाबाधितधर्माधर्म्यनन्तरप्रतिपादितत्वात् । ८ । नापि
।१ । प्रत्यक्षादि प्रमाणथी जणाता चराऽचररूप त्रणे जगतोनो कोइक अगम्य स्वरूपवाळो पुरुष कर्ता छे. । २ । तेओ एम प्रमाण आपे छे के, पृथ्वीपर्वतादिक सघर्छ, कार्य होवाथी, बुद्धिवाननी क्रिया छे ; केमके जे जे कार्य छे, ते ते बुद्धिवाननी क्रिया छे, जेम घडो, तेम आ, अने तेथी तेम. । ३ । तेथी उलटुं आकाशादि. । ४ । वळी जे बुद्धिवान् तेनो कर्ता छे, ते ईश्वरन छे. । ५ । वळी आ हेतु असिद्ध नथी, केमके पृथ्वीपर्वतादिकने पोतपोताना कारणोना समूहवडे उत्पत्ति होवाथी अथवा विभागपणुं होवाथी, तेनु कार्यपणुं सर्ववादिओने कवुलन छे. । ६ । तेम अनेकांतिक अथवा विरुद्ध हेतु पण नथी ; केमके ते विपक्षथी अत्यंत जूदो पडेलो छे. । ७ । तेम कालाऽत्ययापदिष्ट हेतु पण नथी, केमके प्रत्यक्ष, अनुमान, अने आगमप्रमाणथी बाधाविनाना धर्मधर्मीयी अनंतर ग्रहण करेलो छे. । ८ । तेम आ प्रकरणसम हेतु पण
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प्रकरणसमः तत्प्रतिपंथिवम्र्मोपपादनसमर्थप्रत्यनुमानाऽभावात् । ९ । न च वाच्यमीश्वरः पृथ्वीपृथ्वीधरादेर्विधाता न भवति । अशरीरत्वान्निर्वृत्तात्मवदिति प्रत्यनुमानं तद्बाधकमिति । १० । यतोऽत्रेश्वररूपो धम्म प्रतीतोऽप्रतीतो वा प्ररूपितः । ११ । न तावदप्रतीतो हेतोराश्रयासिद्धिप्रसङ्गात् । १२ । प्रतीतश्चेत्केन प्रमाणेन स प्रतीतस्तेनैव किं स्वयमुत्पादितस्वतनुर्न प्रतीयते । १३ । इत्यतः कथमशरीरत्वं । तस्मान्निरवद्य एवायं हेतुरिति । १४ । सचैक इति । चः पुनरर्थे । स पुनः पुरुषविशेष एकोऽद्वितीयः । बहूनां हि विश्वविधातृत्व स्वीकारे परस्परविमतिसंभावनाया अनिवार्यत्वादेकैकस्य वस्तुनोऽन्यान्यरूपतया निर्माणे सर्वमसमञ्जसमापद्येतेति । १५ । तथा स सर्वग इति । सर्वत्र गच्छतीति सर्वगः । सर्वव्यापी । १६ । तस्य हि प्रतिनियतदेशवर्त्तित्वे नियतदेशवृत्तीनां
नथी, केमके सामा पक्षनो धर्म तेणे ग्रहण कर्यो छे, एम बतावनारुं कई समर्थ प्रत्यनुमान मळतुं नथी. । ९ १ वळी ईश्वर शरीरविनानो होवाथी मुक्तनी पेठे कंइ करे नही, एवं प्रत्यनुमान तेने बाधा करनारुं छे, माटे ईश्वर पृथ्वीपर्वतादिनो कर्ता नथी, एम नही बोलवु । १० । केमके अहीं ईश्वररूपी धर्मी प्रतीत छे ? के अप्रतीत छे ? । ११ । अप्रतीत तो नथी, केमके तेवा हेतुनो कोइ आश्रय नथी ; । १२ । वळी जो प्रतीत होय, तो जे प्रमाणथी ते प्रतीत थयो, तेज प्रमाणथी पोते उत्पन्न करेला पोताना शरीरवाळो शुं नथी चोकस थतो ? । १३ । माटे अश
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पशुं केम ? तेथी आ हेतु दोषरहितज छे । १४ ।' च ' एटले वळी ते ईश्वर एक छे; केमके जो घणा जगत्कर्ता मानीये, तो परस्पर मतभेदने न निवारीशकवाथी एकेकी वस्तुने जूदा जूदा स्वरूपवाळी बनाववामां, सघळु गोटाळावाळु थाय. । १५ । वळी ते सर्व जगोए जनार होवाथी सर्वव्यापी छे । १६ । केमके जो ते एक अमुकज भागमां
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विश्वत्रयान्तत्ति पदार्थसार्थानां यथावन्निर्माणानुपपत्तिः । कुम्भकारादिषु तथा दर्शनात् । १७ । अथवा सर्वं गच्छति जानातीति सर्वगः । सर्वज्ञः । सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्था इति वचनात् । १८ । सर्वज्ञवाऽभावे हि यथोचितोपादानकारणाधनभिज्ञत्वादनुरूपकार्योत्पत्तिर्नस्यात् । १९ । तथा स स्ववशः स्वतंत्रः । सकलप्राणिनां स्वेच्छया सुखदुःखयोरनुभावनसमर्थत्वात् । तथा चोक्तम् ॥ ॥ ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् । स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ अन्यो जन्तुरनीशोऽय-मात्मनः सुखदुःखयोः ॥ ॥ इति ।। ।२०। पारतंत्र्ये तु तस्य परमुखप्रेक्षित या मुख्यकत्तृत्वव्याघातादनीश्वरत्वापत्तिः ।२१। तथा स नित्य इति अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपस्तस्य ह्यनित्यत्वे परोत्पाधतया कृतकत्वप्राप्तिः । अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः स्वभावनिप्पत्ती
रहेनार होय, तो अमुक देशमां रेहला त्रणे जगतना पदार्थोना समूहने योग्यरीते बनाववामां वांधो आवे छे, केमके कुंभार आदिकोमा तेम देखाय छे. । १७ । अथवा जे सघळं जाणे ते 'सर्वग एटले सर्वज्ञ. केमके सबळा गतिवाचक धातुओ ज्ञानवाचक छे. । १८ । वळी जो सवज्ञ न होय, तो योग्य उपादान कारणादिकनी अज्ञानताथी योग्य कार्यनी उत्पत्ति न थाय. । १९ । वळी ते स्वतंत्र छे, केमके स्वेच्छाथी सर्व प्राणीओने सुखदुःखनो अनुभव कराववामां समर्थ छे. कयुं छे के, ईश्वरथी प्रेरित थयेलो अन्य प्राणी स्वर्गे अथवा नर्के जाय छ, केमके ते पोताना मुखदुःखमाटे असमर्थ छे. । २० । वळी जो तेने परतंत्रपणुं होय तो बीजार्नु मुख जोइ बेसवार्नु होवाथी मुख्य कर्तापणाना विनाशथी अनीश्वरपणानी तेने प्राप्ति थाय. । २१ । वळी ते नित्य एटले नाशविनाना उत्पत्तिविनाना अने स्थिरतावाळा एक स्वरूपवाळो छे ; केमके जो तेने अनित्यपणु होय तो, ते बीजाथी बने, अने तेथी तेने कृतकपणानी प्राप्ति थाय ; केमके परना व्यापारनी अपेक्षावाको पदार्थ स्वभा
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कृतक इत्युच्यते । २२ । यश्चापरस्तत्क" कल्प्यते स नित्योऽनित्यो वा स्यान्नित्यश्चेदधिकृतेश्वरेण किमपराद्धम् । अनित्यश्चेत्तस्याप्युत्पादकाs न्तरेण भाव्यं । तस्यापि नित्यानित्यत्वकल्पनायां अनवस्थादौस्थ्यमिति । तदेवमेकत्वादिविशेषणविशिष्टो भगवानीश्वरस्त्रिजगत्कर्तेति पराभ्युपगममुपदश्र्योत्तरार्द्धन तस्य दुष्टत्वमाचष्टे । २३ । इमा एता अनन्तरोक्ताः कुहेवाकविडम्बनाः कुत्सिता हेवाका आग्रहविशेषाः कुहेवाकाः कदाग्रहा इत्यर्थस्त एव विडम्बनाः। विचारचातुरीबाह्यत्वेन तिरस्काररूपत्वाद्विगोषकप्रकाराः स्युभवेयुस्तेषां प्रामाणिकापशदानां । येषां हे स्वामिन् त्वं नानुशासको न शिक्षादाता । २४ । तदभिनिवेशानां विडम्बनारूपत्वज्ञापनार्थमेव पराभिप्रेतपुरुषविशेषणेषु प्रत्येकं तच्छब्दप्रयोगमसूयागर्भमाविभीवयांचकार स्तुतिकारः । २५ । तथाचैवमेव निन्दनीयं प्रति वक्तारो वदन्ति । स मूर्खः । स पापीयान् । स दरिद्र इत्यादि । २६ । त्वमि
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वनी कृतिमां कृतक कहेवाय छे. । २२ । वळी तेनो कर्ता जो बीजो कल्पीयें, तो ते नित्य के अनित्य छे ? जो नित्य होय तो आ चालता ईश्वरे शुं अपराध को छ ? अने जो अनित्य छे, तो तेने पण बनावनार बीजो जोइशे, अने तेने माटे पण नित्याऽनित्यनी कल्पनामां अनवस्था दोष आवशे, माटे 'एक' इत्यादि विशेषणवाळो ईश्वर त्रणे जगतोनो कर्ता छे, एम ते परनो स्वीकार देखाडीने, हवे उत्तरार्धवडे तेनुं दोषयुक्तपणुं कहे छे. । २३ । आ एटले उपर वर्णवेली कदाग्रहरूप विडंबना एटले विचारनी चतुराइविनाना तिरस्कारलायक वगोणाना प्रकारो ते कढंगीओना होय, के जेओने हे प्रभु! तुं शिखामण आपनार नथी. । २४ । अहीं ते कदाग्रहोर्नु विडंबनानुं स्वरूप जणाववा माटेज परे मानेला ईश्वरना दरेक विशेषणमां असूया सूचवनारो तत् शब्दनो प्रयोग स्तुतिकारे जणाव्यो छे. । २५ । वळी निंदनीकप्रते बोलनाराओ एमज बोले
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त्येकवचनसंयुक्तयुष्मच्छब्दप्रयोगेण परमेशितुः परमकारुणिकतयाऽनपेक्षितवपरपक्षविभागमद्वितीयं हितोपदेशकत्वं ध्वन्यते । २७ । अतोऽत्रायमाशयः । यद्यपि भगवानविशेषेण सकलजगज्जन्तुनातहितावहां सर्वेभ्य एव देशनावाचमाचष्टे । तथापि सैव केषांचिन्निचितनिकाचितपापकर्मकलुषितात्मनां रुचिरूपतया न परिणमते । 'अपुनर्बन्धकादिव्यतिरिक्तत्वेनायोग्यत्वात् । २८ । तथा च कादम्बयाँ बाणोऽपि बभाण “अपगतमले हि मनसि स्फटिकमणाविव रजनिकरगभस्तयो विशन्ति सुखमुपदेशगुणाः। गुरुवचनममलमपिसलिलमिव महदुपजनयति श्रवणस्थितं शूलमभव्यस्येति" । २९ । अतो वस्तुवृत्त्या न तेषां भगवाननुशासक इति ।३०। न चैतावता जगद्गुरोरसामर्थ्यसम्भावना । न हि कालदष्टमनुज्जीवयन् सछे के 'ते मूर्ख छे, ते पापी छे, ते दरिद्र छे' इत्यादि. ।२६। अहीं त्वं (तुं) एवी रीतना एकवचनवाळा युष्मत् शब्दना प्रयोगें करीने जिनेश्वर प्रभुन, परम करुणाथी पोताना अने परपक्षना विभागनी अपेक्षाविनानु अतुल्य हितोपदेशपणुंन जणाव्युं छे. । २७ । आथी अहीं एवो तात्पर्य छे के, प्रभु तो जोके तुल्यरीते जगतना सर्व प्राणीमात्रने हितकारी देशनानी वाणी कहे छे, तो पण निकाचित बांधेलां पापकर्मोथी केटलाक मलीन थयेलाओने तेज वाणी रुचिरूपे परिणमती नथी ; केमके ग्रंथिभेद नही थवाथी तेओ अयोग्य छे. । २८ । वळी कादंबरीमा बाणकविए पण का छे के स्फटिकमणिमा जेम चंद्रना किरणो, तेम निर्मळ मनमां उपदेशना गुणो सेहेलाइथी दाखल थाय छे, अने अभव्यना कर्णमां गयेलुं गुरुनु निर्मल वचन पण जलनी पेठे मोटुं शूल उपजावे छे. । २९ । माटे तात्पर्यथी प्रभु नेमना अनुशासक नथी. ।३०।
१ पापं न तीव्रभावात्करोतीत्यादिलक्षणोऽपुनर्बधकः । अस्य च पुद्गलपरावर्त्तमध्य एव मुक्तिः ॥
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मुज्जीवितेतरदष्टको विषभिषगुपालम्भनीयोऽतिप्रसङ्गात् । ३१ । स हि सेषामेव दोषः । न खलु निखिलभुवनाभोगमवभासयन्तोऽपि भानवीया भानवः कौशिकलोकस्यालोकहेतुतामभजमाना उपालम्भसम्भावनास्पदं । ३२ । तथा च श्रीसिद्धसेनः ॥ =॥ सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य । यल्लोकबान्धव तवापि 'खिलान्यभूवन् ॥ तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेपु । सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥= । ३३ । अथ कथमिव तत्कुहेवाकानां विडम्बनारूपत्वमिति ब्रूमः । ३४ । यत्तावदुक्तं परैः क्षित्यादयो बुद्धिमत्कर्त्तकाः कार्यत्वाद्घटवदिति । तदयुक्तं । व्याप्तेरग्रहणात् । ३५ । साधनं हि सर्वत्र व्याप्ती प्रमाणेन सिद्धायां साध्यं गमयेदिति
कळी आथी कंई प्रभुनु असामर्थ्य न जाणवू, केमके अतिप्रसंगी, बीजाए डंखेलाने जीवाडनारो, झेरउतारनारो वैद्य, काळे डंखेलाने नही जीवाडवाथी कंइ ठपकापात्र नथी. । ३१ । वळी सर्व भुवनमंडलने प्रकाशित करनारां पण सूर्यनां किरणो, घुबडोप्रते प्रकाशना हेतुपणाने नहीं भजतांथकां कई ठपकापात्र नथी, केमके तेमां तो ते घुवडोनोज दोष छे. ॥३२॥ श्रीसिद्धसेनजी पण स्तुतिमां कहे छे के, हे लोकबंधु ! सद्धर्मरूप बीजने वाववामां उत्तम कुशलतावाळा, एवा आपना पण जे बोधिबीजविनानां क्षेत्रो रह्यां, तेमां कई आश्चर्य नथी, केमके अहीं अंधकारमा फरनारा (घुवडादिक ) पक्षिओने सूर्यनां किरणो भमरीना पगसरखा धोळा ! (श्यामज) लागे छे. । ३३ । हवे ते कदाग्रहोर्नु विडंबनावरूप केम छे ? ते अमो कहीये छीये. । ३४ । ते वैशेषिकोए जे का के, पृथ्वीआदिक कार्य होवाथी घडानीपेठे बुद्धिवाननी कृति छे. ते व्याप्तिने नही ग्रहण करवाथी अयोग्य छे ; । ३५ । केमके व्याप्ति ज्यारे
१ अप्रहितं क्षेत्रादि खिलमुच्यते । २ तमसि संचरंत इति तामसाः ।
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सर्ववादिसंवादः । ३६ । स चायं जगन्ति सृजन् सशरीरोऽशरीरो वा स्यात् । ३७ । सशरीरोऽपि किमस्मदादिवददृश्यशरीरविशिष्ट उत पिशाचादिक्ददृश्यशरीरविशिष्टः । ३८ । प्रथमपक्षे प्रत्यक्षबाधस्तमन्तरेणापि च जायमाने तृणतरुपुरंदरधनुरभ्रादौ कार्यत्वस्य दर्शनात्प्रमेयत्वादिवत्साधारणानकान्तिको हेतुः । ३९ । द्वितीयविकल्पे पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः कारणमाहोश्विदस्मदाद्यदृष्टवैगुण्यं । ४० । प्रथमप्रकारः कोशपानप्रत्यायनीयः । तत्सिद्धौं प्रमाणाऽभावात् । ४१ । इतरतराश्रयदोषापत्तेश्च सिद्धे हि माहात्म्यविशेषे तस्यादृश्यशरीरत्वं प्रत्येतव्यं । तत्सिद्धौ च माहात्म्यविशेषसिद्धिरिति । ४२ । द्वैतीयीकस्तु प्रकारो न संचरत्येव विचारगोचरे । संशयानिवृत्तेः । किं तस्याऽसत्त्वाददृश्यशरीरप्रमाणपूर्वक सर्व अंगोथी सिद्ध थाय, त्यारे साधन साध्यप्रते जाय, एम सर्व वादिओनो एकमत छे. । ३६ । वळी आ ईश्वर जगतोने बनावतो थको शरीरी छे ? के अशरीरी छे ? । ३७ । तेम शरीरी छतां पण ते आपणआदिकनी पेठे दृश्यशरीरवाळो छे ? के पिशाचादिकनी पेठे अदृश्यशरीरवाळो छ ? । ३८ । प्रथम पक्षमा प्रत्यक्षज बाधा छे, केमके तेनाविना पण उत्पन्न थतां घास, वृक्ष, इंद्रधनुष्य तथा वादळांदिकमां कार्यपणुं देखाय छे ; तेथी प्रमेयपणादिकनी पेठे साधारण अनेकांतिक हेतु छे. । ३९ । बीना विकल्पमा अदृश्यशरीरपणामां तेनु माहात्म्यविशेष कारण छे ? के अमारा आदिकना नशीबनो वांक छे ? । ४० । तेमां पेहेलो प्रकार, तेनी सिद्धिमाटे प्रमाण नही होवाथी सोगनपूर्वक प्रतीति कराववा जेवो छे. । ४१। अने इतरेतरदोषनी प्राप्तिथी माहात्म्यविशेष सिद्ध होते छते, तेनुं अदृश्यशरीरपणुं प्रतीत थाय छे, अने तेनी सिद्धि थवाथी माहात्म्यविशेषनी सिद्धि थाय छे. । १२ । बीजो प्रकार तो संशय नहीं मटवाथी विचारने अयोग्य छे ; केमके तेनुं अ
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वं वान्ध्येयादिवत् किं वास्मदाद्यदृष्टवैगुण्यात्पिशाचादिवदितिनिश्चयाऽभावात् । ४३ । अशरीरश्चेत्तदा दृष्टान्तदाान्तिकयोवैषम्यं । घटादयो हि कार्यरूपाः सशरीरकर्तृका दृष्टाः । अशरीरस्य च सतस्तस्य कार्यप्रवृत्ती कुतः सामर्थ्यमाकाशादिवत् । तस्मात्सशरीराशरीरलक्षणे पक्षद्वयेऽपि कायत्वहेतोर्व्याप्त्यसिद्धिः । ४४ । किं च त्वन्मतेन कालात्पयापदिष्टोऽप्ययं हेतुः । धर्येकदेशस्य तरुविद्युदभ्रादेरिदानीमप्युत्पद्यमानस्य विधातुरनुपलभ्यमानत्वेन प्रत्यक्षबाधितधर्म्यनन्तरं हेतुभणनात् । ४५ । तदेवं न कश्चिजगतः कर्ता । एकत्वादीनि तु जगत्कर्तृत्वव्यवस्थापनायानीयमानानि तद्विशेषणानि षढं प्रति कामिन्या रूपसंपन्निरूपणप्रायाण्येव । तथापि तेषां विचारासहत्वख्यापनार्थं किंचिदुच्यते । तत्रैकत्वचर्चस्ताव
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दृश्यशरीरपणुं वंध्यापुत्रादिकनी पेठे शुं अछतापणाथी छे ? के अमाराआदिकना नशीबना वांकथी पिशाचादिकनी पेठे छे ? तेनो निश्चय थतो नथी. । ४३ । हवे जो अशरीरी होय तो दृष्टांत अने दाष्र्टीतिक वच्चे विषमपणुं आवे छे ; केमके कार्यरूप घडादिको शरीरवाळाना करेला दीठा छे, अने ते तो अशरीरी होते छते आकाशादिकनीपेठे कार्य करवामां तेनु सामर्थ्य क्याथी होय ? माटे शरीरवाळा अने शरीरविनाना, एवा बन्ने पक्षमा पण कार्यपणाना हेतुनी प्राप्ति सिद्ध थती नथी. ।४४। वळी तारे मते आ हेतु 'कालात्ययापदिष्ट ' पण छे ; केमके धर्माना एक भागरूप हमणा पण उत्पन्न थतां वृक्ष, वीनळी तथा वादळां आदिकनो कर्ता नही मळवाथी प्रत्यक्षप्रमाणथी. बाधावाळा धर्मानीसाथे ते कहेलो छे. । ४५ । माटे एवी रीते जगतनो कोइ कर्ता नथी ; अने जगत्कर्तापणुं स्थापवामाटे लेइआवातां एकपणादिक विशेषणो. तो नपुंसकपासे स्त्रीना रूपनी शोभा वर्णववा जेवां छे ; तो पण तेओनुं अयोग्यपणुं जणाववामाटे कंइंक कहीये छीए. तेमां प्रथम एकपणानी चर्चा
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त् । ४६ । बहूनामेककार्यकरणे वैमत्यसंभावनेति नायमेकान्तः । अनेककीटिकाशतनिष्पाद्यत्वेऽपि शक्रमोऽनेकशिल्पिकल्पितत्वेऽपि प्रासादादीनां नैकसरघानिर्तितत्वेऽपि मधुच्छत्रादीनां चैकरूपताया अविगानेनोपलम्भात् । ४७ । अथैतेष्वप्येक एवेश्वरः कर्तेति बफे । एवं चेद्भवतो भवानीपतिंप्रति निष्प्रतिमा वासना । तर्हि कुविन्दकुम्मकारादितिरस्कारेण पटघटादीनामपि कर्ता स एव किं न कल्प्यते । ४८ । अथ तेषां प्रत्यक्षसिद्धं कर्तृत्वं कथमपन्होतुं शक्यं । तर्हि कीटिकादिभिः किं तव विराद्धं । यत्तेषामसदृशतादृशप्रयाससांध्यं कर्तृत्वमेकहेलयैवापलप्यते । ४९ । तस्माद्वैमत्यभयान्महेशितुरेकत्वकल्पना भोजनादिव्ययभयात्कृपणस्यात्यन्तवल्लभपुतकलतादिपरित्यजनेन शून्यारण्यानीसेवनमिव । ५० ।
कहे छे. । ४६ । घणा मळीने एक कार्य करे तो, तेमां मतभेद थाय, एवं एकांत नथी ; केमके सेंकडोगमे कीडीओनी राफडानी बनावटमां, अनेक कारीगरोनी मेहेलादिकोनी बनावटमां, अने अनेक मधमाखोनी मधपूडादिकोनी बनावटमां पण निंदारहित एक स्वभावपणानी प्राप्ति छे. । ४७ । हवे तुं एम कहीश के, तेओमां पण एकन ईश्वर कर्ता छ । अने एवी रीते तने ईश्वरप्रते ज्यारे अनुपम श्रद्धा छे, त्यारे सालवी कुंभारादिकने तनीने वस्त्र तथा घडादिकनो पण तेन कर्ता छे, एम केम नथी मानतो ? । ४८ । हवे तुं एम कहीश के ते घडादिकनुं कर्तापर्यु तो प्रत्यक्षसिद्ध छे, माटे तेनी केम ना पाडी शकाय ? तो कीडीआदिकोए तारुं शुं बगाड्युं छे ? के तेओनुं तेवं अतुल्यप्रयासवाळं कर्तापणुं जोतनोतामांन उडावी देछे ? । ४९ । माटे मतभेदना भयथी ईश्वरनी एकपणानी कल्पना तो, भोजनादिकना खरचना भयथी, अत्यंत प्रिय एवा पुत्र अने स्त्रीआदिकना त्यागपूर्वक कृपणना शून्य वनना सेवनसरखी छे. । ५० । वळी तेने सर्वगतपणुं पण योग्य नथी ; केमके तेश
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तथा सर्वगतत्वमपि तस्य नोपपन्नं । तद्धि शरीरात्मना ज्ञानात्मना वा स्यात् । ११ । प्रथमपक्षे तदीयेनैव देहेन जगत्रयस्य व्याप्तत्वादितरनिमैयपदार्थानामाश्रयानवकाशः । द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यतास्माभिरपि निरतिशयज्ञानात्मना परमपुरुषस्य जगत्रयक्रोडीकरणाभ्युपगमात् ॥१२॥ यदि परमेवं भवत्प्रमाणीकृतेन वेदेन विरोधः । तत्र हि शरीरात्मना सर्वगतत्वमुक्तं “ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतः पाणिरुतविश्वतःपादित्यादिश्रुतेः " । ५३ । यच्चोक्तं तस्य प्रतिनियतदेशवर्त्तित्वे त्रिभुवनगतपदार्थानामनियतदेशवृत्तीनां यथावन्निर्माणानुपपत्तिरिति । तत्रेदं पृच्छ्यते । ५४ । स जगत्रयं निर्मिमाणस्तक्षादिवत्साक्षाद्देहव्यापारेण निर्मिममीते । यदि वा सङ्कल्पमात्रेण । ९५ । आद्ये पक्षे एकस्यैव भूभूधरादेविधाने अक्षोदीयसः कालक्षेपस्य सम्भवाद्वंहीयसाऽप्यनेहसा न परिसमा
रीररूपे छे ? के ज्ञानरूपे छे ? । ५१ । पेहेला पक्षमां तेनाज शरीरवडे त्रणे जगतो व्यापेलां होवाथी बीजा बनाववाना पदार्थोने रहेवानी जगो नही मळे ; अने सर्व अतिशयवाळा ज्ञानरूपे ईश्वरनुं त्रणे जगतमां व्यापकपणुं स्वीकारवाथी बीजा पक्षमां तो अमोने पण कबुलात छे. । ५२ । पण तेथी तो तमोए मानेला वेदसाथे विरोध आवशे, केमके तेमां तो शरीररूपे सर्वगतपणुं कह्युं छे. ' जगत्रूप आंखवाळो, जगत्रूप मुखवाळो, जगत्रूप हाथवाळो, अने जगत्रूप पगवाळो इत्यादि वेदनी श्रुति छे. ' । ५३ । वळी तमोए कह्युं के ते ईश्वर जो एकज जगोए रहे, तो जूदी जूदी जगोए रहेला त्रणे जगतोना पदार्थोंने ते योग्यरीते बनावी शके नही ; तो तेमाटे अमो तमोने पूछीए छीए के ' । ५४ । ते
णे जगत्ने बनावतो थको सुतार आदिकनीपेठे साक्षात् शरीरव्यापारवडे बनावे छे ? के संकल्पमात्रथी ? । ५५ । पेहेला पक्षमां एकज ईश्वरने पृथ्वी पर्वतादिक रचवामां घणा काळक्षेपना संभवथी, घणे काळे पण
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प्तिः । ५६ । द्वितीयपक्षे तु सङ्कल्पमात्रेणैव कार्यकल्पनायां नियतदेशस्थायित्वेऽपि न किञ्चिद्दषणमुत्पश्यामः । नियतदेशस्थायिनां सामान्यदेवानामपि संकल्पमात्रेणैव तत्तत्कार्यसम्पादनप्रतिपत्तेः । ५७ । किंच तस्य सर्वगतत्वेऽङ्गीक्रियमाणेऽशुचिषु निरन्तरसन्तमसेषु नरकादिस्थलेप्वपि तस्य वृत्तिः प्रसज्यते । तथा चाऽनिष्टापत्तिः । ५८ । अथ युष्मत्पक्षेऽपि यदा ज्ञानाशात्मना सर्वजगत्रयं व्याप्नोतीत्युच्यते तदाऽशुचिरसास्वादादीनामप्युपलम्भसम्भावनान्नरकादिदुःखस्वरूपसंवेदनाऽात्मकतयादुःखाऽनुभवप्रसङ्गाचाऽनिष्टापत्तिस्तुल्यैवेति चेत् । तदेतदुपपत्तिभिः प्रतिकर्तुमशक्तस्य धूलिभिरिवावकरणम् । ५९ । यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थलस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति । न पुनस्तत्र गत्वा । तत्कुतो भवदुपालम्भः समीचीनः । ६० । तार्ह भवतोऽप्यशुचिज्ञानमात्रेण तद्रसास्वा
समाप्ति नही थाय. । १६ । अने संकल्पमात्रथी कार्यकरवारूप बीजा पक्षमां तो तेना अमुक भागमा रहेवापणामां पण अमोने कंई दूषण देखातुं नथी ; केमके अमुक भागमा रहेनारा सामान्यदेवो पण संकल्पमात्रथीन ते ते कार्य निपजावी शके छे. । १७ । वळी तेनुं सर्वगतपणुं स्वीकारवार्थी अशुचिमां अने हमेशां अंधकारवाळा नरकादिकस्थानोमां पण तेनो निवास थाय छे ; अने तेथी अनीष्टनी प्राप्ति थाय छे. । ५८ । तमारा पक्षमा पण ज्यारे तमो एम कहोछो के, ज्ञानरूपे त्रणे जगतोमा ते व्यापे छे, त्यारे अशुचि रसना स्वादादिकनी पण प्राप्तिना संभवथी अने नरकादिक दुःखना स्वरूपना भोगववावडे दुःखना अनुभवना प्रसंगथी अनीष्टनी प्राप्ति तुल्यज छे, एम जो कहीश, तो योग्यतावडे उपाय लेवाने अशक्त थवाथी सामी धूळ उडाडवासर छे । ५९ । केमके, ज्ञान तो अप्राप्यकारि छे, तेथी पोतानी जगोएज रडं थकुं ज्ञेयने जाणे छे ; पण त्यां जइने नही; माटे तारो ठपको योग्य शानो ? । ६० ।
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दाऽनुभूतिस्तद्भावेहि वकचंदनाऽङ्गनारसवत्यादिचिन्तनमात्रेणैव तृप्तिसिौ तत्प्राप्तिप्रयत्नवैफल्यप्रसक्तिरिति । ६१ । यत्तु झानात्मना सर्वगतत्वे सिसाधनं प्रागुक्तं । तच्चक्तिमात्रमपेक्ष्य मन्तव्यं । तथा च वक्तारो जवन्ति । अस्य मतिः सर्वशास्त्रेषु प्रसरति इति । ६२ । न च ज्ञानं प्राप्यकारि तस्यात्मधर्मत्वेन बहिर्निर्गमाऽनावात् । बहिनिर्गमे चात्मनोऽचैतन्यापच्या अजीवत्वप्रसङ्गः । ६३ । न हि धर्मो धर्मिणमनिरिच्य वचन केवलो विलोकितो । ६३ । यच्च परे दृष्टान्तयन्ति । यथा सूर्यस्य किरणा गुणरूपा अपि सूर्यान्निष्क्रम्य नुवनं नासयन्त्येवं झानमप्यात्मनः सकाशाद्वहिर्निर्गत्य प्रमेयं परिच्छिनत्तीति । ६५। तत्रे दमुत्तरं । किरणानां गुणत्वमसिई । तेषां तेजसपुगलमयत्वेन इव्यत्वात् ༤༦ པ༦ པ་པཔ ཕཔ༦པ་བ བ་དུ་བ པ ཕ བ བ པ ཕ པ ཕཔ་པ༦པ༦ པ པ་ ཕ བ པ ལ ་ བ བ བ བ བ པ ཕ ་་་ ༦ པ་, ང་ (वनी ज्यारे तुं अशुचिस्वादादिकनो दोष मानतो होत्रं ) त्यारे तो अशुविज्ञानमात्रयी तने पण तेना रसना स्वादनो अनुन्नव थशे, अने तेम थवाथी तो माला, चंदन, स्त्री, रसोश आदिकना चिंतनमात्रवज तृप्ति थवाथी, ते मेलववामाटेनो प्रयत्न निष्फल जशे. । ६१ । वत्नी झानरूपे सर्वगतपणामां जे पेहेला अमोए कबुलात पापी डे, ते मात्र शक्तिनी अपेदायें जाणवू ; अने एम बोलनारान होय पण जे; जेमके ' आनी बुद्धि सर्वशास्त्रोमां फेलाय जे ; । ६५ । वली आत्मधर्मपणायें करीने बहार निकलतुं न होवाथी झान कंश प्राप्यकारी नथी; अने जो बहार निकले तो अचेतनपणानी प्राप्तिथी आत्माने अनीवपणानो प्रसंग थशे. । ६३ । वली धर्म धर्मी ने तजी ने क्यांयें एकलो देखायो नथी. । ६५ । वली बीजान दृष्टांत आपे डे के, मूयना गुणरूप किरणो पण जेम सूर्यमांथी निकलीने जगतने प्रकाशे जे, तेम झान पण आत्मामांथी बहार निकलीने झेयने जाणे. या तेनो आ उत्तर जे. किरणोनुं गुणपणुं असिइ, केमके तेने आ
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५७ । ६६ । यश्च तेषां प्रकाशात्मा गुणः । स तेन्यो न जातु पृथग् नवतीति । ६७ । तथा च धर्मसंग्रहिण्यां श्रीहरिनद्राचार्यपादाः । ६० । =|| *किरणा गुणा न दवं । तेसिं पयासो गुणो न वा दवं ।।जं नाणं आयगुणो । कहमदवो स अन्नत्थ । ६ए । =|| गन्तूण न परिबिंद । नाणं नेयं तयंमि देसम्मि ॥ आयत्यंचिय नवरं । अचिंतसत्तीन विन्नेयं 1 30। = लोहोवलस्स सत्ती । आयत्याचेव निन्नदेसंपि ॥ लोहं
आगरिसंती दीसश् श्ह कन्ज पचख्खा । ७१ =॥ एवमिह नाणसत्ती -
~ ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ तपसंबंधि पुनलमयपणायें करीने व्यपणुं ने ; । ६६ । अने तेननो जे प्रकाशरूप गुण जे, ते तेथी कदापि पण जूदो पमतो नथी. । ६७ । वत्ती धर्मसंग्रहणीमां पूज्य श्री हरिनशचार्य कहे जे के. । ६० ।-(सूर्यनां ) किरणो गुणो नथी, पण इव्य जे; अने तेन्नो प्रकाश गुण डे, पण इव्य नथी ; अने आत्मानो जे ज्ञानगुण ले, ते अश्व्य थयो थको, एटले पोताना आत्मारूप व्यने डोमीने, बीजी जगोए केम रहे ? । ६ए । शान ते, ते देशमां जश्ने ईयने जाणतुं नथी पण एटनु विशेष के, तेने आत्मामां रघु थकुंज अचिंत्यशक्तिवालु जाणवू. । ७० । लोहचुंबकनी शक्ति पोतामां रहीथकीन जूदा देशमा रहेला लोखंमने खेंचती देखाय डे, अने ते कार्य प्रत्यक्ष ले.
- * किरणा गुणा न व्यं । तेषां प्रकाशो गुणो न वा इव्यम् ॥ यज्झानमात्मगुणः । कथमश्व्यः सः अन्यस्थः ॥ गत्वा न परिच्छिनत्ति। झानं झेयं तस्मिन्देशे॥ आत्मस्थमिव न वरं । अचिन्त्यशक्ति तु । विज्ञेयम् ॥ लोहोपलस्य शक्तिः । आत्मस्थेव निन्नदेशमपि ॥ लोहमाकर्षती। दृश्यत शहकार्य प्रत्यदा ॥एवमिह ज्ञानशक्तिः आत्मस्थेव हन्त लोकांतम् । यदि परिच्चिनत्ति सर्व को नु विरोधी नवेत्तस्य ॥ इतिच्छगया।
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एए । आयत्या चेव हंदि लोगंतं ॥ ज परिबिंद सम्मं को णु विरोहो नवे तत्य ॥= इत्यादि । ७२ । अथ सर्वगः सर्वज्ञ इति व्याख्यानं । तत्राऽपि प्रतिविधीयते । ७३ । ननु तस्य सार्वझ्यं केन प्रमाणेन गृहीतं । प्रत्यदेण परोदेण वा । ४ । न तावत्प्रत्यकेण । तस्येन्श्यिार्थसन्निकर्पोत्पन्नतयाऽतीडीयग्रहणाऽसामर्थ्यात् । ७५ । नापि परोक्षण । तदि अनुमानं शाब्दं वा स्यात् । ७६ । न तावदनुमानं । तस्य निङ्गग्रहणेनलिङ्गिलिङ्गसम्बन्धस्मरणपूर्वकत्वात् न च तस्य सर्वङ्गत्वेऽनुमेये किंचिदव्यन्निचारि लिङ्गं पश्यामस्तस्याऽत्यन्त विप्रकृष्टत्वेन तत्प्रतिबनिङ्गसम्बन्धग्रहणाऽन्नावात् । । अथ तस्य सर्वत्वं विना जगचित्र्यमनुपपद्यमानं सर्वश्त्वमर्थादापादयतीतिचेत् । न । अविनान्नावाऽनावात्
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। ७१ । एवी रीते अहीं शानशक्ति आत्मामा रही थकीज डेक लोकांतसुधि जो सघर्बु जाणे, तो तेमां शुं विरोध ? । ७२ । हवे 'सवगनो' ( तमोए) 'सर्वज्ञ' अर्थ करेलो ने, त्यां पण (अमो) सामे थए बीए. । ७३ । तेनुं सर्वज्ञपणुं कया प्रमाणवमे ग्रहण कर्यु ले ? प्रत्यदवमे ? के परोक्षवझे? । ७ । तेमां प्रत्यक्षवमे तो नथी, केमके ते प्रत्यद इंघिय अने पदार्थना संबंधथी उत्पन्न थतुं होवाथी, अतीयि पदार्थने ग्रहण करवामां असमर्थ ले. । ७५। वत्नी परोदवझे पण नथी; केमके ते अनुमानपरोद ले ? के शास्त्रपरोद ले ? । ७६ । तेमां अनुमानपरोद तो नथी ; केमके ते तो लिंगना ग्रहणवमे लिंगी अने लिंगना संबंधD स्मरण करावनारुं डे, अने तेना अनुमान करवा लायक सर्वझपणामां तो कंई निर्दोष लिंग अमोने देखातुं नथी; केमके तेने अत्यंत दूरपणुं होवाथी तेनी साथेना लिंगना संबंध- ग्रहण थइ शकतुं नथी.। ७७ । तेना सर्वज्ञपणाविना जगत्नो विचित्रता न थती थकी, अर्थापत्तिथी तेनुं :सर्वझपणुं ते प्रगट करे , एम जो तुं
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नहि जगहै चित्री तत्सार्वइयं विनाऽन्यथा नोपपन्ना | 30 | दिविधं हि जगत् । स्थावरजङ्गमभेदात् । तत्र जङ्गमानां वैचित्र्यं स्वोपात्तशुजाशुभकर्मपरिपाकवशेनैव । स्थावराणां तु संचेतनानामियमेव गति - रचेतनानां तु तपनोगयोग्यतासाधनत्वेनाऽनादिकाल सिमेव वैचित्र्यमिति । १९ । नाप्यागमस्तत्साधकः । स हि तत्कृतोऽन्यकृतो वा स्यात् | ० | तत्कृत एव चेत्तस्य सर्वज्ञतां साधयति । तदा तस्य महत्वऋतिः । स्वयमेव स्वगुणोत्कीर्त्तनस्य महतामनधिकृतत्वात् । ८१ । अन्यच्च तस्य शास्त्रकर्त्तृत्वमेव न युज्यते । शास्त्रं हि वर्णात्मकं । ते च ताल्वा दिव्यापारजन्याः । स च शरीर एव संनवी शरीराऽन्युपगमे च तस्य पूर्वोक्ता एव दोषाः । ०२ । अन्यकृतश्चेत्सोऽन्यः सर्वज्ञोऽसर्वज्ञोवा ।
कहीश तो, प्रविनाभावना अनावथी ते युक्त नथी. केमके तेना सर्वज्ञपणा विना बीजी रीते जगत्नी विचित्रता कई न थाय तेवं नथी. । ७८ । कारणके स्थावर जंगम, एम जगत् बे प्रकारनुं वे ; तेमां जंगमनी विचित्रता तो पोते उपार्जेलां शुभाशुभ कर्मोंना विपाकने अनुसारे बे ; अने स्थावरोमां सचेतनोनी तो तेज गति बे, अनेचेतनोने तो तेना उपभोगनी योग्यताना साधनपणावे अनादिकालथीज विचित्रता लागेली बे. । ७९ । वली आगमप्रमाण पण तेना सर्वज्ञपणाने साधनारुं नथी; केमके ते आगम ते सर्वज्ञनुं करेलुं ? के बीजानुं करेलुं बे ? । ० । जो तेनुंज करेलुं यागम तेनुं सर्वज्ञपं साधे, तो तेना महत्वनी हानि बे; केमके महानोने पोताना गुणोनुं वर्णन कर योग्य . । ८१ । वल । तेने शास्त्रकर्तापपुंज घटतुं नथी, केमके शास्त्र तो प्रदरमय बे, अने ते करो तालु यादिकना व्यापारथी निपजे बे, अने ते व्यापार शरीरमांज संभवे बे श्वरने शरीर मानीये तो पूर्वे कहेलाज दोषो यावे
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। ८२ । वली
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सर्वइत्वे तस्य तापत्याप्रागुक्ततेदकत्वाऽज्युपगमबाधस्तत्साधकप्रमाणचर्चायामनवस्थापाताच । ३ । असर्वश्चत्कस्तस्य वचसि विश्वासः | | अपरं च नवदनीष्ट आगमः प्रत्युत तत्प्रणेतुरसर्वश्त्वमेव साधयति । पूर्वाऽपर विरुक्षऽर्थवचनोपेतत्वात्तथा हि " न हिंस्यात्सर्वनूतानि" इति प्रथममुक्त्वा पश्चात्तत्रैव पवितम् =|| । ५। षट्शतानि नियुज्यन्ते । पशूनां मध्यमेऽहनि ॥ अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुनिस्त्रिनिः । ७६ । = तथा “ अग्नीषोमीयं पशुमालनेत" " सप्त दशप्रानापत्यान् पशूनाननेत” इत्यादिवचनानि कथमिव न पूर्वापर विरोधमनुरुध्यन्ते । ०७। तथा नानृतं ब्रूयादित्यादिनाऽनृतन्नाषणं प्रथमं निषिध्य पश्चाद् “ब्राह्मणार्थमनृतं ब्रूयादित्यादि" | तथा ॥॥
oranama जो ते आगम बीजानुं करेलु होय, तो ते बीजो सर्वज्ञ के असर्व ? सर्वपणामां तो तेने इतनी प्राप्तिवमे तेना पूर्वे कहेला एकपणाना स्विकारने बाध आवे जे; तेम ते साधनारां प्रमाणनी चर्चामां अनवस्था दोष आववाथी पण बाध आवे . । ७३ । वनी जो असर्वज्ञ होय, तो तेना वचनमा विश्वास शानो ? । ७४ । वली तमोए मानेचं आगम पूर्वापर विरुप अर्थवाला वचनोवानुं होवाथी उलटुं तेना रचनारर्नु असर्वपणुंज जणावे जे; जेमके 'सर्व प्राणीओने मारवां नही' एवी रीते पहेलां कहीने, पाउलथी त्यांज कह्यु डे के, । ७५ । अश्वमेधयजना मध्यम दिवसे उसेंमां त्रण ओगं पशु होमवां.' । ७६ । वली अग्निषोम संबंधि पशुने (ते मंत्रवमे) मारवो' अने 'प्रजापतिसंबंधि सत्तर पशुओने (ते मंत्रवमे) मारवां, इत्यादि वचनो केवी रीते पूर्वापर विरोधने स्वीकारता नथी ? । ७७ । वन्नी प्रथम जूतुं बोलवु निषेधीने पाउलथी कांके 'ब्राह्मणने अर्थे जूळू बोलवू.' इत्यादि. वली हे राजन् ! मर्मवाचं वचन हानिकारक नथी, तेम स्त्री प्रसंगे, विवाह
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*न मर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति । न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाने ॥ प्राणात्यये सर्वधनापहारे । पञ्चाऽनृतान्याहुरपातकानि॥ =|| 0 । तथाऽदत्तादानमनेकधा निरस्य पश्चाउक्तं । यद्यपि ब्राह्मणो हठेन परकीयमादत्ते बलेन वा । तथापि तस्य नाऽदत्तादानं । ए । यतः सर्वमिदं ब्राह्मणे च्यो दत्तं । ब्राह्मणानां तु दौर्बल्याद्वषन्नाः परिनुञ्जते । तस्मादपहरन् ब्राह्मणः स्वमादते स्वमेव ब्राह्मणो नुक्ते खं वस्ते स्वं ददातीति । ए । ॥ तथा ॥ " अपुत्रस्य गतिर्ना स्ति" इति लपित्वा = ॥ अनेकानि सहस्राणि । कुमारब्रह्मचारिणां ॥ दिवं गतानि विप्राणा-मकृत्वा कुलसन्ततिम् = इत्यादि कियन्तो वा दधिमाषन्नोजनात्कृपणा वित्रेच्यन्ते । तदेवमागमोऽपि न तस्य सर्वज्ञतां वक्ति । ए१ । किंच सर्वशः
वखते, प्राण जती वेलाए, अने सर्व धनना नाश वखते, एम पांच प्रकारनां जूठ पापविनानां . । । वनी अदत्तादानने अनेक प्रकारें निषेधिने पाउलथी कांके 'ब्राह्मण जो हठथी अथवा बलात्कारे परनुं कंई ले ले, तोपण तेने अदत्तादान लागे नही' । ए । केमके 'आ सवलुं ब्राह्मणोने आपेलृ डे, पण ब्राह्मणोनी दुर्बलताथी शूशे नोगवे जे; माटे ले लेतो एवो ब्राह्मण पोतानुं लेने, पोतानुज नोगवे ने, पोतानुं पेहे रे ने, अने पोतानुं आपे . । ए७ । वली पुत्ररहितनी गति नथी' एम कहीने वली कांके ब्राह्मणोना हजारो बह्मचारी कुमारो पुत्रोत्पत्ति कर्याविना देवलोके गया जे.' अथवा एवी रीते दहीं अमदना नोजनथी ते कंगाल थयेलाोनुं विवेचन ते केटलुक करवू ? माटे एवी रीते आगम पण तेनुं सर्वज्ञपणुं कहेतुं नथी. । ए१ । वली सर्वज्ञ थश्ने ज्यारे ते स्थावरजंगमने रचे जे, त्यारे जग
* अत्र सर्वत्र धर्ममित्यध्याहारः कर्तव्य इत्यवगंतव्यं । आच्छादयतीत्यर्थः। ......
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सन्नमौ चराऽचरं चेधिरचयति तदा जगदुपप्लवकरणस्वैरिण: पश्चादपिकर्तव्यनिग्रहान् सुरवैरिण एतदधिक्षेपकारिणश्चास्मदादीन् किमर्थं मृजतीति । तन्नाऽयं सर्वशः । ए२ । तथा स्ववशत्वं स्वातन्त्र्यं । तदपि तस्य न दोददमं । ए३ । स हि यदि नाम स्वाधीनः सन् विश्वं विधत्ते परमकारुणिकश्च त्वया वर्ण्यते । तत्कथं सुखिताद्यवस्थानेदवन्दस्थपुटितं बटयति नुवनमेकान्तशर्मसंपत्कान्तमेव तु किं न निर्मिमीते । एच । अथ जन्मान्तरोपार्जिततत्तत्तदीयशुन्नाऽशुभकर्म प्रेरितः संस्तथा करोतीति दतस्तर्हि स्ववशत्वाय जलाञ्जलिः । ए५ । कर्मजन्ये च त्रिनुवनवैचित्र्ये शिपिविष्टहेतुक विष्टपसृष्टिकल्पनायाः कष्टैकफलत्वादस्मन्मतमेवाऽङ्गीकृतं प्रेदावता । तथाचायातोऽयं घटकुट्यांप्रनातमितिन्यायः । ए६ । किं च पाणिनां धर्माऽधावपेदमाणश्चे दयं सृजति । प्राप्तं तर्हि य
wwwwww तूने नपश्व करवामां स्वेच्छाचारी, अने पाउलथी पण जेनो नाश करवानो डे, एवा दानवोने, तथा तेनुं खंमन करनारा एवा अमो - दिकोने शामाटे बनावे जे ? माटे ते सर्वक नथी. । ए । वनी स्ववशपणुं एटले स्वतंत्रपणुं, ते पण ते ने युक्तिवाद्धं नथी ; । ए३ । केमके ते स्वाधीन थयो श्रको जगतने ज्यारे बनावे , अने वली ते ने तुं परम दयात्रु वर्ण वे डे, त्यारे ते जगत्ने सुख आदिक अवस्थान्नेदना समूहथी नरेलुं शामाटे बनावे ? अने एकांत सुखसंपदाथी मनोहरज शामाटे बनावतो नथी ? । ए । जन्मांतरमा नपार्जन करेला तेोनां ते ते शुन्नाऽशुन्न कर्मोथी प्रेरायो थको ते तेम करे , एम जो कहीश, तो तेना स्वाधीनपणाने तो तें जलांजलिज दीधी. । ए। अने विन्नुवननी विचित्रता ज्यारे तें कर्मथी नत्पन्न थती मानी, त्यारे तेमां ईश्वर हेतुवाला जगत्नी रचनानी कल्पना फक्त कष्टरूप फलवाली थवाथी तें बुझ्विाने अमारो मतज अंगीकार कर्यो ! अने तेम
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६४ दयमपेढ़ते तन्न करोतीति न हि कुलालो दण्मादि करोति । ए७ । एवं कर्मापेक्तश्चेदीश्वरो जगत्कारणं स्यात्तर्हि कर्मणीश्वरत्वमीश्वरोऽनीश्वरः स्यादिति । ए७ । तथा नित्यत्वमपि तस्य स्वगृह एव प्रणिगद्यमानं हृद्यं । एए । स खलु नित्यत्वेनैकरूपः सन् त्रिनुवनसर्गस्वन्नावोऽतत्स्वन्नावोवा । १०० । प्रथम विधायां जगन्निर्माणात्कदाचिद पि नोपरमेत । तदुपरमे तत्स्वन्नावत्वहानिः । एवं च सर्गक्रियाया अपर्यवसानादेकस्यापि कार्यस्य न सृष्टिः । १०१ । घटो हि स्वारम्नदणादारन्य परिसमाप्तेरूपान्त्यदणंयावन्निश्चयनयाऽनिप्रायेण न घटव्यपदेशमासादयति । जलाहरणाद्यर्थक्रियायामसाधकतमत्वात् । १० । अतत्स्वन्नावपदे तु न जातु
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थवाथी तो आ ‘घटकुटीमां प्रनात' एवो न्याय आव्यो. । ए६ । वली प्राणीयोना धर्माऽधर्मनी अपेदा राखतो थको ते बनावे डे, एम जो कहीश तो, ते जे श्च्छे जे ते करतो नथी, एम सिह थयुं ; केमके कुंनार कंई दमादिक करतो नथी. । ए७ । एवी रीते कर्मनी अपेक्षावालो ईश्वर जो जगत्नुं कारण होय, तो कर्ममां ईश्वरपणुं आवे, अने ईश्वर असमर्थ थाय. । ए। वली तेनुं नित्यपणुं पण पोताना घरमांज रहीने बोले तो सारुं ! । एए। केमके ते नित्यपणावमे एकरूप थयो थको विन्नुवनने रचवाना स्वन्नाववालो ? के तेवा स्वन्नावथी रहित डे ? । १००। पेहेला प्रकारमां तो जगतने बनाववानां कार्यथी ते कोश् दहामो पणं विरमे नही ; केमके जो विरमे, तो तेना स्वन्नावपणानी हानि थाय, अने एवीरीते रचनानी क्रियानो बेमो नहीं आववाश्री एक कार्यनी पण रचना थाय नही. । १०१। केमके निश्चयनयनी अपेक्षायें घमो पोताना प्रारंजना दणथी मामीने समाप्तिना बेखाना पेहेला कणसुधि घमाना नामने पामतो नथी ; केमके पाणीजरवा आदिक अर्थ क्रियामां ते असमर्थ . । १७२ । हवे र
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जगन्ति सृजेतत्वन्नावाऽयोगानगनवत् । १०३ । अपि च तस्येकान्तनित्यस्वरूपत्वे सृष्टिवत्संहारोऽपि न घटते । नानारूपकार्यकरणेऽनित्यत्वापत्तेः । १०४ । स हि यनैव स्वन्नावेन जगन्ति सृजेत्तेनैव तानि संहरेत् खन्नावान्तरेण वा । तेनैव चेत्सृष्टिसंहारयोर्योगपद्यप्रसङ्गः । स्वन्नावाऽनेदात्। एकस्वन्नावात्कारणादनेकस्वन्नावकार्योत्पत्तिविरोधात्।१०। स्वन्नावाऽन्तरेण चेन्नित्यवहानिः । स्वन्नावनेद एव हि लदणमनित्यतायाः । यया पार्थिवशरीरस्याहारपरमाणुसहरुतस्य प्रत्यहमपूर्वा :पूर्वोत्पादेन स्वन्नावनेदादनित्यत्वं । १०६ । इष्टश्च नवतां सृष्टिसंहारयोः शम्नौ स्वन्नावनेदः । रजोगुणात्मकतया सृष्टौ । तमोगुणात्मकतया संहरणे । सात्विकतया च स्थितौ तस्य व्यापारस्वीकारात् । १०७ ।
चबाना स्वन्नार विनाना पदमां तो तेवो स्वन्नाव न होवाथी आवाशनी पेठे ते कदापि पण जगत्ने रचे नही. । १०३ । वली तेना एकांत नित्यस्वरूपपणामां रचनानी पेठे संहार पण घटतो नथी; केमके विविधप्रकारनां कार्यों करवामां अनित्यपणानी प्राप्ति थाय . । १०४ । वनी ते जे स्वन्नाववमे जगतोने रचे, तेज स्वनावथी तेने संहरे ? के बीजा स्वन्नाववमे ? जो तेथीन, तो स्वन्नावना अनेदथी रचना अने संहारने एकीवेलानो प्रसंग थशे ; केमके एकस्वन्नाववाला कारणथी अनेक स्वन्नाववाला कार्यानी नत्पत्तिमां विरोध . । १०५ । हवे जो ते बीजा स्वनावधी संहरे तो, नित्यपणानी हानि थाय डे; केमके स्वन्नावनो नेद, एज अनित्यपणानुं लक्षण ने ; जेमके नोजन परमाणुशोथी बनेला पार्थिवशरीरने हमेशां नवी नवी नत्पत्तिवमे स्वन्नावनेदथी अनित्यपणुं घटे . । १०६ । वली तमोने ईश्वरमां सृष्टिसंहारनो स्वन्नावभेद माननीय जे ; केमके रजोगुणरूपे सृष्टिमां, तमोगुणरूपे संहारमा अने सात्विकपणामे स्थितिमां तेनो व्यापर तमोर स्वीकार्यो ने.
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एवं चाऽवस्थानेदस्तन्नेदे चावस्थावतोऽपि नेदान्नित्यत्वदतिः । १० । अथास्तु नित्यस्तथापि कथं सततमेव सृष्टौ न चेष्टते । इच्छावशाच्चेननु ता अपीच्चाः स्वसत्तामात्र निबंधनात्मनानाः सदैव किं न प्रवर्तयन्तीति स एवोपालम्नः । १०ए। तथा शम्नोरष्ट*गुणाऽधिकरणत्वे कार्यनेदाऽनुमेयानां तदिच्छानामपि विषमरूपत्वहानिः केन वार्यते । ११० । किं च प्रेदावतां प्रवृत्तिः स्वार्थकरुणान्यां व्याप्ता । ततश्चायं जगत्सर्गे व्याप्रियते स्वार्थात्कारुण्याहा । १११ । न तावत्स्वात्तिस्य कृतकृत्यत्वात् । न च कारुण्यात्परःखप्रहाणेच्छा हि कारुण्यं। ततः प्राक्सर्गाजीवानामिन्श्यिशरीर विषयाऽनुत्पत्तौ उःखाऽनावेन कस्य
। १०७ । एवीरीते अवस्थानो नेद थयो, अने ते नेद होते ते अवस्थावानना नेदथी नित्यपणुं नष्ट थयु. । १०७ । वनी नले ते नित्य हो, तोपण हमेशांज ते रचनामां केम मंड्यो रहेतो नथी ? जो कहेशो के ज्यगयी, तो पोतानी सत्तामात्रना कारणरूप लान्नवाली ते इच्छा पण हमेशां केम प्रवर्तती नथी ? एवीरीते तेनोतेज उपालंन आव्यो. । १०ए । वली ईश्वरना आठ गुणोना अधिकारपणामां कार्यनेदथी जणाती एवी तेनी इच्छानी पण विषमरूपपणानी हानि कोनाथी निवाराय तेवी ने ? । ११० । वन्नी बुझिवानोनी प्रवृत्ति स्वार्थवानी अने करुणावाती होय छे, माटे आ ईश्वर जगत्नी रचनामा स्वार्थथी व्यापार करे ले ? के करुणाथी ? । १११। स्वार्थथी तो नही, केमके ते कृतार्थ जे. तेम करुणाथी पण नही केमके परना उःखनो नाश करवानी जे इच्छा, ते करुणा कहेवाय; तेथी सृष्टि पेहेतां जीवोने इंघिय, शरीर अने विषयोनी नत्पत्ति न होवाथी, उखनो अन्नाव हतो, अने .. * बुधि । इच्छा । प्रयत्न । संख्या । परिमाण । पृथुक्त्व । संयोग । विप्नागाः ॥
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प्रहाणेच्छाकारुण्यं । ११ । सर्गोतरकाले तु खिनोऽवलोक्य काः रुण्याऽन्युपगमे उरुत्तर मितरेतराश्रयं । कारुण्येन सृष्टिः सृष्टया च कारुण्यमिति नाऽस्य जगत्कर्तृत्वं कथमपि सिश्यति । ११३ । तदेवमेवंविधदोषकलुषिते पुरुषविशेषे यस्तेषां सेवाहेवाकः । स खलु केवढे बनवन्मोह विमम्बनापरिपाक इति । ११५ । अत्र च यद्यपि मध्यवतिनो नकारस्य घण्टालालान्यायेन योजनादर्थान्तरमपि स्फुरति । यथा श्माः कुहेवाकविमम्बनास्तेषां न स्युर्येषां त्वमनुशासक इति । तथापि सोऽर्थः सहृदयैर्न हृदये धारणीयोऽन्ययोगव्यवच्छेदस्याधिकृतत्वादितिकाव्यार्थः ॥
। ११५ । अथ चैतन्यादयो रूपादयश्च धर्मा आत्मादेर्घटादेश्व धम्मिणोऽत्यन्तं व्यतिरिक्ता अपि समवायसम्बन्धेन संबशः सन्तो धर्म
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तेथी शाना नाशनी इच्छारूप तेने करुणा हती ? । ११ । वली 'जगत् बनाव्या पठी उखी प्राणीोने जोइने दया आवी' एम स्वीकारते बते तो करुणावमे सृष्टि अने सृष्टिवके करुणा, एवो अन्योऽन्याश्रय नामनो दोष नही टली शके. एवीरीते ते ईश्वरचं जगत्कर्तापर्यु कोश पण रीते सिइ थतुं नथी. । ११३ । माटे एवी एवी रीतनां दोषोथी मतीन थयेला ईश्वरमां तेनने जे सेवानी टेव डे, ते खरेखर केवन मोहना परान्नवनो विपाक जे. । ११५ । अहीं वच्चे रहेला नकारने घंटालोलन न्यायवमे जोमवाथी जोके बीजो अर्थ पण निकले , (जेमके 'आ कदाग्रहनी विमंबना तेनने न होय, के जेओने तुं शिखामण देनार हो.') तोपण ते अर्थ विक्षनोए हृदयमा धारवो नही, केमके अहीं अन्यना योगने जूदा पामवानो अधिकार ले. एवीरीते हा काव्यनो अर्थ जाणवो. । ११५ । चैतन्यादिक अने रूपादिक धर्मो, आत्मादिक अने घ
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धम्मिव्यपदेशमश्वते । तन्मतं* दूषयन्नाह ।
नधर्मधम्मित्त्वमतीवनेदे
वृत्त्यास्ति चेन्न त्रितयं चकास्ति । हेदमित्स्यस्ति मतिश्च वृत्तौ
न गौणनेदोऽपि च लोकबाधः ॥ ७॥ अत्यंत निन्नपणामां धर्मधर्मीपणुं नथी ; अने जो कहेशो के, वृतिथी ने, तो (तेज बन्ने वच्चे ) त्रीचं कं देखातुं नथी. वली आ अहीं डे' एकी प्रतीति तो वृत्तिमा ( समवायमां ) पण जे ; तेम गोण नेद नथी, पण (तेथी तो उलटो) लोकमां बाध आवे . ॥ ७ ॥
।। धर्ममिणोरतीवन्नेदेऽती देत्यत्रेवशब्दो वाक्यानकारे । तं च प्रायोऽतिशब्दाम्किवृतेश्च प्रयु.ते शाब्दिकाः । यथा “ आवजिता किञ्चिदिव स्तनान्यां” “ नझतः क इव सुखावहः परेषामित्यादि” ततश्चैकान्तभिन्नत्वेऽङ्गीक्रियमाणे धर्मम्मित्वं न स्यात् । अत्य धमिण इमे धर्मा एषां च धर्माणामयमाश्रयनतो धर्मीत्येवं mannnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnno टादिक धर्मीथी अत्यंत जूदा ठे, तोपण समवायसंबंधव जोमाया थका धर्मधर्मीना नामने पाने के, एवी रीतना ते वैशेषिकोना मतनुं खंडन करताथका हवे कहे जे.
।। धर्मवींना अति नेदमां एटले तेनुं एकांत निन्नपणुं अंगीकार करते बते धर्मधर्मीपणुं होई शके नही. (अहीं 'अतीवमां' श्व शब्द वाक्यालंकार अर्थे डे, अने ते ने प्रायें करीने अतिशब्दथी अने किंवृत्तिथी वैयाकरणी जोमे डे ; जेमके 'थोमां ढांकेला स्तनवाली.' 'नइत बीजानने केवीरीते सुख आपनारो ?' इत्यादि) ___* वैशेषिकाणां मते नत्पनं व्यं दणमगुणं तिष्टतीति ।
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सर्व धमिव्यपदेशो न प्राप्नोति । तयोरत्यन्त भिन्नत्वेऽपि तत्कल्पनायां पदार्थान्तरवर्म्माणामपि विवचितधर्म्मधर्मित्वापत्तेः । एवमुक्ते सति परः प्रत्यवतिष्टते । वृत्यास्तीति । २ । प्रयुत सिमानामावार्याधारनताना मिहप्रत्यय हेतुः सम्बन्धः समवायः स च समवयनात्समवाय इति इव्यगुणकर्मसामान्यविशेषेषु पञ्चसु पदार्थेषु वर्तनाद् वृत्तिरितिचाख्यायते । ३ । तया वृत्त्या समवायसम्बन्धेन तयोर्धर्मधर्मिणोरतेरेतर विनिर्लु वितत्वेऽपि धर्म्ममिव्यपदेश इप्यते । इतिनानन्तरोक्तो दोष इति । ४ । अत्राचार्यः समाधत्ते । चेदिति यद्येवं तव मतिः सा प्रत्यक्षप्रतिक्षिप्ता । यतो न त्रितयं चकास्ति त्र्यं धर्म्मा इमे चाऽस्य धर्मायं चैतत्सम्बन्धनिबन्धनं समवाय इत्येतत्रितयं वस्तुत्रयं न च
"
अर्थात धर्मोन धर्मो बे ने धर्मोनो आश्रयभूत धर्मी बे, एवी रीतनो लोकप्रसिद् धर्मधर्मीनो व्यवहार प्राप्त यतो नयी; केमके तेजना अत्यंत भिन्नपणामां पण जो ते व्यवहारनी क ल्पना करीयें तो, बीजा पदार्थोंना धर्मो ने पण ते धर्मधर्मीपणानी प्राप्ति श्रायः एम कहते बते वादी सर पे बे के वृत्तिवमे तेजनो संबंध बे. । २ । स्वनावधीन सि एवा प्राय नेधारभूत पदार्थोनो 'हीं' एवी प्रतीतिना हेतुवालो जे संबंध ते समवाय; ने ते जोमतो होवाथी समवाय कहेवाय बे; अने ते इव्य, गुण, कर्म, सामान्य ने विशेष, ए पांचे पदार्थोमां वृर्तवाश्री ' वृत्ति' कहेवाय बे. | ३ | ते वृत्तिव एटले समवाय संबंधें करीने ते धर्मधर्मीनुं परस्पर भिन्नपणं होते बते पण धर्मधर्मीनो व्यवहार घंटे बे, माटे उपर कहेलो दोष तो नथी । ४ । अहीं आचार्यजी तेनुं समाधान करे बे, ज्यारे एवी तारी मति बे, त्यारे तेनुं प्रत्यक्ष खंमन थाय बे; केमके, आ धर्मी, आ ना धर्मो ने तेजना संबंधना कारणरूप
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कास्ति । ज्ञानविषयतया न प्रतिन्नासते । ५ । यथा किल शिलाशकलयुगलस्य मिथोऽनुसन्धायकं रातादिश्व्यं तस्मात्पृथक् तृतीयतया प्रतिन्नासते । नैवमत्र समवायस्याऽपि प्रतिनानं । किं तु योरेव धर्मम्मिणोः । इतिशपथप्रत्यायनीयोऽयं समवाय इति नावार्थः । ६ । किंचायं तेन वादिना एको नित्यः सर्वव्यापकोऽमूर्तश्च परिकल्प्यते । ततो यथा घटाश्रिताः पाकजरूपादयो धर्माः समवायसंबन्धेन समवेतास्तथा किं न पटेऽपि । तस्यैकत्वनित्यत्वव्यापकत्वैः सर्वत्र तुल्यत्वात् । ७ । यथाऽकाश एको नित्यो व्यापकः अमूर्तश्च सन् सर्वैः सम्बन्धिनिर्युगपदविशेषेण संबध्यते तथा किं नायमपीति । । विनश्यदेकवस्तुसमवायाऽनावे च समस्तवस्तुसमवायाऽनावः प्रसज्यते । ए । तत्तदवच्छेदकन्नेदान्नायं दोष इतिचेदेवमनित्यत्वापत्तिः । प्रतिवस्तुस्वन्ना
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समवाय, एवी रीतनी त्रण वस्तुन हानथी जणाती नथी. ।। जेम पत्थरना बे ककमाने परस्पर सांधनारी राल आदिक वस्तु तेथी जूदी त्रीजी तरिके देखाय डे, तेम अहीं समवाय देखातो नथी ; पण फक्त धर्म अने धर्मी ए बेन देखाय , माटे आ समवाय सोगनथी प्रतीति कराववानेवो ने, एवो नावार्थ जाणवो. । ६। वली ते वादीए आ समवायने, एक, नित्य, सर्वव्यापक अने अमूर्त मानेलो डे, तेथी जेम घटना पाकथी निपजेला रूपादिक जे धर्मो समवायसंबंधवमे जोमाया , तेम तेने एकपणा नित्यपणा अने व्यापकपणावमे सर्व जगोए तुल्यता होवाथी वस्त्रमा ते केम जोमाया नथी?। ७। जेम आकाश, एक, नित्य, व्यापक अने अमूर्त होतो थको सर्व संबंधिसाथे एकीवेलाए फेरफार विना संबंध राखे डे, तेम आ पण केम न राखे। । नष्ट थती एवी एक वस्तुना समवायनो अन्नाव होते उते, सर्व वस्तुनना समवायनो अन्नाव थाय . । ए। तेने तेने जूदा पामवाना नेदथी ते
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बन्नेदादिति । १० । अथ कथं समवायस्य न झाने प्रतिनानं । यतस्तस्येहेतिप्रत्ययः सावधानं साधनं । इहप्रत्ययश्चाऽनुन्नवसिझ एव । इह तन्तुषु पट इहात्मनि छानमिह घटे रूपादय इति प्रती तेरुपलंनात् । अस्य च प्रत्ययस्य केवलधर्माधर्म्यनालम्बनत्वादस्ति समवायाख्यं पदार्थान्तरं तशेतुरिति पराशङ्कामनिसन्धाय पुनराह । ११ । (श्हेदमित्यस्ति मतिश्चवृत्ताविति । इहेदमितिरिहेदमिति ) आश्रयाश्रयित्नावहेतुक इह प्रत्ययो वृत्तावप्यस्ति समवायसंबन्धेऽपि विद्यते । चशब्दोऽपिशब्दार्थस्तस्य च व्यवहितसम्बन्धस्तथैव च व्याख्यातं । १२॥ इदमत्र हृदयं । यथा त्वन्मते पृथिवीत्वानिबन्धात्प्टथिवी तत्र एथिवीत्वं पृथिव्या एव स्वरूपमस्तित्वाख्यं । नाऽपरं वस्त्वन्तरं । तेन स्व
दोष नथी, एम जो कहीश तो (ते समवायने) अनित्यपणानी प्राप्ति जे; केमके दरेक वस्तुनना स्वनावमां नेद ले. । १० । समवायचं झानमां केम प्रतिनासन नथी? केमके तेनी 'अहीं' एवी प्रतीतिरूप खातरीवालुं साधन , अने 'अहीं' ए प्रतीत तो अनुन्नवसिज जे, केमके ‘ा तंतुनमां वस्त्र, आ आत्मामां ज्ञान, आ घमामां रूपादिक' एवी रीतनी प्रतीति प्राप्त थाय डे, अने आ प्रतीतिने मात्र धर्मधर्मीनुं अनालंबनपणुं होवाथी तेना हेतुरूप समवाय नामनो जूदो पदार्थ डे, एवी रीतनी वादी तरफनी शंका करी ने फरीने (आचार्यमहाराज) कहे .। ११ । 'अहीं आ' एवीरीतनी आश्रय आश्रयीनावना हेतुवाली प्रतीति तो समवायसंबंधमां पण जे. अहीं 'च' शब्द 'अपि' शब्दना अर्थवालो डे, अने तेनो संबंध प्रसिझ ने, अने तेमज व्याख्यान करेलु . ।१२। नावार्थ ए डे के, (हेवादी !) तारा मतमां पृथ्वीपणाना संबंधथी पृथ्वी जे; तेमां पृथ्वीपणुं, ए पृथ्वीमुंज अस्तिपणानामनुं स्वरूप में, पण ते कंई दी वस्तु नथी, अने
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रूपेणैव समं योऽसावन्निसम्बन्धः पृथिव्याः स एव समवाय इत्युच्यते " प्राप्तानामेव प्राप्तिः समवाय" इति वचनात् । एवं समवायत्वानिसम्बन्धात्समवाय इत्यपि किं न कल्प्यते । यतस्तस्याऽपि यत्समवा- . यत्वं स्वस्वरूपं तेन साई संबन्धोऽस्त्येवाऽन्यथा निःस्वन्नावत्वात् शशविषाणवदवस्तुत्वमेव नवेत् । १३ । ततश्च इह समवाये समवायत्वमित्युल्लेखेन इहप्रत्ययः समवायेऽपि युक्त्या घटत एव । ततो यथा पृथिव्यां पृथिवीत्वं समवायेन समवेतं, समवायेऽपि समवायत्वमेवं समवायान्तरेण संबन्धनीयं । तदप्यपरेणेत्येवं उस्तराऽनवस्थामहानदी । १५ । एवं समवायस्यापि समवायत्वानिसम्बन्चे युक्त्या नपपादिते साहसिक्यमालम्ब्य पुनः पूर्वपदवादी वदति । १५ । ननु पृथिव्यादीनां
ते स्वरूपनीज साथे पृथ्वीनो ने संबंध में, तेज समवाय बे, एम कहेवाय बे, केमके 'प्राप्त थयेलाननीज प्राप्ति ते समवाय' ए (शास्त्रनुं) वचन डे (अने ज्यारे एवो तारो मत डे त्यारे) 'समवायपणाना संबंधथी समवाय' एम पण शामाटे न मनाय ? केमके तेनुं पण जे समवायपणारूप निजस्वरूप तेनी साथे (तेनो) संबंध न ; अने जो तेम न होय तो स्वन्नावर हितपणाथी ससलाना शींगमांनी पेठे (समवायर्नु) अपदार्थपणुंज थाय. । १३ । माटे 'आ समवायमां समवायपणुं,' एवी रीते कहेवाथी 'अहीं' एवी प्रतीति समवायमां पण युक्तिथी घटेज डे, तेथी पृथ्वीमां पण जेम पृथ्वीपणुं समवायसंबंधवमे जोमायुं डे, तेम. समवायमां पण समवायपणुं बीजा समवायवझे जोगी लेवू, अने ते पण त्रीजा समवायवमे; एवीरीते अनवस्थारूपी महानदी उस्तर थशे. । १४ । एवीरीते समवायने पण समवायपणानो संबंध युक्तिवमे घटावते ते फरीने पूर्वपदनो वादी साहसिकपणुं धारण करीने कहे . । १५ । पृथ्व्यादिकनो एथ्वीपणाना संबंधना कार
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पृथिवीत्वानिसम्बन्धनिबन्धनं समवायो मुख्यस्तत्र त्वतला दिप्रत्ययानिव्यंग्यस्य संगृहीतसकतावान्तरजातिलक्षणव्यक्तिनेदस्य सामान्यस्योन्नवात् । १६ । इह तु समवायस्यैकत्वेन व्यक्तिनेदाऽनावे जातेरनुद्द्तत्वामीणोऽयं युप्मत्परिकल्पित श्हे तिप्रत्ययसाध्यः समवायत्वानिसम्बन्धस्तत्साध्यश्च समवाय इति । १७ । तदेतन्न विपश्चिच्चतश्चमत्कारकारणं । यतोत्रापि जातिरुनवन्ती केन निरुध्येत । १७ । व्यक्तेरनेदेनेतिच्चेन्न । तत्तदवच्छेदकवशात्तन्नेदोपपत्तौ व्यक्तिनेदकल्पनाया उर्निवारत्वादन्यो हि घटसमवायोऽन्यश्च पटसमवाय इति व्यक्त एव समवायस्यापि व्यक्तिनेद इति । १ए । तत्सि-शै सिह एव जात्युनत्रस्तस्मादन्यत्रापि मुख्य एव समवायः । इहप्रत्ययस्योनयत्राप्य
णरूप समवाय मुख्य डे, केमके तेमां ' त्व' अन 'तला दिक' प्रत्ययथी जणाता, अने ग्रहण करेल डे सवली बीजी जातिना लदएनो व्यक्तिनेद जेणे एवा सामान्यनी उत्पत्ति । १६ । अने अहीं तो समवायना एकपणावमे व्यक्तिनेद न होते ते जातिनी उत्पत्ति न अवाथी आ तमोए कल्पेलो 'अहीं' एवी प्रतीतिथी सघाय तेवो समवाय जे. । १७ । (हवे ते वादीने उत्तर आपे लेके ) तारुं ते कहेQ कं विज्ञानना मनने चमत्कार करनारूं नथी; केमके तेमां पण उत्पन्न थती माति कोनाथी अटकावाय तेम डे ?। १७ । जो कहीश के व्यक्तिना अन्नेदें करीने, तो ते पण युक्त नथी ; केमके ते ते अवच्छेदकना वशथी तेना नेदनी प्राप्तिमां व्यक्तिनेदनी कल्पना निवाराय तेवी नथी, अने तेथी घटसमवाय जूदो डे, पटसमवाय जूदो डे, अने तेथी समबायनो पण व्यक्तिनेद प्रगटन डे; । १ए। अने ते सि६ होते ते, नातिनी उत्पत्ति सिझ थइ, अने तेथी बीजी जगोए पण समवाय मुख्यज डे, केमके 'अहीं' एवी प्रतीति तो व्यनिचार विना बन्ने जगोए
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व्यनिषारात् । २० । तदेतत्सकलं सपूर्वपदं समाधानं मनसि निधाय सिशन्तवादी प्राह । न गौण इति । योऽयं नेदः स नास्ति । गौणलदणाऽनावात् । तलक्षणं चेत्थमाचदते । =॥ अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च ॥ विपरीतो गौणोऽर्थः । सति मुख्य धी: कथं गौणे = | २१ । तस्माइर्मधर्मिणोः सम्बन्धने मुख्यः समवायः । समवाये च समवायत्वानिसम्बन्धे गौण इत्ययं दो नानात्वं नास्तीति जावार्थः । २२ । किं च योऽयमिह तन्तुषु पट इत्यादिप्रत्ययात्समवायसाधनमनोरथः स खल्वनुहरते नपुंसकादपत्यप्रसवमनोरथं । २३ । इह तन्तुषु पट इत्यादेर्व्यवहारस्याऽलौकिकत्वात्पांशुलपादानामपि इह पटे तन्तबश्त्येवं प्रतीतिदर्शनात् । इह नूतले घटान्नाव इत्यत्रापि स
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। २। माटे आ सघनु पूर्वपदसहित समाधान मनमां धारीने सितिवादी (आचार्यमहाराज) कहे जे के गौण एवो जे आ नेद ते नयी, केमके तेमां गौणनुं लक्षण नथी; तेनुं लक्षण तो नीचे प्रमाणे कहे जे 'व्यनिचार विनानो, अविकल, असाधारण, अने अंतरंग ते . 'मुख्य' , अने तेथी उलटां लक्षणवालो पदार्थ ते 'गौण' , माटे मुख्य होते ते गौणमां बुद्धि शीरीते थाय?' । २१। तेथी करीने धर्मधर्मीना संबंधमां समवाय मुख्य बे, अने समवायमां समवायपणाना संबंधमा ‘गौण' ले एवी आ जूदाइ नथी, एवो नावार्थ डे.।। वत्नी आ तंतुउमा वस्त्र डे, इत्यादिक प्रतीतिश्री समवायना साधननो जे आ मनोरथ डे, ते तो नपुंसकथी संताननी उत्पत्तिना मनोरथर्नु अनुकरण करे ; । २३ । केमके आ तंतुमां वस्त्र ने, इत्यादिक व्यवहार तो लोकप्रसिइ नथी पण आ वस्त्रमा तंतु डे, एवीरीतनी खातरी तो गांबमोआनने पण देखायेती ; अने वली तेथी तो 'आ पृथ्वीतलपर धमानो अनात डे' एवी रीतना वाक्यमां पण समवायनो प्रसंग यशे!
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मवायप्रसङ्गादत एवाह । २४ । अपि च लोकबाध इति (अपिचेतिदूषणान्युच्चये ) लोकः प्रामाणिकलोकः सामान्यलोकश्च तेन वाधो विरोधो लोकबाधस्तदप्रतीतव्यवहारसाधनात् (बाधशब्दस्य “हाद्याः प्रत्ययत्नेदतः” इति पुंस्त्रीलिङ्गता )। २५ । तस्माइर्माधर्मिणोर विष्वगन्नावलदण एव सम्बन्धः प्रतिपत्तव्यो । नान्यः समवायादितिकाव्यार्थः ॥
। २६ । अथ सत्तानिधानं पदार्थान्तरमात्मनश्च व्यतिरिक्तं झानाख्यं गुणमात्मविशेषगुणोच्छेदस्वरूपां च मुक्तिमझानादङ्गीकृतवतः परानुपहसन्नाह ।
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सतामपि स्यात् क्वक्टिव मत्ती
चैतन्यमौपाधिकमात्मीय
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अने तेथीन कहे जे के, । २५ । तेम कहेवाथी तो जे प्रमाणिक लोक अने सामान्य लोक, तेनी साथे पण अप्रसिह व्यवहार साधवाथ। विरोध आवशे. (अहीं 'अपिच' ए शब्द दूषण देखामवामाटे ) 'हाद्याः प्रत्ययत्नेदतः' ए सूत्रथी बाध शब्दने पुल्लिंग अने स्त्रीलिंगपणुं थाय बे.) । २५ । तेथी धर्मधर्मीवच्छेनो संबंध, अन्निन्ननावना नक्षणवालोज मानवो, पण तेमां समवायादिकरूप कं अन्य जाणवू नही. एवी रीते सातमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
।२६ । हवे सत्ता (सामान्य) नामना जूदा पदार्थने, अने आत्माथी नूदा एबा झान नामना गुणने, तथा आत्मासंबंधि गुणोना नाशना स्वरूपवानी मुक्तिने अज्ञानथी अंगीकार करनारा वैशेषिकोनी हांसी करता थका कहे .
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न संविदानन्दमयी च मुक्तिः
सुसूत्रमासूत्रितमत्वदीयैः ॥ ॥ पदार्थोमां पण केटलाकोमा सत्ता डे ! अने चैतन्य एटले झान, ने आत्माथी जूदुं अने नपाधिरूप डे ! तथा ज्ञान अने सुखवाली मुक्ति नथी! एवी रीते (हे प्रन्नु!) आपना विरोधी एवा वैशेषिकोए नवं सूत्र गुंथ्यु डे !! ॥ ७ ॥
। १ । वैशेषिकाणां व्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाख्याः षट्पदार्थास्तत्वतयाऽभिप्रेतास्तत्र पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशः कालो दिगात्मा मन इति नव व्याणि । २ । गुणाश्चतुर्विंशतिस्तद्यथा । रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविनागौ परत्वाऽपरत्वे बुद्धिः सुखःखे श्च्म षौ प्रयत्नश्चेतिसूत्रोक्ताः सप्तदश । चशब्दसमुचिताश्च सप्त । स्वत्वं गुरुत्वं संस्कारः स्नेहो धर्माधौ शब्दश्चेत्येवं चतुर्विंशतिर्गुणाः । ३ । संस्कारस्य वेगन्नावनास्थितिस्थापकनेदात्रैवि
।। वैशेषिकोए श्व्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, अने समवाय नामना ड पदार्थो ने तत्वरूपे मानेला जे; तेमां पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा अने मन ए नव व्यो
.।। गुणो नीचे प्रमाणे चोवीस ले. रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्पणु, संयोग, विनाग, परपणुं, अपरपणुं, बुद्धि, सुख, उःख, इच्छा, शेष अने प्रयत्न, ए सूत्रमा कहेना सत्तर, अने 'च' शब्दथी सूचवेना वपणुं, नारीपणुं, संस्कार, स्नेह, धर्म, अधर्म अने शब्द, ए सात मनी ने चोवीस गुणो थया. । ३ । वेग नावना अने स्थितिस्थापक नेदथी संस्कार त्रए प्रकारनो , तोपण सं
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ध्येऽपि संस्कारत्वजात्यपक्ष्या एकत्वाच्छौौदार्यादीनां' चात्रैवान्तावानाधिक्यं । । । कर्माणि पञ्च । तद्यथा । नत्देपणमवदेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमन मिति । गमनग्रहणाद्रमणरेचनस्पन्दनाद्यविरोधः । ५। अत्यन्तव्यावृतानां पिएमानां यतः कारणादन्योऽन्यस्वरूपानुगमः प्रतीयते तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः सामान्यं । ६ । तच्च विविधं परमपरं च । तत्र परं सत्ता जावो महासामान्यमितिचोच्यते । व्यत्वाद्यवान्तरसामान्याऽपेक्षया महाविषयत्वात् । ७ । अपरसामान्यं च व्यत्वादि । एतच्च सामान्य विशेष इत्यपि व्यपदिश्यते । । तथाहि व्यत्वं नवसु व्येषु वर्तमानत्वासामान्यं । गुणकर्मन्यो व्यावृत्तत्वाहिशेषः । (ततः कर्मधारये सामा
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स्कारपणानी जातिनी अपेदावमे ते एक होवाथी, तेमज शूरापणुं अने नदारता आदिकनो पण या चोवीसमांहेला गुणोमांज समावेश थतो होवाथी ( चोवीसनी संख्याथी) अधिकपणुं नथी. ।।। कर्मो नीचे प्रमाणे पांच प्रकारनां ने. उत्देपण, अवहेपण, आकुंचन, प्रसारण, अने गमन. गमनना ग्रहणथी मण, रेचन, तथा स्पंदनादिक पण तेमांज जाणवां. । ५। अत्यंत जूदा पदार्थोनो जे कारणथी परस्पर रूपनो अनुगम जणाय डे, तेनी अनुवृत्तिनी प्रतीतिनो हेतुरूप सामान्य जे. । ६ । ते सामान्य पर अने अपर एम बे प्रकारचं जे. तेमां परने सत्ता, नाव अथवा महासामान्य पण कहेले ; केमके ते ऽव्यत्वादि बीजा सामान्यनी अपेवाये महाविषयवाद्धं . । ७ । तथा इव्यपणादिक, ते अपर सामा. न्य , अने ते सामान्य विशेषतरिके पण कहेवाय . । । जेमके
१ ये तु शौर्यौदार्यकारुण्यदादिषयौग्यादयस्तेऽत्रैवांतनवंति । यथा शौर्य बनवतोऽपि पराजयं प्रत्युत्साहः । स च प्रयत्नविशेषएव सततं मार्गानुगामिनी बुझिरौदार्य । परउःखप्रहाणेच्छा कारुण्यं । तत्त्वान्निनिवेशिनीबुर्दािदिण्यं । औग्यूमात्मन्युत्कर्षप्रत्यय इत्येवमादि ॥ .
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न्यविशेष इति)। ए । एवं व्यत्वापदया पृथिवीत्वादिकमपरं तदपेद. या घटत्वादिकम् । १० । एवं चतुर्विंशतौ गुणेषु वृत्तेर्गुणत्वं सामान्यं । इव्यकर्मन्योव्यावृत्तेश्च विशेषः । ११ । एवं गुणत्वापेक्या रूपत्वादिकं तदपेक्षया नीलत्वादिकम् । एवं पञ्चसु कर्मसु वर्तनात्कर्मत्वं सामान्यं । व्यगुणेन्यो व्यावृत्तत्वाहिशेषः । एवं कर्मत्वापेदया नत्देपणत्वादिकं ज्ञेयं । १५ । तत्र सत्ता इव्यगुणकर्मन्योऽर्थान्तरं कया युक्त्येति चेत् उच्यते । न इव्यं सत्ता । व्यादन्येत्यर्थः । एकऽव्यवच्वात् । एकैकस्मिन् व्ये वर्तमानत्वादित्यर्थः । व्यत्ववत् । १३ । यथा व्यत्वं नवसु व्येषु प्रत्येकं वर्तमानं व्यं न नवति । किं तु सामा
~~~ ~~~~~~~~~~ ~~ नवे व्यनी अंदर इव्यपणुं वर्ततुं होवाथी ते सामान्य बे, अने गुणो तथा कर्मोथी जूउं पातुं होवाथी ते विशेष ले ; (एवी रीते अहीं कर्मघारंयसमासथी सामान्यविशेष बे.)। ए । एवी रीते ऽव्यपणानी अपेवाये पृथ्वीपणादिकपणुं अपर सामान्य डे, अने तेनी अपेदाये घटपणादिक अपर सामान्य जे. । १० । वनी एवीज रीते चोवीसे गुणोनेविषे वर्तवाथी गुणपणुं सामान्य , अने व्यो तथा कर्मोथी जूउं पतुं होवाथी ते विशेष ले. । ११ । एवीन रीते गुणपणानी अपेकाय रूपपणादिक, ने तेनी अपेदाये श्यामपणादिक ; वली तेमज पांचे कर्मोमां वर्तवाथी कर्मपणुं सामान्य डे, अने व्यगुणथी जूउं पमवाथी ते विशेष ले; अने तेवीज रीते कर्मपणानी अपेदाये नत्देपणपणादिकमां पण जाणवु. । १२ । (वैशेषिक मतवाला जैनोने कहे जे के) हवे तेमां सत्ता जे ते, कश् युक्तिवमे इव्य, गुण अने कर्मथी जुदा पदार्थरूप जे ? एम जो तमो पूढो, तो कहीये बीएके, ‘सत्ता' कंई पव्य नथी, अर्थात् ते द्रव्यथी जूदी ने ; केमके ते द्रव्यपणानी पेठे दरेक द्वन्यमा रहेनी जे; । १३ । जेम नवे द्रव्योमा दरेकमां वर्ततुं द्र.
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न्यविशेषणं व्यत्वमेव । एवं सत्तापि । १४ । वैशेषिकाणां हि द्रव्यं वा व्यम् अनेकव्यं वा इव्यं । तत्राऽव्यमाकाशः कालो दिगात्मामनः परमाणवः । अनेकश्व्यं तु व्यणुकादिस्कन्धाः । एकइव्यं तु व्यमेव न भवति । एकश्व्यवती च सत्ता इति इव्यलक्षण विलक्षणत्वान्न इव्यं । १५ | एवं न गुणः सत्ता गुणेषु भावाद् गुणत्ववत् । यदि हि सत्ता गुणः स्यान्न तर्हि गुणेषु वर्त्तेत । निर्गुणत्वाद् गुणानां । वर्त्तते च गुणेषु सत्ता । सन् गुण इति प्रतीतेः । १६ । तथा न सत्ता कर्म । कर्मसु जावात्कर्मत्ववत् । यदि च सत्ता कर्म स्यान्न तर्हि कर्मसु वर्तेत । निष्कर्मत्वात्कर्मणां । वर्तते च कर्मसु सत्ता । सत् कर्मेति प्र
व्यपणुं (जूदा ) द्रव्यरूप नश्री, पण सामान्य विशेषना लक्ष्णवालुंज ते बे; ते सत्ता पण जाणवी. । १४ । वैशेषिको द्रव्यरूप अनेकद्रव्यरूप एम बे प्रकारनां व्यो माने बे; तेमां व्याकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन ने परमाणु, ए अव्यरूपे व्य बे; अने घ्यणुकादिकना स्कंधो, ते अनेक इव्यरूपे व्य बे; वली 'एकव्य' तो व्यज नथी, ने सत्ता तो एक इव्यवाली बे; एवी रीते इन्यना लक्षणथी ते विलक्षण होवाथी व्यरूप नथी. । १५ । तेमज 'सत्ता' गुण पण नथी ; केमके ते तो गुणपणानी पेठे गुणोमां रहेली बे. वली जो सत्ता (पोतेज) गुण होय, तो ते गुणोमां रहेज नही, केमके तेथी तो गुणोने अगुणपणुं थाय; ने सत्ता तो गुणोमां रहेली बे, केमके गुण 'बे' एवीप्रतीति बे. । १६ । वली 'सत्ता' कई कर्म नथी, केमके ते तो कर्मपणानी पेठे कर्ममां रहेली बे ; वली जो सत्ता ( पोतेज ) कर्म होय,
१ व्यंव्यं अनेकव्यं च । न विद्यते इव्यं जन्यतया जनकतया वा यस्य तदव्यं व्यं प्रकाशात्मादि || अनेकं व्यं जन्यतया वा यस्य तदनेकव्यं घ्यणुकादि ॥
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तीतेः । तस्मात्पदार्थान्तरं सत्ता । १७ । तथा विशेषा नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या अत्यन्तव्यावृत्तिहेतवस्तेद्रव्यादिवैलदण्यात्पदार्थान्तरं । तथा च प्रशस्तकारः । अन्तेषु नवा अन्त्याः । स्वाश्रयविशेषकत्वाहिशेषाः । विनाशारम्नर हितेषु नित्यद्रव्येप्वऽएवाकाशकालदिगात्ममनस्सु प्रतिद्रव्यमकैकशो वर्तमाना अत्यन्तव्यावृतिबुदिहेतवः । १७ । यथाऽस्मदादीनां गवा दिष्वश्वादिभ्यस्तुल्याकतगुण क्रियावयवोपचयाऽपचयविशेषसंयोगनिमित्ता प्रत्ययव्यावृत्तिदृष्टा (गौः शुक्लः शीघ्रगतिः पीनः ककुद्मान् महाघएट इति) तथास्मविशिष्टानां योगिनां नित्येषु तुल्या
तो ते कर्मोमां वर्तेन नही, केमके तेथी तो कर्मो ने अकर्मपणुं थाय; अने सत्ता तो कर्मोमां रहेली , केमके कर्म 'डे' एवी प्रतीति ; माटे 'सत्ता' एक जूदा पदार्थरूप . । १७ । वनी नित्यव्यमा रहेनारा, बेवटना, अने अत्यंत जदा पामवाना हेतुवाला, एवा विशेषो, इव्यादिकथी विलक्षण होवाथी जूदा पदार्थरूप ले ; तेमाटे वत्नी प्रशस्तकार कहे डे के 'अंतमां होय ते अंत्य कहेवाय, अने पोतानाज आश्रयवाला होवाथी विशेषो कहेवाय डे, ते विशेषो नाश अने आनविनाना परमाणु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा अने मनरूप नित्यश्व्योनेविषे दरेक इव्यमां एकेकपणे वर्तता थका अत्यंत व्यावत्तिनी बुझिना हेतुरूप . । १७ । जेम बलदादिकनेविषे घोमादिकथी तुल्य एवी आकृति, गण, क्रिया, अवयव, वधारा अने घटामाना विशेषसंयोगना निमित्तवानी प्रतीतिनी जूदाश् आपणआदिकोने देखाएनी जे ; (जेमके बन्नद सफेद, उतावनीचालनो, पुष्ट, खुंधवालो, अने मोटाघंटवालो डे) तेम आपणथी विशेष ज्ञानवाला योगीनने नित्य एवा, तथा तुल्य आकति, गुण, अने क्रियावाला परमाणु-मां अने मुक्त एवा आत्मा अने मननेविषे विशेषपणानी इप्रतीतिनी जूदा .
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कृतिगुण क्रियेषु परमाणुषु मुक्तात्ममनःसु चान्यनिमित्ताऽसंजावत् । १५ येन्यो निमित्वेन्यः प्रत्याधारं विनदोऽयं विलक्षणोऽयमितिप्रत्ययव्यावृत्चिदेशकाल विप्रकृष्टे च परमाणौ स एवायमिति प्रत्यनिशानं च नवति तेऽन्त्या विशेषा इति । २० | अमी च विशेषरूपा एव । न तु इव्यत्वादिवत्सामान्यविशेषोनयरूपा व्यावृत्तेरेव हेतुत्वात् ।२१। तथा अयुतसिझनामाधार्याधारनूतानामिहप्रत्ययहेतुः संबन्धः समवाय इति । २२। अयुतसिझ्योः परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयानाश्रितयोराश्रयाश्रयिन्नावः 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादेः प्रत्ययस्यासाधारणं कारणं समवायः । यशात् स्वकारणसामर्थ्याउपजायमानं पटाद्याधार्य तन्त्वाद्याधारे सम्बध्यते । यथा बिदिक्रिया बेधेनेति । २३ । सोऽपि
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देखाएली ने ; केमके ते विशेष शिवाय तेमां बीजं निमित्त नथी; ।१५। वली जे निमित्ताथी आधारप्रते आ निन्न , आ निन्न डे, एवी रीतनी प्रतीतिनी जूदाइ देखाय, अने देशकालवमे दूर एवा परमाणुमां ‘आ तेज डे' एवी जे खातरी थाय, तेनने अंत्यविशेषो जाणवा. । २० । वली आं विशेषरूपज डे, पण इव्यपणादिकनी पेठे सामान्य अने विशेष एम बन्नेमय नथी, केमके ते जूदाश्नाज हेतुवाला . । १। वली स्वन्नावश्रीन सि एवा आधेयआधारनूतोनो 'अहीं' एवी प्रतीतिना हेतुवालो समवायसंबंध . । २२ । परस्परना त्यागपूर्वक निन्न आश्रयने आश्रीने नही रहेला एवा स्वन्नावसिशोना आश्रयाश्रयीनावरूप, जेमके 'आ तंतुमां वस्त्र' इत्यादिक प्रतीतिर्नु जे असाधारण कारण ते समवाय डे, के जेना वशथी, जेम दननी क्रिया उद्यनी साथे, तेम पोताना कारणना सामर्थ्यथी नत्पन्न थतुं पटादिकआधेय तंतुआदिक आधारप्रते जोमाय . । २३ । एवी रीते ते समवाय पण इव्यादिकना सदणथी जूदा धर्मवालो होवाथी नि
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--- २ व्यादिलक्षणवैधयात्पदार्थान्तर मितिषट्पदार्थाः । ५५ । सांप्रतमदरार्थो व्याक्रियते । सतामपीत्यादि । सतामपि सद्बुझिवेद्यतया साधारणानामपि षणां पदार्थानां मध्ये क्वचिदेव केषुचिदेव पदार्थेषु सत्तासामान्ययोगः स्याद्भवेत् न सर्वेषु तेषामेषा वाचोयुक्तिः । २५ । सदिति । यतो व्यगुणकर्मसु सा सत्ता इति वचनात् । यत्रैव सत्प्रत्ययस्तत्रैव सत्ता । सत्प्रत्ययश्च व्यगुणकर्मस्वेवातस्तेष्वेव सत्तायोगः । सामान्यादिपदार्थत्रये तु न । तदन्नावात् । १६ । इदमुक्तं नवति । यद्यपि वस्तुस्वरूपमस्तित्वं सामान्यादित्रयेऽपि विद्यते । तथापि तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतुर्न नवति । य एव चानुवृत्तिप्रत्ययः स एव सदितिप्रत्यय इति । तदन्नावान्न सत्तायोगस्तत्र । २७ । व्यादीनां पुनस्त्रयाणां षट्पदार्थसाधारणं वस्तुस्वरूपमस्तित्वमपि विद्यते । अनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः सत्तास
न्नपदार्थरूप जे; अने एवी रीते 3 पदार्थो थया. । २४ । हवे अदरार्थ कहे जे. 'सतामपि ' एटले 'सद्' एवी बुद्धिथी वेद्यपणायें करीने साधारण एवा पण ए गए पदार्थोमांना केटलाकोमा सामान्यनो संयोग होय, पण सघनामां न होय, एवी ते वैशेषिकोनी वचनयुक्ति
. । २५ । तेन कहे जे के इव्य, गुण अने कर्म ए त्रण पदार्थोमां सत्ता (सामान्यपणुं) ले ; केमके ज्यां सत् एवी प्रतीति ने, त्यांन सत्ता बे; अने सत् एवी प्रतीति व्य, गुण अने कर्ममांन डे, माटे तेनमांन सत्तानो संयोग ; वली सामान्यादिक त्रण पदार्थोमां ते सत्ता नथी, केमके तेनमां तेनो अन्नाव . । २६ । नावार्थ ए ने के, होवापणारूप पदार्थ- स्वरूप जोके सामान्यादिक त्रणेमां पण डे, तोपण ते स्वरूप अन्वयनी प्रतीतिना हेतुरूप थतुं नथी, अने जे अन्वयनी प्रतीति , तेज सत् एवी प्रतीति डे; अने ते नही होवाथी तेमां सत्तानो संयोग नथी; । १७ । अने व्यादिक त्रणने तो बए पदा.
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०३ म्बन्धोऽप्यस्ति । निःस्वरूपे शशविषाणादौ सत्तायाः समवायाऽनावात् । २७ । सामान्यादित्रिके कथं नानुवृत्तिप्रत्यय इतिचेद्बाधकसद्भावादिति बमः । तथाहि । २ए । सत्तायामपि सत्तायोगाङ्गीकारेऽनवस्था । वि. शेषेषु पुनस्तदन्युपगमे व्यावृतिहेतुत्वलक्षणतत्वरूपहानिः । समवाये तत्कल्पनायां सम्बन्धाऽनावः । केन हि सम्बन्धेन तत्र सत्ता सम्बध्यते। समवायान्तराऽनावात् । ३० । तथा च प्रामाणिकप्रकाएममुदयनः । ==|| व्यक्तेरनेदस्तुल्यत्वं । सङ्करोऽथानवस्थितिः ॥ रूपहानिरसम्बन्धो। मातिबाधकसंग्रहः ।। इति । ३१ । ततः स्थितमेतत्सतामपि स्यात् क्कचिदेव सत्तेति । ३२ । तथाचैतन्यमित्यादि । चैतन्यं ज्ञानमात्मनः के
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थोमा साधारणरीते रहेऱ्या, एवं उतापणारूपी वस्तुस्वरूप डे, अने अनुवृत्तिनी प्रतीतिना हेतुवालो सत्तासंबंध पण जे ; केमके स्वरूप विनाना ससलाना शींगमांदिकमां सत्ताना संबंधनो अन्नाव . । २७ । सामान्यादिक त्रणमां अनुवृत्तिनी प्रतीति केम नथी? एम जो कहेशो, तो अमो कहीये डीए के, तेमां (ते प्रतीति माटे) नीचे प्रमाणे बाध
आवे . । शए । सत्तामां (सामान्यमां) जो सत्तानो संयोग अंगीकार करीयें तो अनवस्था आवे जे, अने विशेषमां जो ते सत्ता लेश्ये तो जूदापामवाना हेतुपणाना लदणवाला एवा तेना स्वरूपनी हानि थाय जे; तथा समवायमां नो ते सत्तानी कल्पना करीयें तो संबंधनो अनाव थाय डे, केमके बीजो समवाय न होवाथी क्या संबंधवमे त्या सत्ता जोमाय? । ३० । प्रमाणिकोमा शिरोमणि एवो उदयन कहे डे के 'व्यक्तिना अन्नेदमां अनवस्था, तुल्यपणामां स्वरूपनी हानि, अने संकरमां असंबंध एम जातिमां बाधक आवे जे.' । ३१ । एवी रीते पदार्थोमां पण केटनाकमान सत्ता बे, एम नक्की थयु. । ३३ । हवे चैतन्य एटने ज्ञान आत्माथी अत्यंत जूहूँ जे; (आत्मा शब्द साथे
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त्रझादन्यदत्यन्तव्यतिरिक्तं । असमासकरणादत्यन्तमिति बन्यते ।३३। अत्यन्तनेदे सति कथमात्मनः सम्बन्धि ज्ञानमिति व्यपदेश इतिपराशङ्कापरिहारार्थ औपाधिक मिति विशेषणारेण हेत्वन्निधानम् । ३४ । उपाधेरागतमौपाधिकं । समवायसम्बन्धलक्षणेनोपाधिना आत्मनि समवेतमात्मनः स्वयं जमरूपत्वात्समवायसंबन्धोपढौ कितमिति यावत् । ३५। यद्यात्मनो ज्ञानादव्यतिरिक्तत्वमिप्यते तदा उःखजन्मप्रवृत्ति दोष मिथ्याझानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरानावाबु श्यादीनां नवानामात्मविशेषगुणानामुच्छेदावसरे आत्मनोऽप्युच्छेदः स्यात् । तदव्यतिरिक्तत्वादतो निन्नमेवात्मनो ज्ञानं यौक्तिकमिति । ३६ । तथा न
अन्यत् शब्दनो) समास न करवाथी 'अत्यंत' एवो अर्थ निकले डे. । ३३ । हवे जो अत्यंत नेद होय तो 'आत्मसंबंधि झान' एम केम कहेवाय
? एवी रीतनी परनी शंकाने दूर करवामाटे 'उपाधिवातुं' एवी रीतना विशेषणधाराए (तेनो) हेतु कहेलो . । ३४ । उपाधिथी आवेर्बु ते उपाधिवाच॑. अर्थात् समवायसंबंधरूप उपाधिवमे ते आत्मामां जोमायुं ले ; एटले आत्मा पोते जमरूप होवाथी तेने समवाय संबंधे तेनीसाथे मेलवी आपेलु डे. । ३५ । वत्नी जो झानथी आत्मानुं अनिन्नपणुं मानीयें, तो उःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष अने मिथ्याशाननो उत्तरोत्तर नाश थये उते, तेमां रहेला आत्माना बुझि आदिक नवे गुणो तेनाथी अनिन्न होवाथी, तेन्ना नाशवखते आत्मानो पण नाश थाय ; माटे आत्माथी ज्ञान निन्नन , एम मानवु युक्तिवाद्धं . । ३६ ।
१ तत्वज्ञानान्मिथ्याझानापाये दोषा अपयांति । तदपाये प्रवृत्तिरपैति । तदपाये जन्मापैति । तदपाये एकविंशतिनेदं उःखमपैतीति ॥ २ वाङ्मनः कायव्यापारः शुन्नाशुन्नफलः प्रवृत्तिः ॥ ३ रागषमोहास्त्रयो दोषाः-ईर्ष्यादीनामेष्वंतर्नावः ॥
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संविदित्यादि । मुक्तिर्मोदो न संविदानन्दमयी । न झानसुखरूपा। संविद् झानं अानन्दः सौख्यं (ततो इन्धः) संविदानन्दो प्रकृतौ यस्यां सा संविदानन्दमयी । तादृशी न भवति । बुझिसुखःखेच्छाषिप्रयत्नधमधिर्मसंस्काररूपाणां नवानामात्मनो वैशेषिकगुणानामत्यन्तोच्छेदो मोद इति वचनात् । ३७ । चशब्दः पूर्वोक्तान्युपगमध्यसमुच्चये । ३० । ज्ञानं हि दणिकत्वादनित्यं सुखं च सप्रदयतया सातिशयतया च न विशिप्यते संसारावस्थातः । इति तऽच्छेदे आत्मस्वरूपेणावस्थानं मोद इति । ३ए । प्रयोगश्चात्र । नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्चिद्यते संतानत्वात् । योयः सन्तानः स सोऽत्यन्तमुच्छिद्यते । यथा प्रदीपसन्तानस्तथा चायं तस्मादत्यन्तमुच्चिद्यते इति । तउच्छेद एव महोदयो न कृत्स्नकर्मक्यलक्षण इति । 10 | " न हि वै सशरीरस्य प्रिया प्रि
जल वली संवित् एटले ज्ञान, अने आनंद एटले सुख, ते बन्ने जे मुक्तिमां होय ते 'संविदानंदमयी' कहेवाय ; तेवी मुक्ति (वैशेषिकोनी) नथी; केमके तेन बुद्धि, सुख, उःख, इच्छा, ष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म अने संस्काररूप आत्माना नवे गुणोनो जे विनाश तेने मोद माने जे. । ३७ । अहीं 'च' शब्द पूर्वे कहेला (क्वचित्सत्तावाला तथा आस्माथी निन्न ज्ञानवाला तेन्ना) बन्ने स्विकारना समुच्चय माटे जे. । ३० । झान दणिक होवाथी अनित्य ने, अने सुख चयाऽपचयवायूँ होवाथी संसार अवस्थाजेवूज ने ; माटे ते बन्नेना नाशपूर्वक फक्त आत्म रूपे रहे, ते मोद . । ३ए। अहीं प्रयोग आवीरीते . आत्माना नवे गुणोने संतानपणुं होवाथी तेन्नो अत्यंत विनाश थाय ; केमके जेजे संतान डे, तेते दीपकना संताननी पेठे अत्यंत नाश पामे
बे, अने तेवी रीते आ ले, तेथी ते अत्यंत नाश पामे डे; वली ते . नवेनो जे विनाश तेज मोद , पण सर्व कर्मोना क्यना लक्षणवालो
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ययोरपहतिरस्ति । शरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्टशत इत्यादयोऽपि वेदान्तास्तादृशी मेत्र मुक्तिमादिशन्ति । अत्र हि प्रियाप्रिये सुखःखे ते चाशरीरं मुक्तं न स्टशतः । ४१ । अपि च ॥ = ॥ यावदात्मगुणाः सर्वे । नोच्छिन्ना वासनादयः ॥ तावदात्यन्तिकी डःख - व्यावृत्तिर्न विकल्प्यते ॥ ४२ ॥ ॥ धर्माधर्मनिमित्तो हि । संभवः सुखःखयोः मूलभूतौ च तावेव । स्तनौ संसारसद्मनः ॥ ४३ ॥ =॥ तउच्छेदे च तत्कार्य - शरीराद्यनुपप्लवात् ॥ नात्मनः सुखः खे स्त-इत्यसौ मुक्त उच्यते ॥ ४४ ॥ ॥ = इच्छादेषप्रयत्नादि । जोगायतनमन्वनम् ॥ नच्छिन्ननोगायतनो । नात्मा तैरपि युज्यते ॥ ४५ ॥ = ॥ तदेवं धिषणादीनां । नवानामपि मूलतः ॥ गुणानामात्मनो ध्वंसः । सोऽपवर्गः प्रतिष्ठितः ॥ ४६ || || = ननु तस्यामवस्थायां । कीदृगात्माऽव
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मोह नथी. । ४० । “ शरीरवालाने सुखः खनो नाश नथी; अने शरीर विनानाने सुखःख स्पर्श करतां नथी " इत्यादि वेदांतो पण तेवीज मुक्ति कहे बे; केमके या संसारमां तो सुखःख रहेलां बे, पण ते
शरीरीमुक्तने स्पर्श करतां नथी । ४१ । वली ज्यांसुधि इच्छादिक सर्वात्मगुणो नाश पाम्या नथी, त्यांसुधि दुःखनो अत्यंत अभाव मनाय नही. । ४२ । धर्माधर्मना निमित्तवालो सुखःखनो संभव बे, अने ते बन्ने संसाररूपी घरना मूलपाया जेवा े. । ४३ । वली ते बन्ने नष्ट वा तेना कार्यरूप शरीरनो उपश्व न रहेवाथी आत्माने सुखदुःख रहेतां नथी, अने तेथी ते मुक्त कहेवाय बे. । ४४ । वल्ली इच्छा, द्वेष तथा प्रयत्नादिक, शरीरनां बंधनरूप छे, माटे शरीरनो नाश यवाथी तेजनी साधे पण आत्मा जोमातो नथी । ४५ । एवी रीते आत्मानावुदयादिक नवे गुणोनो, जे मूलयी नाश, तेने मोक्ष कह्यो बे. । ४६ । हवे ते अवस्थामां आत्मा केवो रहे बे ? तोके सर्व गुणोथी
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ច១ शिष्यते ॥ स्वरूपैकप्रतिष्ठानः । परित्यक्तोऽखिनेर्गुणैः ॥ ४ ॥ ॥ ऊर्मिषट्कातिगं रूपं । तदस्याहुर्मनीषिणः ॥ संसारबन्धनाधीन-पुःखकेशाद्यदूषितम् ॥ ७ ॥ = (कामक्रोधलोनगर्वदम्नहर्षाः ऊर्मिषट्कमिति । ए । तदेतदन्युपगमत्रयमित्थं समर्थयद्भिरत्वदीयैस्त्वदाझाबहिनूतैः कणादमतानुगामिनिः सुसूत्रमासूत्रितं । सम्यगागमः प्रपञ्चितः । ५० । अथवा सुसूत्रमिति क्रियाविशेषणं । शोननं सूत्रं वस्तुव्यवस्थाघटनाविज्ञानं यत्रैवमासूत्रितं तत्तच्छास्त्रार्थोपनिवन्धः कृत इति हृदयं । ५१ । “ सूत्रं तु सूचनाकारि । ग्रन्थे तन्तुव्यवस्थयोः" इत्यनेकार्यवचनात् । ५५ । अत्र सुसूत्रमिति विपरीतलदाणयोपहासगर्न प्रशंसावचनं । यथा (उपकृतं बदु तत्र किमुच्यते । सुजनता प्रथिता नवता चिरं) इत्यादि। नपहसनीयता च युक्तिरिक्तदात्तदङ्गीकरणं । तथा
मुक्त थश्ने फक्त निजस्वरूपवालो रहे . । १७ । आथी करीने गए ऊर्मिनने नबंधी गयेद्धं; अने संसारबंधनने आधीन एवा उःख अने क्लेशादिकथी दूषित नही थयेg, एवं तेनुं स्वरूप बुझिवानो कहे जे. । । (काम, क्रोध, लोन, गर्व, दंन अने हर्ष ए उ ऊर्मिन जाणवी.)। भए । एवी रीते हे प्रनु ! (क्वचित् सत्तावाला, आत्माथी निन्नज्ञानवाला अने ज्ञान तथा सुखविनानी मुक्तिवाला) एवा त्रणे स्वीकारने नपर कह्यामुजब स्थापन करता, एवा आपनी आझाने नही माननारानए अहो! बहु सारुं सूत्र गुंथी कहाड्यु डे !! । ५० अथवा 'सुसूत्र' ए शब्दने क्रियाना विशेषण तरिके गणवू; एटले पदार्थोनी व्यवस्थानी रचनानुं विज्ञान जेमां सारं ! एवी ते ते शास्त्रार्थनी रचना करी ने !! एवो नावार्थ जाणवो. । ५१। “सूचना करनारो एवो 'सूत्र' शब्द ग्रंथ, तंतु अने व्यवस्थाना अर्थमां वपराय ने, एम अनेकार्थकोषमां कडं ." । ५ । (अहो ! भाइ ! शुं वात करवी !
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हि । ५३ । अविशेषेण सद्बुझिवेद्येष्वपि सर्वपदार्थेषु इच्यादिप्वेव त्रिघुसत्तासंबन्धः स्वीक्रियते । न सामान्यादित्रये इति महतीयं पश्यतोहरता । ५५ । यतः परित्नाव्यतां सत्ताशब्दस्य शब्दार्थः । अस्तीति सन् । सतो नावः सत्ता अस्तित्वं । तहस्तुस्वरूपं निर्विशेषमशेषेवपि पदार्थेषु त्वयाप्युक्तं । तत्किमिदमईजरतीयं यद्रव्यादित्रय एव सत्तायोगो नेतरत्र त्रये इति । ५५ । अनुवृत्तिप्रत्ययाऽनावान्नसामान्यादित्रये सत्तायोग इतिचेत् । न । तत्राप्यनुवृत्तिप्रत्ययस्यानिवार्यत्वात् । पृथिवी
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तें तो बहु नपकार कर्यो ! अने सज्जनपणुं पण तें बहु विस्तायुं !!) इत्यादिक वाक्यनी पेठे अहीं 'नतुं सूत्र रच्यु !' ए वाक्य पण विपरीत लदणे करीने हांसीगनित प्रशंसावाद्यं ले ; अने ते हांसी, तेना युक्तिरहित स्वीकारथी ले; ते कहे . । ५३ । कंश पण तफावतविना सत्तानी (उतापणानी ) बुझियी जणाय तेवा सर्व पदार्थो डे; उतां पण इव्यादिक त्रणमांज सत्ता स्वीकारवी, अने सामान्यादिक त्रणमां न स्वीकारवी, ए तो (तारी ) देखीती मोटी चोरी जे ! । ५५ । केमके सत्ता शब्दनो शब्दार्थ तो विचार ? जे, जे, ते 'सत्' अने सत्नो नाव, ते 'सत्ता' एटले होवापणुं ; अने तेवू वस्तुनुं स्वरूप तो तें पण ज्यारे सर्व पदार्थोमां कयुं जे; त्यारे वती, व्यादिक त्रएणमांज सत्तासंयोग ने, अने बीजा त्रणमां नथी, एवं अधखोखरूं शामाटे बोले ? । ५५। अनुवृत्तिनी प्रतीति नही थवाथी सामान्यादिक त्रणमां सत्तामयोग नथी; एम जो तुं कहीश, तो ते युक्त नथी; केमके तेनमां पण अनुवृत्तिनी प्रतीति निवाराय तेम नथी; अर्थात ; कारण के पृथ्वीपणं, बलदपएं, घटपणुं इत्यादिक सामान्योमां 'आ
१ स्त्री जरातुरा तारुण्यरमणीया च यथा मत्तेन प्रोच्यते तत्तुल्यं नवज्ञास्य॥
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त्वगोत्वघटत्वादिसामान्येपु सामान्यं सामान्य मिति निविषिष्वपि बहुत्वादयमपि विशेषोऽयमपि विशेष इति । ५७ । समवाये च प्रागुक्तयुक्त्या तत्तदवच्छेदकनेदादेकाकारप्रतीतेरनुलवात् । ५७ । स्वरूपत्वसाधर्म्यण सत्ताध्यारोपात्सामान्यादिष्वपि सत्सदित्यनुगम इति चेत्तर्हि मिथ्याप्रत्ययोऽयमापद्यते । एए । अथ निन्नवनाववेकानुगमो मिथ्य. वेतिचेद्रव्यादिष्वपि सत्ताध्यारोपकृत एवास्तु प्रत्ययानुगमः । ६० । अ-. सति मुख्येऽध्यारोपस्यासम्नवाव्यादिषु मुख्योऽयमनुगतः प्रत्ययः । सामान्यादिषु तु गौण इतिचेत् । न । विपर्ययस्यापि शक्यकल्पनत्वात् । ६१ । सामान्यादिषु बाधकसम्नवान्न मुख्योऽनुगतः प्रत्ययो ऽव्या
newwwwwwwww सामान्य-आ सामान्य' एवी अनुवृत्तिनी प्रतीति थाय . । ५६ । विशेषोमां पण घणापणुं होवाथी 'आ पण विशेष-आ पण विशेष' एवी ते प्रतीति थाय जे. । ५७ । समवायमां पण नपर कहेली युक्तिवके से ते जूदापणाना नेदथी एकाकारनी प्रतीतिनो अनुनव थाय जे. । ५ । स्वरूपपणाना साधर्म्य करीने सत्ताना आरोपथी सामान्यादिकोमां पण 'सत् सत्' एवी अनुवृत्ति आवे जे; एम जो कहीश, तो ते प्रतीतिन तात्विक न होवाथी खोटी पझे ; केमके आरोपथी करेली प्रतीति जूठीज डे. । ५ए । वली जो तुं एम कहीश के जूदा स्वनावमा एकाकार मानवो, ते जूगेन डे, तो इत्यादिकोमां पण सत्ताना आरोपवालोन प्रतीतिनो बोध थान ? । ६० । मुख्य न होते ते सताना आरोपनो असंभव होवाथी इत्यादिकोमां आ चाली प्रावती प्रतीति मुख्य डे, अने सामान्यादिकोमां तो गौण डे, एम जो कहेशो तो तेम नथी; केमके तेनाथी उलटी (एटले सामान्यादिक त्रणेमां मुख्य सत्ता, अने इच्यादिक त्रणेमां गौणसत्ता डे ) एवी कल्पना पण अश् शके ले. । ६१ । सामान्यादिकोमा बाध आवतो होवाथी अनुवृ
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दिषु तु तदभावान्मुख्य इतिचेन्ननु किमिदं बाधकं । ६२ । सामान्येऽपि सत्ताच्युपगमेऽनवस्था । विशेषेषु पुनः सामान्यसद्भावे स्वरूपहानिः । समवायेऽपि सत्ताकल्पने तद्वृत्त्यर्थं सम्बन्धान्तराभाव इति बाधकानीतिचेन्न । ६३ । सामान्येऽपि सत्ताकल्पने यद्यनवस्था तर्हि कथं न सा व्यादिषु । तेषामपि स्वरूपसत्तायाः प्रागेव विद्यमानत्वात् । ६४ । विशेषेषु पुनः सत्तान्युपगमेऽपि न रूपहानिः । स्वरूपस्य प्रत्युतोत्तेजनात् । निःसामान्यस्य विशेषस्य क्वचिदप्यनुपलम्भात् । ६५ । समवायेऽपि समवायत्वलक्षणायाः स्वरूपसत्तायाः स्वीकारे उपपद्यत एवा विष्वग्नावात्मकः सम्बन्धोऽन्यथा तस्य स्वरूपाऽनावप्रसङ्गः । ६६ । इति बाधकाभावात्तेष्वपि पव्यादिवन्मुख्य एव सत्तासम्बन्धः । इति
तिनी मुख्य प्रतीति यती नथी, अन्ये इव्यादिकोमां तो बाध न आववाथी मुख्य प्रतीति थाय बे, एम जो कहीश तो ते शुं बाघ बे ? । ६२ । जो सामान्यमां पण सत्ता मानी यें तो अनवस्था थाय बे ; तथा विशेषोमां पण सत्ता मानवाथी विशेषना स्वरूपनी हानि थाय बे ;
समवायम पण सत्ता कल्पवाथी तेली ने जोमवामाटे बीजो समवाय नथी; एवी रीतना बाधो वे बे, एम जो तुं कहीश, तो ते युक्त नयी । ६३ । केमके सामान्यमां सत्ता मानवाथी ज्यारे नवस्था आवे छे, त्यारे इव्यादिकोमां ते केम नथी आवती ? केमके तेजुने पण स्वरूपसत्ता तो प्रथमथीज हती. । ६४ । वली विशेषोमां तो सत्ता मानवाथी पण तेजना स्वरूपनी हानि यती नथी, पण नलदं ते स्वरूपने उत्तेजन मले बे; केमके सामान्य विनाना विशेषनी क्यांयें पण प्राप्ति यती नथी । ६५ । समवायमां पण समवायपणाना लक्षणंवाली स्वरूपसत्ता मानवाथी अभिन्नस्वरूपवाल संबंध थायज बे, अने जो तेम न थाय तो तेना स्वरूपने नावनो प्रसंग यशे । ६६ । एवी रीतें
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व्यर्थं इव्यगुणकर्मस्वेव सत्ताकल्पनं । ६७ । किंच तैर्वादिनिय 5ज्यादित्रये मुख्यः सत्तासम्बन्धः कक्षीकृतः सोऽपि विचार्यमाणो विशीयेत । तथा हि । ६ । यदि पव्यादिन्योऽत्यन्त विलक्षणा सत्ता तदा द्रव्यादीन्यसद्रूपाण्येव स्युः । ६५ । सत्तायोगात्सत्वमस्त्येवे तिचेदसतां सत्तायोगेऽपि कुतः सत्त्वं । सतां तु निष्फलः सत्तायोगः | १० | स्त्वरूपसच्चं नावानामस्त्येवेतिचेत्तर्हि किं शिख मिता सत्तायोगेन । ७१ । सत्तायोगात्प्राग् जावो न सन् नाप्यसन् । सत्तायोगात्तु सन्नितिचेछाङ्मात्रमेतत् । सदसद्दिलक्षणस्य प्रकारान्तरस्यासम्भवात् । ७२ । तस्मारसतामपि स्यात्कचिदेव सत्तेति तेषां वचनं विदुषां परिषदि कथमिव
बाधो नही आववाथी ते सामान्यादिक त्रणेमां पण इव्यादिकोनीपेठे सत्तासंबंध मुख्यज बे; अने तेथी इव्य, गुणाने कर्ममांज सत्तानी जे कल्पना करवी, ते व्यर्थ बे. । ६७ । वली ते वादिनए इव्या दिक
मां सत्तासंबंधने जे मुख्यतरिके गएयो बे, ते पण विचार करतां की शकतो नथी; ते कहे बे. । ६० । ज्यारे पव्यादिकोश्री, सत्ता त्र्यंत जूदी बे, त्यारे ते पव्यादिको तो बताज थशे. । ६५ । कदाच एम कहीशके सत्ताना योगथी तेज ने बतापणुं बेज, तो बताजुने सत्ताना यागश्री पण बतापणुं क्यांथी यशे ? अने बतानने तो सत्तानो योगज फोकटनो बे. 190 । वली कदाच एम कहीश के पदार्थो ने तो स्वभावथीज बतापणुं बे, तो पछी तेनने सत्ताना योगव
टोप करवानी शी जरुर बे ? । ७१ । सत्ताना योग पहेलां पदार्थ तो पण होतो ने अबतो पण नहोतो, अने सत्ताना योगथी ते तो थयो, एम जो कहीश तो ते कहेतुं तो फक्त वचनमात्र बे ; केमके ‘बतो अने अबतो' ए बे शिवाय त्रीजो प्रकारज नथी । ७२ । माटे एवी रीते 'पदार्थोमाना केटलाकमांज सत्ता बे' एवं ते वैशेषि
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नोपहासाय जायते । ७३ । ज्ञानमपि यद्येकान्तेनात्मनः सकाशादिन्न : मिप्यते तदा तेन चैत्रज्ञानेन मैत्रस्येव नैव विषयपरिच्छेदः स्यादात्मनः । ७४ । अथ यत्रैवात्मनि समवायसम्बन्धेन समवेतं ज्ञानं तत्रैव नावावनासं करोतीति चेन्न । समवायस्यैकत्वान्नित्यत्वाद्व्यापकत्वाच्च सर्वत्र वृत्तेर विशेषात्समवायवदात्मनामपि व्यापकत्वादेकज्ञानेन सर्वेषां विषयावबोधप्रसङ्गः । ७५ । यथा च घटे रूपादयः समवायसंबन्धेन समवेतास्तहिनाशे च तदाश्रयस्य घटस्थापि विनाशः । एवं ज्ञानमप्यात्मनि समवेतं । तच्च कणिकं । ततस्तहिनाशे आत्मनोऽपि विनाशापत्तेरनित्यत्वापत्तिः । ७६ | अथास्तु समवायेन झानात्मनोः सम्बन्धः । किंतु स एव समवायः केन तयोः संबध्यते । समवायान्तरेण चेदनवस्था। खे
mernama कोनुं वचन विधानोनी सन्नामां केम हांसी ने पात्र न थाय ? । ३३ । हवे झानने पण जो आत्माथी एकांत निन्न मानीयें, तो चैत्रना झानवझे जेम मैत्रने, तेम तेवके आत्माने पदार्थोनुं ज्ञान थाय नही. । । । जे आत्मामां समवायसंबंधवमे झान जोमायुं , तेज आत्मामां ते पदायोनो प्रकाश करे ; एम जो कहीश, तो ते अयुक्त ने ; केमके समवायने एकपएं, नित्यपणुं अने व्यापकपणुं होवाथी ते सर्व जगोए तफावतविना वर्ते , तेथी समवायनी पेठे आत्माने पण व्यापकपणुं आववाथी एकना ज्ञानवमे सर्वना विषयज्ञाननो प्रसंग थशे. । ७५। जेम घमामां रूपादिको समवायसंबंधवके जोमाया , अने तेननो विनाश थवाथी तेन्ना आश्रयरूप घमानो पण विनाश थाय बे, तेम ज्ञान पण आत्मामां जोमायुं डे, अने वनी ते कणिक डे, तेथी तेना विनाशसाथे आत्माने पण विनाशनी प्राप्तिथी अनित्यपणानी प्राप्ति यशे. । ७६। कदाच समवायवमे नले ज्ञान अने आत्मानो संबंध थान ? पण ते समवायन तेन्मां कोनावमे जोमाय ? जो कहीश के
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नैव चेकि न ज्ञानात्मनोरपि तथा । 99 | अथ यथा प्रदीपः स्वस्वानान्यादात्मानं परं च प्रकाशयति तथा समवायस्येदृगेव स्वनाशे यदात्मानं ज्ञानात्मानौ च सम्बन्धयतीतिचेत् । ज्ञानात्मनोरपि किं न तथास्वनावता ? येन स्वयमेवैतौ संबध्यते । ७ । किंच प्रदीपदृष्टान्तोऽपि जवत्पदे न जाघटीति । यतः प्रदीपस्तावद्द्रव्यं प्रकाशश्च तस्य धर्मों । धर्मधर्मिणोश्च त्वयात्यन्तं नेदोऽभ्युपगम्यते । तत्कथं प्रदीपस्य प्रकाशात्मकता । तदद्भावे च स्वपरप्रकाशकस्वभावतान णितिर्निर्मूलैव । १९ । यदि च प्रदीपात्प्रकाशस्यात्यन्तभेदेऽपि प्रदीपस्य स्वपरप्रकाशकत्व मिप्यते । तदा घटादीनामपि तदनुषज्यते । भेदाविशेषात् । ८० । अपिच तौ स्वपरसम्बन्धखनावौ समवायाद्विनौ स्यातामभिन्नौ वा । ८१ । यदि निन्नौ
;
बीजा समवायवमे, तो अनवस्था थशे अने जो कहीश के पोतावमेज, तो तेवीरीते ज्ञानप्रात्मानो स्वयमेवज संबंध केम न थाय ? । 99 | जेम दीपक पोताना स्वभावथी, पोताने ने परने प्रकाशे बे, तेम समवायनो पण तेवोज स्वभाव बे, के जेथी ते पोताने, मने ज्ञानप्रात्माने पण जोमी पे बे; एम जो कहीश तो, ज्ञानयात्माने तेवा स्वभावपणुं केम
थी ? के जेवमेतेन पोतानी मेलेज जोमाइ जाय । ७८ । वली दी1. पकनुं दृष्टांत पण तारा पक्षमां घटतुं नयी ; केमके दीपक तो इव्य बे, अने प्रकाश तो तेनो धर्म बे, नेतुं तो धर्मधर्मिवच्चे अत्यंत जूदाइ माने बे ; तो पी दीपकने प्रकाशपणुं क्यांथी होय ? अने ते न होवायी तेनुं स्वपरप्रकाशस्वनावपणुं जे कहेवुं, ते पाया विनानुंज बे. | ७ | वली दीपकश्री प्रकाशनी प्रत्यंत जूदाइ होवा बतां पण ज्यारे तेनुं स्वपरप्रकाशकपणुं मानीयें, त्यारे तो घमायादिकोने पण ते (प्रकाशक धर्म ) प्राप्त याय ; केमके जूदाइ तो तुल्य बे. । ८० । वली ते बन्ने स्वपरसंबंधना स्वभावो समवायथी भिन्न बे ? के अभिन्न बे ? । १ ।
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ततस्तस्यैतौ वनावाविति कथं सम्बन्धः। सम्बन्धनिबन्धनस्य समवायान्तरस्यानवस्थानयादनन्युपगमात् । ७२ । अथाऽनिन्नौ ततः समवायमात्रमेव । न तौ। तदव्यतिरिक्तत्वात्तत्वरूपवदिति । ७३ । किंच यथा शह समवायिषु समवाय इति मतिः समवायंविनाप्युपपन्ना। तथा श्हात्मनि ज्ञानमित्ययमपि प्रत्ययस्तं विनैव चेउच्यते तदा को दोषः । ०४ | अथात्मा कर्ता । ज्ञानं करणं । कर्तृकरणयोश्च वईकिवासीवद्भेद एव प्रतीतस्तत्कथं ज्ञानात्मनोरनेद इतिचेन्न । दृष्टान्तस्य वैषम्यात् । ५। वासी हि बाह्यं करणं । ज्ञानं चान्यन्तरं । तत्कथमनयोः साधर्म्य । नचैवं करणस्य हैविध्यमप्रसिई । यदादु दणिकाः । =|करणं हिविधं झेयं । बाह्यमान्यन्तरं बुधैः ॥ यथा बुनाति दात्रेण । मेरुं गच्छति
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जो निन्न होय तो 'आ तेना खन्नावो' एवो संबंध केम थाय ? केमके संबंधना कारणरूप बीना समवायने तो अनवस्थाना जयथी खीकार्यों नथी. । । हवे जो अनिन्न होय तो ते मात्र समवायन बे; पण स्वन्नावो नथी; केमके तेना स्वरूपनी पेठे तेन तेनाथी जूदा नथी. । ७३ । वत्नी 'आ समवायिनमा समवाय डे' एवी बुद्धि तो जेम समवायविना पण नत्पन्न यश, तेमन 'आ आत्मामां ज्ञान डे' एवी प्रतीतिने पण, ते समवायविनानीज जो कहीयें, तो शुं दूषण ? । ७४ । आत्मा कर्ता बे, अने ज्ञान करण डे; अने कर्ताकरणनो नेद सुतार अने वासलानी पेठे प्रसिझन डे; माटे ज्ञान अने आत्मानो अन्नेद केम होय ? एम जो कहीश तो ते युक्त नथी, केमके ते दृष्टांतने विषमपणुं , । "५ । कारणके वांसलो तो बाह्यकरण डे, अने झान अंतर- करण डे; माटे तेनुं सधर्मीपणुं क्याथी होय? पत्नी एवां बे प्रकारनां करणो कंश अप्रसिइ नर्थी, केमके वैयाकरणीउ कहे ने के, बाह्य अने अन्यंतर एम बे प्रकारचें करण विधानोए जाणवू;
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ए चेतसा । । ७६ । यदि हि किंचित्करणमान्तरमेकान्तेन निन्नमुप. दी ते ततः स्यादृष्टान्तदार्टान्तिकयोः साधर्म्य । न च तथाविधमस्ति । ७७ । न च बाह्यकरणगतो धर्मः सर्वोऽप्यान्तरे योजयितुं शक्यते । अन्यथा दीपेन चकुषा देवदत्तः पश्यतीत्यत्रापि दीपादिवच्चकुषोऽप्येकान्तेन देवदत्तस्य नेदः स्यात् । तथाच सति लोकप्रतीतिविरोध इति । ७ । अपिच साध्य विकलोऽपि वासीवईकिदृष्टान्तस्तथाहि । ए । नायं वईकिः काष्टमिदमनया वास्या घटयिष्य इत्येवं वासिग्रहणपरिणामेनाऽपरिणतः सन् तामग्रहीत्वा घटयति । किंतु तथा परिणतस्तां गृहीत्वा तथा परिणामेन वासिरपि तस्य काष्टस्य घटने व्याप्रियते । पुरुषोऽपि । ए। इत्येवंतवणैकार्थसाधकत्वाशसिवईक्यो.
नेमके 'दातरमांवमे कापे ने, अने मनवमे मेरुप्रते जाय . ' । ६ । वनी जो एकांतनिन्न एबुं कंज्ञक अंतरंग करण देखामवामां आवे तो दृष्टांत अने दार्टीतिकतुल्यपणुं थाय, अने तेम तो नथी. । ७ । वनी बाह्यकरणनो सर्व धर्म कंश अंतरंगकरणमा जोमी शकाय नही; अने जो एम न होय तो 'देवदत्त दीपकवमे आंखेकरीने जुए डे' ए वाक्यमां पण देवदत्तने दीपकादिकनी पेठे आंखनुं पण एकांते निन्नपणुं प्राप्त थाय ; अने तेम थवाथी तो लोकोनी प्रतीतिनो विरोध पाय. | 0 | वत्नी आ वासना अने सुतारनुं दृष्टांत लागु पण परतुं नधी; ते कहे . । नए । 'आ काष्टने ढुं आ वांसनावमे घमीश' एवीरीतना, वांसलो लेवाना परिणामवालो थयाविना, सुतार वांसलो लेतो नथी, अने घम्तो पण नथी; पण तेवो परिणाम थयो के तुरत ते वांसलो लेग्ने घमे , अने तेवा परिणामवमे वांसतो पण ते काष्ट धमवामां वपराय बे, अने सुतार पण वपराय . । ए० । एवीरीते शांसलो अने सुतार, तेवीरीतनां एकज कार्यने साधनारा होवाथी, तेल
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एवं
रभेदोऽप्युपपद्यते । तत्कथमनयोर्भेदएवेत्युच्यते । १ । एवमात्मापि विवचितमर्थमनेन ज्ञानेन कास्यामीति ज्ञानग्रहणपरिणामवान् ज्ञानं गृहीत्वार्थं व्यवस्यति । ततश्च ज्ञानात्मनोरुनयोरपि संवित्तिलक्षणैककार्यसाधकत्वादनेद एव । ७२ । एवं कर्तृकरणयोरभेदे सिरे संवित्तिलऋणं कार्यं किमात्मनि व्यवस्थितं याहोस्विविषये इति वाच्यं । ७३ । आत्मनि चेत् सिदं नः समीहितं । विषये चेत्कथमात्मनोऽनुद्भवः प्रतीयते । अथ विषयस्थितसंवित्तेः सकाशादात्मनोऽनुनवस्तर्हि किं न पुरुषान्तरस्यापि तद्वेदाविशेषात् । ९४ । अथ ज्ञानात्मनोरभेदपदे कथं कर्तृकरणनाव इति चेत् । ननु यथा सर्प आत्मानमात्मना वेष्टयतीत्यत्र
नेदे यथा कर्तृकरणभावस्तथात्रापि । ९५ । अथ परिकल्पितोऽयं कर्तृकरणनाव इति चेष्टनावस्थायां प्रागवस्था विलक्षणगति निरोधलक
वच्चे नेद पण प्राप्त थाय बे ; । ए१ । तेम आत्मा पण विवक्षित पदार्थ ने 'हुं ज्ञानवमे जाणीश' एवा, ज्ञानने लेवाना परिणामवालो थयो थको ज्ञानने लेश्ने पदार्थने जाणे ; तेथी ज्ञान ने आत्मा बन्नेने साथेज, जाणवारूप कार्यनुं साधकपणुं होवाथी, तेन वच्चे - दज बे. । ९२ । एवीरी ते कर्ताकरणनो द सिन् होते बते जाणवारूपकार्य, शुं प्रात्मामा रह्युं बे ? के पदार्थना विषयमा रह्युं बे ? ते बोलवु . । ९३ । जो आत्मामां होय तो तो मारुं इच्छित सि
युं ; ने जो विषयमां होय तो आत्माने अनुभव केम थाय ? वली जो विषयमा रहेला जाणपणाथी आत्माने अनुभव थतो होय, तो बीजा पुरुषने केम न थाय ? केमके ते नेदमां कई फेरफार नथी । ए४ । वली कदाच एम कहीश के ज्ञानयात्माना अदपक्षमां कर्ताकरणमो नाव कम होय ? तो सर्प ' पोताने पोतावमे ' वींटे बे, ए वाक्यमां, अभेदमां पण जेम कर्ताकरणनो नाव बे, तेम यहीं पण जावो. । ९५ ।
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ए पार्थक्रियादर्शनात्कथं परिकल्पितत्वं । न हि परिकल्पनाशतैरपि शैलस्तम्न आत्मानमात्मना वेष्टयतीति वक्तुं शक्यं । तस्मादनेदेऽपि कर्तृकरणनावः सिइ एव । ए६ । किंच चैतन्य मितिशब्दस्य चिन्त्यतामन्वर्थः । चेतनस्य नावश्चैतन्यं । चैतनश्चात्मा त्वयापि कीर्त्यते । तस्य नावः स्वरूपं चैतन्यं । यच्च यस्य स्वरूपं न तत्ततो निन्नं नवितुमर्हति । यथा वृदावृदस्वरूपं । ए७ । अथास्ति चेतन आत्मा । परं चेतनासमवायसम्बन्धानवतस्तथाप्रती तेरितिचेत् तदयुक्तं । यतः प्रती तिचत्प्रमाणी क्रियते तर्हि निर्बाधमुपयोगात्मक एवात्मा प्रसिश्यति । न हि जातुचित्वमचेतनोऽहं । चेतनायोगाच्चेतनः । अचेतने वा मयि चेतनायाः समवाय इति प्रतीतिरस्ति । ज्ञाताह मिति समानाधिकर
marrrrrrआ कर्ताकरणनो नाव तो कल्पित ने, एम जो कहीश, तो वीटावानी अवस्थामां, प्रथमनी अवस्थाश्री जूदीज, एवी गतिनिरोधरूप अर्थक्रिया देखाय , माटे कल्पित केम कहेवाय ? केमके सेंकमोगमे कल्पनानव पण पत्थरनो स्तंन पोताने पोतावमे वींटे डे, एम कही शकाशे नही ; तेथी अन्नेदमां पण कर्ताकरणनो नाव योग्यज जे. ए६। वन्नी चैतन्यशब्दनो अर्थ तो विचार ? चेतननो नाव ते चैतन्य ; अने चेतन आत्मा तो तुं पण माने , अने चैतन्य ते आत्मानुं स्वरूप ने; वनी वृदयी नेम वृदनुं स्वरूप, तेम जे जेनुं स्वरूप होय, ते तेनाथी निन्न होतुं नथी. । ए७ । आत्मा चेतन डे, पण चेतनाना समवायसंबंधथी , पण पोतानी मेले नथी ; केमके तेवी प्रतीति थाय ने; एम जो कहीश, तो ते अयुक्त जे; केमके जो प्रतीतिने सस्य गणीयें तो बाधविनाज आत्मा उपयोगवालो सिइ थाय ने, केमके 'हुं पोते अचेतन बुं, चेतनाना योगथी चेतन बुं, अथवा अचेतन एवा ढुंमां चेतनानो समवाय (संबंध) डे' एवी प्रतीति कदापि पण थती नथी ; के
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--- ए णतया प्रतीतेः । एज । नेदे तथाप्रतीतिरितिचेन्न । कथंचित्तादात्म्याऽनावे सामानाधिकरण्यप्रती तेरदर्शनात् । एए । यष्टिः पुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु नेदे सत्युपचारादृष्टा । न पुनस्तात्विकी । उपचारस्य तु बीजं पुरुषस्य यष्टिगतस्तब्धत्वादिगुणैरनेदः । उपचारस्य मुख्यार्थस्पर्शित्वात् । १० । तथा चात्मनि झाताहमितिप्रतीतिः कथंचिच्चेतनात्मतां गमयति । तामन्तरेण झाताह मितिप्रतीतेरनुपपद्यमानत्वाद घटादिवत् । न हि घटादिरचेतनात्मको झाताह मितिप्रत्येति । १०१ । चैतन्ययोगाऽनावादसौ न तथा प्रत्येतीतिचेन्न । अंचेतनस्यापि चैतन्ययोगाच्चेतनोऽहमिति प्रतिपत्तेरनन्तरमेव निरस्तत्वादित्यचेतनत्वं सि~
~~~ ~~~~ ~~icroresमके 'हुँ जाणनार बुं' एवी तो तुल्य योगवमे प्रतीति थाय . । ए। नेदमां तवी प्रतीति , एम जो कहीश तो ते युक्त नथी ; केमके तदात्मपणानो थोमो पण नाव न होते ते तुल्य योगवाली प्रतीति देखाती नथी; । एए। कारणके 'लाकमी ते पुरुष डे' इत्यादि प्रतीति तो नेद होते बते उपचारथी देखाएली ने, पण खरेखरी नथी; अहीं लाकमीमां रहेला स्तब्धपणादिक गुणोवमे पुरुषनो जे अनेद बे ते उपचारनुं मूल ने, केमके नपचार, मुख्य अर्थने फक्त स्पर्शन करे . । १० । वली 'हुँ जाणनार टुं' एवी प्रतीति आत्मामां कंश्क
चैतन्यपणुं नणावे डे, केमके तेविना 'हुं जाणनार बुं' एवी प्रतीति घटादिकनी पेठे थती नथी ; कारणके अचेतन एवा घटादिक, 'हुं जाएनार बुं' एवी प्रतीति करी शकता नथी; । १०१। चैतन्ययोगना अन्नावथी ते घटादिक तेवी प्रतीति करी शकता नथी, एम जो कहीश तो ते युक्त नथी; केमके अचेतनने पण, 'चैतन्यनना योगथ) हुं चेतन. बुं' एवी रीतना स्वीकारनुं तो नपरज खमन कर्यु ले; तेटलामाटे जम एवा आत्माने अचेतनपणुं सिह थयु, अने ते अचेतनपj. पदार्थना
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ए इमात्मनो जमस्यार्थपरिच्छेदं पराकरोति । तं पुनरिच्छता चैतन्यस्वरूपताऽस्य खीकरणीया । १०२ । ननु शानवानह मितिप्रत्ययादात्महानयोर्नेदः । अन्यथा धनवानितिप्रत्ययादपि धनधनवतोर्नेदानावानुषङ्गात् । तदसत् । १०३ । यतो ज्ञानवानह मिति नात्मा नवन्मते प्रत्येति जमत्वैकान्तरूपत्वाद् घटवत् । १० । सर्वथा जमश्च स्यादात्मा झानवानह मितिप्रत्ययश्च स्यादस्य विरोधाऽनावादिति मानिऎषीस्तस्य तथोत्पत्यसम्नवात् । ज्ञानवानह मिति हि प्रत्ययो नाऽगृहीते झानाख्ये विशेषणे विशेष्ये चात्मनि नातूत्पद्यते स्वमत विरोधात् “ नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" इति वचनात् । १०५ । गृहीतयोस्तयोरुत्पद्यत ~~ ~~
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w wwwws जाणपणाने दूर करे जे; अने आत्माने पदार्थोनुं जाणपणुं थाय ने, एम तो तारे मानवू ले ; अने तेम मानती वेलाए तारे पाईं आत्मानुं चैतन्यस्वरूप स्वीकार पमशे. । १० । 'हुँ ज्ञानवाला ढुं'.एवी प्रतीतिथी आत्मा अने ज्ञानवच्चे निनपणुं जे; केमके जो एम न होय तो 'धनवालो बुं' एवी प्रतीतिथी पण धन अने धनवान्वच्चे अनिन्नपणुं थशे; एम जो कहीश तो ते असत्य ; । १०३ । केमके तारा मतमां, आत्माने घमानी पेठे एकांत जम मानेलो होवाथी 'हुं झानवालो बुं' एवी तेने प्रतीति थती नथी. । १० । आत्मा सर्वथा जम होय ! अने विरोध न होवाथी 'हुं ज्ञानवालो बुं' एवी मने प्रतीति पण थाय! एवो निर्णय पण तुं न करजे ? केमके आत्माने तेवी नत्पत्ति संभवतीज नथी ; कारणके ज्ञान नामर्नु विशेषण अने आत्मा नामनुं विशेष्य ग्रहण कर्याविना 'हुं ज्ञानवालो बुं' एवी प्रतीति, तारा पोताना मतमा विरोध आववाथी कदापि पण थती नथी ; केमके 'विशेषण ग्रहण कर्याविनानी विशेष्यमां बुद्धि थती नथी' एवं शास्त्रनुं वचन . I. १०५ । ते बन्नेने विशेषण विशेष्यतरिके ग्रहण करते ते
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----- ०० इतिचेत्कुतस्तद्गृहीतिः । न तावत्वतः । स्वसंवेदनाऽनन्युपगमात् । स्वसंविदिते ह्यात्मनि झाने च स्वतः सा युज्यते । नान्यथा सन्तानान्तरवत् । १०६ । परतश्चेत्तदपि झानान्तरं विशेष्यं नागृही ते हानत्व विशेपणे ग्रहीतुं शक्यं । गृहीते हि घटत्वे घटग्रहणमिति झानान्तरात्तत्गृहणेनन्नाव्यमित्यनवस्थानात्कुतः प्रकृतप्रत्ययः । १०७ । तदेवं नात्मनो जमस्वरूपता संगच्छते । तदसङ्गतौ च चैतन्यमोपाधिकमात्मनोऽन्यदितिवाङ्मात्रं । १०७ । तथा यदपि न संविदानन्दमयी च मुक्तिरिति व्यवस्थापनायानुमानमवादि सन्तानत्वादिति तत्रानिधीयते । १०ए । ननु किमिदं सन्तानत्वं स्वतन्त्रमपरापरपदार्थोत्पत्तिमात्रं वा एकाश्रया परा
ते प्रतीति थाय ने, एम जो कहीश, तो केवीरीते ते ग्रहण थाय ? पोतानी मेले तो नही, केमके स्वसंवेदनने ते स्वीकार्य नथी ; अने पोतानी मेले तो ते प्रतीति, स्वसंविदित एवा आत्मामां अने झानमां घटे ने ; पण बीना संताननी पेठे जूदी रीते घटती नथी. । १०६ । परथी ते ग्रहण थाय बे, एम जो कहीश तोपण झानपणारूप विशेषणने ग्रहण कर्याविना, बीजा ज्ञानरूप विशेष्यने ग्रहण करी शकाशे नहीं; केमके घटपणुं ग्रहण करते बते जेम घटनुं ग्रहण थाय डे, तेम बीना झानश्री तेनुं ग्रहण करवू पमशे, अने एवी रीते अनवस्था थवाथी, 'हुँ छानवालो बुं' एवी प्रतीति क्याथी थशे ? । १०७ । मोटे एवी रीते
आत्माने जमरूपपणुं घटतुं नथी, अने ते न घटते बते, 'चैतन्य नपाधिवा, अने आत्माथी जूउंज डे' ए वाक्य फक्त कहेवारूप ले. । १०७ । वनी 'झान अने सुखवाली मुक्ति नथी' एवं स्थापवामाटे 'संतानपणथी' ए, जे अनुमान तें कर्तुं तेमाटे हवे अमो कहीयें बीये. । १०ए । ते संतानपणुं स्वतंत्ररीते बीजाबीजा पदार्थोनी नत्पतिरूप डे ? के एक पदार्थना आश्रयवाली परअपरन। उत्पत्तिरूप
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१०१ परोत्पत्तिर्वा । तत्राद्यः पक्षः सव्यभिचारः । परापरेषामुत्पाङकानां घटपटकटादीनां सन्तानत्वेऽप्यत्यन्तमनुच्छिद्यमानत्वात् । ११० । अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि तादृशं सन्तानत्वं प्रदीपे नास्तीति साध्यविकलो दृष्टान्तः । ११२ । परमाणुपाकजरूपादिनिश्च व्यभिचारी हेतुस्तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावेऽप्यत्यन्तोच्छेदाऽभावात् । ११२ । अपि च सन्तानत्वमपि नविष्यति । प्रत्यन्तानुच्छेदश्च भविष्यति । विपर्यये बा - धकप्रमाणानावादिति संदिग्ध विपक्षव्यावृत्तिकत्वादप्यनैकान्तिकोऽयं | ११३ । किं च स्याद्वादवादिनां नास्ति क्वचिदत्यन्तमुच्छेदो पव्यरूपतया स्थानामेव सतां भावानामुत्पादव्यययुक्तत्वादिति विरुश्चेति नाधिकृतानुमानाद्रुच्चादिगुणेोडेदरूपा सिद्धिः सिध्यति । ११४ । नापि
बे? तेमां पेहेलो पक्ष तो दूषणवाल बे, केमके बीजाबीजा उत्पन्न यता एवा मा, वस्त्र तथा सादरीयादिकोने संतानपणुं होते बते पण तेननो अत्यंत नच्छेद यतो नथी । ११० । हवे जो बीजो पक्ष लेइश तो तेवुं संतानपणुं दीपकमां नथी, तेथी तारुं दृष्टांत साध्यते वटमान न थयुं. | १११ | वली परमाणुना पाकथी उत्पन्न थयेलां रुपादिकोव हेतु पण दूषणवालो बे; केमके तेवी रीतनुं संतानपणुं त्यां होते ते पण, तेनो अत्यंत उच्छेद यतो नयी । ११२ । वल्ली संतानपणुं पण थशे अने अत्यंत अनुच्छेद पण यशे, केमके उलटापणामां बाधकप्रमाणनो अज्ञाव बे; एवी रीते संदेहवाला विपदश्री जूदो पमता बतां पण या हेतु अनेकांतिक े । ११३ । वली स्याहादवादीde कोsपण पदार्थमां अत्यंत उच्छेद मानेलो नथी; केमके पव्यरूप . (हमेशां ) स्थिर रहेला बताज पदार्थों ने नृत्पत्तिविनाशपणुं तेनए स्वीकार्य बे ; माटे तारो हेतु विरुड़ पण बे; अने तेथी, ते अनुमानथी बुद्धि आदिक गुणोना नाशरूप मुक्ति घटती नथी । ११४ । वल्ली' शरी
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१०२ " न हि वै सशरीरस्य " इत्यादेरागमात् । स हि शुभाशुभादृष्टपरिपा कजन्ये सांसारिक प्रियाप्रिये परस्परानुषक्ते प्रपेदय व्यवस्थितः । मुक्तिदशायां तु सकलादृष्टदय हेतुकमैकान्तिकमात्यन्तिकं च केवलं प्रियमेव । तत्कथं प्रतिषिध्यते । ११५ । आगमस्य चायमर्थः । सशरीरस्य गतिचतुष्टयान्यतमस्थानवर्तिन यात्मनः प्रियाप्रिययोः परस्परानुषक्तयोः सुखडःखयोरपहतिरभावो नास्तीति । प्रवश्यं हि तत्र सुखडः खाभ्यां नाव्यं (परस्परानुषक्तत्वं च समासकरणादन्यूह्यते) । ११६ । शरीरं मुक्तात्मानं ( वा शब्दस्यैवकारार्थत्वात् ) शरीरमेव वसन्तं सिदिक्षेत्रमध्यासीनं प्रियाप्रिये परस्परानुषक्ते सुखः खे न स्ष्टशतः । ११७ । इदमत्र हृदयं । यथा किन संसारिणः सुखदुःखे परस्परानुषक्ते स्यातां । न तथा मुक्तात्मनः । किंतु केवलं सुखमेव । डःखमूलस्य शरीरस्यैवाऽभावात् । सुखं
वालाने सुखः खनो नाश नथी' इत्यादिक ( तमारां) यागमप्रमाएथी पण मुक्ति घटती नथी ; केमके ते त्र्यागम तो शुभाशुभ कर्मोंना विपाकी उत्पन्न थतां ने परस्पर जोमाएलां, एवां संसारिक सुखडःखने'त्र्अपेक्क्षी ने कहेनारुं बे, ने मोहदशामां तो सर्व कर्मोंना कयना
तुवालुं एकांत ने अत्यंत एवं मात्र सुखज बे, माटे तेनो प्रतिषेध केम कराय ? | ११५ । ते ( तमारां) आगमनो अर्थ तो नीचे प्रमाणे बे. शरीरवाला एटले चारे गतिमानी अमुक गतिमां रहेला यात्माने सुखःखनो नाश नथी; केमके त्यां तो सुखःख प्रवश्य होयज बे. ( अहीं ' प्रियाप्रिय' ए शब्दनो समास करवाथी तेजनुं परस्पर जोमाण कह्युं छे. ) । ११६ | (अहीं 'वा' शब्दनो अर्थ एवकाररूपे बे.) तेथी शरीररहितज एवा सिमिक्षेत्रमा रहेला मुक्तात्माने, परस्पर जोमाएलां सुखःख स्पर्श करतां नथी । ११७ । अहीं भावार्थ ए बेके, जेम संसारी ने परस्पर जोमाएलां सुखदुःख होय बे, तेम मुक्तात्माने
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वात्मत्वरूपत्वादवस्थितमेव । स्वस्वरूपावस्थानं हि मोदः । अत एवचाऽशरीर मित्युक्तं । आगमार्थश्चायमित्थमेव समर्थनीयः । यत एतदCनुपातिन्येव स्मृतिरपि दृश्यते । ११ । =|| सुखमात्यन्तिकं यत्र । बुग्रिाह्यमतीशियम् ॥ तं वै मोदं विजानीयाद्-उष्प्रापमकृतात्मन्निः॥ । ११ए । न चायं सुखशब्दो उःखाऽनावमात्रे वर्तते । मुख्यसुखवाच्यतायां बाधकाऽनावात् । अयं रोगादिप्रमुक्तः सुखी जात इत्यादिबाक्येषु च सुखीतिप्रयोगस्य प्रौनरुक्त्यप्रसङ्गाच्च उखानावमात्रस्य रोगाप्रियुक्त श्तीयतैवगतत्वात् । १५० । न च नवदीरितो मोदः पुंसामुपादेयतया संमतः । को हि नाम शिलाकल्पमपगतसकलसुखसंवे
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होतां नथी, पण केवन सुखज होय , केमके उःखनुं मूलरूप ए, शरीरज तेने होतुं नथी; अने सुख तो आत्मानुं स्वरूप होवाथी रहेझुंज डे; तथा आत्मस्वरूपमा रहेवू तेज मोद ने ; अने तेथीज 'अशरीरी' एम कर्दा डे. माटे ( तमारां) आगमनो अर्थ उपर कह्याप्रमाणे बे, अने ते तेवीजरीते घटाववो ; केमके (तमारी) स्मृति पण ते अर्थने अनुसरनारीज देखाय . । ११ । (तेमां कडं जे के) ज्यां
आत्यंतिक, बुद्धिथी जणाय तेवं, अने इंडिजने अगोचर, एबुं सुख होय, तेने मोद जाणवो, के जे पापीनने उर्जन डे. । ११ए । वली आ सुखशब्द कंश फक्त उःखना अनावमांज वर्ततो नथी, केमके तेने मुख्य सुखरूपे गणवामां कंश हरकत नथी, तेमज 'आ प्राणी रोगथी मूकायो अने सुखी थयो' श्यादिवाक्योमा 'सुखी' ए प्रयोगने पुनरुक्ति. पणानो प्रसंग आवे जे, अने रोगथी मूकायो' एटन कहेवाथी उखना
अन्नावमात्रनो समावेश यश् जाय जे.।१२० । वत्नी तमोए कहेलो मोद, लोकोने ग्रहण करवालायक मनायेलो नथी; केमके सर्व सुखोना नोगवयविनानो पत्थरसरखो पोताने उपजाववानो कोण प्रयत्न करे ?
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१०४ दनमात्मानमुपपादयितुं यतेत । ११ । अत एव त्वउपहासः श्रूयते । =|| वरं वृद्भावने रम्ये । क्रोष्टुत्वमनिवाचितम् ॥ न तु वैशेषिकी मुक्तिं । गौतमो गन्तुमिच्छति ॥= । १२२ । सोपाधिकसावधिकपरिमितानन्दनिप्यन्दात्स्वर्गादप्यधिकं तपिरीतानन्दमम्लानझानं च मोहमाचदते विचदणाः । १५३ । यदि तु जमः पाषाण निर्विशेष एव तस्यामवस्थायामात्मा नवेत्तदनमपवर्गेण । संसार एव वरमस्तु । यत्र तावदन्तरान्तरापि उःखकलुषितमपि कियदपि सुखमनुन्नुज्यते । चिन्त्यतां तावत्किमल्पसुखानुनवो नव्य नत सर्वसुखोच्छेद एव । १५५ । अथास्ति तथान्नूते मोदे लानातिरेकः प्रेदाददाणां । ते ह्येवं विवेचयन्ति । संसारे तावद् उःखास्टष्टं सुखं न सम्भवति । उःखं चावश्यहेयं । विवेकहानं चानयोरेकभाजनपतितविषमधुनोरिव उःशक्यमत एव हे अपि त्यज्यते । अतश्च
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। १२१ । वत्नी आधीज तारी हांसी संनलाय के, मनोहर वृंदावनमां शीयालपणुं इच्छवू सारूं , पण वैशेषिकोए मानेली मुक्तिमा जवाने गौतम इच्छतो नथी. । १२ । वनी विचदाणो तो उपाधिवाला, अवधिवाला, तथा परिमित सुखवाला स्वर्गथी पण, विपरीत सुखवाला अने निर्मलज्ञानवाला मोदने अधिक कहे . । १५३ । वती जो ते मोदावस्थामां पाषाणजेवोज जम आत्मा यतो होय, तो तो ते करतां संसारज सारो डे, के जेमां वच्चे वच्चे पण ऽःखथी मिश्रित थयेचं पण केटळक तो सुख अनुन्नवी शकाय जे. वली एटद्धं तो विचार ? के अल्प सुख नोगवq सारूं, के सर्व सुखोनो नाशज सारो? । १२४ । (हवे अहीं वादी कहे जे के, अमोए मानेला) तेवी रीतना मोदमां बुझिवानो ने विशेष लान डे; केमके ते बुझिवानो एवी रीते विवेचन करे ने के, संसारमां तो उःखविनानुं सुख संभवतुं नथी, तथा उःख तो अवश्य तजवू जोश्ए, अने एक नाजनमा रहेला फेर
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१०५ संसारान्मोदः श्रेयान् । यतोऽत्र उःखं सर्वथा न स्यारमियती कादाचित्कसुखमात्रापि त्यक्ता । न तु तस्याः कृते उखन्नार श्यान व्यूढ इति । १२५। तदेतत्सत्यं । सांसारिकसुखस्य मधुदिग्धधाराकरालमएमलाग्रग्रासवद्धःखरूपत्वादेव युक्तैव मुमुदणां तन्जिहासा । कित्वात्यन्तिकसुखविशेषनिप्सूनामेव । ये अपि विषमधुनी एकत्र सम्प्टक्ते त्यज्यते ते अपि सुख विशेषलिप्सयैव । १२६ । किञ्च यथा प्राणिनां संसारावस्थायां सुख मिष्टं । उखं चा निष्टं । तथा मोदावस्थायां उःख निवृत्तिरिष्टा । मुख निवृत्तिस्त्वनिष्टैव । ततो यदि त्वदनिमतो मोदः स्यात्तदा न प्रेदावतां प्रवृत्तिः स्यात् । नवति चेयम् । ततः सिशे मोदः सुखसंवेदनस्वन्नावः । प्रेदावत्प्रवृत्तेरन्यथानुपपत्तेः । १२७ । अथ यदि सुखसंवेद
rrrrrrrrror अने मधनो जेम, तेम ते बन्नेनो विवेकपूर्वक त्याग तो उःशक्य ने, माटे ते बन्ने तनाय डे; अने तेथी संसारथी मोद सारो छे, केमके त्यां उःख बिलकुल होय नही, माटे आ कोश् कोश् समये मलता अल्प सुखने पण तजवू, ए सारुं , पण तेना माटे आटलो बधो उखनो बोजो नपामवो ए सारूं नथी. । १२५ । (हवे ते ने आचार्यजी कहे डे के) तारुं ते कहेवू सत्य डे; केमके संसारिक सुखने मधथी लेपाएली धारवाला नयंकर खन्ना अग्रनागना नदणनी पेठे उःखरूपपणुं होवाथीन मुमुकुन ने तेना त्यागनी इच्छा व्याजबीज ; पण ते, आत्यंतिक सुखविशेषना श्च्डकोनेज ; केमके, साथै मलेला फेर अने मधने पण जे तनाय ने, ते पण विशेषसुखनी इच्छाथीज तजाय . । १२६ । वली प्राणीनने संसारअवस्थामां जेम सुख प्रिय डे, अने उःख अप्रिय , तेम मोदअवस्थामां उःखनो नाश प्रिय बे, अने सुखनो नाश अप्रियन डे; तेथी जो तें मानेलो मोद होय, तो तेमां बुझिवानानी प्रवृति न थाय ; अने ते तो थाय ने, माटे सुखसंवेदनरूप मोद सिह
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नैकखन्नावो मोदः स्यात्तदा तशगेण प्रवर्त्तमानो मुमुकुर्न मोदमधिगच्छेत् । नहि रागिणां मोदोऽस्ति । रागस्य बन्धनात्मकत्वात् । नैवं । सांसारिकमुखमेव रागो बन्धनात्मको विषयादिप्रवृत्तिहेतुत्वात् । मोदसुखें तु रागस्तन्निवृत्तिहेतुत्वान्न बन्धनात्मकः । परां कोटिमारूढस्य न स्टहामात्ररूपोऽप्यसौ निवर्तते “ मोदे नवे च सर्वत्र निःस्टहो मुनिसत्तमः" इति वचनात् । १२ । अन्यथा नवत्पदेऽपि उःखनिवृ. त्यात्मकमोदाङ्गीकृतौ उःखविषयकषायकानुप्यं केन निषिध्ये तेति सिई कनकर्मदयात्परमसुखसंवेदनात्मको मोदो न बुझ्यादिविशेषगुणोच्छेदरूप इति । १२ए। अपिच नोस्तपस्विन् कथंचिउच्छेदोऽस्माकमप्यनिमत एवैषामिति मा विरूपं मनः कृयास्तथाहि । बुझिशब्देन झानमु
थयो, केमके बुझिवानोनी प्रवृत्ति बीजी रीते थती नथी. । १२७ । जो फक्त सुख वेदवारूपज मोद होय, तो तेना रागवमे प्रवर्ततो मुमुकु मोदे जाय नही, केमके राग बंधनरूप होवाथी रागीनने मोद होय नही, एम जो कहे, तो तेम नथी; कारणके संसारिक सुखनोज राग, विषयादिकोनी प्रवृत्तिनो हेतु होवाथी बंधनरूप ने ; पण मोदसुखनो राग तो तेउनी निवृत्तिनो हेतु होवाथी बंधनरूप नथी; वत्नी वंच हदे चमेलानो तो इच्छामात्ररूप राग पण चाल्यो जाय , केमके मोदमां अने संसारमा सर्व जगोए उत्तम मुनि तो निस्टही होय बे, एवं शास्त्रनुं वचन . । १२७ । अने जो एम न होय तो तारा मतमां पण उखनी निवृत्तिरूप मोदना स्वीकारमां, उःखसंबंधि कषायनी कनुषता कोण निषेधी शके तेम डे ? आथी सिइ थयुं के, सर्व कर्मोना दययी परममुख नोगववारूप मोद बे, बुद्धि आदिक गुणोना नुच्छेदरूप मोद नथी. । १२ए । वली हे तपस्वी ! तारे मनमां कचवावु नही, केमके बुझि आदिकोनो कथंचित् उच्छेद तो अमोए पण नीचे मुजब
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१०७ ध्यते । तच्च मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलन्नेदात्पञ्चधा । तत्राद्यं ज्ञानचतुष्टयं दायोपशमिकत्वात्केवलज्ञानावि वकाल एव प्रलीनं “ नईमिनु गनुमच्चिए नाणे" इत्यागमात्केवलं तु सर्वव्यपर्यायगतं वायिकत्वेन निष्कलङ्कात्मस्वरूपत्वादस्त्येव मोदावस्थायां । सुखं तु वैषयिकं तत्र नास्ति । तदेतोइँदनीयकर्मणोऽनावात् । यत्तु निरतिशयमदयमनपेदमनन्तं च सुखं तद्बाढं विद्यते । उःखस्य चाधर्ममूलत्वात्तउच्छेदा:च्छेदः । १३० । नन्वेवं सुखस्यापि धर्ममूलत्वाधर्मस्य चोच्छेदात्तदपि न युज्यते " पुण्यपापदयो मोदः” इत्यागमवचनात् । नैवं । वैषयिकसुखस्यैव धर्ममूलत्वान्नवतु तउच्छेदो । न पुनरनपेदस्यापि सुखस्योच्छेदः । १३१। श्च्चाहेषयोः पुनर्मोहन्नेदत्वात्तस्य च समूलकाषंकषितत्वादन्नावः
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मान्यो डे. बुझिशब्दवमे शान कहेवाय डे, अने ते मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय अने केवल, एम पांच प्रकारचं जे; तेमां पहेलां चार ज्ञान दायोपशमिक होवाथी केवलज्ञान प्रगट थती वेलाएज नष्ट थाय जे ; केमके 'उद्मस्थ झान नाश पामते उते' एम आगमनुं वचन जे; अने सर्व व्यपर्यायना विषयवाद्धं केवलज्ञान तो दायिकपणावमे निमन आत्मस्वरूप होवाथी मोदावस्थामा रहेज ले ; वनी विषयसंबंधि सुख तो त्यां नथी, केमके तेना हेतुनूत वेदनीयकर्मनो अन्नाव डे, अने जे निरतिशय, अदय, अपेदाविनानु, अने अनंतुं सुख जे, ते तो त्यां घणुं जे ; तथा उःख तो पापमूल होवाथी, तेना नच्छेदथी तेनो पण उच्छेद थयो . । १३० । 'पुण्यपापना क्यथी मोद डे' एवं आगमनुं वचन होवाथी, सुखने पण धर्ममूलपणुं होवाथी, धर्मना नच्छेदथी ते पण घटतुं नथी ; एम जो कहेशो, तो तेम नथी ; केमके वैषयिक सुखनेज धर्ममूलपणुं होवाथी, तेनो नले नुच्छेद थान ? पण अपेदा विनाना सुखनो पण उच्छेद थतो नथी. । १३१ । इच्छा अने ष
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।१३। प्रयत्नश्च क्रियाव्यापारगोचरो नास्त्येव कृतकृत्यत्वाधीर्यान्तरायकयोपनतस्त्वस्त्येव प्रयत्नो दानादिलब्धिवत् । न च कचिउपयुज्यते कतार्थत्वात् । १३३ । धर्माधर्मयोस्तु पुण्यपापापरपर्याययोरुच्छेदोऽस्त्येव । तदन्नावे मोदस्यैवायोगात् । १३३ । संस्कारश्च मतिझान विशेष एव । तस्य च मोहदयानन्तरमेव वीणत्वादनाव इति । तदेवं न संविदानन्दमयी च मुक्तिरि ति युक्तिरिक्तेयमुक्तिरितिकाव्यार्थः ।
।१३५ । अथ ते वादिनः कायप्रमाणत्वमात्मनः स्वयंसंवेद्यमानमप्यपत्नप्य तादृशकुशास्त्रशस्त्रसंपर्क विनष्टदृष्टयस्तस्य विनुत्वं मन्यन्तेऽतस्तत्रोपानम्नमाह ।
यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र
कुम्लादिवनिष्पतिपदमेतत् ।
य
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तो मोहना प्रकार होवाथी, अने ते मोह तो मूलमाथी गयेलो होवाथी, तेन्नो अन्नाव ले. । १३ । वत्ती कृतार्थ होवाथी क्रियाव्यापाररूप प्रयत्न तो नथीज, पण दानादिक लब्धिनी पेठे वीर्यांतरायना क्यथी थयेलो प्रयत्न तो लेज, पण कृतार्थ होवाथी तेनो कई उपयोग थतो नथी. । १३३ । वली पुण्यपाप ने बीजं नाम जेनुन, एवा धर्माऽधर्मनो नुच्छेद तो डेन, केमके ते विना मोदज थतो नथी. । १३४ । तेम संस्कार तो मतिझानरूपज बे, अने तेनो तो मोहना दय पठी तुरतन दय थवाथी अन्नाव ; माटे एवी रीते 'झानानंदवानी मुक्ति नथी' ए वचन युक्तिविनानुं जे. एवी रीते आठमा काव्यनो अर्थ संपूर्ण थयो.
। १३५। हवे ते वैशेषिको आत्माना खानुन्नवसिझ, एवा पण कायप्रमाणपणाने निषेधिने, तेवी रीतना कुशास्त्रोरूपी शस्त्रना संयोगथी अंध थया थका व्यापक माने , तेमाटे त्यां हवे नपालंन कहे ठे.
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तथापि देहाद्वहिरात्मतत्वमतवादोपहताः पठन्ति ॥ ए ॥
ए तो नक्कीज बे के, जे नागमां जे पदार्थ देखाएला गुणोवालो बेते त्यांज बे; तो पण कुत्सित तत्वना वादयी व्यामोहित थयेला (वैशेषिको) आत्मत्वरूपने शरीरथी बहार कहे बे ॥ ए ॥
| १ | यत्रैव देशे यः पदार्थो दृष्टगुणो दृष्टाः प्रत्यक्षादिप्रमाणतोऽनुजुता गुणा धर्म्मा यस्य स तथा स पदार्थस्तत्रैव विवदितदेश एवोपपद्यते क्रियाध्याहारो गम्यः ( पूर्वस्यैवकारस्यावधारणार्थस्यात्राप्यत्रिसम्बन्धात्तत्रैव ) नान्यत्रेत्यन्ययोगव्यवच्छेदः । २ । अमुमेवार्थं दृष्टान्तेन इढयति । कुम्नादिवदिति घटादिवत् यथा कुम्नादेर्यत्रैव देशे रूपादयो गुणा उपलभ्यन्ते तत्रैव तस्यास्तित्वं प्रतीयते नान्यत्र । एवमात्मनोऽपि गुणाश्चैतन्यादयो देह एव दृश्यन्ते । न बहिस्तस्मात्तत्प्रमाणएवायमिति । ३ । यद्यपि पुष्पादीनामवस्थानदेशादन्यत्रापि गन्धादिगुण उपलभ्यते तथापि तेन न व्यभिचारस्तदाश्रया हि गन्धादि -
;
| १ | जे देशमां जे पदार्थना धर्मो प्रत्यक्षादिक प्रमाणथी अनुनवेला बे, ते पदार्थ तेज देशमां प्राप्त थाय बे, पण बीजी जगोए नही, एवी रीते अन्ययोगनो व्यवच्छेद बे. ( अहीं क्रियापदनो - ध्याहार जाणवो, तथा पूर्वनाज अवधारण अर्यवाला एवकारनो अहीं पण संबंध बे.) । २ । हवे तेज अर्थने दृष्टांतथी दृढ करे ले के, जेम कुंनादिकना रूपादिक गुणो जे देशमां मलेवे, त्यांज तेजनुं बताएं जाय बे, पण बीजे नही; तेम चैतन्यादिक आत्माना गुणणे पण शरीरमांज देखाय बे, पण बहार नहीं; माटे ते शरीरजेवमोज़ आत्मा . । ३ । जोके पुष्पादिकोनो, तेजना स्थानना देशथी बीजी जगोए
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पुजलास्तेषां च वैख्यसिक्या प्रायोगिक्या वा गत्या गतिमत्त्वेन तउपनम्नकमाणादिदेशं यावदागमनोपपत्तेरिति । ४ । अत एवाह निष्प्रतिपदमेतदिति एतनिष्प्रतिपदं बाधकरहितं “ न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नामेति न्यायात् " । ५। ननु मन्त्रादीनां निन्नदेशस्थानामप्याकर्षणोच्चाटनादिको गुणो योजनशतादेः परतोऽपि दृश्यत इत्यस्ति बाधकमिति चेन्मैवं वोचः । स हि न खन्नु मन्त्रादीनां गुणः । किंतु तदधिष्टातृदेवतानां । तासां चाकर्षणीयोच्चाटनीयादिदेशगमने कौतस्कुतोऽयमुपानम्नः । न जातु गुण गुणिनमतिरिच्य वर्तन्त इति । ६ । अथोत्तराई व्याख्यायते । तथापीत्यादि । तथाप्येवं निःसपत्नं व्यवस्थितेऽपि तत्त्वे अतत्ववादोपहता अनाचार इत्यत्रेव नञः कुत्सार्थत्वात्कुत्सिततत्ववादेन तद.
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पण गंधादिकगुण मले डे, तोपण तेथी व्यनिचार पावतो नथी, केमके गंधादिकना पुगलो ते पुष्पोने आश्रीने रहेला , अने ते पुनलोने स्वानाविक अथवा प्रेरकगतिवमे गतिवानपणुं होवाथी, तेना नपलंनक एवा नाशिकादिकप्रदेशोप्रते आववानी प्राप्ति . । । । अने पाथीज कहे जे के, ते वात बाधक विनानी , केमके 'जोएवं अप्राप्त नथी' एवो न्याय . । ५। निन्न देशमा रहेला एवा पण मंत्रादिकोनो आकर्षण उच्चाटनादिक गुण सेंकमो जोजनथी दूर पण देखाय , माटे ते वात बाधावाली बे, एवी जो शंका करीश, तो एम तारे बोनवू नही, केमके ते कंश मंत्रादिकोनो गुण नथी, पण तेन्ना अधिष्टायकदेवोनो ; अने आकर्षणवाला तथा नच्चाटनवाला देशोमा ते देवोना गमनमाटे आ तारो नपानंन शानो लागु पमशे !! वनी गुणो गुणीने तजीने कदापि पण रहेता नथी. । ६ । हवे उत्तरार्नु विवेचन कराय डे. एवी रीते शरीरप्रमाण आत्मा बाधारहित होवा उतां पण, कुत्सित तत्वना वादे करीने (अनाचारमा नेम, तेम अहीं
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निमताप्तानासपुरुषविशेषप्रणीतेन तत्वान्नासप्ररूपणेनोपहता व्यामो. हिता देहाबहिः शरीरव्यतिरिक्तेऽपि देशे आत्मतत्वमात्मरूपं पठन्ति । शास्त्ररूपतया प्रणयन्त इत्यदरार्थः । नावार्थस्त्वयम् । ७ । आत्मा सर्वगतो न भवति सर्वत्र तद् गुणानुपलब्धः। योयः सर्वत्रानुपलन्यमानगुणः स स सर्वगतो न भवति । यथा घटस्तथा चायं तस्मात्तथा । व्यतिरेके व्योमादिः । ७ । न चायमसिशे हेतुः । कायव्यतिरिक्तदेशे तद् गुणानां बुझ्चादीनां वादिना प्रतिवादिना वाऽनन्युपगमात् । तथा च नहः श्रीधरः “ सर्वगतत्वेऽप्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वं । नान्यत्र । शरीरस्योपन्नोगायतनत्वात् अन्यथा तस्य वैयर्थ्यादिति” । ए। अथास्त्यदृष्टमात्मनो विशेषगुणस्तच्च सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तं सर्वव्यापकं
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अकार कुत्सार्थवाचक डे ) एटले पोते मानेला प्राप्तानासरूप पुरुष विशेषे रचेला जूग तत्वना प्ररूपणवमे व्यामोहित थयेला वैशेषिको, शरीर विनाना पण देशमा आत्मस्वरूपने कहे जे, एटले सिशंतरूपे माने ले ; एवो अदरार्थ जाणवो. नावार्थ तो नीचे प्रमाणे . । । । आत्मा सर्वव्यापी नथी, केमके सर्व जगोए तेना गुणो मनता नथी; जे जे सर्व जगोए अप्राप्यगुणी होय, ते ते सर्वव्यापक न होय, जेम घमो तेम आ, अने तेथी तेम. तेथी उलटुं आकाशादिक. । । वनी आ हेतु कंई असिझ नथी; केमके वादी अने प्रतिवादि बन्नेए ते आत्माना बुझिआदिक गुणोने शरीरथी निन्न प्रदेशमा स्वीकार्या नथी. श्रीधरन पण कहे जे के, आत्माने सर्वव्यापकपणुं होवा उतां पण शरीरप्रदेशमा शातापणुं , पण बीजी जगोए नथी; केमके नपन्नोगनुं स्थानकपणुं शरीरने ले. अने जो तेम न होय तो शरीर निरर्थक थाय. । । । (अहीं वादीनी शंका )-आत्मानो नाग्य नामनो गुण जे, अने ते सर्व उत्पत्तिवाला पदार्थोनुं निमित्त डे, तथा
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- ११२ च। कथ मितरथा दीपान्तरादिष्वपि प्रतिनियतदेशवतिपुरुषोपजोग्या नि कनकरत्नचन्दनाङ्गनादीनि तेनोत्पाद्यन्ते । गुणश्च गुणिनं विहाय न वर्ततेऽतोऽनुमीयते सर्वगत आत्मेति । १० । नैवम् । दृष्टस्य सर्वगतसाधने प्रमाणाभावात् । ११ । यास्त्येव प्रमाणं वन्हेरूर्द्धज्वनं वायोस्तिर्य पवनं चादृष्टकारितमिति चेन्न । तयोस्तत्स्वभावत्वादेव तत्सिदेर्दहनस्य दहनशक्तिवत् । १२ । साप्यदृष्टकारिता चेत्तर्हि जचित्र सूत्रणेऽपि तदेव सूत्रधारयतां । किमीश्वरकल्पनया । तन्नायमसिनो हेतुः । १३ । न चानैकान्तिकः साध्यसाधनयोर्व्याप्तिग्रहणेन व्यभिचाराऽभावात् । नापि विरुशेऽत्यन्तं विपक्षव्यावृत्तत्वात् | १४ | आत्मगुणा बुचादयः शरीर एवोपलभ्यन्ते । ततो गुणि
सर्वव्यापक बे; जो तेम न होय तो दिपांतरादिकामां पण, अमुक देशमां रहेता पुरुषोंने उपयोगनां सुवर्ण, रत्न, चंदन तथा स्त्री आदिकोने, ते नाग्य शामाटे नृत्पन्न करे बे ? अने गुणीने तजीने गुण तो रहे तो नथी, यी अनुमान थाय बे के, आत्मा सर्वव्यापक बे. | १० | ( हवेवादीनी शंकानो उत्तर पे बे के ) – एम नही, केमके भाग्यनुं सर्वव्यापकपणुं साधवामां प्रमाणनो प्रभाव बे. । ११ ! प्रमाण तो बे, केमके अग्निनुं ऊर्ध्वं ज्वलन, ने वायुनं तीव्रं वावुं, ए नाग्यनुं करेलुं बे, एम जो कहीश तो ते युक्त नथी; केमके मिनी दहन - शक्तिनी पेठे तेजना ते स्वनावपणाथीज तेनी सिद्धि थाय छे । १२ । ते सिद्धि पण नाग्यनी करेली छे, एम जो कहीश तो त्रणे जगत्नी विचित्रता र वामां पण नाग्यज रचनार था ? ईश्वरनी कल्पनानी शी जरुर बे ? माटे आ हेतु सि नथी । ११३ | वली या हेतु अनेकांतिक पण नथी, केमके साध्यसाधननी व्याप्तिना ग्रहणवमे तेमां व्यनिचार नथी. तेम या हेतु विरुड़ पण नथी, केमके विपक्षथी -
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नापि तत्रैव जाव्यमिति सिन्ध: कायप्रमाण आत्मा । १५ । अन्यच्च त्वया प्रात्मनां बहुत्वमिप्यते " नानात्मानो व्यवस्थातः " " इति वत-नातू । ते च व्यापकास्तेषां प्रदीपप्रजामएमलानामिव परस्परानुरोधेन तदाश्रितशुभाशुभकर्मणामपि परस्परं सङ्करः स्यात् । तथाचैकस्य शुभकर्मणा अन्यः सुखी नवेदितरस्याऽशुनकर्मणा अन्यो :खीत्यसमञ्जसमापद्येत । १६ । अन्यच्चैकस्यैवात्मनः स्वोपात्तशुभकर्म विपाकेन सुखित्वं परोपार्जिताशुभ कर्म विपाकसम्बन्धेन च डः खित्वमितियुगपत्सुखदुःखसंवेदनप्रसङ्गः | १७ | अथ स्वावष्टब्धजोगायतनमाश्रित्यैव शुभाशुनयोर्भोगस्तर्हि स्वोपार्जितमप्यदृष्टं कथं जोगायतनाद्वहिर्निष्क्रम्य
त्यंत व्यावृत्त थयेलो बे. । १४ । वली बुद्धादिक आत्माना गुणो शरीरमांज मले बे, माटे आत्मारूपी गुणी पण त्यांज होवो जोइए ; एव ते शरीरजेवको आत्मा सियो । १५ । वली तुं घणा प्रात्मा माने बे, केमके ‘जन्म मरणादिकना पृथकपणाथी विविध प्रात्मानं बे' एवं तारां शास्त्रनुं वचन बे; वली ते व्यापको बे, तेश्री दीपकना कांतिमंमलोनुं जेम तेम परस्पर एकट्ठा थइ जवाथी, तेजना शुभाशुन कर्मोनुं पण मिश्रण याय, अने तेम थवाश्री एकना शु
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कर्मवमे बीजो सुखी थाय ! ने बीजाना अशुभ कर्मव अन्य 5: खथाय ! एम गोटालो थइ जाय. । १६ । वल्ली एकज आत्माने, पोते उपार्जेला शुभ कर्मोंना विपाकवमे सुखीपणाने ने परे उपार्जेलां - शुभ कर्मोना विपाकव दुःखीपणाने एम साथेज सुखःख वेदवानो प्रसंग थशे. । १७ । वली जो एम कहींश के, पोते अवलंबन करेला शरीरने श्रीनेज शुभाशुभनुं वेदन थाय बे, त्यारे पोते उपार्जेलुं पण नाग्य जोगायतनथी बहार निकलीने अग्निनुं ऊर्ध्वज्वलनादिक केम १ जन्ममरणादेः पार्थवयात् ॥
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११५ वहरू ईज्वलनादिकं करोतीति चिन्त्यमेतत् । १७ । आत्मनां च सर्वगतत्वे एकैकस्य सृष्टिकर्तृत्वप्रसङ्गः । सर्वगतत्वेनेश्वरान्तरनुप्रवेशस्य सम्नावनीयत्नात् । ईश्वरस्य वा तदन्तरनुप्रवेशे तस्याप्यकर्तृत्वापत्तिः । न हि कीरनीरयोरन्योऽन्यसंबन्धे एकतरस्य पानादिक्रिया अन्यतरस्य न भवतीति युक्तं वक्तुं । किंचात्मनः सर्वगतत्वे नरनारकादिपर्यायाणां युगपदनुन्नवानुषङ्गः । १७ । अथ नोगायतनान्युपगमान्नायं दोष इति चे. ननु स नोगायतनं सर्वात्मना अवष्टम्नीयादेकदेशेन वा । सर्वात्मना चेदस्मदनिमताङ्गीकारः। एकदेशेन चेत्सावयवत्वप्रसङ्गः । परिपूर्णनोगान्नावश्च । २० । अथात्मनो व्यापकत्वाऽनावे दिग्देशान्तरवर्तिपरमाणुनिर्युगपत्संयोगाऽनावादाद्यकर्मा'ऽन्नावस्तदन्नावादन्त्यसंयोगस्य तन्निमित्तशरीरस्य । तेन तत्संबन्धस्य चान्नावादनुपायसिइः सर्वदा स
करे ? ए विचारवानेQ ! । १७ । वनी आत्माउना सर्वव्यापकपणामां एकेकने सृष्टिरचनारनो प्रसंग थशे, केमके सर्वव्यापकपणावमे ईश्वरनी अंदर प्रवेश थवानो संनव बे, अथवा ईश्वरनो तेलमा प्रवेश थवाथी, ते ईश्वरने अकर्तापणानी प्राप्ति थशे; केमके दूधपाणी एकठा थयाबाद, तेमानुं एक पीवाय, अने बीजुं न पीवाय, एम कहेवू युक्त नथी; वली आत्माना सर्वव्यापकपणामां नरनारकादिकगतिने साथेज नोगववानो प्रसंग थशे. । १५ । हवे जो एम कहीश के, शरीरना अंगीकारथी आ दोष नथी, तो ते आत्मा शरीरने सर्वथकी अवलंबे डे ? के एक देशथी अवलंबे ले ? जो कहीश के सर्वथी, तो अमारोज मत अंगीकार थयो; अने जो कहीश के एक देशथी, तो अवयविपणानो प्रसंग थशे, अने संपूर्ण नोगनो अन्नाव थशे. ।२०। आत्मानुं जो व्यापकपणुं न मानीयें, तो दिग्देशोमां रहेला परमाणु
१ गर्भक्रियाया अभावः ॥
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र्वेषां मोदः स्यात् । नैवं । यद्येन संयुक्तं तदेव तं प्रत्युपसर्पतीति नि. यमाऽसम्नवात् । अयस्कान्तं प्रत्ययसस्तेनासंयुक्तस्याप्याकर्षणोपत्नब्धेः । २१ । अथासंयुक्तस्याप्याकर्षणे तच्चरीरारम्नं प्रत्येकमुखीभूतानां त्रि. नुबनोदर विवरवर्तिपरमाणुनामुपसर्पणप्रसङ्गान्न जाने तच्चरीरं कियत्प्रमाएं स्यादितिचेत् । संयुक्तस्याप्याकर्षणे कथं स एव दोषो न नवे. दात्मनो व्यापकत्वेन सकलपरमाणूनां तेन संयोगात् । २२ । अथ तनावाविशेषेऽप्यढष्टवशाक्ष्विदितशरीरोत्पादनानुगुणा नियता एव परमाणव उपसर्पन्ति तदितरत्रापि तुल्यं । २३ । अथास्तु यथाकथंचिच्छरीरोत्पत्तिस्तथापि सावयवं शरीरं । प्रत्यवयवमनुप्रविशन्नात्मा साrrrrred उसाथे से ने एकी वेलाए संयोग न थवाथी (गर्न क्रियारूप) आद्यकर्मनो अन्नाव थशे, अने तेना अन्नावथी अंत्यसंयोगरूप (समाप्तिरूप ) ते निमित्तवाला शरीरनो, अने तेथी तेना संबंधनो अन्नाव थवाथी, सर्वनो वगर नपाये हमेशां मोद थशे, एम जो कहीश, तो तेम नथी ; केमके जे जेनीसाथे जोमायुं बे, तेज तेनी पासे जाय, एवो कंई नियम नथी; कारणके लोहचुंबकप्रते तेनाथी असंयुक्त (दर रहेला) लोखंमने पण आकर्षणनी प्राप्ति थाय . । २१। असंयुक्तने पण आकर्षण होते ते, ते शरीरना प्रारंनप्रते तैयार थर रहेला, एवा त्रिनुवननी अंदर रहेला परमाणुनने तेनी पासे घसमाश् आववाना प्रसंगथी, कोण जाणे ते शरीर केटर्बु मोटुं पर जाय ! एम जो कहीश तो संयुक्तना आकर्षणमां पण तेन दोष केम न आवे ? केमके आत्माने व्यापकपणुं होवाथी सर्व परमाणुननो तेनी साथे संयोग ले. । २२। हवे तेमां कं तफावत न होवा उतां पण नाग्यना वशथी ते शरीरने नत्पन्न करवालायक चोकसज परणुन तेनीपासे घसमा आवे , एम जो कहीश, तो बीजा पदमां पण तेमज जाणवू. । २३ । (हवे अहीं
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११६ वयवः स्यात् । तथा चास्य पटादिवत् कार्यत्वप्रसङ्गः । कार्यत्वे चासौ विजातीयैः सजातीयैर्वा कारणैरारन्येत । न तावहिजातीयैस्तेषामनारम्नकत्वान्न हि तन्तवो घटमारनन्ते । न च सजातीयैर्यत आत्मत्वानिसम्बन्धादेवैतेषां कारणानां सजातीयत्वं । पार्थिवादिपरमाणूनां विजातीयत्वात् । तथा चात्मनिरात्मा आरज्यत इत्यायातं । तच्चाऽयुक्तं । एकत्र शरीरेऽनेकात्मनामात्मारम्नकाणामसम्नवात् । संनवे वा प्रतिसन्धानाऽनुपपत्तिः । न ह्यन्येन दृष्टमन्यः प्रतिसन्धातुमर्हति । अतिप्रस ङ्गात् । तदारज्यत्वे चास्य घटवदवयव क्रियातो विनागात्संयोगविनाशा
ते वादी शंका करे ने के)-नले गमे ते रीते शरीरनी उत्पत्ति थान, तोपण शरीर तो अवयवोवालु डे, तेथी दरेक अवयवप्रते प्रवेश करतो आत्मा अवयववालो थाय; अने तेम थवाथी ते ने वस्त्रादिकनी पेठे कार्यपणानो प्रसंग थशे; अने कार्यपणुं होते ते ते विजातीय कारणोवमे प्रारंन्नाय ? के सजातीय कारणोवके प्रारंनाय ? विजातीयोवमे तो नही, केमके तेन ने अनारंनकपणुं ले; कारणके तंतु कं वमाने प्रारंजतां नथी; तेम सजातीयोवमे पण नही, केमके आत्मापणाना संबंधथीन ते कारणोने सजातीयपणुं , अने पार्थिवादिक परमाणुनने तो विजातीयपणुं ; तेथी डेवटे आत्मानवमे आत्मा प्रारंन्नाय, एम आवी ननु, अने ते तो अयुक्त ने ; केमके एकज शरीरमां, आत्मानो आरंन करनारा अनेक आत्माउनो असंभव ले ; कदाच तेवो संभव मानीयें तो स्मृतिनी अप्राप्ति ने, केमके अतिप्रसंगथी अन्ये जोएलं, अन्य स्मरण करी शके नही, अने तेथी आरज्यपणामां घटनीपेठे अवयव क्रियाना विनागथी संयोगविनाशथी विनाश थाय, माटे आत्मा व्यापकज घटी शके , केमके शरीरजेवमो मानवामां नपर कहेला दोषो आवे , (नपर वर्ण वेली वादीनी शंकानो हवे नत्तर
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११७ विनाशः स्यात् तस्माध्यापक एवात्मा युज्यते । कायप्रमाणतायामुक्तदोषसन्नावादिति चेन्न । सावयवत्वकार्यत्वयोः कथंचिदात्मन्यन्युपगमात् । २५ । तत्र सावयवत्वं तावदसंख्येयप्रदेशात्मकत्वात् तथाच इव्यालङ्कारकारौ' “आकाशोऽपि सदेशः सकृत्सर्वमूर्त्तानिसम्बधार्हत्वात् इति" । २५ । यद्यप्यवयवप्रदेशयोर्गन्धहस्त्यादिषु' नेदोऽस्ति । तथापि नात्र सूदमे दिका चिन्त्या । प्रदेशेप्वप्यवयवव्यवहारात्कार्यत्वं तु वदयामः । २६ । नन्वात्मनां कार्यत्वे घटादिवत्प्राक्प्रसिझसमानजातीयावयवारभ्यत्वप्रसक्तिः। अवयवा ह्यवयविनमारनन्ते । यथा तन्तवः पटमिति चेन्न वाच्यं । न खट्नु घटादावपि कार्ये प्राक्प्रसिइसमानजातीयकपालसंयोगात्मत्वं दृष्टं । कुम्नकारादिव्यापारान्वितान्मृत्पि
आपे के )-एम जो कहीश तो ते युक्त नथी; केमके आत्मामां कथंचित् सावयवपणुं अने कार्यपणुं अमोए स्वीकार्यु ले. । २३ । तेमां आत्माने असंख्यप्रदेशात्मकपणुं होवाथी सावयवपणुं ; तेमाटे ६व्यालंकारना कता (हेमचंजी अने गुणचंनी) कहे जे के 'आकाश पण एकवार सर्व पदार्थोना संबंधवालो होवाथी प्रदेशवालो ने.' । २५। वन्नी गंधहस्त्यादिक ग्रंथोमां जोके अवयव अने प्रदेशवच्चे नेद कह्यो , पण अहीं कंसू सूदमता जोवी नथी ; अने कार्यपणुं तो प्रदेशोमां पण अवयवना व्यवहारथी अमो कहीये डीये । २६ । आत्मानना कार्यपणामां घटादिकनी पेठे पूर्वोक्त समानजातिवाला अवयवोना आरन्यपणानो प्रसंग थशे, केमके तंतुन जेम पटने, तेम अवयवो अक्यविने प्रारंने जे; एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी ; केमके घटादिक कार्यमां पण पूर्वोक्त समानजातिवाला कपाल- संयोगात्मपणुं देखायुं नथी, केमके कुंनारादिकना व्यापारवाला मृत्पिमथी, पे
१ हेमचंद्रगुणचंद्रौ ॥ २ तन्नामग्रंथविशेषेषु ॥
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मात्प्रथममेव एथुबुनोदराद्याकारस्यास्योत्पत्तिप्रतीतेः । २७ । ऽव्यस्य हि पूर्वाकारपरित्यागेन उत्तराकारपरिणामः कार्यत्वं । तच्च बहिरिवान्तरप्यनुन्नूयत एव । ततश्चात्मापि स्यात्कार्यः । २७ । न च पटादौ स्वावयवसंयोगपूर्वककार्यत्वोपलं नात् सर्वत्र तथानावों युक्तः । काष्टे लोहल्लेख्यत्वोपत्ननाइजेऽपि तथानावप्रसङ्गात् । प्रमाणबाधनमुन्नयन तुल्यं । २ए । न चोक्तलदणकार्यत्वान्युपगमेऽप्यात्मनोऽनित्यत्वानुषङ्गात्प्रतिसन्धानाऽन्नावोऽनुषज्यते । कथंचिदनित्यत्वे सत्येवास्योपपद्यमानत्वात् । प्रतिसन्धानं हि यमहमद्रादं तमहं स्मरामीत्यादिरूपं । तच्चैकान्तनित्यत्वे कथमुपपद्यते । अवस्थानेदात् । अन्या ह्यनुन्नवावस्था अन्या च स्मरणावस्था । ३० । अवस्थानेदे चावस्थावतोऽपि नेदादेकरू
हेलांन पृथुबुध्नोदरादिक आकारनी उत्पत्तिनी प्रतीति थाय . श्व्यनो पूर्वाकारना त्यागपूर्वक उत्तराकारनो जे परिणाम, ते कार्यपणुं बे, अने ते बहारनी पेठे अंदर पण अनुन्नवायन डे, अने तेथी आत्मा पण कार्यरूप थाय. । २ । वत्ती वस्त्रादिकमां पोताना अवयवना संयोगपूर्वक कार्यपणानी प्राप्तिथी, सर्व जगोए तेमज मानवू युक्त नथी, केमके काष्टमां लोखंमथी लखी शकातुं होवाथी, वजमां पण तेनो प्रसंग थशे ; अने प्रमाणबाधकता बन्ने जगोए तुल्य जे. । २ए। वली पूर्वोक्तनदणवाला कार्यपणानी प्राप्तिमां पण, आत्माने अनित्यपणानी प्राप्तिथी स्मृतिनो कंश अन्नाव थतो नथी ; केमके ते तो कथंचित् अनित्यपणुं होते तेज थाय . वली स्मृति तो 'जेने में जोयो, तेनुं हुं स्मरण करुं बुं' इत्यादि स्वरूपवानी बे, अने अवस्थान्नेदथी, ते एकांतनित्यपणामां शीरीते थाय ? केमके अनुनवावस्था जूदी , अने स्मरणावस्था जूदी . । ३० । वत्नी अवस्थानेद होते उते अवस्थावान्नो पण नेद थवाथी, एक रूपपणानी दतिथी युक्तिथी आवेतां
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११॥ पत्वदतेः कथंचिदनित्यत्वं युक्त्यायातं केन वार्यतां । ३१ । अथात्मनः शरीरएरिमाणत्वे मूर्तत्वानुषङ्गाच्चरी रेऽनुप्रवेशो न स्यान्मुर्ते मूर्तस्यानुप्रवेशविरोधात्ततो निरात्मकमेवाखिलं शरीरं प्रामोतीति चेत्किमिदं मू. तत्वं नाम । असर्वगतव्यपरिमाणत्वं रूपादिमत्त्वं वा । ३२ । तत्र नाद्यः पदः । दोषाय संमतत्वात् । तिीयस्त्वयुक्तो व्याप्त्यनावात् । नहि यदसर्वगतं तन्नियमेन रूपादिमदित्यविनान्नावोऽस्ति । मनसोऽसर्वगतत्वे ऽपि नवन्मते तदसंनवात् । आकाशकाल दिगात्मनां 'सर्वगतत्वं 'परममहत्वं सर्वसंयोगिसमानदेशत्वं चेत्युक्तत्वान्मनसो वैधात्सर्वगतत्वे
immo कथंचित् अनित्यपणाने कोण निवारे तेम ले ? । ३१ । आत्माना शरीरपरिमाणपणामां तेनु मूर्तपणुं आववाथी, शरीरमां तेनो प्रवेश नही थाय, केमके मूर्तमां मूर्त प्रवेश करे नही, माटे समस्त शरीर आत्माविनानुं थइ जाय ; एम जो कहीश, तो ते मूर्तपणुं शुं ? असर्वव्यापक एवं व्यपरिमाणपणुं ? के रूपादिमतपणुं ? । ३२ । तेमां पेहेलो पद तो दूषणवालो होवाथी युक्त नथी; अने बीजो पण व्याप्तिना अन्नावथी अयुक्त डे, केमके जे सर्वव्यापक न होय, ते निश्चयें रूपादिवानुं होय एवो अविनान्नाव नथी; कारणके तारा मतमा मनने असर्वव्यापकपणुं उतां पण रूपादिकपणुं नथी; केमके आकाश, कान, दिशा अने आत्माने सर्वव्यापकपणुं, परममहत्पणुं, अने सर्व मूर्तिवंत व्योने एक आधारपणुं कहेढुंबे, अने मन तो तेन्थी विपरीत धर्मवालु होवाथी, तेना सर्वव्यापकपणानो प्रतिषेध करेलो ;
१ सर्वेः सह संयोगः । नतु सर्वत्र । तेषां निःक्रियत्वात् ॥ २ इयत्ताऽनवच्छिन्त्रपरिमाण. योगित्वं परममहत्त्वं ॥ ३ सर्वसंयोगिसमानदेशत्वं-सर्वेषांमूर्त्तद्रव्याणो आकाशे समानो देशः। एक आधार इत्यर्थः । एवं दिगादिष्वपि व्याख्येयं । यद्यपि आकाशादिकं सर्वसंयोगिनामाधारो न भवति । इह प्रत्यय विषयत्वेनावस्थानात् । तथापि सर्वसंयोगिसंयोगाधारभूतत्वादुपधारेण सर्वसंयोगिनामप्याधार उच्यते ॥
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प्रतिषेधनात् । यतो नात्मनः शरीरे त्र्यनुप्रवेशानुपपत्तिर्येन निरात्मकं तत्स्यात् । त्र्यसर्वगतश्व्यपरिमाणलक्षणमूर्तत्वस्य मनोवत्प्रवेशाऽप्रतिबन्धकत्वाद्रूपादिमवलक्षणमूर्त्तत्वोपेतस्यापि जलादेर्वानुकादावनुप्रवेशो न निषिध्यते । आत्मनस्तु तहितस्यापि तत्त्रासौ प्रतिषिध्यत इति महचित्रम् | ३३ | यथात्मनः कायप्रमाणत्वे बालशरीरपरिमाणस्य सतो युवशरीरपरिमाणस्वीकारः कथं स्यात् । किं तत्परिमाणपरित्यागात्तदपरित्यागाछा | परित्यागाच्चेत्तदा शरीरवत्तस्याऽनित्यत्वप्रसङ्गात्परलोकाद्यभावानुषंगः । अथाऽपरित्यागात् । तन्न । पूर्वपरिमाणाऽपरित्यागे शरीरवत्तस्योत्तरपरिमाणोत्पत्त्यनुपपत्तेः । ३४ । तदयुक्तं । युवशरीरपरिमाणावस्थायामात्मनो बालशरीरपरिमाणपरित्यागे सर्वथा विनाशाs
मी करीने आत्माने शरीरमां प्रवेश करवानी प्राप्ति नथी, के जेथी ते आत्मारहित थइ जाय; केमके असर्वव्यापक व्यपरिमाणलक्षणवाला मूर्तपणाने मननी पेठे प्रवेशनं अटकायतपणुं नथी, वली रूपादिमत्पणुं बे लक्षण जेनुं, एवा मूर्तपणाथी युक्त थल, जलादिकनो वेलादिकमां प्रवेश निषेधता नथी, अने रूपथी रहित एवा पण आत्मानो शरीरमां यतो प्रवेश निषेधो बो ! ए मोटुं प्राश्चर्य वे !! | ३ | (वली यहीं वादी शंका करे बे के ) - प्रात्मानुं ज्यारे शरीरप्रमाणपणुं मानीयें, त्यारे बालकनुं शरीरपरिमाण होते बते, तेनो युवानना शरीरना परिमाणनो स्वीकार शीरीते थाय ? शुं ते बालपरिमाणना त्यागी थाय ? के तेना त्यागथी थाय ? जो कहेशो के त्यागथी, तो शरीरनीपेठे ते आत्माने नित्यपणाना प्रसंगथी परलोकादिकना - नावनी प्राप्ति यशे; ने जो कहेशो के प्रत्यागयी, तो तेपण युक्त नथी; केमके पूर्वपरिमाणना त्याग विनाना, शरीरनी पेठे तेना उत्तरपरिमाणनी उत्पत्तिनी प्राप्ति बे. । ३४ । ( हवे ते वादीने उपरनी शं
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संभवात् । विफणावस्योत्पादे सर्पवदिति कथं परलोकाभावोऽनुषज्यते । पर्यायतस्तस्याऽनित्यत्वेऽपि इव्यतो नित्यत्वात् । ३५ । अथात्मनः कायप्रमाणत्वेतत्खएमने खएमनप्रसङ्ग इतिचेत्कः किमाह । शरीरस्य खएमने कथंचित्तत्खएमनस्येष्टत्वात् । शरीरसम्बात्मप्रदेशेन्यो हि कतिपयात्मप्रदेशानां खमितशरीरप्रदेशेऽवस्थानादात्मनः खएमनं । तच्चात्र विद्यत एवान्यथा शरीरात्ष्टथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिर्न स्यात् । न च खएिमतावयवानुप्रविष्टस्यात्मप्रदेशस्य प्रयगात्मत्वप्रसङ्गस्तत्रैवानुप्रवेशात् । ३६ । न चैकत्र सन्तानेऽनेके यात्मानः । अनेकार्थप्रतिमा सिज्ञानानामेकप्रमात्राधारतया प्रतिमासाभावप्रसंगात् । शरीरान्तरव्यवस्थि
कानो उत्तर पे बे के ) - ते सवलुं तारुं कहेतुं प्रयुक्त बे, केमके फण चमावेली त्र्त्रस्थामां जेम सर्पनो, तेम युवानना शरीरना परिमाएनी अवस्थामां, बालना शरीरना परिमाणनो त्याग करवाथी - त्मानो सर्वयाप्रकारे विनाश संभवतो नयी ; माटे परलोकनो अभाव केम याय !! कार के पर्यायी ते आत्माने नित्य होवाळतां पण इव्यथी नित्यपणं बे. । ३५ । आत्मानुं शरीरप्रमाणपणुं मानवामां ते शरीरनो ध्वंस होते बते, तेनो पण ध्वंस यशे, एम जो तुं कहेतो हो, तो कोण ना पाने बे ? केमके शरीरना ध्वंसथी कथंचित् ते या त्मानो ध्वंस मोए स्वीकार्यों बे; कारणके शरीरमां जोमाएला यात्मप्रदेशोमांथी केटलाक यात्मप्रदेशोनुं, खंमित थयेला शरीरप्रदेशमां रहेवापणुं होवाथी, ग्रात्मानुं खंमन थाय बे, अने तेवुं खंमन यहीं बेज ; केमके जो तेम न होय तो शरीरश्री जूदा पमेला अवयवने कंपनप्राप्ति न थाय; वली खंमित वयत्रमां दाखल थयेला आत्मप्रशने पृथगात्मपणानो प्रसंग पण थतो नथी, केमके ते आत्मप्रदेशो पाटा ते मांज दाखल थाय बे. । ३६ । (अहीं वादी कहे बे के ) एक
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सानेकज्ञानावसेयार्थसंवित्तिवत् । कथं खएिमतावयवयोः संघटनं पश्चादितिचेदेकान्तेन बेदाऽनन्युपगमात् । पद्मनानतन्तुवच्छेदस्यापि स्वीकारत् । तथाभूतादृष्टवशात्तत्संघटनमविरुध्मेवेतितनुपरिमाण एवात्मागीकर्तव्यो न व्यापकस्तथा चात्मा व्यापको न भवति चेतनत्वात् । यत्तु व्यापकं न तच्चेतनं । यथा व्योम । चेतनश्वात्मा तस्मान्न व्यापक: । ३७ । अव्यापकत्वे चास्य तत्रैवोपनन्यमानगुणत्वेन सिश कायप्रमाणता । ३० । यत्पुनरष्टसमयसाध्यकेवत्निसमुद्घातदशायामार्हतानामपि चतुर्दशरज्वात्मकलोकव्यापित्वेनात्मनः सर्वव्यापकत्वं । तत्कादाचित्कमिति न तेन व्यनिचारः। ३ए । स्याहादमन्त्रकवचावगुंग्तिानां च नेशल
mmmmmmm संतानमा अनेक आत्मा होता नथी, केमके अनेक अर्थो ने जणावनारां झानोने एक प्रमाताने जाणवाना अन्नावनो प्रसंग थशे. कोनीपेठे? तोके शरीरांतरमा रहेता अनेक ज्ञानव जणाय तेवा पदार्थाननीपेठे; माटे खंमित थयेला (बन्ने ) अवयवोर्नु पाउनथी जोमाण शीरीते थाय? (हे वादी!) एम जो तुं कहीश, तो एकांते (आ. त्मानो) बेद (अमोए पण ) मान्यो नथी; केमके पद्मनानतंतुनी पेठे बेदनो अमोए स्विकार को ले; अने तेवा प्रकारना कर्मना वशथी तेनुं जोमावू विरोधविनानुन बे; माटे शरीरजेवमोन आत्मा स्वीकारवो, पण व्यापक स्वीकारवो नही; अने तेवी रीते आत्मा चेतन होवाथी व्यापक नथी ; अने जे व्यापक डे, ते चेतन नथी, जेमके आकाशं; अने आत्मा तो चेतन , माटे ते व्यापक नथी; । ३७ । अने अव्यापकपणामां तो तेना गुणो त्यांन प्राप्त थवाथी कायप्रमाणपणुं सिह थाय जे. ३७ । वली आठ समयमा सधाती एवी केवनिसमुद्घातदशामां अरिहंतोने पण चौदराजलोकमां व्यापकपणायें करीने आत्मानुं सर्वव्यापकपणुं , पण ते कोश्कवेलानुं , माटे ते साथे व्य
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बिन्नीषिकान्यो नयमिति काव्यार्थः
।। वैशेषिकनैयाथिकयोः प्रायः समानतन्त्रत्वाद्दौलूक्यमते दिप्ते ' 'योगमतमपि दिप्तमेवावसेयं । पदार्थेषु च तयोरपि न तुल्या प्रतिपतिरिति सांप्रतमपादप्रतिपादितपदार्थानां सर्वेषां चतुर्थपुरुषार्थ प्रत्यसाधकतमत्वे वाच्येऽपि तदन्तःपातिनां उसजातिनिग्रहस्थानानां परोपन्यासनिरासमात्रफलतया अत्यन्तमनुपादेयत्वात् तउपदेशदातुर्वैराग्यमु. पहसन्नाह ॥
स्वयंविवादग्रहिले वितएमा- .
पाएिमसकएमूलमुखे जनेऽस्मिन् ॥ मायोपदेशात्परमर्म निन्द
नहो विरक्तो मुनिरन्यदीयः ॥१०॥
nhoon.nirhar.Arunm.mAAAAAAM.
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निचार आवतो नथी. । ३ए । अने वली स्याहादमंत्ररूपी बख्तरथी प्राच्छादित थयेला आवी बीकमामणीनथी कई मरी जाय तेम नथी. एवी रीते नवमा काव्यनो अर्थ थयो. . । । वैशेषिक अने नैयायिकर्नु प्रायें करी समानतंत्रपणुं होवाथी वैशेषिकमतनुं खंमन कर्याथी नयौयिकमतनुं पण खंमन थयेर्बु जाणवू; अने पदार्थोमां तो तेन बन्नेनो पण तुल्य स्विकार नथी, तेथी हवे अपादे स्वीकारेला सर्व पदार्थों जोके मोक्षसाधनमाटे अयोग्य जे, एम देखामवु , तोपण तेनी अंदर रहेला बल, जाति अने निग्रहस्थानो तो फक्त परना मंझनने तोमीपामवारूपज फलवाला होवाथी अत्यंत स्वीकारवालायक नथी, तेथी तेन्ना नपदेश आपनार (अदपादना वैराग्यनी हांसी करताथका कहे .
१ न्यायमतमपि-इति २ पु० पाठः ॥
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पोतान | मेलेज विवार्देकरी ने गांमा बनेला ने वितंमावादमां म लेली कुशलतावमे खरजयुक्त मुखवाला एवा य ( पामर) मनुष्यप्रते कपयुक्त उपदेशयी परना मर्मोने भेदतो एवो ते (अक्षपादपि ) अहो !! केवो वैराग्यवान् लागे बे !! ॥ १० ॥
। १ । अन्ये त्र्यविज्ञातत्वदाज्ञासारतयाऽनुपादेयनामानः । परे तेषामयं शास्तृत्वेन संबन्धी अन्यदीयो मुनिरक्षपादक पिरो विरक्तोऽहो वैराग्यवान् । २ । अहो इत्युपहासगर्भमाश्वर्यं सूचयति । ३ । अन्यदीय इत्यत्र “ ईयकारके " इति दोन्तः । ४ । किं कुर्वन्नित्याह || परमर्म निन्दन् ( जातावेकवचनप्रयोगात् ) परमर्माणि व्यथयन् (बहुनिरात्मप्रदेशैरधिष्ठिता देहावयवा मर्माणीति पारिभाषिकी संज्ञा ) तत उपचारात्साध्यस्वतत्व साधनाव्यभिचारितया प्राणनतः साधनोपन्यासोऽपि मर्मेव मर्म । ६ । कस्मात्तनिन्दन् । मायोपदेशा देतोः । माया प
| १ | ( हे प्रभु ! ) अन्य एटले आपनी आज्ञाना तत्वने नही जाणवाश्री जेमनुं नाम ग्रहण करवालायक नथी, एवा अन्योनो उपदेशक प्रहृपादरुषि हो ! वैराग्यवालो लागे बे ! । २ । अहो ! ए शब्द हास्यगर्जित आश्चर्य सूचवे बे. । ३ । ( ' अन्यदीय' मां ' इयकारके ' ए सूत्री दोंत थयो छे. ) । ४ । हवे ते अक्षपादषि शुं करतो थकों ? ते कहे बे. । ५ । परना मर्मों ने दतो थको (अहीं जातिरिके एक वचनो प्रयोग प्रापेलो बे ) ( घणा आत्मप्रदेशोव अधिष्टित थयेला शरीरना अवयवोने शास्त्रमां मर्मों कहेलां बे ) तेथी उपचारथी साधवालायक एवा स्वतत्वना साधनमां व्यभिचाररहितपणाव मे प्राणरूप जे साधननी स्थापना, ते पण मर्मज बे.
। ६ ।
१ परिभाषा - शास्त्र भाषा ॥
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१२५ रवञ्चनं तस्या उपदेशश्वलजातिनिग्रहस्थानबदणपदार्थत्रयप्ररूपणक्षारेण शिष्येन्यः प्रतिपादनं तस्मात् । ७ । (“गुणादस्त्रियां न वे" त्यनेन हेतौ तृतीयाप्रसङ्गे पञ्चमी)। । कस्मिन् विषये मायामयमुपदिष्टवान् श्त्याह । ए । अस्मिन् प्रत्यदोपलदयमाणे जने तत्वाऽतत्व विमर्शबहिर्मुखतया प्राकृतप्राये लोके । १०। कथंनूते स्वयमात्मना परोपदेशनिरपेदमेव विवादअहिले । ११ । विरुदः परस्परकदीकृतपदाधिदेपदको वादो वचनोपन्यासो विवादस्तथा च नगवान् हरिनासूरिः ।। =|| लब्धिख्यात्यर्थिना तु स्याद् । उस्थितेनामहात्मना ॥ बलजातिप्रधानो यः । स विवाद इति स्मृतः ॥= । १३ । तेन ग्रहिन श्व ग्रहगृहीत इव विवादग्रहिलस्तत्र । १४ । यथा ग्रहाद्यपस्मारपरवशः पुरुषो
शाथी नेदतो? तोके मायाना उपदेशथी; माया एटले परने जे ठग, तेना उल, जाति अने निग्रहस्थान नामना त्रण पदार्थोना प्ररूपणरूप शिप्यप्रते उपदेश देवाथी.। । ('गुणादस्त्रियां नवा' ए सूत्रवमे हेत्वर्थमां तृतीयाना प्रसंगमां पंचमी विनक्ति करेली ) । । ते अकपाद कृषिए कोनाते मायानो नपदेश आपेलो ? ते कहे . । ए। तत्वविचारथी रहित एवा मूर्ख माणसप्रते उपदेश आपेलो . । १० ते मूर्ख माणस केवो? तोके कोइए कह्या विना पोतानी मेलेज विवादवमे गांमो बनेलो । ११ । परस्पर स्वीकारेला पदने तोमीपामवामां समर्थ एवो जे वचनोपन्यास, ते विवाद कहेवाय ; तेमाटे नगवान् हरिनसूरि पण कहे डे के । १५ ।। (धन आदिकना ) लानना अर्थीसाथे, कीर्तिना अर्थासाथे, दलीडीसाथे, तथा नीचसाथे उननातियुक्त जे वाद, तेने विवाद कहेलो ले ; । १३ । तेवा विवादवमे जाणे 'गांमो बनेलो होय नही, तेवा माणसप्रते नपदेश आपेलो डे. । १४ । जेम ग्रहादिकनी चोटथी परवश थयेलो पुरुष जेम तेम बक्या करे के,
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यत्किंचन प्रलापी स्यादेवमयमपि जन इति नावः । १५ । तथा वितएमा 'प्रतिपदस्थापनाहीनं वाक्यं । वितंड्यते आहन्यतेऽनया प्रतिपदसाधनमिति व्युत्पत्तेः । १६ । “अन्युपेत्य पदं यो न स्थापयति स वैतएिमक इत्युच्यते” इति न्यायवार्तिकं । वस्तुतस्तु अपरामृष्टतस्वातत्त्वविचारं मौखयं वितएमा । तत्र यत्पाएिमत्यम विकलं कौशलं तेन कंमूलमिव कएमूलं मुखं लपनं यस्य स तथा तस्मिन् । कएमः सज्जूं: कंरस्यास्तीति कएमूलः (सिध्मादित्वान्मत्वर्थीयो लप्रत्ययः) । १७ । यथा किलान्तरुत्पन्नकृमिकुलजनितां कएमूर्ति निरोऽमपारयन् पुरुषो व्याकुलतां कलयति । एवं तन्मुखमपि वितएमापाएिमत्येन असम्बश्प्रलापचापनमाकलयत् कण्डूलमित्युपचर्यते । १७ । एवं च स्वरसत
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तेम आ माणसने पण जाणवो, एवो नावार्थ ले. । १५ । तथा वितंमा एटले प्रतिपदनी स्थापनाविनानुं वाक्य ; प्रतिपदनुं साधन जैनाथी हगाय ते वितंमा कहेवाय, एवो तेनो व्युत्पत्त्यर्थ डे. । १६ । समीप आवीने जे प्रतिपदनुं स्थापन करे नही, ते वैतंकि कहेवाय डे, एम न्यायवार्तिकमां कयुं जे; अर्थात् तत्वाऽतत्वनो विचार कर्याविना जे बबमबुं ते विर्तमा, अने तेमां जे संपूर्ण कुशलता, तेवमे जाणे खर्जयुक्त थयेg डे मुख जेनुं एवा माणसप्रते (नपदेश आपेलो .) कंफु एटले खर्ज जेने होय ते कंमुन कहेवाय (सिध्मादि होवाथी मत्वर्थीय 'ल' प्रत्यय आवेलो डे)। १७ । जेम अंदर उत्पन्न थयेला क्रमीउना समूहे नत्पन्न करेली खरजने रोकवाने असमर्थ थयो थको पुरुष व्याकुल थाय डे, तेम ते माणसनुं मुख पण वितंमावादनी कुशलतावमे संबंधविनाना बबमाटनी चपलताने धारण करतुं होवाथी ते खर्जवालु डे,
१ वादिप्रयुक्तपक्षप्रतियंथी प्रतिवादीउपन्यासः प्रतिपक्षः। कोऽर्थः । वादिपक्षापेक्षया प्रतिपक्षो वैतंडिकस्य स्वपक्ष एवेति ॥
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१२७ एव स्वस्वाभिमतव्यवस्थापना विसंस्थुलो वैत एमकलोकस्तत्र च तत्परमाप्तभूतपुरुष विशेषपरिकल्पितपरवञ्चनप्रचुरवचन 'रचनोपदेशश्चेत्सहायः समजनि तदा स्वत एव ज्वालाकलापजटिले प्रज्वलति हुताशन इव कृतो घृताहुतिप्रदेप इति । १९ । तैश्च नवामिनन्दिनिर्वादिनिरेताशोपदेशदानमपि तस्य मुनेः कारुणिकत्वकोटावारोपितं । २० । तथा चाहुः । =॥ ङः शिक्षितकुतर्कांश - लेशवाचालिताननाः । शक्याः किमन्यथा जेतुं । वितएमाटोपम एकताः ॥ = गतानुगतिको लोकः । कुमार्गं तत्प्रतारितः ॥ मागादिति च्चलादीनि । प्राह " कारुणिको मुनिः ||= । २१ । कारुणिकत्वं च वैराग्यान्न निद्यते । ततो युक्तमुक्तं । महो
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एवो उपचार कराय बे. । १० । एवी रीते पोताना रसथीज पोतपोतानुं स्वीकारेलुं स्थापन करवामां वैतंमिक माणस यातुर थयेलो होय बे, अने तेमां तेना नत्कृष्ट प्राप्तरूप पुरुषविशेषे कल्पेला एवा परने उगनारां घर्णा वचनोनी रचनानो जो सहाय मल्यो, तो पोतानी मेलेज ज्वालाजना समूहथी पुष्ट थयेला अग्निमां घृताहूति नाखवा जेवुंज थयुं. । १७ । मने ते भवामिनंदि वादिनए ते मुनिना तेवी रीतनां नपदेशदानने पण दयालुपणानी कोटिमां यारोपेनुं बे !! | २० | ते कहे के ॥ कष्टपूर्वक शिखेला एवा कुतर्कोंना अंशोथी वाचाल थ
लांबे मुखो जेमनां, तथा वितंमावादना आटोपथी मंमित थयेलाउने ( बलादिकविना ) बीजीरी ते केम जीती शकाय ? = | वली गामरीया प्रवाहने अनुसरनारा लोको तेथी वगाइने कुमार्गप्रते न जाने ? एवा हैतुथी दयालु एवा ते ( अक्षपाद रुषिए ) बलादिकोने कहेलां बे;
१ रचनानाम अर्थज्ञानपूर्वकं प्रागसत्या एव पदानुपूर्व्याः करणं ॥ २ संकटे प्रस्तावे वसति छलादिभिः स्वपक्षस्थापनमभिमतं । परविजये हि न धर्मध्वंसादिदोषसंभवः । तस्माद्वरं छलादिमिरापेज इति ॥
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१२० विरक्त इति स्तुतिकारेणोपहासवचनं । २२। अथ मायोपदेशादितिसूचनासूत्रं वितन्यते । २३ । अदपादमते किन्न षोमश पदार्थाः “ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिशन्तावयवतर्क निर्णयवादजल्पवितएमाहेत्वान्नासच्यनजातिनिग्रहस्थानानां तत्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः" इति वचनात् । २४ । न चैतेषां व्यस्तानां समस्तानां वा अधिगमोनिःश्रेयसावाप्तिहेतुर्न ह्येकेनैव क्रियाविरहितेन झानमात्रेण मुक्तियुक्तिमती। असमग्रसामग्रीकत्वाघिटितैकचक्ररथेनं मनीषितनगरप्राप्तिवत् । २५ । न च वाच्यं न खनु वयं क्रियां प्रतिकिपामः । किं तु तत्वज्ञानपूर्विकाया एव तस्या मुक्तिहेतुत्वमिति झापनार्थ तत्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगम इति ब्रूम इति । २६ । न ह्यमीषां संहते अपि ज्ञान
। । २१ । अने दयान्नुपणुं वैराग्यथी कंज्ञ निन्न नश्री, माटे स्तुतिकारे 'अहो ! ते कृषि वैराग्यवान् डे' एम हास्यनित वचन, युक्तन कहेलुं . । २२। हवे 'मायाना उपदेशथी' एवी रीतना सूचनासूत्रनो विस्तारपूर्वक (अर्थ) करे . । २३ । अदपादना मतमां (नीचे प्रमाणे ) सोल पदार्थो डे. प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सि
शंत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंमा, हेत्वानास, उल, जाति, अने निग्रहस्थानना तत्वज्ञानथी मोदनी प्राप्ति थाय . २५/ हवे तमाना थोमा अथवा सघलाउनु झान मोदनी प्राप्तिना हेतुरूप नथी ; कारणके ते संपूर्ण सामग्रीवायूँ नही होवाथी, जेम एक चक्रवाला रयें करीने इच्छित नगरे पहोंचातुं नथी, तेम क्रियाविनाना फक्त एकला झाने करीने मुक्ति युक्तिवाली नथी. । २५। वली “अमो कंशे क्रियानो तिरस्कार करता नथी, परंतु तत्वज्ञानपूर्वकन ते क्रियाने मोक्नुं हेतुपणुं डे, एजणाववामाटे तत्वज्ञानथी मोदनी प्राप्ति बे, एम अमो कहीये डीए." एम तमारे कहेवू नही । २६ । केमके
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१२ए क्रिये मुक्तिप्राप्तिहेतुन्नूते । वितथत्वात् तज्ज्ञानक्रिययोः । न च वितथत्वमसिई विचार्यमाणानां पोमशानामपि तत्वान्नासत्वात् । तथा हि । २७ । तैः प्रमाणस्य तावलक्षण मित्थं सूत्रितम् “अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाण मिति" । एतच्च न विचारसहं । २७ । यतोऽर्थोपलब्धौ हेतुत्वं यदि निमित्तत्वमात्रं तत्सर्वकारकसाधारणमिति कर्तृकर्मादेरपि प्रमाणत्वप्रसङ्गः । श्ए । अथ कर्तृकर्मादिविनवणं हेतुशब्देन करणमेव विवदितं तर्हि तज्झानमेव युक्तं । न चेनिश्यसन्निकर्षादि । यस्मिन् हि सत्यर्थ उपलब्धो नवति स तत्करणं । न चेन्श्यिसन्निकर्षसामग्र्यादौ सत्यपि झानानावेऽर्थोपत्ननः । ३० । साधकतमं' हि करणमव्यवहि
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ते पदार्थोनी साये मलेली एवी पण झानक्रिया मोक्षप्राप्तिना हेतुरूपं नथी; केमके ते छानक्रिया मिथ्या ; अने विचारियें तो ते सोने पदार्थो तत्वान्नासरूप होवाश्री तेन्नु मिथ्यापणुं कंई असिझ नथी; अने ते कहे . । २७ । तेनए 'पदार्थनी प्राप्तिनो हेतु ते प्रमाण' एवीरीते प्रमाण, लक्षण बांधेनुं ; अने ते लदाण युक्तिवाद्धं नथी. । २७ । कारणके अर्थोपलब्धिमां हेतुपणुं ज्यारे निमित्तरूपे त्यारे ते तो सर्व कारकोमा साधारण जे, अने तेथी कर्ता अने कर्मादिकने पण प्रमाणपणानो प्रसंग थशे. । २ए। वली ज्यारे कर्ताकर्मादिकथी विलक्षण एवं हेतु शब्दवमे करीने निमित्तज कहेलु डे, त्यारे तो तेनुं झानन युक्त , पण इंडियसन्निकर्षादिक युक्त नथी; केमके जे होते बते पदार्थ प्राप्त थाय, ते तेनुं निमित्त जे; अने इंघियसन्निकर्षादिक सामग्री होते ते पण, छानविना अर्थनी प्राप्ति थती नथी. ।।
१ यत्र हि प्रमात्रा व्यापारिते सति अवश्यं कार्योत्पत्तिरन्यथा पुनरनुत्पत्तिरेव तत्तत्र साधकतमं । यथा छिदायां दात्रं ॥ तथाचोकं ॥ क्रियायाः परनिष्पत्तिः । यदयाहारादनंतरं ॥ विवक्ष्यते यदा तत्र । करणत्वं तदा स्मृतं ॥
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तफलं । तदिष्यते । व्यवहितफलस्यापि करणवे उग्धनोजनादेरपि तथा प्रसङ्गः । तन्न झानादन्यत्र प्रमाणत्वमन्यत्रोपचारात्' । ३१ । यदपि न्यायनूषणसूत्रकारेणोक्तं “ सम्यगनुन्नवसाधनं प्रमाणमिति” तत्रापि साधनग्रहणात्कर्तृकर्मनिरासेन करणस्यैव प्रमाणत्वं सिध्यति । तथाप्यव्यवहितफलत्वेन साधकतमत्वं ज्ञानस्यैवेति । न तत्सम्यगलकर्ण 'स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाण मिति तु तात्विकं लक्षणं' । ३ । प्रमेयमपि तैरात्मशरीरेन्श्यिार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यन्नावफल:खापवर्गनेदावादश विधमुक्तं । तच्च न सम्यम् । यतः शरीरेन्शियबुझिमनःप्रवृत्तिदोषफलःखानामात्मन्येवान्त वो युक्तः । संसा
ज
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ANANAANAVARAN
वली जे साधकतम करण होय ते अव्यवहित फलवायूँ होय; अने ते खिकारि शकाय; अने व्यवहित फलवालाने पण करणपणुं मानते उते तो उग्धन्नोजनादिकने पण तेवो प्रसंग थशे; माटे छानविना बीने प्रमाणपणुं नथी. अने अन्यत्र प्रमाणपणुं तो उपचारथी . । ३१ । वत्नी न्यायनूषणसूत्रकारे जोके 'सम्यग् अनुन्नवर्नु जे साधन ते प्रमाण' एम कर्दा , त्यां पण साधनना ग्रहणथी कर्ताकर्मने ब्रोमीने करणनेन प्रमाणपणुं सिइ थाय डे, तोपण अव्यवहित फलपणावमे साधकतमपणुं तो ज्ञाननेज ले ; माटे नपर कहेल्लु ( अर्थोपत्नब्धिहेतुः प्रमाणं ) नामर्नु प्रमाण- लक्षण युक्त नथी; पण 'स्वपरना व्यवसायवाळ झान प्रमाण ' एवीरीतनुं प्रमाण, लक्षण सत्य . । ३२ । वत्नी तेनए आत्मा, शरीर, इंज्यि, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यनाव, फल, उःख अने अपवर्ग, एम बार प्रकार, प्रमेय कहेलु डे, पण ते सत्य नथी; केमके शरीर, इंघिय, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष,
१ कारणे कार्योपचारात् । कार्ये कारणोपचाराद्वा प्रमाणभूतेन पक्षहेतुवचनात्मकेन पार्थानुमानन व्यभिचारवारणाय अन्यत्रोपचारादित्युक्तं ॥
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रिण: आत्मनः कथंचित्तदविष्वग्नतत्वात् । ३३ । आत्मा च प्रमेय एव न भवति । तस्य प्रमातृत्वात् । ३३ । इन्श्यिबुझिमनसां तु करणत्वात् प्रमेयत्वाऽनावः । ३५ । दोषास्तु 'रागषमोहास्ते च प्रवृत्तेर्न पृथग्न वितुमर्हन्ति । वाङ्मनःकायव्यापारस्य शुनाशुनफलस्य विंशतिविधस्य तन्मते प्रवृत्तिशब्दवाच्यत्वात् । रागादिदोषाणां च मनोव्यापारात्मकत्वात् । ३६ । उःखस्य शब्दादीनामिन्श्यिार्थानां च फल एवान्त वः “प्रवृत्तिदोषजनितं सुखऽःखात्मकं मुख्यं फलं । तत्साधनं तु गौण मिति जयन्तवचनात् " । ३७ । प्रेत्यनावापवर्गयोः पुनरात्मन एव परिणामान्तरापत्तिरूपत्वान्न पार्थक्यमात्मनः सकाशाउचितं । ~~~ ~~ ~~~
~ ~ फन्न अने उखनो आत्मामांन समावेश करवो युक्त ; कारणके (तेन ) संसारी आत्माथी कथंचित अनिन्नरूपे . । ३३ । अने आत्मा तो प्रमेयज थतो नथी, केमके तेने तो प्रमातापणुं ; । ३३ । वत्नी इंडिय, बुद्धि अने मनने तो करणपणुं होवाथी (तेने ) प्रमेयपणानो अन्नाव . । ३५। दोषो तो राग, ष अने मोह , अने ते प्रवृचिथी निन्न यश् शकता नथी; केमके शुन्नाऽशुन डे फन जेनुं एवा वीस प्रकारना वचन, मन अने कायाना व्यापारने तेना मतमा 'प्रवृत्ति' शब्दथी लखाव्या ले; अने रागादि दोषो मनना व्यापाररूप . । ३६ । ऊःख अने शब्दादिपियार्थोनो फलनी अंदरज समावेश थाय ने; केमके प्रवृत्ति अने दोषथी नत्पन्न श्रयेद्धं सुखःखरूप मुख्य फन डे; अने तेनुं साधन गौण डे, एम जयंते कहेदूं ले. । ३७ । परलोक अने मोक तो आत्माना परिणामांतरनी प्राप्तिरूप होवाथी,
१ पुनः पुनर्विषयाणां उपभोगेछा राग इत्यर्थः ॥ प्रज्ज्वलनात्मको द्वेषस्तस्य क्रोधो द्रोहो मन्युरक्षमाऽमर्ष हात भेदाः । शरीरेंद्रियादिविकारहेतुः क्षणमात्रभावी द्वेषः क्रोधः । अलक्षितविकारचिरानुबंधोपकारावसानो देषो द्रोहः । अपकृतस्य प्रत्युपकाराऽसमर्थस्यांतर्निगढो देषो मम्युः । प. रगुपद्वेषोऽसमा । स्वगुणपरिभवसमुत्थो द्वेषोऽमर्षः ॥
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१२५ तदेवं शादश विधं प्रमेयमिति वाग् विस्तरमात्रं “व्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमेयमिति” तु समीचीनं लक्षणं । सर्वसंग्राहकत्वात् । ३७ । एवं संशयादीनामपि तत्वान्नासत्वं प्रेवावद्भिरनुपेक्षणीयम् । अत्र तु प्रतीतत्वाद ग्रन्थगौरवन्नयाच्च न प्रपञ्चितं । न्यदेण ह्यत्र न्यायशास्त्रमवतारणीयं । तञ्चावतार्यमाणं पृथग् ग्रन्थान्तरतामवगाहत इत्यास्तां । ३ए । तदेवं प्र. माणादिषोमशपदार्थानाम विशिष्टेऽपि तत्वानासत्वे प्रकटकपटनाटकसूत्रधाराणां त्रयाणामेव उलजातिनिग्रहस्थानानां मायोपदेशादितिपदेनोपदेपः कृतः । ४० । तत्र परस्य वदतोऽर्थविकल्पोपपादनेन वचनविघातश्वलं तत्रिधा । वाकूबलं सामान्यच्छन्नमुपचारच्चनं चेति । ३१ । तत्र साधारणे शब्दे प्रयुक्ते वक्तुर निप्रेतादर्थादर्थान्तरकल्पनया तन्निषेवो
तेनने आत्माथी निन्नपणुं योग्य नथी ; माटे एवी रीते ‘बार प्रकारर्नु 'प्रमेय डे' एम जे कहेवू, ते फक्त कथनरूप ले; पण 'व्यपर्याय
रूप वस्तु प्रमेय डे' एवी रीतनुं (प्रमेय, ) लदाण सत्य डे, केमके ते सर्वने लागु पो . । ३० । एवीज रीते संशयादिकनुं पण तत्वानासपणुं बुझिवानोए नपेदीमूकवा जेवू नथी ; वली ते प्रसिइ होवाथी, तथा ग्रंथगौरवताना नयथी तेनो अहीं विस्तार कर्यो नथी; पत्नी तेथी तो अहीं समस्त न्यायशास्त्र लतार, पमे, अने ते उतारतां तो जूदोज (एक) ग्रंथ थ जाय, माटे तेनी जरूर नथी. । ३ए । एवी रीते प्रमाणादिक शोले पदार्थो जोके तत्वान्नासरूप दे, तोपण प्रगटरीते कपटरूपी नाटकना सूत्रधार सरखा, एवा उत्त, जाति अने निग्रहस्थानरूप त्रणज पदार्थोनो 'मायोपदेशात् ' ए पदथी उपक्षेप करेलो . । ४ । त्यां बोलता एवा परना वचननो अर्थ बदलीने, तेनो जे विघात करवो, ते 'बल' कहेवाय ; ते उन त्रण प्रकारनो डे. वाक्बल, सामान्यउल अने उपचारउल. । ४१। तेमां साधारण शब्द
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१३३ वाढलं | यथा नवकम्बलोऽयं माणवक इति नूतन विवदया कथिते परः संख्यामारोप्य निषेधति कुतोऽस्य नव कम्बला इति । १२ । संनावनयातिप्रसङ्गिनोऽपि सामान्यस्योपन्यासे हेतुत्वारोपणेन तनिषेधःसामान्यच्चलं । यथा अहो नु खड्वसौ ब्राह्मणो विद्याऽाचरणसंपन्न इति । ब्राह्मणस्तुतिप्रसङ्गे कश्चिदति संभवति ब्राह्मणे विद्यााचरणसंपदिति । तच्चनवादी ब्राह्मणत्वस्य हेतुतामारोप्य निराकुर्वन्ननियुते । यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपद्भवति व्रात्येऽपि सा नवेद्वात्योऽपि ब्राह्मण एवेति । १३ । औपचारिके प्रयोगे मुख्यप्रतिषेधेन प्रत्यवस्थानमुपचारच्चलं । यथा मञ्चाः क्रोशन्तीत्युक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते । कथmm बोलते उते, कहेनारना अभिप्रायवाला अर्थने तजी, बीजा अर्थनी कल्पना करी, तेनो जे निषेध करवो, ते वाक्बल कहेवाय ; जेम आ माणवक ' नवकंबलवालो' , एवीरीते ' नव' शब्दने ' नवा' एवा अन्निप्रायथी (को) कहेते बते, बीजो 'नव' एवी संख्यार्नु आरोपण करीने निषेधे के, आने क्यां 'नव कंबलो' ? । १२ । सं. नावनावमे अतिप्रसंगवाला सामान्यना उपन्यासमां हेतुपणाना आरोपणवमे तेनो जे निषेध करवो, ते सामान्यरत कहेवाय; जेमके 'अहो!
आ ब्राह्मण विद्याचरणयुक्त जे.' एवी रीते ब्राह्मणना स्तुतिप्रसंगमां कोश्क बोले डे के ब्राह्मण मां विद्याचरणनी संपदा संनवे ले; त्यारे बनवादी ब्राह्मणपणाने हेतुपणुं आरोपी ने तेनुं खमन करतो थको कहे जे के, ज्यारे ब्राह्मणमां विद्याचरणनी संपदा होय, त्यारे ते नीचमां पण होय, माटे ते नीच पण ब्राह्मणज . । १३ । नपचारवाला प्रयोगमा मुख्यना प्रतिषेधवमे जे सामा थवं, ते उपचारउल कहेवाय; जेमके 'मांचान शब्द करे डे' एम कहेते बते, बीजो तेनुं खमन करे के, शुं अचेतन एवा मांचा शब्द करे ? के मांचा पर बेठेला
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१३४ मचेतना मञ्चाः क्रोशन्ति मञ्चस्थाः पुरुषाः क्रोशन्तीति । १४ । तथा सम्यग्हेतौ हेत्वानासे वा वादिना प्रयुक्ते अटिति तदोषतत्वाप्रतिनासे हेतुप्रतिबिम्बनप्रायं किमपि प्रत्यवस्थानं जातिर्दूषणानास इत्यर्थः । सा च चतुर्विंशतिनेदा साधादिप्रत्यवस्थानन्देन । ४५। यथा साधर्म्यवैधोत्कर्षाऽपकर्षवाऽवय॑विकल्पसाध्यप्राप्त्यप्राप्तिप्रसङ्गप्रतिदृष्टान्ताऽनुत्पत्तिसंशयप्रकरणाऽहेत्वपत्त्यविशेषोपपत्त्युपलब्ध्यनुपत्नब्धिनित्याऽनित्यकार्यसमाः । ४६ । तत्र साधर्म्यण प्रत्यवस्थानं साधhसमा नातिर्नवति । अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति प्रयोगे कृते साधर्म्यप्रयोगेणैव प्रत्यवस्थानं । नित्यः शब्दो निरवयवत्वादाकाशवत् । न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाधर्म्यात्कृतकत्वादनित्यः शब्दो न पुनराकाशसाधान्निरवयवत्वान्नित्य इति । १७ । वैधण प्रत्यवस्थान
यम
पुरुषो शब्द करे ? । ४ । तथा वादी, योग्य हेतु अथवा हेत्वानासनो प्रयोग करते उते, तेमां दूषणपणुं न होवा बतां जलदीथी कंक पण हेतुसरखं लावीने जे सामा थवू, ते जाति एटले दूषणानास कहेवाय; अने ते साधर्म्यादिक नेदोवमे नीचे प्रमाणे चोवीस प्रकारनी . । ३५। साधर्म्य, वैधर्म्य, नत्कर्ष, अपकर्ष, वय, अवर्य, विकल्प, साध्य, प्राप्ति, अप्राप्ति, प्रसंग, प्रतिदृष्टांत, अनुत्पत्ति, संशय, प्रकरण, अहेतु, अर्थापत्ति, अविशेष, उपपत्ति, उपलब्धि, अनुपलब्धि, नित्य, अनित्य अने कार्यसमा. । ४६। त्यां साधर्म्यवझे जे सामा थवू, ते साधर्म्यसमा नामनी जाति थाय ने ; जेम शब्द अनित्य बे, कतक होवाथी, घटनी पेठे; एवी रीतनो प्रयोग करते उते, साध> प्रयोगवमेज जे सामा थवं, जेमके शब्द नित्य डे, निरवयव होवाथी, आकाशनी पेठे ; अहीं कं विशेषहेतु नथी, घटना साधर्म्यथी कृतक होवाथी शब्द अनित्य बे, पण आकाशना साधर्म्यथी अवय
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१३५ वैधर्म्यसमा जातिवति । अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदित्यत्रैव प्रयोगे स एव प्रतिहेतुर्वैधयेंण प्रयुज्यते । नित्यः शब्दो निरवयवत्वात् । अनित्यं हि सावयवं दृष्टं घटादीति । न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाधर्म्यात् कृतकत्वाद नित्यः शब्दो न पुनस्तधान्निरवयवत्वान्नित्य इति । । । नत्कर्षापकर्षान्यां प्रत्यवस्थानमुत्कर्षापकर्षसमे जाती नवतः । तत्रैव प्रयोगे दृष्टान्तधर्म कंचित्साध्यधर्मिण्यापादयन्नुत्कर्षसमां जाति प्रयुङ्क्ते । यदि घटवत् कृतकत्वादनित्यः शब्दो घटवदेव मूर्तो नवतु । न चेन्मूर्ती घटवदनित्योऽपि मान्नूदिति शब्दे धर्मान्तरोत्कर्षमापादयति । ए । अपकर्षस्तु घटः कृतकः सन्नश्रावणो दृष्टः । एवं शब्दोऽप्यस्तु । नो
वरहित होवाथी नित्य नथी. । ४ । वैधर्म्यवमे जे सामा थवं, ते वैधर्म्यसमा जाति थाय ; जेमके शब्द अनित्य ने, कृतक होवाथी, घटनी पेठे ; एवी रीतना तेज प्रयोगनी अंदर, तेज प्रतिहेतु वैधयंवमे जोमवो ; जेमके शब्द नित्य डे, निरवयव होवाथी ; केमके अनित्य ने ते घटादिकनी पेठे अवयवसहित देखायेनुं जे; अहीं कंई विशेष हेतु नथी, घटना साधर्म्यथी कृतक होवाथी शब्द अनित्य बे, पण तेना वैध→थी अवयवरहित होवाथी नित्य नथी. । । नत्कर्ष अने अपकर्षवमे जे सामा थवं, ते नत्कर्षापकर्षसमा जाति थाय जे. जेमके उपरनाज प्रयोगमां दृष्टांतना कोश्क धर्म ने साध्यमिमां प्राप्त करतो बतो नत्कपसमा नामनी जातिनो प्रयोग करे ले ; जेमके ज्यारे घटनी पेठे कृतक होवाथी शब्द अनित्य ले, त्यारे घटनी पेठेज ते मूर्त पण थान? अने जो मूर्त न होय, तो घटनी पेठे अनित्य पण न थान ? एवी रीते शब्दमां बीजा धर्मनो नत्कर्ष मेलवे . ।।ए। अपकर्षसमा जातिनुं खरूप नीचे प्रमाणे ले ; जेमके घमो कृतक होतो थको अश्रावण देखाएलो ने, अने एवी रीते शब्द पण था? अने जो तेम नही तो
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१३६ चेद् घटवद नित्योऽपि मानूदिति शब्दे श्रावणत्वधर्ममपकर्षतीति । इत्येताश्चतस्रो दिङ्मात्रदर्शनार्थं जातय उक्ताः । एवं शेषा अपि विंशतिरदपादशास्त्रादवसेयाः । अत्र तु अनुपयोगित्वान्न लिखिताः ।।१। तथा विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानं । तत्र विप्रतिपत्तिः साधनाजासे साधनबुझिर्दूषणानासे च दूषणबुझिरिति । अप्रतिपत्तिः साधनस्यादूषणं दूषणस्य चानुशरणं । ५५ । तच्च निग्रहस्थानं झाविंशतिविधं तद्यथा । प्रतिज्ञाहानिः, प्रतिझान्तरं, प्रतिझाविरोधः, प्रतिज्ञासंन्यासः, हेत्वन्तरं, अर्थान्तरं, निरर्थकं, अविज्ञातार्थ, अपार्थकं, अप्राप्तकानं, न्यूनं, अधिकं, पुनरुक्तं, अननुन्नाषणं, अज्ञानं, अप्रतिना, विदेपः, मतानुका, पर्यनुयोज्योपेदणं, निरनुयोज्यानुयोगः, अपसि. शन्तः, हेत्वान्नासाश्च ॥ । ५३ । तत्र हेतावनैकान्तिकीकृते प्रतिदृष्टा
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घटनी पेठे अनित्य पण न थान ? एवी रीते शब्दमां श्रवणपणाना धमने खेंची ले . । ५० । एवी रीते ते चार प्रकारनी जातिन दिग्मात्र देखामवामाटे कहेली ने, अने बाकीनी वीस पण अदपादना शास्त्रथी जाणी लेवी ; अहीं तो ते अनुपयोगी होवाथी लखी नथी. । ५१ । विप्रतिपत्ति अने अप्रतिपत्ति ते निग्रहस्थान ने ; साधनानासमां साधनबुझि, अने दूषणानासमां जे दूषणबुझि ते विप्रतिपत्ति कहेवाय. साधन- प्रदूषण अने दूषण- जे अनुशरण, ते अप्रतिपत्ति कहेवाय. । ५। हवे ते निग्रहस्थानो नीचे प्रमाणे बावीस प्रकारनां . प्रतिझांतर, प्रतिझाविरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, हेत्वंतर, अर्थातर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननुन्नाषण, अज्ञान, अप्रतिना, विक्षेप, मतानुशा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, निरनुयाज्यानुयोग, अपसिशंत, अने हेत्वानासो, एम बावीस प्रकारनां निग्नहस्थानो . । ५३ । सेमां हेतुने अनेकांतिककरते ते सामाना -
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१३७ न्तधर्म स्वदृष्टान्तऽज्युपगच्छतः प्रतिज्ञाहानिनाम निग्रहस्थानं । यथाऽनित्यः शब्द ऐयिकत्वाद् घटवदिति प्रतिज्ञासाधनाय वादी वदन परेण सामान्यमै निश्यकमपि नित्यं दृष्टमिति हेतावनैकान्तिकीकृते यद्येवं ब्रूयात् सामान्यवघटोऽपि नित्यो नवत्विति । स एवं ब्रुवाणः शब्दाऽनित्यत्वप्रतिज्ञां जह्यात् । ५४ । प्रतिझातार्थप्रतिषेधे परेण कृते तत्रैव धर्मिणि धर्मान्तरं साधनीयमनिदधतः प्रतिझान्तरं नाम निग्रहस्थानं नवति । अनित्यः शब्द ऐनिश्यकत्वादित्युक्ते तथैव सामान्येन व्यनिचारे चोदिते यदि ब्रूयाद्युक्तं । सामान्यमैनिश्यकं नित्यं । तमि सर्वगतं । असर्वगतस्तु शब्द इति । तदिदं शब्देऽनित्यत्वलदणपूर्वप्रतिझातः प्रतिझान्तरमसर्वगतः शब्द इति निग्रहस्थानं । ५५ । अनया
anwrwww.rrrrrrrrrrrrrrrammam ष्टांतना धर्म ने पोताना दृष्टांतमा दाखल करवाथी प्रतिज्ञाहानि नामर्नु निग्रहस्थान थाय जे. जेमके शब्द अनित्य , इंडियगोचर होवाथी, घटनी पेठे; एवी प्रतिज्ञा साधवामाटे वादी ज्यारे बोल्ने त्योरे, बीनो सामान्य ए, पण इंघियगोचर नित्य देखायुं डे, एवी रीते हेतुने अ.. नेकांतिक करते उते ज्यारे एम बोले के सामान्यनी पेठे घट पण नित्य थान ? एवी रीते ते बोलतो थको शब्दना अनित्यपणानी प्रतिझाने गेमी आपे । ५४ । प्रतिज्ञा करेला अर्थनो प्रतिषेध, पर करते बते तेज धर्मिमां बीजा धर्मनुं साधन करवाथी प्रतिज्ञांतर नामनुं निग्रहस्थान थाय ने; जेमके शब्द अनित्य डे, इंघियगोचर होवाथी ; एम कहेते बते तेवीज रीते सामान्यनीसाथे दृषण देखामते उते, एम बोलेके, ठीक जे ! सामान्य इंघियगोचर नित्य बे, अने ते सर्वव्यापी , अने शब्द तो सर्वव्यापी नथी; एवी रीते शब्दमां अनित्यपणाना लक्षणवाली पेहेलांनी प्रतिज्ञाथी जूदी प्रतिझावाखं एटले 'असर्वव्यापी शब्द डे' एवी रीतनुं प्रतिझांतर नामर्नु बीजुं निग्रहस्थान जाणवू. ५॥
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दिशा शेषाण्यपि विंशति यानि । इह तु न निखितानि पूर्वहेतोरेवेत्येवं मायाशब्देनात्रच्छत्लादित्रयं सूचितं । ५६ । तदेवं परवञ्चनात्मकान्यपि बलजातिनिग्रहस्थानानि तत्वरूपतयोपदिशतोऽदपार्षे वैराग्यव्यावर्णनं तमसः प्रकाशात्मकत्वप्रख्यापनमिव कथमिव नोपहसनीयमिति काव्यार्थः
। ५७ । अधुना मीमांसकनेदानिमतं वेदविहितहिंसाया धर्महेतुत्वमुपपत्तिपुरस्सरं निरस्यन्नाह ।
न धर्महेतुर्विहितापि हिंसा
नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च । स्वपुत्रघातान्नृपतित्व लिप्सा
सब्रह्मचारि स्फुरितं परेषाम् ॥ ११ ॥ वेदोक्तहिंसा पण धर्मना हेतुरूप नथी ; अने अन्य कार्यमाटे जोमेचं उत्सर्ग वाक्य, अन्य कार्यमाटे जोमेला वाक्ये करीने अपवादगोचर कराय नही ; एवी रीते ते परवादीनुं चेष्टित, पोताना पुत्रना घातथी राजापणानी इच्छा करवाजे . ॥ ११ ॥
एवीज रोते बाकीनां वीस पण जाणी. लेवां ; पूर्वे कहेला हेतुश्रीज अहीं लख्यां नथी; एवी री ते अहीं मायाशब्दें करीने बलादिक त्रपनी सूचना करी . । ५६ । माटे एवी रीते परने ठगनारां एवां पण बन, जाति अने निग्रहस्थानोनो तत्व तरिके उपदेश देता, एवा, अकपादषिना वैराग्यनुं वर्णन, अंधकारने प्रकाशरूप कहेवानी पेठे केम हांसीनेपात्र न थाय? एवी रीते दशमा काव्यनो अर्थ जाणवो. ' । ५७ । हवे मीमांसकमते मानेला वेदोक्त हिंसाना धर्महेतुपणाने नपपत्तिपूर्वक दूर करता थका कहे . .
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।। इह खट्वचिार्गप्रतिपदधूममार्गाश्रिता जैमिनीया इत्थमाचढ़ते । या हिंसा गार्चाद् व्यसनितया वा क्रियते सैवाऽधर्मानुबन्धहेतुः । प्रमादसंपादितत्वाच्छौनिकलुब्धकादीनामिव । । वेदविहिता तु हिंसा प्रत्युत धर्महेतुर्देवतातिथि पितॄणां प्रीतिसंपादकत्वात् तथाविधपूजोपचारवत् । ३ । न च तत्प्रीतिसम्पादकत्वमसिई । 'कारीरीप्रनृतियज्ञानां स्वसाध्ये वृष्ट्यादिफत्ने यः खल्वव्यभिचारः स तत्प्रीणितदेवताविशेषानुग्रहहेतुकः । ४ । एवं त्रिपुरार्णववर्णितच्उगलजाङ्गलहो । मात्परराष्ट्रवशीकृतिरपि तदनुकूलितदैवतप्रसादसंपाद्या । अतिथिप्रीतिस्तु मधुपर्कसंस्कारादिसमास्वादना प्रत्यदोपलदयैव । ५। पितृ
dir
।। अहीं अर्चिर्गिना प्रतिपदरूप धूममार्गने आश्रीने रहेला जैमनीय मतवाला- एम कहे जे के, जे हिंसा गृहीपणाथी अथवाव्यसनीपणाथी कराय , तेज अधर्मना अनुबंधना हेतुरूप , केमके कसार, पाराधि आदिकोनीपेठे ते प्रमादथी करायेली ।। पण वेदोक्त हिंसा तो देवता, अतिथि अने पितृन ने प्रीति नुपजावती होवाथी, तेवी रीतना पूजोपचारनी पेठे नन्नटी धर्मना हेतुरूप ले. ३।वनी ते प्रीतिसंपादकपणुं कई असिइ नथी; केमके कारीरीआदिक यझोनो स्वसाध्यवृष्ट्यादिक फलमा जे अव्यनिचार जणाय , ते, तेन्थी खुशी थयेसा देव विशेषोनी कृपाना हेतुवालो . । । । एवी रीते त्रिपुरार्णव नामना ग्रंथमा वर्णवेना, एवा बकराना मांसना यथी परराज्यने वश करवानुं पण, तेथी खुशी थयेला देवोनी कृपाथी थाय ले. मधुपर्कसंस्कारादिकना खादथी नत्पन्न थयेली अतिथिनी प्रीति तो प्रत्यदज जणायेली . ।। श्राशदिक करवाथी खुशी थयेला पितृतरफथी पण पोताना
१ कारीरी ग्रंथविशेषस्तटुपदिष्टमं त्रैर्वृष्टिनिमित्तं । यज्ञोऽपि कारीरी-उपचारात् ॥ २ ग्रंथ. विशेषः ।। ३ दना तु मधुसंयुक्तं मधुपर्क ।।
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णामपि तत्तउपयाचितश्राशदिविधानेन प्रीणितानां स्वसन्तानवृधिविधानं साकादेव वीक्ष्यते । आगमश्चात्र प्रमाणं । ६ । स च देवप्रीत्यर्थमश्वमेधगोमेधनरमेधादिविधागनिधायकः प्रतीत एव । ७ । अतिथि विषयस्तु “ महोदं वा महानं वा श्रोत्रियाय प्रकल्पये दित्यादिः" । पितृप्रीत्यर्थस्तु । =॥ ौ मासौ मत्स्यमांसेन । त्रीन्मासान् हारिणेन तु ॥ औरत्रेणाथ चतुरः । शाकुनेनेह पञ्च तु ॥= इत्यादिः । ए । एवं परानिप्रायं हृदि संप्रधाचार्यः प्रतिविधत्ते । न धर्मेत्यादि । वि. हितापि वेदप्रतिणदितापि (आस्तां तावदविहिता) हिंसा प्राणिप्रा
व्यपरोपणरूपा न धर्महेतुर्न धर्मानुबन्ध निबन्धनं । यतोऽत्र प्रकट एव स्ववचनविरोधस्तथाहि । १० । ' हिंसा चेहर्महेतुः कथं ' 'धर्महे
mamannimmmmmmmm संतानोनी वृझिआदिकनुं कार्य सादातन देखाय ; अने तेमाटे आगमनुं प्रमाण . । ६ । ते आगम देवोनी प्रीतिमाटे अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदिक करवाना नपदेशने देनारुं प्रसिज . ।। अतिथिमाटे तो 'मोटो बनद अथवा मोटो बकरो श्रोत्रियमाटे प्रकल्पवो' इत्यादिक आगम . । । पितृन ने खुशी करवामाटे ( नीचे प्रमाण आगमवचन .) मत्स्यना मांसवमे पितृन ने बे माससुधि तृप्ति थाय डे, हरिणना मांसवमे त्रण माससुधि तृप्ति थाय , घेटाना मांसवमे चार माससुधि तृप्ति थाय जे. अने पदिना मांसवमे पांच माससुधि तृप्ति थाय ने ; इत्यादिक. । ए । एवीरीते परना अन्निप्रायने हृदयमां धारण करी ने आचार्यमहाराज तेनुं खेमन करे ने के, वेदोमां अंगीकार करेली, एवी पण (नहीं अंगीकार करेली तो एकबाजु रहो) प्राणीनना प्राणोनो त्याग कराववारूप हिंसा धर्मबंधनना कारणरूप नथी; केमके
तेमां प्रगटरी तेज तेना पोताना वचनमा विरोध आवे , ते कहे जे. ।१०। 'जो हिंसा होय, तो ते धर्मना हेतुरूप केम होय?' 'अने
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१५१ तुश्चदिसा कथं'। “श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यतामित्यादिः”। न हि जवति माता च वंध्या चेति । ११ । हिंसा कारणं, धर्मस्तु तकार्यमिति परानिप्रायः । नचायं निरपायः । यतो यद्यस्यान्वयव्यतिरेकावनुविधत्ते तत्तस्य कार्य । यथा मृत्पिएमादेर्घटादिः । १२ । न च धर्मो हिंसात एव नवतीति प्रातीतिकं । तपोविधानदानध्यानादीनां तदकारणत्वप्रसङ्गात् । १३ । अथ न वयं सामान्येन हिंसां धर्महेतुं ब्रूमः । किंतु विशिष्टामेव । विशिष्टा च सैव । या वेदविहितेतिचेत् । ननु तस्या धर्महेतुत्वं किं वध्यजीवानां मरणाऽनावेन । मरणेऽपि तेषामार्त्तध्यानाऽनावात्सुगतिलानेन वा । १४ । नाद्यः पदः । प्राणत्यागस्य तेषां सादादवेक्ष्यमाणत्वात् । न हितीयः। परचेतोवृत्तीनां उनकतयाडा
धर्मना हेतुरूप होय, तो ते हिंसा केम होय' ? “ धर्मनुं तात्पर्य सां. जलो ? अने सांजलीने ते धारो?" इत्यादिक. 'माता अने वांजणी' एम बनी शकतुं नथी. । ११ । हिंसा कारण, अने धर्म तेनुं कार्य एवो ते (जैमनीय मतवालानो) अन्निप्राय जे; अने ते अभिप्राय दूषणरहित नथी ; केमके जेम माटीना पिंम आदिकथी घटादिक, तेम जे जेना अन्वय अने व्यतिरेकने अनुसरे डे, ते तेनुं कार्य जे. । १५ । वनी हिंसाथीन धर्म थतो नथी, ए तो प्रसिज ने ; केमके तपकार्य, दान, तथा ध्यानादिकने तेना अकारणपणानो प्रसंग थाय. । १३ । अमें सामान्य हिंसाने धर्मना हेतुरूप कहेता नथी, पण विशिष्ट हिंसाने धर्मना हेतुरूप कहीये जीये, अने विशिष्ट हिंसा तेज , के जे वेदोमां कहेली ने, एम जो तुं कहीश, तो ते हिंसानुं धर्महेतुपणुं शुं वध्य जीवोना मरणना अन्नाववमे ? के मरण होवा उतां पण तेटने आतध्यान न थवाथी सुगति मनवावमे ? । १५ । तेमा पहेलो पन तो नही, केमके तेउनो प्राणत्याग तो सादात् देखाय डे; तेम बीजो पद
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---- १२ तध्यानाऽन्नावस्य वाङ्मात्रत्वात् । प्रत्युत हा कष्टमस्ति । न कोऽपि का. रुणिकः शरण मिति स्वन्नाषया विरसमारपत्सु तेषु वदनदैन्यनयनतरलतादीनां लिङ्गानां दर्शनात् उर्ध्यानस्य स्पष्टमेव निष्टङ्कयमानत्वात । १५ । अथेत्यमाचीथाः यथा अयःपिमो गुरुतया मज्जनात्मकोऽfo तनुतरपत्रादिकरणेन संस्कृतः सन् जल्लोपरि प्लवते । यथा व मारणा त्मकमपि विष मन्त्रादिसंस्कार विशिष्टं सद्गुणाय जायते । यथा वा दहनस्वन्नावोऽपि अग्निः सत्यादिप्रनावप्रतिहतशक्तिः सन्न हि प्रदहति । एवं मन्त्रादिविधिसंस्कारान्न खन्नु वेदविहिता हिंसा दोषपोषाय । न च तस्याः कुत्सितत्वं शङ्कनीयं । तत्कारिणां या झिकानां लोके पूज्यत्वदर्शनादिति । १६ । तदेतन्न ददाणां दमते दोदं । वैषम्येण दृष्टा
पण नही, केमके परनी मनोवृत्तिने जाणवी मुश्केल होवाथी (ते प्रा. णीनने ) आध्याननो अन्नाव फक्त वचनमात्रन ; पण उलटुं 'हा! कष्ट ! कोश् दयाबुनुं शरणुं नथी!' एवी रीते पोतानी नापावमे तेन आरेमते बते, तेन्नो मुखोनी दीनता, आंखोनी चंचलता आदिक चिह्नोने जोवाथी, तेउनु उर्ध्यान तो स्पष्टन जण आवे . । १५ । (हे वादी ! हवे कदाच तुं एम कहीश के, जेम लोखमनो टुकमो नारीपणावमे बुझवायोग्य डे, उतो पण सूदम पत्रादिकें करीने वीटाल्याथी जलपर तरे , तथा मारनारूं एवं पण विष जेम मंत्रादिकना संस्कारयुक्त थयुं थकुं सद्गुणमाटे थाय , अथवा बालवाना स्वन्नाववालो एवो पण अग्नि, सत्यादिकना प्रनावथी शक्तिरहित थयो थको जेम बालतो नथी, तेम मंत्रादिकनी विधिना संस्कारथी वेदोक्त हिंसा पण दूषणवानी नथी ; वली ते हिंसाना कुत्सितपणानी शंका करवी नही, केमके ते हिंसा करनार याझिको लोकमां पूजाय . । १६ । (हवे ते वादीने उत्तर आप डे के)-ए तारुं क
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तानामसाधकतमंत्वात् । अयः पिंमादयोर्हि पत्रदिनावान्तरापन्नाः सन्तः सलिलतरणादिक्रियासमर्थाः । नच वैदिकमन्त्र संस्कार विधिनापि विशस्यमानानां पशूनां काचिछेदनानुत्पादादिरूपा भावान्तरापत्तिः प्रतीयते । १७ । अथ तेषां वधानन्तरं देवत्वापत्तिर्भावान्तरमस्त्येवेतिचेत्किमत्रप्रमाणं । न तावत्प्रत्यके । तस्य संब-वर्तमानार्थग्राहकत्वात् । “सम्बन् वर्तमानं च गृह्यते चकुरादिनेति वचनात् । १० । नाप्यनुमानं तत्प्रतिबलिङ्गानुपलब्धेः । नाप्यागमस्तस्याद्यापि विवादास्पदत्वात् । अर्थापत्त्युपमानयोस्त्वनुमानान्तर्गततया तद्दूषणेनैव गतार्थत्वम् । १९ । अथ भवतामपि जिनायतनादिविधाने परिणाम विशेषात्ष्टथिव्यादिजन्तुजात
हेतुं विधानो आगल टकीशके तेम नथी; केमके विषमपणायें क रीने दृष्टांताने साधतुं नथी; कारणके लोखंमना टुकमाच्यादिको पत्रादिकनावांतरने प्राप्त थया थका पाणीमां तरवाच्यादिक क्रियान्मां समर्य याय बे; पण वैदिकमंत्र संस्कारनी विधिवमे पण मरातां पशुजनी, वेदना नही नंपजवायादिकरूप कोई पण भावांतरनी प्राप्ति देखाती नथी । ११ । तेने मार्याबाद देवपणानी प्राप्तिरूप भावांतर बेज, एम जो कहीश, तो तेमाटे शुं प्रमाण बे ? प्रत्यक्ष तो नही, केमके ते तो संबवर्तमान ने ग्रहण करनारुं बे, केमके 'संबध ने वर्तमान चकुत्र्यादिकवमे ग्रहण कराय डे' एवं शास्त्रनुं वचन बे. । १८ । - नुमानप्रमाण पण नही, केमके तेने साधनारुं कई चिन्ह जणातुं नयी; तेम आगमप्रमाण पण नश्री, केमके तेमाटे तो आजदनसुधि हजु विवाद चाली रह्यो बे; अर्थापत्तिने उपमाननो तो अनुमाननी अंद रम समावेश तो होवाथी, ते अनुमानना दूषणवमेज तेजनुं दूषण पण जाणी लेवुं । १५ । हवे जो तुं एम कहीश के तमारी पण एवी कपना बे के, जिनालय आदिक बंधाववामां पृथ्वी कायादिक जंतुनी
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-----------१७४ घातनमपि यथा पुण्याय कल्प्यत इति कल्पना । तथा अस्माकमपि किं नेप्यते । वेदोक्त विधिविधानरूपस्य परिणामविशेषस्य निर्विकल्पं तत्रापि नावात् । २० । नैवं । परिणाम विशेषोऽपि स एव शुन्नफलो यत्राऽनन्योपायत्वेन यतनयाऽपकष्टप्रतनुचैतन्यानां प्रथिव्यादिनीवानां वधेऽपि स्वल्पपुण्यव्ययेनाऽपरिमितसुकृतसंप्राप्तिर्न पुनरितरः । १। नवत्पदे तु सत्वपि तत्तत्श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासप्रतिपादितेषु यमनियमादिषु स्वर्गावाप्त्युपायेषु तांस्तान् देवानुद्दिश्य प्रतिप्रतीकं कर्तनकदर्थनया कान्दिशीकान् कृपणपञ्चेन्झ्यिान् शौनिकाऽधिकाधिकं मारयतां कृत्स्नसुकृतव्ययेन उर्गतिमेवानुकूलयतां उननः शुनपरिणामविशेषः । २२ । एवं च यं कंचन पदार्थ किंचित्साधर्म्यारेणैव दृष्टान्तीकुर्वतां नवताम
घात थाय , पण परिणामविशेषथी तेमां पुण्य थाय बे, तेम अमारं पण शामाटे न जाणवू ? केमके वेदोक्त विधिविधानरूप परिणाम वि. शेष तेमां पण . । २०। (हवे ते वादी ने कहे के)-एम नही। परिणामविशेष पण तेज शुन्नफलवालो ने, के जेमां बीजो उपाय न मलवाथी यतनायें करीने खेंचेल सूदम चैतन्य जेमनु एवा पृथ्वीकायादिक जीवोनो वध होते बते पण, स्वल्प पुण्यना व्ययपूर्वक अत्यंत पुण्यनी प्राप्ति होय; पण तेथी विपरीत (परिणामविशेष शुनफलवालो नथी)। १ । तमारा पक्षमां तो ते ते स्मृति, पुराण, इतिहासमां कहेनां यमनियमादिकरूप स्वर्गनी प्राप्तिना नपायो होते ते पण ते ते देवोने नद्देशीने दरेक अवयवोने कापवानी कदर्थनायें करीने बेबाकला बनेला बिचारा पंचेंख्यि प्राणीनने कसाश्थी पण अधिक रीते मारता, अने तेथी समस्त पुण्यना दयवमे उर्गतिनेज अनुकुल करता, एवा (ते यज्ञ करनारानने ) शुन्न परिणाम आववो उर्खन्न २. । २२ । एवी रीते जे कोश् पदार्थ ने कंक साधर्म्यपणायें करीनेज
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१४५ तिप्रसङ्गः सङ्गच्छते । २३ । नच जिनायतनविधापनादौ पृथिव्यादिनीववधेऽपि न गुणस्तथाहि । २५ । तदर्शनाद् गुणानुरागितया नव्यानां बोधित्लानः । पूनातिशय विलोकनादिना च मनःप्रसादस्ततः समाधिस्ततश्च क्रमेण निःश्रेयसप्राप्तिरिति । २५ । तथा च नगवान् पञ्चनिङ्गी. कारः । =॥ 'पुढवाईयाण जशविहु । होश विणासो जिणानयाहिंतो ॥ तविसया विसुदिठिस्स । नियमन अत्थि अणुकंपा ॥ = 'एयाहितो बुझ । विरया ररकंति जेण पुढवाई। इत्तो निव्वाणगया अबाहिया
नवममाणं ॥=॥ रोगिसिरावेहोश्व । सुविन्जकिरियाव सुप्पनतान।
दृष्टांतरूप करता एवा तमोने अतिप्रसंग प्राप्त थाय . । २३ । वती जिनालय बनाववा आदिकमां जोके पृथ्वीकाय आदिक जीवोनो वध थाय , तोपण तेमां गुण नथी तेम नथी; अने ते कहे . ।२४। ते जिनालयना दर्शनथी गुणना अनुरागीपणायें करीने नव्योने बोधिबीजनो लान थाय डे; तथा पूजातिशयने जोवा आदिकवमे मनन
आनंद थाय , अने तेथी समाधि थाय ने, तथा तेथी अनुक्रमे मोबनी प्राप्ति थाय . । २५। वली नगवान् पंचलिंगीकार कहे डे के =|| जिनालयादिक बंधाववाथी जोके पृथ्वीकायादिकनो विनाश थाय , तोपण सम्यग्दृष्टिने निश्चयें करीने तेना विषये अनुकंपा होय . ॥ वली ते निनालयादिक (बंधाववाथी ) विरति पामेला साधुन जे हेतुथी पृथ्वीकायादिकनुं रक्षण करे जे तेथी बाधारहित अदय मोदमां गया . =॥ रोगीप्रते जेम.नामीवैद्यथी प्रयोग करेनी क्रिया, परिणामे जेम गुणकारी , तेम बाह्ययोगनी पेठे आ पण जे, एवो नावार्थ ले. ॥ ... १ पृथ्व्यादीनां यद्यपि तु भवति विनाशः जिनालयादिभ्यः । तद्विषया विसुदृष्टिकस्य नियमतः अस्ति अनुकंपा ॥ - ॥ २ एतेभ्यः बुद्धाः विरताः रक्षति येन पृथ्यादीन् । इतः निर्वाणगताः अबाधिताः आभवं अमानं ॥-॥ ३ रोगिसिरावेधः इव सुवैयक्रियाः व सुप्रयुक्ताः। प. रिणाममुंदरचिरतिष्टा स बाह्ययोगः इव इति ॥ इतिच्छाया ॥
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परिणामसुंदरच्चिय-चिठा से बाहजोगेवित्ति ॥ ॥= | २६ । वैदिकवधविधाने तु न कंचित्पुण्यार्जनानुगुणं गुणं पश्यामः । २७ । अथ विप्रेन्यः 'पुरोमाशादिप्रदानेन पुण्यानुबन्धी गुणोऽस्त्येवेति चेत् न । पवित्रसुवर्णादिप्रदानमात्रेणैव पुण्योपार्जनसंनवात् । कृपणपशुगणव्यपरोपणसमुत्थमांसदानं केवलं निपुणत्वमेव व्यनक्ति । २७ । अथ ने प्रदानमात्रं पशुवधक्रियायाः फलं । किंतु नृत्यादिकं । यदाह श्रुतिः "श्वेतं वायव्यामजमालनेत नूतिकामः" इत्यादि । श्ए । एतदपि व्यनिचारपिशाचग्रस्तत्वादप्रमाणमेव नूतेश्यौपयिकान्तरैरपि साध्यत्वात । ३० । अथ तत्र सत्रे हन्यमानानां गगादीनां प्रेत्यसमतिप्राप्तिरूपोऽस्त्येवोपकार इतिचेशाङ्मात्रमेतत् । प्रमाणाऽनावात् । न हि ते निहताः
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। २६ । वैदिकवध करवामां तो पुण्यार्जनने योग्य एवो कोइ पण गुण अमो जोता नथी. । २७ । ब्राह्मणोप्रते हुतशेषादिक देवावमे पुण्यानुबंधी गुण थायज डे, एम जो कहेशो, तो ते युक्त नथी; केमके पवित्रसुवर्णादिक देवामात्रे करीनेज : पुण्यार्जननो संन्नव ; पण बीचारां पशुउना समूहने मारीने तेना मांस, जे दान करवू, ते तो केवन निर्दयपणुंज जणावे . । २ । हवे जो तुं एम कहीश के ते दानमात्रज पशुवधक्रिया, फन नथी, पण तेथी रुदि आदिक मने ले; केमके (अमारी) श्रुतिमां कह्यु डे के-'कवि श्च्छनारे वायव्यमां श्वेत बकरो मारवो' इत्यादिक. । २ए। ए तारूं कहेवू पण व्यनिचाररूपी पिशाचे ग्रस्त करेलु होवाथी अप्रमाणज ; केमके कशि तो बीना उपायोवझे पण मेलवी शकाय . । ३० । ते यजमां मराता बकराआदिकोने परलोकमां सुगति मनवारूप उपकार बेज, एम जो कहीश, तो ते फक्त कहेवारूपज , केमके तेमाटे प्रमाण नथी ; कारणके ते
१ हुतशेषः॥
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१४७ पशवः समतिलानमुदितमनसः कस्मैचिदागत्य तथाभूतमात्मानं कथयन्ति । ३१ । अथास्त्यागमाख्यं प्रमाणं । यथा =|| औषध्यः पशवो वृदास्तियश्चः पदिणस्तथा । यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रितं पुनः
= इत्यादि । ३२ । नैवं । तस्य पौरुषेयाऽपौरुषेयविकल्पान्यां निराकरिष्यमाणत्वात् । ३३ । न च श्रौतेन विधिना पशुविशसन विधायिनां स्वर्गावाप्तिरुपकार इति वाच्यं । यदि हि हिंसयाऽपि स्वर्गप्राप्तिः स्यातर्हि बाढं पिहिता नरकपुरप्रतोव्यः । शौनिकादीनामपि स्वर्गप्राप्तिप्रसङ्गात् । ३३ । तथा च पन्ति 'पारमर्षाः =|| यूपं नित्वा पशून् हत्वा । कृत्वा रुधिरकर्दमम् ॥ यद्येवं गम्यते खर्गे । नरके केन गम्यते । ।३५। किंचाऽपरिचिताऽस्पष्टचैतन्याऽनुपकारिपशुहिंसनेनापि यदि
मराएला पशु सुगतिना लानथी हर्षित मनवालां थयां थकां (अहीं)
आवी ने पाताने मलेलो तेवी रीतनो लान कोने कंई कहेतां नथी. । ३१ । हवे एम कहीश के आगम नामनुं प्रमाण , जेमके =| औषधि, पशुन, वृदो, तिर्यचो तथा पदिन यज्ञ माटे मृत्यु पामी ने लंच. गति पामे . इत्यादि । ।३५ । ते तारूं कहेवू युक्त नथी; केमके ते आगमनुं तो पौरुषेय अने अपौरुषेय एम बन्ने विकल्पोवमे निराकरण करवानुं जे. । ३३ । वली एम पण नही बोलवू के, वेदोक्त विधिवमे पशुहिंसा करनाराज ने स्वर्गनी प्राप्तिरूप उपकार थाय ; केमके ज्यारे हिंसावमे पण स्वर्गनी प्राप्ति थाय, त्यारे तो नरकपुरनां ारो सन्जम बीमार जाय, अने कसाश् आदिकोने पण स्वर्गनी प्राप्तिनो प्रसंग थाय. । ३३ । वली पारमर्षो कहे जे के, =॥ यज्ञस्तनने बेदीने, पशुनने हणीने तथा रुधिरनो कर्दम करीने ज्यारे स्वर्गे जवाय! त्यारे नरके कोण जशे !! = । ३५ । वनी यज्ञ करनाराउने परिचय विना
१ मीमांसकाः॥
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त्रिदिवपदवीप्राप्तिस्तदा परिचितस्पष्टचैतन्यपरमोपकारिमातापित्रा दिव्यापादनेन यक्कारिणामधिकतरपदप्राप्तिः प्रसज्यते । ३६ । अथाऽचित्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभाव इति वचनाद्वै दिक मन्त्राणामचिन्त्यप्रज्ञावत्वात् तत्संस्कृतपशुवधे संभवत्येव स्वर्गप्राप्तिरिति चेन्न । इह लोके विवाह गर्भाधानजातकर्मादिषु तन्मन्त्राणां व्यभिचारोपलंनाददृष्टे स्वर्गादावपि तच निचारोऽनुमीयते । दृश्यन्ते हि वेदोक्तमन्त्रसंस्कारविशिष्टेभ्योऽपि विवाहादिन्योऽनन्तरं वैधव्याल्पायुष्कतादारिद्याद्युपदवविधुराः परःशताः । त्र्यपरे च मन्त्रसंस्कारं विना कृतेभ्योऽपि तेभ्योऽनन्तरं तहिपरीताः । ३७ | अथ तत्र क्रियावैगुण्यं विसंवादहेतुरिति चे
ना, अस्पष्टचैतन्यवाला, मने अनुपकारी एवा पशुजनी हिंसावमे पण ज्यारे स्वर्गनी पदवीनी प्राप्ति थाय, त्यारे परिचयवाला, स्पष्ट चैतन्यवाला, ने परमनुपकारी एवा मातापितादिकने मारवावमे अधिक पदवीनी प्राप्ति थवी जोइए !!! | ३६ | ' मणिमंत्र औषधिजनो खरेखर अचिंत्य प्रभाव होय वे' एम शास्त्रमां कह्युं बे, माटे वैदिक मंत्रोनो ( पण ) अचिंत्य प्रभाव होवाथी, ते मंत्रोथी संस्कारेलो पशुवध करषायी स्वर्गनी प्राप्ति संभवेज बे, एम जो तुं कहीश, तो ते प्रयुक्त a; केमके या लोकमा ( पण ) विवाह, गर्भाधान तथा जातकर्मादिकमां ते वैदिक मंत्रोनो व्यभिचार जणावाथी, नही देखायेला एवा स्वर्गादिकमां पण तेना व्यभिचारनुं अनुमान थाय बे; केमके वेदोक्त मंत्रसंस्कारवाला विवाहादिको थयाबाद वैधव्यपणुं, अल्पायुषीपणुं तथा दलिपीपणुं इत्यादिक नृपश्वथी दुःखीया थयेला सेंकमोगमे माणसो देखाय बे; ने बीजान तो ते वेदोक्त मंत्रसंस्कार विना पण, ते विवाहादिक थयाबाद नलटा तेथी विपरीत एटले सुखीया देखायेला बे। ३७ । तेमां क्रियामां यतो फेरफार विसंवादनो हेतु बे, एम
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न । संशयाऽनिवृत्तेः । किं तत्र क्रियावैगुण्यात्फले विसंवादः किंवा मन्त्राणामसामादिति न निश्चयः । तेषां फलेनाऽविनान्नावाऽसिझेः । ३० । अथ यथा युष्मन्मते “आरोग्ग बोहिलानं समाहिवरमुत्तमंदितु " इत्यादीनां वाक्यानां लोकान्तर एव फल मिष्यते एवमस्मदनिमतवेदवाक्यानामपि नेह जन्मनि फसमिति किं न प्रतिपद्यते । ततश्च विवाहादौ नोपलंन्नावकाश इति चेदहो वचनवैचित्री! यथा वर्तमानजन्मनि विवाहादिषु प्रयुक्तैर्मत्रसंस्कारैरागामिनि जन्मनि तत्फलमेवं हितीयादिजन्मान्तरेष्वपि विवाहादीनामेव प्रवृत्तिधर्माणां पुण्यहेतुत्वाङ्गीकारेऽनन्तनवानुसन्धानं प्रसज्यते । एवं च न कदाचन संसारस्य परिसमाप्तिः । तथा च न कस्यचिदपवर्गप्राप्तिरिति प्राप्तं नवदन्निमतवेदस्याऽwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.rrrrrrrrrrrrr जो कहीश तो ते युक्त नथी, केमके तेमां संशय टलतो नथी; शुं क्रियाना फेरफारथी फलमा विसंवाद थाय ? के मंत्रोना असामर्थ्यथी थाय डे? तेनो निश्चय नथी ; केमके तेनना फलवमे अविनानावनी असिविले. । ३ । जेम तमारा मतमां 'आरोग्यता, बोधिनान, तथा उत्तम समाधिवर आपो?' इत्यादिक वाक्यो- जेम नवांतरमांज फल इच्छाय डे, तेम अमोए मानेना वेदवाक्यो, पण आ जन्ममा फल नथी यतुं, एम शामाटे अंगीकार न कराय ? अने तेथी विवाहादिकमां (अमोने ) उपकानो अवकाश रहेतो नथी, एम जो कहीश, तो अहो! तारां वचननी कं चतुराइ!! जेम चालता जन्ममां विवाहादिकोनेविषे करता मंत्रसंस्कारोवमे आवता जन्ममां तेनुं फन मले, तेम बीजाआदिक जन्मांतरोनेविषे पण विवाहादिज प्रवृत्तिधर्मो ने पुण्यना हेतुरूप मानवाश्री अनंता नवोनी परंपरा थर जाय डे, अने एवी रीते कदापि पण संसारनी समाप्ति थशे नही; अने कोश्ने मोद मलशे नही ; एवी रीते तमोए मानेला वेदने तो अनंतसंसाररूपी वेतमीनु मूलकंदपणुं
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पर्यवसितसंसारवल्लरीमूलकन्दत्वम् । ३ए । आरोग्यादिप्रार्थना तु अस. त्याऽमृषान्नाषापरिणामविशुझिकारणत्वान्न दोषाय । तत्र हि नाकारोग्यादिकमेव विवदितं । तच्च चातुर्गतिकसंसारनदणलावरोगपरिदयस्वरूपत्वाउत्तमफलं । तषिया च प्रार्थना कथमिव विवेकिनामनादरणीया 110| न च तजन्यपरिणामविशुऽस्तत्फलं न प्राप्यते । सर्ववादिनां नावशुक्षेरपवर्गफलसम्पादनेऽविप्रतिपत्तेरिति ।३। न च वेदनिवेदिता हिंसा न कुत्सिता । सम्यग्दर्शनझानसम्पन्नै रचिर्मार्गप्रपन्नैवेदान्तवादिनिश्च गहितत्वात् तथाच तत्वदर्शिनः पठन्ति । श॥देवोपहारव्यानेन । यज्ञव्याजेन येऽथवा ॥ प्रन्ति जन्तून गतवृणा । घोरां ते यान्ति उर्गतिम् ।। ।।= [४३। वेदान्तिका अप्याहुः । =|| अन्धे तमसि मज्जामः । पशुनियें
प्राप्त थयु !! । ३ए। आरोग्यादिक प्रार्थना तो असत्य अमृषा नापाना (व्यवहारनाषाना ) परिणामनी विशुझिना कारणरूप होवाथी दूषणयुक्त नथी ; तेमां तो नावआरोग्यादिकन वर्ण वेलु बे, अने ते चतुर्गतिकसंसारना नदणवालो जे नावरोग, तेना नाशरूप होवाथी नत्तम फनवाळ बे, अने ते विषयनी प्रार्थना विवेकीनने शामाटे आदरवालायक न होय ? । ४० । वनी तेथी नत्पन्न थती परिणामशुध्थिी तेनुं फल कंई नथी मलतुं तेम नथी; केमके ए तो सर्व वादिनने संमत डे के, नावशुध्थिी मोहरूप फल मले. । ३१ । वली वेदोक्त हिंसा, कंश निंदित नथी थर, तेवू नथी; केमके सम्यग् दर्शन अने झाने करीने युक्त थयेला अर्चिमार्ग ने माननारानए तथा वेदांतवादीनए तेनी निंदा करी ले. तेमाटे तत्वदर्शीन कहे जे के, । १२ । ॥ देवोप्रते बलिदानना मिषवमे अथवा याना मिषवमे जे निर्दयो प्राणीने मारे डे, ते घोर उर्गतिमां जाय . ।।३। वेदांती पण कहे जे के = अमो, के जे पशुन
१ संसारवृद्धिदेतोर्यज्ञादिरूपात्धूममार्गाद्विपरीतो यमनियमादिरचिर्मार्गः ॥
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१५१ यजामहे ॥ हिंसा नाम नवेर्मो । न भूतो न नविष्यति ॥= तथा 'अनिर्मामेतस्मासिाहतादेनसो मुञ्चतु' (बान्दसत्वान्मोचयतु इत्यर्थः) शति । ४ । व्यासेनाप्युक्तम् =|| झानपानिपरिक्षिप्ते । ब्रह्मचर्यदयांनसि ॥ स्नात्वातिविमने तीर्थे । पापपङ्कापहारिणि ॥= ध्यानाग्नौ जीवकुंस्थे । दममारुतदीपिते ॥ असत्कर्मसमित्देपै-रग्निहोत्रं कुरूचमम् ॥ ॥ कषायपशुनिष्ट-धर्मकामार्थनाशकैः॥ शममन्त्रहतैर्यझं। विधेहि विहितं बुधैः ॥ ॥= प्राणिघातात्तु यो धर्ममीहते मूढमानसः ॥ स वाचति सुधावृष्टिं । कृष्णा हिमुखकोटरात् ॥ =|| इत्यादि । ४५। यच याशिकानां लोकपूज्यत्वोपलंनादित्युक्तं तदप्यसारम् । अबुधा
ल
वो यज्ञ करीये बीये, ते घोर अज्ञानरूपी अंधकारमा मुवीये डीये; हिंसा जो धर्मरूप होय, तो तेवो धर्म तो थयो नथी! अने थशे पण नही ! वली आ हिंसावमे करेलां पापथी मने अनि मुकावो?' (अहीं वेदवाक्य होवाथी 'मुंचतु' नो 'मोचयतु' (मूकावो) एवो अर्थ जाणवो.)।४। व्यासे पण कयु डे के =॥ ज्ञानरूपी पालमां नाखेला ब्रह्मचर्य अने दयारूपी पाणीमां, पापरूपी कादवने दूर करनारा अति निर्मल तीथमां स्नान करीने, जीवरूपी कुंममा रहेला, अने दमरूपी वायुथी दीपायमान करेला, एवा ध्यानरूपी अग्निमां, सुष्कर्मरूपी लाकमां फेंकीने उत्तम अग्निहोत्र कर ? धर्म, काम अने अर्थने नाश करनारा, तथा समतारूपी मंत्रोवमे हणेला, एवा कषायोरूपी उष्ट पशुवमे विधानोए करेलो यज्ञ तुं कर? जे मूढमनवालो माणस प्राणीनना घातथी धर्म ने श्च्छे ले, ते माणस कृष्णसर्पना मुखरूपी कोटरमांथी अमृतनी वृष्टिने इच्छे ले. इत्यादि. । ४५। वली 'यज्ञ करनाराम ने लोको पूने डे' एम जे कडं, ते पण सार विनानुं ; केमके अज्ञानीउन तेनने पूजे जे, पण बुझिवानो तेन ने पूजता नथी । वत्नी अज्ञानी
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एव हि पूजयन्ति तान् । न तु विविक्तबुङ्क्ष्यः । बुधपूज्यता तु न प्रमाणं । तस्याः सारमेयादिष्वप्युपजात् । ४६ । यदप्यनिहितं देंवतातिथिपितृप्रीतिसंपादकत्वाछेदविहिता हिंसा न दोषायेति । तदपि विवितथं । यतो देवानां संकल्पमात्रोपनता निमताहारपुद्गलरसास्वादसुहितानां वैक्रियशरीरत्वाद् युष्मदावर्जितजुगुप्सितपशुमांसाद्याहुतिगृहीताविच्चैव दुःसंभवा । प्रौदा रिकशरीरिणामेव तडपादानयोग्यत्वात् । ४७ । प्रपाहारस्वीकारे च देवानां मन्त्रमयदेहत्वाच्युपगमबाधः । न च तेषां मन्त्रमयदेहत्वं भवत्पदे न सिं । चतुर्थ्यन्तंपदमेव देवता । इति जैमिनिवचनप्रामाण्यात् । ४८ । तथा च मृगेन्धः । = || 'शदेतरत्वे युगपद्भिन्नदेशेषु यष्टृषु । न सा प्रयाति सांनिध्यं मूर्तत्वाद
थी पूजनीकपणुं तो प्रमाणभूत नथी, केमके ज्ञानी तो कुतरां - यादिकोने पण पूजे बे. । ४६ । वली देवता, अतिथि तथा पितृन ने प्रीति उपजावती होवाथी वेदोक्त हिंसा दूषणमाटे नथी, एम जे कयुं, ते पण सत्य ; केमके संकल्पमात्रश्री मलेला इच्छित आहारपुजलना रसना स्वादमां बे उत्तम हित जेठनुं एवा देवाने वैक्रिय शरीर होवाथी, तमोए आपेली निंदनीक पशुमांसनी आहूति ग्रहण करवामां तेने इच्छा थवीज असंभवित बे; केमके तेवी आहूति तो औदारिक शरीरवालाज लेइ शके बे. । ४७ । वली कवलाहारनो स्वीकार करवामां तो देवोना मंत्रमय शरीरपणाने बाधा वे बे; तेम तेननुं मंत्रमय शरीरपणां तमारा पक्षमां कई सिद्ध नथी तेवं नयी; केमके 'चतु
तपदज देवता बे' एवं जैमिनिना वचननुं प्रमाण बे । ४८ । वली मृगेंद कहे बे के = | शब्देतरपणामां एकी वेलाए यज्ञ करनाराज সिन
९ यदि शब्देन रत्वं मंत्र मयस्वरूपादपरस्वरूपत्वं स्याद्देहस्वरूपं भवति तदा भिन्नदेशस्थायिषु याज्ञिकेषु कथं सानिध्यं कुरुते मूर्त्तत्वात् सर्वत्र सांनिध्यस्याऽप्रसंगः ॥
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स्मदादिवत् ॥ इति (सेति देवता ) । ए । हूयमानस्य च वस्तुनो नस्मीनावमात्रोपलंनात्तउपन्नोगननिता देवानांप्रीतिःप्रलापमात्रम् । अपि च योऽयं त्रेतानिः स त्रयस्त्रिंशत्कोटिदेवतानां मुखम् “अग्निमुखा वै देवा" इति श्रुतेः । ततश्चोत्तममध्यमाऽधमदेवानामकेनैव मुखेन नुमानानामन्योच्छिष्टन्नुक्तिप्रसङ्गः । तथा च ते तुरुष्केन्योऽप्यतिरिच्यन्ते । तेऽपि तावदेकत्रैवामत्रे नुञ्जते । न पुनरेकेनैव वदनेन । ५१ । किंच एकस्मिन् वपुषि वदनबाहुल्यं वचन श्रूयते । यत्पुनरनेकशरीरेवेकं मुखमिति महदाश्चर्य । सर्वेषां च देवानामेकस्मिन्नेव मुखेऽङ्गीकृते यदा केनचिदेको देवः पूनादिनाजाराशेऽन्यश्च निन्दादिना विरा.
देशोमां होते बते, ते देवता मूर्तिवंत होवाथी आपण आदिकनी पेठे समीपपणाने प्राप्त थती नथी. (आ श्लोकमां 'सा.' ऐटने देवता समनवी.)। ४ए । वत्नी होमाती वस्तु केवल नस्मरूपज थती होवाथी, तेना नपन्नोगथी देवोने प्रीति थवी, ते तो फक्त बकवारूप . । वनी जे आ त्रेतानि , ते तेंत्रीसकोम देवताउनु मुख डे, केमके 'अनि मुख जेन्नु एवा देवो डे' एवी श्रुति जे; अने तेथी नचम, मध्यम अने अधम देवो फक्त एकज मुखवमे खाता होवाथी, बीजानुं एएं खावानो प्रसंग थशे; अने तेम थवाथी तो तेन तुर्कीउथी (मुसलमानोथी) पण बेन थाय ने, केमके ते तुर्कीन पण फक्त एकन पात्रमा जमे बे, पण कंई एकज मोहोमांवमे जमता नथी. । ५१ । वनी एकज शरीरमां घणां मोहोमां क्यायें संन्नलाय डे !! अने आ तो वत्नी अनेक शरीरोमां एकज मोहोडं !! ए तो महोटं आश्चर्य !! वती सर्व देवोर्नु एकज मुख अंगीकार करवाथी, ज्यारे कोइए एक देवने आराध्यो, अने बीजानी निंदादिकवझे ज्यारे विराधना करी, त्यारे ए
१ स्युदक्षिणा हवनीयगाईपत्यानयोऽग्नयः । इदमग्नित्रयं त्रेता ॥
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इस्ततश्चैकेनैव मुखेन युगपदनुग्रहनिग्रहवाक्योच्चारणसंकरः प्रसज्येत । ५२ । अन्यच्च मुखं देहस्य नवमो नागस्तदपि येषां दाहात्मकं तेपामेकैकशः सकलदेहस्य दाहात्मकत्वं त्रिनुवनन्नस्मीकरणपर्यवसितमेव संभाव्यत इत्यत्नमतिचर्चया' । ५३ । यश्च कारीरीयादौ वृष्ट्यादिफलेऽव्यनिचारस्तत्प्रीणितदेवतानुग्रहहेतुक नक्तः । सोऽप्यनैकान्तिकः क्वचिद् व्यभिचारस्यापि दर्शनात् । यत्रापि न व्यभिचारस्तत्रापि न त्वदाहिताहुतिनोजनजन्मा तदनुग्रहः । किंतु स देवताविशेषोऽतिशयज्ञानी खोद्देशनिवर्तितं पूजोपचारं यदा स्वस्थानावस्थितः सन् जानीते तदा तत्कर्तारंप्रति प्रसन्नच्चेतोवृत्तिस्तत्तत्कार्याणीच्छावशात्साधयति । अनुपयोगादिना पुनरजानानो जानानोऽपि वा पूजाकर्तुरनाग्यसहकतः स
कज मुखवमे एकीवखते प्रीति अने क्रोधनां वाक्यो नचारवानी गमबम थशे. । ५५ । वत्नी मुख तो शरीरनो नवमो नाग ने, अने ते पण जेननु अनिमय जे तेनुं एकेकनुं सर्व शरीरनु दाहात्मकपणुं त्रणे नुवनोने नस्मरूप करवामां रहेढुंज संन्नवे ! एवी रीते अतिच थी सर्युः । ५३ । वत्ती जे कारीरीयज्ञादिकमां वृष्टिादिक फलमां, तेनाथी खुशी थयेना देवोना अनुग्रहना हेतुवालो ने अव्यभिचार कह्यो, ते पण अनेकांतिक , केमके कोश्कवेलाए तेमां व्यभिचार पण देखायेलो जे; अने जेमां व्यनिचार नथी आवतो, तेमां पण ते करेली
आहूतिना नोजनथी नत्पन्न थयेलो तेननो अनुग्रह नथी, पण ते देवविशेष अतिशय ज्ञानी होवाथी पोतामाटे करेला पूजोपचारने, ज्यारे पोताना स्थानमा रह्यो थको जाणे , त्यारे तेना करनारप्रते प्रसन्न मनोवृत्तिवालो थयो थको, ते ते कार्यो ने इच्छाना वशथी साधे डे; . १ । अतिचसूर्या । इति द्वितीयपुस्तकपाठः = । लोके लबाडी इति प्रसिद्धिः । इति तस्य द्वितीयपुस्तकस्थपर्यायः ॥
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नसाधयति । व्यक्षेत्रकालनावादिसहकारिसाचिव्यापकस्यैव कार्योत्पादस्योपलंनात् । ५४ । स च पूजोपचारः पशुविशसनव्यतिरिक्तैः प्रकारान्तरैरपि सुकरस्तत्किमनया पापैकफनया शौनिकवृत्त्या । ५५। यच्च गलजाङ्गलहोमात्परराष्ट्रवशीकृतिसिश्या देव्याः परितोषानुमानं तत्र कः किमाह । कासांचित् दुश्देवतानां तथैव प्रत्यङ्गीकारात् ।५६। केवनं तत्रापि तस्तुदर्शनशानादिनैव परितोषो न पुनस्तमुक्त्या। निम्बपत्रकटुकतैन'धूमांशादीनां हृयमानश्व्याणामपि तनोज्यत्वप्रसङ्गात् । परमार्थतस्तु तत्तत्सहकारिसमवधानसचिवाराधकानां नक्तिरेव तत्तत्फलं जनयति । अचेतने चिन्तामण्यादौ तथादर्शनात् । ५७ ।
अने अनुपयोगादिकवमै नही जाणतो यको, अथवा जाणतो यको पण, पूजा करनारना अन्नाग्ये करीने साधतो नथी, केमके व्य, क्षेत्र, काल, अने नावादिकनी सामग्रीना संयोगनी अपेकायेन कार्यनी नत्पत्ति थाय . । ५ । वनी ते पूजोपचार पशु ने मारवाशिवाय बीजी रीते पण सेहेलास्थी करी शकाय डे, त्यारे फक्त पापरूप फनवाली आ कसाश्वृत्तिनी शी जरूर ? । ५५ । वन्नी बकराना मांसना होमथी परराज्यना वशीकरणमां सिह थयेनी एवी देवीना संतोषनुं जे अनुमान कयु, तेमां ते तें शुं कर्तुं ? केमके केटनीक कुए देवीनए तेमन अंगीकार करेलु . । ५६ । वली तेमां पण केवन ते वस्तुना दर्शन अने ज्ञानादिकवमेज (तेणीने ) संतोष थाय डे, पण कंश तेना नोजनथी संतोष थतो नथी । केमके होमातां एवां लींबमानां पत्रो, कमबुं तेल, तथा धुंवामाना अंशादिकना नोजननो पण तेथी तेपीने प्रसंग थशे. परमार्थथी तो ते ते सहकारी सामग्रीचना संयोग पूर्वक आराधन करनाराउनी नक्तिन तेते फलने उत्पन्न करे डे, के
१ । तैलारनालधूमांशादीमां । इति द्वितीयपुस्तकस्थपाठः ॥ .
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अतिथीनां तु प्रीतिः संस्कारसंपन्नपक्वान्नादिनापि साध्या । तदर्थ म होकमहाजादिप्रकल्पनं निर्विवेकतामेव ख्यापयति । ५७ । पितृणां पुन प्रीतिरनैकान्तिकी । श्राध्धादिविधानेनापि नूयसां संतानवृध्धेरनुपन
धेः । तद विधानेऽपि च केषांचिर्दन'शूकराजादीनामिवसुतरां तदर्श नात । ततश्च श्राध्धादिविधानं मुग्धजनविप्रतारणमात्रफलमेव । एए । ये हि लोकान्तरं प्राप्तास्ते तावत्स्वकृतसुकृतःकृतकर्मानुसारेण सुरनारकादिगतिषु सुखमसुखं वा लुञ्जाना एवासते । ते कथमिव तनयादिनिरावर्जितं पिएममुपन्नोक्तुं स्टहयालवोऽपि स्युः । ६० । तथा च युप्मयूथिनः परन्ति । =॥ मृतानामपि जन्तूनां । श्राधं चेत्तृप्तिकारणम् ॥ तन्निर्वाणप्रदीपस्य । स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम् ॥ इति कथं श्रा
मके अचेतन एवा चिंतामणिआदिकमां तेवू देखायेनुं . । ५७ । अतिथिउनी प्रीति तो संस्कारयुक्त पक्वान्नादिकवझे पण थर शके डे, तेथी ते नेमाटे मोटा बनद अने मोटा बकरायादिकनुं जे प्रकल्प, ते तो निर्विवेकीपणुंज स्थापन करे . । ५ । वन्नी पितृननी प्रीति तो कंज्ञ एकांत नथी; केमके श्राशदिक करवावमे पण घणाने संतानोनी वृद्धि थती नथी; अने केटलाकोने तो ते श्राशदिक कर्याविना पण गर्दन, तुंम तथा अनादिकोनी पेठे ते संतानवृध्धि सुनन्न थइ पमे ले ; माटे श्राध्धादिकनी क्रिया फक्त मुग्ध लोकोने उगवारूपज . ।। जे मृत्यु पामेला ने, तेन तो, पोते बांधेला पुण्यपापने अनुसारे देव अने नरकादिक गतिमां सुख अथवा उःखने नोगवता थकाज रहेला जे, (तो पठी) पुत्रादिकोए आपेला पिंमने खावामाटे, तेन स्टहावालाज शाना थाय ? । ६० । वत्नी तमारान सोबतीन कहे जे के =| मृत्यु पामेला प्राणीनने पण जो श्राध्ध तृप्ति करनारूं होय, तो तो बु
२ । ग शूकराजादीनां । इति द्वितीयपुस्तकस्थपाठः ।।
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१५७ इविधानाधर्जितं पुण्यं तेषां समीपमुपैतु तदन्यकृतत्वात् तस्य जमत्वानिश्चरणत्वाच्च । ६१ । अथ तेषामुद्देशेन श्रादिविधानेऽपि पुण्यं दातुरेव तनयादेः स्यादिति चेत्तन्न । तेन तज्जन्यपुण्यस्य स्वाध्यवसायाउत्तारितत्वात् । एवं च तत्पुण्यं नैकतरस्यापि । इति विचान एव विनीनं 'त्रिशंकुझातेन ॥ * ॥ [ किंतु पापानुबन्धिपुण्यत्वात तत्वतः पापमेव ] ॥ * ॥ । ६५ । अथ 'विप्रोपनुक्तं तेभ्य नपतिष्टत इतिचेत्क श्वैतत्प्रत्येतु । विप्राणामेव मेरोदरतादर्शनात् । तपुषि च तेषां संक्रमः अज्ञातुमपि न शक्यते । नोजनावसरे तत्संक्रमलिङ्गस्य कस्याप्य
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जा गयेता दीपकनी शिखाने तेल वधारे !! =॥ माटे श्राध्धक्रियादिकथी मेलवेखं पुण्य तेनी समीपे शीरीते जाय ? केमके ते पुण्य तो अन्ये करेलु, जम तथा चरणोविनानुं . । ६१ । ते पितृडने नदेशी ने श्राध्यादिक करवामां पण, देनार एवा पुत्रादिकनेज पुण्य थाय, एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी; केमके तेणे तो तेथी नुत्पन्न थतां पुण्यने पोताना अध्यवसायश्री नतारी नाखेल्नु ; अने एवी रीते ते पुण्य, बन्नेमाथी एकेने पण मनी शक्युं नही; अने एवी रीते त्रिशंकुना दृष्टांतनी पेठे ते पुण्य तो वच्चेज रखमी पम्युं !! ॥ * ॥ [ परंतु पापानुबंधि पुण्य होवाथी तत्वथी ते पापज डे] ॥ * ॥ । ६२ । ब्राह्मणोए खाधेनुं ते पितृन ने मले बे, एम जो कहीश, तो ते माने कोण? केमके तेथी तो ब्राह्मणोन पेट फुलेखं देखाय डे; तथा ते ब्राह्महोना शरीरमां ते पितृन पेसी जाय, एवी श्रध्धा करवी पण अशक्य ले; केमके नोजनवखते तेन ने तेमां पेसीजवानुं कं पण चिन्ह देखातुं ..१ त्रिशंकुनामराजा वसिष्ठ शापाच्चंडालो जातो विश्वामित्रं पुराधाय कृतकतुस्त्यक्तभूतलः शक्रकोपेन स्वर्गानिवर्त्तितांतराल एव स्थितः। तस्मान्न द्यौरपि न भूरपि तस्योपभुक्त्यै तद्वत् ॥ ॥ ॥ इतिपाठो द्वितीयपुस्तके नोपलभ्यते ॥ २ । विप्रोपभुने अन्य उपतिष्टले । इति द्विती. यपुस्तकपाठः ॥
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- १५७ नवलोकनात् । विप्राणामेव च तृप्तेः सादात्करणात् यदि परं त एव स्थूलकवतैराकुलतरमतिगानिदयन्तः प्रेतप्राया इति मुधैव श्रादिविधानं । ६३ । यदपि गयाश्राझज्ञादियाचनमुपलभ्यते तदपि तादृशविप्रलंनकविनङ्गशानिव्यन्तरादिकृतमेव निश्चयं । ६५ । यदप्युदितं आगमश्चात्र प्रमाण मिति । तदप्यप्रमाणं । स हि पौरुषेयो वा स्यादपौरुषेयो वा । पौरुषेयश्चेत् सर्वकृतस्तदितरकतो वा । आद्यपके युष्मन्मतव्याहतिस्तथा च नवत्सिशन्तः । ६५ । =॥ अतीन्श्यिाणामर्थानां । सादादृष्टा न विद्यते ॥ नित्येन्यो वेदवाक्येन्यो । यथार्थत्वविनिश्चयः ॥= वितीयपदे तु तत्र दोषवत्कर्तृत्वेनाऽनाश्वासप्रसङ्गः।६६। अपौरुषेयश्चेन्न संनवत्येव स्वरूप निराकरणात् तुरङ्गशृङ्गवत् । तथाा
नथी ; अने ब्राह्मणोने थती तृप्ति तो सादात् देखाय ; अने तेथी उनटा तेज मोटा मोटा कोलीआन्थी ऊटपट अत्यंत गृध्धीपणाथी खाता थका पिशाचसरखा देखाय ! माटे श्राध्धादिक करवू फोकटन . । ६३ । वत्नी गयाश्राध्धादिकनुं जे याचन कराय , ते पण तेवा ठगारा विनंगशानी व्यंतरादिकनुं करेलुज जाणवु. । ६३ । वली ने एम कडं के, अहीं आगमप्रमाण , ते पण अप्रमाणज डे; केमके ते आगम पौरुषेय ? के अपौरुषेय ? जो पौरुषेय होय, तो ते सर्वनु बनावेलु डे ? के असर्वजनुं बनावेलु डे ? पेहेला पदना अंगीकारमां, तो तमारा मतनुं खंमन थशे; तेमाटे तमारा सिझांतमां कह्यु डे के, । ६५ । =॥ अतींश्यि पदार्थोनो सादात् जोनार (कोइ) नथी, अने नित्य एवां वेदवाक्योथी यथार्थपणानो निश्चय थाय . =|| अने बीजा पदमां तो दोषयुक्त कर्तापणायें करीने तेमां अविश्वासनो प्रसंग थशे. । ६६ । जो कहीश के अपौरुषेय डे, तो ते घोमाना शीगमांनी पेठे स्वरूपनिराकरणथो संभवतुंन नथी; ते कहे . नक्ति ए
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१५ए क्तिर्वचनमुच्यत इति चेति पुरुषक्रियानुगतं रूपमस्य । एतक्रियाडजावे कथं नवितुमर्हति । ६७ । नचैतत्केवलं क्वचिद्ध्वनउपनन्यते । नपलब्धावप्यदृश्यवक्नाशङ्कासंनवात् । तस्माद्यश्चनं तत्पौरुषेयमेव । वर्णात्मकत्वात्कुमारसंभवादिवचनवत् । वचनात्मकश्च वेदस्तथाचाहुः । =॥ ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गों। वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च ॥ पुंसश्च ताल्वादि ततः कथं स्यादपौरुषेयोऽयमितिप्रतीतिः॥ इति ।। श्रुतेरपौरुषेयत्वमुररीकृत्यापि तावन्नवनिरपि तदर्थव्याख्यानं पौरुषेयमेवाङ्गीक्रियते । अन्यथाऽग्निहोत्रं 'जुहुयात्स्वर्गकाम इत्यत्र श्वमांसंनदयेदिति किं नार्थों नियामकाऽनावात् । ततो वरं सूत्रमपि पौरुषेयमन्यु
टले बोलाय जे ते वचन, अने तेनुं स्वरूप तो पुरुष क्रियाने अनुगत ययेई डे; अने जो ते पुरुषक्रिया न होय, तो ते वचच शीरीते बनी शके ? । ६७ । वली ते वचन कयांयें पण केवन ध्वनि करतुं मालुम पतुं नथी; अने कदाच ते, मालुम पमे, तो तेमां पण (को) अदृश्य वक्तानी शंकानो संनव थाय ; माटे जे वचन , ते कुमारसंजवादिकनां वचनोनी पेठे अदरमय होवाथी पौरुषेयज डे; अने वेद पण वचनमय बे, तेमाटे कहे जे के =॥ अदरोनो समूह तालुआदिकस्थानोथी नत्पन्न थयो , अने वेद अकरमय , ए तो प्रगटन डे; वत्नी ते ता आदिकस्थानो पुरुषने होय जे, माटे ते वेद अपौरुषेय बे, एवी प्रतीति क्याथी थाय? ॥ । ६ । वत्ती श्रुतिनुं अपौरुषेयपणुं अंगीकार करीने, तमो पण तेना अर्थनुं व्याख्यान तो पौरुषेयन अंगीकार करो बो, अने जो एम न होय तो, 'अग्रिहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः' ए वाक्यमां 'कुतरानुं मांस भक्षण करवू' एवो अर्थ नियामकना (कर्ताना ) अन्नावथी शुं न थाय? माटे तेथी तो सूत्रने
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१ अग्निहा श्वा तस्य उत्रं मांसं ॥
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.... -.-१६० पगतं । ६ए । अस्तु वाऽपौरुषेयस्तथापि तस्य न प्रामाण्यम् । 'श्रातपुरुषाधीना हि वाचां प्रमाणतेति । एवं च तस्याऽप्रामाएये तउक्तस्तदनुपातिस्मृतिप्रतिपादितश्च हिंसात्मको यागश्राशदिविधिः प्रामाण्यविधुर एवेति । 90 | अथ योऽयं 'न हिंस्यात्सर्वन्नतानि ' इत्यादिना हिंसा निषेधः । स औत्सर्गिको मार्गः । सामान्यतो विधिरित्यर्थः । वेदविहिता तु हिंसा अपवादपदं । विशेषतोविधिरित्यर्थः। ततश्चाऽपवादेनोत्सर्गस्य बाधितत्वान्न श्रौतो हिंसाविधिर्दोषायोत्सर्गापवादयोरपवादो विधिर्बलीयानिति न्यायात् । नवतामपि हि न खल्वेकान्तेन हिंसानिषेधः । तत्तत्कारणे जाते पृथिव्यादिप्रतिसेवनानामनुझानात् । 'ग्ला
पण पौरुषेय मानवु श्रेष्ट . । इए। अथवा नले कदाच अपौरुषेय रहो, तोपण ते प्रमाणिक नथी; केमके वचनोनुं प्रमाणिकपणुं आप्त पुरुषोने आधीन ; अने एवीरीते ते वेदनुं अप्रमाणपणुं होते बते, तेणे कहेलो, अने तेने अनुसरनारी स्मृतिनए अंगीकार करेलो हिंसामय यज्ञ अने श्राशदिकनो विधि प्रमाणरहितज . । ७०। ( हवे
आहीथी आचार्यमहाराज वादी तरफथी शंका करी ने कहे डे के )'सर्व जीवोने मारवा नही' इत्यादिक पाठवमे जे आ हिंसानो निषेध करेलो , ते औत्सर्गिकमार्ग में, एटले सामान्यविधि ले; अने वेदोक्त हिंसा तो अपवादमार्ग , एटले विशेषविधि जे; माटे अपवाद मार्गे करीने उत्सर्गमार्ग बाधित होवाथी श्रुतिमां कहेलो हिंसाविधि दोषयुक्त नथी, केमके उत्सर्ग अने अपवादविधिमां अपवादविधि बसवान् डे, एवो न्याय ले. वनी तमारामां पण कं एकांत हिंसानो निषेध नथी, केमके ते ते कारण पड्ये पृथ्वीकायादिकना प्रतिसेवननी अनुशा आपत्नी ने ; तथा ग्लानादिकमाटे अचालते आधाकर्मी (आ१ प्रक्षीणरागादि दोष उपदेष्टा ॥ २ । ग्लानाद्यर्थमसंस्तरे । इति द्वितीयपुस्तकपाठः ॥
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नाद्यसंस्तरे आधाकर्मादिग्रहणनणनाच्च । अपवादपदं च याज्ञिकीहिंसा । देवतादिप्रीतेः पुष्टालम्बनत्वादिति परमाशङ्कय स्तुतिकार आह नोत्सृष्टमित्यादि । ७१ । ( अन्यार्थमिति मध्यवत्ति पदं ममरुकमणिन्यायेनोजयत्रापि सम्बन्धनीयम् ) अन्यार्थमुत्सृष्टं मन्यस्मै कार्याय प्रयुक्तं उत्सर्गवाक्यमन्यार्थप्रयुक्तेन वाक्येन नापोद्यते । नाऽपवादगोचरीक्रियते । यमेवार्थमाश्रित्य शास्त्रेषूत्सर्गः प्रवर्तते । तमेवार्थमाश्रित्याऽपवादोऽपि प्रवर्तते । तयोर्निम्रोन्नता दिव्यवहारवत्परस्परसापेक्षत्वेनैकार्थसाधनविषयत्वात् । ७२ । यथा जैनानां संयमपरिपालनार्थं नवकोटि विशुशहारग्रहणमुत्सर्गः । तथाविधश्व्य क्षेत्रकालनावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराऽनावे पञ्चकादियतनयाऽनेषणीयादिग्रहणमपवादः । सोऽपि
हारत्र्यादिक) लेवानुं कह्युं छे. तेम यज्ञसंबंधि हिंसा पण अपवादरूप बे, केमके ते देवता दिकोनी प्रीतिना पुष्ट आलंबनरूप बे; एवी रीते ते वादीतरफनी शंका करीने स्तुतिकार ( आचार्यमहाराज ) 'नोत्सृष्टं ' इत्यादिक पाठवमे हवे तेनुं समाधान करे बे. । ७१ । ( मूलकाव्यमां वच्चे रहेला ‘अन्यार्थं’ पदने ममरूमां रहेला मणिना न्यायें करी ने बन्ने बाजुए जोमी लेवुं . ) अन्यकार्यमाटे जोमेनुं नत्सर्गवाक्य, अन्यमाटे जोमेलां वाक्ये करीने अपवादगोचर कराय नही. जेज अर्थने
श्रीने शास्त्रोमां उत्सर्ग प्रवर्ते बे, तेज अर्थने श्रीने अपवाद पण प्रवर्ते बे; केमके तेन नीचानंचाच्या दिक व्यवहारनीपेठे परस्पर सापेक्षपणायें करीने एकार्थने साधनारा बे. । ७२ । जेम जैनोने संयम पाल्लवामाटे नव कोटीए शु आहार ग्रहण करवारूप नृत्सर्गमार्ग बे, अने तेवा प्रकारना इव्य, क्षेत्र, काल ने जावसंबंध यापदानमां पमेलाने ज्यारे बीज़ो इलाज न होय, त्यारे पंचकादिक यतनापूर्वक यदि ग्रहण करवाने अपवादमार्ग बे ; अने ते पण
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--- --१६२ च संयमपरिपालनार्थमेव । न च मरणैकशरणस्य गत्यन्तराऽनावोsसिद इति वाच्यम् =| 'सव्वत्थसंजमं संजमा अप्पाणमेव रक्खिज्जा ।। मुच्चर अश्वाया पुणो विसोही नयाऽविरई ॥ ॥= इत्यागमात् । ७३। तथा आयुर्वेदेऽपि यमेवैकं रोगमधिकृत्य कस्यांचिदवस्थायां किंचिदस्त्वपथ्यं । तदेवाऽवस्थान्तरे तत्रैव रोगे पथ्यम् । =॥ उत्पद्यते हि साऽवस्था । देशकानामयान् प्रति ॥ यस्यामकार्य कार्यं स्यात् कर्मकार्य तु वर्जयेत् ॥ इति वचनात् । ४ । यथा बनवदादेवरिणो लङ्घनं । दीणधातोस्तु तहिपर्ययः । एवं देशाद्यपेक्ष्या ज्वरिणोऽपि दधिपानादि योज्यं । तथा च वैद्याः । =|| कालाऽविरोधि निर्दिष्टं ।
फक्त संयम पालवामाटेज डे ; वत्ती मृत्युनी अणीएज पहोंचेलाने माटे बीजा नपायनो अनाव असिइ , एम नही बोलवू; अर्थात् अपवादशिवाय बीजो उपाय , एम न बोलवू. =॥ सर्व अर्थोथी संयमर्नु रहण करवू, अने संयमथी आत्मानुं रक्षण करवू; अतिपातोथी (दोषोथी-अतिचारोथी) मूकाय डे, अने फरी ने शुक्षि थाय डे, अने तेथी ते अविरति नथी. । ७३ । वत्नी आयुर्वेदमां पण अमुक रोगने
आश्रीने कोश्क अवस्थामां ने कं वस्तु अपथ्य , तेन वस्तु अवस्थांतरमां तेज रोगमां पथ्य . कडुं ने के, =॥ देशकात संबंधि रोगोप्रते एवी एवी अवस्था थाय ने के, जेमां अकार्य, ते करवानायक थाय, अने करवानुं कार्य गोमवू पमे. । ७४ । जेम अत्यंत ताववाला माटे लांघण ने, अने दीणधातुवालाने तेथी ननटुं जे. एवीज रीते देशादिकनी अपेक्षाये ताववालाने पण दहीपीवाआदिक जाणी लेवु. तेमाटे वैद्यो कहे जे के =|| कालमा विरोध न आवे एवी रीते, एटले
१ सर्वार्थतः संयमं । संयमतः आत्मानं एव रक्ष्यात् ॥ मुच्यते अतिपातेभ्यः । पुनः वि. शुद्धिः न या अविरतिः ॥
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ज्वरादौ लङ्घनं हितम् ॥ तेऽनिलश्रमक्रोध-शोककामकृतज्वरान् ॥= । ७५ । एवं च यः पूर्वमपथ्यपरिहारो यश्च तत्रैवाऽवस्थान्तरे तस्यैव परिनोगः । स खलूनयोरपि तस्यैव रोगस्य शमनार्थ इति सिइमेकविषयत्वमुत्सर्गाऽपवादयोरिति । ७६ । नवतां चोत्सर्गोऽन्यार्थोऽपवादश्चान्यार्थः । न हिंस्यात्सर्वभूतानीत्युत्सर्गो हि उर्गतिनिषेधार्थः । अपवादस्तु वैदिकहिंसाविधिदेवताऽतिथि पितृप्रीतिसंपादनार्थः । अतश्च परस्परनिरपेदत्वे कथमुत्सर्गोऽपवादेन बाध्यते । तुल्यबत्नयोर्विरोध इति न्यायात् । निन्नार्थत्वेऽपि तेन तद्वाधनेऽतिप्रसङ्गात् । ७७ । न च वाच्यं वैदिकहिंसाविधिरपि स्वर्गहेतुतया उर्मतिनिषेधार्थ एवेति । तस्योmm वखतनी अपेदाये, वायु, श्रम, क्रोध, शोक अने कामथी उत्पन्न थयेला ज्वरादिकविना बीजा ज्वरादिकमां लांघणने हितकारी कही ले. । ७५। एवी रीते पूर्वे ने अपथ्यनो परिहार, अने तेमांन अवस्थांतरमां तेनोज जे परिनोग, ते खरेखर बन्ने तेज रोगने दूर करवामाटे बे, माटे एवी रीते नत्सर्ग अने अपवाद बन्नेनुं एक विषयपणुं सि थयु. । ७६ । अने तमारो तो उत्सर्ग पण अन्यमाटे , अने अपवाद पण अन्यमाटे . ' सर्व प्राणीनने हणवां नही' ए नत्सर्गवाक्य तो उर्गतिना निषेध माटेने, अने वैदिकहिंसाविधिरूप अपवाद तो देवता, अतिथि अने पितृननी प्रीतिसंपादन करवा माटे छे; माटे परस्पर निरपेक्षपणुं होते बते अपवादवझे नत्सर्ग ने केम बाध आवे ? केमके 'तु. ल्यबत्नमां विरोध होय' एवो न्याय ; तेम निन्नार्थपणामां पण तेवो तेना बाधमां अतिप्रसंग थाय . । ७७ । वली एम पण नही बोलq के वेदोक्तहिंसा विधि पण वर्गना हेतुपणायें करीने उर्गतिना निषेधमाटेज डे, केमके उपर कहेली युक्तिवमे तेनुं स्वर्गहेतुपणुं त्रुटीपमे जे, तेम तेविना पण बीजा नपायोवमे पण ते मनी शके जे; अने
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____ -१६।क्तयुक्त्या स्वर्गहेतुत्वनिर्लोठनात् । तमन्तरेणापि च प्रकारान्तरैरपि तत्सिहिनावात् । गत्यन्तराऽनावे ह्यपवादपदकदीकारः । ७ । न च वयमेव यागविधेः सुगतिहेतुत्वं नाङ्गीकुर्महे । किंतु नवदाप्ता अपि । यदाह व्यासमहर्षिः । =॥ पूजया विपुलं राज्य-मग्निकार्येण संपदः॥ तपः पापविशुःश्चर्थ । झानं ध्यानं च मुक्तिदम् ॥= । उए । अत्रानिकार्यशब्दवाच्यस्य यागादिविधेरुपायान्तरैरपि लन्यानां संपदामेव हेतुत्वं वदन्नाचार्यस्तस्य सुगतिहेतुत्वमर्थात्कदर्थितवानेव । तथा च स एव नावाग्निहोत्रं झानपालीत्यादिश्लोकैः स्थापितवान् । तदेवं स्थिते तेषां वादिनां चेष्टामुपमया दूषयति । वपुत्रेत्यादि । ७ । परेषां नवत्प्रणीतवचनपराङ्मुखानां स्फुरितं चेष्टितं स्वपुत्रघातान्नृपतित्वलिप्सा
ज्यारे बीजो उपाय न होय, त्यारे अपवादमार्गनो अंगीकार कराय . । ७ । वत्नी केवल अमेज यज्ञविधिनुं सुगतिहेतुपणुं अंगीकार करता नथी, एटर्बुज नही, परंतु तमारा आप्तो पण (तेमज कहे ) (तेमाटे तमारा.आप्त ) व्यासमहर्षि कहे जे के =| पूजावमे विस्तीर्ण राज्य मले डे, अग्निकारिकावमे संपदा मने दे, तप ते पापोनी विशुझिमाटे , अने ज्ञान तथा ध्यान मुक्ति आपनारां बे. । अए । अहीं अग्निकार्य शब्दें करीने कहेली यज्ञादिविधिनुं, बीजा उपायोवमे पण मन्त्री शके एवी संपदाउनुज हेतुपणुं कहेता थका व्यासाचार्य, अर्थात् तेनुं सुगतिनुं हेतुपएं दूरज करता हवा ; तथा तेज व्यासजीए 'ज्ञानपाली' इत्यादिक श्लोकोवळे नावाग्निहोत्रनुं स्थापन कर्यु ले. माटे एम होवाथी ते वादीननी चेष्टाने 'स्वपुत्र' इत्यादिक वाक्योवमे ( स्तुतिकार ) दूषणयुक्त करे . । 00 | पर एटले (हे प्रनु ! ) तमोए रचेनां वचनोने नही माननारा, एवा ते वादिननु चेष्टित पोताना पुत्रने मारीने राज्य मेलववाना मनोरथतुल्य जे. जेम को मूर्ख माणस -
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सब्रह्मचारि । निजसुत निपातनेन राज्यप्राप्तिमनोरयसदृशं । यथा किल कश्चिदविपश्चित्पुरुषः परुषाशयतया निजमङ्गजं व्यापाद्य राज्यश्रियं प्राप्तुमीहते । न च तस्य तत्प्राप्तावपि पुत्रघातपातक कलङ्कपङ्कः क्वचिदपयाति । एवं वेदविहितहिंसया देवतादिप्रीतिसिवपि हिंसासमुत्थं डुष्कृतं न खलु पराहन्यते । ८१ । अत्र च लिप्साशब्दं प्रयुञ्जानः स्तुतिकारो झापयति । यथा तस्य प्रराशयस्याऽसदृशतादृशऽष्कर्म निर्माणनिर्मूलितसत्कर्मणो राज्यपाप्तौ केवलं समीहामात्रमेव । न पुनस्तत्सिन्धिः । ८२ । एवं तेषां डर्वादिनां वेदविहितहिंसा' मनुतिष्टतामपि देवतादिपरितोषणे मनोराज्यमेव । न पुनस्तेषामुत्तमजनपूज्यत्वमिन्श दिदिवौकसां च तृप्तिः । प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वादिति काव्यार्थः ॥
ष्टाशयपणायें करी ने पोताना पुत्रने मारीने राज्यलक्ष्मी मेलववाने 5च्छे बे, तथा तेने तेनी प्राप्ति थाय तोपण पुत्रने मारवाना पापरूपी कलंकनो पंक कोइ पण वेलाए जातो नथी; एवी रीते वेदोक्तहिंसाTh देवतादिकनी प्रीतिनी सिद्धि याय तोपण हिंसाथी उत्पन्न थयेलुं sarala नथी । ८१ । हीं स्तुतिकार 'लिप्सा' शब्दनो प्रयोग करी एम जणावे बे के, जेम तेवी रीतनुं योग्य कार्य कवाव निर्मूल करेल बे सत्कर्म जेणे, एवा ते अर्बुदने राज्यप्राप्तिमां केवल इच्छामात्रज बे; पण तेनी सिद्धि यती नथी ; । ८२ । एवी रीते वेदोक्तहिंसाने कालांतरमां यनारा ईष्टोपायरूप जाणीने करता, एवा पण ते डर्वादीनने, देवतादिकोने संतोषवामां फक्त मननुं राज्यज बे, पण तेज ने उत्तम लोकोथी पूजनीकपणुं यतुं नथी, तेम इंशदिक देवोनी तृप्ति पण ती नथी; केमके पूर्वे कहेली युक्तिवमे तेमाटेनुं खं
२ कालांतरभावीष्टोपायतापूर्वकं कुर्वतामपि ॥ २ । नृ पूज्यत्वे देवतादिपरितोषणेच | इति द्वितीयपुस्तकपाठः ॥
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१६६ ।३ । सांप्रतं नित्यपरोक्शानवादिनां मीमांसकन्नेदनहानामेकात्मसमवायिज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादिनां च यौगानां मतं विकुढयन्नाह
स्वार्थावबोधदम एव बोधः __ प्रकाशते नार्थकथाऽन्यथा तु ।। परे परेज्यो जयतस्तथापि
प्रपेदिरे झानमनात्मनिष्ठम् ॥ १॥ झान डे ते पोताने अने पदार्थ ने (एम बनेने ) जणाववामां समर्थन प्रतिनासन थाय , अने जो तेम न होय, तो पदार्थोनी कथा पण न होय; तोपण अन्योए, परना नयथी, ज्ञान आत्मनिष्ट नथी, एम अंगीकार कर्यु ले. ॥१५॥
।१। बोधो झानं स च स्वार्थावबोधनम एव प्रकाशते । स्वस्यात्मस्वरूपस्यार्थस्य च पदार्थस्य योऽवबोधः परिच्छेदस्तत्र कम एव समर्थ एव प्रतिनासत इत्यन्ययोगव्यवच्छेदः । । प्रकाशत इति क्रिययाऽवबोधस्य प्रकाशरूपत्वसिझेः सर्वप्रकाशानां तु स्वार्थप्रकाशकत्वेन
मन करेलु डे; एवी रीते अग्यारमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
।३। हवे नित्यपरोदज्ञानवादी एवा मीमांसकोना एक नेदरूप नटोनुं एकात्मवमे जोमाएला झानांतरवेद्यज्ञानवादीउना अने यौगोना मतनुं खमन करता थका कहे जे. . ।। बोध एटले ज्ञान ने ते, पोतानो अने पदार्थनो जे परिच्छेद, तेमां समर्थन प्रतिनासन थाय डे, एम कहीने अन्ययोगनो व्यवच्छेद कह्यो.।। 'प्रकाशते' ए क्रियापदवझे करीने 'अवबोधने' प्रकाशात्मकपणानी सिदि ले केमके सर्व प्रकाशोने पण खार्थप्रकाशकपणायें क
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... १६७ बोधस्यापि तत्सिदिः । ३ । विपर्यये दूषणमाह । नार्थकथान्यथात्विति । अन्यथेति अर्थप्रकाशनेऽविवादात् । झानस्य स्वसंविदितत्वाऽनन्युपगमेऽर्थकथैव न स्यात् । अर्थकथा पदार्थसंबन्धिनी वार्ता सदसद्रूपात्मकं स्वरूपमिति यावत् । तु शब्दोऽवधारणे निन्नक्रमश्च स चार्थकथया सह योजित एव । ४ । यदि हि ज्ञानं स्वसंविदितं नेष्यते । तदा तेनात्मझानाय झानान्तरमपेरणीयं । तेनाप्यपरमित्याद्यनवस्था । ततो झानं तावत्स्वावबोधव्यग्रतामनं । अर्थस्तु जमतया स्वरूपझापनाऽसमर्थः । इति को नामार्थस्य कथामपि कथयेत् । ५। तथाप्येवं ज्ञानस्य वसंविदितत्वे युक्त्या घटमानेऽपि परे तीर्थान्तरीयाः झानं कर्मतापन्नमनात्मनिष्ठं । न विद्यते आत्मनः स्वस्य निष्ठा निश्चयो यस्य तदनात्म
रीने झानने पण ते स्वार्थप्रकाशकपणानी सिदि. । ३ । हवे तेथी नत्नटापणामां दूषण कहे . छानने पदार्थोना प्रकाशमां जो स्वसंवेदनपणुं निर्विवादपणे अंगीकार न करीये, तो पदार्थोनी कथा पण होश् शके नही 'अर्थकथा एटने पदार्थसंबंधि वार्ता, अर्थात् सदसरूप स्वरूप' अहीं 'तु' शब्द निश्चय अर्थमां अने निन्नक्रमवालो जे, अने ते अर्थकथानी साथेन जोमाएलो . । । जो ज्ञानने खसंविदित न मानीये, त्यारे तेनावमे तेना पोताना झानमाटे बीनां झाननी जरुर पमे, अने तेमाटे वत्नी त्रीजा झाननी ( जरुर पके) अने तेथी
वटे अनवस्थादोष आवी उन्ने. तेथी छान ले ते पोतानाज अवबोधनी व्यग्रतामां मना रहे डे, अने पदार्थ तो जमपणायें करीने पोतार्नु खरूप जणाववाने असमर्थ थाय , माटे पड़ी पदार्थनी कथा पण कोण कहे ?।। एवीरीते झाननुं स्वसंविदितपणुं युक्तिथी घटते ते पण तीर्थातरीनए झानने कर्मपणाने प्राप्त थयेनुं एटले अनात्मनिष्ट, अर्थात् नथी पोतानो निश्चय जेने ते अनात्मनिष्ट एटने स्वसंवेदनरूप
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----- १६७ निष्ठं अस्वसंविदितमित्यर्थः । प्रपेदिरे प्रपन्नाः । ६। कुत इत्याह । परेन्यो नयतः । परे पूर्वपदवादिनस्तेन्यः सकाशात् ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वं नोपपद्यते । स्वात्मनि क्रियाविरोधादित्युपाख्नसंन्नावनासंनवं यन्नयं । तस्मात्तदाश्रित्येत्यर्थः । इत्यमदरगमनिकां विधाय नावार्थः प्रपंच्यते । ७ । नहास्ताव दिदं वदन्ति । यत् झानं स्वसंविदितं न नवति स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । न हि सुशिवितोऽपि नटबटुः स्वं स्क. न्धमधिरोढुं पटुः । न च सुतीदणाप्यसिधारा स्खं बेत्तुमाहितव्यापारा । ततश्च परोदमेव ज्ञानमिति । ७ । तदेतन्न सम्यक् । यतः किमुत्पत्तिः स्वात्मनि विरुध्यते इप्तिर्वा । यद्युत्पत्तिः सा विरुध्यतां । न हि वयमपि झानमात्मानमुत्पादयतीति मन्यामहे । अथ इप्तिर्नेयमात्मनि विरुद्ध ।
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नही ; एवी रीतना शानने अंगीकार कर्यु जे. । ६ । शामाटे ? ते कहे जे. परना नयथी पर एटले जे पूर्वपदवादीन, तेन तरफना 'पोतानेविषे क्रियाना विरोधथी छानने स्वसंवेदनपणुं नथी' एवी रीतना नपालंनथी नत्पन्न थयेला नयथी (तेनए शान, स्वसंवेदनपणुं स्वीकार्यु नथी.) एवी री ते अदार्थ करीने हवे नावार्थ कहे . । ७ । ते नट्टो एम कहे जे के, पोतानेविषे क्रियाना विरोधथी, ज्ञान स्वसंविदित होतुं नथी ; केमके सारीरीते शीखेलो एवो पण नटनो बोकरो कं पोताना खन्नापर चमवाने शक्तिवान् यतो नथी ; तेम अत्यंत तीदण एवी पण तलवारनी धारा पोताने छेदी शक्ती नथी; माटे ज्ञान परोक्षज . ।। एवी रीतनुं नट्टोनुं ते कहेवू युक्त नथी; केमके (ते झानने ) पोताने विष उत्पत्तिसंबंधि विरोध आवे छे ? के इप्तिसंबंधि ( जाणपणासंबंधि ) विरोध आवे जे? जो नत्पत्ति संबंधि विरोध
आवतो होय, तो नले आवे, केमके अमो पण एम नथी मानता, के झान पोताने उत्पन्न करे . हवे जो कहेशो के इप्तिसंबंधि ( विरोध
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१६ए तदात्मनैव ज्ञानस्य स्वहेतुल्य नत्पादात् । प्रकाशात्मनेव प्रदीपालोकस्य । ए। अथ प्रकाशात्मैव प्रदीपालोक उत्पन्न इति परप्रकाशकोऽस्तु । आत्मानमप्येतावन्मात्रेणैव प्रकाशयतीति कोऽयं न्याय इति चेत्सत्कि तेन वराकेणाऽप्रकाशितेनैव स्थातव्यम् । आलोकान्तराधाऽस्य प्रकाशेन नवितव्यं? [ १०। प्रथमे प्रत्यदबाधः। हितीयेऽपि सैवाऽनवस्थापत्तिश्च । ११ । अथ नासौ खमपेक्य कर्मतया चकास्तीत्यस्वप्रकाशकः स्वीक्रियते । आत्मानं न प्रकाशयतीत्यर्थः । प्रकाशरूपतया नत्पन्नत्वात्स्वयंप्रकाशत एवेति चेञ्चिरंजीव । न हि वयमपि झानं कर्मतयैव प्रतिनासमानं स्वसंवेद्यं ब्रूमः । झानं स्वयं प्रतिन्नासत इत्यादावकर्मकस्य तस्य चकासनात् । १२ । यथा तु शानं जानामीति कर्मतयापि
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आवे छे) तो तेवो इप्तिसंबंधि विरोध पोतानामां आवतो नथी, केमके प्रकाशात्मवमे जेम दीपकना प्रकाशने तेम तदात्मवमे झानने पोताना हेतुनथी उत्पत्ति . । ए। प्रकाशरूपेज दीपकनो प्रकाश उत्पन्न थयो, माटे ते परने प्रकाशनारो था ? पण तेटलावमेज पोताने पण प्रकाशे ने, ए न्याय ते केवो? एम जो कहीश, तो ते बिचारो शुं वगर देखातोज रहेशे ? अथवा तेनो देखाव को बीजा प्रकाशथी थशे? । १० । पहेला पदमां तो प्रत्यद बाध आवे जे; अने बीजा पदमां पण तेज प्रत्यक्षबाध तथा अनवस्था आवे . । ११ । ते दीपक पोताने अपेदीने कर्मपणावमे प्रकाशतो नथी, माटे तेने अमो अखप्रकाशक, एटने पोताने प्रकाशतो नथी, एम स्वीकारीये बीये, पण प्रकाशरूपपणायें करीने नत्पन्न थयेलो होवाथी पोते प्रकाशेन बे, एम जो तुं कहेतो होय, तो तुं चिरंजीव ? केमके अमो पण ज्ञानने कर्मपणावमेज प्रतिनासन थतुं, एवं स्वसंवेद्य कहेता नथी; कारणके झान पोते प्रकाशे ने, इत्यादिकमां ते अकर्मकरूपे जणाय . । १२ ।
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२७०तनाति । तथा प्रदीपः स्वं प्रकाशयतीत्ययमपि कर्मतया प्रथित एवं । १३ । यस्तु स्वात्मनि क्रियाविरोधो दोष ननावितः । सोऽयुक्तोऽनुनवसिऽऽर्थे विरोधाऽसिझेः । घटमहं जानामीत्यादौ कर्तृकर्मवत् - तेरप्यवनासमानत्वात् । १५ । न चाऽप्रत्यदोपत्ननस्याऽर्थदृष्टिः प्रसिध्यति । न च ज्ञानान्तराउपतनसंन्नावना । तस्याप्यनुपलब्धस्य प्र. स्तुतोपलंनप्रत्यदीकाराऽनावात् । नपत्रंनान्तरसंन्नावने चाऽनवस्था । अर्थोपलंन्नात्तस्योपलंनेऽन्योऽन्याश्रयदोषः । १५ । अथार्थप्राकट्यमन्यथा नोपपद्यते यदि ज्ञानं न स्यादित्यर्थापत्त्या तउपलंन इति चेन्न । तस्या अपि झापकत्वेनाऽझाताया इापकत्वाऽयोगात् । अर्थापत्त्यन्त.
'झानने हुं जाणुं बुं' एवी रीते कर्मपणावमे जेम ते शोने डे, तेम 'दीपक पोताने प्रकाशे डे' एवी रीते ते पण कर्मपणावमे प्रसिहज जे. । १३ । वत्नी जे, ज्ञानमां पोतामा क्रियानो विरोध कह्यो, ते अयुक्त ने ; केमके अनुभवसि अर्थमां विरोधनी अप्राप्ति जे; कारणके 'हुँ घमाने जाएं बुं' इत्यादिकमां कर्ताकर्मनी पेठे इप्तिनुं पण अवनासन थाय . । १४ । वली अप्रत्यद शाननी दृष्टि पदार्थोप्रते चालती नथी, तेम बीजां शानथी तेना नपतंननी संन्नावना थती नथी; केमके अनुपलब्ध एवा तेने पण, आ चालता नपर्वनने प्रत्यद करवानोअन्नाव जे; तेम जो बीजा नपलंननी संन्नावना करीये, तो अनवस्था थाय ने ; तथा अर्थना नपत्तंनथी जो तेनो नपलंन मानीये, तो अन्योऽन्याश्रय दोष आवे . । १५। जो शान न होय, तो बीजी रीते अर्थन प्रकटपणुं न थाय, माटे अर्थापत्तिथी, तेनी प्राप्ति के, एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी ; केमके झापकपणावमे नही जणा. येत्री एवी ते अर्थापत्तिने पण झापकपणानी अप्राप्ति जे; तेम बीजी १ विराधे थाऽविरोधे च । प्रमाणं कारणं मतं ॥ प्रतीयते चेदुभयं । विरोधः कोऽयमुच्यते ॥
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१७१ रात्तज्ज्ञानेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषापत्तेस्तदवस्थः परिनवः । तस्मादोंन्मुखतयेव खोन्मुखतयापि ज्ञानस्य प्रतिनासात्वसंविदितत्वं । १६ । नन्वनुभूतेरनुन्नाव्यत्वे घटादिवदननुभूतित्वप्रसङ्गः । प्रयोगस्तु झानमनुनवरूपमप्यनुन्नतिन नवति अनुन्नाव्यत्वाद् घटवत् । अनुन्नाव्यं च नवनिरिप्यते ज्ञानं स्वसंवेद्यत्वात् । १७ । नैवं । ज्ञातुतृित्वेनैवानुनूतेरनुनूतित्वेनैवानुनवात् । नचाऽनुनूतेरनुन्नाव्यत्वं दोषः । अर्थापेदयाऽनुभूतित्वात्स्खापेक्या चाऽनुन्नाव्यत्वात्स्वपितृपुत्रापेक्ष्यैकस्य पुत्रत्वपितृत्ववशिरोधाऽनावात् । १७ । अनुमानाच्च स्वसंवेदनसिस्तिथाहि
mmmmmmmmmmmmmmmm mm अर्थापत्तिथी तेणीनुं ज्ञान मानवामां अनवस्था अने अन्योऽन्याश्रय दोष आववाथी तेवोज परानव आवी नन्ने जे; माटे पदार्थप्रते जेम, तेम पोताप्रते पण ज्ञान प्रतिन्नासतुं होवाथी, तेने स्वसंवेदनपणुं डे. ।१६। (अहीं वादी शंका करे डे के)-अनुन्नवनारने अनुन्नाव्यपणुंघटाववामां घटादिकनी पेठे, नही अनुनवनारनो प्रसंग थशे. ते शंकानो प्रयोग नीचेप्रमाणे . शान अनुन्नवरूप होय, तोपण अनुन्नवनार थाय नही, केमके ते घटनी पेठे अनुन्नाव्य (अनुन्नवानारूं) ; अने ते स्वसंवेद्य होवाथी तेने तमो अनुन्नवानारुं मानो डो. । १७ । ( हवे वादीनी ते शंकानो टीकाकार उत्तर आपे ने के)-तेम नथी. जाणनारनो जाणनारपणावमे जेम, तेम अनुन्नवनारनो अनुन्नवनारपणावमे करीनेज अनुन्नव थाय जे. वत्नी अनुन्नवनारने अनुन्नवानार कहेवामां दोष नथी ; केमके पदार्थोनी अपेक्षाये अनुन्नवनार डे, अने पोतानी अपेदाये अनुन्नवानार ; केमके पोताना पिता अने पुत्रनी अपेक्षाये एकनेज पुत्रपणानी अने पितापणानी पेठे तेमां विरोध आवतो नथी. । १७ । वत्नी अनुमानप्रमाणथी छानने स्वसंवेदननी सिदि जे; ते कहे जे. दीपकनी पेठे प्रकाशक होवाथी शान पोते प्रकाशतुं
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। ज्ञानं स्वयं प्रकाशमानमेवार्थ प्रकाशयति । प्रकाशकत्वात्प्रदीपवत । संवेदनस्य प्रकाश्यत्वात्प्रकाशकत्वमसिझमितिचेन्न । अज्ञाननिरासादिहारेण प्रकाशकत्वोपपत्तेः । १ए । ननु नेत्रादयः प्रकाशका अपि खं न प्रकाशयन्तीति प्रकाशकत्वहेतोरनैकान्तिकतेति चेन्नात्र नेत्रादिन्निरनैकान्तिकता। तेषां 'लब्ध्युपयोगलदणनावेन्श्यिरूपाणामेव प्रकाशकत्वात् । नावेन्श्यिाणां च स्वसंवेदनरूपतैवेति न व्यनिचारः । तथा संवित् स्वप्रकाशार्थप्रतीतित्वात् । यः स्वप्रकाशो न नवनि नासावर्थप्रतीतिर्यथा घटः । २० । तदेवं सिझेऽपि प्रत्यदाऽनुमानान्यां ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वे सत्संप्रयोगे इन्श्यिबुझिजन्मलदणं झानं । ततोऽर्थ
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थकुंज अर्थने प्रकाशे . वत्नी संवेदनने प्रकाश्यपणुं होवाथी, तेने प्रकाशकपणुं असिइ , एम जो कहीश, तो ते अयुक्त ; केमके अज्ञानने दूर करवाआदिकवमे तेने प्रकाशकपणानी प्राप्ति जे. ।१ए। नेत्रादिको प्रकाशक उतां पण पोताने प्रकाशतां नथी, माटे (तमारा) प्रकाशकपणाना हेतुने अनेकांतिकपणुं आवे , एम जो कहीश, तो अहीं नेत्रादिकोवमे अनेकांतिकपणुं नथी, केमके लब्ध्युपयोगरूप ते भावनि नेज प्रकाशकपणुं बे, अने नावइंजिने स्वसंवेदनस्वरूप. पणुंन , माटे तेमां दूषण नथी; तेवी रीते ज्ञान , केमके ते पोताना प्रकाशपूर्वक पदार्थनी प्रतीति करावे ठे; जे खप्रकाशक न होय, ते घटनी पेठे पदार्थनी प्रतीति करावनार न होय. । २० । माटे एवीरीते प्रत्यद अने अनुमानप्रमाणवमे प्रयोगपूर्वक ज्ञाननु स्वसंविदितपणुं सिम होते बते पण “ इंडिय अने बुझिथी नत्पत्तिना लक्षणवानुं ज्ञान, तेथी अर्थनी प्रकटता, तेथी अर्थापत्ति, अने तेवमे प्रवर्तक छाननी
१ उपयोगः स्वस्वविषय श्रोत्रद्रियादिविषयावरणक्षयोपशमजनितार्थग्रहणशक्तिस्वरूपलब्धीं
द्रियानुसारेणात्मनो व्यापारः ॥
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प्राकट्यं । तस्मा'दर्थापत्तिस्तया प्रवर्तकझानस्योपत्ननः । इत्येवंरूपा त्रिपुटीप्रत्यदकल्पना नहानां प्रयासफलैव । २१ । यौगास्त्वाहुः। ज्ञानं
खाऽन्यप्रकाश्यं । ईश्वरज्ञानाऽन्यत्वे सति प्रमेयत्वात् घटवत्। समुत्पन्नं हि ज्ञानमेकात्मसमवेताऽनन्तरोत्पदिष्णुमानसप्रत्यदेणैव लक्यते । न पुनः खेन । नचैवमनवस्था । अर्थावसायि विज्ञानोत्पादमात्रेणैवार्थसिशै प्र. मातुः कृतार्थत्वात् । अर्थज्ञान जिज्ञासायां तु तत्रापि ज्ञानमुत्पद्यत एवेति । १२ । तदयुक्तं । पतस्य प्रत्यनुमानबाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । तथाहि । २३ । विवादास्पदं ज्ञानं स्वसंविदितं ज्ञान
प्राप्ति." एवी रीतनी ते नहोनी त्रिपुटीप्रत्यदकल्पना फक्त प्रयासरूपज . । १। वली यौगमतवाला कहे जे के 'शान ले ते पोताथी अन्यवमे प्रकाशनारुं बे, केमके ते घटनी पेठे ईश्वरज्ञानथी अन्यपणुं होते ते प्रमेय जे.' नत्पन्न थयेधुं ज्ञान, एकात्मसाथे जोमायेला तुरतन नत्पन्न थता मानसप्रत्यदवमेन जणाय , पण पोतावळे जणातुं नथी. वली एम मानवाथी अनवस्था आवती नथी ; केमके पदार्थने जणवनारां शाननी उत्पत्तिमात्रवमेज अर्थसिदिमां प्रमाता कृतार्थ थाय ले; अने पदार्थज्ञाननी जिज्ञासावखते तो, त्यां पण झान नत्पन्न थायज डे. । २२। ( हवे ते योगमतवालाने टीकाकार कहे जे के )-तमोए जे उपरप्रमाणे कडं, ते तमारूं कहेवू अयुक्त जे; केमके प्रत्यनुमानवमे पदने बाध आवतो होवाथी, हेतुने कालात्ययापदिष्ट नामनो दोष
आवे जे. ते कहे . । २३ । नेमाटे विवाद चाले डे, ते झान, ज्ञान होवाथी ईश्वरझाननी पेठे स्वसंविदित ; पंत्री आ दृष्टांत तमो वादीनने कंज्ञ खातरी विनानुं नथी ; तेम जैनोए पण पुरुषविशेषने ईश्व
१ अनुपपद्यमानार्थदर्शनादुपपादकभूतार्थातरकल्पनमापत्तिः॥ २ स्वस्मादन्यनप्रकाश्यं ।। ३ यथा किलार्थज्ञानं मानसप्रत्यक्षेण ज्ञातं । तदन्येन । । तदप्यन्येनेति ॥
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त्वादीश्वरज्ञानवत् । न चायं वाद्यप्रतीतोदृष्टान्तः । पुरुषविशेषस्येश्वरतया जैनैरपि स्वीकृतत्वेन तज्ज्ञानस्य तेषां प्रसिदिः । २४ । व्यर्थ विशेष्यश्चात्र तव हेतुः । समर्थविशेषणोपादानेनैव साध्यसिः । अग्निसिको धूमत्वे सति व्यत्वादितिवत् ईश्वरझानाऽन्यत्वादित्येतावतैव गतत्वात् । नहीश्वरझानादन्यत्स्वसंविदितमप्रमेयं वा झानमस्ति । यद्व्यवच्छेदाय प्रमेयत्वादिति क्रियेत । नवन्मते तदन्यज्ञानस्य सर्वस्य प्रमेयत्वात् ।२५॥ अप्रयोजकश्चायं हेतुः सोपाधित्वात् । साधनाऽव्यापकः साध्येन समव्याप्तिश्च खल्लूपाधिरनिधीयते । तत्पुत्रत्वादिना श्यामत्वे साध्ये शाकाद्याहारपरिणामवत् । २६ । नपाधिश्चात्र जमत्वं । तयाहीश्चरङ्गानाऽन्यत्वे प्रमेयत्वे च सत्यपि यदेव जनं स्तंनादि । तदेव स्वस्मादन्येन प्रकाश्यते
marwarrrrrरतरिके स्वीकारेन होवाथी; ते झाननी तेन्ने (पण ) प्रसिदि डे. । २४ । वत्नी अहीं तारो हेतु व्यर्थ विशेष्यरूप डे, केमके अग्निनी सिभिमां 'धूमपणुं होते ते इव्य होवाथी' ए हेतुनी पेठे, समर्थविशेषणना नपादानवमेज साध्यनी सिडि थाय डे; तेटनामाटे 'ईश्वरझानान्यत्वात् ' एटलोज हेतु देवानी जरुर हती ; केमके ईश्वरझानशिवाय बीजुं स्वसंविदित अथवा अप्रमेय झान नथी, के जेने जूई पामवामारे प्रमेयत्वात् ' एवो हेतु करवो पमे; तेम तमारा मतमां ते ईश्वरझानशिवायना सर्व ज्ञानने प्रमेयपणुं बे. । २५। वत्नी आ हेतु उपाधियुक्त होवाथी अप्रयोजक . तत्पुत्रत्वादिकवमे श्यामपणुं साधवामां नेम शाकादिकनो आहारपरिणाम, तेनी पेठे साधननी साथे जे अव्याप्ति अने साध्यनी साथेन व्याप्ति, ते उपाधि कहेवाय . । २६ । वली अहीं जमपणुं ए उपाधि ले ; ते कहे जे. ईश्वरझानथी अन्यपणुं अने प्रमेयपणुं होते बते पण जे जमस्तनादिक डे, तेन पोताथी अ
१ क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामष्टः पुरुषविशेष ईश्वर इति ॥
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| स्वप्रकाशे परमुखप्रेदित्वं हि जमस्य लक्षणं । न च ज्ञानं जमस्वरूपं । यतः साधनाडव्यापकत्वं जमत्वस्य साध्येन समव्याप्तिकत्वं चास्य स्पष्टमेव । जाड्यं विहाय स्वप्रकाशाऽनावस्य । तं च त्यक्त्वा जाड्यस्य क्वचिदप्यदर्शनादिति । 29 । यच्चोक्तं “ समुत्पन्नं हि ज्ञानमेकात्मसमवेतेत्यादि । तदप्यसत्यम् । इत्थमर्थज्ञानतज्ज्ञानयोरुत्पद्यमानयोः क्रमाऽनुपलक्षणात् । १० । आशूत्पादात् क्रमाऽनुपलक्षणमुत्पलपत्रशतव्यतिभेदवदितिचेत्तन्न । जिज्ञासाव्यवहितस्यार्थज्ञानस्योत्पादप्रतिपादनात् । न च ज्ञानानां जिज्ञासासमुत्पाद्यत्वं घटते । जिज्ञासितेष्वपि योग्यदेशेषु विषयेषु तडत्पादप्रतीतेः । २९ । न चाऽर्थज्ञानमयोग्यदे - शम् | आत्मसमवेतस्यास्य समुत्पादादिति जिज्ञासामन्तरेणैवार्थज्ञाने ज्ञा
-,
न्यवमे प्रकाशाय बे; केमके पोताने प्रकाशवामां त्र्यन्यनुं मुख जोइ बेस, ए जमनुं लक्षण बे ; मने ज्ञान कई जमरूप नथी; माटे तेनुं साधनप्रते व्यापकपणुं, ने जमपणानुं साध्यसार्थे व्याप्तिपणुं स्पष्टज बे; केमके जमपणाने बोमीने स्वप्रकाशनो अभाव, ने स्वप्रकाशना भावने बोमीने जमपणुं कयांयें पण देखातुं नथी । २७ । वली ' उत्पन्न ययेत्तुं ज्ञान इत्यादिक ( एकवीसमा त्र्यंकनी अंदर ) जे कह्युं, ते पण त्र्प्रसत्य बे; केमके एवी रीते उत्पन्न थता एवा त्र्यर्थज्ञानाने ते ज्ञाननो क्रम लक्ष्मां आवतो नथी । २८ । एकसो कमलना पत्रोने एकदम वींधवानी पेठे, जलदी उत्पन्न थवाथी क्रम लक्ष्मां आवतो नथी, एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी; केमके ( वच्चे) जिज्ञासाना व्यवधानवाला अर्थज्ञाननी उत्पत्ति तें स्वीकारी बे. वली ज्ञानोने जिज्ञासावमे समुत्पाद्यपणुं घटतुं नथी; केमके - जिज्ञासित एवा पण योग्य देशोवाला विषयोमां तेनी उत्पत्तिनी प्रतीति े । २९ । वल्ली अर्थज्ञान कई अयोग्यदेशवालुं नथी, केमके
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नोत्पादप्रसङ्गः । ३० । यथोत्पद्यतां नामेदं । को दोष इति चेन्न | नन्वेवमेव तज्ज्ञानज्ञानेऽप्यपरज्ञानोत्पादप्रसङ्गस्तत्रापि चैवमेवायम् । इत्यपरापरज्ञानोत्पादपरंपरायामेवात्मनो व्यापारान्न विषयान्तरसंचारः स्यादिति । तस्माद्यज्ज्ञानं तदात्मबोधं प्रति अनपेक्षितज्ञानान्तरव्यापारं । यथा गोचरान्तरग्रा हिज्ञानात्प्राग्ना विगोचरान्तराग्राहिधारावा हिज्ञानप्रबन्धस्यान्त्यज्ञानं । ३१ । ज्ञानं च विवादाध्यासितं रूपादिज्ञानमिति न ज्ञानस्य ज्ञानान्तरज्ञेयता युक्तिं सहत इति काव्यार्थः ॥
|३२| ये ब्रह्माद्वैतवादिनोऽविद्याऽपरपर्यायमायावशात्प्रतिनासमानत्वेन विश्वत्रयवत्तिवस्तुप्रपञ्चमपारमार्थिकं समर्थयन्ते तन्मतमु
तेनी आत्मसमवेत नृत्पत्ति बे; तेथी जिज्ञासाविनाज अर्थज्ञानमां ज्ञाननी उत्पत्तिनो प्रसंग थाय बे. । ३० । जले ते उत्पन्न याय, तेमां शुं दोष बे ? एम जो कहीश, तो एवीजरी ते ते ज्ञानना ज्ञान माटे पण बीजां ज्ञाननी उत्पत्तिनो प्रसंग यशे, अने तेमाटे पण एवीज रीते प्रसंग यशे; तथा एवी रीते अपर पर ज्ञाननी उत्पत्तिनी परंपरामांज पोतानो व्यापार थवाथी, बीजा विषयोमां तेनो संचार थशे नही; माटे जे ज्ञान े ते, आत्मज्ञानप्रते बीजा ज्ञानना व्यापारनी अपेक्षा राखतुं नथी. ( कोनी पेठे ? तोके ) विषयांतरने ग्रहण करनारां ज्ञाननी पेहेलां
नारा विषयांतरने ग्रहण करनारा धाराबंध ज्ञानना प्रबंधना अंत्य झाननी पेठे. । ३१ । वल्ली या विवादवानुं ज्ञान, रूपादिकनुं ज्ञान बे ; माटे एवी रीते ज्ञाननुं बीजां ज्ञानथी जाणवापणुं युक्तिवानुं नथी. एवीरीते बारमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
| ३२ | हवे ब्रह्मशिवाय बीजु कंई नथी, एम कहेनारा जे वादीन, विद्या, के जेनुं बीजुं नाम माया बे, तेवमे प्रतिमासन यवायें करीने, त्रणे जगतोमां वर्तता वस्तुप्रपंचने सत्यतरिके स्थापन करे बे,
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पहसन्नाह ।
माया सती चेद्यतत्वसिदि
रथाऽसती हन्त कुतः प्रपञ्चः । मायैव चेदर्थसहा च तत्कि
___ माता च वन्ध्या च जवत्परेषाम् ॥ १३ ॥ माया जो बती होय, तो बे तत्वोनी सिद्धि थाय बे, अने जो अन्ती होय, तो (आ सघनो) प्रपंच क्याथी थाय ? माया पण थशे ! अने पदार्थो ने देखामवामां समर्थ पण थशे! माटे एम संनवे जे के (हे प्रन्नु !) आपनी आझाने नही माननारा एवा ते वादीननी माता पण थशे! अने वांऊणी पण थशे!! ॥ १३ ॥
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.. ।। तैर्वादिनिस्ताविकात्मब्रह्मव्यतिरिक्ता या मायाऽविद्या प्रपञ्चहेतुः परिकल्पिता । सा सद्रूपाऽसद्रूपा वा घ्यी गतिः। सती सद्रुपा चेत्तदा ध्यतत्वसिदिः । हावयवौ यस्य तद्व्यं । तथाविधं यतत्वं परमार्थस्तस्य सिदिरयमर्थः । एकं तावत्वदनिमतं तात्विकमात्मब्रह्म वितीया च माया तत्वरूपा सद्रूपतयाङ्गीक्रियमाणत्वात् । तथा
worrrrrrrries तेना मतनी हांसी करताथका कहे डे.
।। ते वादीनए तात्विक आत्मब्रह्मथी जूदी, एवी जे माया एटने अविद्याने (जगत्ना ) प्रपंचना हेतुरूप कल्पेली ठे, ते कांतो सद्रूप होय, अथवा कांतो असद्रूप होय ; एम बे प्रकार होय, हवे जो सद्रूप होय, तो बे तत्वोनी सिइि थाय. जेना बे विनागो होय, ते 'क्ष्य' कहेवाय, अने तेवो बे प्रकारनो जे परमार्थ, तेनी सिधि थाय ; एवो नावार्थ ; अर्थात् तें मानेधुं एक तो तात्विक आत्मब्रह्म, अने बीजी तत्वरूप माया, केमके तेणीने पण तें सद्रूपे अंगीकार करी ने ; अने तेम
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धाऽदैतवादस्य मूले निहितः कुगरः ।। (अथेति पदान्तरद्योतने) यदि असती गगनांनोजवदवस्तुरूपा सा माया । ततो (हन्तेत्युपदर्शने आश्चर्ये वा) कुतः प्रपञ्चःअयं त्रिन्नुवनोदर विवरवर्तिपदार्थसार्थरूपःप्रपञ्चः कुतः । न कुतोऽपि असंनवीत्यर्थः । मायाया अवस्तुत्वेनाऽन्युपगमात् । अवस्तुनश्च तुरङ्गशृङ्गस्येव सर्वोपाख्याविरहितस्य सादा क्रियमाणेशविवर्तजननेऽसमर्थत्वात् । ३ । किलेन्द्रनालादौ मृगतृष्णादौ वा मायोपदर्शितार्थानामर्थक्रियायामसामर्थ्य दृष्टम् । अत्र तु तउपलनात्कथं मायाव्यपदेशः श्रदीयताम् ।। अथ मायापि नविष्यति । अर्थक्रियासमर्थपदार्थोपदर्शनदमा च नविष्यति । इति चेत्तर्हि स्ववचनविरोधः । न हि नवति माता च वन्ध्या चेति । एनमेवार्थ हृदि निधायो
मानवाथी तो (हे वादी ! तें तारा) अद्वैतवादना मूत्रमा कुहामो मार्यो
!।। अही 'अथ' ने ते, पढ़ांतर देखामवामाटे ले. जो ते माया आकाशकमननीपेठे असद्रूप होय, तो आ त्रणे जगत्ना नदररूप विवरमां रहेलो पदार्थोना समूहरूप प्रपंच क्याथी होय ! क्यांथी पण न होय, अर्थात् असंनवित थाय; (अहीं 'हंत' ने ते उपदर्शन माटे अथवा आश्चर्य अर्थमां बे.) केमके मायाने (तें) अवस्तु तरिके स्वीकारेली जे; अने अवस्तु तो तुरंगशृंगनी पेठे सर्व कथाओथी रहित होवाथी, सादात् कराता, एवा आ विवर्तने उत्पन्न करवामां असमर्थ . ।३। वनी ई
जानादिकमां अथवा मृगतृष्णादिकमां तो मायाए देखामेला पदार्थोंनुं अर्थक्रियामां असमर्थपणुं देखायुं , तो पठी अहीं तेना नपलं. नथी मायाना व्यपदेशनी श्रश शीरी ते कराय? ।। माया पण थशे, अने अर्थक्रियामां समर्थ एवा पदार्थों ने देखामवामां पण समर्थ थशे, एम जो कहीश, तो तारा पोताना वचनमा विरोध आवशे; केमके 'माता अने वांऊणी' एम बनी शकतुं नथी, एवी रीतनाज (न
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१७५ तराईमाह । मायैवचेदित्यादि । ५। (अत्रैवकारोऽप्यर्थः । अपिश्च समुच्चयार्थोऽग्रेतनचकारश्च । तथा नन्नयोश्च समुच्चयार्थयोर्योगपद्यद्योतकत्वं प्रतीतमेव । यथा रघुवंशे “ ते च प्रापुरुदन्वन्तं । बुबुधे चादिपूरुषः” इति) । ६ । तदयं वाक्यार्थः । माया च नविष्यति अर्थसहा च नविष्यति । अर्थसहा अर्थ क्रियासमर्थपदार्थोपदर्शनमा (चेजब्दोऽत्र योज्यते ) इति चेत् । एवं परमाशङ्कय तस्य स्ववचन विरो. धमुन्नावयति । । तत्कि नवत्परेषां माता च वन्ध्या च (किमिति संन्नावने ) संन्नाव्यते एतत् । नवतो ये परे प्रतिपदास्तेषां नवत्परेषां नवक्ष्यतिरिक्तानां नवदाझाटथग्नूतत्वेन तेषां वादिनां यन्माता चनवि
पर कहेला) अर्थ ने हृदयमां धारीने 'मायैव चेद्' इत्यादिकवमे (टीकाकार ) हवे उत्तरार्ध वर्ण वे . । ५। अहीं 'एवकार' 'अपिना' अर्थमां जे; अने ते 'अपि' 'समुच्चयना' अर्थमां ; तेम
आगननो 'चकार' पण 'समुच्चयना' अर्थमां जे; तेम बे 'समुच्चयार्थोनुं ' एकी वखते जणावq प्रसिइज जे. जेम रघुवंशमां “ते च प्रापुरुदन्वंतं । बुबुधे चादिपूरुषः” (एवी रीतना श्लोकना उत्तरार्धमां बन्ने समुच्चयार्थवाला चकारोने एकी वखते वापरेला ले.) । ६ । माटे एवो वाक्यार्थ डे के-माया पण थशे, अने अर्थसहा पण थशे; अर्थसहा एटने अर्थक्रियामां समर्थ एवा जे पदार्थो, तेन ने देखामवामां समर्थ. (चेत् शब्द अहीं जोमाय बे.) एटले 'जो तुं नपर प्रमाणे कहीश.' एवी रीते वादी तरफनी शंका करी ने, तेना पोताना वचनमा आवतो विरोध देखामे . ।। (अहीं 'किं' संभावन अर्थमा .) एटने के (हे प्रन्नु!) आपथी पर एवा ते वादीन- 'माता अने वांगणी' ए वाक्य शुं संनवे !! अर्थात् आपना प्रतिपदिन, एटने आपनी आझाने नही स्वीकारवावमे आपथी व्यतिरिक्त थयेला,
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प्यतिवंध्या च नविप्यतीत्पुपहासः ।। माता हि प्रसवर्मिणी वनितोच्यते । वन्ध्या च तहिपरीता। ततश्च वन्ध्या चेत्कथं माता? माता चेत्कथं वन्ध्या? तदेवं मायाया अवास्तव्या अप्यर्थसहत्वेऽङ्गीक्रियमाणे प्रस्तुतवाक्यवत स्पष्ट एव स्ववचनविरोधः । इति समासार्थः । व्यासार्थस्त्वयं । ए। ते वादिन इदं प्रणिगदन्ति तात्विकमात्मब्रह्मैवास्ति =॥ “ सर्व खस्विदं ब्रह्म । नेह नानास्ति किंचन ॥ आरामं तस्य पश्यन्ति । न तत्पश्यति कश्चन" ||= 'इतिसमयात् । १० । अर्थप्रपञ्चो मिथ्यारूप: प्रतीयमानत्वाद्यदेवं तदेवं । यथा शुक्तिशकले कलधौतं तथा चायं तस्मात्तथा तदेतार्त्त । तथाहि । ११ । मिथ्यारूपत्वं तैः कीदृग् विव- .
एवा ते वादीननी माता पण थशे! अने वांजणी पण थशे! एवी रीते उपहास करेलो . ।। प्रसवधर्मवानी वनिता माता कहेवाय डे, अने तेथ। विपरीतधर्मवाली वंध्या (वांऊणी ) कहेवाय ; माटे जो वंध्या होय, तो माता केम होय? अने जो माता होय, तो वंध्या केम होय? माटे एवीरीते असत्य एवी पण ते माया- अर्थसहपणुं स्वीकारवाथी नपर कहेलां वाक्यनी पेठे, स्पष्टज तेना पोताना वचनमां विरोध आवे जे. एवी रीते शब्दार्थ कह्यो. विशेष अर्थ नीचेप्रमाणे .। ए। ते वादीन एम कहे जे के, तत्वरूप तो आत्मब्रह्मज डे. तेउना शास्त्रमा कर्वा डे के =|| आ सघर्बु ब्रह्मज , पण अहीं बीजें नानाप्रकारचं कंश पण नथी; तेना आरामने जुए बे, पण तेने कोश जोतुं नथी. =|| १७ | अर्थप्रपंच मिथ्यारूप , केमके तेवी प्रतीति थाय जे. जे एम ले, ते तेम जे. जेम बीपना टुकमामां रु', तेम आ, अने तेथी तेम, अने तेटलामाटे ते वार्तारूप . ते कहे . ।११। तेनए केवु मिथ्यारूप कडुं ले ? शुं अत्यंत अनतापणुं कह्यु ? के
. १ । इति न्यायात् । इति द्वितीयपुस्तकपाठः ॥
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१७१ वितं । किमत्यन्ताऽसत्वमुताऽन्यस्याऽन्याकारतया प्रतीतत्वम् । आहोखिदनिर्वाच्यत्वं । प्रथमपोऽसत्ख्यातिप्रसङ्गः । तिीये विपरीतख्यातिस्वीकृतिः । तृतीये तु किमिदम निर्वाच्यत्वं । १२। निःस्वन्नावत्वं चेनिसः प्रतिषेधार्थत्वे वनावशब्दस्यापि नावाऽन्नावयोरन्यतरार्थत्वेऽस
ख्यातिसत्ख्यात्यन्युपगमप्रसङ्गः । न्नावप्रतिषेधेऽसत्ख्या तिरन्नावप्रतिषेधे सत्ख्यातिरिति । १३ । प्रतीत्यगोचरत्वं निःस्वन्नावत्वमिति चेदत्र विरोधः। स प्रपञ्चो हि न प्रतीयते चेत्कथं धर्मितयोपात्तः । कथं च प्रतीयमानत्वं हेतुतयोपात्तं । तथोपादाने वा कथं न प्रतीयते । १५ । यथा प्र. तीयते न तथेतिचेत्तर्हि विपरीतख्यातिरियमन्युपगता स्यात् । किं चे
wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwws अन्यनु अन्यआकारपणावमे प्रतीतिपणुं कर्तुं ? अथवा अनिर्वाच्यपणुं कह्यु ? पेहेला पदमां तो अबतुं कहेवानो प्रसंग थशे. बीजा परमां विपरीत कहेवानो स्वीकार थशे. अने त्रीजा परमां तो ते अ.. निर्वाच्यपणुं शुं ले ?। १५ । जो कहेशो के स्वनावरहितपणुं, तो 'निस्ना' प्रतिषेधार्थपणामां स्वन्नावशब्दने पण नाव अने अन्नावमांथी एक अर्थपणुं होते उते, असत् कहेवाना अथवा सत् कहेवाना वीकारनो प्रसंग थशे ; अर्थात् नावना प्रतिषेधमां असत् कहेवानो, अने अन्नावना प्रतिषेधमां सत् कहेवानो प्रसंग थशे. । १३ । प्रतीतिमां नही आववाश्री स्वनावरहितपणुं , एम जो कहीश, तो तेमां विरोध आवे ले; केमके जो ते प्रपंच प्रतीत नथी थतो, तो तेने धर्मिपणावमे शामाटे स्वीकार्यो ? अने प्रतीयमानपणाने हेतुरूपे शामाटे स्वीकार्यु ले? अथवा तेवा उपादानमां ते केम प्रतीत यतुं नथी ? । १५ । जेम प्रतीत थाय , तेम ते नथी, एम जो कहीश, तो आ विपरीत कहेवानो स्वीकार थशे. वनी प्रपंच- आ अनिर्वाच्यपणुं प्रत्यदप्रमाणथी
१ प्रसिद्धो हिधर्मी उपन्यस्यतेऽनुमाने ॥
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१८२ यमनिर्वाच्यता प्रपञ्चस्य प्रत्यक्षवाधिता । घटोऽयमित्याद्याकारं हि प्रत्यक्ष प्रपञ्चस्य सत्यतामेव व्यवस्यति । घटादिप्रतिनियतपदार्थपरिच्छेदात्मनस्तस्योत्पादा दितरेतर विविक्तवस्तूनामेव च प्रपञ्चशब्दवाच्यत्वात् ॥ १५॥ or प्रत्यक्षस्य विधायकत्वात्कथं प्रतिषेधे सामर्थ्यं । प्रत्यक्षं हि इदमितिवस्तुवरूपं गृह्णाति । नान्यत्स्वरूपं प्रतिषेधति । = | आदुर्वि धातृ प्रत्यक्षं । न निषेध्धृ विपश्चितः । नैकत्व यागमस्तेन । प्रत्यक्ष प्रबाध्यते || = इति वचनात् । इतिचेन्न । अन्यरूप निषेधमन्तरेण तत्स्वरूपपरिच्छेदस्याप्यसंपत्तेः । पीतादिव्यवच्छिन्नं हि नीलं नीलमिति गृहीतं भवति । नान्यथा । केवलवस्तुस्वरूपप्रतिपत्तेरेवान्यप्रतिषेधप्रतिपत्तिरूपत्वात् । मुएमनूतनग्रहणे घटाऽनावग्रहणवत् । तस्माद्यया
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बाधित ; म घमो बे ' इत्यादिक आकारज प्रत्यक्षरी ते प्रपंचनी सत्यताज जणावे ; केमके घटादिक चोकस पदार्थोंने जूदापामवारूप तेनी उत्पत्ति बे ने इतरेतर विविक्त वस्तुननेज प्रपंचशब्दनुं वाच्यपणुं बे. । १५ । प्रत्यक्षने तो विधायकपणुं होवाथी, प्र तिषेधमां तेनुं सामर्थ्य शीरीते यर शके ? केमके प्रत्यक्ष तो 'आ' एम वस्तुस्वरूपने ग्रहण करे बे, पण बीजा स्वरूपने कंइ निषेधतुं नथी. = | विद्वानो प्रत्यक्षने विधायक कहे बे, पण निषेधक कहेता नथी; तेथी प्रत्यक्ष्वमे एकत्व प्रागम बाधित यतो नथी. = | एवं शास्त्रनुं वचन बे, एम जो तुं कहीश, तो ते युक्त नथी; केमके अन्यस्वरूपना निषेध विना तेना स्वरूपना परिच्छेदनी पण प्राप्ति बे; कारके पीला यादिकथी जिन्न थयेलुं जे लीलुं, तेज 'लीलुं' एम ग्रहण कराय बे; पण तेथी विपरीत रीते नही; केमके खाली भूतल ग्रहण करते बते, घटना भावना ग्रहणनीपेठे, केवल वस्तुस्वरूपना अंगीकारथीन अन्यनो प्रतिषेध स्वीकारी शकाय बे. माटे प्र
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१०३ प्रत्यदं विधायकं प्रतिपन्नं । तथा निषेधकमपि प्रतिपत्तव्यम् । १६ । अपि च विधायकमेव प्रत्यदमित्यङ्गीकृते यथा प्रत्यकेण विद्या विधीयते । तथा किं नाऽविद्यापीति । तथा च द्वैतापत्तिः । ततश्च सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः । तदमी वादिनोऽविद्याविवेकेन सन्मानं प्रत्यवात्प्रतीयन्तोऽपि न निषेधकं तदिति ब्रुवाणाः कथं नोन्मत्ताः? इति सिई प्रत्यक्षबाधितः पद इति । १७ । अनुमानबाधितश्च । प्रपञ्चो मिथ्या न नवति असहिनदणत्वादात्मवत् । प्रतीयमानत्वं च हेतुर्ब्रह्मात्मना व्यनिचारी । स हि प्रतीयते । न च मिथ्या । अप्रतीयमानत्वे त्वस्य तहिषयवचसामप्रवृत्तेर्मूकतैव श्रेयसी । १७ । साध्य विकलश्च दृष्टान्तः।
त्यदने जेम विधायक स्वीकार्यु ले, तेम तेने निषेधक पण स्वीकारी लेवु. ।१६। वली प्रत्यद विधायकज ने, एम अंगीकार करते बते, जेम प्रत्यदवमे विद्यानुं विधान कराय , तेम अविद्या, पण शामाटे विधान न कराय? अने तेम करवाथी दैतनी प्राप्ति थर, अने तेथी प्रपंच सुस्थित थयो; अने तेथी आ वादीन अविद्याना विवेकवमे सन्मात्रने प्रत्यकथी प्रतीत करता थका पण ते निषेधक नथी, एम बोलता थका, शामाटे उन्मत कहेवाय नही? एवी रीते (तेउनो) पद प्रत्यदप्रमाणथी बाधित डे, एम सिह थयु.। १७ । वली ते पद अनुमान प्रमाणथी पण बाधित जे. प्रपंच मिथ्या नथी, केमके ते आत्मानी पेठे अबताथी उलटो , (अर्थात् उतो .) वली 'प्रतीयमान होवाथी' एवो जेतें हेतु मूक्यो , ते पण ब्रह्मात्मसाथे व्यनिचारवालो ने ; केमके ते प्रपंच तो प्रतीत थाय बे, मिथ्या नथी, वनी तेना अप्रतीयमानपणामां तो, ते संबंधि वचनो पण उचराय तेवू नदी होवाथी (ते वादीनए) मूंगा रहेकुंज सारं . । १७ । वत्नी (तारूं) दृष्टांत पण साध्यविकल डे; केमके डीपना टुकमाना रूपामां पण
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ཀ བཀཀ བ་ ཀ ཤ པའ་
शुक्तिशकलकलधौतेऽपि प्रपञ्चान्तर्गतत्वेन अनिर्वचनीयतायाः साध्यमानत्वात् । १ए। किंचेदमनुमानं प्रपञ्चानिन्नमनिन्नं वा । यदि निन्नं तर्हि सत्यमसत्यं वा । यदि सत्यं तर्हि तहदेव प्रपञ्चस्यापि सत्यत्वं स्यादतवादप्राकारे खंमिपातात्। अथाऽसत्यं तर्हि न किंचित्तेन साधयितुं शक्यमवस्तुवात् । २० अनिन्नं चेत्प्रपञ्चवन्नावतया तस्यापि मिथ्यारूपत्वापत्तिः। मिथ्यारूपं च तत्कथं स्वसाध्यसाधनायाऽनम् ? एवं च प्रपञ्चस्यापि मिथ्यारूपत्वाऽसिझेः कथं परमब्रह्मणस्तात्विकत्वं स्याद्यतो बाह्यार्थाऽनावो नवेदिति । २१। अथवा प्रकारान्तरेण सन्मात्रलकणस्य परमब्रह्मणः साधनं दूषणं चोपन्यस्यते । ननु परमब्रह्मण एवैकस्य परमार्थसतो विधिरूपस्य विद्यमानत्वात् प्रमाण विषयत्वं । अपरस्य हिती
ल प्रपंचांतर प्राप्त थवावमे करीने अनिर्वचनीयपणुं साधी शकाय डे. ।१ए । वनी आ अनुमान प्रपंचथी निन्न ? के अभिन्न डे ? जो निन्न , तो सत्य ले ? के असत्य ? जो सत्य बे, तो तेनी पेठे प्रपंचने पण सत्यपणुं थाय, केमके तेथी अद्वैतवादरूपी किल्लो त्रुटीपमे ने; मो कहीश के, असत्य , तो ते अवस्तु होवाथी कंई पण साधी शकशे नही. । २०। जो कहीश के ते अनुमान प्रपंचथी अनिन्न बे, तो तेने पण प्रपंचस्वन्नावपणुं थवाथी, मिथ्यारूपनी प्राप्ति थशे; अने ते मिथ्यारूप पोताना साध्यने साधवामाटे केम समर्थ थशे? अने एवीरीते प्रपंचने पण मिथ्यारूपपणुं सि६ नही थवाथी, परमब्रह्मने तात्विकपणुं क्याथी थाय? के जेथी बाह्यअर्थनो अन्नाव थाय. ॥२१॥ अथवा बीजा प्रकारथी सन्मात्र जे लदण जेनुं, एवा परमब्रह्मनुं (टीकाकार हवे) साधन अने दूषण स्थापन करे ले. (तेमां प्रथम तेनुं साधन (३१) अंक संपूर्ण यतां सुधि करे .) एक परमब्रह्मज परमार्थपूर्वक विधिरूप होवाथी, तेने प्रमाण विषयपणुं , केमके ते प
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१७५ यस्य कस्यचिदप्यन्नावात् । तथाहि । २२ । प्रत्यदं तदावेदकमस्ति । प्रत्यकं धिा निद्यते । निर्विकल्पकसविकल्पकनेदात् । ततश्च निर्विकपकप्रत्यदात्सन्मात्र विषयात्तस्यैकस्यैव सिक्षिः। तथाचोक्तम् =॥ अस्ति ह्यालोचनाझानं । प्रथमं निर्विकल्पकम् ॥ बालमूकादिविज्ञान-सदृशं शुध्वस्तुनम् ।। । २३ । नच विधिवत्परस्परव्यावृत्तिरप्यध्यदत एव प्रतीयत इति दैतसिभिस्तस्य निषेधाऽविषयत्वात् । “आहुर्विधातृ प्रत्यदं न निषेधृ” इत्या दिवचनात् । १५ । यच्च सविकल्पकप्रत्यदं घटपटा दिनेदसाधकं । तदपि सत्तारूपेणाऽन्वितानामेव तेषां प्रकाशकत्वात् सत्ताऽतस्यैव साधकं । सत्तायाश्च परमब्रह्मरूपत्वात् । तउक्तं “यदतं तब्रह्मणो रूपमिति" । २५। अनुमानादपि तत्सनावो विना
......... ..wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww रमब्रह्म शिवाय बीजु कंश पण नथी. ते कहे जे. २२ जे प्रत्येक डे, ते
आवेदक (जणावनालं). ते प्रत्यक बे प्रकारनुं ने, निर्विकल्पक अने सविकल्पक ; तेथी सत्तामात्र विषयवाला निर्विकल्पक प्रत्यदथी ते (आत्मब्रह्मनी) एकनीन सिदि जे. कह्यु डे के =|| पहेल्लु, विकल्पविनानु, बालक तथा मुंगाादिकना विज्ञानजेवू, अने शुभ्र वस्तुथी नत्पन्न थयेनुं आलोचनाझान जे. =|| २३ । वली विधिनीपेठे प.. रस्पर व्यावृत्ति पण प्रत्यदथीज प्रतीत थाय ने, तेथी कंश इतनी सिदि नथी, केमके ते प्रत्यदने निषेधनो विषय नथी. ' विछानो पण प्रत्यदने विधायक कहे जे, पण निषेधक कहेता नथी' इत्यादिक शास्त्रनुं वचन . । २४ । वली घटपटादिक नेदोने साधनारुं जे सविकल्पक प्रत्यद जे, ते पण सत्तारूपवानाज एवा ते घटपटा दिकोने प्रकाशनार होवाथी सत्ताऽतनेज साधनारुं जे; अने सत्ताने परमब्रह्मनुं स्वरूपपणुं ; तेगटे का डे के जे अत , ते ब्रह्मनु स्वरूप जे.' । २५। अनुमानथी पण तेनो सद्भाव जणायन डे; अने ते कहे .
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व्यत एव । तथाहि । विधिरेव तत्वं प्रमेयत्वात् । यतः प्रमाणविषयभूतोऽर्थः प्रमेयः । प्रमाणानां च प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्तिसंज्ञकानां जावविषयत्वेनैव प्रवृत्तेः । तथाचोक्तम् | = || प्रत्यक्षाद्यवतारः स्यानावांशी गृह्यते यदा । व्यापारस्तदनुत्पत्तेरजावांशे जिवृदिते || = |२६| यच्चाऽनावाख्यं प्रमाणं । तस्य प्रामाण्याऽनावान्न तत्प्रमाणं । तषियस्य कस्यचिदप्यभावात् । यस्तु प्रमाणपञ्चकविषयः स तु विधिरेव । तेनैव च प्रमेयत्वस्य व्याप्तत्वात् सिदं प्रमेयत्वेन विधिरेव तत्वं । 29 | यत्तु न विधिरूपं तन्न प्रमेयं । यथा खर विषाणं । प्रमेयं चेदं निखिलं वस्तुतत्वं । तस्माद्विधिरूपमेव । २० । अतो वा तत्सिदिः । ग्रामारामादयः पदार्थाः प्रतिमासान्तः प्रविष्टाः । प्रतिज्ञासमानत्वात् । यत्प्र
प्रमेय होवाथी विधिज तत्व बे; केमके प्रमाण विषयवालो पदार्थ प्रमेय बे; तथा प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान ने पत्ति बेनाम जेनुं एवा प्रमाणोना भावविषयपणावमेज प्रवृत्ति बे. कांबे के = ज्यारे नावनो अंश ग्रहण कराय, त्यारे प्रत्यक्षादिकनी उत्पत्ति थाय बे, मने ज्यारे अजावनो अंश ग्रहण कराय, त्यारे तेनी अनुत्पत्तिनो व्यापार थाय बे. । २६ । वली जे नाव नामनुं प्रमाण बे, तेने प्रमाणपणुं न होवाथी, ते प्रमाणभूत नथी, केमके तेवा भावना वि
वालुं कंद पण नयी ; ने उपर कहेलां पांचे प्रमाणना विषयरूप जेबे, ते तो विधिज बे, अने तेवमेज प्रमेयपणानी व्याप्ति होवाथी, प्रमेयपणावमे विधिज तत्व बे, एम सि ययुं । २७ । वली जे विधिरूप नथी, ते प्रमेय नथी, जेम गधेमानुं शींग ; सघलुं वस्तुतत्व प्रमेय बे, माटे ते विधिरूपज बे. । २० । अथवा तेनी सिद्धि पाथी बे. गाम तथा आराम आदिक पदार्थों प्रतिभासमान होवाथी प्रतिमासनी अंदर दाखल थया बे. जे प्रतिमासे बे, ते प्रतिभासनी
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. १०७ तिनासते तत्प्रतिनासान्तः प्रविष्टं । यथा प्रतिनासखरूपं । प्रतिनासन्ते च ग्रामारामादयः पदार्थास्तस्मात्प्रतिन्नासान्तःप्रविष्टाः । आगमोऽपि परमब्रह्मण एव प्रतिपादकः समुपलभ्यते । २ए । * “ पुरुष' एवेदं सर्व । यद्नुतं । यच्च नाव्यं । नताऽमृतत्वस्येशानो । यदन्नेनातिरोहति । यदेनति । यन्ननति । यद्रे । यदन्तिके । यदन्तरस्य सर्वस्य । यति सर्वस्यास्य बाह्यत इत्यादिः ॥ श्रोतव्योऽयमात्मा निदिध्यासितव्योऽनुमन्तव्यः" * इत्यादिवेदवाक्यैरपि तत्सिः । ३० । कत्रिमेणापि आगमेन तस्यैव प्रतिपादनात् । नक्तं च । =॥ सर्व वै ख
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अंदर दाखन थयुं जे, जेम प्रतिनासनुं स्वरूप. वत्नी गाम आरामादिक पदार्थो प्रतिनासे डे, माटे ते प्रतिनासनीअंदर दाखल थया ले. वनी (नीचे प्रमाणे ) आगम पण परमब्रह्मनेन प्रतिपादन करनारुं ले. ए| * “ आ सघद्धं ने थयुं , तथा जे थवानुं , वत्नी जे मोदनो स्वाम। ने, जे आहारवमे अतिशयें करीने वृद्धि पामे , जे चाले जे, जे स्थिर जे, जे दूर जे, जे समीपे डे, तथा जे मध्यमां , तथा जे बाह्य ने, ते सघg पुरुषन (परमब्रह्मज ) जे. इत्यादि. माटे ते परमब्रह्मने सांननवो, तेनुं ध्यान धरवू, तथा तेने मानवो" * इत्यादि वेदवाक्योवझे पण ते परमब्रह्मनी सिदि थाय जे. । ३० । कृत्रिम आगमे पण ते परमब्रह्मनेज स्वीकार्यु ले. ते माटे कयुं डे के =|| आ सघर्बु ब
१ एतेषामयमर्थः = पुरुष आत्मा। एव शब्दोऽवधारणे । स च कर्मप्रधानादिन्यवच्छेदार्थः । इदं सर्व प्रत्यक्ष वर्तमानं चेतनाऽचेतनं । निमितिवाक्यालंकारे । यद्भुतं । यदतीतं । यच्च भाव्यं । यच्च भविष्यत् तत् स एवेत्यर्थः। उताऽमृतत्वस्येशान इति । उत शब्दोऽप्यर्थे । अपिश्च समुच्चये। अमृतत्वस्याऽमरणभावस्य मोक्षस्य ईशानः प्रभुश्चेत्यर्थः। यदिति यच्च पशन्दलोपात् । अनेन आहारेण अतिरोहति अतिशयेन वृद्धिमुपैति । यदेजति यचलति अश्वादि। यजति पर्वतादि । यरे मेघादि । यदु अंतिके। उ शन्दोऽवधारणे अंतिके समीपे यत् तसुरुष एवेत्यर्थः । यदंतमध्येऽस्य चेतनाऽचेतनस्य सर्वस्य यदेव र्सवस्याऽस्य बामतस्तत्सर्व पुरुष एवेति ॥
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विदं ब्रह्म । नेह नानास्ति किंचन ॥ आरामं तस्य पश्यन्ति । न तत्पश्यति कश्चन । इति = |३१ । प्रमाणतस्तस्यैव सिझेः । परमपुरुष एक एव तत्वं सकलनेदानां तश्विर्त्तत्वात् । तथाहि । सर्वे नावा ब्रह्मविवर्त्ताः सन्वैकरूपेणाऽन्वितत्वात् । यद्यद्रूपेणान्वितं तत्तदात्मकमेव । यथा घटघटीशरावोदञ्चनादयो मृद्रूपेणैकेनाऽन्विता मृविर्ताः । सवैकरूपेणाऽन्वितं च सकलं वस्त्विति सिहं ब्रह्मविवर्त्तत्वं निखिलनेदानामिति । ३३ । तदेतत्सर्व मदिरारसास्वादगन्दोदितमिवान्नासते विचाराऽसहत्वात सर्व हि वस्तु प्रमाण सिइं । न तु वाङ्मात्रेण अहैतमते च प्रमाणमेव नास्ति । तत्सनावे तिप्रसङ्गात् । अतसाधकस्य
झन डे, बीजुं नानाप्रकार- अहीं कंई पण नथी; ते ब्रह्मना आरामने ( सर्वे ) जुए , पण ते ब्रह्मने कोश् जोतुं नथी. । ३१ । प्रमाणथी पण ते ब्रह्मनीन सिदि जे. एक परमपुरुषज तत्व , केमके सर्व ने. दोनो तेना विवर्त्तमा समावेश थाय ने. ते कहे जे. सर्व नावो एक सत्तारूपवाला होवाथी ब्रह्ममयन डे, केमके जे जेना स्वरूपवानुं होय, ते तेनामयन कहेवाय, जेम घमो, गागर, शराव, ढांकणांआदिक एक माटीस्वरूपज होवाथी माटीमय बे; अने सर्व वस्तु एक सत्वरूपज डे, तेथी सर्व नेदोने ब्रह्ममयपणुंज सिइ थयु. (अहीं सुधि वादीतरफथी टीकाकारे सन्मात्रपरमब्रह्मर्नु साधन कह्यु. हवे तेनुं दूषण कहे .) । ३।। आ सघर्बु (२१ मा अंकथी ३१ अंक सुधि करेलु ते वादीसरफर्नु विवेचन) विचारयुक्त नही होवाथी जाणे मदिरारसना पानथी थयेतो बबमाटज होय नही, तेवू नासे जे. सर्व धस्तु प्रमाणथी सिम बाय , पण वचनमात्रथी सिइ थती नथी; अने अद्वैत मतमां तो प्रमाणन नथी, अने जो ते प्रमाणने माने, तो तेने तिनो प्रसंग थाय ; केमके अतने साधनारां एवां बीजां प्रमाणनो सनाव थाय ने.
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१ए प्रमाणस्य दितीयस्य सनावात् । ३३ । अथ मतं । लोकप्रत्यायनाय तदपेक्ष्या प्रमाणमप्यन्युपगम्यते । तदसत् । वन्मते लोकस्यैवाऽसनवात् । एकस्यैव नित्यनिरंशस्य परमब्रह्मण एव सत्त्वात् । ३३ । अथास्तु यथाकथंचित्प्रमाणमपि । तत्किप्रत्यदमनुमानमागमो वा तत्साधकं प्रमाणमुररीक्रियते? । न तावत्प्रत्यदं । तस्य समस्तवस्तुजातगतनेदस्यैव प्रकाशकत्वात् । आबालगोपालं तथैव प्रतिनासनात् । ३५। यच्च निर्विकल्पकं प्रत्यदं तदावेदक मित्युक्तं । तदपि न सम्यक् । तस्य प्रामाण्याऽनन्युपगमात् । सर्वस्यापि प्रमाणतत्वस्य व्यवसायात्मकस्यैवाऽविसंवादकत्वेन प्रामाण्योपपत्तेः । सविकल्पकेन तु प्रत्यक्षण प्रमाणनूतनैकस्यैव विधिरूपस्य परमब्रह्मणः स्वप्नेऽप्यप्रतिनासनात् । ३६ ।
www.rrrrrrrrrrrry । ३३ । हवे हे वादी! कदाच तुं एम कहीशके, लोकोनी प्रतीतिमादे ते अपेदाथी प्रमाण पण अमोए स्वीकार्यु डे, तो ते तारूं कहेवू असत्य डे, केमके तारा मतमां तो लोकनो पण असंभव डे, कारणके तें नित्य अने निरंश एवा एक परमब्रह्मनुज सत्पणु स्वीकार्यु ले. ।३।। वली नले कदाच को रीते प्रमाण पण (तारा मतमां) हो? तोपण तमो ते अतने साधनारुं प्रत्यद, अनुमान के आगमप्रमाण स्वीकारो हो? प्रत्यद तो नही, केमके ते तो सर्व वस्तुमां रहेला नेदनेज प्रकाशनारूं जे, अने तेमज आबालगोपालने ते जणाय ने. १३५॥ वली 'जे निर्विकल्पक प्रत्यद जे, ते आवेदक ( जणावना5) डे' एम जे कां, ते पण युक्त नथी ; केमके तेने प्रमाणरूपे स्वीकार्य नथी; कारणके सघलां व्यापारात्मक प्रमाणतत्वनेज अविसंवादपणे प्रमाणपणानी प्राप्ति डे; वली प्रमाण नूत एवा सविकल्पक प्रत्यदवमे तो विधिरूप एकन परमब्रह्मनुं स्वप्नमां पण प्रतिनासन थतुं नथी. । ३६ । वत्री 'प्रत्यदने विधायकज कहेलु डे' इत्यादिक ने तें कह्यु, ते पण
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रए यदप्युक्तं " आहुर्विधात प्रत्यदं” इत्यादि । तदपि न पेशनं । प्रत्यकेण ह्यनुवृत्तव्यावृत्ताकारात्मकवस्तुन एव प्रकाशनात् । एतच्च प्रागेव कुम्मं । न ह्यनुस्यूतमेकमखएमसत्तामात्रं विशेषनिरपेकं सामान्यं प्रतिनासते । येन यदतं तद्ब्रह्मणो रूपमित्याद्युक्तं शोन्नते। विशेष निरपेदस्य खरविषाणवदप्रतिनासनात् । तउक्तम् = निर्विशेष लि सामान्यं । नवेत्खरविषाणवत् ॥ सामान्यरहितत्वेन । विशेषास्तदेव हि ॥ ३७॥ सतः सिझे सामान्य विशेषात्मन्यर्थे प्रमाणविषये कुत एवैकस्य परमबह्मणः प्रमाण विषयत्वं । यच्च प्रमेयत्वादित्यनुमानमुक्तं तदप्येतेनैवापास्तं बोऽव्यं । 'पदस्य प्रत्यदबाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । ३० । यच्च तत्सिध्धौ प्रतिनासमानत्वं साधनमुक्तं । तदपि साधनानासत्वेन न प्रकृतसाध्यसाधनायाऽलं । प्रतिनासमानत्वं हि नि
wwwwwwwwwwwer युक्त नथी; केमके प्रत्यक्षवमे तो अनुवृत्ति अने व्यावृत्तिना आकारवानीज वस्तु जणाय , अने तेमाटेगें तो पेहेलांज खंमन करेलु डे. वनी संधायेचुं, एक, अखंम तथा सत्तामात्र एवं विशेष विनानुं सामान्य जणातुं नथी, के जेथी 'जे अद्वैत ते ब्रह्मनुं स्वरूप' एम कहेवू शोजीनीकले ; केमके विशेषविनानुं सामान्य खर विषाणनीपेठे प्रतिनासन थतुं नथी. कर्वा डे के =॥ विशेषविनानुं सामान्य खरविषाणसरखं होय ! (अर्थात् न होय ) तेमन सामान्यविना विशेष न होय. । ३७ । तेथी सामान्यविशेषरूपपदार्थ प्रमाण विषयवानो सिध्ध होते बते, फक्त एक परमब्रह्मनेन प्रमाणविषयपणुं शानुं होय ? वली 'प्रमेय होवाथी' एम कहीने जे अनुमान कह्यु, तेनुं पण एथीन खंमन थयेनुं जाणवू; कैमके पदने प्रत्यदवमे बाधा आवे ने, अने हेतुने कलात्ययापदिष्टपणुं . । ३० । वली तेनी सिध्धिमाटे प्रतिनासनपणारूप जे साधन
विधिरेव तत्वमितिरूपस्य ॥
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१५१ खिननावानां स्वतः परतो वा ? न तावत्स्वतः । घटपटमुकुटशकटादीनां खतः प्रतिनासमानत्वेनाऽसिध्धेः । परतः प्रतिनासमानत्वं च परं विना नोपपद्यत इति ।३ए। यच्च परमब्रह्मविवर्तवर्तित्वमखिलन्नेदाना मित्युक्तं तदप्यन्वत्रऽन्वीयमानध्याऽविनानावित्वेन पुरुषाऽतं प्रतिबध्नात्येव । न च घटादीनां चैतन्यान्वयोऽप्यस्ति । मृदाद्यन्वयस्यैव तत्र दर्शनात् । ततो न किंचिदेतदपि । अतोऽनुमानादपि न तत्सिध्धिः । १०। किं च पदहेसुदृष्टान्ता अनुमानोपायनूताः परस्परं निन्ना अनिन्ना वा? । नेदे द्वैतसिध्धिरनेदे त्वेकरूपतापत्तिः। तत्कथमेतेन्योऽनुमानमात्मानमासादयति ? यदि च हेतुमन्तरेणापि साध्यसिध्धिः स्यात्तर्हि दैत.
-warrive. ०४४४४ ~~~ ~~~~~ ~~~~~~ कह्यु, ते पण साधनानासरूप होवाथी, ते साध्यना साधनमाटे समर्थ नथी; केमके सर्व नावोनुं प्रतिनासनपणुं पोताथी ? के परथी ? पोताथी तो नथी; केमके घट, पट, मुकुट, तथा शकटादिको पोतानी मेने प्रतिनासतां नथी; अने परथी प्रतिनासपणुं तो परविना थतुं नथी. । ३ए । वत्नी सर्व नेदोने परमब्रह्मरूप विवर्तमां वर्तवापणुं जे कह्यु, ते पण अन्वेतृ अने अन्वीयमान, एम बन्नेना अविनानाविपणावमे पुरुषाऽबैतनुं प्रतिबंधनन करे , वनी घटादिकोने चैतन्यनो अन्वय पण नथी, केमके तेमां तो माटीआदिकनो अन्वयज देखाय डे. माटे सर्व पदार्थोर्नु परमब्रह्मरूप विवर्तमां वर्तवापणुं नथी; माटे अनुमानथी पण तेनी सिदि नथी. । । वत्नी अनुमानना उपायनूत एवा पद, हेतु, अने दृष्टांतो परस्पर निन्न ? के अनिन्न ? जो निन्न कहेशो, तो इतनी सिदि थशे, अने अनिन्न कहेशो तो एकरूपपणानी प्राप्ति थशे; माटे तेथी करेलु अनुमान पोताने केम लागु पमशे? वनी ज्यारे हेतुविना पण साध्यनी सिदि थाय, न्यारे फक्त वचनमात्रयी इतनी पण केम सिब्धि न थाय? कयुंजे के Dil
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स्यापि वाङ्मात्रतः कथं न सिध्धिस्तउक्तम् । =॥ हेतोरतिसिध्धिश्चेद् । तं स्याध्धेतुसाध्ययोः ॥ हेतुना चेहिना सिध्धि-तं वाङ्मावतो न किम् ॥= । ३१ । “ पुरुष एवेदं सर्व" इत्यादेः “ सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म" इत्यादेश्चागमादपि न तत्सिध्धिस्तस्यापि ईताऽविनानावित्वेन अहैतं प्रति प्रामाण्याऽसंन्नवात् । वाच्यवाचकन्नावलक्षणस्य इतस्यैव तत्रापि दर्शनात् । तउक्तम् । =॥ कर्म तं फल देतं । लोकतं विरुध्यते ।। विद्याऽविद्याक्ष्यं न स्या-द्वन्धमोदध्यं तथा ॥ ततः कथमागमादपि तसिध्धिस्ततो न पुरुषाऽतलदणमेव प्रमाणस्य विषयः । इति सुव्यवस्थितः प्रपञ्च इति काव्यार्थः ॥
।। अथ स्वानिमतसामान्यविशेषोन्नयात्मकवाच्यवाचकन्नाव
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हेतुथी जो अतनी सिध्धि थाय, तो हेतु अने साध्यने ईतपणं आवे; अने जो हेतुविना सिध्धि थाय, तो वचनमात्रथी देत पण केम न थाय? ॥= | U१। वली 'आ सघर्छ पुरुषन डे' इत्यादिक, तथा 'आ सघलुं ब्रह्मज डे' इत्यादिक आगमथी पण ते अतनी सिध्धि नथी, केमके ते आगम पण दैतविना न होवाथी, तेना अद्वैतपणामाटे प्रमाणनो असंभव ; कारणके तेमां पण वाच्यवाचकनाव डे लकण जेनुं एवं दैतन देखाय जे. कह्यु डे के =|| कर्मदैत, फलदैत, तथा लोकदैतमा विरोध आवे ; वत्नी तेमन विद्या अने अविद्या, तथा बंध अने मोद बन्ने होय नही. माटे आगमथी पण तेनी सिध्धि केम थाय? तेथी पुरुषाऽदैत के लक्षण जेनुं, ए, एकज कंर प्रमाणना विषयरूप नथी. एवी रीते तेरमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
।१२। हते पोते मानेला सामान्य अने विशेष, एम बन्नेमय वाच्यवाचकनावना समर्थनपूर्वक, नीर्थातरीनए कल्पेला ते एकांत
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समर्थनपुरस्सरं तीर्थान्तरीयप्रकल्पिततदेकान्तगोचरवाच्यवाचकनावनिरासधारेण तेषां प्रतिन्नावैनवाऽनावमाह ।
अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं
यात्मकं वाचकमप्यवश्यम् । अतोऽन्यथा वाचकवाच्यक्तृप्ता
वतावकानां प्रतिनाप्रमादः ॥ १४ ॥ वाच्य ते ( सामान्यपणावमे) एकरूप जे, तो पण (व्यक्तिरूपे ) अनेकरूप ले; तेम वाचक पण खरेखर सामान्य अने विशेष, एम नन्नयात्मक डे; माटे (हे प्रन्नु ! ) तेथी नलटीरीते वाच्यवाचकनी कल्पनामां आपनाथी अन्य एवा तीर्थातरीननी बुझिनी स्खबना थयेनी जे. ॥ १४ ॥
।। वाच्यमन्निधेयं चेतनमचेतनं वस्तु (एवकारस्याप्यर्थत्वात् ) सामान्यरूपतया एकात्मकमपि व्यक्तिनेदेनाऽनेकम् । अनेकरूपम् । अथवाऽनेकरूपमपि एकात्मकमन्योऽन्यसंवलितत्वादित्यमपि व्याख्याने न दोषः । २ । तथा वाचकमनिधायकं शब्दरूपं तदप्यवश्यं निश्चितं
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गोचर वाच्यवाचकन्नावना खंमनधाराए तेनी बुध्धिना वैनवनो अनाव कहे .
।१। वाच्य एटने अनिधेय एवी चेतन अचेतन वस्तु (अहीं एवकारनो 'अपि' अर्थ डे ) सामान्यपणावमे एकात्मक डे, तोपण व्यक्तिनेदवझे अनेकरूप ले. अथवा परस्पर जोमाएन होवाथी अनेकरूप ले, तो पण एक रूप में, एम पण व्याख्यान करवामां दोष नयी. । । वली वाचक एटले अन्निधायक शब्द, ते पण खरेखर
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୧୯୫ घ्यात्मकं सामान्य विशेषोन्नयात्मकत्वात् एकाऽनेकात्मकमित्यर्थः (नयत्र वाच्यलिङ्गत्वेऽप्यव्यक्तत्वान्नपुंसकत्वम् ) ( प्रवश्यमितिपदं वाच्यवाचकयोरुभयोरप्येकाऽनेकात्मकत्वं निश्चिन्वत्तदेकान्तं व्यवच्छिनत्ति ) । ३ । अत उपदर्शितप्रकारादन्यया सामान्य विशेषैकान्तरूपेण प्रकारेण वाचकवाच्यक्लृप्तौ वाच्यवाचकना वकल्पनायाम् ताव - कानामत्वदीयानामन्ययूथ्यानां प्रतिमाप्रमादः प्रज्ञास्खलितमित्यरार्थः । ४ । (अत्र चाल्पस्वरत्वेन वाच्यपदस्य प्रानिपाते प्राप्तेऽपि यदादौ वाचकगृहणं तत्प्रायोऽर्थप्रतिपादनस्य शब्दाधीनत्वेन वाचकस्यार्यत्वज्ञापनार्थ ) तथा च शाब्दिकाः | = ॥ न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके । यः शब्दानुगमादृते ॥ अनुवि मित्र ज्ञानं । सर्वं शङ्खेन नासते ||= इति । ५ । जावार्थस्त्वेवं । एके तीर्थिकाः सामान्यरूपमेव वाच्यतया अन्यु
सामान्य विशेष, एम उभयात्मक होवाथी एकाऽनेकरूप बे. ( बन्ने - गोए वाच्यलिंगपणुं होते बते पण अव्यक्त होवाथी नपुंसकपणुं बे.) ('अवश्य 'ए पद, वाच्यवाचक एम बन्नेनुं एकाडनेकात्मपणुं निश्चय करतुं कुं तेनुं एकांतपणुं जुड़े पाये बे.) । ३ । उपर कहेला प्रकारथी नलटी रीते एटले एकांत सामान्य विशेषरूप प्रकारे करीने वाच्यवाचक नावनी कल्पना करवामां (हे प्रभु! ) आपनाथी अन्य एवा ते तीर्थात नी बुझिनी स्खलना थयेली बे; एवी रीते अक्षरार्थ कह्यो. । ४ । (अहीं अल्पस्वरपणावमे करीने ' वाच्य' पदना प्रागूनिपातनी प्राप्ति होवा बतां पण, पेहेलां जे ' वाचकनुं ' ग्रहण कयुं बे, ते प्रायेंकरीने अर्थप्रतिपादनना शब्दाधीनपणायें करीने वाचक शब्द अपणुं जणाववामाटे बे.) वली वैयाकरणी पण कहे के = | जगत्मां को एवो प्रत्यय नथी, के जे शब्दना अनुगमविना होय; जाणे शब्दसाथे जोमायेलुं होय नही, तेम सर्व ज्ञान जणाय बे.
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१५५ पगच्छन्ति । ते च इव्यास्तिकनयानुपातिनो मीमांसकनेदाऽदैतवादिनः । सांख्याश्च । केचिच्च विशेषरूपमेव वाच्यं निर्वचन्ति । ते च पर्यायास्तिकनयानुसार रिणः सौगताः । अपरे च परस्पर निरपेक्षपदार्थप्टथग्नूतसामान्यविशेषयुक्तं वस्तु वाच्यत्वेन निश्चिन्वते । ते च 'नैगमनयानुरोधिनः कणादा अपादाश्च । एतच्च पदत्रयमपि किंचिच्चय॑ते । तथाहि । ६ । संग्रहनयाऽवत्नम्बिनो वादिनः प्रतिपादयन्ति सामान्यमेव तत्वं । ततः पृथग्भूतानां विशेषाणामदर्शनात् । तथा सर्वमेकमविशेषेण सदितिज्ञानानिधानाऽनुवृत्ति निङ्गानुमितसत्ताकत्वात् । ७ । तथा द्रव्यत्वमेव तत्वं । ततोऽर्थान्तरनूतानां धर्माऽधर्माकाशकालपुजलजीव
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। ५। आ काव्यनो नावार्थ तो नीचे प्रमाणे जे. केटनाक दर्शनी सामान्यरूपनेज वाच्यपणावमे अंगीकार करे ; अने तेवा व्यास्तिकनयने अनुसरनारा मीमांसकना एक नेदरूप अद्वैतवादी अने सांख्यो . वली केटनाको विशेषरूपनेज वाच्य कहे जे, अने तेवा पर्यायास्तिक नयने अनुसरनारा बौशे जे. वत्नी बीजान, परस्पर अपेदा विनाना अने पदार्थथी निन्न एवा जे सामान्य अने विशेष, तेनवमे करीने युक्त एवी वस्तुने वाच्यपणारूपे माने जे, अने तेवा नैगमनयने अनुसरनारा कणादना मतवाला अने अदपादना मतवाना जे. एवी रीतना ते त्रणे पदोनी कंक चर्चा करीये डीये. ते कहे जे. । ६ । संग्रहनयने अनुसरनारा वादी एम कहे डे के, सामान्यज तत्व डे, केमके तेनाथी जूदा, एवा विशेषो देखाता नथी ; तथा सघg एक अविशेषे करीने 'सत् ' एवी शान नाम्नी अनुवृत्तिना लिंगवमे अनुमान कराती एवी सत्तावालु जे. । ७ । वनी व्यपणुं, एज तत्व ने,
। नैगमनयाऽनुगामिनः। इति द्वितीयपुस्तकपाठः ॥ २ सर्बपदार्थेषु सदितिज्ञानाभिधाने तयारनुत्तिरेव यलिंगं तेनाऽनुमिता सत्ता यस्य तत्तथा ।। ..
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१५६ व्याणामनुपलब्धेः । किंच ये सामान्यात् पृथग्नता अन्योऽन्यव्यावृत्त्यात्मका विशेषाः कल्प्यं ते तेषु विशेषत्वं विद्यते न वा? । नो चेन्निःखन्नावताप्रसङ्गः स्वरूपस्यैवाऽनावात् । अस्ति चेत्तर्हि तदेव सामान्यं । यतः समानानां नावः सामान्यं । विशेषरूपतया च सर्वेषां तेषामविशेषेण प्रतीतिः सिव ।। अपि च विशेषाणां व्यावृत्तिप्रत्यय हेतुत्वं लक्षणं । व्यावृत्तिप्रत्यय एव विचार्यमाणो न घटते। व्यावृत्तिर्हि विवदितपदार्थे इतरपदार्थप्रतिषेधः । विवदित पदार्थश्च स्वस्वरूपव्यवस्थापनमात्रपर्यवसायी कथं पदार्थान्तरप्रतिषेधे प्रगल्नते? न च स्वरूपसत्वादन्यत्तत्र किमपि येन तनिषेधः प्रवर्त्तते । ए । तत्र च व्यावृत्तौ क्रियमाणांयां स्वात्मव्यतिरिक्त विश्वत्रयवर्तिनोऽतीतवर्तमानाऽना
केमके तेथी जूदा पदार्थरूपे, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुल तथा जीव नामना इव्योनी प्राप्ति नथी. वत्नी सामान्यथी जूदा, अने परस्पर व्यावृत्तिरूप, एवा जे विशेषो कल्पाय डे, तेमां विशेषपणुं ? के नही ? जो कहेशो के नश्री, तो स्वरूपनाज अन्नावथी तेने निःस्वनावपणानो प्रसंग थशे; अने जो कहेशो के डे, तो तेज सामान्य जे; केमके समानोनो जे नाव ते सामान्य बे, अने विशेषरूपपणावमे ते सघनानी प्रतीति अविशेषे करीने सिइज थयेली . । । वनी व्यावृत्तिनी प्रतीतिनुं हेतुपणुं, ए विशेषोनुं लदण ; पण विचार करीये जीये तो, ते व्यावृत्तिनी प्रतीतिज घटती नथी. विवदितपदार्थमां बीजा पदार्थनो ने प्रतिषेध, ते व्यावृत्ति कहेवाय , अने विवदित पदार्थ तो पोताना स्वरूपनी व्यवस्थानान व्यापारवालो होवाथी, ते वीजा पदार्थनो प्रतिषेध-शीरति करी शके ? तेम स्वरूपना उतापणाशिवाय तेमां बीजं कं पण नथी, के जेथी तेनो निषेध प्रवर्ते;। ए। वनी तेमां व्यावृत्ति करते बते, पोताथी निन्नरूपे त्रणे जगत्मां रहेनारा
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१९७ गताः पदार्थास्तस्माद्व्यावर्तनीयाः । ते च नाऽज्ञातस्वरूपा व्यावतयितुं शक्यास्ततश्चैकस्यापि विशेषस्य परिझाने प्रमातुः सर्वत्वं स्यान्न
चैतत्प्रातीतिकं यौक्तिकं वा । व्यावृत्तिश्च निषेधः । स चाऽनावरूपत्वात्तुच्छः कथं प्रतीतिगोचरमञ्चति खपुष्पवत् । १० । तथा येन्यो व्यावृत्तिस्ते असद्रूपाः सद्रूपा वा । असद्रूपाश्चेत्तर्हि खरविषाणात् किं न व्यावृत्तिः। सद्रूपाश्चेत्सामान्यमेव । ११ । या चेयं व्यावृत्तिर्विशेषैः कियते । सा सर्वासु विशेषव्यक्तिप्वेका अनेका वा। अनेका चेत्तस्या अपि विशेषत्वापत्तिरनेकरूपत्वैकजीवितत्वाविशेषाणां । ततश्च तस्या अपि विशेषत्वाऽन्यथाऽनुपपत्तेया॑वृत्त्या नाव्यं । व्यावृत्तेरपि च व्यावृत्तौ वि
winnrn नृत, वर्तमान अने नविष्यकालसंबंधि पदार्थोनी तेनाथी व्यावृत्ति करवी पमशे, अने ते पदार्थोनुं तो स्वरूप जणायुं नथी, माटे तेन्नी व्यावृत्ति थ शकशे नही ; अने वली तेश्री तो एकज विशेषतुं ज्ञान थवाथी प्रमाताने सर्वज्ञपणुं थशे; अने तेम थर्बु ते प्रतीतिवाढं के युक्तिवानुं नथी. वत्ती व्यावृत्ति तो निषेध ने, अने ते अन्नावरूप होवाथी तुच्छ होश्ने आकाशपुष्पनीपेठे शीरीते प्रतीतिगोचर थाय? । १० । वनी जेन्थी व्यावृत्ति ने, तेन असद्रूप ले ? के सद्रूप ले ? जो असद्रूप होय तो खरशंगथी केम व्यावृत्ति नथी? अने जो सद्रूप होय तो ते सामान्यज . । ११ । वली विशेषोवमे जे आ व्यावृत्ति कराय जे, ते सघनी विशेषव्यक्तिमा एक ? के अनेक ने ? जो कहेशो के अनेक डे, तो तेणीने पण विशेषपणानीज आपत्ति थशे; केमके विशेषोनो आधार फक्त अनेकरूपपणानपरज जे; अने तेथी तेणीनी पण विशेषपणाथी जूदीरीते अप्राप्ति होवाथी व्यावृत्ति थशे; अने व्यावृत्तिनी पण व्यावृत्तिमा विशेषोनो अन्नावन थशे; केमके तेना स्वरूपनूत एवी व्यावृत्तिनो प्रतिषेध करेलो , अने अनवस्था पण था
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१७ शेषाणामन्नाव एव स्यात् । तत्स्वरूपन्नूताया व्यावृत्तेः प्रतिषित्वात् । अनवस्थापाताच्च । एका चेत्सामान्यमेव संझान्तरेण प्रतिपन्नं स्यादनुवृत्तिप्रत्ययत्रदणाऽव्यनिचारात् । १२ । किं चामी विशेषाः सामान्याजिन्ना अनिन्ना वा । निन्नाश्चेन्मएकजटानारानुकारा अनिन्नाश्चेत्तदेव तत्स्वरूपवत् ॥ * ॥ इति सामान्यैकान्तवादः ॥ * ॥ । १३ । पर्यायनयान्वयिनस्तु नाषन्ते विविक्ताः दणदायो विशेषा एव परमार्थस्ततो विष्वग्नुतस्य सामान्यस्याऽप्रतीयमानत्वात् । न हि गवादिव्यत्यनुन्नवकाले वर्णसंस्थानात्मकं व्यक्तिरूपमपहायाऽन्यत्किचिदेकमनुयायि प्रतिनासते । तादृशस्याऽनुन्नवाऽनावात् । तथा च परन्ति । =|| एतासु पञ्चस्ववन्नासिनीषु । प्रत्यदबोधे स्फुटमगुत्तीषु ॥ साधा. रणं रूपमवेदते यः । शृङ्गं शिरस्यात्मन ईदते सः = एकाकारपरा
vo m wwwwwwwwwwwwww~~~~~ य . हवे जो ते व्यावृत्ति एक होय, तो नामांतररूपे सामान्यन स्विकार्यु कहेवाय, केमके तेमां अनुवृत्तिनी प्रतीतिना लक्षणनो व्यनिचार आवतो नथी. । १२ । वली आ विशेषो सामान्यथी निन्न ? के अभिन्न ? जो कहीश के निन्न बे, तो देमकाना जटान्नारसरखा ; अने जो कहीश के अनिन्न , तो ते तेना स्वरूपनीपेठे सामान्यन . ॥ * ॥ एवी रीते सामान्यएकांतवाद कह्यो ॥ * ॥ । १३ । पर्यायनयने अनुसरनाराओ कहे जे के, निन्न अने दणे कणे क्य थता एवा विशेषोज परमार्थ डे केमके तेन्थी निन्नरूप सामान्यो प्रतीतन थता नथी; कारणके गवादिकनी व्यक्तिना अनुन्नववखते वर्णसंस्थानरूप व्यक्तिस्वरूपने गेमीने, एक तथा चाव्युं आवतुं, एवं कई पण देखातुं नथी; कारणके तेवीरीतनो कोश् अनुन्नव थतो नथी. वली कह्यु डे के =|| आ पांचे प्रगट देखाती एवी आंगनीओमां प्रत्यद बोधनी अंदर जे माणस साधारण स्वरूप जुए जे, ते माणस पो
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मर्शप्रत्ययस्तु स्वहेतुदत्तशक्तिन्योव्यक्तिन्य एवोत्पद्यते । इति न तेन सामान्य साधनं न्याय्यं । १४ । किंच यदिदं सामान्यं परिकल्प्यते तदेकमनेकं वा ? एकमपि सर्वगतमसर्वगतं वा ? सर्वगतं चेत्किं न व्यक्त्यन्तरालेषूपलभ्यते ? सर्वगतैकत्वाऽभ्युपगमे च तस्य यथा गोत्वसामान्यं गोव्यक्ती: क्रोमीकरोति । एवं किं न घटपटा दिव्यक्तीरप्य विशेषात् ?
सर्वगतं चेदिशेषरूपापत्तिरन्युपगमबाधश्च । १५ । अथाऽनेकं गोत्वाऽश्वत्वघटत्व पटत्वादिभेदभिन्नत्वात्तर्हि विशेषा एव स्वीकृताः । अ न्योऽन्यव्यावृतिहेतुत्वान्न हि यगोत्वं तदश्वत्वात्मकमिति । अर्थक्रियाकारित्वं च वस्तुनो लक्षणं । तच्च विशेषेष्वेव स्फुटं प्रतीयते । न हि
ताना मस्तकपर शींगमुं जुए बे ! एकाकारना विचारनी प्रतीति तो, पोताना हेतु ए दीघेल बे शक्ति जेनने, एवी व्यक्तिनश्रीज नत्पन्न थाय बे, माटे तेनावमे सामान्यनुं साधन, न्याययुक्त नथी. । १४ । वली जे या सामान्य कपाय बे, ते एक बे ? के अनेक बे ? जो एक बे, तो ते सर्वव्यापक बे ? के सर्वव्यापक बे ? जो सर्वव्यापक छे, तो ते व्यक्तिनी वच्चे केम प्राप्त यतुं नथी ? वली तेना सर्वव्यापक एकपपाना स्वीकारमां जेम गायपणारूप सामान्य गायसंबंधि व्यक्तिने लागु पमे बे, तेम ते अविशेषपणे घटपटादिक व्यक्तिने पण केम लागु पतुं नथी ? वली जो कहीश के ते सामान्य सर्वव्यापक बे, तो तेने विशेषरूपनी आपत्ति घ्यावशे, तथा स्वीकारमां बाध वशे । १५ । जो कहीश के गोपणुं, अश्वपणुं, घटपणुं, तथा पटपणुं, इत्यादिक नेदोथी भिन्न होवाथी ते सामान्य अनेक बे, तो तें विशेषोज स्वीकार्या बे, केमके ते मां परस्पर व्यावृत्तिनुं हेतुपणुं होवाथी जे गोपणुं बे, ते अश्वपणारूप नथी. वली अर्थ क्रियाकरनारपणुं ए पदार्थनुं लक्षण बे, ने ते लक्षण विशेषोमांज प्रगट रीते प्रतीत थाय बे ; वली सामा
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सामान्येन काचिदर्थक्रिया क्रियते । तस्य निष्क्रियत्वात् । वाहदोहादिकास्वर्थक्रियासु विशेषाणामेवोपयोगात् । १६ । तथेदं सामान्य विशेषेन्यो निन्नमनिन्नं वा? निन्नं चेदवस्तु । विशेष विश्लेषेणाऽर्थक्रियाकारित्वाऽनावात् । अनिन्नं चेहिशेषा एव तत्स्वरूपवदिति विशेपैकान्तवादः ॥ * ॥ । १७ । नैगमनयाऽनुगामिनस्त्वाहुः ॥ स्वतन्त्रौ सामान्यविशेषौ । तथैव प्रमाणेन प्रतीतत्वात् तथाहि । १७ । सामान्यविशेषावत्यन्तं निन्नौ । विरुधर्माध्यासितत्वात् । यावेवं तावेवं । यथा पाथःपावकौ । तथाचैतौ । तस्मात्तथा । सामान्यं हि गोत्वादि सर्वगतं । तविपरीताश्च 'शबनशाबलेयादयो विशेषास्ततः कथमेषामैक्यं युक्तं ? । १ए । न सामान्यात्टथग्विशेषस्योपलंन्न इति चेत् । कथं तर्हि तminn
me न्यने तो निष्क्रियपणुं होवाथी, ते कं अर्थक्रिया करी शकतुं नथी; तेम वाहदोहादिक अर्थक्रियानमां विशेषोनोज उपयोग थाय जे. १६॥ वती आ सामान्य विशेषोथी निन्न ? के अनिन्न ? जो जिन्न बे, तो ते अवस्तु जे ; केमके विशेषना संयोगविना तेने अर्थक्रियाकारिपणानो अन्नाव ; अने जो अनिन्न , तो तत्स्वरूपनी पेठे ते विशेषोज ले. एवी रीते एकांतविशेषवादनुं विवेचन कयु ॥ * ॥१७॥ नैगमनयने अनुसरनारान कहे डे के सामान्य अने विशेष बन्ने स्वतंत्र , केमके प्रमाणपूर्वक तेवीज रीते तेन प्रतीत थाय जे. ते कहे
. । १७ । सानान्य अने विशेष बन्ने अत्यंत निन्न जे, केमके तेन (परस्पर) विरुधर्मवाला ले. जे एम जे, ते तेम जे, जेम पाणी अने अग्नि, अने तेवीरीते आ बन्ने डे, माटे तेम . गोपणादिक सामान्य सर्वव्यापक डे, अने तेश्री विपरीत एवा शबन शाबलेयादिक विशेषो ने, माटे तेन्नुं ऐक्यपणुं केम युक्त कहेवाय । १७ । सामा
१ कर्बुर = काबरचीतरुं = इतिलोकभाषा ॥
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२०१ स्योपलंन इति वाच्यं । सामान्यव्याप्तस्येतिचन्न । तर्हि स विशेषोपत्ननः । सामान्यस्यापि तेन ग्रहणात् । ततश्च तेन बोधेन विविक्त विशेषग्रहगाऽनावात् तक्षचकं ध्वनि तत्साध्यं च व्यवहारं न प्रवर्तयेत्प्रमाता । न चैतदस्ति । विशेषानिधानव्यवहारयोः प्रवृत्तिदर्शनात् । तस्मादिशेषमनिलषता । तत्र च व्यवहारं प्रवर्तयता तद्ग्राहको बोधो विविक्तोऽभ्युपगन्तव्यः । २० । एवं सामान्यस्थाने विशेषशब्दं विशेषस्थाने च सामान्यशब्दं प्रयुञ्जानेन सामान्येऽपि तद्ग्राहको बोधो विविक्तोऽङ्गीकर्तव्यः । तस्मात्वस्वग्राहिणि झाने पृथक् प्रतिनासमानत्वात् छावपीतरेतर विशकनितौ । ततो न सामान्य विशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटते ॥ इति स्वतन्त्रसामान्यविशेषवादः ॥ * ॥ । २१ । तदेतत्पदत्रयPivovvwwwwwwwwwwwwaaannnnnn न्यथी जूदी विशेषनी प्राप्ति नथी, एम जो कहीश, तो तेनी प्राप्ति केम थाय? ते तारे कहेवू जोए. सामान्यवमे व्याप्त, एवा विशेषनी प्राप्ति थाय डे, एम जो कहीश, तो ते विशेषनी प्राप्ति नथी, केमके सामान्यनुं पण तेणे ग्रहण कर्यु जे; अने तेथी ते बोधवमे निन्नविशेषग्रहणना अनावथी, तेना वाचकध्वनि प्रते अने तत्साध्य व्यवहारप्रते प्रमाता प्रवर्ती शकतो नथी ; अने तेम तो नथी, केमके विशेषना अनिधान अने व्यवहारनी प्रवृत्ति देखायेली ले; तेथी विशेषनी अनिलाषा करनारे, अने तेमां व्यवहारप्रवर्तावनारे, तेने ग्रहण करनारो बोध निन्न जाणवो. । २० । एवीरीते सामान्यनी जगोए विशेषशब्दने, अने विशेषनी जगोए सामान्यशब्दने जोमनाराए, सामान्यमां पण तेने ग्रहण करनारो निन्न बोध अंगीकार करवो; अने तेथी पोतपोताने ग्रहण करनारां झानमां जूदा जणावाथी तेन बन्ने एकबीजाथी जूदा ने, माटे पदार्थ ने सामान्य विशेषात्मकपणुं घटतुं नथी. एवीरीते स्वतंत्र सामान्य विशेषवादनु विवेचन कर्यु ॥ * ॥ । २१ । नपर वर्ण वेला
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২০ই मपि न दमते दोदं प्रमाणबाधितत्वात् । सामान्य विशेषोनयात्मकस्यवे वस्तुनो निर्विगानमनुन्नूयमानत्वात् । वस्तुनो हि लक्षणमर्थक्रियाका रित्वं । तच्चाऽनेकान्तवाद एवाऽविकलं कलयन्ति परीक्षकाः । तथा हि । २२ । यथा गौरित्युक्ते खुरककुद्सास्नानांगून विषाणाद्यवयवसंपन्नं वस्तुस्वरूपं सर्वव्यक्त्यनुयायि प्रतीयते । तथा महिप्यादिव्यावृ. त्तिरपि प्रतीयते । यत्रापि च शवला गौरित्युच्यते तत्रापि यथा विशेषप्रतिनासस्तथा गोत्वप्रतिनासोऽपि स्फुट एव । शबनेतिकवनविशेषणोच्चारणेऽपि अर्थात्प्रकरणाचा गोत्वमनुवर्तते । २३ । अपि च शबलत्वमपि नानारूपं तथादर्शनात् । ततो वक्त्रा शबनेत्युक्ते क्रोमीकृतसकलशबलसामान्यं विवक्षितगोव्यक्तिगतमेव शबलत्वं व्यवस्था
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ते त्रणे पहो प्रमाणथी बाधित होवाथी टकीशकता नथी; केमके पदार्थ तो सामान्य अने विशेष, एम बन्नेमयज निर्विवादपणे अनुन्नवाय बे. 'अर्थक्रियाकारिपणुं' एवं पदार्थ- लक्षण डे, अने तेवां लदाणने परीक्षको अनेकांतवादमांन निर्दोषरूप जुए . ते कहे जे. श्श 'गाय' एवं कहेते बते, खरी, खुंध, गलकंबल, पुंउमां, तथा शींगमां आदिक अवयवोवालु पदार्थस्वरूप, जेम सर्व व्यक्तिमा अनुसरनारूं प्रतीत थाय डे, तेम नेंस आदिकनी व्यावृत्ति पण प्रतीत थाय ; वनी ज्यां 'काबरी गाय' एयूँ कहेवाय डे, त्यां पण जेम विशेषनो प्रतिनास थाय जे, तेम गोपणानो प्रतिनास पण प्रगटन थाय डे; वती 'काबरी' एटर्बु केवल विशेषणन उचारवाथी पण अर्थथी अ. थवा प्रस्तावथी गायपणुं तो चाल्युन आवे . । २३ । वली काबरचितरापणुं पण नानाप्रकार- बे, केमके तेवु देखाय जे; अने तेथी 'काबरचितरा मोहोमावाली ' एम कहेते बते लागु करेन डे सर्व शबलसामान्य जेणे, एवं विवदित गोव्यक्तिमा रहेर्मोन शबलपणुं स्था
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२०३ प्यते । तदेवमाबालगोपालं प्रतीतिप्रसिझेऽपि वस्तुनः सामान्य विशेषात्मकवे तउनयैकान्तवादः प्रत्नापमानं । न हि क्वचित्कदाचित्केनचिसामान्यं विशेष विनाकृतमनुनूयते । विशेषा वा तहिनासताः । केवलं उर्णयप्रनावितमतिव्यामोहवशादेकमपत्नप्याऽन्यतरद्व्यवस्थापयन्ति बाविशाः । सोऽयमन्धगजन्यायः । २३ । येऽपि च तदेकान्तपदोपनिपतिनः प्रागुक्ता दोषास्तेऽपि अनेकान्तवादप्रचएममुकरजर्नरितत्वान्नोअसितुमपि दमाः । २५ । स्वतन्त्रसामान्य विशेषवादिनस्त्वेवं प्रतिक्षेप्याः । सामान्यं प्रतिव्यक्ति कथंचिदिनिन्नं कथंचित्तदात्मकत्वाहिसदृशपरिणामवत् । यथैव हि काचिद्व्यक्तिरुपत्तन्यमानाद्व्यक्त्यन्तराहिशिष्टा विसदृशपरिणामदर्शनाऽवतिष्टते । तथा सदृशपरिणामात्मकसा
पन कराय जे. एवीरीते पदार्थ- सामान्य विशेषात्मकपणुं क बानगोपालपर्यंत प्रतीतिगोचर होवा उतां पण, ते बन्नेनो जे एकांतवाद कहेवो, ते मात्र निरर्थक वचनजेवू , केमके विशेषविना करेलु सामान्य, अथवा सामान्यविना करेला विशेषो क्यांय पण कोइ पण समये, कोश्ए पण अनुन्नव्या नथी. फक्त उर्नययुक्त मतिना व्यामोहना वशथी अज्ञानी एकने उलवीने बीजाने स्थापे ; अने ते आंधलाउए पकमेला हाथीनेवो न्याय जे. । २३ । वत्नी तेन्ना एकांत पपर त्रुटी पमनारा जे दोषो पूर्वे कहेला डे, ते पण अनेकांतवादरूपी प्रचंम मुजरवमे खोखरा थवाथी श्वासलेवाने पण समर्थ नथी. । २५। हवे स्वतंत्र सामान्यविशेषवा दिनुं खंमन नीचेप्रमाणे जाणवं. दरेक व्यकिमा रहेळु सामान्य, कथंचित् तद्रूप होवाथी विसदृश परिणामनीपेठे कथंचिद् निन्न ले. जेम कोश्क व्यक्ति, उपमन्यमान एवी बीजी व्यक्तिथा विशिष्ट होती थकी असदृशपरिणामना दर्शनवानी थाय , तेम सदृशपरिणामरूप सामान्यना दर्शनथी समान थाय ने,
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मान्यदर्शनात्समानेति । तेन समानो गौरयं सोऽनेन समान इति प्रतीतेः | २६ । न चास्य व्यक्तित्वरूपाद भिन्नत्वात्सामान्यरूपता व्याघातः । यतो रूपादीनामपि व्यक्तिवरूपाद भिन्नत्वमस्ति । न चैतेषां गुणरूपताव्याघातः । कथंचिद्व्यतिरेकस्तु रूपादीनामिव सदृशपरिणामस्याप्यस्त्येव । पृथग्व्यपदेशादिनाक्त्वात् । २७ । विशेषा अपि नैकान्तेन सामान्यात्ष्टथग्नवितुमर्हन्ति । यतो यदि सामान्यं सर्वगतं सिदं जवेत् । तदा तेषामसर्वगतत्वेन ततो विरुधर्माध्यासः स्यात् । न च तस्य तत्सिं | प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वात् । सामान्यस्य विशेषाणां च कथंचित्परस्पराऽव्यतिरेकेणैकाऽनेकरूपतया व्यवस्थितत्वात् । विशेषेभ्योऽव्यतिरिक्तत्वादि सामान्यमप्यनेक मिप्यते । सामान्यात्तु विशेषाणामव्यतिरेकात्तेऽप्येकरूपाः । इति । २ । एकत्वं च सामान्यस्य संग्रहन
केमके तेनावमे समान एवो आ बलद, ते नाव समान बे, एवी प्रतीति थाय छे । २६ । वली व्यक्तिना स्वरूपथी अभिन्न होवाथी तेने सामान्यस्वरूपपणानो व्याघात यवतो नथी, केमके रूपादिकोने पण व्यक्तिस्वरूपथी अभिन्नपणुं बे, पण तेजना गुणरूपपणानो व्याघात यावतो नथी; ने कथंचित् जूदापणुं तो रूपादिकोनी पेठे जूदां नामो व्यादिकने जवाथी सदृशपरिणामने पण बे । २७ । वली विशेषो पण एकांते सामान्यथी भिन्न थइ शकता नथी, केमके ज्यारे सामान्य सर्वव्यापक सिम बाय, त्यारे ते विशेषोनो सर्वव्यापकपणावमे तेथी विरुद्ध धर्माध्यास थवो जोइए, ने पूर्वेकहेली युक्विमे खंमन करवाथी तेवुं तो तेने सि यतुं नथी; वली सामान्य ने विशेष कथंचित् परस्पर भिन्न होवाथी एकाऽनेकरूपे रहेला बे, केमके विशेषोथी अभिन्न होवाथी सामान्य पण अनेक बे, ने सामान्ययी निन्न होवाथी ते विशेषो पण एकरूप बे । २० ।
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याप्पणात्सर्वत्र विज्ञेयं । प्रमाणार्पणात्तस्य कथंचिहिरुधर्माध्यासितत्वं सदृशपरिणामरूपस्य विसदृशपरिणामवत्कथंचित्प्रतिव्यक्तिनेदात् । एवं चाऽसिई सामान्य विशेषयोः सर्वथा विरुधर्माध्यासितत्वं | कथंचिहिरुधर्माध्यासितत्वं चेविहितं तदाऽस्मत्कदाप्रवेशः । कथंचिहिरुधर्माध्यासस्य कथंचिन्नेदाऽविनानूतत्वात् । शए । पाथःपावकदृष्टान्तोऽपि साध्यसाधन विकलस्तयोरपि कथंचिदेव विरुधर्माध्यासितत्वेन भिन्नत्वेन च स्वीकरणात् । पयस्त्वपावकत्वादिना हि तयोर्विरुधर्माध्यासो नेदश्च । व्यत्वादिना पुनस्तपिरीतत्वमिति । तथा च कथं न सामान्य विशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटते ? इति । ३० । ततः सुष्ट्रक्तं वाच्यमेकमनेकरूपमिति । एवं वाचकमपि शब्दाख्यं ध्यात्मकं
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वली संग्रहनयनी अपेदाये सामान्यनु एकपएं सर्वत्र जाणी लेवू, अने प्रमाणना अर्पणथी सदशपरिणामरूप एवा ते सामान्यने विसदृशपरिणामनी पेठे कथंचित् दरेक व्यक्तिप्रते नेद जे. एवी रीते सामान्य अने विशेषतुं सर्वथाप्रकारे विरुऽ धर्म ने धारवापणुं असिइ थयुं ; अने (हे वादी ! ) जो (तेननु ) कथंचित् विरुधर्मने धारवापणुं तुं कहेतो होय, तो तें अमारा मतमांज प्रवेश को बे, केमके कथंचित् विरुक्षधर्मधारवापणुं कथंचित् नेदविना थतुं नथी. । २ए। वली (तारु) पाणी अने अग्निनुं दृष्टांत पण साध्यसाधनमां अघटतुं डे, केमके ते बन्नेने पण कथंचित् विरुधर्माध्यासिपणावमे अने निन्नपणावमे स्वीकार्या डे, कारणके जत्नपणुं अने अग्निपां, इत्यादिकवमे तेननु विरुइधर्मधारवापणुं अने नेद ने, अने व्यपणादिकवमे तेथी विपरीतपणुं ले ; अने तेम होवाथी पदार्थ ने सामान्य विशेषात्मकपणुं शामाटे न घटी शके ? । ३० | माटे 'वाच्य एक अने अनेकरूप डे' एम जे कह्यु, ते योग्यन कयुं ने ; एवीरीते वाचक एटले शब्द पण सामान्य
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सामान्य विशेषात्मकं । सर्वशब्दव्यक्तिष्वनुयायि शब्दत्वमेकं । शाङ्खशार्ङ्गतीव्रमन्दोदात्तानुदात्तत्वरितादिविशेषनेदादनेकं । शब्दस्य हि सामान्य विशेषात्मकत्वं पौलिकत्वाद्व्यक्तमेव । तथाहि । ३१ । पौचिकः शब्द इन्दियार्थत्वाद्रूपादिवत् । यच्चास्य पौलिकत्व निषेधाय स्पर्शशून्याश्रयत्वात् । प्रतिनिबिमप्रदेशे प्रवेश निर्गमयोरप्रतिघातात् । पूर्वपश्चाच्चावयवानुपलब्धेः । सूक्ष्ममूर्त्तव्यान्तराऽप्रेरकत्वात् । गगनगुणत्वाच्चेति पञ्चतवो योगैरुपन्यस्तास्ते हेत्वाभासास्तथाहि । ३२ । श ब्दपर्यायस्याश्रयो भाषावर्गणा न पुनराकाशं । तत्र च स्पर्शो निर्णीयत एव । यथा शब्दाश्रयः स्पर्शवाननुवातप्रतिवातयोर्विप्रकृष्टनिकटशरीरिणोपलभ्यमानाऽनुपलभ्यमानेन्द्रियार्थत्वात् तथाविधगन्धाधार
विशेषात्मक बे ; अर्थात् सर्व शब्दोनी व्यक्तितमां चाल्युं आवतुं एवं शब्दपणं एक बे, अने शंखनो, धनुष्यनो, तीव्र, मंद, उदात्त, अनुदात्त, स्वरितादिक विशेषोना दोथी अनेक बे. वली शब्द पौलिक होवाथी तेनुं सामान्यविशेषात्मकपणुं प्रगटज बे. ते कहे बे. । ३१ । शब्द इंडिया होवाथी रूपादिकनी पेठे पौलिक बे; वली ते शब्दना पौलिकपणाना निषेधमाटे, स्पर्शेकरी ने शून्याश्रयवालो 'होवाथी, अतिनिमि प्रदेशमां प्रवेश निर्गमननो अटकाव न थवाथी, त्र्यागलपाबलनो अवयव नही प्राप्त थवायी, सूक्ष्ममूर्तिवाला बीजा इव्योने त्र्यप्रेरक होवाथी, तथा आकाशगुणपणाथी, एवी रीतना पांच हेतु यौगोए जे पेला बे, ते हेत्वाभासो बे. ते कहे बे. । ३२ । शब्दपर्यायनो आश्रय भाषावर्गणा बे, पण आकाश नथी. वली त्यां तो स्पर्श निर्णीत थायज बे. जेम, शब्दाश्रय स्पर्शवालो बे ; अनुकुल प्रतिकुल वायु होते बते, दूर ने नजीक रहेला प्राणीजने प्राप्त यतुं अने अप्राप्त यतुं एवं तेने इंडियार्थपणुं होवाथ। . ( कोनी
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२०७ व्यपरमाणुवत् इत्यसिझः प्रथमः । ३३ । द्वितीयस्तु गन्धव्येण व्यनिचारादनैकान्तिकः । वय॑मानजात्यकस्तूरिकादिगन्धव्यं हि पिहितारापवरकस्यान्तर्विशति बहिश्च निर्याति । न चाऽपौद्गलिकं । ३। अथ तत्र सूदमरन्ध्रसंन्नवान्नाऽतिनिबिमत्वमतस्तत्र तत्प्रेवशनिष्क्रमौ । कथमन्यथोद्घाटितज्ञरावस्थायामिव न तदेकार्णवत्वं । सर्वथा नीरन्ध्रे तु प्रदेशे न तयोः संनव इतिचेत्तर्हि शब्देऽप्येतत्समानमित्य सिशे हेतुः । ३५ । तृतीयस्तु तमिलतोल्कादिनिरनैकान्तिकः । चतुर्थोऽपि तथैव गन्धव्यविशेषसूदमरजोधूमा दिनिय॑निचारात् । न हि गन्धव्यादिकमपि नासायां निविशमानं तहिवरक्षारदेशोन्निनस्मश्रुप्रेरकं
ww पेठे ?) तोके तेवी रीतना गंधने धारण करनारा इव्यपरमाणुनीपेठे. एवी रीते ते यौगोनो पेहेलो हेतु असिझ थयो. । ३३ । बीजो हेतु गंधश्व्यसाथे व्यनिचार आववाथी अनेकांतिक , केमके वटात्ती एवी नंची कस्तूरी आदिकनु गंधश्व्य बीमेलाबारणावाला नरमानी. अंदर दाखन थाय , अने बहार निकले डे, अने ते गंधश्व्य कंई अपौगलिक नथी. । ३।। (वादीनी शंका )-तेमां सूदम रंध्रो होवाथी अतिनिबिमपणुं नथी, अने तेथी तेमां तेनो प्रवेश अने निक्रम , अने जो तेम न होय, तो उघामेला चार वखते जेम, तेम बंध वखते पण तेना गंधनो फेलावो केम न होय? अने सर्वथाप्रकारे डि
रहित प्रदेशमां तो तेना प्रवेश निर्गमननो संनवन नथी, एम जो तुं कहीश, तो शब्दमां पण तेमन ने, माटे तारो ते बीजो हेतु असिह ने. । ३५ । वली तारो त्रीजो हेतु तो वीजली अने नल्काआदिको साथे अनेकांतिक जे. चोथो हेतु पण तेवोन ; केमके गंधव्यवि- शेष, सूदम रज अने धुवामाआदिकोसाथे तेनो व्यनिचार आवे ने, केमके नाशिकामां प्रवेशकरतुं एवं गंधश्व्यादिक पण, ते नाशिकाना
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२०० दृश्यते । ३६ । पञ्चमः पुनरसिहः । तथाहि । न गगनगुण: शब्दोऽस्मदादिप्रत्यदत्वाद्रूपादिवदिति सिमः पौगन्निकात्वात्सामान्यविशेषात्मकः शब्द इति । ३७ । न च वाच्यं आत्मन्यपौद्गलिकेऽपि कथं मामान्य विशेषात्मकत्वं निर्विवादमनुन्यत इति । यतः संसार्यान्मनः प्रतिप्रदेशमनंताऽनन्तकर्मपरमाणुन्निः सह वह्नितापितघनकुट्टितनिर्विनागपिएमीनूतसूचीकलापवल्लोलीनावमापन्नस्य कथंचित्पौद्गलिकत्वान्यनुझानादिति । ३७ । यद्यपि स्याहादवादिनां पौद्गलिकमपौद्गलिकं च सर्व वस्तु सामान्य विशेषात्मकं तथाप्यपौद्गलिकेषु धर्माऽधर्माकाशकालेषु तदात्मकत्वमर्वाग्दृशां न तथा प्रतीतिविषयमायातीति पौद्गलिकेषु पुनस्तत्साध्यमानं तेषां सुश्र ज्ञानमित्यप्रस्तुतमपि शब्दस्य पौद्ग
ammarrrrna विवरपासे नगेली मूठगेने प्रेरनारुं देखातुं नथी. । ३६ । पांचमो हेतु तो असिझ ; ते कहे जे. रूपादिकनीपेठे आपणादिकोने प्रत्यद होवाथी शब्द आकाशगुणवालो नश्री; एवी रीते शब्द पौगलिक होवाथी सामान्यविशेषात्मक सिध्ध थयो. । ३७ । वली एम पण नही बोलवु के, अपौगलिक एवा पण आत्मानेविषे सामान्यविशेषात्मकपणुं निर्विवादपणे केम अनुन्नवाय? केमके अग्निवमे तपावेला, घणथी कूटेला, अने विनागरहित पिंमरूप थयेला सूचिसमूहनीपेठे दरेक प्रदेशोप्रते अनंता अनंता कर्मपरमाणु-साथे चोटीबेठेला संसारी आत्माने कथंचित् पौजनिक लेखवानी अनुझा आपेली . । ३ । स्या. हादवादिनने तो जोके पौगनिक अने अपौगलिक, एम सर्व वस्तु सामान्यविशेषरूप ले, तोपण चर्मचकुवालानने अपौगलिक एवा धमर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने कालमा देखामातुं एवं ते सामान्य विशेषात्मकपणुं बरोबर प्रतीतिमां आवी शके नही, अने पौजलिकोमा जो ते साधवामां आवे, तो तेनने तेमाटे तुरत श्रश थाय,
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२०ए लिकत्वमत्र सामान्य विशेषात्मकत्वसाधनायोपन्यस्तमिति' । ३ए । अत्रापि नित्यशब्दवादिसंमतः शब्दैकत्वैकान्तोऽनित्यशब्दवाद्यनिमतः शब्दाऽनैकत्वैकान्तश्च प्राग्दर्शितदिशा प्रतिदेप्यः । अथवा वाच्यस्य घटादेरर्थस्य सामान्य विशेषात्मकत्वे तक्षाचकस्य ध्वनेरपि तत्त्वं । शब्दार्थयोः कथंचित्तादात्म्यान्युपगमात् । ४० । यदाहुः श्रीनबाहुस्वामिपादाः । =| 'अनिहाणं अनिहेयान । हो निन्नं अनिन्नं च ॥ खुरअग्गिमोयगुच्चारणं मि । जम्हान वयणसवणाएं ॥॥॥ नविन नवि दाहो । न पूरणं तेन निनं तु ॥ जम्हाय मोयगुच्चारणं मि तत्थेव
n o..... ......... तेटलामाटे प्रस्ताव विना पण अहीं सामान्य विशेषात्मकपणुं साधवामाटे शब्दनुं पौगलिकपणुं कहीदेखामयुं जे. । ३ए । अहीं पण नित्यशब्दवादीए मानेधुं शब्दनुं एकांत एकपणुं, अने अनित्य शब्दवादीए मानेचं शब्दनुं एकांत अनेकपणुं पूर्वोक्त प्रकारथी खंमित करवू. अथवा वाच्य एवा घटादिक अर्थने सामान्य विशेषात्मकपणुं होते उते, तेना वाचक एवा शब्दने पण ते सामान्य विशेषात्मकपणुं डे, केमके शब्द अने अर्थ- कथंचित् तादात्म्यपणुं स्वीकार्यु जे. । १० । श्री नबाहुस्वामिजीए पण कह्यु के =|| अनिधान अने अनिधेय बन्ने निन्न अने अनिन्न होय डे, केमके अस्त्रो, अनि, अने मोदकना नच्चारएमां जेम मुख अथवा कानोने, बेद, दाह के (मोदकथी) पूर्णता थती नथी; अने तेथी ते निन्न . वत्ती जेम मोदकना उच्चारणमां,
१ हालना समयमा पाश्चिमात्य विद्वानोए पण शोधो कहाड्युं छे के । शब्द । पौगालिक छ। केमके ते शब्दोने फोनोग्राफ नामना यंत्रमां पकडीशकाय छे। तथा बेहेराकाचआदिकथी ते
ओनो अटकाव थइ शके छे। तेथी कोइ पण बुद्धिवान् माणस ते शब्दना रूपीपणाने अने पौगलिकपणाने छोडीने अरूपी एवा आकाशना गुणरूपे स्वीकारशे नहीं ॥ २ अभिधानं अभिधेयस्तु । भवति भिन्नं अभिन्नं च ॥ क्षुरअग्निमोदकोच्चारणे । यथा तु वदनश्रवणानां ॥ नापि छेदः नापि दाहः । न पूरणं तेन भिन्नं तु ॥ यथा च मोदकोच्चारणे । तथैव प्रत्ययो भवति ॥ न च भवति सः अन्यार्थे । तेन अभिन्नं तदर्थतः ॥ इतिच्छाया ॥
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पचन होइ || || न य होइ स नत्थे । तेण भिन्नं तदत्थान | = एतेन = || विकल्पयोनयः शब्दा | विकल्पाः शब्दयोनयः || कार्यकारणता तेषां । नार्थं शब्दाः स्टशन्त्यपि ॥ = इति प्रत्युक्तम् 'अ
6. 2.
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निधानप्रत्ययास्तुल्य नामधेयाः" इति वचनात् । ४१ | शब्दस्य ह्येतदेव तत्वं यदभिधेयं याथात्म्येनासौ प्रतिपादयति । स च तत्तथा'प्रतिपादयन् वाच्यत्वरूपपरिणामपरिणत एव वक्तुं शक्तो नान्यथा - तिप्रसङ्गात् । घटा निधानकाले पटाद्यनिधानस्य प्राप्तेरिति । ४२ । - थवा नङ्गयन्तरेण सकलं काव्यमिदं व्याख्यायते । वाच्यं वस्तु घटा
ते मोदकनीज प्रतीति थाय छे, पण बीजी वस्तुनी प्रतीति यती नथी, ते तदर्थव ते भिन्न बे. आथी करीने शब्दो विकल्पोथी नत्पन्न थाय बे, मने विकल्पो शब्दोथी उत्पन्न याय बे, एवी रीते ते
ने परस्पर कार्यकारणपणुं बे, मने अर्थने तो शब्दो स्पर्श पण करता नथी, एवी रीते पण फरीने कयुं बे, केमके अर्थ, अभिधान, ने प्रत्यय तुल्यनामधेयवालां बे, एवं शास्त्रनुं वचन बे. । ४१ । शब्दनुं एज तत्व बे, के जे अनियने ते ययात्मरूपे प्रतिपादन करे; अने तेवीरीते ते अभिधेयने प्रतिपादन करतो थको, ते शब्द वाच्यस्वरूपना परिणाममा परिणतज ययेलो कही शकाय, पण तेथी · न्यथाप्रकारे नही; केमके ( तेथी तो ) घटनुं नाम लेतीवेलाए पटादिकना नामनी पण प्राप्ति थवाथी प्रतिप्रसंग थाय । ४२ । अथवा या याखा काव्यनुं ( नीचे प्रमाणे ) बीजा प्रकारथी व्याख्यान कराय बे. वाच्य एटले घटादिक पदार्थ एकरूप होतो थको अनेकस्वरू
१ बाह्यः पृथुबुध्नोदराकारोऽर्थोऽपि घट इति व्यपदिश्यते । तद्वाचकमभिधानं घट इति । तद्ज्ञानरूपः प्रत्ययोऽपि घट इति । तथा च लोके वक्तारो भवति किमिदं पुरो दृश्यते घटः । किमसौ वक्ति घटं । किमस्य चेतसि घटः स्फुरति ॥
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२११ दिकमेकात्मकमेवेकरूपमेव सदनेकमनेकवरूपं । अयमर्थः । प्रमाता तावत्प्रमेयं लक्षणेन निश्चिनोति । तच्च 'सजातीयविजातीयव्यवच्छेदादात्मलानं बनते 1 ४३ । यथा घटस्य सजातीया मृन्मयपदार्थाः । विजातीयाश्च पटादयस्तेषां व्यवच्छेदस्तल्लदणं । पृथुबुध्नेोदराद्याकारः कम्बुग्रीवो जलधारणाहारणादिक्रियासमर्थः पदार्थविशेषो घट इत्युच्यते । तेषां च सजातीयविजातीयानां स्वरूपं तत्र बुझ्यारोप्य व्यवच्छिद्यते । अन्यथा प्रतिनियततत्स्वरूपपरिच्छेदाऽनुपपत्तेः । धध। सर्वनावानां हि नावाऽनावात्मकं स्वरूपं । एकान्तनावात्मकत्वे वस्तुनो वैवरूप्यं स्यात् । एकान्ताऽनावात्मकत्वे च निःस्वन्नावता स्यात्।।
Arrant
पवालो . तेनो नावार्थ नीचे प्रमाणे जे. प्रमाता जे ते लक्षणवझे प्रमेयनो निश्चय करे , अने ते लक्षण सजातीय अने विनातीय पदाोंने जूदा पामवाथी पोतानुं सार्थकपणुं मेलवे ने ; । ३३ । जेम माटीमय पदार्थों घटना सनातीय जे, अने पटादिको विजातिय , तेनने जे जूदा पामवा, तेनुं नाम लवण कहेवाय ले. पोहोला अने जामा पेटना आकारवालो, शंखसरखी ग्रीवावालो, जल नरवालाववानी क्रियामां समर्थ, एवो जे पदार्थ विशेष, ते घट कहेवाय डे; अने तेन्ना सजातीय अने विजातीयोनुं स्वरूप तेमां बुझिपूर्वक आरोपीने, तेनो व्यवच्छेद कराय डे, अने जो तेम न कराये, तो दरेक चोकस पदार्थना स्वरूपना परिच्छेदनी अप्राप्ति थाय. । ४ । वली सर्व पदार्थोनुं नावाऽनावात्मक स्वरूप ने, केमके एकांत नावात्मकपणामां पदार्थ ने विखरूपपणुं थाय, अने एकांत अन्नावात्मकपणामां निःस्वन्नावपणुं थाय, माटे विजस्वरूपपणे उतो होवाथी, अने परस्वरूपपणे अडतो होवाथी, पदार्थ नावाऽनावात्मक ले. कर्यु डे के =|| सघर्बु निजरूपे
१ सजातीयविजातीयव्यावर्त्तको धर्मो लक्षणं ।।
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२१२ तस्मात्स्वरूपेण सत्वात्पररूपेण चाऽसत्वानावाऽन्नावात्मकं वस्तु । यदाह । =॥ सर्वमस्ति स्वरूपेण । पररूपेण नास्ति च ॥ अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् । स्वरूपस्याप्यसंभवः ।।= ततश्चैकस्मिन् घटे सर्वेषां घटव्य. तिरिक्तपदार्थानामन्नावरूपेण वृत्तेरनेकात्मकत्वं घटस्य सूपपादम् ।।५। एवं चैकस्मिन्नर्थे झाते सर्वेषामर्थानां ज्ञानं । सर्वपदार्थपरिच्छेदमन्तरेण तनिषेधात्मन एकस्य वस्तुनो विविक्ततया परिच्छेदाऽसंनवात् । आगमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः “जे एगं जाण । से सव्वं जाण । जे सवं जाण । से एगं जाण" तथा । =|| एको भावः सर्वथा येन दृष्टः । सर्वे नावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ॥ सर्वे नावाः सर्वथा येन दृष्टा। एको नावः सर्वश्रा तेन दृष्टः ॥= । ४६। ये तु सौगताः पराऽसत्वं नाङ्गीर्वते । तेषां घटादेः सर्वात्मकत्वप्रसङ्गः । तथाहि । यथा घटस्य
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बे, अने पररूपे नथी; अने जो तेम न होय, तो सर्वने बतापणुं थाय, अने स्वरूपनो पण असंनव थाय =|| अने तेथी एक घटनीअंदर, घटथी निन्न, एवा सर्व पदार्थो अन्नावरूपे वर्तवाथी, घटनु अनेकात्मकपणुं सहेलाथी मनी आवे . | ४५ । वली एवीजरीते एक पदार्थने जाणवाथी सर्व पदार्थोनुं ज्ञान साबीत थाय , केमके सर्व पदार्थोना परिच्छेदविना, तेजना निषेधरूप एक पदार्थना परिच्छेदनो निन्नरूपे असंभव ले. आगममां पण एमज का डे के “जे एकने जाणे , ते सर्वने जाणे डे, अने जे सर्व ने जाणे , ते एकने जाणे " तथा =|| जेणे एक नाव सर्वथाप्रकारे जोयो , तेणे सर्व नावो सर्वथाप्रकारे जोया ने, तेम सर्व नावो जेणे सर्वथाप्रकारे जोया छे, तेणे एक नाव पण सर्वथाप्रकारे जोयो . । ४६ । हवे बौछो, के जेन परतुं अतापणुं अंगीकार करता नथी, तेनने घटादिकप्रते सर्वात्मकपणानो प्रसंग आवशे. ते कहे . घटने स्वरूपादिकवके
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२१३ स्वरूपादिना सत्वं । तया यदि पररूपादिनापि स्यात् । तथा च सति स्वरूपादित्ववत्पररूपादित्यप्रसक्तेः कथं न सर्वात्मकं भवेत् ! पराऽसत्वेन तु प्रतिनियतोऽसौ सिध्यति । ४७ । अथ न नाम नास्ति पराडसत्त्वं किं तु स्वसत्त्वमेव तदितिचेदहो वैदग्धी ! न खलु यदेव सत्त्वं तदेवासवं नवितुमर्हति । विधिप्रतिषेधरूपतया विरुधर्माध्यासेनाऽनयोरैक्यायोगात् । ४८ । पय युष्मत्पदेऽप्येवं विरोधस्तदवस्थ एवे - तिचेदहो वाचाटता देवानांप्रियस्य !! न हि वयं येनैव प्रकारेण सत्त्वं तेनैवाऽसत्त्वं येनैवचाऽसत्त्वं तेनैव सत्त्वमन्युपेमः । किंतु स्वरूपपव्यदेकलावैः सत्वं पररूपव्य क्षेत्रकालजावैस्त्वसत्त्वं । तदा क्वविरोधावकाशः ? | ४९ | यौगास्तु प्रगल्भन्ते सर्वथाष्टथग्नुतपरस्पराऽना
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जेम बताएं बे, तेम पररूपादिकवमे पण जो हो, तो स्वरूपादिकपणानीपेठे पररूपादिकनी पण प्रसक्तिथी तेने सर्वात्मकपणुं केम न थाय ? एवी रीते परना बतापणायेंकरीने ते चोकस ते सियाय बे. । 8७ । घटमां परनुं बताएं नथी तेम नथी, पण ते वसवज बे, एम जो तुं कहेतो होय, तो अहो ! तारी कं चतुराई !! जेन बतापणुं बे, तेज प्रतापणुं कई थर शकतुं नथी, केमके विधिप्रतिषेधरूपपणायें करीने विरुधर्म धारवावमे ते बननी ऐक्यतानो प्रयोग बे. । ४८ । हवे कदाच एम कहीश के तमारा पमां पण ते एवीज रीतनो विरोध व्यावशे, तो हो ! शुं तारुं मूर्खनुं वाचालपणुं !! केमके मो जेज प्रकारे बतापणुं तेज प्रकारे बतापणुं, तथा जेज प्रकारे तापणुं तेज प्रकारे बतापणुं कंई स्वीकारता नथी, परंतु स्वरूपना इव्य, क्षेत्र, काल ने जावे करीने बतापणुं, तथा पररूपना इंव्य, क्षेत्र, काल ने जावें करीने तापणुं स्वीकारीये बीये; माटे तेमां क्यां विरोधनो अवकाश रह्यो ? । ४ ।
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२१५ वान्युपगममात्रेणैव पदार्थप्रतिनियमसिझेः । किं तेषामसत्त्वात्मकत्व. कल्पनयेति । तदसत् । यदा हि पटाद्यन्नावरूपो घटो न भवति । तदा घटो पटादिरेव स्यात् । यथा च घटाऽनावानिन्नत्वाद्घटस्य घटरूपता । तथा पटादेरपि स्याघटाऽनावानिन्नत्वादेवेत्यलं विस्तरेण । ५० । एवं वाचकमपि शब्दरूपं झ्यात्मकं । एकात्मकमपि सदनेकमित्यर्थः । अथोक्तन्यायेन शब्दस्यापि नावाऽनावात्मकत्वात् । अथवा एक विषयस्यापि वाचकस्याऽनेक विषयत्वोपपत्तेः । ५१ । यथा किन घटशब्दः संकेतवशात प्रथुबुध्नोदराद्याकारवति पदार्थे प्रवर्तते वाचकतया । तथा देशकालाद्यपेक्ष्या तशादेव पदार्थान्तरेष्वपि तथा वर्तमानः केन वार्यते ? नवन्ति हि वक्तारो योगिनः शरीरं प्रति घट 2~~~~ योगमतवाला एवी बझार मारे के, सर्वथा प्रकारे निन्न रहेला एवा परस्पर अन्नावना स्वीकारमात्रमेन पदार्थना दरेक नियमनी सिदि थाय बे, माटे तेउना अबतात्मकपणानी कल्पनानी शी जरुर ले ? यौगमतवालान्नुं ते कहेवू असत्य ; केमके ज्यारे पटादिकना अन्नावरूप घट न होय, त्यारे घट डे ते, पटादिकज थ जाय ; वत्नी घटना अन्नावथी घटनु निन्नपणुं होवाथी जेम घटरूपपणुं थाय जे. तेम पटादिकनुं पण थाय, केमके घटना अन्नावथी (पटने ) निन्नपणुं , 'एवीरीते अतिविस्तारथी सर्यु. । ५० । एवीरीते वाचक (शब्द) पण एकात्मक बतां अनेकात्मक डे, केमके उक्त न्यायें करीने शब्दने पण नावाऽनावात्मकपणुं , अथवा एक विषयवाला वाचकने पण अनेकविषयपणानी प्राप्ति जे. । ५१ । जेम घट शब्द वाचकपणावमे करीने संकेतना वशथी पोहोला तथा जामा पेटारादिकना आकारवाला प. दार्थमा प्रवर्ते डे, तेम देशकालादिकनी अपदावमे ते संकेतना वशबीज बीजा पदार्थो नेविषे पण वर्ततो कोनाथी वारीशकाय तेम?
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इति । संकेतानां पुरुषेच्छाधीनतयाऽनियतत्वात् । ५२। तथा चौरशब्दो। ऽन्यत्र तस्करे रूढोऽपि दाक्षिणात्यानामोदने प्रसिदः । यथा च कुमारशब्दः पूर्व देशे आश्विनमासे रूढः । एवं कर्कटीशब्दादयोऽपि ततदेशापेक्या योन्यादिवाचका झेयाः । ५३ । कानापेक्या पुनर्यथा जैनानां प्रायश्चित्तविधौ धृतिश्रशसंहननादिमति प्राचीनकाले षम् गुरुशब्देन शतमशीत्यधिकमुपवासानामुच्यते स्म । सांप्रतकाले तु तहिपरीते तेनैव ष गुरुशब्देनोपवासत्रयमेव संकेत्यते 'जीतकल्पव्यवहारानुसारात् । ५४ । शास्त्रापेक्ष्या तु यथा पुराणेषु हादशीशब्देनैकादशी। त्रिपुराम वे चाऽतिशब्देन मदिरा निषक्तं । च मैथुनशब्देन मधुसपिषोर्ग्रहण मित्यादि । न चैवं सङ्केतस्यैवार्थप्रत्यायने प्राधान्यं ।
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केमके योगी शरीरने पण घट कहेनारा होय छे, कारणके पुरुषनी इच्छाने आधिन होवाथी संकेतो, अनियमितपणुं . । ५। वनी चौर शब्द अन्य जगोए तस्कररूपे रूढ ने, उतां पण दक्षिणीनमां ते नाततरिके प्रसिह जे. तथा जेम कुमारशब्द पूर्वदेशमा आश्विनमासमां रूढ ; एवीरीते कर्कटीशब्दादिको पण ते ते देशनी अपेक्षाये योनियादिकना वाचको जाणवा. । ५३ । वली कालनी अपेक्षाये जैनोनी प्रायश्चित्तविधिमां, धैर्य, श्रज्ञ तथा संघयणादिकवाना प्राचीनकानमां 'षट् गुरु' शब्द करीने जेम एकसोने एंसी नपवासो कहेवाय जे; अने तेथी विपरीत एवा हालना समयमां तो तेन 'षट्गुरु ' शब्दे करीने जीतकल्पव्यवहारने अनुसारे त्रज उपवासनो संकेत क.. राय ले. । ५५ । वत्नी शास्त्रनी अपेक्षाये पुराणोमां नेम धादशी शब्दे करीने एकादशी , तथा त्रिपुरार्णवमां नेम अनिशब्दे करीने 'मदिरायुक्त' ने, तथा मैथुनशब्दे करीने जेम मध अने घीनुं ग्रहण जे.
१ जीतव्यवहारानुसारात इति द्वितीयपुस्तकपाठः ॥ २ केवलस्येति शेषः ।।
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खानाविकसामर्थ्यसाचिव्यादेव तस्य तत्र प्रवृत्तेः । सर्वशब्दानां सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वात् । यत्र च देशकालादौ यदर्थप्रतिपादनशक्तिसहकारी सङ्केतस्तत्र तमर्थं प्रतिपादयति । ५५ । तथा च निर्जित:जयपरप्रवादाः श्रीदेवसूरिपादाः " स्वाना विकसामर्थ्यसमयान्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्दः" (अत्र शक्तिपदार्थसमर्थनं ग्रंथान्तरादवसेयम् ) अतोऽन्यथेत्यादि उत्तराई पूर्ववत् । ५६ । प्रतिन्नाप्रमादस्तु तेषां सदसदेकान्ते वाच्यस्य । प्रतिनियतार्थविषयत्वे च वाचकस्योक्तयुक्त्या दोषसन्नावाद् व्यवहाराऽनुपपत्तेः । तदयं समुदयार्थः । ५७। सामान्य विशेषात्मकस्य नावाऽनावात्मकस्य च वस्तुनः सामान्य विशेषात्मको
इत्यादि. वत्नी एवीरीते केवल संकेतनुंज कई अर्थनी प्रतीतिमा प्रधानपणुं नथी, केमके स्वान्नाधिक सामार्थ्यना संयोगथीज तेमां तेनी प्रवृत्ति , कारणके सर्व शब्दो सर्व अर्थोनी प्रतीतिनी शक्तिवाला ले; अने जे देशकालादिकमां जे अर्थना प्रतिपादननी शक्तिने सहाय करनारो संकेत होय, त्यां ते अर्थ ने प्रतिपादन करे . । ५५। वली जीतेल जे उर्जय परप्रवादो जेमणे एवा श्री देवसूरिजी महाराज पण कहे जे के “ स्वानाविक सामर्थ्य अने संकेतवमे अर्थबोधना कारणरूप शब्द ." अहीं शक्तिपदार्थनुं समर्थन बीजा ग्रंथोथी जाणी लेवं. 'अतोऽन्यथा' इत्यादि उत्तरार्धन व्याख्यान (अहीं पण ) पूर्वनीपेठेन जाणी लेवु. । ५६। ते वादीननो बुझिसंबंधि प्रमाद तो तेथी ने, के तेन वाच्यने एकांत सत् अने एकांत असत् कहे जे, तथा वाचकने पण अमुक पदार्थनाज विषयवालो कहे डे, अने तेम मानवू तो उपर कहेली युक्तिमुजब दूषणवायूँ होवाथी व्यवहारनी प्राप्ति थती नथी ; तेथी तेनो समुच्चयार्थ नीचेप्रमाणे जे. । ५७ । सामान्यविशेषरूप अने नावाऽन्नावरूप एवा पदार्थनो सामान्य विशेषरूप
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जावाऽनावात्मकश्च ध्वनिर्वाचकः । इत्यन्यथा प्रकारान्तरैः पुनर्वाच्यवाचकनावव्यवस्थामातिष्ठमानानां प्रतिजैव प्रमाद्यति । न तु ताणितयो युक्तिस्पर्शमात्रमपि सहन्ते । कानि तानि वाच्यवाचकनावप्रकारान्तराणि परवादिनामिति चेदेते ब्रमः । ५७ । अपोह एव शब्दार्थ इ. त्येके " अपोहः शब्दलिङ्गान्यां न वस्तुविधिनोच्यते” इति वचनातू । ५ए । अपरे च सामान्यमात्रमेव शब्दानां गोचरस्तस्य क्वचित्प्रतिपन्नस्यैकरूपतया सर्वत्र संकेतविषयतोपपत्तेर्न पुनर्विशेषास्तेषामानन्त्यतः काश्यनापलब्धुमशक्यतया तक्षियताऽनुपपत्तेः । ६० । विधिवादिनस्तु विधिरेव वाक्मार्थोऽप्रवृत्तप्रवर्तनखन्नावत्वात् तस्येत्याचहते । विधिरपि
.mmmmmmmmmmmmmmmmmmmons अने नावाऽनावरूप ध्वनि एटले वाचक डे; माटे तेथी उसटीरीते जूदा प्रकारोथी वाच्यवाचकनावनी व्यवस्थाने स्थापन करनारा एवा ते वादीओनी बुजि मारीगयेनी डे, केमके तेन्नां वचनो युक्तिना फक्त स्पर्शने पण सहन करी शकतां नश्री. हवे ते वादीओना वाच्यवाचकनावना ते जूदा प्रकारो कया ? एम जो कोई पूजे, तो ते अ. मो (नीचे प्रमाणे ) कहीये डीये. । ५ । केटलाको एम कहे डे के, 'अपोह' एन शब्दार्थ . कह्यु के, 'अपोह ' शब्द अने निंगवमे डे, पण वस्तुविधिवमे नही. । ५५ । वली केटलाको तो सामान्यमात्रनेन शब्दोनो विषय कहे , केमके कचित्प्राप्त एवा ते सामान्यने सर्व जगाए एकरूपपणावमे संकेतविषयपणानी प्राप्ति के; पण विशेषो शब्दना विषयरूप नथी, केमके तेत्रो अनंतपणाथी काय॑पणावो मेलववा अशक्य होवाश्री, तेओने शब्दविषयपणानी अप्राप्ति के. । ६० । वली विधिवादीओ तो एम कहे डे के विधिन वाक्यार्थ डे, केमके ते नही प्रवर्तेलाने प्रवांववाना स्वनाववाली जे. वली ते विधि
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विधिः क्रियायां प्ररणा ॥
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१० तत्तवादिविप्रतिपच्याऽनेकप्रकारस्तथाहि । ६१ । वाक्यरूपः शब्द एवं प्रवर्तकत्वादिधिरित्येके । तद्व्यापारो 'नावनाऽपरपर्यायो विधिरित्यन्ये । 'नियोग इत्यपरे । प्रैषादय इत्येके । तिरस्कृततउपाधिप्रवर्तनामात्रमित्यन्ये । एवं फलतदनिलापकर्मादयोऽपि वाच्याः । एतेषां निराकरणं • सपूर्वोत्तरपदं न्यायकुमुदचन्शदवसेयमिति काठ्यार्थः ॥
। । इदानीं सांख्यानिमतप्रकतिपुरुषादितत्वानां विरोधावरु त्वं ख्यापयन् तद्वात्रिंशताविनसितानामपरिमितत्वं दर्शयति ।
चिदर्थशून्या च जमा च बुध्धिः ।
शब्दादितन्मात्रजमम्बरादि ॥
पण ते ते वादीओना मतांतरोधी अनेक प्रकारनी ले. ते कहे . ।११। केटनाको एम कहे डे के, वाक्यरूप शब्दन प्रवर्तक होवायी विधि , बीजा एम कहे जे के, तेनो व्यापार अथवा नावना ठे बीजुं नाम जेतुं, तेन विधि जे. यागादि सकर्ममार्गरूप जे नियोग ते विघि डे, एम केटलाक कहे . वली केटलाको एम कहे डे के, न्यकारपूर्वक प्रेरणारूप प्रैषादिको विधि . तेम बीनाओ वली एम कहे डे के, तिरस्कारेली एवी तउपाधिप्रवर्तनामात्रज विधि . एवी रीते फस, तदभिलाष तथा कर्मादिकोने पण जाणवा. ए सर्वेर्नु पूर्वोत्तर पव सहित निराकरण न्यायकुमुदचं नामना ग्रंथथी जाणी सेवं. एवी रीते चौदमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
।। हवे सांख्योए मानला प्रकृतिपुरुषादिक तत्वोनुं विरोधयुक्ता' कहेता थका, तेननी मूर्खाश्ना चेष्टितोर्नु अपरिमितपणुं दे
खामे.
२ यागादिसकर्ममार्गरूप..।
- ..... १ भावना हि नःकर्यमार्गरूपा परमज्योति यानरूपा॥
यकारपर्विका प्रेरणा प्रेषः ।।
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न बन्धमोदी पुरुषस्य चेति । कियज्जमैर्न प्रथितं विरोधि ॥ १५ ॥
चैतन्यशक्ति पदार्थोंनो परिच्छेद करीशकती नथी, ने बुद्धिजम; तथा आकाशादिक पांचे नृतो शब्दांदितन्मात्राोथी उत्पन थांबे, ते आत्माने बंघ ने मोह नथी. एवी रीते ते मूर्खोए के"टक विरोधवालुं नथी गुंथी कहाड्धुं ! ! ॥ १५ ॥
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| १ | चिचैतन्यशक्तिरात्मस्वरूपनृताऽर्थशून्या विषयपरिच्छेदविरहिता । श्रध्यवसायस्य बुढ़िव्यापारत्वादित्येका कल्पना । २ । बुविश्व महत्तत्वाख्या जमाऽनवबोधरूपा इति द्वितीया । ३ । अम्बरादि व्योमप्रभृतितपञ्चकं शब्दादितन्मात्रनं । शब्दादीनि पञ्चतन्मात्रांशि सूक्ष्मसंज्ञानि तेन्यो जातमुत्पन्नं शब्दादितन्मात्रमं इति तृतीया । (अत्र च शब्दो गम्यः ) पुरुषस्य च प्रकृतिविकृत्यनात्मकस्यात्मनो न बन्धमोकौ । किं तु प्रकृतेरेव । ४ । तथाच कापिल्लाः । ' तस्मान्न बध्यते नापि ।
·
| १ | चिटले आत्मस्वरूपभूत एवी चैतन्यशक्ति विषयोना - रिच्छेद विनानी बे, केमके पदार्थोंनो अध्यवसाय बुद्धिना व्यापारवालो बे, एवी रीतनी ( ते सांख्योनी ) एक कल्पना ब्रे, । २ । वली महत्तत्व नामनी जे बुद्धि, ते जम एटले अज्ञानना स्वरूपवाली बे, ए (तेजनी ) बीजी कल्पना बे । ३ । वल्ली आकाशादिक पांचे तो, सूक्ष्मसंज्ञावाली शब्दादिक पांच तन्मात्राजश्री नृत्पन्न ययां दे, ए (तेजनी ) त्रीजी कल्पना छे. ( अही / च ' शब्दने जोमीलेवो.. ) वली प्रकृति विकृतिथी अनात्मक एवा आत्माने बंध मोक नथी, परंतु ते प्रकृतिने बे. । ४ । ते कपिला मतवाला कहे दे के कोर बंधातो नथी, मूकातो पण नथी, अने संसरतो पण नवी
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मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः' । तत्र बन्धः प्राकृतकादिः । मोक्षः पञ्चविंशतितत्वज्ञानपूर्वकोऽपवर्गः । इति चतुर्थी । ५। (इति शव्दस्य प्रकारार्थत्वात् ) एवं प्रकारं अन्यदपि विरोधीति । विरुई पूर्वापर विरोधादिदोषाघातं जमैमूखैस्तत्वाऽवबोधविधुरधीनिः कापिलैः कियन्न ग्रथितं ? कियन्न स्वशास्त्रेषूपनिबई ( कियदित्यसूयागर्न ) तत्प्ररूपितविरुझार्थानामानन्त्येनेयत्ताऽनवधारणात् । इति संदेपार्थः । व्यासार्थस्त्वयं । ६ । सांख्यमते किन उखत्रयानिहतस्य पुरुषस्य तदुपघातहेतुतत्व जिज्ञासा उत्पद्यते ।
आध्यात्मिकमाधिदैविकमाधिनौतिकं चेति खत्रयं । तत्राध्यात्मिक विविधं | शारीरं मानसं च । शारीरं वातपित्तश्लेप्मणां वैषम्यनिमित्तं ।
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नानाप्रकारना आश्रयवानी प्रकृति संसरे बे, बंधाय ठे, अने मूकाय
' तेमां बंध एटने प्रकृति संबंधियादिक, अने मोक्ष एटले पचीस तत्वोना ज्ञानपूर्वक अपवर्ग. ए (तेननी) चोथी कल्पना ले. ।५। (इति' ए शब्द प्रकारार्थे होवाथी) एवा प्रकारे करीने बीजुं पण पूर्वापर विरोधरूप दूषणवायूँ, ते मु॰ए एटने तत्वज्ञानरहितबुभिवाला एवा ते कापिलोए पोताना शास्त्रोमां केटचुक नथी गुंथी कहामयु!! (अहीं 'केटलुक' ए शब्द असूयागनित .) अर्थात् तेनए प्ररूपेला विरोधो कंई आटलान नथी, परंतु अनंता डे, एवीरीते संदेपथी अर्थ कह्यो. विशेष अर्थ तो नीचे प्रमाणे . । ६ । सांख्य मतमां त्रण उःखोथी :खित थयेला आत्माने, ते ऽःखोने नाश करवाना हेतुरूप तत्वजिज्ञासा उत्पन्न थाय जे. आध्यात्मिक, आधिदेविक, अने आधिन्नौतिक ए त्रण उःखो डे. तेमां आध्यात्मिक उःख बे प्रकारचें ; शरीरसंबंधि अने मनसंबंधि; शरीरसंबंधि एटले वात, पित्त अने श्लेप्मना विकाररूप. मनसंबंधि एटले काम, क्रोध, लोन, मोह, 5षां
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२२१ मानसं कामक्रोधलोनमोहेप्या विषयाऽदर्शन निबन्धनं । सर्व चैतदान्तरोपायसाध्यंत्रादाध्यात्मिकं उःखं । ७ । बाह्योपायसाध्यं उःखं धा। आ घिनौतिकमाधिदैविकं चेति । तत्राधिनौतिकं मानुषपशुपतिमृगसरीसृपस्थावरनिमित्तम् । आधिदैविकं यदादसग्रहाद्यावेशहेतुकम् । अनेन उःखत्रयेण रजःपरिणामन्नेदेन बुध्वितिना चेतनाशक्तेः प्रतिकूलतयाऽनिसम्बन्धोऽनिघातः । ७ । तत्वानि च पञ्चविंशतिस्तद्यथा । अव्यक्तमेकं महदहंकारपञ्चतन्मात्रैकादशेन्श्यिपञ्चमहानूतनेदात् त्रयोविंशतिविधं व्यक्तं । पुरुषश्चिद्रूप इति । ए। तथा चेश्वरकृष्णः । =॥ मूलप्रकृतिर विकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोमशकस्तु विकारो न प्रकतिर्न विकृतिः पुरुषः ।।= | १७ । प्रीत्यप्रीतिविषादात्मकानां लाघ
तथा विषयोनी अप्राप्तिसंबंधि. आ सघनु उःख अंतरंग नपायोवमे साध्य होवाथी आध्यात्मिक . ।। बाह्य उपायोवमे साध्य, ए, पुःख बे प्रकार- डे, आधिनौतिक अने आधिदैविक. तेमां आधिनौतिक एटले मनुष्य, पशु, पति, मृग, सर्प तथा स्थावरोना निमित्तथी नत्पन्न थयेचु उःख जाणवू; अने आधिन्नौतिक एटले यद, रादस, ग्रह इत्यादिकना आवेशना हेतुरूप उःख जाणवू. एवी रीतना रजःपरिणामना नेदवाला, अने बुझ्मिा रहेला ते त्रणे उःखोवमे प्रतिकूलपणावमे चेतना शक्तिनो अनिघात थाय. | ७ | तत्वो नीचे प्रमाणे पचीस ले. तेमां एक प्रकृति अव्यक्त डे, तथा बुद्धि, अहंकार, पांच तन्मात्रान, अग्यार इंघिय, अने पांच महान्त ए त्रेवीस प्रकारनां तत्वो व्यक्त डे, तथा चिद्रूप आत्मा ए पचीसमुं तत्व ले. । ए। ईश्वरकृष्ण पण कहे डे के =॥ मूलप्रकृति विकार विनानी ने, अने बुद्धि आदिक सात, तथा इंडियादिक शोल विकारो डे, तथा आत्मा प्रकृति पण नश्री, तेम विकृति पण नश्री. = । १७ । प्रीति, अ
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वोपष्टंनगौरवधर्माणां परस्पराऽपकारिणां त्रयाणां गुणानां सत्वरजस्तमसां साम्याऽवस्था प्रकृतिः । प्रधानमव्यक्तमित्यनान्तरं । तच्चानादिमध्यान्त अनवयवं साधारणमशब्दमस्पर्शमरूपमरसमगन्धमव्ययं । ११ । प्रधानाद्बुझिमहदित्यपरपर्यायोत्पद्यते । योऽयमध्यवसायो गवादिषु प्रतिपत्तिरेवमेतत् नान्यथा । गोरेवायं नाश्वः । स्थाणुरेष नायं पुरुषः । इत्येषा बुध्धिः । तस्यास्त्वष्टौ रूपाणि | धर्मझानवैराग्यैश्वर्यरूपाणि चत्वारि सात्त्विकानि । अधर्मादीनि तु तत्प्रतिपद नूतानि चत्वारि तामसानि ।१२। बुध्धेरहंकारः । स चाऽनिमानात्मकः । अहं शब्देऽहं स्पर्शेऽहं रूपेऽहं गन्धेऽहं रसेऽहं स्वामी अहमीश्वरोऽसौ मया हतः । सस
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प्रीति अने विषादरूप, तथा लघुता, नपष्टंन, अने गौरव डे धर्म जेउनो, अने परस्पर अपकारी एवा सत्त्व, रजः, अने तमः नामना त्रणे गुणेनी जे तुल्य अवस्था, ते प्रकृति कहेवाय ने, अने तेना प्रधान तथा अव्यक्त नामो जे. वली ते प्रकृति आदि, मध्य अने अंतविनानी, अवयव विनानी, साधारण, शब्दविनानी, स्पर्शविनानी, रूपविनानी, गंधविनानी, तथा अव्यय . ।११। ते प्रकृतिथी बुद्धि, के जेनुं बीजुं नाम महत् , ते उत्पन्न थाय ले. जे आ अध्यवसाय एटले गवादिकने विषे जे प्रतिपत्ति, अथवा आ एमज , अन्यथा नथी; वत्नी आ बलद डे पण घोमो नश्री, आ स्थाणु डे पण पुरुष नथी, एवा प्रकारनी बुद्धि जाणवी. ते बुझिना ( नीचे प्रमाणे ) आठ प्रकारो बे. धर्म, ज्ञान, वैराग्य अने ऐश्वर्यरूप चार प्रकारो साविक बे, तथा तेथी उलटा अधर्मादिक चार प्रकारो तामस . । १२ । ते बुझिथी अहंकार थाय डे, अने ते अनिमानरूप ने, जेमके शब्दमां हुँ, स्पर्शमां हुं, रूपमा हुँ, गंधमां हुँ, रसमां हुं, हुं स्वामी बुं, हुं ईश्वर , आ मारावमे हणायो , बलवान् एवो हुं आने हणीश, इत्यादिक
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२२३ चोऽमुं हनिष्यामि । इत्यादिप्रत्ययरूपः । १३ । तस्मात्पञ्चतन्मात्राणि । शब्दतन्मात्रादीन्यविशेषरूपाणि सूदमपर्यायवाच्यानि।शब्दतन्मात्राधि शब्द एवोपत्नत्यते । न पुनरुदातानुदात्तचरित्कम्पितषम्जादिनेदाः । षम्जादयः शब्दविशेषाउपत्लन्यन्ते । एवं स्पर्शरूपरसगन्धतन्मात्रेष्वपि योजनीयमिति । १४ । तत एव चाऽहङ्कारादेकादशेन्झ्यिाणि च । तत्र चकुः श्रोत्रं घ्राणं रसनं त्वगिति पञ्चबुध्धीनिश्याणि । वाक्पाणिपादपायूपस्थाः पञ्च कर्मेन्श्यिाणि । एकादशं मन इति । १५। पञ्चतन्मात्रेभ्यश्च पञ्चमहाभूतानि उत्पद्यन्ते । तद्यथा । शब्दतन्मात्रादाकाशं शब्दगुणं । शब्दतन्मात्रसहितात्स्पर्शतन्मात्राक्षायुः शब्दस्पर्शगुणः । शब्दस्पर्शतन्मातप्तहिताद्रूपतन्मात्रात्तेनः शब्दस्पर्शरूपगुणं । शब्दस्पर्शरूपतन्मात्रस
प्रतीतिरूप अहंकार . । १३ । ते अहंकारथी अविशेषरूप सूक्ष्मपर्याय नामनी शब्दतन्मात्रादिक पांच तन्मात्रा नत्पन्न याय . वली शब्दतन्मात्राथी शब्दज प्राप्त थाय जे, पण नदात्त, अनुदात्त, स्वरित, कंपित, तथा तंत्रीना स्वरादिको प्राप्त थता नथी, ते तंत्रीस्वरादिको शब्दविशेषथी प्राप्त थाय जे; वली एवीरीते स्पर्श, रूप, रस तथा गंधनी तन्मात्रादिकोने विषे पण जोमीलेवु. । १५ । वली तेज अहंकारथी अग्यार इंनि नत्पन्न थाय ले. तेमां चढु, श्रवण, नाशिका, जीह्वा, तथा त्वचा, ए पांच बुझी पिन जे; तथा वाचा, हस्त, चरण, अपानधार, अने लिंग, ए पांच कर्मेनि डे, अने अग्यारमुं मन ने. । १५ । पांच तन्मात्रान्थी पांच महानूतो नत्पन्न थाय छे. ते नीचे प्रमाणे. शब्दतन्मात्राथी शब्दगुणवालो आकाश उत्पन्न थाय जे; तथा शब्दतन्मात्रासहित स्पर्शतन्मात्राथी शब्दस्पर्शना गुणवालो वायु उत्पन्न थाय जे. वन्नी शब्द अने स्पर्शतन्मात्रायें करीने सहित एवी रूपतन्मात्राथी, शब्द, स्पर्श अने रूपना गुणरूप तेज उत्पन्न श्राय . तेम
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हिताऽसतन्मात्रादापः शब्दस्पर्शरूपसगुणाः । शव्दस्पर्शरूपरसतन्मात्रसहितानन्धतन्मात्रात् शब्दस्पर्शरूपरसगन्धगुणा पृथ्वी जायत इति । १६ । पुरुषस्त्वमूर्तश्चेतनो नोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः अकर्ता निगुण: सूदम आत्मा कपिलदर्शने इति । अंधपंगुवत् प्रकृतिपुरुषयोः संयोगः । चिच्छक्तिश्च विषयपरिच्छेदशून्या । यत इन्ष्यिारण सुखःखादयो विषया बुझौ प्रतिसंक्रामन्ति । बुझिनोनयमुखदर्पणाकारा । ततस्तस्यां चैतन्यशक्तिः प्रतिबिम्बते । ततः सुख्यहं पुःख्यहं इत्युपचारः । आत्मा हि खं बुझेरव्यतिरिक्तमनिमन्यते । १७ । आह च पतञ्जलिः । “ शुशेऽपि पुरुषः प्रत्ययं बौइमनुपश्यति । तमनुपश्यन्नतदात्मापि तदात्मक श्व प्रतिन्नासते” इति मुख्यतस्तु बुझेरेव
www.rrrrrrrrrrrrras शब्द, स्पर्श, तथा रूपतन्मात्रायेंकरीने सहित एवी रसतन्मात्राथी, शब्द, स्पर्श, रूप अने रसना गुणरूप एवं जन्न नत्पन्न थाय जे. तथा शब्द, स्पर्श, रूप अने रसतन्मत्रायें करीने सहित एवी गंधतन्मात्राथी शब्द, स्पर्श, रूप, रस अने गंधना गुणवाली पृथ्वी उत्पन्न थाय . । १६ । वती ते कपिलदर्शनमा पुरुष एटले आत्मा ते, अमूर्त, चेतन, भोगी, नित्य, सर्वव्यापक, क्रियारहित, अकर्ता, निर्गुणी, तथा सूदम डे; तथा जेम आंधलानो अने पांगलानो तेम प्रकृति अने पुरुषनो संयोग ने, अने चैतन्यशक्ति विषयोना परिच्छेदमां शून्य , केमके सुखःखादिकविषयो बुध्धिमा संक्रमे जे; अने बुझिडे ते, बे मुखवाला दर्पणसरखी जे, तेथी तेमां चैतन्यशक्ति प्रतिबिंबित थाय ने, माटे हुं सुखी बुं, दूं उःखी बुं, एवो उपचार थाय ने, अने आत्मा पोताने बुझिथी अन्निन्न माने जे. । १७ । पतंजलि पण कहे डे के " शुभ एवो पण आत्मा बौध्ध प्रत्ययने (बुध्धिसंबंधि प्रत्ययने ) जुए डे, अने तेने जोतो थको अतदात्मा एवो पण ते, तदात्मकसरखो प्रतिनासन थाय ने, माटे
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२२५ विषयपरिच्छेदः । तथा च वाचस्पतिः । सर्वो व्यवहा आलोच्य नन्वहमत्राधिकृत इत्यनिमत्य कर्तव्यमेतन्मयेति अध्यवस्यति । ततश्च प्रवर्तत इति लोकतः लिई । १७ । तत्र कर्तव्यमिति योऽयं निश्चयश्चितिसन्निधानापन्नचैतन्याया बुझेः सोऽध्यवसायो बुध्धेरसाधारणो व्यापार इति । चिच्चक्तिसन्निधानाच्चाऽचेतनापि बुध्धिश्चेतनावतीवानासते । १ए । वादमहार्मवोऽप्याह " बुध्धिदर्पणसंक्रान्तमर्थप्रतिबिम्बकं द. तीयदर्पणकल्पे पुंसि अध्यारोहति । तदेव नोक्तृत्वमस्य नत्वात्मनो विकारापत्तिरिति” । २० । तथाचासुरिः =| 'विविक्तेहपरिणतौ। बुध्धौ लोगोऽस्य कथ्यते ॥ प्रतिबिम्बोदयः स्वच्छे । यथा चन्मसो
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मुख्यत्वे करीने तो बुध्धिनेन विषयोनो परिच्छेद थाय जे. वाचस्पति पण कहे डे के, व्यवहार करनारा सर्व माणसो एम विचारे डे केमारो आमां अधिकार जे, एम जाणीने, मारे आ करवानुं डे, एम अध्यवसाय करे , अने पडी तेमां प्रवर्ते डे, एवी रीते लोकथी सिइ थयुं जे. । १७ । तेमां आ करवू बे, एवो जे आ निश्चय, एटले चैतन्यना समीपपणाथी मलेन बे, चैतन्य जेने एव। बुझिनो ते असाधारण व्यापार. चैतन्यशक्तिना समीपपणाथी अचेतन एवी पण बुद्धि जाणे चेतनावानी होय नही, तेम जणाय . । १ए। वादमहार्णव पण कहे जे के " बुध्धिरूपी दर्पणमा संक्रमेलु पदार्थ- प्रतिबिंब, बीजा दर्पणसरखा, एवा आत्मामां दाखन थाय ने, अने तेज एy नोक्तापणुं डे, पण आत्माने कंश विकारनी आपत्ति थती नथी. । २० । आसुरि पण कहे जे के =| विविक्त एवी इंडियाकारनी परिणतिवाली
२ अस्यार्थः = विविक्ता। ईदृविषयाकारपरिणदियाकारा परिणतिर्यस्या बुद्धः सा तथा । तस्यां सत्यां अस्यात्मनो भोगः कथ्यते । किंस्वरूपः प्रतिबिंबोदया न वास्तवः। प्रतिबिंबमात्रे दृष्टांतमाह। यथा चंद्रमसो निर्भले. जले प्रतिबिंबनं । एवं विशिष्टाकार परिणताया बुद्धरात्मनीति ।।
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२२६ ऽम्नसि ॥ । २१ । विन्ध्यवासी त्वेवं नोगमाचष्टे । =|| 'पुरुषोऽविकृतात्मैव । स्वनि समचेतनम् ॥ मनः करोति सांनिध्या-उपाधिः स्फटिकं यथा ॥ । २२ । न च वक्तव्यं पुरुषश्चेदगुणोऽपरिणामी कथमस्य मोदः । मुचेबन्धनविश्लेषार्थत्वात्सवासनक्लेशकर्माशयानां च बन्धनसमानातानां पुरुषेऽपरिणामिन्यसंन्नवात् । अत एव नास्य प्रेत्यनावाऽपरनामा संसारोऽस्ति । निष्क्रियत्वादिति । यतः प्रकृतिरेव नानापुरुषाश्रया सती बध्यते संसरति मुच्यते च । न पुरुष इति । बन्धमोदसंसाराः पुरुषे नपचर्यन्ते । २३ । यथा जयपराजयो नृत्यग
mirmwarrrrrrrrs बुध्धि होते ते, आ आत्माने लोग कहेवाय डे, कोनीपेठे? तोके जेम स्वच्छ पाणीमां चंना प्रतिबिंबनो उदय. २१॥ विंध्यवासी तो नीचे प्रमाणे नोग कहे . =|| आत्मा अविकारीज , पण उपाधि नेम स्फटिकने, तेम समीपणाथी, अचेतन एवा पण मनने पोतासरखं एटले सचेतन करे . । २२। वन्नी एम पण नही बोलवू के, आत्मा जो निर्गुणी अने अपरिणामी होय, तो तेनो मोद केम थाय ? केमके 'मुच्' धातुनो अर्थ बंधनश्री मूकाववानो डे, अने अपरिणामी एवा आत्मामां वासना, क्लेश अने कर्माशयवाला बंधनना हेतुननो असं. नव बे, अने तेथीन ते आत्मा निष्क्रिय होवाथी तेने परलोक एटले संसार नश्री ; कारणके नानाप्रकारना आत्माना आश्रयवानी थप थकी प्रकृतिन बंधाय डे, संसरे डे, अने मूकाय डे, पण आत्मा बंधातो, संसरतो, के मूकातो नथी, आत्मामां तो (फक्त) बंध, मोद अने संसारनो नपचार कराय जे. । २३ । जेम जय अने पराजय जोके चा
१ अस्य व्याख्या = यथा उपाधिर्जपापुष्पपद्मरागादिरतद्पमपि स्फटिकं स्वाकारं रक्कादिच्छायं करोति । एवं अयम यात्मा स्वस्वरूपादप्रच्यवमानः ( चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपं इतिवचनात् ).अचेतनमपि मनोलक्षणं अंतःकरणं स्वनिर्भासं चेतनमिव करोति । न पुनर्वस्तुतो मनसच. स्न्यं विकारित्वात् । तथाहि । मनोऽचेतनं विकारित्वात् घटादिवदिति ॥
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হইত तावपि स्वामिन्युपचयन्ते । तत्फन्नस्य कोशलान्नादेः स्वामिनि संवन्धात् । तथा नोगाउपवर्गयोः प्रकृतिगतयोरपि विवेकाग्रहात्पुरुष संबन्ध इति । २४ । तदेतदखिनमालजालं' । चिच्चक्तिश्च विषयपरिच्छेदशून्या चेति परस्पर विरुध्धं वचः । चिती संझाने । चेतनं चिन्त्यते वाऽनयेति चित् । सा चेत्वपरपरिच्छेदात्मिका नेप्यते तदा चिच्छक्तिरेव सा न स्याद्बटवत् । २५ । न चाऽमूर्तीयाश्चिच्छतेबुध्धौ प्रतिबिम्बोदयो युक्तः । तस्य मूर्त्तवर्मत्वात् । न च तथा परिणाममन्तरेण प्रतिसंक्रमोऽपि युक्तः । कथंचित्स क्रियाकताव्यतिरेकेण प्रकृत्युपधानेऽप्यन्यथात्वानुपपत्तेः । २६ । अप्रच्युतप्राचीनरूपस्य च सुखऽःखा
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करोने आधिन छे, तोपण तेनो नपचार तेन्ना स्वामिमां कराय डे, कारणके तेना फलरूप नंमारनी प्राप्ति आदिकनो संबंध स्वामिसाथे डे; तेम संसार अने मोद जोके प्रकृतिने प्राप्त थाय ने, तोपण विवेकना आग्रहथी तेनो आत्मामां संबंध कराय जे. । २४ । आ पर कहेळ सघरों मोटी जालसरखं डे, केमके चैतन्यशक्ति अने विषयपरिच्छेदमां शून्य, ए परस्पर विरु६ वचन ; कारणके 'चिती ' धातु संज्ञान अर्थमां बे, अथवा आनावमे चिंतवाय ते 'चित.' अने ते चेतनने जो पोताना अने परना परिच्छेदरूप न स्वीकारीये, तो घटनीपेठे ते चेतनशक्तिन होइ शके नही. । २५ । वली अमूर्त एवी चित्शक्तिनो बुद्धिमां प्रतिबिंबोदय थवो युक्त नथी, केमके ते मूर्तधर्मवालो ने ; वली तेवा परिणाम विना प्रतिसंक्रम थवो पण युक्त नथी, केमके कथंचित् सक्रियाकपणाना अव्यतिरेकवझे प्रकृतिना उपधानमां पण अन्यथापणानी अप्राप्ति जे. । २६ । नथी बोमेन पूर्वरूप जेणे एवा आत्माने सुखऽःखादिकना नोगोनो व्यपदेश अयुक्त होवाथी, अने
१ आत्मजालं । इति द्वितीयपुस्तकपाठः ।।
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२२० दिनोगव्यपदेशाऽनर्हत्वात् । तत्प्रच्यवे च प्राक्तनरूपत्यागेनोत्तररूपाध्यासिततया सक्रियत्वापत्तिः । स्फटिकादावपि तथा परिणामेनैव प्रति बिम्बोदयसमर्थनात् । अन्यथा कथमन्धोपलादी न प्रतिबिम्बः । तथा परिणामान्युपगमे च बलादायातं चिच्उक्तेः कर्तृत्वं सादानोक्तृत्वं च । २७ । अथापरिणामिनी नोक्तृशक्तिरप्रतिसंक्रमा च परिणामिन्यर्थे प्रतिसंक्राते च तद्वृत्तिमनुन्नवतीति पतञ्जलिवचनादौपचारिक एवायं प्रतिसंक्रम इति चेत्तर्हि नपचारस्तत्वचिन्तायामनुपयोगीति प्रेदावतामनुपादेय एवायं । २७ । तथा च प्रतिप्राणिप्रतीतं सुखऽःखादिसंवेदनं निराश्रयमेव स्यान्न चेदं बुध्धेरुपपन्नं । तस्या जमत्वेनान्युपगमात् । अत एव जमा च बुध्धिरित्यपि विरुध्वं । न हि जमस्वरू
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ते पूर्वरूप डोमते उते, पूर्वरूपना त्यागे करीने उत्तररूप धारण करवाथी, तेने सक्रियपणानी आपत्ति थशे; स्फटिकादिकमां पण तेवीरीतना परिणामवमेज प्रतिबिंबना नदयतुं समर्थन थाय डे, अने जो तेम न होय, तो अंधोपलादिकमां प्रतिबिंब केम नथी पमतुं ? अने तेवीरीतनो परिणाम स्वीकारते बते बलात्कारे चित्शक्तिने सादात् कापणुं अने नोक्तापणुं आवीपहोंच्यु. । २७ । अपरिणामिनी अने अप्रतिसंक्रमा एवी नोक्तृशक्ति परिणामि अने प्रतिसंक्रम अर्थमां तवृत्तिने अनुन्नवे डे, एवीरीतना पतंजलिना वचनर्थी आ प्रतिसंक्रम
औपचारिकज डे, एम जो कहीश, तो तत्वचिंतवनमा नपचार नपयोगी नथी, माटे विज्ञानाने ते ग्रहण करवानायकज नथी. । २७ । वली दरेक प्राणप्रिते प्रसिह एवं सुखऽःखादिकनुं संवेदन आश्रयरहितज थ जाय, वली ते संवेदन बुझिने लागुपमतुं नथी, केमके ते बुझिने तो (तमोए) जमरूपे मानेली डे; अने आयीकरीनेज 'बुद्धि जम डे' एम कहेQ विरोधवातुं डे, कारणके जमरूप बुझिमां विष
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२२ए पायां बुध्धो विषयाध्यवसायः साध्यमानः साधीयस्ता दधाति । २ए । ननूक्तमचेतनापि बुनिश्चिच्चक्तिसांनिध्याच्चेतनावतीवावन्नासत इति सत्यमुक्तमयुक्तं तूक्तं । न हि चैतन्यवति पुरुषादौ प्रतिसंक्राते दपणस्य चैतन्यापत्तिः । चैतन्याऽचैतन्ययोरपरावर्तिस्वन्नावत्वेन शक्रेणाप्यन्यथाकर्तुमशक्यत्वात् । ३० । किं चाऽचेतनापि चेतनावतीव प्रतिनासत इति श्व शब्देनारोपो ध्वन्यते । न चारोपोऽर्थक्रियासमर्थः । न खस्वतिकोपनत्वादिना समारोपितामित्वो 'माणवकः कदाचिदपि मुख्यानिसाध्यां दाहपाकाद्यर्थक्रियां कर्तुमीश्वरः । इति चिच्चक्तेरेव विषयाध्यवसायो घटते । न जमरूपाया बुझेरिति । ३१ । अत एव धर्माद्य
योनो अध्यवसाय साधी शकातो नश्री. । २ए। वली एम जे कह्यु के अचेतन एवी पण बुदि, चित्शक्तिनी सहायताथी चेतनावाली सरखी लागे जे ए सत्य कह्यु, पण अयुक्त कह्यु; केमके दर्पणमां चैतन्यवाला पुरुषादिकनुं प्रतिबिंब पमते बते दर्पणने कंई चैतन्यनी प्राप्ति थती नथी, केमके चैतन्य अने अचैतन्यनो स्वन्नाव बदलाइ शके तेम न होवाथी, तेने इंश पण अन्यथा करी शकतो नथी. । ३० । वनी अचेतन एवी पण चेतनावाली सरखी लागे , एम कहीने 'व' शब्दं करीने आरोप कहेवाय डे, अने ते आरोप अर्थक्रियामां समर्थ नथी; केमके अतिकोपपणादिकवमे आरोपित करेन डे अग्निपणुं जेमां एवो माणवक, मुख्य अनिश्री सधाय एवी दाहपाकादिक अर्थक्रिया करवाने समर्थ यतो नथी; माटे एवी री ते चित्रशक्तिनेज विषयोनो अध्यवसाय घटीशके , पण जमरूप बुड़िने घटीशकतो नथी. । ३१ । वत्नी आधीज तेना धर्मादिक आग्रुपो पण फक्त कहेवारूपन ने, केमके ते धर्मादिको आत्माना धर्मो . वनी आधीज अहंकार .. हारभेदे माणवको । बाले कुपुरुषऽपि च । इतिरभसः ।
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टरूपतापि तस्या वाङ्मात्रमेव । धर्मादीनामात्मधर्मत्वात् । अत एवं चाऽहंकारोऽपि न बुझिजन्यो युज्यते । तस्याऽनिमानात्मकत्वेनात्मध. मस्याउचेतनाउत्पादाऽयोगात् । ३२ । अम्बरादीनां च शब्दादितन्मात्रजवं प्रतीतिपराहतत्वेनैव विहितोत्तरम् । अपि च सर्ववादिनिस्तावदविगानेन गगनस्य नित्यत्वमङ्गीक्रियते । अयं च शब्दतन्मात्रात्तस्याप्याविनावमुन्नावयन्नित्यैकान्तवादिनां च धुरि आसनं न्यासयन्नसंगतप्रतापीव प्रतिनाति । ३३ । न च परिणामिकारणं स्वकार्यस्य गुणो नवितुमर्हतीति शब्दगुणमाकाशमित्यादि वाङ्मात्रं । ३४ । वागादीनां चेन्श्यित्वमेव न युज्यते । तराऽसाध्यकार्यकारित्वाऽनावात् । परप्रतिपादनग्रहण विहरणमलोत्सादिकार्याणामितरावयवैरपि साध्यत्वोपत्न
wwwwwwwwwwwww पण बुद्धिजन्य घटी शकतो नथी, केमके ते अनिमानात्मक होवाश्री
आत्मधर्मरूप डे, अने तेथी अचेतन एवी बुध्थिी तेनी उत्पत्ति घटती नथी. । ३२ । वली आकाशादिकोनुं शब्दादितन्मात्राथी नत्पत्तिपणुं तो प्रतीतन थतुं न होवाथी तेनो उत्तर तेटलामांन आवी गयो. वली सर्व वादिन कंई पण तकरार विना आकाशनुं नित्यपहुं अंगीकार करे डे, अने आ सांख्य तो शब्दतन्मात्राथी ते आकाशनी उत्पत्ति कहेतो थको, अने वली एकांत नित्यवादिनना मोखरामां ( पोतानुं ) आसन बीउगवतो थको अयुक्त प्रलापीसरखो जणाय . ३३। वनी परिणामी कारण पोताना कार्यनो गुण थ शकतुं नथी, माटे 'शब्दगुणवायूँ आकाश' इत्यादिक वचन फक्त कहेवारूप जे. ३४/ वन्नी वाणीआदिकोने इंडियपणुंज घटीशकतुं नथी, केमके बीजाथी न सधाय, तेवा कार्यकारीपणानो तेन ने अन्नाव बे, अर्थात् बीना अ. बयवायी साधी शकाय तेवां कार्यो ते वाण आदिको करी शके डे, जेमके परप्रतिपादन, ग्रहण, विहार, तथा मलोत्सर्गादिक कार्यों बीजा
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ब्धेस्तथापि तत्वकल्पने इन्स्यिसंख्या न व्यवतिष्ठते । 'अन्यानोपागादीनामपीनिश्यत्वप्रसङ्गात् । ३५। यच्चोक्तं नानाश्रयायाः प्रकृतेरेव बन्धमोदी संसारश्च । न पुरुषस्येति । तदप्यसारम् । अनादिनवपरंपराऽनुव च्या प्रकृत्या सह यः पुरुषस्य विवेकाऽग्रहणलदाणोऽविष्वग्नावः । स एव चेन्न बन्धस्तदा को नामाऽन्यो बन्धः स्यात? । ३६ । प्रकृतिः सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तमिति च प्रतिपद्यमानेनायुप्मता संझान्तरेण कमैव प्रतिपन्नं । तस्यैवैवस्वरूपत्वादचेतनत्वाच्च । ३७ । यस्तु प्राकृत्किवैकारिकदाक्षिणनेदात् त्रिविधो बन्धस्तद्यथा । प्रकृतावात्मझानाद्ये प्रकृतिमुपासते तेषां प्राकृतिको बन्धः । ये विकारानेव नूतेन्धि
ལ་ཀཀཀཀ བ་ བ་༡༩འབ་བ་འདའ་བ་འ་ལ་ ་་་ अवयवोयी पण साधी शकाय ने, उतां पण (तेनु) इंडियपणुं कल्पवामां इंजिननी संख्यानी हद रहेती नथी, केमके तेश्री तो बीजा अंगोपांगादिकोने पण इंघियपणानो प्रसंग थशे. । ३५। वली नानाप्रकारना आश्रयवाली प्रकृतिनेज बंध मोद तथा संसार , पण आत्माने नथी, एम जे कडं, ते पण सार विनानुं ले ; केमके अनादि. नवपरंपरानी साथे जोमायेली एवी प्रतिनीसा) आत्मानो विवेक नही ग्रहणकरवारूप जे अनिन्नन्नाव, तेन जो बंध न होय, तो पड़ी बीजो कयो बंध होय !! । ३६ । प्रकृति ने ते, सर्व उत्पत्तिवालान्नु निमित्त ने, एम अंगीकार करता एवा ते आयुष्माने नामांतररूपे कमज अंगीकार कर्यु डे, केमके तेज एवं स्वरूप बे, तथा ते अचेतन पण जे. । ३७ । ( हवे ते सांख्योय मानेलो) प्राकृतिक, वैकारिक, अने दाक्षिण नामनो त्रण प्रकारनो बंध नीचे प्रमाणे जे. प्रकृतिमां आत्मज्ञानश्री जेन प्रकृतिने नपासे , तेन ने प्राकृतिक बंध थाय जे. वली जेन पंचनृत, इंघिय, अहंकार तथा बुध्धिरूप विकारोने आ
१ बाढूरुपिटिसिर उर । उयरंगउवंगअंगुलीप महा ।।
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२३२ याहंकारबुझी: पुरुषबुझ्योपासते तेषां वैकारिकः । इष्टापूर्तेदाक्षिणः । पुरुषत्वाऽननिको हीष्टापूर्तकारी कामोपहतमना बध्यत इति । ३० । =| इष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्टं । नान्यच्छ्रेयो येऽनिनन्दन्ति मूढाः ।। नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेन नत्वा । इमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति ॥= इतिवचनात् । ३ए । स त्रिविधोऽपि कल्पनामात्रं । कथंचिन्मिथ्यादर्श नाऽविरतिप्रमादकषाययोगेन्योऽनिन्नस्वरूपत्वेन कर्मबन्धहेतुष्वेवान्त
वात् । बन्धसिध्धौ च सिध्वस्तस्यैव निर्बाधः संसारः । बन्धमोदयोचैकाधिकरणत्वात् । य एव बध्धः स एव मुच्यते । इति पुरुषस्यैव मोकः । आबालगोपालं तथाप्रतीतेः । ४० । प्रकृतिपुरुषविवेकदर्शनात्प्रवृत्तेरुपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोद इति चेन्न ।
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त्मबुध्धिवमे उपासे , तेन ने वैकारिक बंध थाय . इष्टापूर्तिथी (दानादिकथी) दाक्षिण बंध थाय बे, अर्थात् आत्मतत्वने नही जाणनारो इष्टापूर्त करनारो कामयी हणायेलां मनवालो थयोथको बंधाय जे. । ३० । =|| कह्यु डे के जे मूढ माणसो इष्टापूर्त ने श्रेष्ट मानताथका बीजां श्रेय, अभिनंदन करता नश्री, ते पुण्यवमे देवलोकमां नत्पन्न थइने आ लोकमां अथवा तेथी पण नीची गतिमा दाखल थाय . । ३ए । ते उपर वर्णे वेलो त्रणे प्रकारनो बंध फक्त कल्पनारूपज डे, केमके कथंचित् मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, अने योगोथी अनिन्नस्वरूपपणायें करीने, कर्मबंधना हेतुनमांज तेननो समावेश थाय डे, अने बंध सिध्ध होतेबते, ते आत्मानेज बाधारहित संसार सिध्ध थयो ; केमके बंध अने मोदने एकाधिकरणपणुं डे; अर्थात् जे बंधायो , तेज मूकाय डे; एवी रीते आत्मानेन मोद बे, केमके आबालगोपालने तेवी प्रतीति थाय . । ४ । प्रकतिपुरुषना विवेकदर्शनश्री प्रवृत्तिथी प्रकृति विरमते डते आत्मानु
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प्रवृत्तिवनावायाः प्रकृतेरौदासीन्याऽयोगात् । ३१ । अथ पुरुषार्थनि. बन्धना तस्याः प्रवृत्तिर्विवेकख्यातिश्च पुरुषार्थस्तस्यां जातायां निवर्तते कृतकार्यत्वात् । ४ । =|| रङ्गस्य दर्शयित्वा । निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् ॥ पुरुषस्य तथात्मानं । प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥ इति वचनात् । इतिचेन्नैवं । तस्या अचेतनाया विमृश्यकारित्वाऽनावात् । ४३ । यथेयं कृतेऽपि शब्दाद्युपत्नने पुनस्तदर्थ प्रवर्तते तथा विवेकख्यातौ कृतायामपि पुनस्तदर्थ प्रवर्तिप्यते । प्रवृत्तिलक्षणस्य स्वन्नावस्याऽनपेतत्वात् । १४ । नर्तकीदृष्टान्तस्तु खेष्टविघातकारी। यथा हि नर्तकी नृत्यं पारिषदेन्यो दर्शयित्वा निवृत्तापि पुनस्ततू कुतूहलाདང་བཔ་བ་པང་པ་བ་ स्वरूपमे ने रहेg ते मोद , एम जो कहीश तो ते युक्त नथी ; केमके प्रवृत्तिवन्नाववाली प्रकृतिने उदासीनपणानो अयोग जे. ।।। ( वादी कहे जे के) पुरुषार्थ निबंवनरूप ते प्रतिनी प्रवृत्ति , अने विवेकख्यातिरूप पुरुषार्थ ते उत्पन्न होते ते कृतार्थ थवाथी चाल्यो जाय . । ५२। =॥ कयुं जे के, रंगनूमिपर रहेला जनस.. मूहने पोतार्नु नृत्य देखामी ने नाटकणी जेम नृत्यथी विरमे जे, तेम प्रकृति ने ते आत्माप्रते पोताने प्रकाशीने चानी जाय . = हेवादी ! एवी रीते उपरप्रमाणे जो तुं कहीश, तो ते तेम नश्री ; केमके अचेतन एवी तेणीने विचारपूर्वक कर्तापणानो अनाव . । ४३ । शब्दादिकनो नपलंन करते बते पण जेम आ प्रकृति फरीने तेमाटे प्रवर्ते बे, तेम विवेकख्याति करते बते पण फरीने तेमाटे ते प्रवर्तशे, केमके प्रवृत्तिलक्षणरूप वनावने तेणीए तज्यो नथी. । । वली तारूं नर्तकीन दृष्टांत पण तारा पोताना श्ष्टने विधात करनारूं बे, केमके नाटकणी पारिषदोने नृत्य देखामीने निवृत्त थयाबाद पण, जेम फरीने तेन्ना कुतूहलथी (नृत्यमाटे) प्रवर्ते जे, तेम प्रकृति पण आ
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त्प्रवर्तते । तथा प्रकृतिरपि पुरुषायात्मानं दर्शयित्वा निवृत्तापि पुनः कथं न प्रवर्ततामिति । तस्मात्कृस्नकर्मदये पुरुषस्यैव मोद इति प्रतिपत्तव्यम् । ५५ । एवमन्यासामपि तत्कटपनानां । तमोमोहमहामोहतामिश्रान्धतामिश्रनेदात्पञ्चवाविद्याऽस्मितारागषानिनिवेशरूपो विपर्ययः। ब्राह्मयप्राजापत्य सौम्यैन्गान्धर्वयदरादसपैशाचन्नेदादष्टविधो देवः सर्गः । पशुमृगपदिसरीसृपस्थावरत्नेदात्पञ्चविधस्तैर्यक्योनः । ब्राह्मणत्वाद्य वान्तरनेदाऽविवदया चैक विधो मानुषः । इति चतुर्दशधा नतसर्गः । ४६। बाधिर्यकुंउताऽन्यत्वजमताऽजिघ्रतामूकताकौण्यपंगुत्वक्लैब्योदावर्त्तमत्ततारूपैकादशेन्झ्यिवध-तुष्टिनवक विपर्यय सिध्यष्टक विपर्ययलदणसप्तदशबुध्विधनेदादष्टाविंशतिधा शक्तिः । ४७ । प्रकृत्युपादा
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त्माप्रते पोताने देखामी ने, निवृत्तथया उतां पण फरीने शामाटे न प्रवर्ते ? माटे सर्व कर्मोनो दय होते ते आत्मानोन मोद थाय ने, एम अंगीकार कर. । ४५ । एवी रीते ते सांख्योनी (नीचे जणावेली) बीजी कल्पना पण विरोधवानी ले. तमः, मोह, महामोह, तामित्र अने अंधतामित्रना नेदश्री विद्या, अस्मिता, राग, १ अने अनिनिवेशरूप पांच प्रकारनो विपर्यय. ब्राय, प्राजापत्य, सौम्य, ऐंड़, गांधर्व, यद, रादम, अने पैशाचना नेदश्री आठ प्रकारनो दैविक... सर्ग. पशु, मृग, पदि, सर्प, अने स्थावरना नेदश्री पांच प्रकारनो तियंग्यो निवालो सर्ग. ब्राह्मणपणासादिक पेटानेद शिवाय एक प्रकारनो मनुष्यसर्ग. एवी रीते चौद प्रकारनो नृतसर्ग . । ४६। बेहेरापणुं, कुंठता, अंधपणुं, जमपणुं, असुंववापणुं, मुंगापणुं, पांगलापणुं, बुलापणुं, नपुंसकपणुं, कबनीयात, अने मत्तपणारूप अग्यार इंश्यिवध-तथा तुष्टिनवकविपर्यय, अने सिध्यष्टक विपर्ययरूप सत्तर प्रकारनो बुविध-एम मनी अठावीस प्रकारनी शक्ति . । ४७ । प्र
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नकालनोगाख्याः अंनःसलिलोधवृष्टयपरपर्यायवाच्याश्चतस्त्राध्यात्मिक्यः । शब्दादिविषयोपरतयश्चार्जनरदणदयनोगहिंसादोषदर्शनहेतुजन्मानः पञ्च बाह्यास्तुष्टयस्ताश्च पारसुपारपारापारानुत्तमांनउत्तमांनःशब्दव्यपदेश्याः । इति नवधा तुष्टिः । ४ । त्रयो उःखविधाता इति मुख्यास्तिस्त्रः सिध्यः । प्रमोदमुदितमोदमानाख्याः । तथाऽध्ययनं शब्द ऊहः सुहृत्प्राप्तिर्दानमिति उःख विघातोपायतया गौण्यः पञ्च । तारसुतारतारताररम्यकसदामुदिताख्याः । इत्येवमष्टया सिदिः । ४ए । 'वृत्तिश्रज्ञसुख विविदिषाविज्ञप्तिनेदात्पञ्च कर्मयोनयः । इत्यादीनां संचारप्रतिसंचारादीनां च तत्वानां कौमुदीगोमपादनाप्यादिप्रसिझानां वि
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कृति, उपादान, काल अने नोग नामनी, तथा अंनः, सलिल, उब अने वृष्टि ने बीजां नामो जेनां, एवी चार आध्यात्मिक तुष्टिन डे; वनी शब्दादिकविषयोमा नपरत थयेली अने अर्जन, रक्षण, क्य, जोग तथा हिंसारूप दोषदर्शनना हेतुन्थी नत्पन्न श्रयेली, पार, सुपार, पारापार, अनुत्तमांन, अने उत्तमांन्न नामनी पांच बाह्यतुष्टिन छे, एवी रीते नव प्रकारनी तुष्टिन . । ४ । प्रमोद, मुदितमोद अने मान नामनी त्रण सिड्नि खोनो विघात करनारी जे, माटे ते मुख्य सिध्धिन जे; तेम अध्ययन, शब्द, ऊह, मित्रप्राप्ति अने दान, एवी रीतनी उःखोना विघातना नपायपणायें करीने तार, सुतार, तारतार, रम्यक, अने सदामुदित नामनी पांच गौण सिध्धिन जे; एवी रीतनी
आठ प्रकारनी सिध्धिन . । ४ए । वृत्ति, श्रध्धा, सुख, विविदिषा (वाद करवानी इच्छा) अने विज्ञप्तिना नेदश्री पांच कर्मयोनिन ने. इत्यादि उपर कहेली कल्पनाउनु तथा कौमुदी अने गौम्पादनाप्या
१ धृति इति द्वितीयपुस्तकपाठः ॥
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१३६ सम्वत्वमुन्नावनीयमिति काव्यार्थः ॥
।५० । इदानीं ये प्रमाणादेकान्तेनाऽन्निन्नं प्रमाणफलमाहुर्य च बाह्यार्थप्रतिरूपेण झानाऽतमेवास्तीति ब्रुवते तन्मतस्य विचार्यमाणवे विशरारुतामाह ।
न तुल्यकालः फलहेतुनावो
हेतौ विलीने न फलस्य नावः । न संविददैतपथेऽर्थसंवि
- दिलूनशीण सुगतेन्जालम् ॥ १६ ॥ कार्यकारणनाव तुल्यकालवालो नथी, तेम हेतु नष्ट होते ते कार्यनो नाव होश्शकतो नथी. वत्नी ज्ञानाऽतमार्गमा पदार्थोनुं ज्ञान यश्शकतुं नथी; एवीरीते ते बुध्धन इंजाल बेदातुं थकुं विखराश गयु. ॥ १६ ॥
।। बौशः किल प्रमाणात्तत्फलमेकान्तेनाऽनिन्नं मन्यन्ते । तथा च तसिध्धान्तः । 'नन्नयत्र तदेवज्ञानं प्रमाणं फलं अधिगमरू
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दिकमां प्रसिध्ध एवा संचार प्रतिसंचारादिक तत्वोनुं विरुध्धपणुं जाणी लेवू. एवीरीते पंदरमा काव्यनो अर्थ जाणवो. - । । हवे जे प्रमाणथी प्रमाण, फल एकांते अनिन्न कहे जे, अने जे बाह्यार्थीने उलवी ज्ञानाऽतज डे, एम बोले डे, तेन्ना मतनुं विचारपणामां विखरावापणुं कहे जे.
।। बौधो प्रमाणथी एटले कारणथी तेना फलने एटले कायेने एकांते अनिन्न माने ले. ते ना सिध्धांतमां कडं बे के प्रत्यक्ष अने अनुमानमां तेज प्रत्यदअनुमानलक्षणवाटुं ज्ञान कार्यरूप ने.
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पत्वात् '। उन्नयोति प्रत्यदेऽनुमाने च तदेवज्ञानं प्रत्यदानुमानलदणं फनं कार्य । कुतोऽधिगमरूपत्वात् इतिपरिच्छेदरूपत्वात् । तथाहि | परिच्छेदरूपमेव ज्ञानमुत्पद्यते । न च परिच्छेदाढतेऽन्यज् झानफलं निनाधिकरणत्वादिति सर्वथा न प्रत्यदानुमानान्यां निन्नं फलमस्तीति ।। एतच्च न समीचीनं । यतो यद्यस्मादेकान्तेनाऽनिन्नं तत्तेन सहैवोत्पद्यते । यथा घटेन घटत्वं ।। तैश्च प्रमाणफलयोः कार्यकारणनावोऽन्युपगम्यते । प्रमाणं कारणं । फलं कार्यमिति । स चैकान्ताऽन्नेदे न घटते । न हि युगपउत्पद्यमानयोस्तयोः सव्येतरगो विषाणयोरिव कार्यकारणनावो युक्तः । नियतप्राक्कानन्नावित्वात्कारणस्य । नियतोत्तरकालन्नावित्वाकार्यस्य । एतदेवाह । ५ । न तुल्यकालः फलहेतुनाव इति । फलं कार्य हेतुः कारणं तयो वः स्वरूप कार्यकारणन्नावः । स तुल्यकालः
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शामाटे ? तो के अधिगमरूप होवाथी, अर्थात् परिच्छेदरूप होवाथी, ते कहे . । । परिच्छेदरूपन झान नत्पन्न थाय डे, अने निनाधिकरण होवाथी परिच्छेदविना बीजुं शानफल नथी; माटे एवी रीते सर्वथा प्रकारे प्रत्यक्ष अने अनुमानथी निन्न फल नथी. । ३ । हवे ते उपर कहेलु युक्तियुक्त नथी; केमके जे जेनाथी एकांते अनिन्न डे ते घटनीसाथे जेम घटपणुं, तेम तेनी साथेज नत्पन्न थाय ने. । ४ । वनी ते बौशे प्रमाण अने फलने कार्यकरणरूपे माने डे, एटने प्रमाण कारण, अने फन कार्य एम माने जे, पण ते कार्यकारण नाव एकांत अनेदमां घटीशकतो नथी. केमके एकीवखते उत्पन्न थता एवा बन्नदना मावाजमणा शींगमां जेवो तेउनो कार्यकारणनाव युक्त नश्री, केमके कारण जे ते चोकसरीते पूर्वकालमां थाय , अने कार्य जे ते चोकसरी ते उत्तराकालमां थाय जे; अने तेन कहे डे के। ५। फल एटले कार्य अने हेतु एटने कारण, तेउ बन्नेनुं स्वरूप
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२३ समानकालो न युज्यत श्ययः । अय दणान्तरितत्वात्तयोः क्रमन्नावित्वं नविष्यतीत्याशंक्याह । ६ । हेतौ विलीने न फलस्य नाव इति । हेतौ कारणे प्रमाणलदणे विलीने दणिकत्वाऽत्पत्त्यनन्तरमेव निरन्वयं विनष्टे फन्नस्य प्रमाणकार्यस्य न नावः सत्तानिमूलत्वात् । विद्यमाने हि फलहेतावस्येदं फलमिति प्रतीयते । नान्यथाऽतिप्रसङ्गात् । 3 । किं च हेतुफलन्नावः संबन्धः । स च विष्ट एव स्यात् । न चानयोः दणदयैकदीदितो नवान् न संबन्धं दमते । ततः कथमयं हेतुरिदं फल मिति प्रतिनियता प्रतीतिरेकस्य ग्रहणेऽप्यन्यस्याऽग्रहणे तदसंजवात् । ७ । =| विष्टसंबन्धसंवित्तिनैकरूपप्रवेदनात् ॥ क्ष्योः स्वरूपग्रहणे । सति संबन्धवेदनम् ॥ इति वचनात् । ए । यदपि धर्मोत्तरे
समानकालवाचुं घटतुं नथी. कणांतरितपणुं होवायो तेन्नु क्रमन्नाविपणुं थशे, एवी आशंका करी ने हवे कहे . । ६ । प्रमाण ने लक्षण जेनुं एवं कारण नष्टहोते बते, अर्थात् दणिक होवाथी नत्पत्ति थर के तुरत अन्वयरहित नष्ट होते ते उतापणुं निर्मूल थवाथी फलनो एटले प्रमाणकार्यनो नाव होतो नयी, केमके कार्यनो हेतु होते ते
आ आनुं कार्य जे, एवी प्रतीति थाय डे, पण अतिप्रसंग थवाथी तेश्री अन्यथाप्रकारे थती नश्री. । ७ । वत्ती कार्यकारणनाव संबंधरूप बे, अने ते संबंध बे वच्चेन होय, अने हे वादी ! एकदणदयवादमांज निपुण एवो तुं, तेननो संबंध नयी स्वीकारतो तेवु नश्री ; माटे आ कारण डे, अने आ कार्य में, एवी चोकस प्रतीति केम थाय? केमके एकनुं ग्रहण करते उते पण, अन्यनुं ग्रहण कर्याविना तेनो संभव नथी. | 0 | कह्यु डे के =|| एकना स्वरूपना झानथी बन्नेना संबंधन झान थतुं नथी; अने बन्नेनुं स्वरूप ग्रहणकरते ते संबंधनुं झान थाय . =IL (ए। जोके धर्मोत्तराचार्य पदार्थसाथे ज्ञान, जे सह
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२३ए ण'अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणं तदशादर्थप्रतीतिसिझेरिति न्यायबिन्छसूत्रं विवृण्वता नणितं नीलनि सं हि यद् विज्ञानं तस्मान्नीलस्य प्रतीतिरवसीयते । येन्यो हि चकुरा दिन्यो झानमुत्पद्यते न तशात्त
झानं नीलस्य संवेदनं शक्यतेऽवस्थापयितुं । नीलसदृशं त्वनुनूयमानं नीलस्य संवेदनमवस्थाप्यते । १० । न चात्रजन्यजनकन्नाव निबन्धनः साध्यसाधनन्नावो येनैकस्मिन्वस्तुनि विरोधः स्यात् । अपि तु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकन्नावेन । तत एकस्य वस्तुनः किंचिद्रूपं प्रमाणं किंचि.
शपणुं, ते प्रमाण, केमके तेना वशथी पदार्थप्रतीतिनी सिदि थाय डे' एवीरीतना न्यायबिंउना सूत्रनुं विवरण करतां कडं ने के-लीलांने जणावनारुं ने विज्ञान, तेथी लीलांनी प्रतीति थाय ने; केमके जे चदुआदिकोथी शान नत्पन्न थाय , तेना वशथी ते झान लीलांनुं संवेदन स्थापवाने शक्तिवान् यतुं नथी; पण लीलांसरखं अनुनवातुं थकुं लीनांनुं संवेदन स्थापन करे . । १० । वनी अहीं जन्यजनक नाव के कारण जेनुं, एवो साध्यसाधनन्नाव नथी, के जेथी एक वस्तुमां विरोध आवे; परंतु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापक नावें करीने साध्यसाधनन्नाव ने, अने तेथी एक वस्तुनुं 'कंकरूप प्रमाण अने कंक प्रमाणफल' एम थवामां विरोध आवतो नथी; केमके व्यवस्थापवानो हेतु ज्ञान
१ तदेव च प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रमाणफलं अर्थप्रतीतिरूपत्वादिति । एतदुक्तं भवति । प्रापकं झानं प्रमाणं । प्रापणशक्तिश्च न केवलादर्थाऽविनाभावित्वात् भवति । बीजाद्यविनाभाविनोऽयंकुरादेरप्रापकत्वात् । ततः प्राप्यादर्थादुत्पत्तावप्यस्य ज्ञानस्यास्ति कश्चिदवश्यकर्त्तव्यः प्रापकव्यापारी विषयप्रदर्शनं नाम । येन कृतेनार्थः प्रापिता भवति । तच्च प्रत्यक्षमर्थप्रतीतिरूपं । अतस्तदेव प्रमाणफलं । यद्येवं किं न तर्हि प्रमाणमित्याह । अर्थसारूप्येति । अर्थेन सह यत् सारूप्यं सादृश्यं ज्ञानस्य । तत्प्रमाणं । इह यस्माद्विषयाद्विज्ञानमुदेति । तद्विषयसदृशं तद्भवति । तच्च सारूप्यं सादृश्यं आकार आभास इति च व्यपदिश्यते । ननु ज्ञानादव्यतिरिकं सादृश्यं । तथाच तदेव सानं प्रमाणं तदेव च प्रमाणफलं । न चैकं वस्तु साध्यं साधनं चोपपद्यते तत्कथं सारूप्यं प्रमाणमित्याह । तदशादर्थेति ॥
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२४० त्प्रमाणफलं न विरुध्यते । व्यवस्थापनहेतुर्हि सारूप्यं तस्य ज्ञानस्य व्यवस्थाप्यं च नीलसंवेदनरूपमित्यादि ।११। तदप्यसारम् । एकस्य निरंशस्य झानदणस्य व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकत्वलदणस्वन्नावक्ष्याऽयोगात्। व्यव. स्थाप्यव्यवस्थापकन्नावस्यापि च सम्बन्धत्वेन हिष्टत्वादेकस्मिन्नसंन्नवात् । १५ । किंचाऽर्थसारूप्यमाकारं । तच्च निश्चयरूपमनिश्चयरूपं वा । निश्चयरूपं चेत्तदेव व्यवस्थापकमस्तु । किमुन्नयकल्पनया । अनिश्चितं चेत्स्वयमव्यवस्थितं कथं नीलादिसंवेदनव्यवस्थापने समर्थम् । १३ । अपि च केयमाकारता । किमर्थग्रहणपरिणाम आहोस्विद
कारधारित्वं । नाद्यः सिझसाधनात् । हितीयस्तु ज्ञानस्य प्रमेयाकारानुकरणाजमत्वापत्न्यादिदोषाघ्रातः । तन्न प्रमाणादेकान्तेन फलस्याऽ
wwwww सदृशपणुं बे, अने लीलांना ज्ञानरूप व्यवस्थाप्य एटले स्थापवानुं जे. इत्यादि. । ११ । हवे ते नपर वर्ण वेबुं सघर्बु बौशेतरफन मंझन अयुक्त ; केमके एक अने निरंश एवा शानदणने व्यवस्थाप्य अने व्यवस्थापकपणारूप बे स्वन्नावनो अयोग ने ; केमके व्यवस्थाप्य अने व्यवस्थापकनावने पण संबंधपणायें करी ने हित्वपणुं होवाथी, ते नावनो एकनीअंदर असंनव जे. ।१२। वत्ती अर्थसारुप्य एटले अ.
कार ; अने ते निश्चयरूप ले ? के अनिश्चयरूप ? जो निश्चयरूप होय, तो तेज व्यवस्थापक थान ? उन्नयकल्पनानी शी जरुर ? अने जो अनिश्चित , तो पोतेन व्यवस्था विनानुं , तो पड़ी नीलादिकज्ञानना व्यवस्थापनमां केम समर्थ थाय? । १३ । वली आ अ
कारपणुं शुंडे? अर्थग्रहणपरिणाम ? के अर्थाकारधारिपणुं ? पहेलो नेद तो सिसाधन होवाथी नही; अने बीजो नेद तो ज्ञानने प्रमेयाकारना अनुकरणथी जमपणानी आपत्तिादिक दोषोवालो ने; माटे प्रमाणथी एकांते फलनो अनेद साधीशकाय तेम नश्री ; केमके
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२४१ नेदः साधीयान् । सर्वथा तादात्म्ये हि प्रमाणफलयोर्न व्यवस्था तनावविरोधात् । १४ । न हि सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलमिति सर्वथा तादात्म्ये सिध्यत्यतिप्रसङ्गात् । १५ । ननु प्रमाणस्याऽसारूप्य. व्यावृत्तिः सारूप्यमनधिगतिव्यावृत्तिरधिगतिरिति व्यावृत्तिनेदादेकस्यापि प्रमाणफलव्यवस्थेति चेन्नैवं । स्वन्नावन्नेदमन्तरेणाऽन्यव्यावृत्तिनेदस्याप्यनुपपत्तेः । १६ । कथं च प्रमाणस्य फलस्य चाऽप्रमाणाऽफलव्यावृत्त्या प्रमाणफलव्यवस्थावत्प्रमाणान्तरफलान्तरव्यावृत्याप्यप्रमाणत्वस्याऽफलत्वस्य च व्यवस्था न स्यात् । विजातीयादिव सजातीयादपि व्यावृत्तत्वाइस्तुनः । तस्मात्प्रमाणात्फलं कथंचिन्निन्नमेवैष्टव्यं । साध्यसाधननावेन प्रतीयमानत्वात् । ये हि साध्यसाधनन्ना
सर्वथा तादात्म्यपणामां विरोध आववाथी प्रमाणफलनी व्यवस्था रहेती नथी. । १५ । वली तेनुं सदृशपणुं प्रमाण (कारण), अने अधिगति एटले ज्ञान तेनुं फल (कार्य), एबुं सर्वथाप्रकारे तादात्म्यपणामां सिझ थतुं नथी, केमके तेथी अतिप्रसंग थाय . । १५। असदशपणानी व्यावृत्ति ते सारूप्य, अने अज्ञाननी व्यावृत्ति ते अधिगति, एवी रीते व्यावृत्तिना नेदश्री एकने पण प्रमाणफलनी व्यवस्था लागु पमे डे, एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी ; केमके स्वन्नावनेदविना अन्यव्यावृत्तिन्नेदनी पण अप्राप्ति . । १६ । वली प्रमाणने अने फलने अप्रमाणनी अने अफलनी व्यावृत्तिवमे प्रमाणफलव्यवस्थानी पेठे प्रमाणांतर अने फलांतरनी व्यावृत्तिवमे पण अप्रमाणपणानी अने अफलपणानी व्यवस्था केम न होय ? केमके विजातीयथी जेम, तेम सजातीयथी पण पदार्थनी व्यावृत्ति ; माटे प्रमाणथी एटले कारणथी फल एटले कार्य में ते, कथंचिद् निन्नन , एम खीकारवू; केमके साध्यसाधननावे करीने तेवू प्रतीत थाय बे, अने
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२४२ वेन प्रतीयेते ते परस्परं निद्यते । यथा कुगरच्छिदिक्रिये इति ।१७॥ एवं यौगाभिप्रेतः प्रमाणात्फलस्यैकान्तनेदोऽपि निराकर्तव्यः । तस्यैकप्रमातृतादात्म्येन प्रमाणात्कथंचिदन्नेदव्यवस्थितेः । प्रमाणतया परिणतस्यैवात्मनः फलतया परिणतिप्रतीतेः । १७ । यः प्रमिमीते स एवा. पादत्ते परित्यजत्युपेदते चेति सर्वव्यवहारिनिरस्खलितमनुनवात् । श्तरथा स्वपरयोः प्रमाणफलव्यवस्था विप्नवः प्रसज्यत इत्यत्तम् । १ए। अथवा पूर्वाईमिदमन्यथाव्याख्येयं । सौगताः किलेत्थं प्रमाणयन्ति । सर्व सत् कणिकं । यतः सर्व तावत् घटादिकं वस्तु मुनरसंनिधौ नाश गच्छद् दृश्यते । तत्र येन स्वरूपेणान्त्यावस्थायां घटादिकं विनश्यति तच्चत्वरूपं उत्पन्नमात्रस्य विद्यते तदानीमुत्पादानन्तरमेव तेन नष्टव्य
जे (बन्ने ) साध्यसाधन नाववमे प्रतीत थाय डे, ते कुगर अने बेदन क्रियानी पेठे एकबीजाथी निन्न होय . । १७ । एवी रीते (बौशेनी) यौगशाखाये मानलो प्रमाणथी फननो एकांतनेद पण दुर करवो; केमके ते ने एक प्रमाताना तादात्म्य करी ने प्रमाणथी कथंचित अनेदनी व्यवस्था बे, केमके प्रमाणपणायें करीने परिणतन एवा आत्मानी फलपणायें करीने परिणतिनी प्रतीति ले. । १७ । जे प्रमाण करे ले, तेन ग्रहण करे , तने डे, अने नपेके , एवी रीते सर्व व्यवहारी स्खलनार हित अनुलवे बे, अने जो तेम न होय, तो खपरवच्चे प्रमाणफननी व्यवस्थानो विप्लव थाय. श्त्यलं. ।१५। अथवा आ काव्यना पूर्वार्धन (नीचे प्रमाणे) जूदीरीते व्याख्यान करवू. सौगतो एम माने ले के-सबबुं तुं, दणिक डे ; केमके घटादिक सर्व पदार्थ मुझरनी समीपे नाश पामता देखाय डे; तेमां ने स्वरूपवमे अं. त्यावस्थामां घटादिक नाश पामे , तेन स्वरूप जो उत्पत्ति वखते पण होय, तो उत्पत्तिपठी तुरतन तेने नाश पामबुं जोश्ये, एवी रीते तेनुं
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rrow-more
२४३ मिति व्यक्तमस्य दणिकत्वम् । २० । अथेदृश एव खन्नावस्तस्य हेतुतो जातो यत्कियन्तमपि कालं स्थित्वा विनश्यति । एवं तर्हि मुझरादिसंनिधानेऽपि एष एव तस्य खन्नावः । इति पुनरप्यनेन तावन्तमेव कालं स्थातव्यम् । इति नैवं विनश्येदिति । २१। सोऽयमदित्सोर्वणिनः प्रतिदिनं पत्र लिखितश्वस्तनदिनन्नणनन्यायस्तस्मात्हणक्ष्यस्थायित्वेनाप्युत्पत्तौ प्रश्रमकणवत् हितीयेऽपि कणे कणक्ष्यस्थायित्वात्पु. नरपरहणक्ष्यमवतिष्ठेत । एवं तृतीयेऽपि कणे तत्स्वन्नावत्वान्नैव विनश्य दिति स्यादेतत् । । स्थावरमेव च तत् स्वहेतोर्जातं । परं बलेन विरोधकेन मुनरादिना विनश्यत इति । तदसत् । कथं पुनरेतत् घटिप्यते । न च तहिनश्यति स्थावरत्वाहिनाशश्च तस्य विरोधिना बलेन क्रियत इति । न ह्येतत्संनवति जीवति च देवदत्तो मरणं चास्य नव
nnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnawa कणिकपणुं प्रगटन थयु.॥२०तेनो हेतुथी आवोज खन्नाव थयो , के ने केटलोक काल रहीने नाश पामे डे, एम जो कहेशो, तो मुरादिकना समीपमां पण, तेनो, तेज स्वन्नाव ले. अने तेथी फरीने पण तेने तेटलाज कालसुधि रहे, पमशे, अने एवीरीते नाश पामशेज नही; । २१ । अने ते नही देवानी इच्छगवाला वेपारीनो हमेशां पत्रमा खखेला प्रावतीकालना वायदा करवा सरखो न्याय थयो; अने तेथी बे कण रहेवावके करीने पण उत्पत्ति होते ते प्रथम कणनी पेठे बीजा कणमां पण बे कण रहेवाथी फरीने पण बीजा बे दण सुधि रहे, अने एवी रीते त्रीजा कणमां पण रहे, केमके तेनो तेवो खन्नाव होवाथी नाश पामेज नही, अने बतो रहे. । २२ । ते पोताना हेतुथी स्थावर ययुं बे, पण विरोधि एवा मुजरादिके बलात्कारे नष्ट कर्यु डे, एम जो कहेशो, तो ते असत्य ले ; केमके ते फरी ने केम घमाशे? वली स्थावर होवाथी ते नाशपामतुं नथी, अने विरोधिमे बनात्कारे तेनो नाश
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२४ तोति । २३ । अथ विनश्यति तर्हि कथमविनश्वरं तस्तु स्वहेतोजीतमिति । न हि म्रियते चाऽमरणधर्मा चेति युज्यते वक्तुं । तस्मादविनश्वरत्वे कदाचिदपि नाशाऽयोगात् । दृष्टत्वाच्च नाशस्य । नश्वरमेव तइस्तु स्वहेतोरुपजातमेवाङ्गीकर्तव्यं । तस्माउत्पन्नमात्रमेव विनश्यति । तथा च दणदयित्वं सिइं नवति । २४ । प्रयोगरत्वेवं । यहिनश्वररूपं तउत्पत्तेरनन्तराऽनवस्थायि । यथान्त्यदणवर्ति घटस्य स्वरूपं । विनश्वरस्वरूपं च रूपादिकमुदयकाल इति स्वन्नावहेतुः । २५। यदि दणदयिो नावाः कथं तर्हि स एवायमिति प्रत्यनिझा स्यात् । उच्यते। निरन्तरसदृशाऽपरापरोत्पादादविद्यानुबन्धाच्च' पूर्वदण विनाशकाल एव
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कराय , एम कहेवू संनवतुं नथी, केमके देवदत्त जीवे , अने तेनुं मरण थाय , ए असंन्नवित . । २३ । वली ज्यारे नाश पामे डे, त्यारे ते वस्तु पोताना हेतुथी अविनश्वर केम थाय ले ? केमके मरे पण बे, अने अमरणधर्मवालो पण , एम कहे, युक्त नथी. माटे अविनश्वरपणामां कदापि पण नाशनो योग न होवाथी, अने नाश तो देखायो बे, तेथी ते वस्तु स्वहेतुथी नश्वरज नत्पन्न थइ ३, एम अंगीकार करवं. अने तेथी वस्तु नुत्पन्न थइ, के नाश पामे डे, अने तेवी रीते वस्तुनः . कणवयिपणुं सिइ थाय । २४ । तेनो प्रयोग नीचेप्रमाणे जे. जे विनश्वरस्वरूपवानुं छे, ते उत्पत्ति पनी रहेनालं.नथी, जेम अंत्यदणमा रहेनुं घटनुं स्वरूप ; वली उदयकाले विनश्वर स्वरूपवाद्धं रूपादिक डे, ए स्वनावहेतु . । २५ । पदार्थो ज्यारे कणक्ष्यी . त्यारे. आ तेज बे, एवी खातरी क्यांथी थाय ? एम जो कहेशो, तो ते . . माटे, कहीये बीये. निरंतर तुल्य एवी अपरअपर उत्पत्तिथी अने अविद्याना अनुबंधथी, पूर्वणना विनाशवखतेन तेना सरखो बीनो कण .......... . । परोत्पादादिविद्यानुबंधाच्च । इतिद्वितीयपुस्तकपाठः ॥ . . .
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२४५ तत्सदृशं दणान्तरमुदयते । तेनाकार विलदणत्वाऽनावादव्यवधानाच्चात्यन्तोच्छेदेऽपि स एवायमित्यनेदाऽध्यवसायी प्रत्ययः प्रसूयते । २६ । अत्यन्त निन्नेष्वपि खूनपुनरुत्पन्नकुशकाशकेशादिषु दृष्ट एवायं स एवायमिति प्रत्ययः । तथेहापि किं न संन्नाव्यते । तस्मात्सर्व सत् दणिकमिति सिझम् । अत्र च पूर्वणोपादानकारणं उत्तरदण उपादेयमिति च परानिप्रायमङ्गीकृत्याह । २७ । न तुल्यकान इत्यादि । ते विशकलितमुक्तावलीकल्पा निरन्वयविनाशिनः पूर्वदणा उत्तरदणान् जनयन्तः किं स्वोत्पत्तिकाल एव जनयन्ति नत कणान्तरे । न तावदाद्यः । समकालनाविनोयुवतिकुचयो स्विोपादानोपादेयन्नावाऽन्नावात् । अतः साधूक्तं न तुल्यकानः फलहेतुन्नाव इति । २७ । न च morrowe
n marwarrammar नत्पन्न थाय , अने तेथी विलक्षण आकारना अन्नावधी अने वच्चे व्यवधान न आववाथी, अत्यंत उच्छेद होते ते पण, आ तेज , एवो अनेदअध्यवसायवालो प्रत्यय नत्पन्न थाय . । २६ । जेम अत्यंत नेदायेला एवा पण, लणेला अने फरीने नुत्पन्न ययेला एवा कुश, काश तथा केशादिकोनेविषे, आ तेज , एवो प्रत्यय देखायेलो ने, तेम अहीं पण केम न संनवे ? माटे सघना बता पदार्थों दणिक डे, एम सिइ थयु. अहीं पूर्वदण उपादान कारण जे, अने उत्तरक्षण उपादेय डे, एवी रीतना वादीना अनिप्रायने अंगीकार करीने हवे कहे . । २७ । ते श्रेणिबंध मुक्तमालासरखा अन्वयरहित नाश पामनारा पूर्वक्षणो नत्तरहणोने उत्पन्न करताथका, ते ने शुं पोतानी उत्पत्ति वखतेज उत्पन्न करे ने ? के दणांतरे उत्पन्न करे ले ? तेमां पेहेलो पद तो नही ; केमके एकीवखते थनारा युवतिस्तनोनी पेठे नपादाननुपादेयत्नाव नथी ; माटे कार्यकारणनाव तुल्यकालवालो नथी, एम. कहेवू युक्तन ..। २७ । बीजो. पाण पद योग्य नथी ; केमके नि
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२४द
हितीयस्तदानीं निरन्वय विनाशेन पूर्वदणस्य नष्टत्वाउत्तर क्षणजनने कुतः संनावनापि । न चानुपादानस्योत्पत्तिईष्टाऽतिप्रसङ्गादिति सुषु व्याहृतं हेतौ विनीने न फलस्य नाव इति । २ए । पदार्थस्त्वनयोः पादयोः प्रागेवोक्तः । केवन्नमत्र फलमुपादेयं हेतुरुपादानं । तन्नाव नपादानोपादेयत्नाव इत्यर्थः । ३० । यच्च दणिकत्वस्थापनाय मोदाकरगुप्तेनानन्तरमेव प्रलपितं । तत् स्यादवादे निरवकाशमेव निरन्वयनाशवर्ज कथंचित्सिइसाधनात् । प्रतिदणं पर्यायनाशस्यानेकान्तवादिनिरन्युपगमात् । ३१ । यदप्यनिहितं नह्येतत् संजवति जीवति च देवदतो मरणं चात्य नवतीति । तदपि संनवादेव न स्याहादवा दिनां दतिमावहति । यतो जीवनं प्राणधारणं । मरणं चायुर्दनिकदयस्ततो जीवतोऽपि देवदत्तस्य प्रतिसमयमायुर्दलिकानामुदीनां दयाउपपन्न
रन्वय विनाशें करीने पूर्वक्षण नाश पामवाथी उत्तरक्षणने उत्पन्न थवानो संनवज क्यां ? तेम अतिप्रसंगयी उपादानरहितनी नुत्पत्ति देखायेली नयी ; माटे ‘कारण नाश पामते ते कार्यनो नाव न होय' एम युक्तन कहेडुं . । २ए । प्रा बन्ने पादोनो पदार्थ तो पूर्वेज कहेलो ने ; अहीं तो केवन्न कार्य ते उपादेय, अने कारण ते नपादान, अने ते बन्नेनो जे नाव, ते नपादान नपादेय नाव, एवो अर्थ जाणवो. । ३० । वली दणिकपणुं स्थापवामाटे मोदाकरगुप्ते नपरज जे कां ने, ते स्याक्षादवादमां कथंचित् सिइसाधनश्री निरन्वयनाशशिवाय प्रगटन ले; केमके अनेकांतवादीनए दणदणप्रते पर्यायनाशने स्वीकार्यों . । ३१ । वली 'देवदत्त जीवे ठे, अने तेनुं मरण थाय डे' ए संनवतुं नश्री, एम पण जे का, ते पण संनवतुंन होवाथी स्याहादवादिनने कंई हरकतजेवू नश्री ; केमके जीवg, ते प्राणधारवारूप डे, अने मरण ले ते आयुष्यना दलियां-नो दय , अने तेथ। जीवता एवा पण
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२४ मेव मरणं ।३। न च वाच्यमन्त्यावस्थायामेव कृत्स्नायुर्दलिकदयात् तत्रैव मरणव्यपदेशो युक्त इति । तस्यामप्यवस्थायां न्यदेण तत्वयाऽनावात् । तत्रापि ह्यवशिष्टानामेव तेषां दयो न पुनस्ततहण एव युगपत्सर्वेषामिति सिइं गर्नादारन्य प्रतिदणं मरण मित्यत्वं प्रसङ्गेन ।३३। अथवाऽपरथा व्याख्या । सौगतानां किलार्थेन झानं जन्यते । तच्च झानं तमेव स्वोत्पादकमर्थं गृह्णातीति । नाऽकारणं' विषय इति वचनात् । ततश्चार्थः कारणं ज्ञानं च कार्यमिति । ३३ । एतच्च न चारु । यतो यस्मिन् दणेऽर्थस्य स्वरूपसत्ता तस्मिन्नद्यापि झानं नोत्पद्यते । तस्य तदा स्वोत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात् । यत्र च क्षणे झानं समुत्पन्नं तत्रार्थोmurrrrrrrrrrrrrrrrovian
nununununun देवदत्तने समय समयप्रते नदय आवता आयुदलिकोना दयथी मरण प्राप्त थाय ने. ३२ । वली एम पण नही बोलवू के, अंत अवस्थामांन सर्व आयुदन्निकोना क्यथी, तेन वखते मरण कहेवू युक्त जे; केमके ते अवस्थामां पण समस्त प्रकारे कं आयुदतिकोनो क्य थतो नथी, कारणके ते वखते पण बाकी रहेलाज आयुदक्षिकोनो दय थाय बे, पण कं तत्दणज एकी वखते सर्व आयुदतिकोनो दय थतो नथी, माटे गर्नथी मामी ने दरेक दणे मरण थाय डे, एम सिइ थयु ; एवी रीते प्रसंगोपात अहीं कडं जे. । ३३ । अथवा या पूर्वार्धनो नीचे प्रमाणे जूदीरीतथी अर्थ करवो. बौशे एम माने जे के, पदार्थवमे झान नत्पन्न थाय डे, अने ते झान तेन पोताना नुत्पादक पदार्थने गृहण करे . का डे के कारण विनानो विषय नथी.' माटे पदार्थ कारण बे, अने झान कार्य . ।३।। (हवे ते वादी ने कहे जे के) नपरप्रमाणेनुं ते तारूं कहेवू युक्त नथी; केमके जे दणमां पदार्थनी स्वरूपसत्ता जे, ते दणे तो हजु पण झान उत्पन्न यतुं नथी; केमके ते वखते तो ते
२ ज्ञानकारणं । इति द्वितीयपुस्तकपाठः ॥
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२४० ऽतीतः । ३५ । पूर्वापरकालनावनियतश्च कार्यकारणनावः । दणातिरिक्तं चावस्थानं नास्ति । ततः कथं ज्ञानस्योत्पत्तिः कारणस्य वि. लीनत्वात् । तलिये च ज्ञानस्य निर्विषयता अनुषज्यते । कारणस्यैव युष्मन्मते तषियत्वात् । निर्विषयं च झानमप्रमाणमेवाकाशकेशज्ञानवत् । ३६ । ज्ञानसहनाविनश्वार्थदणस्य न ग्राह्यत्वं । तस्याऽकारणत्वात् । अत आह न तुल्यकाल इत्यादि । झानार्थयोः फलहेतुन्नावः कार्यकारणन्नावस्तुल्यकालो न घटते । शानसहना विनोऽर्थदणस्य ज्ञानाऽनुत्पादकत्वात् । युगपन्ना विनोः कार्यकारणनावाऽयोगात् । ३७ । अथ प्राचोऽर्थदणस्य ज्ञानोत्पादकत्वं नविष्यति । तन्न । यत आह हेतावित्यादि । हेतावर्थरूपे झानकारणे विलीने दणिकत्वान्निरन्वयं विनष्टे
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फक्त पोतानी नत्पत्तिमांज व्यग्र हतुं. तेम जे दणे ज्ञान उत्पन्न थy, ते दणे अर्थ तो चाल्यो गयो. । ३५ । वली कार्यकारणन्नाव पूर्वापरकालवालो चोकस डे, अने दणशिवाय तो स्थिरता डे नही, माटे कारण नाश पाम्यापली छाननी उत्पत्ति शीरीते थाय ? वली ते नाश पामते ते ज्ञानने निर्विषयपणुं प्राप्त थाय डे, केमके तमारा मतमां तो कारणनेन तेनो विषय मानेलो डे, अने विषयविनानुं ज्ञान आकाशकेशाननी पेठे अप्रमाणन बे. । ३६ | वली शानसाथे थनारा अर्थदणने ग्राह्यपणुं नथी, केमके तेने अकारणपणुं छे; तेथी कहे जे के झान अने पदार्थनो कार्यकारणनाव तुल्यकालवालो घटतो नथी; केमके झाननी साथे थनारा अर्थदणने ज्ञानअनुत्पादकपणुं डे; तेम एकीवखते थनाराज ने कार्यकारणनावनो अयोग . ३७। पूर्वना अर्थदणने झानोत्पादकपणुं यशे, एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी; तेनेमाटे कहे डे के-पदार्थरूप झाननुं कारण नाशपामते बसे, अर्थात् कणिक होवाथी अन्वयरहित नाशपामते ते ज्ञानरूप कार्यनो आत्म
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न फलस्य शानलकणकार्यस्य नाव आत्मतान्नः स्यात् । जनकस्यार्थक्षणस्यातीतत्वान्निर्मूलमेव ज्ञानोत्थानं स्यात् । जनकस्यैव च ग्राह्यत्वे इन्झ्यिाणामपि ग्राह्यत्वापत्तिः । तेषामपि झानजनकत्वात् । ३७ । न चाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थस्य ज्ञानहेतुत्वं दृष्टं । मृगतृष्णादौ जलाडनावेऽपि जलझानोत्पादात् । अन्यथा तत्प्रवृत्तेरसंभवात् । ३ए । नान्तं तत् ज्ञानमिति चेन्ननु चान्ताऽत्रान्त विचारः स्थिरीनय क्रियतां त्वया। सांप्रतं प्रतिपद्यख तावदनर्थजमपि झानम् । अन्वयेनार्थस्य ज्ञानहेतुत्वं दृष्टमेवेति चेन्न । न हि तन्नावे नावलकणोऽन्वय एव हेतुफन्नन्नावनिश्चयनिमित्तमपितु तदनावेऽनावलदणो व्यतिरेकोऽपि । स चोक्तयुक्त्या नास्त्येव । ४० । योगिनां चाऽतीताऽनागतार्थग्रहणे
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लान होइ शके नही ; एटले जनक एवो पदार्थदण चाल्यो जवाथी झानोत्पत्ति निर्मूलन यश् जाय. वन्नी जनकनेन ग्राह्यपणुं स्वीकारते बते इंडिनने पण ग्राह्यपणानी आपत्ति थशे ; केमके तेन ने पण झानोत्पत्तिपणुं . । ३० । वन्नी अन्वयव्यतिरेके करीने पदार्थ ने झानहेतुपएं देखायेद्धं नथी ; केमके मृगतृष्णादिकमां जल न होते ते पण जत्रज्ञाननी नुत्पत्ति थाय बे, अने जो तेम न होय, तो तेनी प्रवृत्तिनो असंभव थाय. । ३ए । ते झान ब्रांतिवालु डे, एम जो कहीश, तो चांत अन्नांतनो विचार तुं स्थिर थश्ने कर ? हमणा तो तुं पदाग्रंथी नही उत्पन्न थतुं एवं पण शान अंगीकार करें ? अन्वयें करीने पदार्थ ने शानहेतुपणुं देखायेचुन डे, एम जो कहीश तो ते युक्त नथी; केमके तेना नावमां नावलक्षणवालो अन्वयज कं हेतुफलन्नाव निश्च. यना निमित्तरूप नथी, परंतु तेना अन्नावमां अन्नावलक्षणवालो व्यतिरेक पण ( निमित्तरूप ) , अने ते तो नपर कहेली युक्तिवझे न
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.. २५० किमर्थस्य निमित्तत्वं । तयोरसत्वात्। =| 'न निहाणगया नग्गा। पुंजो नत्थि अणागए ॥ निव्वुया नेव चिठन्ति । आरग्गेसरिसोवमा ॥ इति वचनात् । ४१ । निमित्तत्वे चार्थक्रियाकारित्वेन सत्वादतीतानागतत्वदतिः । न च प्रकाश्यादात्मनान एव प्रकाशकस्य प्रकाशकत्वं । प्रदीपादेर्धटादिन्योऽनुत्पन्नस्यापि तत्प्रकाशकत्वात् । १२ । जनकस्यैव च ग्राह्यत्वाऽज्युपगमे स्मृत्यादेः प्रमाणस्याऽप्रामाण्यप्रसङ्गस्तस्यार्थाऽजन्यत्वात् । न च स्मृतिर्न प्रमाणम् । अनुमानप्राणनूतत्वात् । साध्य
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थीज. 1 10 वत्री योगीनमाटे नूतकालना अने नविष्यकालना प. दार्थोनुं ज्ञान थवामां पदार्थy निमित्त क्या देखाय ? केमके ते पदार्थो ते वखते कई बता नथी. कहुं ने के =|| नष्ट थयेला पदार्थों कंई नंमारमां नरीमूक्या नश्री, तेम थनारा पदार्थोनो के ढग करीमेल्यो नथी; जे पदार्थो नष्ट थया , ते सोश्ना अग्रनागपर रहेला सर्पवनी पेठे स्थिर रहेता नथी. =|| । ३१ । वली निमित्तपणामां अर्थक्रियाकारिपणायें करीने उतापणाथी अतीतअनागतपणानो विनाश थशे. वली प्रकाशकना प्रकाशकपणारूप लानज प्रकाश्यथी नथी, केमके घटादिकथी नही नत्पन्न थयेला एवा पण दीपकादिकने ते घटादिकोनुं प्रकाशकपणुं . । । वन्नी जनकनेज ग्राह्यपणुं स्वीकारते बते स्मृतिआदिक प्रमाणने पण अप्रमाणपणानो प्रसंग थशे; केमके स्मृतित्रादिक कंश पदार्थथी नत्पन्न थती नथी ; तेम स्मृति कं प्रमाणन्त नथी तेम नथी; केमके ते अनुमानप्रमाणनी प्राणन्त डे, अने ते अनुमानप्रमाण साध्यसाधनना संबंधवाला स्मरणपूर्वक थाय डे.
१ न निधानगताः भग्ना । पुंजः नास्ति अनागते । निवृताः नैव तिष्टंति । आराने सर्षपोपमाः ॥ इतिच्छाया ॥
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२५१ साधनसम्बन्धस्मरणपूर्वकत्वात्तस्य । ३३ । जनकमेव चेदग्राह्यं तदा 'ख. संवेदनस्य कथं ग्राहकत्वं । तस्य हि ग्राह्यं स्वरूपमेव । न च तेन त. जन्यते स्वात्मनिक्रियाविरोधात् । तस्मात्स्वसामग्रीप्रनवयोर्घटप्रदीपयोरिवार्थज्ञानयोः प्रकाश्यप्रकाशकनावसंनवान्न झान निमित्तत्वमर्थस्य । नन्वर्याऽजन्यत्वे ज्ञानस्य कथं प्रतिनियतकर्मव्यवस्था । तउत्पत्तितदाकारतान्यां हि सोपपद्यते । तस्मादनुत्पन्नस्याऽतदाकारस्य च झानस्य सर्वार्थान् प्रत्यविशेषात्सर्वग्रहणं प्रसंज्यते । ४५ । नैवं । तउत्पत्तिमन्तरेणाप्यावरण दयोपशमलदणया योग्यतयैव प्रतिनियतार्थप्रकाशक
conomwwwmorammarrrrrrrrrrr. । ५३ । हवे जो जनकज ग्राह्य होय, तो स्वसंवेदनने ग्राहकपणुं क्याथी थाय ? केमके तेनुं तो ग्राह्य स्वरूपज , अने ते तो स्वात्मामा क्रियाना विरोधथी तेनावमे नत्पन्न यतुं नथी; माटे पोतानी सामग्रीथी उत्पन्न थयेला एवा घट अने प्रदीपनी पेठे पदार्थ अने झानने प्रकाश्य अने प्रकाशक नावना संबंधश्री पदार्थ ने शान- निमित्तपणुं नथी. । । अहीं वादी शंका करे ले के-झाननी नत्पत्ति जो पदार्थथी न मानीये, तो नियतपदार्थोनी व्यवस्था शीरीते थाय ? केमके ते व्यवस्था तो तउत्पत्ति अने तदाकारपणाथी थाय ; माटे अनुत्पन्न अने अतदाकारवाला झानने सर्व पदार्थोप्रते अविशेषपणाधी सर्वग्रहणनो प्रसंग पशे. । ४५ ते वादीने आचार्यमहाराज कहे जे के-ए तारूं कहेवू युक्त नश्री ; केमके ते पदार्थनी उत्पत्तिविना पण, आवरणक्योपशम डे लक्षण जेनुं, एवी योग्यतावफेज नियत पदार्थ ने प्रकाशित करी शकाय ; तेम ते पदार्थनी उत्पत्ति थर होय, तो पण ते माटे योग्य
१ सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं स्वसंवेदनं । वित्तमर्थमात्रग्राहि । चैना विशेषावस्थाग्राहिणः सुखादयः । सर्वे च ते चित्तचैत्ताश्च । तेषां मुखादय एव स्कुटानुभवित्वात् स्वसंविदिताः। नान्या चिनावस्था । इत्येवं तदाशंक्य निवृत्त्यर्थ सर्वग्रहणं । येन हि रूपेणात्मा वेयते । तद्रूपमात्मसंवेदनं स्वसंवेदप्रत्यक्षं ।
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खोपपत्तेः । तत्पत्तावपि च योग्यताऽवश्यमेष्टव्या । अन्यथाऽशेषाथसांनिध्ये तत्तदर्थाऽसांनिध्येऽपि कुतश्चिदेवार्थात् कस्यचिदेव झानस्य जन्मेति कौतस्कुतोऽयं विनागः । ५६ । तदाकारतात्वाकारसंक्रान्त्या तावदनुपपन्ना । अर्थस्य निराकारत्वप्रसङ्गात् । झानस्य साकारत्वप्ररूगाच्च । अर्थेन च मूर्त्तनामूर्तस्य ज्ञानस्य कीदृशं सादृश्य मित्यर्थविशेषग्रहणपरिणाम एव साऽज्युपेया ।। ततः । =॥ 'अर्थेन घटयत्येनां । न हि मुक्त्वार्थरूपताम् ॥ तस्मात्प्रमेयाधिगतेः । प्रमाणं मेयरूपता ॥ इति यत्किञ्चिदेतत् । ४ । अपि च व्यस्त समस्ते वैते ग्रहणकारणं स्यातां । यदि व्यस्ते तदा कणलाद्यदणो घटाऽन्त्यदणस्य ।
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तानी तो अवश्य जरुर पमशे; अने जो तेम न होय, तो सर्व पदार्थोना समीपपणामां अने ते ते पदार्थोना असमीपपणामां पण कोश्कन पदार्थथी कोश्कन झाननो जन्म थशे, एवीरीते आ विनागतो क्यांक क्यांक थयो. । ४६ । हवे तदाकारपणुं तो पदार्थना आकारना संक्रमवमे तो अयुक्त ने, केमके तेथी तो पदार्थ ने निराकारपणानो प्रसंग थाय डे, अने ज्ञानने साकारपणानो प्रसंग थाय डे; वत्नी मूर्तिवंत एवा पदार्थसाथै अमूर्त एवा झाननु तुल्यपणुं ते केवुक थाय? माटे अर्थविशेषग्रहणपरिणामज ते तदाकारपणुं डे, एम अं. गीकार कर. । ४ । अने तेथी ='आ बुझिने तजी ने बीजं कं पदार्थसाथे पदार्थपणाने घटावतुं नथी, माटे प्रमेयना झानथी प्रमाण डे ते कारण डे' =ll एम जे कयुं , ते यत्किचित् . । । वन्नी ते तउत्पत्ति अने तदाकारपणुं, ए बन्ने एकठा के जूदा जूदा ग्रहण करवाना कारणरूप थाय ले ? जो कहीशके, जूदा जूदा, तो ठीबमीनो
१ एना बुद्धिमर्थरूपतामर्थात्मकता मुक्त्वा नह्यन्यदर्थेन घटयतीत्यर्थः। प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं कारणं इत्यर्थः । इत्यर्थेन घटति श्लोकस्य व्याख्या ॥
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जलचन्शे वा नन्नश्चन्ऽस्य ग्राहकः प्राप्नोति । यथासंख्यं तउत्पत्तेस्तदाकारत्वाच्च । ४ए । अथ समस्ते तर्हि घटोत्तरदण: पूर्वघटकणस्य ग्राहकः प्रसजति । तयोरुनयोरपि सनावात् । इानरूपत्वे सत्येते ग्रहणकारण मितिचेत्तर्हि समानजातीयज्ञानस्य 'समनन्तरसानग्राहकलं प्रसज्येत । तयोर्जन्यजनकन्नावसन्नावात् । तन्न योग्यतामन्तरेणाऽन्यद ग्रहणकारणं पश्याम इति । ५० । अथोत्तराई व्याख्यातुमुपक्रम्यते । तत्र च बाह्यार्थनिरपेदं झानातिमेव ये बौझविशेषा मन्वते तेषां प्रतिक्षेपः । तन्मतं चेदं । ग्राह्यग्राहकादिकलङ्काऽनङ्कितं निष्प्रपञ्चं ज्ञानमात्रं परमार्थसत् । बाह्यार्थस्तु विचारमेव न दमते । तथा हि । ५१। कोऽयं बाह्यार्थः । किं परमाणुरूपः स्थूलावयविरूपो वा । न तावत्परमाणुरूपः
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आद्य कण घटना अंत्य दणनो अथवा जलचं आकाशचंनो ग्राहक याय , केमके तेन ने अनुक्रमेतउत्पत्ति अने तदाकारपणुंडे. एवली जो कहीशके, एकठा, तो घटना उत्तरहणने घटना पूर्वदणना ग्राहकनो प्रसंग थाय ने ; केमके तेमांतउत्पत्ति अने तदाकारपणुंएम बन्नेनो सनाव वे. झानरूपपणुं होते बते ते बन्ने ग्रहणना कारणरूप , एम जो कहोश तो समानजातिवाला झानने समनंतरज्ञानग्राहकपणानो प्रसंग
आवे; केमके तेनने जन्यजनकनावनो सनाव ; माटे योग्यताविना बीजं ग्रहण- कारण अमो जोता नथी. । ५० । हवे (काव्यना) उत्तरार्धनुं व्याख्यान कराय ले. ते उत्तरार्धमां ने बौइविशेषो बाह्य पदार्थने नपेक्षीने झानशिवाय बीजुं कं नथी, एम माने , तेन्नो प्रतिहेप करेलो . तेउनो एवो मत डे के, ग्राह्यग्राहकादि कलंकविनानु, तथा प्रपंचरहित एवं ज्ञानन बतो पदार्थ जे; अने बाह्य पदार्थ तो विचारनेन सहन करतो नथी. ते कहे . । ५१ । आ बाह्य पदार्थ शुं
१ समं च ज्ञान त्वेन नंतरं पाऽव्यवहितत्वेन तव तद्नानं च समनंतरतानं ।
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ए प्रमाणाऽनावात् । प्रमाणं हि प्रत्यदमनुमानं वा । न तावत्प्रत्यदं तत्साधनबकदं । तदि योगिनां स्यादस्मदादीनां वा । नाद्यम् । अत्यन्तविप्रलष्टतया अज्ञमात्रगम्यत्वात् । नहि दितीयमनुन्नववाधितत्वात् । न हि वयं अयं परमाणुरयं परमाणु रिति स्वप्नेऽपि प्रतीमः । स्तंनोऽयं कुंनोऽयमिति एवमेव नः सदैव संवेदनोदयात् । ५२ । नाप्यनुमानेन तत्सिहिः । अणूनामतीनिश्यत्वेन तैः सह अविनान्नावस्य क्वापि निङ्गे ग्रहीतुमशक्यत्वात् । ५३ । किं चामी नित्या अनित्या वा स्युः । नित्याश्चेत्क्रमेणाऽर्थ क्रियाकारिणो युगपा । न क्रमेण स्वनावनेदेनाऽनित्यत्वापत्तेः । न युगपदेकदण एव कृत्स्नार्थ क्रियाकरणात् । कणान्तरे ལ་་་ ག་ འགག
ཀ ཀཀཀ ཀ་ང་ཀ་འ་འཀའཀཀཀཀཀཀཀ བ་ ཀ་བ་ཀ་ ཀ་ང་ཀ་བ་ཀ་ཡག་ ले? परमाणुरूप ले ? के स्यूलअवयवीरूप ? प्रमाणना अन्नावथी परमाणुरूप तो नथी. वली ते प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण ? के अनुमानप्रमाण ? प्रत्यक्ष प्रमाण तो तेने साधवामां समर्थ नथी. के. मके ते प्रत्यक्ष प्रमाण योगीनने होय, के आपणादिकोने होय? तेमां पेहेलो पद तो योग्य नथी, केमके अत्यंत दूरपणावमे ते तो फक्त अज्ञकरवारूपज डे; तेम बीजो पद पण युक्त नथी, केमके ते अनुनवबाधित डे, केमके आ परमाणु , आ परमाणु बे, एवी आपणने खप्नमां पण प्रतीति थती नश्री ; पण आ स्तंन डे, आ कुंन , एवी रीतेन आपणने हमेशां ज्ञान उत्पन्न थाय . । ५२ । वली अनुमानप्रमाणवमे पण तेनी सिदि थती नथी, केमके परमाणुन ने अतींशि- . यपणुं होवाथी तेउनी साथे अविनान्नाव कोइ पण लिंगमां ग्रहणं करीशकातो नश्री. । ५३ । वल्ली आ परमाणुन नित्य होय, के अनित्य होय ? नित्य होय तो क्रमवमे अर्थक्रिया करनारा होय ? के एकीवखते करनारा होय? क्रमवमे तो नही, केमके तेयी तो वनावनेदवमे अनित्यपणानी आपत्ति थाय ले. एकीवखते पण नही, केमके एक द
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तदभावादसच्चप्राप्तिः । ५४ । अनित्याश्चेत् दणिकाः कालान्तरस्थायिनो वा । कणिकाचेत्सहेतुका निर्हेतुका वा । निर्हेतुकाचेन्नित्यं सत्वमसत्वं वा स्यान्निरपेक्षत्वादपेक्षातो हि कादाचित्कत्वं । सहेतुकाचेकिं तेषां स्थूलं किंचित्कारणं परमाण्वो वा । न स्थूलं । परमाणुरूपस्यैव बाह्यार्थस्याऽङ्गीकृतत्वात् । न हि परमाणवः । ते हि सन्तोऽसन्तः
तो वा स्वकार्याणि कुर्युः । सन्तश्रेत्किमुत्पत्तिक्षण एवं कणान्तरे वा । नोत्पत्तिणे तदानीमुत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात् तेषां । ५५ । थ जूतियैवा क्रिया सैव कारणं सैव चोच्यते " इति वचनात् भवनमेव तेषामपरोत्पत्तौ कारणमिति चेदेवं तर्हि रूपाणवो रसाणूनां । ते च
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मांज सर्व पदार्थोनी क्रिया करवाथी, बीजी दणे तेना अभावथी - तापानी प्राप्ति शे. । ५४ । हवे जो ते परमाणु नित्य होय, तो ते कणिक, के कालांतरस्थायी बे ? जो ऋणिक बे, तो हेतुसहितबे के हेतुरहित बे ? जो हेतुरहित बे, तो अपेक्षाथी नित्यबतापणुंबे के तापणुं बे ? केमके अपेक्षायी तो कादाचित्कपणं बे. जो हेतुसहित बे, तो तेनुं कई स्थूल कारण बे, के परमाणुन बे ? स्थूल तो नही, केमके बाह्य पदार्थ ने तो परमाणुरूपे स्वीकार्यों बे ; तेम परमाणुन पण नहीं, केमके ते परमाणुन बता, बता के बता बता पोतानां कार्यों करे बे ? जो कहश के बता, तो शुं नृत्पत्तिणेज, के क्षणांतरे करे ? उत्पत्तिक्षणे तो नहीं, केमके ते वखते तो तेन फक्त नृत्पत्तिमांज व्यग्र होय . । ५५ । 'जे या 'थवुं ' तेज क्रिया अने तेज कारण कहेवाय बे' एम कहेल होवाथी ' यवुं ' तेज तेनी अपरोत्पत्तिमां कारण बे, एम जो कहीश, तो रूपना परमाणुन रसना
१ यदेवाऽर्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् इतिवचनात् ॥ २ नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा । हेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कसंभवः ॥
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--..... -- २५६ तेषामुपादानं स्युरुनयत्र नवनाऽविशेषात् । न च दणान्तरे नष्टत्वात् । ५६ । अथाऽसन्तस्ते तउत्पादकास्तर्हि एकं स्वसत्तादणमपहाय सदा तउत्पत्तिप्रसङ्गस्तदसत्त्वस्य सर्वदाऽविशेषात् । सदसत्पदस्तु “ प्रत्येक यो नवेद्दोषो । झ्यो वे कथं न सः" इति वचनात् विरोधाघात एव । तन्नाणवः दणिका नापि कालान्तरस्थायिनः । 'दणिकपकसक्योगोमत्वात् । ५७ । किं चामी कियत्कालस्थायिनोऽपि किमर्थक्रियापराङ्मुखास्तत्कारिणो वा । आद्ये खपुष्पवदसत्त्वापत्तिः । उदग्विकल्प किमसद्रूपं सद्रूपमुन्नयरूपं वा ते कार्यं कुर्युः । असद्रूपं चेच्चशविषाणादेरपि किं न करणं । सद्रूपं चेत्सतोऽपि करणेऽनवस्था । तृतीयने
परमाणुन्नु, अने रसना परमाणु रूपना परमाणुन नपादान काय, केमके 'थर्बु ' ए तो बन्नेमां तुल्य जे. तेम वली क्षणांतरे पण नष्ट थ. वाथी ते कार्य करी शकता नथी. । ५६ । जो कहेशो के अबता परमाणुन तेन ने नत्पन्न करनारा दे, तो एक स्वसत्ताक्षणने तनी ने हमेशां तेन्नी नत्पत्तिनो प्रसंग थशे, केमके तेन्नु अतापणुं हमेशा बेज. अने उता अउतानो पद तो 'एकमां जे दोष होय, ते बन्नेमां केम न होय?' ए वचनथी विरोधवालोन ले. माटे परमाणुन दणिक पण नथी, अने कालांतरस्थायि पण नथी; केमके पूर्वपद अने नत्तरपद बन्नेमां तुल्यपणुं . । ५७ । वत्नी आ केटलोक कान स्थायी होश्ने पण शुं अर्थक्रिया नही करनारा होय ? के ते करनारा होय ? पेहेला विकल्पमा आकाशपुष्पनीपेठे असतापणानी आपत्ति यशे; अने बीजा विकल्पमा शुं ते सद्रूप, असद्रूप के उन्नयरूप कार्य करे ? जो कहीश के असद्रूप, तो ससलाना शींगमांत्रादिक ने केम न करे ? जो कहीश के सद्रूप, तो बताने पण करवामां
। तुल्यपूर्वपक्षोनरपक्षत्वात् ॥
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दस्तु प्राग्वद्विरोधऽर्गन्धः । तन्नारूपोऽर्थः सर्वथा घटतेनापि स्यूलावयविरूपः । एकपरमाण्वसि कथमनेकतत्सिधिः । तदभावे च तत्प्रचयरूपः स्थूलावयवी वाङ्मात्रं । किं चायमनेकावयवाधार इप्यते । ते चावयवा यदि विरोधिनस्तर्हि नैकः स्थूलावयवी विरुधर्माध्यासात् । विरोधिनश्चेत्प्रतीतिबाधः । एकस्मिन्नेव स्थूलावयविनि चल्लाऽचलरक्ताऽरक्ताडावृताऽनावृतादिविरुश्ऽवयवानामुपलब्धेः । ५९ ।
पिचासौ तेषु वर्तमानः कात्स्न्येनैकदेशेन वा वर्तते । कात्स्म्र्त्स्न्येन वृत्तावेकस्मिन्नेवावयवे परिसमाप्तत्वादनेकाऽवयववृत्तित्वं न स्यात् । प्रत्यवयत्रं कार्त्स्न्येन वृत्तौ चाऽवयविबहुत्वापत्तेः । ६० । एकदेशेन वृत्तौ
अनत्रस्थादोष व्यावशे ; नेत्री जो नेद तो पूर्वविरोधयुक्त बे; माटे एत्री रीते परमाणुरूप पदार्थ सर्वथा प्रकारे बटी शकतो नथी. || हवे ते पदार्थ स्वयविरूप पण नयी; केमके एक परमाणुनी ज्यारे प्रसिद्धि बे, त्यारे ते अनेक परमाणुनी सिद्धि क्या थी थाय ? त्र्मने ते न होते बते ते परमाणुना समूहरूप स्थूलावयवी पदार्थ फक्त कहेवारूप बे. वली ते अनेक अवयवांना आधाररूप होय बे, अने ते अवयवो जो विरोधी होय, तो एक पदार्थ विरुद् धर्मने धारण करवायी स्थूल अवयवोवालो याय नही ; वली ते अवयवो जो अविरोधि होय, तो प्रतीतिनो बाघ यावें बे ; केमके एकज स्थूलावयवीमां चलाऽचल, रक्ताडरक्त, आवृतत्र्मनावृतादिक विरुड़ अवयवोनी प्राप्ति थाय बे. । ५ । वल्ली या स्थूलावयवी ते अवयवोमां वर्ततो यको समस्तपणायें करीने के एक देशवमे वर्ते बे ? समस्तपपायें करीने वर्तवामां एक अवयवमां समाप्त थवाश्री अनेक व यवोमां वर्तवापणुं न थाय; वल्ली दरेक अवयवप्रते समस्तपणायें करीने वर्तवामां घणा व्यवयवीजनी आपत्ति थाय बे. । ६० । वली एक
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२५.८.
व तस्य निरंशत्वाऽभ्युपगमवावः । सांशत्वे वा ते शास्ततो जिन्ना । - जिन्ना वा । निन्नत्वे पुनरप्यनेकांशवृत्तेरेकस्य कात्स्न्यैकदेशविकल्पाSनतिक्रमादनवस्था | अभिन्नत्वे न केचिदशाः स्युरिति नास्ति बाह्यअर्थः कश्चित् । किन्तु ज्ञानमेवेदं सर्वं नीलाद्याकारेण प्रतिनाति । बा - ह्यार्थस्य जगत्वेन प्रतिज्ञासाऽयोगात् । ६१ । ययोक्तं " स्वाकारबुद्धि जनका दृश्यानेन्दियगोचराः " | "अलङ्कारकारेणाप्युक्तं । =॥ यदि संवेद्यते नीलं । कथं बाह्यं तउच्यते ॥ न चेत्संवेद्यते नीलं । कथं बाह्यं तडुच्यते ||= | ६२ । यदि बाह्योऽर्थो नास्ति किं विषयस्तर्ह्ययं घटपटादिप्रतिमास इति चेन्ननु निरालम्बन एवायमनादिवितथवासनाप्रव
-
.
देशें करीने वर्तवामां तेना निरंशपणाना स्वीकारनो बाघ यावे बे; अथवा अंशसहितपणामां ते अंशो तेथी जिन्न बे के, अभिन्न बे ? निपणामां फरीने पण एकने अनेकांशमां वृत्तिथी कात्स्न्यैक देशवालो विकल्प नही अतिक्रमवाश्री अनवस्था दोष यावे बे; तेम भिन्नणामां कोइ पण अंश हो शके नही; माटे एवीरीते कोइ पण बाह्य पदार्थ नथी; परंतु या सवलुं ज्ञानज नीलयादिक प्रकार प्रतिमासन घाय बे, मने बाह्य पदार्थ तो जम होवाथी ते प्रतिमासन य शकतो नश्री. । ६१ । कह्युं बे के “ स्वाकारबुड़ने उत्पन्न करनारा पदार्थो इंडियगोचर थता नथी. "अलंकारकारक धर्मकीर्तिए पण क बे के = || ज्यारे लीलुं जणाय बे, त्यारे ते बाह्य केम कहेवाय ? ने जो लीलुं जणाय नही, तो ते बाह्य केम कहेवाय ? । ६२ । ज्यारे बाह्य पदार्थ नथी, त्यारे या घटपटादिकनो प्रतिमास कयाविषयवालो बे ? एम जो कहेशो, तो मो कहीये बीये के, अनादिकालनी जूठी
',
१ धर्मकीर्तिना ॥
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तितो निर्विषयत्वादाकाशकेशज्ञानवत्स्वप्नज्ञानवति । अत एवोक्तम् ||६३श =|| नान्योऽनुनाव्यो बुझ्यास्ति । तस्या नानुनवोऽपरः ॥ ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात्स्त्वयं सैव प्रकाशते ॥ = बाह्यो न विद्यते ह्यर्यो । यथा बालैर्विकल्प्यते ॥ वासनालुवितं चित्त-मासं प्रवर्तते ॥ = इति । ६४ । तदेतत्सर्वमवद्यं । ज्ञानमिति हि क्रियाशब्दस्ततो ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं । इप्तिर्वा ज्ञानमिति । अस्य च कर्मणा नाव्यं । निर्विषयाया इप्तेरवटनात् । न चाकाश केशादौ निर्विषयमपि दृष्टं ज्ञानमिति वाच्यं । त स्याप्येकान्तेन निर्विषयत्वाऽभावात् । नहि सर्वथाऽगृहीतसत्यकेशज्ञानस्य तत्प्रतीतिः । ६५ । स्वमज्ञानमप्यनुतदृष्टाद्यर्थविषयत्वान्न निरा
वासनाय प्रवर्तेलो एवो आ प्रतिनास आलंबन विनानोज बे, केमके ते आकाश केशज्ञाननी पेठे अथवा स्पप्रज्ञाननीपेठे विषयरहित बे. आश्रीज कह्युं बेके, । ६३ | = बुझव बीजो कोइ अनुभाव्य नथी, तेम ते बुझिनो बीजो कोई अनुभव नयी ; ग्राह्यग्राहकना विधुरपपाथी तेज स्वयमेव प्रकाशे बे. = | अज्ञानीन जेम विकल्प करे बे, तेम कोइ बाह्य पदार्थ नयी ; फक्त वासनायी लुक्ति धयेनुं चित्त पदानास प्रवर्ते . ॥ = । ६४ । उपर कहेलुं वादीतरफनुं सघलुं मंमन प्रयुक्त बे. ज्ञान ए क्रियापदयी नृत्पन्न भयेलो शब्द बे ; तेथी जाय वे मानावमे ते ज्ञान, अथवा जाणवुं ते ज्ञान. हवे ते ज्ञाननुं कर्म होवुं जोश्शे ; केमके ज्ञान कई विषयरहित होतुं नथी. वली एम पण नही बोलवु के व्याकाशकेशादिकमां विषयविनानुं पण ज्ञान, देखायुं बे; केमके ते ज्ञानने पण एकांते निर्विषयपणानो कारणके सर्वथाप्रकारे नथी ग्रहण करेल सत्य केशोनुं ज्ञान जेणे एवा माणसने ते प्रकाशकेशादिकना ज्ञाननी प्रतीति यती नथी । ६५ । स्वमज्ञान पण अनुभवेला ने दीवेक्षा यादिक पदार्थोंना विषयवातुं
व बे;
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श्६० लम्बनं । तथा च महानाप्यकारः । =|| 'अणुहूय दिहचिंतिय । सुयपयश्वियारदेवयाएवा । सुमिणस्स निमित्ताई । पुन्नं पांवं च नानावो ॥= । ६६ । यश्च झानविषयः स च बाह्योऽर्थः । चान्तिरियमिति चेच्चिरंजीव । बान्तिर्हि मुख्येऽर्थे क्वचिदृष्टे सति करणाऽपाटवादिना अन्यत्र विपर्यस्तग्रहणे प्रसि-श । यथा शुक्तौ रजतन्त्रान्तिः । अर्थक्रियासमर्थेऽपि वस्तुनि यदि चान्तिरुच्यते तर्हि प्रतीना बान्ताऽचान्तव्यवस्था । तथा च सत्यमेतश्चः । ६७ =|| आशामोदकतृप्ता
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होवाथी कं आलंबविनानुं नथी. महानाप्यना करनारा जिननगणि दमाश्रमण पण कहे जे के =|| अनुन्नवेखें, दीवेलु, चिंतवेढें, सानलेबुं, प्रकृतिविकार, दैविक अने सजलप्रदेश एटलां सुपननां निमित्तो ठे; सुस्वप्नमां पुण्य निमित्तरूप , अने उःस्वप्नमां पाप निमित्तरूप बे, माटे ते अवस्तुरूप नथी. =॥ । ६६ । जे ज्ञानना विषयवालो ने, ते बाह्य पदार्थ . ए बांति , एम जो कहेता होठं, तो तुं चिरंजीव ; केमके चांति ले ते, क्यांक मुख्य पदार्थ देखाये बते, इंडियना विकारादिकवमे अन्यनगोये तेथी उलटीरीते ग्रहण करवामां प्रसिने, जेम जीपमा रुपानी ब्रांति, वली अर्थक्रियामां समर्थ एवा पण पदार्थमां ज्यारे चांति कहेवामां आवे, त्यारे चांताऽचांतनी व्यवस्थान नष्ट थाय, अने तेथी तो नीचेनुं वाक्य सत्य थ जाय. । ६७। =|| जेन आशारूपी मोदकथी तृप्त थया डे, अने जेए मोदकोनुं नोजन
१ अनूभूतदृष्टचिंतित । श्रुतप्रकृतिविकारदैविकअनुपाः । स्वमस्य निमित्तानि । पुण्यं पापं च ना भावः ॥ इतिच्छाया ॥ = अस्या गाथायाः स्फुटार्थस्त्देवं-अनुभूतं जलावगाहनादि । दृष्ट. मंगनादि । चिंतितं क्रयविक्रयादि । श्रुतं देवलोकादि । प्रकृतिविकारो वातपित्तक्षोभादिः । अशुभे भाविनि मुहृदेवता । अनूपः सजलप्रदेशः। तत्र हि सुप्तः प्रायः प्रचुरस्वमदर्शी स्यात् । मुस्वने पुण्यं । दुःस्वमे पापं निमित्तीभवति । नाभावो अवस्तुरूपः ॥
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२६१ ये । ये चास्वादितमादकाः || रसवीर्यविपाकादि । तुल्यं तेषां प्रसज्यते | = | ६० । न चामून्यर्थदूषणानि स्याहादिनां बाधां विदधते । परमागुरूपस्य स्यूलावयविरूपस्य चार्यस्याङ्गीकृतत्वात् । यच्च परमाणुपदखएमनेऽनिहितं प्रमाणानावादिति । तदसत् । तत्कार्याणां घटादीनां प्रत्यक्षत्वे तेषामपि कथंचित्प्रत्यक्षत्वं । योगिप्रत्य देण च साक्षात्प्रत्यक्षत्वमवसेयम् । अनुपलब्धिस्तु सौक्ष्म्यात् । ६९ । अनुमानादपि तत्सिविः । यथा सन्ति परमाणवः स्थूलावयविनिष्पत्त्यन्यथाऽनुपपत्तेरित्यन्तर्व्याप्तिः । न चाणुत्र्यः स्युलोत्पाद इत्येकान्तः । स्थूलादपि सूत्रपलादेः स्थूलस्य पटादेः प्राउनविविभावनात् । मात्माकाशादेरपुलत्वकक्षीकाराच्च । ७० । यत्र पुनरन्यस्तउत्पत्तिस्तत्र तत्तत्कालादि
कर्यु बे, तेन बन्नेने रस तथा वीर्यविपाकादिक तुल्य थवानो प्रसंग आवे. ॥= | ६० | वल्ली पदार्थ संबंधि या दुषणो स्याहादवादीनने बाधा करतां नथी; केमके तेनए पदार्थने परमाणुरूपे मने स्थूलवयवीरूपे एम बन्नेप्रकारथी स्वीकार्यों बे. वली परमाणुपदना खंनमां ' प्रमाणना अनावश्री ' एम जे कयुं, ते सत्य बे, केमके ते परमाणुजना कार्यरूप घटादिक प्रत्यक्ष देखातां होवाथी, ते परमाणुननुं पण कथंचित् प्रत्यक्षपणुं बे; अने योगिप्रत्यकें करीने तो तेजनुं साक्षत् प्रत्यक्षपणुं जाणवुं ; अने तेजनी प्राप्ति तो तेन्ना सूक्ष्मपपाथी बे. । ६० । अनुमानथी पण ते परमाणुनी सिद्धिबे. जेमके परमाणु बे, केमके जो तेन न होय, तो स्थूल अवयविजनी उत्पत्ति नथाय, एवी रीते अंतर्व्याप्ति बे. वली परमाणुथी स्थूलनी नत्पत्ति थाय, एवं एकांत नथी, केमके स्थूल एवा सूत्रपटलादिकथी स्थूल वस्त्रादिकनी उत्पत्ति थाय बे, तेम यात्मा तथा प्राकाशादिकनुं अणुं स्वीकारेलुं बे. । ७० । वल्ली ज्यां परमाणुनथी तेजनी उ
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२६२ सामग्रीसव्यपेक्षक्रियावशात्प्राउनतं संयोगातिशयमपेदयेयमवितत्रैव । ७१। यदपि किं चायमनेकावयवाधार इत्यादि न्यगादि । तत्रापि कथंचिझिरोध्यनेकावयवाऽविष्वग्नतवृत्तिरवयव्य निधीयते । तत्र च यविरोध्यनेकावयवाधारतायां विरुधर्माध्यासनमन्निहितं तत्कथंचिऊपेयत एव तावदवयवात्मकस्य तस्यापि कथंचिदनेकरूपत्वात् । १२ । यच्चोपन्यस्तमपिचासौ तेषु वर्तमानः कात्स्न्र्येनैकदेशेन वा वर्तेतेत्यादि । तत्रापि विकल्पक्ष्याऽनन्युपगग एवोत्तरम् । अविष्वग्नावेनाऽवयविनोऽवयवेषु वृत्तेः स्वीकारात् । ७३ । किं च यदि बाह्योऽर्थो नास्ति किमिदानीं नियताकारं प्रतीयते नीलमेतदिति । विज्ञानाकारोऽयमितिचेन्न । झानाबहिर्जूतस्य संवेदनात् । झानाकारत्वेत्वहं नीलमिति प्रतीतिः
त्पत्ति ( कहेली के ) त्यां ते ते कालादिकनी सामग्रोनी अपेक्षावाली क्रियाना वशथी प्रगट थयेला संयोगातिशयने अपेदीने, ते नत्पत्ति योग्यज . | ७१। वनी 'आ अनेक अवयवोना आधाररूप डे' इत्यादिक जे कयुं , त्यां पण कथंचित् विरोधि एवा अनेक अवयवोथी अनिन्नवृत्तिवालो अवयवी कहेवाय जे; तथा त्यां पण जे विरोधि एवा अनेक अवयवोना आधारपणामां विरुध्ध धर्माध्यास कहेलो बे, ते कथंचित् स्वीकार्योज डे, केमके अवयवरूप एवा तेने पण कथंचित् अनेकरूपणुं . । ७२ । वत्ती 'ते स्थलावयवी ते अवयवोमां वर्ततो थको समस्तपणायें करीने के एकदेशे करीने वर्ते? ' इत्यादिक जे कडं डे, त्यां पण 'तेवा बे विकल्पो स्वीकारीशकायज नही' एवो उत्तर जाणवो, केमके अवयवोमां अवयवीनी वृत्ति अनिन्नन्नावे वीकारली . । ७३ | वनी जो बाह्य पदार्थ न होय, तो 'आ नीदूं डे' एको चोकस आकार केम प्रतीत थाय ? जो कहीश के आ झा• नाकार ले, तो ते युक्त नश्री ; केमके झानथी बहिनूतनुं संवेदन थाय
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स्यान्नत्विदं नीलमिति । ७४ । झानानां प्रत्येकमाकारनेदात्कस्यचिदहमिति प्रतिनासः । कस्यचिन्नीसमेतदिति चेन्न । नीलाद्याकारवदहमित्याकारस्य व्यवस्थितत्वाऽनावात् । ७५ । तथा च यदेकेनाहमिति प्रतीयते । तदेवाऽपरेण त्वमितिप्रतीयते । नीलाद्याकारस्तु व्यवस्थितः । सर्वैरप्येकरूपतया ग्रहणात् । नदितहृत्पूरा दिन्निस्तु यद्यपि नीलादिकं पीतादितया गृह्यते । तथापि तेन न व्यनिचारस्तस्य चान्तत्वात् ७६। स्वयं स्वस्य संवेदनेऽहमिति प्रतिनासत इति चेन्ननु किं परस्यापि संवेदनमस्ति । कथमन्यथा स्वशब्दस्य प्रयोगः । प्रतियोगिशब्दोह्ययं
ने, अने जो झानाकार होय, तो तो 'ढुं नीलो बुं' एवी प्रतीति थाय, पण 'श्रा नीलु डे' एवी प्रतीति थाय नही. । ४ । दरेकप्रते झानोना आकारनेदश्री कोश्कने 'हूं' एवो प्रतिनास थाय डे, अने कोश्कने 'आ नीलु' एवो प्रतिनास थाय ने, एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी; केमके नीनादिक आकारनी पेठे 'हुँ ' एवा आकारना व्यवस्थितपणानो अन्नाव जे. । ७५। वन्नी जे एकवमे 'हुँ' एम प्रतीत थाय ने, ते बीजावळे 'तुं' एम प्रतीत थाय ने; अने नीलादिक आकार तो व्यवस्थावालो जे, केमके तेने सघनानए एकरूपपणे ग्रहण को डे. वनी नदण करेल डे 'हृत्पूरादिक जेनए, तेनवमे नीलादिक वस्तु जोके पीलाआदिको ग्रहण कराय डे, तोपण ते साथे कंईव्य निचार आवतो नथी, केमके ते तो बांतिवारों . । ७६ । पोतानी मेले पोताने जाणवामां 'हुँ' एवो प्रतिनास थाय बे, एम जो कहीश, तो तेमां शुं पर- पण संवेदन ? अने जो तेम न होय तो, स्वशब्दनो प्रयोग शानो होय? वली आ प्रतियोगी शब्द परने अपे
१ । हृत्पूर । एटले । धतुरो। एम संभवे छे । पण ते शब्द कोषमा मल्यो नथी। माटे तेनो सत्य अर्थ बहुश्रुतथी जाणी लेवो ।
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२६५ परमपेक्ष्यमाण एव प्रवर्तते । स्वरूपस्यापि चान्त्या नेदप्रतीतिरिति चेत हन्त प्रत्यक्षेण प्रतीतो नेदः कथं न वास्तवः । ७७ । बान्तं प्रत्यदमिति चेन्ननु कुत एतत् । अनुमानेन झानार्थयोरनेदसिझेरितिचेल्कि तदनुमानमिति एच्छामः । ७७ । यद्येन सह नियमेनोपनन्यते तत्ततो न निद्यते । यथा सञ्चन्शदसञ्चन्दः । नियमेनोपमन्यते च झानेन सहार्थः । शति व्यापकाऽनुपलब्धिः। प्रतिषेध्यस्य झानार्थयोर्जेदस्य व्यापकः सहोपलंनाऽनियमस्तस्याऽनुपलब्धिनिन्नयोर्नीलपीतयोर्युगपउपलं ननियमाऽनावात् । ७ए। इत्यनुमानेन तयोरन्नेदसिझिरिति चेन्न । संदिग्धानकान्तिकत्वेनास्यानुमानानासत्वात् । ज्ञानं हि स्वपरसंवेदनं । तत्परसंवेदनतामात्रेणैव नीनं गृह्णाति । स्वसंवेदनतामात्रेणैव च नील
दतो थकोज प्रवतै जे. स्वरूपनी पण चांतिवमे नेदप्रतीति , एम जो कहीश, तो प्रत्यदवमे प्रतीत थयेलो नेद सत्य केम कहेवाय ? । ७७ । प्रत्यद त्रांतिवालु डे, एम जो कहीश, तो ते शाथी ? जो कहीश के, अनुमानवमे झान अने पदार्थनी अनेदसिध्थिी , तो ते अनुमान शुं ? एम अमो पूठीये डीये. । उ । (त्यारे ते वादी तेनो उत्तर आपे ले के )-जे जेनीसाथे नियमेंकरीने प्राप्त थाय ने, ते तेनाश्री निन्न थतुं नथी, जेम सत्यचंथी असत्यचं; वन्नी छाननीसाथे पदार्थ तो नियमें करीने प्राप्त थाय ने ; एवी रीते व्यापकनी अप्राप्ति ; अर्थात् प्रतिषेधवालायक एवा झान अने पदार्थनो सहो. पतंन्ननो अनियमरूप जे व्यापक, तेनी अप्राप्ति ने ; केमके नीलु अने पीढुं, ए बन्नेनी एकीवेलाये प्राप्तिनो अन्नाव . । ७ए । एवी रीते अनुमाने करीने ते बन्नेवच्चेना अन्नेदनी सिदि डे, एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी, केमके संदिग्ध अनेकांतिकपणायें करीने ते अनुमा. " नानासरूप . झान ने ते स्वपरने जाणनारुं , अने तेथी मात्र प
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२६५ बुद्धि । तदेवमनयोयुगपद्ग्रहणात्सहोपलंन नियमोऽस्ति । अन्नेदश्च नास्ति । इति सहोपत्तंन नियमरूपस्य हेतोर्विपदाव्यावृत्तेः संदिग्धत्वात संदिग्वाऽनैकान्तिकत्वम् । 60 | असिइश्च सहोपलंननियमः । नीसमेतदिति बहिर्मुखतयाऽर्थेऽनुन्न्यमाने तदानीमेवान्तरस्य नीलानुनवस्याऽननुन्नवादिति कथं प्रत्यक्तत्यानुमानेन झानार्थयोरनेदसिध्या चान्तत्वम् । ७१ । अपि च प्रत्यदत्य चान्तत्वेनाऽबाधित विषयत्वादनुमानस्यात्मलानः । लब्धात्मके चानुमाने प्रत्यदस्य चान्तत्वमित्यन्योऽन्याश्रयदोषोऽपि उर्निवारः। अाऽनावे च नियतदेशाधिकरणाऽप्रतीतिः। कुतः । न हि तत्र विवक्षितदेशेऽयमारोपयितव्यो नान्यत्रेत्यस्ति नियमहेतुः । ७२ । वासना नियमात्तदारोपनियम इति चेन्न । तस्या ཀ ཀ བས་ ༡༤ रसंवेदनपणावमेज नीलाने ग्रहण करे , अने मात्र स्वसंवेदनपणावमेज नीलबुझिने ग्रहण करे . माटे एवीरी ते ते बन्नेने एकीवेनाये ग्रहणकरवायी सहोपत्नननो नियम जे, अने अन्नेद नथी, एवीरीते सहोपलंन नियमरूप हेतुने, विपदयी व्यावृत्ति होवाथी संदिग्ध थवाथी संदिग्धोकांतिकपणुं D. । 00 | वन्नी सहोपलंन नियम असि ने, केमके आ नीन्दु डे, एवीरीते बहिर्मुखपणायें करीने पदार्थ अनुन्नवाते बते, तेन वखते अंतरंग नीला एवा अनुन्नवने नही अनुन्नववाथी, अनुमाने करीने झान अने पदार्थ वच्चेनी अनेदसिभिवमे प्रत्यदने चांतपणुं शानु डे ? । ७१। वली प्रत्यदना ब्रांतपणावमे अबाधितविषयपणाश्री अनुमानने टेको मले, अने अनुमानने टेको मनवाथी प्रत्यदते बांतपणुं थाय, एवीरीतनो अन्योऽन्याश्रय नामनो दोष पण अहीं टलीशकतो नथी. वन्नी पदार्य नो अन्नाव होते ते चोकस प्रदेशन अधिकरणनी प्रतीति यती नथी. शामाटे ? तो के ते विवक्षित प्रदेशमां आ पदार्थने आरोपवो, अने बीजी नगोये नही, एवो कोश
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..... ---- २६६ अपि तद्देशनियमकारणाऽनावात् । सति ह्यर्थसन्नावे यदेशोऽर्थस्तद्देशोऽनुन्नवस्तदेशाच तत्पूर्विका वासना । बाह्यार्थाऽनावे तु तस्याः किंकृतो देशनियमः । ७३ । अथास्ति तावादारोपनियमः । न च कारणविशेषमन्तरेण कार्यविशेषो घटते । बाह्यश्चार्यों नास्ति । तेन वासनानामेव वैचित्र्यं तत्र हेतुरिति चेत्तघासनावैचित्र्यं बोधाकारादन्यदनन्या । अनन्यच्चेद्बोधाकारस्यैकत्वात्कस्तासां परस्परतो विशेषः । अ. न्यच्चेदर्थे कः प्रषः । येन सर्वलोकप्रतीतिरपन्हूयते । । । तदेवं सिहो छानार्थयोर्नेदः । तथा च प्रयोगः। विवादाध्यासितं नीलादि झानाध्यतिरिक्तं विरुधर्माध्यस्तत्वात । विरुधर्माध्यासश्च ज्ञानस्य श
नियमहेतु नथी. । । वामनाना नियमथी तेना आरोपनो नियम , एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी; केमके ते वासनाने पण ते देशना नियमकारणनो अन्नाव ले. पदार्थनो सनाव होते बते, देशवालो पदार्थ होय, ते देशनो अनुन्नव थाय डे, अने ते देशसंबंधि ते पूर्वक वासना थाय ; अने बाह्य पदार्थनो ज्यारे अन्नाव होय, त्यारे ते वासनानो देशनियम कोनो करेलो थाय ? । ३ । आरोपनियम तो , अने कारण विशेषविना कार्यविशेष घटतुं नथी । वली बाह्य पदार्थ तो नथी, तेश्री वासनाननुन विचित्रपणुं तेमां हेतुरूप , एम जो कहीश, तो ते वासनाननुं विचित्रपणुं बोधाकारथी निन्न ? के अभिन्न ? जो अनिन्न , तो बोधाकारने एकपणुं होवाथी ते वासनाननो परस्पर नेद शानो डे ? अने जो निन्न दे, तो पदार्थपर तने शेष शामाटे थाय ? के जेणे करीने सर्व लोकोनी प्रतीति नलवाय डे. 10४ । माटे एवीरीते ज्ञान अने पदार्थवच्चे नेद सिइ थयो. तेनो प्रयोग नीचेप्रमाणे जाणवो. विवादवानुं नीलादिक विरु धर्म धारण करतुं होवाथी ज्ञानथ निन्न ठे. विरुम धर्म एवीरीते जाणवो के, झान शरी
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२६० रीरान्तः । अर्थस्य च बहिः । ज्ञानस्याऽपरकालेऽर्थस्य च पूर्वकाले वृतित्वात । झानस्य आत्मनः सकाशादर्थस्य स्वकारणेच्य नत्पतेः । झानस्य प्रकाशरूपत्वादर्थस्य च जमरूपत्वादिति । अतो न ज्ञानाने ऽन्युपगम्यमाने बहिरनुन्यमानार्थप्रतीतिः कथमपि संगतिमङ्गति । न च दृष्टमपोतुं शक्यं इति । ५ । अत एवाह स्तुतिकारः । न संविदेतपथेऽर्थसंविदिति । सम्यगवैपरीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूपमनयेति संवित् । स्वसंवेदनपदे तु संवेदनं संवित ज्ञानं । तस्या अहैतं । यो यो दिता । हितैव देतं (प्रशादित्वात् स्वार्थिकेऽणि) न दैतमतं । बाह्यायंतिदेवादेकत्वं । संविदतिं ज्ञानमकं तात्त्विकं न बाह्योऽर्थ इत्ययुगम्यते इत्यर्थः । ७६ । तस्य पन्या मार्गः संवि.
रनी अंदर रहे डे, अने पदार्थ बहार रहे डे; तेम शान पडीना कालमा, अने पदार्य पूर्वना कानमा वर्तनारो डे; वली शान आत्माश्री उत्पन्न श्राप डे, अने पदार्थ पोताना कारणोयी नत्पन्न थाय ; तेमन झानने प्रकाशात्मकाएं डे, अने पदार्थ ने जमपणुं जे; माटे ज्ञानाऽदैतमार्ग स्वीकारते उते, बहार अनुनवाता पदार्थनी प्रतीति कोइपणरीते योग्य थती नश्री ; अने दीठेच॑ नलवीशकातुं नश्री. । ।।
आश्रीज स्तुतिकार कहे डे के, झानाऽदैतमार्गमां पदार्यशान थतुं नश्री. सम्यक् एटने विपरीतपणारहित नेनावमे वस्तुखरूप जणाय ते 'संवित्' कहेवाय ; अने स्वसंवेदनपदमां तो संवेदन एटने संवित अर्थात् झान कहेवाय. ते ज्ञान- अतिपणुं. बन्नेनो ने नात्र ते ‘हिता' अने हिता एज ‘बैत' (प्रशादि होवाथी स्वार्थमा 'अणि ' आवेत .) जे 'ईत' नही ते 'अत' कहेवाय. बाह्य पदार्थोना प्रतिक्षेपश्री एकपएं. अर्थात एक शानन सत्य , पण बाह्य पदार्य सत्य नथी, एम स्वीकाराय . । ७६ । एवी रीतना शानाऽदैतमार्गमां शुं थाय ?
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दद्वैतस्तस्मिन् ज्ञानाद्वैतवादपक इति यावत्किमित्याह । नार्थसंवित् । ययं बहिर्मुखतयाऽर्थप्रतीतिः साचादनुच्यते सा न घटते इत्युपस्कारः । एतच्चानन्तरमेव जावितम् । एवं स्थिते सति किमित्याह । 09 | विलनशीर्णं सुगतेन्दजालमिति । सुगतो मायापुत्रस्तस्य सम्बन्धि तेन परिकल्पितं कणया दिवस्तुजातं इन्जालमिवेन्दजालं मतिव्यामोह विधातृत्वात् । सुगन्धजालं सर्वमिदं विलुनशी । पूर्वं विलनं पश्चात् शीर्णं विलुनशी । ०० । यथा किंचित्तृणस्तम्बादि विलुनमेव शीयते विन श्यति एवं तत्कल्पितमिन्दजालं तृणप्रायं धाराज युक्तिश स्त्रिया बिन्नं सदिशीर्यत इति । अथवा यथा निपुणेन्ड्जालिककल्पित मिन्दजालमवास्तवत तस्त्वद्द्भुतोपदर्शनेन तथाविधं बुर्विधं जनं विप्रतापश्रादिश्धनुरिव निरवयवं विलुनशीर्णतां कलयति तथा सुगतपरिक
ते कहे बे. जे बहिर्मुखपणायें करीने पदार्थोनी प्रतीति साक्षात् अनुभवाय बे, ते ज्ञानाऽद्वैतपक्षमां घटीशकती नयी, एवो वाक्यप्रध्याहार जाणवो ; नेते संबंधि व्याख्यान उपरज कहेवाइ गयुं बे. हवे एम होते ते शुं याय बे ? ते कहे बे. । ८७ । सुगतनुं इंजाल कपातुं कुं विखराई जाय बे. सुगत एटले मायापुत्र अर्थात् जे बुध, तेणे कल्पेलो कणकयवादरूप इंश्जाल मतिनो व्यामोह करनार हो वाथी इंइजालसरखोज बे. एवी रीतनुं बुधनुं या सघलुं इंश्जाल प हेलां बेदायुं ने पी वीखराइ गयुं । ८८ । जेम कंइंक तृणगुच्छादिक बेदायुं कुंज नाश पामे बे, एवीरीते ते बुधे कल्पेलुं तृणसरखुं इंजाल धारवाली युक्तिरूपी बरीवमे बेदायुंकुं वीखराइ जाय बे. अथवा कोइ निपुण इंदजाली के कल्पेलुं इंजाल, सत्य एवी ते वस्तुसंबंध यावर्य देखामवायें करी ने तेवीरीतना निर्बुद्धि माणसने ठगीने पावली इंधनुष्यनीपेठे अवयवरहित जेम नष्ट श्राय बे, तेम
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२६ए ल्पितं तत्तत्प्रमाणतत्तत्फलाऽनेददणक्यज्ञानार्थहेतुकत्वज्ञानाऽदैताज्युपगमादि सर्वं प्रमाणाऽननिझं लोकं व्यामोहयमानमपि युक्त्या विचार्यमाएं विशरारुतामेव सेवत इति । ए । अत्र च सुगतशब्दनपहासार्थः । सौगता हि शोन्ननं गतं झानमस्येति सुगत इत्युशन्ति । ततश्चाहो तस्य शोननझानता येनेत्थमयुक्तियुक्तमुक्तमिति काव्यार्थः ।।
।ए । अथ तत्वव्यवस्थापकप्रमाणादिचतुष्टयव्यवहारापत्तापिनः शून्यवादिनः सौगतनातीयांस्तत्कदीकृतपदसाधकस्य प्रमाणस्याङ्गीकाराऽनङ्गीकारत्नदणंपदयेऽपि तदनिमताऽसिभिप्रदर्शनपूर्वकनुपहसन्नाह ।
विना प्रमाणं परवन्न शून्यः ।
स्वपदसिधेः पदमश्नुवीत ॥
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बुधे कल्पेलु ते ते प्रमाणश्री ते ते फलनो एटले कार्यकारण नावनो अन्नेद, दणदयवाद, झानप्रते पदार्थनुं हेतुपणुं, झानातिनो स्वीकार, श्त्यादिक सघनु, प्रमाणने नही जाणनारा मनुष्यने व्यामोह करतुं थकुं पण, युक्तिवमे विचारतां थकां विखरावापणानेज सेवे . ।ए। अहीं 'सुगत' शब्द नपहासअर्थ ने सूचवनारो . बौधो एम कहे डे के, जेनुं शुन्न झान होय, ते 'सुगत' कहेवाय ; माटे अहो ! शुं तेनुं शुन्नझानपणुंने ? के जेणे आवीरीते अयुक्तियुक्त कह्यु ! एवीरीते सोनमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
।ए। हवे तत्वने स्थापनारा एवा प्रमाणादिक चारना व्यवहारने नन्नवनारा एवा बौधनी जातिवाला शून्यवादीउनी, तेनए अंगीकार करेना पदने साधनारा प्रमाणना अंगीकाररूप अने अनंगीकाररूप बन्ने पक्षमां पण, तेनए मानेला अर्थनी असिइिने देखामवापूर्वक, हांसी करता थका कहे जे.
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...... --- २७० कुप्येत्कृतान्तः स्पृशते प्रमाण
___ महो मुदृष्टं त्वदसूयिदृष्टम् ॥ १७ ॥ प्रमाण विना परनी पेठे शून्यवादी पोताना पदनी सिदिनी प्रतिष्ठाने प्राप्त थतो नश्री; अने जो ते प्रमाणने स्पर्श करे, तो तेनाप्रते तेनो सिद्धांत कोप पामे ; माटे हे प्रन्नु! आपना दिनु एवा ते अन्यतीर्थीउनुं जोएलु अहो! शुं उत्तम जोएडे !! ॥ १७ ॥
।१। शून्यः शून्यवादी प्रमाणं प्रत्यदादिकं विना अन्तरण स्वपदसिद्धेः वान्युपगतशून्यवादनिष्पत्तेः पदं प्रतिष्ठां नाचवीत न प्राप्नुयात् । किंवत् परवत् इतरप्रामाणिकवत् (वैधhणायं दृष्टान्तः) यथा श्तरे प्रामाणिकाः प्रमाणेन साधकतमेन स्वरदसिमिभुक्ते एवं नायं । अस्य मते प्रमाणप्रमेयादिव्यवहारस्याऽपारमार्थिकत्वात्। “स
एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुझ्यारूढेन धर्मधर्मिन्नावेन न बहिः सदसत्वमपेदते" इत्यादि वचनात् । । अप्रमाणकश्च शून्यवादाच्युपगमः कथमिव प्रेहावतामुपादेयो नविष्यति। प्रेदावत्त्वव्याहतिप्रसङ्गात् ।
~~~~~~~~ ।। शन्यवादी ले ते प्रत्यदादिक प्रमाण विना, पोते स्वीकारेला शून्यवादनी सिझिनी प्रतिष्ठाने प्राप्त थतो नथी ; कोनी पेठे? तोके बीजा प्रामाणिकोनी पेठे. (आ दृष्टांत वैधपूवमे आपेलु डे.) अर्थात् बीजा प्रामाणिको जेम साधकतम प्रमाणेकरीने पोताना पदनी सिदि मेनवे बे, तेम आ शून्यवादी मेलवी शकतो नथी; केमके तेना मतमां प्रमाएप्रमेयादिक व्यवहारने असत्य मानेनो डे. तेउना मतमां कह्यु डे के " आ सघनो अनुमानअनुमेयव्यवहार बुझ्चारूढ एवा धर्मधर्मिनावेकरीने बहारना बताअबतानी अपेक्षा राखतो नथी." । २। एवीरी. तनो प्रमाण विनानो शून्यवादनो स्वीकार बुध्धिवानोने शीरीते ग्रहणक
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अथ चेत्स्वपदसिध्धये किमपि प्रमाणमयमङ्गीकुरुते । तत्रायमुपालनः। कुप्येदित्यादि । प्रमाणं प्रत्यदाद्यन्यतमत्स्टशते आश्रयमाणाय प्रकरणादस्मै शून्यवादिने 'कृतान्तस्तत्सिान्तः कुप्येत्कोपं कुर्यात् । सिझान्तबाधः स्यादित्यर्थः । ३ । यथा किल सेवकस्य विरुध्धवृत्त्या कुपितो नृपतिः सर्वस्वमपहरति । एवं तत्सिध्धान्तोऽपि शून्यवादविरुध्धं प्रमाणमङ्गीकुर्वाणस्य तस्य सर्वस्वनूतं सम्यग्वादित्वव्यवहारमपहरति ।४। किं च स्वागमोपदेशेनैव तेन वादिना शून्यवादः प्ररूप्यते इति स्वीकृतमागमस्य प्रामाण्यमिति कुतस्तस्य स्वपदसिध्धिः । प्रमाणाङ्गी करणात् । किं च प्रमाणं प्रमेयं विना न भवतीति प्रमाणाऽनङ्गीक
मञ्च रवानायक थशे? केमके तेम करवामां तेन्ना बुध्धिवानपणाना विनाशनो प्रसंग थाय जे. अहीं जो कोइ एम कहे के, पोताना पदनी सिध्धिमाटे ते कंक प्रमाण अंगीकार करे , तो त्यां नी. चेप्रमाणे तेने नपालंन मले डे. प्रत्यदादिक मांहेथी को पण प्रमाणने आश्रय करता एवा ते शून्यवादीप्रते तेनो सिध्धांत कोप करे ने, अर्थात् तेना सिध्धांतने बाधा आवे जे. । ३। जेम सेवकना विरुध्ध आचरणवमे कोप पामेलो राजा तेनी सर्व वस्तु बीनवी ले
, तेम तेनो सिध्यांत पण शून्यवादश्री विरुध्ध एवा प्रमाणने अंगीकार करता एवा ते शून्यवादीना सम्यग्वादीपणारूप सर्वखने हरी ले ने. । । । वत्नी ते वादी पोताना आगमना उपदेशवमेन शून्यवाद प्ररुपे डे, अने एवी रीते तेणे आगमननुं प्रमाणपणुं स्वीकार्यु ले, तो पठी एवी रीते प्रमाणना स्वीकारथी तेना पोताना पदनी सिध्धि क्यां रही? वत्नी प्रमाण प्रमेयविना होतुं नथी, माटे प्रमाणने नही स्वीकारते ते प्रमेय पण नष्ट थाय ले. माटे ते वादीने मूंगारहेवून साऊं डे,
१ कृतांतो यमसिद्धांत-दैवाकुशलकमर्स ॥ इत्यमरः
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२७२ रणे प्रमेयमपि विशीर्ण । ततश्चास्य मूकतैव युक्ता । न पुनःशून्यवादो. पन्यासाय तुएमताएमवमम्बरं । शून्यवादस्यापि प्रमेयत्वात् । ५। अत्र च स्टशिधातुं कृतान्तशब्दं प्रयुञ्जानस्य सूरेरयमनिप्रायः । य. द्यसौ शून्यवादी दूरे प्रमाणस्य सर्वथाङ्गीकारो यावत्प्रमाणस्पर्शमात्रमपि विधत्ते । तस्मै कृतान्तो यमराजः कुप्येत् । तत्कोपो हि मरणफलः। त. तश्च स्वसिान्तविरुइमसौ प्रमाणयन्निग्रहस्थानापन्नत्वान्मृत एवेति ।। एवं सति (अहोश्त्युपहासप्रशंसायां) तुन्यमसूयन्ति गुणेषु दोषाना. विष्कुर्वन्तीत्येवं शीतास्त्वदसूयिनस्तन्त्रान्तरीयास्तैईष्टं मतिझानचक्षुषा निरीक्षितं अहो सुदृष्टं साधुदृष्टं। विपरीतलहणयोपहासान्न सम्यगहष्टमित्यर्थः । ७ । (अत्राऽसूयधातोस्ताच्छीलिकणक्प्राप्तावपि बाहुल.
urine पण शून्यवाद स्थापवा माटे फोकट बबमाटना आमंबरनी जरुर नथी, केमके शून्यवादने पण प्रमेयपणुं . । ५। अहीं 'स्टशि' धातु अने 'कृतांत ' शब्दने जोमता एवा आचार्यमहाराजनो एवो अनिप्राय डे के, प्रमाणनो सर्वथाप्रकारे अंगीकार तो दूर रहो, परंतु आ वादी जो प्रमाणनो स्पर्शमात्र पण करे, तो तेनाप्रते कृतांत एटले यमराजा कोपायमान थाय ; अने ते यमराजनो कोप मृत्युरूप फलने आपनारो बे, अने तेथी पोताना सिहांतथी विरुधीते प्रमाण करतोथको आ वादी निग्रहस्थानने प्राप्त थवाथी मृत्यु पामेलोज . । ६ । एवं होते बते (अहो? ए शब्द उपहासगर्जित प्रशंसावालो ने.) हे प्रनु ! आपनाप्रते जेन असूया राखे ने, अर्थात् आपना गुणोमा जे दोषोने प्रगट करे , एवा ते अन्यदर्शनीनए मतिज्ञानरूपी चकुवमे ने जोयु जे, ते अहो ! बहु सारूं जोयुं !! एवी रीते विपरीत लक्षणे करीने उपहास करवाथी एवो अर्थ जाणवो के तेनए सम्यक्प्रकारे जोडे नथी. । ७ । (अहीं असूयधातुने ताच्चिलिकअर्थमा ' एक ' नी प्राप्ति
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२७३ कामिन् ) असूयाऽस्त्येषामित्यसूयिनस्त्वय्यसूयिनस्त्वदसूयिनः । इति । मत्वर्थीयान्तवा । त्वदसूयुदृष्टमिति पाठेऽपि न किंचिदचारु । असूयुशब्दस्योदन्तस्योदयनाद्यैायतात्पर्यपरिशुश्यादौ मत्सरिणि प्रयोगा दिति । इह शून्यवादिनामयमनिसंधिः प्रमाता प्रमेयं प्रमाणं प्रमितिरिति तत्त्वचतुष्टयं परपरिकल्पितमवस्त्वेव विचाराऽसहत्वात्तुरङ्गशृंगवत् । तत्र प्रमाता तावदात्मा तस्य च प्रमाणग्राह्यत्वाऽनावादनावस्त- . याहि । ए । न प्रत्यदेण तत्सिहिरिन्श्यिगोचराऽतिक्रान्तत्वात् । यत्तुग्रहंकारप्रत्ययेण 'तस्य मानसप्रत्यदत्वसाधनं तदप्यनैकान्तिकं । तस्याहं गौरः श्यामो वेत्यादौ शरीराश्रयतयाप्युपपत्तेः । किं च यद्यय
~~~~~~~~~ ~~ होवाउतां पण बाहुलकथी 'णिन् ' थयो .) जेनने असूया होय, तेन 'अमूयिनः' कहेवाय ; आपप्रते जे असूयीन होय, तेन त्वद सूयिनः' कहेवाय, अथवा एवीरी ते ' मत्वर्थीयांत ' जाणवो. ' त्वदसू युदृष्टं ' ए पाठमां पण कई दूषण नथी, केमके उदयनादिक आचा र्योए न्यायतात्पर्यपरिशुझ्यादिक (ग्रंथोमां) मत्सरीप्रते नदंत एवा असूयु शब्दनो प्रयोग करेलो . । । हवे अहीं शून्यवादीननो नीचेप्रमाणे अनिप्राय डे. प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण अने प्रमिति, एवी रीतनां अन्योये कल्पेनां चारे तत्वो असत्यन डे, केमके तेन तुरंगशृंगनी पेठे विचारगोचर थतां नथी. त्यां प्रमाता एटले आत्मा, अने तेने प्रमाणग्राह्यपणुं नही होवाथी, तेनो अन्नाव जे. अर्थात् आत्मारूप प्रमाता नथी ; अने तेमाटे कहे . । ए । प्रत्यक्षप्रमाणवमे ते आत्मा सिध्ध थतो नथी, केमके ते इंडियगोचर नथी; अने 'अहं एटले हुँ' एवी प्रतीतिवमे जे मानसप्रत्यक्षपणानुं साधन , ते पण अनेकां तिक बे, केमके 'ढुं गौर अथवा हुं श्याम' इत्यादिकमां शरीराश्रय
१ आत्मा मानसप्रत्यक्षः-अहंकारप्रतीतिविषयत्वात् व्यतिरेके घटादिः ।
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महंकारप्रत्यय आत्मगोचरः स्यात्तदा न कादाचित्कः स्यादात्मनः सदा सन्निहितत्वात् । कादाचित्कं हि झानं कादाचित्ककारणपूर्वकं दृष्टं । यथा सौदामिनीझान मिति । १० । नाप्यनुमानेन अव्यभिचारिलिंगाग्रहणात् । आगमानां च परस्पर विरुधार्थवादिनां नास्त्येव प्रामाण्यं । तथाहि । एकेन कथमपि कश्चिदर्यो व्यवस्थापितोऽनियुक्ततरे णाऽप. रेण स एवान्यथा व्यवस्थाप्यते । स्वयमव्यवस्थितप्रामाण्यानां च तेषां कथमन्यव्यवस्थापने सामर्थ्य मिति नास्ति प्रमाता । ११। प्रमेयं च बाह्योऽर्थः । स चानन्तरमेव बाह्यार्थप्रतिदेपदणे निर्लो तिः। प्रमाणं च स्वपराऽवनासिझानं । तच्च प्रमेयाऽन्नावे कस्य ग्राहकमस्तु निर्विष~~~~~~~~~~~~~~
~ ~~ ~~ पणावमे पण तेनी प्राप्ति जे. वली आ 'अहंकारप्रतीति जो आत्मगोचर होय, तो ते कादाचित्क एटले कोश्कसमये थनारी न होय, केमके ते हमेशां आत्मासाथे जोमायेती डे; अने कादाचित्क कान डे ते वीनलीना झाननीपेठे कादाचित्ककारणपूर्वक जोयेर्बु जे. । १० । हवे व्यनिचार विनाना लिंगने नही ग्रहण करवाथी अनुमान प्रमाणवमे पण आत्मारूप प्रमाता सिध्ध यतो नथी. वल्ली आगमो तो परस्पर विरुध्ध अर्थोने कहेनारां होवाथी, तेनने तो प्रमाणपणुंन नथी. ते कहे जे. कोइएक आगमे कोश्क अर्थन ज्यारे अमुकप्रकारे स्थापन कर्यु, त्यारे प्रत्यर्थी एवो बीनो आगम तेज अर्थन तेथी नलटीरीते स्थापन करे ने ; माटे एवीरीते ते आगमोनू पोतानुज प्रमाणपणुं ज्यारे व्यवस्थाविनानुं जे, त्यारे अन्यना व्यवस्थापनमां तेननु सामर्थ्य शानुं थशे? माटे आत्मारूप प्रमाता नथी. । ११ । प्रमेय एटले बाह्यपदार्थ, अने तेनुं खंमन तो बाह्यार्थप्रतिदेपणना विषयमा उपरज करवामां आव्यु जे. पोताने अने परने अवन्नासन करनारूं जे ज्ञान, ते प्रमाण ; अने ते प्रमेयनो अन्नाव होते ते विषयरहित होवाथी
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२७५ यत्वात् । १२ । किंचैतदर्थसमकालं तन्निकालं वा तद्ग्राहकं कल्प्येत । त्र्याद्यपके त्रिभुवनवर्तिनोऽपि पदार्थास्तत्राऽवनासेरन् । समकालत्वाऽविशेषात् । द्वितीयेतु निराकारं साकारं वा तत्स्यात् । प्रथमे प्रतिनियतपदार्थपरिच्छेदाऽनुपपत्तिः । द्वितीये तु किमयमाकारो व्यतिरिक्तोऽव्यतिरिक्तो वा ज्ञानात् । १३ । प्रव्यतिरेके ज्ञानमेवायं । तथा च निराकारपऋदोषः । व्यतिरेके यद्ययं चिद्रूपः तदानीमाकारोऽपि वेदकः स्यात् । तथा चायमपि निराकारः साकारो वा तदको भवेदित्यावर्त्तनेनानवस्था । १४ । यथाचिद्रूपः किमज्ञातो ज्ञातो वा तज्ज्ञापकः स्यात् । प्राचीने विकल्पे चैत्रस्येव मैत्रस्यापि तज्ज्ञापकोऽसौ स्यात् । तउत्तरे तु निराकारेण साकारेण वा ज्ञानेन तस्यापि ज्ञानं स्यादित्या
कोनुं ग्राहक थाय ? । १२ । वली ते ज्ञान पदार्थना समकालवा, के तेथ निकालवालुं कल्पाय ? पेहेला विकल्पमां तो समकालपणाना विशेषथी त्रणे जगतमां रहेला पदार्थों तेमां जासन थवा जोश्ये; बीजा विकल्पमां तो ते ज्ञान व्याकार विनानुं होय ? के कारवानुं होय? पेहेला पक्क्षमां चौकस पदार्थना परिच्छेदनी प्राप्ति ; ने बीजा पक्षमां तो तेत्र्याकार ज्ञानयी भिन्न बे ? के अभिन्न बे ? | १३ | जो अभिन्न बे, तो ते ज्ञानज बे, अने एवी रीते तो निराकारपक्षमां दोष याच्यो ; अने जिन्नपक्षमां ज्यारे ते चिद्रूप बे, त्यारे व्याकार पण वेदक याय,
तेवीरीते तो या पण निराकार के साकार तेनुं वेदक थाय ? एवीरीते पुनरावृत्तिव व्यवस्थादोष आवे छे. । १४ । हवे जो चिद्रप नथी, तो ते अज्ञात के ज्ञात होतो थको तेने जणावनारो थाय ? पेहेला विकल्पमां चैत्रप्रते जेम तेम मैत्रप्रते पण ते तेने जणावनारो बीजा विकल्पमां तो निराकार अथवा साकार ज्ञानव तेनुं पण ज्ञान थाय, इत्यादिक पुनरावृत्तिमां अनवस्थान थाय बे.
9
थाय ;
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२०६ द्यावृत्तावनवस्थैवेति । १५। इत्थं प्रमाणाऽनावे तत्फलरूपा प्रमितिः कुतस्तनीति सर्वशून्यतैव परंतत्वमिति । तथा च पठन्ति । =|| यथा यथा विचार्यन्ते । विशीयन्ते तथा तथा ॥ यदेतत्स्वयमर्चन्यो-रोचते तत्र के वयम् ॥ इति पूर्वपदः । विस्तरतस्तु प्रमाणखएमनं तत्त्वोपप्लवसिंहादवलोकनीयम् । अत्र प्रतिविधीयते । १६ । ननु यदिदं शून्य. वादव्यवस्थापनाय देवानांप्रियेण वचनमुपन्यस्तं तच्चून्यमशून्यं वा । शून्यं चेत्सर्वोपाख्याविरहितत्वात् खपुष्पेणेव नानेन किंचित्साध्यते निविध्यते वा । ततश्च निष्प्रतिपदा प्रमाणादितत्त्वचतुष्टयीव्यवस्था ।१७॥ अशून्यं चेत्प्रनीनस्तपस्वी शून्यवादः । नवचनेनैव सर्वशून्यताया व्यनिचारात् । तत्रापि निष्कएटकैव सा जगवती । तथापि प्रामाणि.
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। १५ । एवीरीते प्रमाणनो अन्नाव होते बते, तेना फलरूष प्रमीति तो क्यांधीज होय? माटे 'सर्वशून्यपणुं' एज परमतत्व जे. वली कह्यु ने के =॥ जेम जेम विचारीयेडीये, तेम तेम विखरा जाय , अने एवीरीते ते स्वयमेवज अर्थोप्रते रुचे , तेमां अमो शुं करीये? एवीरीते (वादीतरफथी) पूर्वपद कह्यो. विस्तारथी प्रमाण- खमन तत्वोपप्लवसिंह नामना ग्रंथथी जोइ लेवु. हवे अहीं नपर वर्णवेला शून्यवादीतरफना पूर्वपदनी सामे थर तेनुं खमन कराय . । १६ । शून्यवाद- स्थापन करवा माटे ते अज्ञानी शून्यवादीए जे आ वचन स्थाप्युं , ते शून्य ? के अशून्य ? जो शून्य , तो सर्वस्वरूपविनानुं होवाथी आकाशपुष्पनीपेठे तेनावमे कं साधी शकाशे नही अथवा निषेधी शकाशे नही ; माटे प्रमाणादिक चारे तत्वोनी व्यवस्था योग्यन . । १७ । हवे जो ते वचन अशून्य होय तो बिचारो शून्यवादन नष्ट थयो, केमके तारा पोतानां वचनवमेज सर्वशून्यपणामां व्यभिचार आव्यो; अने त्यां पण ते प्रमाणादिक चारेनी व्यवस्था
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कसमयपरिपालनार्थं किञ्चित्तत्साधनं दूष्यते । १८ । तत्र यत्तावउक्त प्रमातुः प्रत्यक्षेण न सिन्धियगोचराऽतिक्रान्तत्वात् इति । तत्सि“साधनं । यत्पुनरहं प्रत्ययेन तस्य मानसप्रत्यचत्वमनैकान्तिकमित्युक्तं तदसिऽम् । अहं मुख्यहं दुःखीयन्तर्मुखस्य प्रत्ययस्य आत्मालम्बनतयैवोपपत्तेः । तथा चातुः | १५ | = | सुखादिचेत्यमानं हि । स्वतन्त्रं नानुज्यते ॥ अनुशनुवेधात्तु । सिं ग्रहणमात्मनः ॥ इदं सुखमिति ज्ञानं । दृश्यते न घटादिवत् । अहं सुखीति तु इप्तिरात्मनोऽपि प्रकाशिका | = | २० | यत्पुनरहं गौरोऽहं श्याम इत्यादिबहिर्मुखः प्रत्ययः स खल्वात्मोपकारकत्वेन लक्षणया शरीरे प्रयुज्यते । यथाप्रियनृत्येऽहमिति व्यपदेशः । यच्चाहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वं तत्रेयं
निष्कंटकज रही ; तोपण प्रामाणिकोनो व्यवहार जालववामाटे ते शून्यवादीना साधननुं किंचित् खंमन करीये बीये. । १० । ते शून्यवादीए एम कह्युं के, प्रमाता एवो आत्मा इंद्रियगोचर न होवाथी, प्रत्यक्ष प्रमाणवमे ते सिध्ध यतो नयी. पण वादीनुं ते वचन तो सिसावन करवाजे बे, वली 'हुं' एवी प्रतीतित्रमे तेनुं मानसप्रत्यक्षपणुं
कांतिक वे एम जे कयुं, ते सत्य बे, केमके 'हुं सुखी हुं-हुं डःखी बुं' एवीरीतनी अंतर्मुखप्रतीतिनी आत्माचनपणावमेन प्राप्ति . के = | जाणवामां आवतुं एवं सुखादिक स्वतंत्र " रीते अनुभवातुं नयी, पण अनुदानुवेधी ते आत्माना ग्रहणतरिके सिड् याय बे. =॥ ' या सुख बे' एवीरीतनुं ज्ञान घटादिकनी पेठे देखातुं नश्री, पण हुं सुखी बुं एवीरीतनी इप्ति तो आत्माने पण प्रकाशनारी बे. । २० । वली ' हुं गौर, हुं श्याम ' एवी जे बहिर्मुख प्रतीति थाय बे, ते खरेखर आत्माना उपकारकपणा मे उपलक्षणें करीने शरीरमां जोमी लेवाय बे, जेमके प्रिय एवा चाकरमते ' हुं '
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२७० वासना । २१ । आत्मा तावडपयोगलक्षणः । स च साकाराSनाकारोपयोगयोरन्यतरस्मिन्नियमेनोपयुक्त एव भवति । अहंप्रत्ययोऽपि चोपयोग विशेष एव । तस्य च कर्मक्षयोपशमवैचित्र्यादिन्दियाऽनिन्धियालोक विषयादिनिमित्तसव्यपेक्षतया प्रवर्त्तमानस्य कादाचित्कत्वमुपपन्नमेव । यथा बीजं सत्यामप्यङ् कुरोपजननशक्तौ पृथिव्युदका दिसहकारिकारणकलापसमवहितमेवाङ्कुरं जनयति । नान्यथा । न चैतावता तस्याङ्कुरोत्पादने कादाचित्केऽपि तडत्पादनशक्तिरपि कादाचित्की । तस्याः कथं चिन्नित्यत्वात् । एवमात्मनः सदा सन्निहितत्वेऽप्यहं प्रत्ययस्य कादाचित्कत्वं । २२ । यदप्युक्तं " तस्याऽव्यभिचारि लिङ्गं किमपि
ऐवाव्यपदेश कराय बे. वली ' हुं' एवी प्रतीतिनुं जे कादाचित्कपणुं बे, तेमां प्रमाणे वासना जाणवी । २१ । आत्मा बे ते उपयोगलक्षणवाल बे, अने ते साकार ने निराकार एम बन्ने उपयोगोमांथी गमे ते एक उपयोगमां निश्वयेकरी ने जोमायेलोज होय बे, अने ' हुं ' एवो प्रत्यय पण उपयोगरूपज बे; ने कर्मोंना दयोपशमनी विचि
ताथी इंडियाने नीशिय ज्ञानना विषयादिकना निमित्तना सापेपणा व प्रवर्तता एवा ते आत्माने कादाचित्कपणुं प्राप्त थयुंज बे ; बीजमां अंकुराने उत्पन्न करवानी शक्ति होते बते पण, पृथ्वी, जल आदिक सहकारी कारणोना समूहनी सामग्री मलते बतेज जेम ते बीज अंकुराने उत्पन्न करे बे, पण तेथी अन्यथाप्रकारे उत्पन्न करी शक नी; अने तेलाीज कं तेनी अंकुरोत्पत्ति कादाचित्क होते ते पण, तेने उत्पन्न करनारी शक्ति पण कंश कादाचित्की यती नथी, केमके ते शक्तिने कथंचित् नित्यपणुं बे; एवीरीते आत्मानुं हमेशां नज़दीक होते ते पण 'हुं' एवी प्रतीतिने कादाचित्कपणुं बे.
| २२ | वली 'तेनुं कई व्यभिचार विनानुं लिंग मलतुं नश्री ' एम जे
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२७एं नोपनन्यत इति" तदप्यसारं। साध्याऽविनानाविनोऽनेकस्य लिङ्गस्य तत्रोपलब्धेः । तथाहि | रूपाद्युपलब्धिः सकर्तृका क्रियात्वात् । निदि: कियावत् । यश्चास्याः कर्ता स आत्मा । २३ । न चात्र चकुरादीनां कर्तृत्वं । तेषां कुगरादिवत् करणत्वेनाऽस्वतन्त्रत्वात् । करणत्वं चैषां पौगलिकत्वेनाऽचेतनत्वात् परप्रेर्यत्वात् । प्रयोक्तृव्यापार निरपेक्षप्रवृत्त्यनावात् । २५ । यदीनिश्याणामेव कर्तृत्वं स्यात्तदा तेषु विनष्टेषु पूर्वाऽनुनतार्थस्मृतेर्मया दृष्टं स्पृष्टं घातं आस्वादितं श्रुतमिति प्रत्ययानामेककर्तृकत्वप्रतिपत्तेश्च कुतः संनवः । किंचेन्झ्यिाणां स्वस्व विषयनियतत्वेन रूपरसयोः साहचर्यप्रतीतौ न सामर्थ्यम् । २५। अस्ति च तथाविधफलादेरूपग्रहणाऽनन्तरं तत्सहचरितरसानुस्मरणं दन्तोदकसं. -- པ་་་་་ ཐ ་ ་ ་༠༤་པ་ कह्यु, ते पण अयुक्त ; केमके साध्यगोचर एवा अनेक लिंगनी तेमां प्राप्ति थाय ले. ते कहे जे. रूपादिकनी प्राप्ति क्रियारूप होवाथी छेदनक्रियानी पेठे कर्तावाली ले ; अने ने तेनो कर्ता डे, ते आत्मा ले. । २३ । वली अहीं चकुआदिकोने कंई कर्तापणुं नथी, केमके तेन ने कुगरादिकनी पेठे साधनपणायें करीने अस्वतंत्रपणुं बे, अने तेनु साधनपणुं पौगलिकपणायें करीने अचेतनपणाथी परवमे प्रेरावापणं होवाथी डे, केमके तेने प्रेरनारना व्यापारनी अपेक्षा नही राखना। एवी प्रवृत्तिनो अनाव . । २४ । वन्नी इंजिनेन ज्यारे कर्तापj होय, त्यारे ते इंडिन नाशपामते बते पूर्व अनुनवेला पदार्थना स्मरएथी, में जोयुं, में स्पर्श कर्यो, में सुंघ्यु, में चाख्युं, में सांजव्यु एवी रीतनी प्रतीतिउना एककर्तापणाना स्वीकारनो क्याथी संनव थाय ? वनी दिन ने पोतपोताना विषयोना चोकसपणायें करीने रूपरसनी साथे प्रतीति कराववामां सामर्थ्य नथी. । २५। वन्नी तेवीरीतना (केरी आंबन्नी लींबु आदिक ) फलने जोयापठी तुरतज तेनी साथे रहेला
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. प्लवाऽन्यथानुपपत्तेः। तस्माउन्नयोर्गवाक्योरन्तर्गतः प्रेक्षक व धान्यामिन्श्यिान्यां रूपरसयोर्दर्शी कश्चिदेकोऽनुमीयते । तस्मात्करणान्येतानि । यश्चैषां व्यापारयिता स आत्मा । २६ । तथा साधनोपादानपरिवर्जनहारेण हिताऽहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका वि. शिष्ट क्रियात्वास्थ क्रियावत् । शरीरं च प्रयत्नवदधिष्टितं विशिष्टक्रियाश्रयत्वाश्थवत्। यश्चास्याधिष्टाता स आत्मा सारथिवत् । २७ । तयात्रैवेपद इच्छापूर्वक विकृतवाय्वाश्रयत्वात् नस्त्रावत्। वायुश्च प्राणापानादिर्यश्चास्याधिष्टाता स आत्मा नस्त्राध्मापयितृवत् । तथाऽत्रैवपदेइच्छाधीननिमेषोन्मेषवदवयवयोगित्वाद्दारुयन्त्रवत् । २७ । तथा शरीरस्य वृदितननसंरोहणं च प्रयत्नवत्कृतं वृझिदतननसंरोहणत्वात् ।
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रसनुं स्मरण थाय ने, केमके जो तेम तुं न होय, तो दाढामांथी पाणी बुटवादिककार्य न थाय ; तेथी बन्ने ऊरुखानी वच्चे रहेला जोनारनीपेठे बन्ने निवझे रूपरसनो जोनार कोइएक डे, एम अनुमान थाय डे. माटे आ सघलां साधनो डे, अने ते साधनोनो जे व्यापार करनारो बे, ते आत्मा ले । २६ । वली साधनना स्वीकार अने त्यागारे करीने हिताऽहितनी प्राप्ति अने परिहारमा समर्थ एवी चेष्टा पण विशिष्ट क्रिया होवाथी रथक्रियानीपेठे प्रयत्नपूर्वक ले ; अने शरीर डे ते विशिष्टक्रियाना आश्रयरूप होवाथी रथनी पेठे प्रयत्नवानवमे (आत्मावमे) अधिष्टित थयेनुं जे; तथा जे तेनो अधिष्टाता ने, ते सारथिसरखो आत्मा . । २७ । तेम आज पदमा इच्छापूर्वक विकारी वायुना आश्रयथी धमणनीपेठे . वायु एटले प्राणअपानादि, अने जे तेनो अधिष्टाता जे, ते धमण फूंकनारसरखो आत्मा ने. तेम आज पकमां इच्छाने आधीन निमेषोन्मेषनी पेठे अवयवयुक्त होवायी काष्टयंत्रनीपेठे . । २७ । वली शरीरनी वृद्धि, दत तथा ननसंरोहण पण
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२१ गृहवृदितनग्नसंरोहणवत् । वृदा दिगतेन वृश्यादिना व्यनिचार इति चेन्न । तेषामपि एकेन्श्यिजन्तुत्वेन सात्मकत्वात् । यश्चैषां कर्त्ता स यात्मा गृहपतिवत् । वृदादीनां च सात्मकत्वमाचाराङ्गादेरवसेयं । किं चिदयते च । एए । तथा प्रेयं मनः अभिमत विषयसम्बन्धनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद्दारकहस्तगतगोलकवत् । यश्चास्य प्रेरकः स आत्मा इति । ३० । तथा आत्मचेतनदेवजीवपुरुषादयः पर्याया न निर्विषयाः पर्यायत्वात् घटकुटकलशादिपर्यायवत् (व्यतिरेकेषष्टनुता दि) यश्चैषां विषयः स आत्मा । ३१ । तथाऽस्त्यात्मा असमस्तपर्यायवाच्यत्वात् । यो योऽसाङ्केतिकशुपर्यायवाच्यः स सोऽस्तित्वं न व्यनिचरति ।
वृध्विदतनग्नसंरोहण होवायी घरना वृध्धिदतननसंरोहणनी पेठे प्रयत्नवान, करेलुं जे. कदाच तुं एम कहीश के वृदादिकनी वृध्धिादिकवझे तेमां व्यन्निचार आवे डे, तो ते तारूं कहे, युक्त नश्री, केमके ते वृदा दिकोने पण एकेंयिजंतुषणायें करीने सात्मकपणुं ; अने जे तेननो का डे, ते गृहपतिसरखो आत्मा ने ; तेम वृदादिकोनुं सात्मकपणुं आचारांगादिकथी जाणीलेईं; तेम (अहीं) किंचित् कहीशु. । २ए। वत्ती मन डे ते प्रेयं एटले प्रेरवानुं जे, केमके ते बालकना हायनां रहेला गोलानी पेठे इच्छित विषयना संबंधना निमित्तवाली क्रियाना पायवालुं , अने ते मनने जे प्रेरनार डे, ते
आत्मा ले. । ३० । वली आत्मा, चेतन, देवा जीव तथा पुरुषादिक पर्यायो, पर्याय होवाथी घट, कुट तथा कलशादिक पर्यायोनी पेठे विषयरहित नश्री. (तेथी उलटा दृष्टांतमां बहानूतादिक जाणवा.) अने जे तेननो विषय जे, ते आत्मा जे. । ३१ । वल्ली आत्मा के, केमके ते समस्तपर्यायवाच्य नथी. जे जे संकेतरहित शुइपर्यायवाच्य डे, ते ते
। यक्षभूतादि । इतिद्वितीयपुस्तकपाठः ।।
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२०२ यथा घटादिः । व्यतिरेके खर विषाणनन्नोऽम्नोरुहादयः । ३२ । तथा सुखादीनि व्याश्रितानि गुणत्वाद्रूपवत् । योऽसौ गुणी स आत्मत्यादितिङ्गानि । तस्मादनुमानतोऽप्यात्मा सिझः । ३३ । आगमानां च येषां पूर्वापर विरुक्षार्थत्वं तेषामप्रामाण्यमेव । यस्त्वाप्तप्रणीत आगमः स प्रमाणमेव । कपच्छेदतापलकणोपाधित्रय विशुश्त्वात् । कषादीनां च स्वरूपं पुरस्तादयामः । ३४ । न च वाच्यमाप्तः दीणसर्वदोषस्तथाविधं चाप्तत्वं कस्यापि नास्तीति । यतो रागादयः कस्यचिदत्यन्तमुच्छिद्यन्ते । अस्मदादिषु तउच्छेदप्रकर्षाऽप्रकर्षोपलंनात् । सूर्याद्यावरकजलदपटनवत् । तथा चाहुः =|| देशतो नाशिनो नावा । दृष्टा निखिलनश्वराः ॥ मेघपङ्क्त्यादयो यह-देवं रागादयो मताः ॥ इति
तापणाने तजतो नथी. जेम घटादिक ; अने तेथी नलटा दृष्टांतमां खर विषाण तथा आकाशपुष्पादिक जाणवां. । ३५ । वनी सुखादिको गुणरूप होवायी रूपनीपेठे इव्यने आश्री ने रहेलां बे, अने जे आ गुणी छे, ते आत्मा ने. इत्यादिक (अनेक ) लिंगो ने. माटे अनुमानप्रमाणथी पण आत्मा सिइ थाय . । ३३ । आगमो के जे पूवापर विरुअर्थवाला , तेन ने तो अप्रमाणपणुंन डे; परंतु जे आगम आप्तप्रणित बे, ते तो प्रमाणनूतज डे, केमके ते आगम तो कष, बेद अने तापरूप त्रणे उपाधिन्थी विशुइ थयेलु डे. ते कषादिकोनुं स्वरूप अमो आगल कहीशु. । ३३ । नष्ट थयेन डे सर्व दोषो जेमना ते आप्त कहेवाय, अने तेवू आप्तपणुं कोश्ने पण नथी, एम नही बोलवू ; केमके कोश्कना पण रागादिको अत्यंत नच्छेद पामे डे, कारणके सूर्यादिकने आच्छादनारा मेघपटलनी पेठे आपणादिकनेविषे पण ते रागादिकोनो नो वधतो नच्छेद मनीआवे जे. कडुं ने के =॥ नावो देशथी एटले थोमा विनश्वर दे, ते समस्तप्रकारे पण
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२०३ । ३५ । यस्य च निरवयवतयैते विलीनाः स एवाप्तो नगवान् सर्वशः । अयाऽनादित्वाशगादीनां कथं प्रदय इति चेन्न । उपायतस्तन्नावात् । अनादेरपि सुवर्णमत्तस्य दारमृत्पुटपाकादिना वित्नयोपलं नात् तदेवानादीनामपि रागादिदोषाणां प्रतिपदन्नूतरत्नत्रयाच्यासेन विलयोपपत्तेः । ३६ । दीणदोषस्य च केवलझानाव्य निचारात्सर्वशत्वं । तत्सिस्तुि शानतारतम्यं क्वचिद्दिश्रान्तं तारतम्यत्वात् । आकाशपरिमाणतारतम्यवत् । ३७। तथा मुदमान्तरितदरााः कस्यचित्प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात् । दितिधरकन्धराधिकरणधूमध्वजवत् । एवं चन्सूर्योपरागादिसूचकज्योतिाना विसंवादान्यथाऽनुपपत्तिप्रन्नृतयोऽपि हेतवो वाच्याः ।
नष्ट थता देखाया डे, जेम मेघश्रेणिआदिक, तेम रागादिकोने पण जाणवा. = | ३५ । वली ते रागादिको जेना तमामप्रकारे नाश पाम्या , तेन नगवान् आप्त अने सर्वज्ञ जे. रागादिको अनादि होवाथी तेननो दय केम थाय? एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी ; केमके उपायथी तेननो दय थाय ले. जेम अनादि एवा पण सुवर्णमलनो खार तथा मृत्पुटपाकादिकें करीने विनाश थाय डे, तेम अनादि एवा पण रागादिक दोषोनो, तेना शत्रुन्नत एवा शानदर्शनचारित्ररूप त्रण रत्नोना अभ्यासेंकरीने विनाश थाय डे. । ३६ । वली जेना दोषो दीण यया बे, तेने केवलज्ञानना अव्यभिचारथी सर्वपणुं थाय जे; अने तेनी खातरी एके, ज्ञाननी तरतमता मे ते तरतमतापणाथी आकाशपरिमाणना तारतम्यनी पेठे क्यांक विश्रांति पामे . । ३७ । वली सूक्ष्म, अंतरित तथा दूर एवा पदार्थो अनुमेय होवाथी पर्वतनी कंधरामा रहेला अग्मिनीपेठे कोश्कने पण प्रत्यक्ष जे. एवीरीते चंसूर्यना ग्रहणादिकने सूचवनारा ज्योतिर्झननो अविसंवाद तथा अन्यथाप्रकारनी अप्राप्ति विगेरे हेतु पण जाणवा ; माटे एवीरीते.
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-- तदेवमाप्तेन सर्वविदा प्रणीत आगमः प्रमाणमेव । तदप्रामाण्यं हि प्र. णायकदोषनिबन्धनम् । =॥ रागाहा षाक्षा । मोहासा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् ॥ यस्य तु नैते दोषा-स्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात् ।। इति वचनात् । प्रणेतुश्च निर्दोषत्वमुपपादितमेवेति सिध्ध आगमादप्यात्मा “एगाया” इत्यादिवचनात् । ३० । तदेवं प्रत्यदानुमानागमैः सिध्धः प्रमाता । प्रमेयं चानन्तरमेव बाह्यार्थसाधने साधितं । तत्सिध्धौ च प्र. माणं झानं तच्च प्रमेयानावे कस्य ग्राहकमस्तु निर्विषयत्वादिति प्रतापमानं । करणमन्तरेण क्रियासिध्धरयोगात् । लवनादिपु तथादर्शनात् । ३ए । यच्चात्र समकालमित्याद्युक्तं तत्र विकल्पध्यमपि स्वीक्रियत एव । अस्मदादिप्रत्यदं हि समकालार्थाकलनकुशलं स्मरणमतीतार्थस्य
~~~~~~~~~~~vvv.~~~ सर्वज्ञ एवा आप्ते रचेलु आगम प्रमाणरूपज डे; वनी ते ते आगमोनुं जे अप्रमाणपणुं छे, तेनुं कारण तेना रचनारनो दोष ले. कर्दा डे के रागयी, वथी अथवा मोहथी जूतुं वाक्य बोलाय ने, अने जेने ते दोषो नथी, तेने जूतुं बोलवानुं शुं कारण ? वली रचनारनिर्दोषपणुं तो स्वीकारेलुज , माटे एवीरीते 'एगेयाया' इत्यादिक वचनथी आगमप्रमाणथी पण आत्मा सिध्ध थाय . । ३० । माटे एवीरीते प्रत्यक्त, अनुमान अने आगम प्रमाणवमे प्रमाता सिध्ध थयो. वनी प्रमेयनें तो बाह्य पदार्थोना साधनमां नुपरज साधन कर्यु ले ; अने ज्यारे प्रमेय सिध्ध थयो, त्यारे 'झानरूप प्रमाण, प्रमेयनो अनाव होते ते विषयरहित होवाथी कोनुं ग्राहक थाय?' एम जे बोलवू, ते फक्त बबमाटकरवासरखं ने ; केमके करण एटले साधनविना क्रियानी सिध्धि थती नथी, कारणके कापणीआदिकमां तेम देखायेचु ले (अर्थात् तेमां दातरमा आदिक साधननी जरुर पसे .)। ३ए । वत्ती अहीं जे 'समकालं' इत्यादिक तें का डे, तेमां बन्ने विकल्पो अमो
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२५ ग्राहकं । शान्दानुमाने च त्रैकान्त्रिकस्याप्यर्थस्य परिच्छेदके । निराकारं चैतद्वयमपि न चातिप्रसङ्गः । स्वज्ञानावरणवीर्यान्तरायदयोपशमविशेषवशादेवास्य नैयत्येन प्रवृतेः । शेषविकल्पानामस्वीकार एव तिरस्कारः । १० । प्रमितिस्तु प्रमाणस्य फलं । स्वसंवेदनसिध्धैव । न ह्यनुनवेऽप्युपदेशापेदा । फलं च हिंधानन्तर्यपारंपर्यनेदात् । तत्रानन्तर्येण सर्वप्रमाणानामझान निवृत्तिः फलं । पारंपर्येण केवलज्ञानस्य तावत् फलमोदासीन्यं । शेषप्रमाणानां तु हानोपादानोपेदाबुझ्यः । इति सुव्यवस्थितं प्रमात्रादिचतुष्टयं । ततश्च । =|| नासन्न सन्न सदसन्न चाप्यनुनयात्मकम् । चतुकोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वमाध्यात्मिका विजः = इ.
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स्वीकारीयेन जीये. आपण आदिक, प्रत्यकप्रमाण तो समकाले पदाथने जाणवामां समर्थ डे, अने स्मरण ले ते अतीत पदार्थोने ग्रहण करनारुं ; अने आगमप्रमाण तथा अनुमानप्रमाण त्रिकालिक पदार्थो ने पण जणावनारां ; वली ते बन्ने निराकार , तेमां कं अतिप्रसंग नश्री, केमके पोताना झानावरण तया वीर्यांतरायना क्योपशमविशेषथीन तेनी निश्चयेंकरीने प्रवृत्ति ; अने बाकीना विकल्पोनो तो अस्विकार एज तिरस्कार . | 10। प्रमिति एटले प्रमाणफल, अने ते तो स्वसंवेदनवमे सिहज थयेनु डे, माटे जे बाबतनो स्वयमेवज अनुनव थयो डे, तेमाटे उपदेशनी जरुर रहेती नथी, वली फन डे ते अनंतर एटने तुरत थनारूं अने परंपराये थनारुं एम बे प्रकारनुं . तेमां तुरतफल एटले सर्व प्रमाणोना अज्ञाननी निवृत्तिरूप फल, अने केवलज्ञान- परंपरायें नदासीनपणारूप फन्न जे ; अने बाकीना प्रमाणोनुं फल त्यागनी, स्वीकारनी अने नपेदानी बुद्धिरूप डे. माटे एवीरीते प्रमाताआदिक चारेनो व्यवहार योग्यज डे; अने तेटता माटे =|| नही अतुं, नही तुं, नहीं उतुं अतुं, अने नही अ
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त्युन्मत्तनाषितं । ४१ । किं चेदं प्रमात्रादीनामवास्तवत्वं शून्यवादिना वस्तुवृच्या तावदेष्टव्यं । तच्चासौ प्रमाणादनिमन्यतेऽप्रमाणाछा । न तावदप्रमाणात्तस्याऽकिंचित्करत्वात् । अथ प्रमाणात् तन्न । अवास्तवत्वग्राहकं प्रमाणं सांवृतमसांवृतं वा स्यात् । यदि सांवृतं कथं तस्मादवास्तवाचा स्तवस्य शून्यवादस्य सिद्धि: । तथा च वास्तव एव समस्तोsपि प्रमात्रादिव्यवहारः । ४२ । अथ तद्ग्राहकं प्रमाणं स्वयमसांवृतं तर्हि कीणा प्रमात्रादिव्यवहाराऽवास्तवत्वप्रतिज्ञा तेनैव व्यनिचारात् । तदेवं पश्येऽपि इतो व्याघ्र इतस्तटी तिन्यायेन व्यक्त
नुनयात्मक, एवीरीतनी चारे कोटीश्री रहितने आध्यात्मिको तत्व कहे बे ; = ॥ ए कहेवुं उन्मत्त माणसनुं बे । ४१ । वली या शून्यवादी ने प्रमाता आदिकोनुं प्रवास्तिविकपणुं वस्तुवृत्तिएं कर्रने मानवानुं बे, प्रमाणथी माने बे ?
करी शकतुं नथी.
वास्तविकपणाने अर्थात् तत्वार्थ ने
ने ते प्रवास्तविकपणुं ते प्रमाणर्थी माने बे, के प्रमाणथी तो नही, केमके ते प्रमाण तो कई जो कहेशे के प्रमाणथी, तो तेम पण नथी; केमके ग्रहण करनारुं प्रमाण सांवृत बे, के सांवृत बे ? नही निरुपण करनारी प्रवृत्तिवालुं बे ? के तेथी उलटा प्रकारनुं बे ? जो कहीश के सांवृत बे, तो ते वास्तविकश्री वास्तविक शून्यवादनी सिद्धि क्यांयी यशे ? म तेम होते ते प्रमात्रादिक सर्व व्यवहार वास्तविकज थयो । ४२ । हवे तेने ग्रहणकरनारुं प्रमाण जो पोते
सांवृत होय, तो प्रमातादिक व्यवहारना वास्तविकपणानी प्रतिज्ञा नष्ट थइ, केमके तेनावमेज तेमां व्यभिचार प्राव्यो. माटे एवीरीते बन्ने पदोमां आ बाजु वाघ ने पेलीबाजु नदी, एवीरीतना न्यायें
१ अनिरूपिततत्वार्था । प्रतीतिः संवृतिर्मता = तत्वार्थने नही निरूपण करनारी जे प्रतीति संवृति वा ॥
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२०७ एव परमार्थतः स्वानिमतसिदिविरोध इति काव्यार्थः ॥ . .
। ४३ । अधुना दणिकवादिन ऐहिकाऽमुष्मिकव्यवहाराऽनुपपनार्थसमर्थनम विमृश्यकारितं' दर्शयन्नाह ।
कृतप्रणाशाऽकृतकर्मनोग
लवप्रमोदस्मृतिनङ्गदोषान् ॥ नपेक्ष्य सादात् दणजङ्गमिच्छ
नहो महासाहसिकः परस्ते ॥ १७ ॥ करेला कर्मोनो विनाश, नहीं करेनां कर्मोनुं नोगववापणुं, नवनंगदोष, मोहनंगदोष, अने स्मृतिनंगदोषने साहात् नपेहीने हणनंगने इच्छतो एवो, हे प्रन्नु! आपनो प्रतिपदी ने वैनाशिक सौगत ते अहो! मोटो साहसिक लागे !! । १ ।
।। कृतप्रणाशदोषमसतकर्मनोगदोषं प्रमोदनगन्दोषं स्मृतिनङ्गदोषमित्येतान् सादा दित्यनुनवसिशन नेपदयानादृत्य सादात्कुर्वन्नपि
जसका
करीने परमार्थथी प्रगटरी तेज पोते मानली सिभिमां विरोध आव्यो. एवीरीते सतरमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
। ४३ । हवे कणिकवा दिनु, आ लोक अने परलोकसंबंधि व्यवहारने नही लागुपमतुं एवं जे पदार्थोनुं समर्थन, ते तेन्नुं वगरविचार्यु कार्य , एम देखामताथका कहे जे.
।१। करेलां कर्मोना नाशरूप दोषने, नही करेनां कर्मोना नोगववारूप दोषने, मोदनानंगरूप दोषने, तथा स्मृतिनंगरूप दोषने, एवीरीतना अनुभवसिध्ध दोषोने नपेदी ने, अर्थात् ते दोषोने सादात
१ । कारिताकारितं । इति द्वितीयपुस्तकपाठः ।।
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२०० गजनिमीलिकामवलम्बमानः सर्वनावानां दण नङ्गं उदयानन्तर विनाशरूपदणदयितामिच्छन् प्रतिपद्यमानस्ते तव परः प्रतिपदी वैनाशिकः सौगत इत्यर्थः । अहो महासाहसिकः सहसा अविमर्शात्मकेन बनेन वर्तते साहसिकः । नाविनमनर्थम विनाव्य यः प्रवर्तते स एवमुच्यते । महांश्चासौ साहसिकश्च महासाहसिकोऽयन्तमविमृश्य प्रवृत्तिकारीति मुकुलितार्थः । विवृतार्थ स्वयं । । बौा बुझिक्षणपरंपरामात्रमेवात्मानमामनन्ति । न पुनौक्तिककण निकराऽनुस्यूतकसूत्रवत्तदन्वयिनमेकं । तन्मते येन झानदणेन सदनुष्टानमसदनुष्टानं वा तं तस्य निरन्वय. विनाशान्न तत्फलोपन्नोगः। यस्य च फलोपनोगरतेन तत्कर्म न कृतमिति प्राच्यज्ञानदणस्य कृतप्रणाशः स्वकृतकर्मफलाऽनुपनोगात् । उत्तरझा
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जोतांथकां पण आंखामा कान करीने दण नंगने एटले नदय पड़ी तुरत विनाशरूप दणदयपणाने स्वीकारती, एका (हे प्रनु!) आपनो प्रतिपदी वैनाशिक सौगत, अहो ! महांसाहसिक डे ! अर्थात् विचाररहित बकरीने जे वर्ते, ते साहसिक कहेवाय. थनारा अनर्थनो विचार कर्याविना जे प्रवर्ते , ते एवो कहेवाय जे. मोटो एवो जे साहसिक ते महासाहसिक, अर्थात् अत्यंतरीते विचार विनानी प्रवृत्ति करनारो महासाहसिक कहेवाय जे. एवीरी ते टुंकामां अर्थ कह्यो. वि. स्तारयुक्त अर्थ नीचेप्रमाणे जाणवो. । २ । बौछो ने ते बुध्धिकणपरंपरामात्रन आत्माने माने जे. पण मोतीना दाणाना समूहमां पोरवेला एक सूतरना दोरानी पेठे एक तदन्वयी मानता नथी. तेन्ना मतमा जे झानकणे सक्रिया अथवा असत्क्रिया करी जे, तेनो अन्वयरहित विनाश थवाथी तेना फलनो उपन्नोग थतो नश्री; अने जेने फलनो नपनोग मने , तेणे ते कार्य कर्यु नथी, अने तेवीरीते पूर्वना झानदणने करेला कर्मनो विनाश प्राप्त थाय डे, केमके पोते करेला क
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२०ए नवणस्य चाऽतकमनोगः वयमझतस्य कर्मण: फलोग्नोगादिति । अत्र कर्मशब्द उनयत्रापि योज्यः । तेन कृतकर्मप्रणाश इत्यर्थो दृश्यः । बन्यानुलोम्पाञ्चेत्यमुपन्यास. । ३ । तथा नवनङ्गन्दोवो नव
आजवीनावलक्षण: संसारस्तस्य नङ्गो विलोपः स एव दोषः दणिकवादे प्रसज्यते । परलोकाऽनावप्रसङ्ग इत्यर्थः । परलोकिनः कस्यचिदनावान् । ४ । परलोको हि पूर्वजन्मकतकर्मानुसारेण नवति । तच्च प्राचीनझानदणानां निरन्वयं नाशाकेन नामोपनुज्यतां जन्मान्तरे। ..... यञ्च मोदाकरगुप्तेन यञ्चितं तच्चित्तान्तरं प्रतिसंधत्ते । यथेदानींतनं चित्तं । चित्तं च मरणकालनावीति नवपरंपरामिध्ये प्रमाण मुक्तं तव्यर्थ । चित्तदणानां निरवशेषनाशिनां चित्तान्तरप्रतिसंधानाऽयोगात् ।। 2. contenanamannnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnora मना फलनो उपन्नोग तेने मलतो नश्री; तथा ज्ञानना नतरहणने नहीं करेला कर्मना नपन्नोग थाय डे, केमके पोते नही करेला कमनुं फल तेन नोगवq पझे ले. अहीं कर्मशब्दने बन्ने बाजुए जोमी लेवो. तेथी करेनां कर्मनो विनाश थाय डे, एवो अर्य जाणवो. बं. धानुलोम्यथी एवो उपन्यास जाणवो. । ३ । तथा नवन्नंग नामनो दोष यावे. नव एटने आजवीनावरूप संसार, तेनो जे नंग एटले किनाश, तेरूप दोष दणिकवादमां प्राप्त थाय , अर्थात् परलोकना . अन्नावनो प्रसंग श्राय डे, एवो अर्थ जाणवो ; केमके परलोकमां जनारको रहेतो नश्री ।।। परलोक ते पूर्व जन्ममां करेला कोंने अनुसारे थाय ने, अने पूर्वझानदणो तो अन्वयरहित नष्ट थयेला होवाश्री, जन्मांतरमां ते कर्मने कोण नोगवी शके ? वली मोदाकरगुप्ते 'जे चित्त डे. ते बोजां चितने जोमी आपे , जेम अहीतुं चित्त. अ. ने चित्त ने ते मरणसमये थनारुं छे' एवीरीते नवोनी. परंपरानी सिदिमाटे जे प्रमाण कमु डे, ते फोकटन डे; केमके अवशेषरहित ना
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इयौरव स्थितयोर्हि प्रतिसंधानमुनयानुगामिना केन चित्क्रियते । यश्वानयोः प्रतिसंघात । स तेन नान्युपगम्यते । स ह्यात्माऽन्वर्य। न च प्रतिसंधत्ते इत्यस्य जनयतीत्यर्थः । कार्यहेतुप्रसङ्गात् । तेन वादिनाऽस्य हेतोः स्वनावहेतुत्वेनोक्तत्वात् । ६ । स्वन्नाव हेतुश्च तादात्म्ये सति नवति । निन्नकालाविनोश्व चित्तचित्तान्तरयोः कुतस्तादात्म्यं । युगपना विनोश्च प्रतिसन्धेयप्रतिसन्धायकत्वाऽनावापत्तिः । युगपना वित्वेविशिष्टेऽपि किमत्र नियामकं यदेकः प्रतिसन्धायकोऽपरश्वप्रतिसधेय इति । अस्तु वा प्रतिसन्धानस्य जननमर्थः सोऽप्यनुपपन्नस्तुल्यकालत्वे हेतुफलभावस्याभावात् । निन्नकालत्वे च पूर्वचित्तणस्य विनष्टत्वात् नुतरं चित्तणः कथमुपादानमन्तरेणोत्पद्यतामिति यत्कि -
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`श पामनाएं चित्तणो बीजां चित्तने जोमी शकतां नथी । ५ । वली अवस्थित एवा बन्नेनी संधि कोइक ननयानुगामी करीशके बे, अने या बन्ने चितकणाने जे जोमनार बे, तेने तो ते स्वीकारतो नश्री ते तो आत्माऽन्वय बे, पण जोमीत्र्यापै बे, माटे तेने ते उत्पन्न करे बे, 'एव कार्यहेतुना प्रसंगयी जाणवो नही; केमके ते वादी ए ते हेतुने स्वभावहेतुपणायें करीनें कहेलो बे. । ६ । वली स्वभावहेतु तो तादा त्म्यपणुं होते ते थाय बे ने जिन्नसमये थनारा चित्ताने चित्तांतरने तादात्म्यपणुं क्यां रधुं ? अने समकाले नारा ते चित्त अने चित्तांतरने प्रतिसंश्रेय ने प्रतिसंधायकपणाना प्रभावनी आपत्ति थाय बे. वली विशेषरी ते समकाले थवापणुं होते ते पण, एक प्रतिसंधायक बे, ने बीजो प्रतिसंधेय बे, तेनी खातरी शुं ? अथवा प्रतिसंघाने उत्पन्न करनारो पदार्थ थान ? पण ते पदार्थ पण उपपन्न नयी, केमके कार्यकारणभाव तुल्यसमये होतो नथी. वली जिन्नस - मयपणामां पूर्वनो चित्त नष्ट थवाश्री नृपादान विना उत्तरनो चित्त
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२५१ चिदेतत् । ७ । तथा प्रमोदनङ्गदोघः । प्रकर्षणाऽपुन वन कर्मबन्धनान्मुक्तिः प्रमोदस्तस्यापि नंगः प्रामोति । तन्मते तावदात्मैव नास्ति । कः प्रेत्यसुखीनवनाथ यतिप्यते । शानदणोऽपि संसारी कथमपरझानवणसुखीनवनाय घटिप्यते । न हि उःखी देवदत्तो यज्ञदत्तसुखाय चेष्टमानो दृष्टः । दणस्य तु उःखं स्वरसनाशित्वात्तेनैव साई दध्वंसे । । सन्तानस्तु न वास्तवः कश्चिद् वास्तवत्वे तु आत्माभ्युपगमप्रसंगः । अपि च बौक्ष निखिलवासनोच्छेदे विगत विषयाकारोपप्लव विशुझानोत्पादो मोद इत्याहुस्तच्च न घटते । कारणाऽनावादेव तदनु पपत्तेः । ए । नावानाप्रचयो' हि तस्य कारण मिप्यते । स च स्थिरै..
...... क्षण शीरीते नत्पन्न बाय? माटे वादोन ते कहेवू यत्किचित् डे, अर्थात् संपूर्णरीते लागु पमतुं नथी. । ७ । वली ते दणदयवादमा प्र. मोक्षनंगनो दोष आवे जे. प्रकर्षे करीने एटले अपुनर्बावेकरी ने कर्मबंधनश्री जे मूकावं ते प्रमोद कहेवाय. ते प्रमोदनो पण नंग थाय डे. ते वादीना मतमा आत्माज नथी, तो पड़ी आवता जन्ममां सुखी थवामाटे कोण प्रयत्न करशे? शानदाही पण संसरनारो ने तो पड़ी बीना शानदणने सुखी अवामाटे ते शीरीते घटी शकशे ? केमके जःखी एवो देवदत्त यज्ञदत्तना सुखमाटे प्रयत्न करतो कंश देखायो नथी; अने वणर्नु उःख तो स्वन्नावनाशी होवाथी तेनी साथेज नष्ट थयुं . । । वनी संतान ते को वास्तविक नश्री, केमके वास्तविकपणामां तो आत्माना स्वीकारनो प्रसंग थाय . वली बौझे ने ते सर्व वासनाननो नुच्छेद थये बते, गयेल विषयाकारनो नपश्व जेमांथी एवी विशु झाननी उत्पत्तिरूप मोद कहे जे, अने ते घटी शकतुं नथी, केमके कारणना अन्नावथीन तेनी अप्राप्ति ने. १ सर्व क्षणिकमित्यायपदिष्टार्थविषयधाराबाहिकबुद्धिसंतानाट्वोभावना प्रचयस्तस्या एव बहुत्वं ।।
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काश्रयाऽनावाहिशेवानाधायकः प्रतिक्षणमपूर्ववउपजायमानो निरन्वयविनाशी गगनलङ्घनाच्यासवदनासादितप्रकर्षो न स्फुटाऽनिशानजननाय प्रनवतीत्यनुपपत्तिरेव तस्य । समलचित्तहणानां स्वाना विक्याः सदृशारंजणशक्तेरसदृशारंनं प्रत्यशक्तेश्चाकस्मादनुच्छेदात् । १० किं च' समलचितहणाः पूर्व स्वरसपरिनिर्वाणाः । अयमपूर्वो जातः । सन्तानश्चैको न विद्यते । बन्धमोदो चैकाधिकरणों । न विषयनेदेन वतेते । तत्कस्येयं मुक्तियं एतदर्थं प्रयतते । ११ । अयं हि मोदशब्दो बन्धनविच्छेदपर्यायः । मोदश्च तस्येव घटते यो बड़ः । दणदयवादे
। ए । नावनाप्रचय तेनुं कारण , एम तुं माने जे, पण ते नावनाप्रचय स्थिरैकाश्रयना अन्नावश्री विशेषने नही धारण करतो थको, कणदणप्रते अपूर्वनी पेठे नत्पन्न यतो थको, अन्वयरहित विनाशवालो, अने आकाशोलंबनना अच्यासनी पेठे अपार, एवो श्यो थको प्रगट अनिशान नत्पन्न करवामाटे शक्तिवान् यतो नश्री; माटे एवीरीते ते विशुझानोत्पत्तिनी अप्राप्तिन डे; केमके समतचित्तहणोने स्वा. नाविक एवी तुल्यारंननी शक्ति , अने अतुल्य आरंजनी शक्ति नथी, माटे तेनो अकस्मात् नच्छेद थतो नथी. । १० । वली समनचित्तदणो पूर्वे तो पोताना वनावश्रीज नष्ट यया हता, अने आ निर्मल चित्तदण तो अपूर्व उत्पन्न थयो, माटे एक संतान तो रह्यं नही, अने बंधमोद तो एकाधिकरणवाला डे, माटे विषयन्नेदवमे वर्तता नश्री; माटे आ मुक्ति कोनी ? के जे तेनेमाटे प्रयत्न करे. । ११ । वत्नी या मोदशब्द तो बंधनविच्छेदना पर्यापरूप ने ; अने मोद तो तेनेज़ घटे
१ ननु स्थायिसंस्काराऽभावेऽपि पूर्वपूर्वज्ञानक्षणत्वसित एव उत्तराचरक्षण उत्पद्यते स्ककसबीजसंतानवादित्याह समलेति ।। . .. २. ननपदेशजन्यज्ञानप्रवाहस्य सदृशारंभणेऽपि प्रथम पराक्षतपत्यस्य निर्मलस्यांते निर्मल तमस्य साक्षात्काराध्यायकतया न दोष इत्यत आह किंचेति ॥
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श्ए३ त्वन्यः क्षणो बदः दाणान्तरस्य मुक्ति रिति मोहाऽनावः प्राप्नोति । १२। तथा स्मृतिनङ्गन्दोपः । तथाहि । पूर्वबुड्याऽनुलतेऽर्थे नोत्तरबुद्धीनां स्मृतिः संभवति । ततोऽन्यत्वात्सन्तानान्तरबुदिवत् । न ह्यन्यदृष्टोऽर्थोऽन्येन स्मयते । अन्यथा एकेन दृष्टोऽर्थः सर्वेःस्मर्यत । स्मरणा ऽनावे च कौतस्कुती प्रत्य निझाप्रसूतिः । तस्याः स्मरणानुनवोनयसंनवत्वात् । पदार्थप्रेक्षण प्रबुहप्राक्तनसंस्कारस्य हि प्रमातुः स एवायमित्याकारणेयमुत्पद्यते । १३ । 'अय स्यादयं दोषो यद्यविशेषेणान्यदृष्टमन्यः स्मरतीत्युच्यते । किं त्वन्यत्वेऽपि कार्यकारण नावादेव चस्मृतिः । निन्नसंतानबुझीनां तु कार्यकारणनावो नास्ति । तेन संता
ने, के जे बंवायेतो ; अने कणक्यवादमां तो अन्यकण बंधाय डे, अने मुक्ति तो बीना लणनी थाय ने, माटे एवीरीते मोकनो अ. मात्र प्राप्त थाय डे. । १२ । वत्ती कणिकवादमां स्मृतिनंगरूप दोष
आवे डे. ते कहे जे. पूर्वबुझिए अनुनवेला .पदार्थमां नत्तर बुझिननी स्मृति संन्नवती नयी, केमके संतानांतरनीपेठे तेथी ते जूद जे; वली अन्ये जोयेना पदार्थ- अन्य स्मरण करी शकतो नथी; अने नो तेम न होय तो एके दीला पदार्थ- सबलान स्मरण करीले; अने ज्यारे स्मरणनो अन्नाव थयो, त्यारे ते पदार्थना पिश्चाननी उत्पत्तिज क्यांथी थाय? केमके ते तो स्मरण अने अनुन्नव एम बनेपूर्वक थाय बे; कारणके पदार्यने जोवाथी नत्पन्न श्रयेन डे, पूर्वसंस्कार जेने एका प्रमाताने 'आ तेज ' एवीरीतना आकारे करीने ते पिश्चान थाय. २ । १३ । (अहीं वादी कहे डे के) अविशेषे करीने अन्ये जोएवं अन्य स्मरण करे , एम जो कहीयें, तो आ दोष आये ले. परंतु अन्यपणामां पण कार्यकारणना नावथीन स्मृति जे, पण निन्नसंतानबुद्धिने तो कार्यकारण नाव नथी, अने तेथी बीना संतानोने स्मरण श्रतुं
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नान्तराणां स्मृतिर्न नवति । न चैकसातानिकीनामपि बुझीनां कार्यकारणनावो नास्ति । येन पूर्वबुश्चनुन्तेऽर्थे तउत्तरबुध्धीनां स्मृतिर्न स्यात् । १५ । तदप्यनवदातं । एवमपि अन्यत्वस्य तदवस्थत्वात् । न हि कार्यकारणनावानिधानेऽपि तदपगतं । दणिकत्वेन सर्वासां जिन्नत्वात् । न हि कार्यकारण नावात् स्मृतिरित्यत्रोनयप्रसिध्धोऽस्ति दृष्टान्तः । १५ । अथ =॥ यस्मिन्नेव हि सन्ताने । आहिता कर्मवासना ।। फलं तत्रैव संधते । कप्पासे रक्तता यथा ॥ इति कर्पासरक्तताहष्टान्तोऽस्तीतिचेत्तदसाधीयः साधनदृषणयोरसंभवात् । तथाहि । अन्वयाद्यसंनवान्न साधनं । न हि कार्यकारण नावो यत्र तत्र स्मृतिः कपासे रक्ततावदित्यन्वयः संनवति । नापि यत्र न स्मृतिस्तस्त्र न का
नथी, पण एक संतानवानी बुझिने तो कार्यकारण नाव नथी, तेम नथी ; के नेथी पूर्वबुझिए अनुनवेला पदार्थमां ते उत्तरबुझिन्नु स्मरण न वाय. । १५ । (हवे ते वादीने उतर आपे ले के) तारूं ते कहेवू पण युक्त नथी, कमके एम मानवामां पण अन्यपणानी तेज अवस्था श्राय डे; कारणके कार्यकारणनाव कहेवामां पण ते बाबत कंशे टनीशकती नथी ; केमके दणिकपणायें करीने सर्वने नित्रपणुं ठे. वली कार्यकारणनावथी स्मृति में, एवीरीतनुं अहीं उन्नयप्रसिभ दृष्टांत नथी. । १५ । =|| जेन संतानमां कर्मवासना स्थापन करी , तेज संतानमा फन्नने धारण करे , जेम कपासमां रताश. =|| एवीरीत कपासनी रताशनुं दृष्टांत डे, एम जो कहीश, तो ते दृष्टांत साधीशकाय तेवू नथी, केमके तमां साधन अने दूषण, बन्नेनो असंभव ले. ते कहे . अन्वयादिकना असंभवथी तेनुं साधन नथी. केमके ज्यां कार्यकारण नाव जे, त्यां कपासमां जेम रताश, तेम स्मृति में, एवो अन्वय संन.वतो नथी; तेम ज्यां स्मृति नथी, त्यां कार्यकाणराव नथी, एवो
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३५ र्यकारण नाव इति व्यतिरेकोऽस्ति । १६ । असिध्यत्वाद्यनुनावनाच न दूषणं । न हि ततोऽन्यत्वादित्यस्य हेतोः कर्पासे रक्ततावदित्यनेन कश्चिदोषः प्रतिपाद्यते । किं च यद्यन्यत्वेऽपि कार्यकारण नावेन स्मृतेरुत्पत्तिरिष्यते । तदा शिष्याचार्यादिबुध्धीनामपि कार्यकारणनावसदावेन स्मृत्यादिः स्यात् । १७ । अथ नायं प्रसङ्गः । एकसंतानत्वे सतीतिविशेषणादिति चेत्तदप्ययुक्तं । नेदाऽनेदपन्हान्यां तस्योपदीयत्वात् । कणपरंपरातस्तस्याऽन्नेदे हि वणपरंपरैव सा । तथा च संतान इति न किंचिदतिरिक्तमुक्तं स्यात् । १७ । नेदे त्वपारमार्थिकः पारमार्थिको वाऽसौ स्यात् । अपारमार्थिकत्वेऽस्य तदेव दूषणमकिंचित्करत्वात् । पारमार्थिकत्वे स्थिरो वा स्यात् दणिको वा । दणिकत्वे संताननिर्वि
nment व्यतिरेक पण संनवतो नथी. । १६ । वसी असिध्धपणुंआदिक नही जणावाश्री तेमां दृषण पण नथी; केमके 'तेथी अन्य होवाथी' । एवीरीतना हेतुने 'कपासमां रताशनीपेठे.' एम कहेवावमे करीने कंई दूषण प्राप्त यतुं नथी. वली ज्यारे अन्यपणामां पण कार्यकारणनावे करीने स्मृतिनी प्राप्ति स्वीकाराय, त्यारे तो शिष्यप्राचार्यादिकोनी बुध्धिनने पण कार्यकारणनावना सन्नावें करीने स्मृतिमादिक थाय. । १७ । 'एकसंतानपणुं होते ते' एवं विशेषण आपेलु होवाथी ते प्रसंग आवतो नश्री, एम जो कहीश, तो ते अयुक्त डे, केमके नेदाऽनेदपदें करीने ते नपढ़ीण थाय डे. कणपरंपराथी तेना अनेदपकमां ते क्षणपरंपरान , अने तेम होते बते ते संतान ने, माटे तेथी से कई तेमां वधारे कर्तुं तेवु नश्री. । १७। वनी नेदपदमां तो ते अपार्मार्थिक थाय ? के पारमार्थिक थायः? अपारमार्थिकपणामां तो ते कई पण करतुं न होवाश्री तेने तेन दूषण आवे ; पत्नी पारमार्थिकपणामां ते स्थिर होय? के दणिक होय ? दणिकपणामां सोए
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शाद शेष एवायमिति किमनेन स्तेनन्नीतस्य स्तेनान्तरशरणस्वीकरणानुकरपिना । १५ । स्थिरश्चेदात्मैव संज्ञानेदतिरोहतः प्रतिपन्न इति न स्मृतिर्घटते दणदयवादिनां । तदन्नावे चाऽनुमानस्याऽनुत्थानमित्युक्तं प्रागेव । अपि च स्मृतेरनावे निहितप्रत्युन्मार्गणप्रत्यर्पणादिव्यवहारा विशीर्येरन् । =|| इत्येकनवतेः कल्पे । शक्त्या मे पुरुषो हतः ॥ तेन कर्मविपाकेन । पादे विध्धोऽस्मि निदवः ॥= इति वचनस्य च का गतिः । २० । एवमुत्पत्तिरुत्पादयति । स्थितिः स्थापयति । जरा जर्जरयति । विनाशो नाशयति । इति चतुःक्षणिकं वस्तु प्रतिजानाना अपि प्रतिक्षेप्याः । दणचतुष्कानन्तरमपि निहितप्रत्युन्मार्गणादिव्यवहाराणां दर्शनात् । तदेवमनेकदोषापातेऽपि यः कानङ्गमन्निति
संताननिर्विशेषज डे, माटे तेणे करीने शुं? कारणके ते तो एक चोरर्थ। मरेलो जेम बीना चोरनुं शरण ले, तेनासरखं थयु. । १ए । हवे जो स्थिर होय, तो फक्त संझांतरथी गुप्तरीते आत्मान स्वीकार्यो. माटे एवीरीते दणदयवादीन ने स्मृति घटीशकती नश्री; अने ज्यारे स्मृतिनो अनावं थयो, त्यारे अनुमान प्रमाण तो नष्टन अयुं, ते तो पहे. लांन कहेवामां आव्यु 'जे. वत्ती स्मृतिनो अन्नाव होते उते, थापण पाठी मागधी तथा पाठी आपबी, श्यादिक व्यवहारो पण नष्टं थाय, =| हे' मिदु ! आमथी एकाणुमे कट्पे शक्तिवमे में पुरुषने मार्यों हतो, ते कर्मना विपाकवमे हुँ पगमां विधायो मु. एवीरीतना (बुधना ) वचननी वनी शुं गति थशे? । २० । एवीजरीते 'नत्पत्ति नत्पन्न करे , स्थिति स्थापन करे , जरा जर्जरित करे ले, 'तथा विनाश नाश करे डे' एवीरीतना चारदणवाला पदार्थ ने स्वीकारता एवा पण बौदिविशेषोनुं खंमन जाणवू, केमके चारहण पड़ी पण 'थापण पाठी मागवाआदिक' व्यवहारो देखाय . माटे एवीरीते अनेक दोषो
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२ए तस्य महत् साहसमिति काव्यार्थः ॥
।२१॥ अथ तायागताः दणक्यपदे सर्वव्यवहाराऽनुपपति परैः स. झा वितामाकण्येत्यं प्रतिपादयिष्यन्ति । यत्पदानां दणिकत्वेऽपि वासनावललब्धजन्मना ऐक्याध्यवसायेन ऐहिकामुस्मिकव्यवहारप्रवृतेः कृतप्रणाशादिदोषा निरवकाशा एवेति तदाकूतं परिहर्तुकामस्तत्कल्पितवासनायाः दणपरंपरातो नेदाऽनेदाऽनुन्नयन दणे पदत्रयेऽपि अघटमानत्वं दर्शयन् । स्वानिप्रेतनेदाऽन्नेदस्याज्ञादमकामानपि' तानङ्गीकारयितुमाह ।
comannananananananananananannamanna
आत्री पमता उतां पण जे कणनंगवादने स्वीकारे जे, तेनुं मोठं साहस ने. एवीरीते अढारमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
।२१। हवे (बौधशाखावाला) ताथागतो ते, कणक्यपदमां अन्योए कहेली सर्व व्यवहारोनी अप्राप्ति साननीने नीचे प्रमाणे अंगीकार करशे. पदार्थाने दणिपक' होते ते पण, वासनाना सामर्ययो मोल ने जन्म लेने एवा एकपणाना अध्यवसायें करीने, आ लोक अने परलोकसंबंधि व्यवहारनी प्रवृत्ति थवाश्री ‘कृतपणाशादिक' दोषो, एटले ‘करेलां कर्मोनो विनाश' आदिक दोषो आवतान नश्री; एवीरीतना ते तायागतोना अनिप्रायनो परिहार करवानी इच्छावाला एवा आचार्यमहाराज, तेनए कल्पनी वासनानु, कणपरंपराथी नेद, अनेद अने नही दाऽन्नेद, एवीरीतना त्रणे पदमां . पण नही घटवारणुं देखाहता थका, अने पोते मानला दाऽन्नेदरूप स्याादने नही इच्छता एवा पण ते ताथागतोने, ते स्याहादमत अं. गीकार कराववामाटे कहे .
१ । मकामयमानपि । इति द्वितीयपुस्तकपाठः ।।
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सा वासना सा सन्ततिश्च नाऽददाऽनुनयैर्घते । ततस्तटाsदर्शिशकुन्तपोतन्यायावदुक्तानि परे श्रयन्तु ॥ १७ ॥
ते वासनाने ते कणपरंपरा बन्ने, त्र्यनंद, नेद ने नही नेदानेद, एम त्रणे पदोत्रमे घटती नथी; माटे ( हे प्रभु ! ) ते पर एवा तायागतो, किनाराने नही जोता एवा पक्षींना बच्चांना उदाहरणत्री, व्यापना स्याहादरूप वचनो स्वीकारो ? ॥ १५ ॥
| १ | सा शाक्यपरिकल्पिता त्रुटितमुक्तावली कल्पानां परस्परविशकलितानां कणानामन्योऽन्यानुस्यूतप्रत्ययजनिका एकतन्तुस्थानीया सन्तानापरपर्याया वासना । वासनेति पूर्वज्ञानजनितामुत्तरज्ञाने शक्तिमाहुः । २ । साच कणसन्ततिस्तदर्शनमसिहा प्रदीपकलिकावन्नवनवोत्पद्यमानाऽपराऽपरसदृशकणपरंपरा । एते है अपि अनेदनेदाऽनुनयैर्न घटते । ३ । न तावदभेदेन तादात्म्येन ते घटेते । तयोर्हि -
| १ | ते शाक्ये (बुबे ) कल्पेली, त्रुटेली मोतीनी मालासरखा ने परस्पर विशकलित एवा दोनी एकबीजासाये संधायेलानी प्र तीति उत्पन्न करनारी ने एक तंतुमा रहेनारी तथा ' संतान ' बे बीजुं नाम जेनुं एवी वासना पूर्वकाने नृत्पन्न करेली एवी उत्तरज्ञानमां जे शक्ति, तेने वासना कहे बे. । २ । अने ते एटले ते बौधदर्शनमां प्रसिध्य एवी इण संतति, अर्थात् दीपकनी शिखानी पेठे नवीनवी नृत्पन्न यती एवी पर पर कणपरंपरा. एवीरीतनी ते वासना ने कणपरंपरा बन्ने अनेद, नेद ने नही मैदाऽनेद एम त्रणे पदोत्रमे घटती नी. (ते कहे . ) । ३ । अनेदें करीने एटले तादात्म्यपणात्रमे ते
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नेदे वासना वा स्यात् दणपरंपरा वा । न ध्यं । यदि यस्मादन्निनं न तत्ताः पृथगुपत्लन्यते । यथा घटात् घटस्वरूपं । केवलायां वासनायामन्वयित्वीकारः। वास्याऽनावे च किं तया वासनीयमस्तु । इति तस्या अपि न स्वरूपं वितिष्टते । कणपरंपरामात्राङ्गीकरणे च प्राञ्च एव दोषाः । ४ । न च नेदेन ते युज्यते । सा हि निन्ना वासना दणिका स्यादक्षिणका वा । दणिका चेत्तर्हि दणेभ्यस्तस्याः पृथक्कल्पनं व्यर्थ । अदणिका चेदन्वयिपदार्थाच्युपगमेनागमवाधः तथा च पदार्यान्तराणां दणिकत्वकल्पनाप्रयासो व्यसनमात्रम् । ५। अनुनयपदेणापि न वटेते । स हि कदाचिदेवं ब्रूयात् । नाहं वासनायाः कणश्रेणितोऽनेदं प्रतिपद्ये । न च नेदं । किं त्वनुनयमिति . तदप्यनुचितं । नेदाऽन्नेद
बन्ने घटती नश्री, केमके तेन्ना अनेदमां कांतो वासना होय, अथवा कांतो दणपरंपरा होय, परंतु बन्ने न होय, केमके जे जेनायी अनिन्न होय, ते तेनायी जू होतुं नश्री, जेम घटथी घटनुं स्वरूप. के. वन्न वासनामां अन्वयी स्वीकार ; अने वास्यनो अन्नाव होते बते तेणीनावमे शुं वासीशकाशे? माटे एवीरीते ते वासनानुं स्वरूप पण टकी शकतुं नश्री; अने मात्र दणपरंपरा स्वीकारवामां तो पूर्वनान दोषो
आवे . । । । हवे नेदवमे पण ते बन्ने घटीशकती नश्री, केमके ते निन्नवासना दणिक होय ? के अदणिक होय? जो दणिक होय तो कणोथी तेणीनी जूदी कल्पना करवी फोकट जे; अने तेम होते उते तो बीजा पदार्थोना दणिकपणानी कल्पनानो जे प्रयास करवो, ते फक्त व्यसनरूपन . । ५। हवे अनुन्नयपदवझे पण ते बन्ने घ. टती नश्री. (ते कहे डे) ते वादी कदाच एम कहे के, हुं वासनानो कणपरंपराथी अनेद स्वीकारतो नथी, तेम नेद पण स्वीकारतो नथी, परंतु अनुनय एटने नही अनेद अने नही नेद, एम स्वीकारुं बुं.
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योविधिनिषेधरूपयोरेकतरप्रतिषेधेऽन्यतरस्यावश्यं विधिनावादन्यतरपदाभ्युपगमस्तत्र च प्रागुक्त एव दोषः ।६। अथवाऽनुनयरूपत्वेऽवस्तुत्व. प्रसङ्गः।नेदाऽनेदलदणपदक्ष्यव्यतिरिक्तस्य मार्गान्तरस्याऽनस्तित्वात अनार्हतानां हि वस्तुना निन्नेन वा नाव्यमनिन्नेन वा । तउन्नयाऽतीतस्य वन्ध्यास्तनन्धयप्रायत्वात् । एवं विकल्पत्रयेऽपि दणपरंपरावासनयोरनुपपत्तौ पारिशेप्यानेदाऽनेदपद एव कदीकरणीयः । ७ । न च “प्र. त्येकं यो नवेदोषो यो वे कथं न सः” इति वचनादत्रापि दोषताइवस्थ्यमिति वाच्यं । कुक्कुटसर्पनरसिंहादिवज्जात्यन्तरत्वादनेकान्तपदस्य । ७ । नन्वाहतानां वासनादणपरंपरयोरङ्गीकार एव नास्ति । तत्कथं तदाश्रयन्नेदाऽनेदचिन्ता चरितार्या इति चेन्नैवं । स्याक्षाद
rrrrrrrrrrrrrrrrr rrrrrrrrrrrrrrrrrr-Fariwarmers पण वादीनुं ते कहे, उचित नथी, केमके विधिनिषेधरूप एवा नेदाऽनेदमांयी एकनो ज्यारे निषेध करवामां आवे, त्यारे बीजाना अबश्यविधिन्नावश्री बेमायी एक पदनो स्वीकार थायन, अने तेम करवामां तो पूर्वे कहेलोन दोष आवी नन्ने दे. । ६ । अथवा अनुनयस्वरूपपणामां अवस्तुपणानो प्रसंग थाय डे, केमके नेदाऽनेदनदणवाला वे मार्गाशिवाय त्रीनो मार्ग तो नश्री; कारणके जेन जैनमतने नश्री मा. नता, तेनए मानेलो पदार्थ कांतो निन्न होय अने कांती अनिन्न होय, केमके ते बे शिवाय त्रीनो पद तो (तेनमाटे) वैध्यापुत्र सरखो बे, अर्थात् नश्री. एवीरी ते त्रणे विकल्पोमां कणपरंपरा अने वासनानी उपपत्ति न होते ते बाकी रहेलो नैदाऽनेद पहज स्वीकारवालायक रह्यो. । । वन्नी 'एकमां ने दोष होय, ते बन्नेना नावमां केम न होय ? ' एवीरीतना वचनथी अहीं पण तेवोन दोष आवे बे, एम नही बोलवू; केमके कुकमसर्प तथा नरसिंहादिकनीपेवे अनेकांतपदने जात्यंतरपणुं . । ७ । जैनोने तो वासना अने दणपरंपरानो स्वीकारन
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३०१ वादिनामपि हि प्रतिक्षणं नवनवपर्यायपरंपरोत्पत्तिरनिमतैव । तथा च कणिकत्वं । अतीताऽअनागतवर्तमानपर्यायपरंपरानुसन्धायकं चान्वयि
व्यं । तच्च वासनेतिसंझान्तरनागपि अनिमतमेव । न खन्नु नामनेदानाद ः कोऽपि को विदानां । ए । सा च प्रतिक्षणोन्नविष्णुपर्यायपरंपराऽन्वयिद्रव्यात्कयंचिनिन्ना कयंचिदनिन्ना। तथा तदपि तस्याः स्यानिन्न स्यादनिन्नमिति । पृथक्प्रत्ययव्यपदेश विषयत्वान्नेदो ऽव्यस्यैव च तथा तथा परिणमनादन्नेदः । एतच्च सकनादेश विकलादेशव्याख्याने पुरस्तात्प्रपञ्चयिष्यामः ।१ अपि च बाइमते वासनापि तावन्नवदेते इति निर्विषया तत्र नेदादिविकल्पचिन्ता। तल्लदणं हि पूर्वदणेनो
नश्री, तो पठी तेउने लगतो नेदाऽनेदनो विचार तेनए शामाटे करवो मोइए? एम जो तुं कहोश, तो ते तेम नश्री; केमके स्याहादवादीनए पण कण कणप्रते नवानवा पर्यायोनी परंपरानी नत्पत्ति स्वीकारेलीन ने; अने एवीरीते तेनए दणिकपणुं मानेचं जे; वत्नी नूत, नविष्य अने वर्तमानकालना पर्यायोनी परंपराने जोमनारूं एवं चाव्युं आवतुं
च्य , के जेने संझतिरथी वासनारूपन मानेनुं ; अने नामना नेदयी विज्ञानाने कं विवाद होतो नयी. । ए । वत्ती कणेदाणे त्पन्नयती एवी ते पर्यायोनी श्रेणि, चाब्याावता इव्यश्री कयचिद निन्न जे, अने कयंचिद् अनिन्न डे, अने ते व्य पण ते पर्याय श्रेणियी कयंचिद् निन्न ने, अने कथंचिद् अनिन्न डे, अने एवीरीते निन्न प्रतीतिना व्यपदेशना विषयवालो होवाथी नेद ने, अने तेवा तैवा परिणमनश्री व्यनोन अनेद डे; अने ते संबंधि विशेष व्याख्यान सकलादेश अने विकलादेशना व्याख्यानसमये आगल करीशुं. । १०। वन्नी बौधमतमां वासना पण घटती नथी, माटे ते संबंधि नेदादिक विकल्पोनी चिंता विषय विनानी ने ; ते वासनानुं लक्षण एके,
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३०२ . त्तरदाणस्य वास्यता न चाऽस्थिराणां निन्नकालतयाऽन्योन्याऽसंबाना च तेषां वास्यवासक नावो युज्यते । स्थिरस्य संबस्य च वस्त्रादेर्मुगमदादिना वास्यत्वं दृष्टमिति । ११ । अथ पूर्वचित्तसहनाच्चेतना विशेषात्पू. वंशक्ति विशिष्टं चितमुत्पद्यते । सोऽस्य शक्ति विशिष्टचित्तोत्पादो वासना । तथा हि । पूर्वचित्तरूपादिविषयं प्रवृत्ति विज्ञानं यत्तत्षम विधं । पञ्च रूपादिविझानान्य विकल्पकानि । षष्ठं च विकल्प विज्ञानं । तेन सह जातः समानकातश्चेतनाविशेषोऽहंकारास्पदमात्रयविज्ञानं तस्मात्पूर्वशक्तिविशिष्ट चित्तोत्पादो वासनेति । १२ । तदपि न । अस्थिरत्वाहासकेनाऽसम्बन्धाच्च । यश्चासौ चेतनाविशेषः पूर्वचित्तसहनावी । स
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पूर्वदणे करीने नतरक्षण, वास्यपणुं ; अने अस्थिर तथा निन्नकालपणायें करीने परस्पर नही जोमायेला एवा ते कणोने वास्यवासकनाव घटतो नयी ; अने स्थिर तथा जोमायेला एवा वस्त्रादिकने कस्तूरीआदिकवमे वास्यपणुं देखायुं . ।११। (अहीं वादी कहे डे के ) पूर्वचित्तनीसाथे नत्पन्न थयेला चेतनाविशेषथी पूर्वशक्तियें करीने युक्त एवं चित उत्पन्न थाय जे, अने ते आनी शक्ति विशिष्ट चित्तनी उत्पत्तिरूप वासना . कह्यु के के, रूपादिकना बिषयोवाढं प्रवृत्तिविज्ञानरूप जे पूर्वचित्त, ते उ प्रकार, डे; तेमां पांच रूपादिकविझानो विकल्पविनानां , अने उतुं विकल्प विज्ञान डे; ते पूर्वचित्तनीसाथे नुत्पन्न थयेलो तुल्यसमयवालो जे चेतना विशेष, अर्थात् अहंकारना स्थानकरूप जे आलय विज्ञान, तेथी पूर्व शक्तियेंकरी ने युक्त एवी जे चित्तोत्पत्ति, ते वासना कहेवाय. । १२ । (हवे ते वादीने तनो नत्तर आप डे के ) तारुं ते कहेवू पण युक्त नश्री, केमके ते अस्थिर , तथा वासकसाथे संबंधविनानुं . वली पूर्वचित्तनी साथै थनारो जे आ चेतनाविशेष ले, ते वर्तमान चित्तप्रते उपकार करतो
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३०३ न वर्तमाने चेतस्युपकारं करोति । वर्तमानस्याऽशक्याऽपनेयोपने यत्वै. नाऽविकार्यत्वात् । तहि यया नूतं जायते तथा नृतं विनश्यति इति । १३ । नाप्यनागते नपकारं करोति । तेनसहासंवत्वात् । असंबई च न नावयतीत्युक्तं । तस्मात् सौगतमते वासनापि न घटते । अत्र च स्तुतिकारेणाऽज्युपेत्यापि तामन्वयिश्व्यस्थापनाय नेदादिचर्चा विरचितेति नावनीयम् । १४ । अथोत्तरार्धव्याख्या । तत इति पदत्रयेऽपि दोषसन्नावावऽक्तानि नवचनानि नेदानेदस्याहादसंवादपूतानि परे कुतीर्थ्याः प्रकरणान्मायातनयाः श्रयन्तु आश्यिन्तां ॥१॥ अत्रोपमानमाह । तटादर्शीत्यादि । तटं न पश्यतीति तटाऽदर्शी यः शकुन्तपोतः पदिशावकस्तस्य न्याय उदाहरणं तस्मात् । यथा किल 22
.......... नश्री; केमके वर्तमानने दूरकरवापणुं अने समीपलाववापणुं अशक्य होवाश्री, अविकारीपणुं जे; कारणके ते तो जेवू नत्पन्न थाय , तेवू नाश पामे . । १३ । वत्नी ते चेतना विशेष नविष्यकालना चित्तप्रते पण नपकार करतो नथी, केमके तेनीसाथे तेनो संबंध नथी; अने संबंधविनानुं तो लागु पमतुं नथी ते उपर कह्यु ; माटे एवीरीते बौधमतमां वासना पण घटती नथी. अहीं स्तुतिकारे ते वासनाने स्वीकारीने पण चाल्याावता एवा व्यनी स्थापनामाटे नेदादिकनी चर्चा करेली के एम जाणवू. । १५ । हवे काव्यना उत्तरार्धनुं व्याख्यान करे ले. तेथी एटले ते नपरं वर्ण वेला त्रणे पदोमां दूषण आववाथी (हे प्रनु !) आपनां नेदाऽनेदरूप स्याादसंवादथी पवित्र थयेला वचनोनो ते कुतीर्थीन एटले प्रस्तावथी ते बौधो आदर करो? ॥१॥ अहीं उपमा कहे . तटने एटले किनाराने जे नथी जोतुं ते तटाऽदर्शी कहेवाय ; एबुं जे पदिनु बच्चुं तेना उदाहरणश्री. अपार एवा समुनीअंदर अचानक पीगयेर्छ कागमाआदिकपदिनुं बच्चुं, बहार
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३०४ कश्रमप्यपारपारावारान्तःपतितः काकादिशकुनिशात्रको बहिनिर्निग मषया प्रवहणकूपस्तम्नादेस्तटप्राप्तये मुग्धतयोड्डीनः समंताजलेकार्णवमेवावलोकयंस्तटमदृष्ट्दैव निर्वेदाच्यावृत्य तदेव कूपस्तंना दिस्थानमाश्रयते । गत्यन्तराऽनावात् । एवं तेऽपि कुतीयाः प्रागुक्तपदत्रयेऽपि वस्तुसिभिमनासादयन्तस्त्वउक्तमेव चतुर्थ नेदाऽनेदपदमनिच्चया पि .दीकुर्वाणाः त्वच्छासनमेव प्रतिपद्यन्तां । नहि रवस्यवल विकलतामाकलय्य बन्नीयसः प्रत्नोः शरणाश्रयणं दोषपोषाय नीतिशालिनां । १६ । त्वउक्तानीतिबहुवचनं सामपि तन्त्रान्तरीयाणां पदे पदेऽनेकान्तवादप्रतिपत्तिरेव यथाऽवस्थितपदार्थप्रतिपादनौपयिकं नान्यदिति झापनार्थ । अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः सर्वनयात्मकेन स्याादेन विना यथावद् ग्रहीतुमशक्यत्वात् । इतरथाऽन्धगजन्यायेन पल्लवयाहिताप्रसङ्गात् । १७ ॥
निकलवानी इच्छाथी, वहाणना कुवाधनादिकथी किनारो मेनववामाटे मुग्धपणावमे उड्याबाद चोतरफ केवल पाणीमयज जोतुंयकुं, किनाराने नही जोश्ने, थाकीने पाचुं वली ने, बीजो आधार नही मनवाथी जम तेज कुवाननो आश्रय ले ले, तेम ते कुती न पण पूर्व कहेला त्रणे पदोमां वस्तुसिदिने नही मेलवता यका, आप कहेला नेदाऽनेदरूप चोया पदन, इच्छाविना पण अंगीकार करतायका आपना शासननेन स्वीकारो ? केमके पोताना बलनी विकलता जोइने, बनवान् स्वामीन ने शरणुं नेवू, ते नीतिवानो माटे दूषणयुक्त नश्री. । १६। अहीं ' त्वउक्तानि ' ए बहुवचनांतपद, सर्वे अन्यदर्शनीनने पगलेपगने अनेकांत वादनो स्वीकारज यथार्थ वस्तुना स्विकारमाटे न. पायनूत , पण बीजं कंई नपायन्नत नश्री, एम जणाववामाटे डे, केमके अनंतधर्मवालो पदार्थ सर्वनयरूप स्याहादविना ग्रहण करी शकातो नथी: अने जो ते स्याहादने न स्वीकारे, तो 'आंधला अने
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३०५ श्रयन्तीति वर्तमानान्तं के चित्पन्ति तत्राप्यदोषः । अत्र च समुस्थानीयः संसारः । पोतसमान त्वच्यसनं । कूपस्तंनसन्निनः स्याहादः । पदिपोतोपमा वादिनः। ते च स्वानिमतपदप्ररूपणोम्यनेन मुक्तिलदणतटप्राप्तये कृतप्रयत्ना अपि तस्मादिष्टार्थसिमिपश्यन्तो व्यावृत्य स्याहादरूपकूपस्तंनासंकृततावकीनशासनप्रवहणोपसर्पणमेव यदि शरएणीकुर्व ते तदा तेषां नवार्णवाहिनिष्क्रमणमनोरथः सफलातां कलयति। नाऽपरथेति काव्यार्थः' । . । १७ । एवं क्रियावा दिनां प्रावाकानां कतिपयकुग्राह निग्रहं वि
हाश्रीना' न्यायें करीने देशग्राहिपणानो प्रसंग आवे. । १७ । अहीं 'श्रयंतु ' ने बदले 'श्रयंति' एवं वर्तमानांत पद केटनाको कहे जे, तेमां पण कं दूषण नयी. वत्नी अहीं समुश्ने स्थानके संप्सार जाणवो. वहाणसमान आपनुं शासन. कुत्रार्थनसरखो स्याक्षाद. पदिना बच्चा सरखा वादीन; अने ते वादीन पोते मोनेला पदना प्ररुपणरूप उमत्रायें करीने मुक्तिरूप किनारानी प्राप्तिमाटे प्रयत्न करता थका पण, तेथी ईष्ट अर्थनी सिइिने नही जोतायका, पाग वतीने स्याहादरूप कुवार्थनथी शोन्नता एवा आपना शासनरूपीन वहाणपर जो चमवानुं स्वीकारे, तो तेन्ना नवरूपी समुश्मांधी बहार निकलवानो मनोरथ सफल थाय; परंतु बीनीरीते सफल न थाय ; एव। रीते नगणीसमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
। १७ । एवीरीते क्रियावादी वादीनना केटनाक कदाग्रहोगें खं
१ अथवा शकुन्तपोतयोयं यः स इत्यपि व्याख्यानं स्वधिया भावनीयम् । अत्र पोतशब्देन प्रवहणमुच्यते ॥ इति द्वितीयपुस्तकाधिकः पाठः ॥ = अर्थः = अथवा ते. पक्षी अने वहांणनो न्याय एवीरीतनुं व्याख्यान पण पोतानी बुद्धिपूर्वक जाणी लेवू । अहीं पोत शब्देकरीने वहाण कवाय छ।
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धाय सांप्रतमक्रियावादिनां लोकायतिकानां मतं सर्वाधमत्वादन्ते नपन्यसन् तन्मतमूल्यस्य प्रत्यक्षप्रमाणस्यानुमानादिप्रमाणान्तरानङ्गीकारेऽकिश्चित्करत्वप्रदर्शनेन तेषां प्रायाः प्रमादमादर्शयति ।
विनाऽनुमानेन परालिसन्धि__ मसंविदानस्य तु नास्तिकस्य ॥ न सांप्रतं वक्तुमपि क्व चेष्टा ।
क दृष्टमात्रं च हहा प्रमादः ॥ २० ॥ __ अनुमानविना परना अनिप्रायने नही जाणता एवा नास्तिकने बोलवू पण युक्त नश्री ; केमके क्यां चिन्ह ! अने क्या प्रत्यद ! अहो ! ते नास्तिकनुं प्रमत्तपणुं ! ॥ २० ॥
।। प्रत्यमेवैकं प्रमाण मिति मन्यते चार्वाकस्तत्रसंनद्यते । अनु पश्चालिङ्गलिङ्गिसम्बन्धग्रहणस्मरणानन्तरं मीयते परिच्छिद्यते देशकालचन्नाव विप्रष्टोऽर्थोऽनेन ज्ञानविशेषणेत्यनुमानं । प्रस्तावात्स्वार्था
मन करीने, हवे अक्रियावादी एवा नास्तिकोनो जे मत, ते सर्वथी अधम होवाथी तेने श्रो स्थापता थका, तेना मतनुं मूलरूप जे प्रत्यदप्रमाण, ते अनुमानादिक प्रमाण नही स्वीकारते बते कं; पण उपयोगर्नु नश्री, एम देखामवावमे करीने, ते नास्तिकोनी बुझ्निो प्रमाद देखा जे.
।। नास्तिक डे ते एक प्रत्यक्ष प्रमाण नेन माने , तेनुं हवे खमन कराय जे. अनु एटले पाउलश्री अर्थात् लिंग अने लिंगीना संबंधना ग्रहण अने स्मरण पठी, देश, काल अने स्वन्नावे करीने दूर एवा पदार्थ, जे झानविशेषवमे परिच्छेदन कराय, ते अनुमान कहेवाय. अहीं प्रस्तावथी स्वार्थानुमान जाणवू ; ते अनुमान एटखे.
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नुमानं । तेनानुमानेन लैङ्गिकप्रमाणेन विना पराभिसन्धिं परानिप्रायमसंविदानस्य सम्यगजानानस्य । २ । तुशब्दः पूर्ववादिभ्यो दद्योतनार्थः । पूर्वेषां वादिनामास्तिकतया विप्रतिपत्तिस्थानेषु कोदः कृतः । नास्तिकस्य तु वक्तुमपि नौचिती । कुत एव तेन सह कोद इति तुशब्दार्थः । ३ । नास्ति परलोकः पुण्यं पापमिति वा मतिरस्य " नास्तिकादैष्टिकमिति " निपातनान्नास्तिकस्तस्य नास्तिकस्य लोकायतिकस्य वक्तुमपि न सांप्रतं वचनमप्युच्चारयितुं नोचितं । ततस्तूष्णींनाव एवास्य श्रेयान् । दूरे प्रामाणिकपरिषदि प्रविश्य प्रमाणोपन्यासगोष्टी | ४ | वचनं हि परप्रत्यायनाय प्रतिपाद्यते । परेण चाप्रतिपित्सितमर्थ प्रतिपादयन्नसौ सतामवधेयवचनो भवति उन्मत्तवत् । ५ । ननु क
"
लैंगिक प्रमाणविना परना अभिप्रायने सारीरीते नही जाणता एवा नास्तिकने तो बोल पण नत्रित नथी । २ । अहीं ' तु ' शब्द पूर्ववादिनश्री ते नास्तिकनो भेद देखामवामाटे बे. पूर्वोक्त वादीन - स्तिक होवाथी तेजना उलटा अंगीकारोनुं खंमन कर्तुं बे, परंतु नास्तिकने तो बोल पण नुचित नयी, तो पछी तेनीसा ऊगको शामाटे करवो जोइए ? एवीरीतनो ' तु' शब्दनो अर्थ बे । ३ । परलोक, पुएय के पाप नयी, एवी जेनी बुद्धि बे, ते नास्तिक कहेवाय. 'नास्तिकादैष्टिकं ' एवीरीतना निपातनयी ' नास्तिक' शब्द थयो बे. एवीरीतना नास्तिकने तो वचन पण नचारखुं नचित नश्री ; माटे तेने प्रामाणिकोनी सजामां दाखल थइने प्रमाणने स्थापवानी वात तो दूर रही, परंतु तेने तो मुंगा रहेवुंज सारुं बे. । ४ । वचन बे ते परने प्रतीतिकराववामा प्रतिपादन कराय बे ; मने परे नही प्रतिपादनकरवाने इच्छेला अर्थने प्रतिणदन करतो एवो या नास्तिक, उन्मत्तनीपेठे विद्वानोप्रते त्र्वधेय एटले नहीं स्वीकारवालायक वचनवालो याय:
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३०७ थमिव तूष्णीकतैवास्यश्रेयसी । यावता चेष्टाविशेषादिना प्रतिपाद्यस्यानिप्रायमनुमाय सुकरमेवानेन वचनोच्चारण मित्याशङ्कयाह । क चेष्टा क्क दृष्टमात्रं चेति । क्वेति बृहदन्तरे। चेष्टा इङ्गितं परानिप्रायरूपस्यानुमेयस्य लिङ्गं क । च दृष्टमानं दर्शनं दृष्टं । नावे क्तः । दृष्टमेव दृष्टमात्रं । प्रत्यकमात्रं । तस्य लिंगनिरपेदप्रवृत्तित्वात् । अत एव दूरमन्तरमेतयोः । न हि प्रत्यदेणातीनिश्याः परचेतोवृत्तयः परिझातुं शक्यास्तस्यैनिश्यकत्वात् । मुखप्रसादादिचेष्टया तु लिंगनूतया परानिप्रायस्थ निश्चयेऽनुमानप्रमाणमनिच्छतोऽपि तस्य बलादापतितं ।।। तथा हि । मञ्चनश्रवणाऽनिप्रायवानयं पुरुषस्तादृग् मुखप्रसादादिचे
rrrrrrrrrrrrrrrr ३. । ५। आ नास्तिकने मुंगारहेवून शामाटे सारूं ? केमके चेष्टाविशेषादिकवमे प्रतिपाद्यना अनिप्रायनुं अनुमान करीने, तेने वचन बोल तो सेहेलुज डे, एवी आशंका करीने हवे कहे डे के, क्यां चेष्टा? अने क्या प्रत्यकमात्र? अहीं 'क्व' शब्द मोटा अंतरमाटे डे. चेष्टा एटले इंगित, अर्थात् परना अनिप्रायरूप अनुमेयन लिंग. ते लिंग क्यां? अने दृष्टमात्र एटले प्रत्यदमात्र क्यां? (अहीं 'दृशने ' नावअर्थमा 'क्त' थयो .) केमके प्रत्यद तो लिंगनी अ. पेदा नही राखनारी प्रवृत्तिपालु डे; माटे ते लिंग अने प्रत्यवच्चे मोटुं अंतर डे; केमके परना चित्तमा रहेला अतींघिय अभिप्रायो प्रत्यदप्रमाणव जाणीशकाता नथी, केमके ते प्रत्यदने तो इंख्यिवि. षयपणुं ; अने मुखप्रसादादिक चेष्टा से लिंगनूत होवाथी, तेवमे परना अभिप्रायनो निश्चय करवामां, नही इच्छता एवा पण ते नास्तिकने पराणे अनुमानप्रमाण मानवानुं आवी पड्यु. ।६। ते नास्तिक कहे जे के 'आ पुरुष मारा वचनाने सांनलवाना अनिप्रायवालो लागे ने, केमके जो तेम न होय, तो तेवीरीतनी तेनी मुखप्रसादादिक
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३०ए
टाऽन्यथाऽनुपपत्ते रिति । अतश्च हहा प्रमादः। हहा इति खेदे अहो तस्य प्रमादः प्रमत्तता । यदनुन्नयमानमप्यनुमानं प्रत्यक्षमात्राङ्गीकारेणापन्हुते । ७ । अत्र च संपूर्वस्य वेत्तेरकर्मकत्वे एवात्मनेपदं । अत्र तु कर्मास्ति । तत्कयमत्रानश । अत्रोच्यते । अत्र संवेदितुं शक्तः संविदान इति कार्य । " वयःशक्तिशील” इति शक्तौ शान विधानात् ) ततश्चायमर्थोऽनुमानेन विना परान्निसंहितं सम्यग्वेदितुमशक्तस्येति ।। एवं परबुझिानाऽन्यथाऽनुपपत्त्याऽयमनुमानं हगदङ्गीकारितः । तथा प्रकारान्तरेणाप्ययमङ्गीकारयितव्यस्तथा हि । ए। चार्वाकः काश्चित झानव्यक्तीः संवादित्वेनाऽव्यभिचारिणीरूपत्तन्यान्याश्च विसंवादित्वेन
चेष्टा थाय नही.' माटे हहा! इति खदे, ते नास्तिकनो केटलो बधो प्रमाद डे ? के प्रत्यक्षमात्रना अंगीकारवमे अनुन्नवाता एवा पण अनुमानने ते नलवे डे !! ।। (अहीं ' सम् ' नपसर्ग डे पूर्वे जेने एवी 'विद्' धातुने अकर्मकपणामांन आत्मनेपदीरूप थाय डे, अने अहीं तो कर्म डे, तो पड़ी अहीं 'पानश' केम आवेन डे ? तेने माटे कहीये डीये. अहीं संवेदवाने जे शक्तिवान् ते 'संविदानः ' एम करवू. केमके " वयः शक्तिशीन" ए सूत्रयी शक्तौ शान आवेन डे.) माटे एवो अर्थ जाणवो के, अनुमानप्रमाण विना परना अन्निप्रायन सारीरीते जाणवाने नास्तिक शक्तिवान् नयी. । । एवीरीते परनी बुझिना छाननी अन्यथाप्रकारे अप्राप्ति होवाथी, आ नास्तिकने बलात्कारे अनुमानप्रमाण अंगीकार करावQ पमे ले. वन्नी बीजा प्रकारथी पण तेने नीचे प्रमाणे अनुमानप्रमाण अंगीकार करावQ. ते कहे ने.। ए | चार्वाक एटले ना स्तिक डे ते केटनीक ज्ञानव्यक्तिनने संवादिपणावमे व्यन्निचार विनानी, अने बीजी ज्ञानव्यक्तिन्ने विसंवादिपणावमे व्यनिचारवानी स्वीकारीने, तथा वन्नी कालांतरे तेवी अने
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व्यभिचारिणीः । पुनः कालान्तरे तादृशीतराणां ज्ञानव्यक्तीनामवश्यंप्रमाणेतरते व्यवस्थापयेत् । १० । न च सन्निहितार्थ बलेनोत्पद्यमानं पूर्वापरपरामर्शशून्यं प्रत्यक्षं पूर्वापरकालनाविनीनां ज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापकं निमित्तमुपलक्षयितुं मते । न चायं स्वप्रतीतिगोचराणामपि ज्ञानव्यक्तीनां परं प्रति प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा व्यस्थापयितुं प्रभवति । ११ । तस्माद्यथादृष्टज्ञानव्यक्तिसाधर्म्यरिणेदानीन्तनज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याऽप्रामाण्यव्यवस्थापकं परप्रतिपादकं च प्रमाणान्तरमनुमानरूपमुपासीत । परलोकादिनिषेधश्च न प्रत्यक्षमात्रेण शक्यः कर्तुं । संनिहितमात्रविषयत्वात् तस्य । १२ । परलो - कादिकं चाप्रतिषिध्य नायं सुखमास्ते । प्रमाणान्तरं च नेच्छतीति किं
तेथी इतर एवी ज्ञानव्यक्तिनुं निश्चयें करी ने प्रमाणपणुं ने प्र माणपणुं स्थापन करे. | १० | पण नजदीक रहेला पदार्थना सामर्थ्यवमे उत्पन्न यतुं ने आगल पालना विचारविनानुं एवं प्रत्यक्षप्र माण बे ते, पूर्वापरकाले श्रनारी ज्ञानव्यक्तिजना प्रमाणपणाने अने प्रमाणपणाने स्थापन.रा निमित्तने नलखवाने समर्थ श्रतुं नथी. वली
नास्तिक बे ते, पोताने प्रतीत श्रती एवी पण ज्ञानव्यक्तिननुं प्रमालपणुं अथवा अप्रमाणपणुं परमते स्थापवाने शक्तिवान् श्रतो नथी. | ११ | तेश्री जेवी दीठी तेवी ज्ञानव्यक्तिना साधारव करीने, अहींनी ज्ञानव्यक्तिना प्रमाणपणाने ने प्रमाणपणाने स्थापनारा,
नेपरने स्वीकार करावनारा, एवा अनुमानरूप बीजा प्रमाणने तेणे स्वीकार जोइये. वली परलोकादिकनो निषेध मात्र प्रत्यक्षप्रमाएवमे कई श्रइ शकतो नश्री, केमके ते प्रत्यक्षप्रमाण तो मात्र नजदीकना विषयवालुं छे. । १२ । वली परलोकादिकने निषेध्याविना तो ते नास्तिकने सुख वलतुं नथी; अने बीजा प्रमाणने
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३११ नहेवाकः । किं च प्रत्यकस्याप्यर्थाऽव्यनिचारादेव प्रामाण्यं । कथमितरथा स्नानपानाऽवगाहनाद्यर्थक्रियाऽसमर्थे मरुमरीचिका निचयचुम्बिनि जलझाने न प्रामाण्यं । तच्चार्थप्रतिबइलिंगशब्दारा समुन्मजतोरनुमानागमयोरप्याऽव्यभिचारादेव किं नेप्यते । १३ । व्यनिचारिणोरप्यनयोर्दर्शनादप्रामाण्य मिति चेत् प्रत्यदस्यापि तिमिरादिदोपानिशीथिनीनाश्रयुगनावन्न म्बिनोऽप्रमाणस्य दर्शनात् सर्वत्राऽप्रामाएयप्रसंगः । प्रत्यदानासं तदिति चेदितरत्रापि तुल्यमेतदन्यत्र पक्षपा तात् । १४ । एवं च प्रत्यक्षमात्रेण वस्तुव्यवस्थाऽनुपपत्तेस्तन्मूला जीवपुण्याऽपुण्यपरलोकनिषेघादिवादा अप्रमाणमेव । एवं नास्तिकानि
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तो ते इच्छतो नश्री, माटे एवीरीते ते नास्तिक बान्नख्यालीवो जे. वन्नी प्रत्यक्ने पण पदार्थना अव्यभिचारथीन प्रमाणपणुं छे, अने जो तेम न होय तो, स्नान, पान तथा अवगाहनादिक क्रियामां असमर्थ एवा पण निर्जलप्रदेशमा रहेला मृगतृष्णाना समूहसंबंधि जलज्ञानमां शामाटे प्रमाणपणुं न थाय? वन्नी ते प्रमाणपणुं, पदार्थसाथे जोमाएला लिंग अने शब्दधाराए लागु पमता अनुमान अने आगमप्रमाणने पण पदार्थना अव्यनिचारथीन शामाटे न कहेवाय ? 1 १३ । ते अनुमान अने आगमप्रमाण तो व्यभिचारवाला पण देखावाथी तेन्ने प्रमाणपणुं नथी, एम जो कहीश, तो तिमिरादिक रोगना दोषथी बे चंशेने देखामतुं एवं प्रत्यक्षप्रमाण पण अप्रमाणरूप देखावाथी सर्व जगोए अप्रमाणप. णानो प्रसंग थशे. हवे जो कहीश के, ते तो प्रत्यदानास डे, तो जो पदपात राख्या विना कहीश, तो ते अनुमान अने आगमप्रमाणमां पण तेमन . । १४ । एवीरीते मात्र प्रत्यक्षप्रमाणश्री पदार्थोनी व्यवस्थानी अप्राप्ति श्रवाश्री, तेना मृतरूप एवा जीव,
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-३१२ मतो नृतचिझादोऽपि निराकार्यः । तथा च व्यालंकारकारः । उपयोगवर्णने । १।। न चायं नूतधर्मः । सत्त्वक विनत्वादिवन्मद्याङ्गेषु चम्यादिमदशक्तिववा प्रत्येकम नुपर्तनात् । अनन्निव्यक्तावात्मसिदिः। कायाकारपरिणतेच्यस्तेन्यः स नत्पद्यत इतिचेत्कायपरिणामोऽपि तन्मात्रनावी न कादाचित्कः । अन्यस्त्वात्मैव स्यात् । अहेतुत्वे न दे. शादिनियमः । मृतादपि च स्यात् । शोणिताद्युपाधिः सुप्तादावप्यस्ति न च सतस्तस्योत्पत्तिः नूयोन्यःप्रसंगात् । १६ । अलव्यात्मनश्च
पुण्य, पाप तथा परलोकादिकना निषेधादिक वचनो अप्रमाणरूपन श्रशे. वनी एवीरी ते नास्तिकेमानेली पंचनतोश्री यती चेतनशक्तिनुं पण खमन करवू. उपयोगना वर्णनमां व्यालंकारना कती कहे डे के- ।१५। आ उपयोग में ते, पंचनतोनो धर्म नश्री, केमके उतापणुं तथा कग्निपणुं इत्यादिकनीपेठे, अथवा मद्यांगोमां चमितपणादिक मदशक्तिनीपेठे, ते उपयोग दरेक नूतोमा मन्त्री
आवतो नयी; अने ज्यारे ते उपयोग एवीरीते नूतोमां प्रगट नथी जणातो, त्यारे आत्मा बे, एवं सिह थाय बे. शरीर ना आकाररूप ज्यारे ते नूतो परिणमे बे, त्यारे तेनश्री ते उपयोग नुत्पन्न थाय , एम जो कहीश, तो ते कायपरिणाम पण तन्मात्रनावी , पण कादाचित्क नथी. अने जो ते नपयोग पंचन्नतोश्री जूदो होय, तो ते आत्माज . अहेतुपणामां देशादिकनो नियम रहेतो नथी. वन्नी कायपरिणाम जो नपयोगनो हेतु होय, तो ममदामांथी पण ते उपयोग थाय. वली जो कहीशके, ममदांमां रुधिर नथी, तो रुधिरादिकनी नपाधि नं घेतायादिकमां पण जे, पण वारंवार थवाना प्रसंगथी ते जंघेलाने ते उता एवा उपयोगनी उत्पत्ति थती नथी. । १६ । वली जे अब तो डे, तेने .
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मसिमर्थक्रियाकारित्वं विरुध्यते । अतः सकलशक्ति विकलस्य कयमुत्पत्ती कर्तृत्वमन्यस्यापि प्रसंगात् । तन्न नूतकार्यमुपयोगः | १७| कुतस्तर्हिसुप्तोत्थितस्य तत्रदयोऽसंवेदनेन चैतन्यस्याऽनावात् । न । जाग्रदवस्याऽनुनृतस्य स्मरणात् । संवेदनं तु निशेपघातात् | १०| कथं तर्हि का यविकृतौ चैतन्य विकृतिनैकान्तः । श्वित्रादिना कश्मलवपुषोऽपि बुद्धिशुः । त्र्यविकारेच जावनाविशेषतः प्रीत्यादिनेददर्शनात् । शोकादिना बुद्दिविकृतौ काय विकाराsदर्शनाच्च । १९५| परिणामिना विना च न कार्योत्पत्तिः । न च तान्येव तया परिणमन्ते विजातीयत्वात् । काठिन्यादेरनुपलम्नात्
अर्थक्रियाकारिपणामां विरोध यावे, केमके अन्य एवा शशशृंगादिकने पण ते प्रसंग यतो होवाथी सर्वशक्तिरहित एवा तानी उत्प तिमा कर्तापि क्यांश्री आावे? माटे उपयोग के ते, पंचभूतानुं कार्य नश्री. | १७ | नहीं मालुम पमवावमे करीने चैतन्यना अनावधी, घीनबेलाने ते उपयोगनो उदय त्यारे क्यांश्री श्राय बे ? एम जो कहीश, तो ते युक्त नथी; केमके जागती व्यवस्थामां जे अनुभव्यं होय, तेनुं स्मरण थाय बे; त्र्मने नही मालुमपमवापणुं तो निशाना उपघातश्री बे. | १० | त्यारे कायानो विकार होते ते शुं चैतन्यनो पण विकार थाय? तोके तेतुं एकांत नथी; केमके श्वेतकोढादिकवमे रोगीष्ट शरीरबालानी पण शुद्ध देखाय बे. वली त्र्यविकारमां भावनाविशेषथी प्रीत्यादिकभेद देखाय बे तथा शोकादिकवने बुझिनो विकार होते ते कायानो विकार देखातो नथी । १९ । वझी परिणामी विना कार्यनी उत्पत्ति यती नयी तेम ते पंचतोज तेवीरीत एटले उपयोगरूप परिणमता नयी, केमके तेन विजातीय बे; कारणके ते उपयोगमां का
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|२०| अव एव चेयग्राह्यत्वरूप स्थूलतां प्रतिपद्यन्ते । तज्जात्यादि चोपलभ्यते । तन्न जतानां धर्मः फलं वा उपयोगः | २१ | तथा नवांश्च यदाक्षिपति तदस्य लक्षणं । सचात्मा स्वसंविदितः । नृतानां तथाजावे बहिर्मुखं स्याज्ञैौरोऽहं इत्यादि तु नान्तर्मुखं । बाह्यकरणजन्यत्वात् । त्र्यनच्युपगतानुमानप्रमाणस्य चात्मनि निषेधोऽपि दुर्जनः । = धर्मः फलं च जताना मुपयोगो भवेद्यदि । प्रत्येकमुपलम्नः स्या उत्पादो वा विलक्षणात् ॥ = इति काव्यार्थः ॥
| २२| एवमुक्तियुक्तिनिरेकान्तवादप्रतिक्षेपमाख्याय सांप्रतमनाद्यविद्यावासनाप्रवासितसन्मतयः प्रत्य कोपलक्ष्यमाणमपि अनेकान्तवाद ये
विन्यादिकनी प्राप्ति बे । २० । वली परमाणुनंज इंडियग्राह्यप
रूप स्थूलपणाने पामे बे, अने तेनी जातिव्यादिकमले बे; माटे उपयोग बे ते, पंचतोनो धर्म, श्रवा तेजनुं फल नथी । २१ । वली तुं जे आप करे बे, तेज ए आत्मानुं लक्षण बे. मने ते आत्मा स्वसंविदित. अने ते पंचतनी तो ते स्वसंविदितनावमां बहिर्मुख प्रतिति श्राय, तेम ' हुं गौर बुं' इत्यादिक पण अंतरर्मुख प्रतीति नथी; केमके ते तो बाह्यइंडिश्री नृत्पन्न थाय बे. वली जेणे अनुमानप्रमाण स्वीकार्य नथी, एवा ते नास्तिकने आत्मानो निषेध करतो पण उर्लन बेबी उपयोग ने ते, जो भूतोना धर्मरूप ने फलरूप होय, तो दरेक नृतमां ते उपयोगनी प्राप्ति थाय अथवा ( निववृक्थी जेम यांवानी उत्पत्ति ) तेम दरेक कोई विलक्षणथी ते उपयोगनी उत्पत्ति यशे !! एवीतेवीसमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
| २२ | एवी सिद्धांतवचनोवमे तथा युक्तिनवमे एकांतवादनुं मन कहीने, हवे अनादिकालना अज्ञाननी वासनाथी नष्ट थयेली बे. सद्बुद्धि जेवनी, एवा जे माणसो, प्रत्यक्ष देखाता एका पण ने
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३१५ ऽवमन्यन्ते तेषामुन्मत्ततामाविनवियन्नाह ।
प्रतिक्षणोत्पाद विनाशयोगि
स्थिरैकमध्यदमपीक्षमाणः ॥ जिन वदाझामवमन्यते यः ।
स वातकी नाथ पिशाचकी वा ॥१॥ हे! जिनेश्वर प्रन्नु! दरेक कणे नत्पत्ति अने विनाशेंकरीने युक्त एवी स्थिरतावाला एक इव्यने प्रत्यदरीते जोतो एवो पण जे माणस
आपनी आझानी अवगणना करे जे, ते माणस, हे स्वामी! कां तो वातुन ( वाएल ) अथवा (पशाचग्रस्त जे. ॥ ११ ॥
।१। प्रतिदणं प्रतिसमयमुत्पादेनोत्तराकारस्वीकाररूपेण विनाशेन च पूर्वाकारपरिहारलदणेन युज्यत इत्येवंशीलं प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगि । किं तत् स्थिरैकं कर्मतापन्नं । स्थिरमुत्पाद विनाशयोरनुयायित्वात् त्रिकालवर्ति । यदेकं व्यं स्थिरैकं ।। एकशब्दोऽत्र साधारणवाची। नत्पादे विनाशे च तत्साधारणमन्वयिश्व्यत्वात् ।
कांतवादनी अवगणना करे ,तेउनु उन्मतपणुं प्रगटकरताथका कहे जे.
।। समयसमयप्रते उत्तराकारना स्वीकाररूप नुत्पत्तिकमे अने पूर्वाकारना त्यागरूप विनाशवमे करीने युक्त जे होय ते, दणदणप्रते नत्पति अने विनाशना योगवाद्धं कहेवाय. ते शुं? तोके स्थिर एq एक. स्थिर एटले नत्पत्ति अने विनाशने अनुसरतुं होवाथी त्रणे का
लमा वर्तनालं. एq जे एक इव्य, ते स्थिरैक कहेवाय. ।। अहीं .. एक शब्द साधारणवाची ले. अर्थात् नत्पत्ति अने विनाशमां ते अ
न्वयी इव्य होवाथी साधारण जे. जेम चैत्रनी अने मैत्रनी एक सा -धारण माता. एवीनरी ते ते नत्पित्ति अने विनाश, एम बोल एका
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यथा चैत्रमैत्रयोरेका जननी साधारण त्यर्थः । इत्यमेव हि तयोरेकाधि. करणता । पर्यायाणां कथंचिदनेकत्वेऽपि तस्य कचिदेकत्वात् । ३ । एवं त्रयात्मकं वस्तु अध्यदमपीदमाण: प्रत्यदमवलोकयन्नपि । हे जिन रागादिनैत्रत्वात् । आझां आ सामस्त्येनानन्तधर्मविशिष्टतया झायन्तेऽवबुझ्यन्ते जीवादयः पदार्था यया सा आशा आगमः शासनं । तवाझा त्वदाझा तां त्वदाझा नवत्प्रणीतस्यावादमुशं यः कश्चिदविवेकी अवमन्यतेऽवजानाति (जात्यपेमेकवचनमवजया वा) स पुरुषपशुवातकी पिशाचकी वा।।। वातो रोगविशेषोऽस्यास्तीति वातकी वातकीव वातकी वातून इत्यर्थः । एवं पिशाचकीव पिशाचकी नृताविष्ट इत्यर्थः । अत्र वाशब्दः समुच्चयार्थः नपमानार्थो वा ! स पुरुषापषदो वातकिपिशाचकि
धिकरणपणुं ले ; केमके पर्यायोने कथंचित् अनेकपणुं होते ते पण श्व्यने कथंचित् एकपणुं . । ३ । एवीरीते नत्पत्ति, विनाश अने स्थिरता, एम त्रयात्मक पदार्थ ने प्रत्यक्ष जोतो एवो पण (जे अविवेकी माणस, हे जिनेश्वर प्रन्नु ! आपनी आज्ञानी अवगणना करे डे, ते वातुन अथवा पिशाचग्रस्त , एवो अहीं संबंब डे.) 'आ' ए. टले समस्तपणायें करीने, अर्थात् अनंतधर्मविशिष्टपणायें करीने जीवादिक पदार्थो जेनावमे जणाय डे, ते आझा एटले आगम अथवा शासन. एवी आपनी आझानी एटले आपनी रचेली स्याहादमुशनी जे कोइ अविवेकी माणस अवगणना करे ले (अहीं जातिनी अपेकाये अथवा अवझावझे एकवचन आपेठे बे.) ते पशुसरखो पुरुष वातकी अथवा पिशाचकी . ।।। वायु नामनो रोगविशेष जेने होय, ते वातकी एटले वातुन ( वाएल ) कहेवाय. एवीजरीते पिशाचकी.एटले लूताविष्ट. अहीं 'वा' शब्द समुच्चय अर्थे ठे, अथवा नपमानार्थे ले. अर्थात् ते नीच माणस वाएल अथवा नूतग्रस्त माण
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घ्यामधिरोहति तुनामित्यर्थः (" वातातीसार पिशाचात्कश्श्रान्तः " ईत्यनेन मत्वर्थी यः । कश्रान्तः ) एवं पिशाचकीत्यपि । ५ । यथा किल वातेन पिशाचेन वाडाक्रान्तवपुर्वस्तुतत्वं साक्षात् कुर्वन्नपि तदावेश्वशादन्यया प्रतिपद्यते एवमयमपि एकान्तवादापस्मार परवश इति । ६ । छात्र च जिनेति साभिप्रायं । रागादिजेतृत्वादि जिनस्ततश्च यः किल विगलितदोषका लुप्यतया विधेयवचनस्यापि तत्रभवतः शासनमवमन्यते तस्य कथं नोन्मत्ततेति भावः | ७ | नाथ हे स्वामिन् लब्धस्य सम्यग्दर्शनादेर्लनकतया । लब्वस्य च तस्यैव निरतिचारपरिपालनोपदेशदायितया च योगक्षेमकरत्वोपपत्तेर्नाथस्तस्यामन्त्रणं । ० । वस्तुतत्वं च
सनी तुल्यताने धारण करे वे, वो अर्थ जाणवो. ( " वातातीसारपिशाचात्कश्श्रांतः " ए सूत्र मे मत्वर्थी 'य' ते ' क ' आवेलो बे.) एवीरीते " पिशाचकी " शब्द पण जाणीलेवो. । ५ । वायु - यत्रापिशाचेकरीने याक्रांत शरीरवालो माणस वस्तुतत्वने साक्षात् जोतो को पण, जैम ते वातादिकना आवेशयी, तेथी तुलटीरीते अंगीकार करे छे, तेम या माणस पण एकांतवादरूपी अपस्मारयी ( रोग विशेषी ) परवश थयेलो बे. । ६ । यहीं 'जिन' शब्द - निप्राययुक्त. एटले रागादिकाने जितनार होवाथी 'जिन' कहे वायळे; अने तेथी दोषरूपी कालुप्य नष्ट यवावमे करीने स्वीकारवालायक वचन वाला एवा पण व्यापसादेवना शासनने जे माणस वगणे बे, तेनुं उन्मत्तपणुं केम न होय! एवोजावार्थ जावो. 13 | हे नाथ ! एटले हे स्वामी ! अर्थात् नही मलेला एवा सम्यग्दर्शनादिकने प्रात करावनार होवाथी, तथा मेलेला एवा तेज सम्यग्दर्शनादिकने
तिचार रहित पालवाना उपदेश देवावमे करीने योगक्षेम करनारपानी प्राप्तिश्री नाथ कहेवाय. तेनुं संबोधन | वस्तुतत्व बे ते, न
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-३१७ मुत्पादव्ययधोव्यात्मकं । तथाहि । सर्व वस्तु च्यात्मना नात्पद्यते विपद्यते वा । परिस्फुटमन्वयदर्शनात् । लुनपुनर्जीतनखादिप्वन्वयदर्शमेन व्यनिचार इति न वाच्यम् । प्रमाणेन बाध्यमानस्याऽन्वयस्याऽपरिस्फुटत्वात् । ए । न च प्रस्तुतोऽन्वयः प्रमाण विरुः सत्यप्रत्यनिज्ञानसिकत्वात् । सर्वव्यक्तिपु नियतं दणेकणे अन्यत्वमय च न वि. शेषः' । सत्योश्चित्यपचित्योराळतिनातिव्यवस्थानात् इति वचनात । १० । ततो ऽव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः । पर्यायात्मना तु सर्व वस्तूत्पद्यते विपद्यते च । अस्खलितपयर्यायानुनवसनावात् । न चैवं शुळे शङ्ख पीतादिपर्यायाऽनुनवेन व्यनिचारस्तस्य स्खन्नद्रूपत्वात । न
त्पत्ति, विनाश अने धोव्यात्मक ले. ते कहे जे. सर्व वस्तुअोनो इव्यरूपे नत्पत्ति अने विनाश थतो नथी ; केमके ते इव्यर्नु चाल्याआववापणं प्रगट देखाय ने. कपायाबाद फरीने नगेला एवा नखादिकमां अन्वय देखायाथी तेमां व्यभिचार आवे छे, एम नही बोलवू, केमके प्रमाणवके बाधित एवो अन्वय प्रगट रीते देखातो नश्री. ।।। वली ते अन्वय प्रमाण विरुझ नथी, केमके सत्य प्रत्यनिशानवमे सिऽ थ्येलो . सर्व व्यक्तिओमां निश्चयें करीने दणदणप्रते अ. न्यपणुं जे; का डे के, आकार अने जातिनी व्यवस्थाथी चयाऽपचय होते बते. तेमां कं विशेष नथी. । १० । माटे ऽव्यरूपे सर्व प. दार्थनी स्थितिन डे, अने पर्यायरूपे सर्व पदार्थ उत्पन्न थाय , अने विनाश पामे डे, केमके अस्खलित एवो पर्यायनो अनुन्नव थया करे डे, वनी एवीरीते सफेद शंखमां पीतादिक पर्यायना अनुन्नववमे कंई व्यभिचार आवतो नथी, केमके तेनुं तो स्खलदरूप ले ; वत्नी ते
३। मथवचन विशेषः । इति द्वितीय पुस्तकपाटः ।।
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खत्रु सोऽस्खन्नद्रुपो येन' पूर्वाकार विनाशाऽनहद्धृतोत्तराकारोत्पादाऽविना नावी नोत् । न च जीवादौ वस्तुनि हर्षाम|दासीन्यादिपर्याय परंपरानुनवः स्खलद्रूपः कस्यचिद्वाधकस्याऽनावात् । ११ । ननूत्पादादयः परस्परं निद्यन्ते न वा । यदि निद्यन्ते कथमेकं वस्तु त्र्यात्मकं । न निद्यन्ते चेत्तथापि कथमेकं त्रयात्मकं । तथा च । =॥ यद्युत्पादादयो निन्नाः । कथमेकं त्रयात्मकम् ॥ अथोत्पादादयोऽनिन्नाः । कथमेकं त्रयात्मकम् ।।= इति चेत्तदयुक्तं । कथंचिनिननदणत्वेन तेषां कथंचिन्नेदाऽज्युपगमात् । तथा हि । १२ । नत्पाद विनाशध्रौव्याणि स्यानिन्नानि निन्ननदणत्वाद्रूपवदिति । न च निन्नलदणत्वमसिई असत
कं अस्खलपवालो नथी, के जेथी पूर्वाकारना विनाशने नही डो.. मतो थको, धारण करेला एवा उत्तराकारनी नत्पत्ति विनानो न थाय. वन्नी जीवादिक पदार्थमां हर्ष, आमर्ष, नदासीनपणुं इत्यादिक पर्यायोनी परंपरानो अनुन्नव स्खलद्रूपवालो नथी, केमके तेमा कंई बाधकप्रमाण मलतुं नश्री. । ११। (अहीं वादी शंका करे डे के ) ते नुत्पत्ति आदिकमां परस्पर नेद डे के नही? जो नेद डे, तो एक वस्तु व्यात्मक केम कहेवाय ? अने जो नेद नथी, तो पण ते एक वस्तु त्रयात्मक केम कहेवाय? कह्यु डे के =॥ जो नत्पत्तिआदिक निन्न बे, तो एक वस्तु त्रयात्मक केम होय? अने जो ते नत्पत्ति
आदिक अनिन्न जे, तो पण एक वस्तु त्रयात्मक केम होय? =|| एम जो कहीश तो ते अयुक्त डे, केमके कथंचिद् निन्ननदणपणायें करीने तेननो कथंचिद् नेद अमोए स्वीकार्यो ने. ते कहे . । १२ । नत्पत्ति, विनाश अने ध्रौव्य, निन्नलक्षणवाला होवाथी रूपनीपेठे कथंचिद् निन्न ले. वली तेन्नुं ते निन्नलकणपणुं कं असि नथी;
१। यो न पूर्वाकारविनाशा । इति द्वितीयपुस्तकपाठः ॥
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आत्मज्ञानः । सतः सत्तावियोगों व्यरूपतयानुवन्त्तनं च खनुत्पादादीनां परस्परमसंकीणीनि लक्षणानि सकललोकसादिकाण्येव । १३ । न चामी भिन्नलका अपि परस्पराऽनपेक्षाः । खपुष्पवदमवापत्तेः । तथा हि । उत्पादः केवलो नास्ति स्थितिविगमरहितत्वात् । कूर्मरोमवन् । तथा विनाशः केवलो नास्ति । स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात् तत् । एवं स्थितिः केवला नास्ति विनाशोत्पादशून्यत्वात्तदेव । इत्यन्योऽन्यापेचाणामुत्पादादीनां वस्तुनि सच्चं प्रतिपत्तव्यं । १४ । तथा चोक्तं । = || बटमौलिसुवर्णार्थी | नाशोत्पाद स्थितिप्वयम् ॥ शोकप्रमोदमाध्य
केमके (उत्पत्ति एटले ) बताने बताप, (विनाश एटले ) बताने
ताप, तथा ( ध्रौव्य एटले ) इव्यरूपे अनुवर्तवाणुं एवीरीते उत्पत्तिमादिकना परस्पर भिन्न लक्षणो सर्व लोकोने जाएणीतांज बे. | १३ | वल्ली मिन्नलक्षणवाला एवा पण उत्पत्ति यादिक परस्पर अपेक्षाविनाना नयी ; केमके जो अपेक्षाविनाना होय, तो आकाशपुप्पनी पेठे तेनने त्र्वतापणानी त्र्यापत्ति थाय. ते कहे बे. स्थितिविनाशविनानी काचबाना रोमनीपेठे केवल नृत्पत्ति नयी ; तेम स्थिति
उत्पत्तिविना तेनीजपेवे केवल विनाश नयी ; तथा विनाश अने नृत्पत्तिविना तेनीजपेठे केवल स्थिति नयी एवीरीते एकबीजानी - पेक्षावाला एवा ते नृत्पत्ति त्र्यादिकोनुं बतापशुं पदार्थमां स्वीकार. | १४ | कह्युं ने के = | घमानो, मुकुटनो अने सुवर्णनो अर्थी एवो माणस,' हेतुपूर्वक, नाश, नृत्पत्ति अने स्थितिने विषे अनुक्रमे शोक,
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१ एक राजा हतो | तेने एक पुत्र तथा एक पुत्री हतां । ते पुत्री माटे राजाए एक सुवर्णनो घडो बनायो हतो । एक दहाडो पुत्र राजाने कहे छे के तमे सुवर्णनो घडा भागीने तमाथी मारेमा मुकुट करावी आपा ; तेथी राजाए ते घडो भांगीने तनो मुकुट कराव्यो । आथी करीने घडोनट वाथी पुत्रीने शोक थयो । तेना मुकट बनवाथी पुत्रने हर्ष थयो । अने सुवर्ण तो ते वुन ते रवाथी राजाने मध्यस्थभाव रह्यो । एवं यांत अहीं भावी लेबुं ॥
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३२१ स्थ्यं । जनो याति सहेतुकम् ॥= पयोव्रतो न दश्यत्ति । न पयोऽत्ति दधिव्रतः ॥ अगोरसव्रतेनोने । तस्माइस्तु त्रयात्मकम् = इति काव्यार्थः ॥
। १५ । अथान्ययोगव्यवच्छेदस्य प्रस्तुतत्वात् आस्तां तावत्सादानवान् । नवदीयप्रवचनावयवा अपि परतीथितिरस्कारबश्क दा इत्याशयवान् स्तुतिकारः स्याहादव्यवस्थापनाय प्रयोगमुपन्यस्यन् स्तुतिमाह ।
अनन्तधर्मात्मकमेव तत्व
मतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् ॥ इति प्रमाणान्यपि ते कुवादि
कुरङ्गसंत्रासनसिंहनादाः ॥ १२ ॥ परमार्थन्नत तत्व अनंतधर्मात्मकज डे, तेथी अन्यथा प्रकारे परमार्थनूत तत्त्व मन्त्रीशकतुं नथी ; वली एवीरीतनां आपनां प्रमाणो पण ते कुत्सितवादीनरूपी हरिणाने त्रास पमानवाने सिंहनादसरखां ने. हर्ष, अने मध्यस्थपणाने प्राप्त थाय डे. =॥ वली जेम दूधनी बाधावालो दही खातो नथी, अने दहींनी बांधावालो जेम व खातो नथी, तथा जेने गोरसनी बाधा नथी, तेवो माणस दही, अने दूध बन्ने खाय ने; तेथी सर्व वस्तुन त्रयात्मक डे, एवीरीते एकवीसमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
।१५। हवे अन्ययोगनो व्यवच्छेद संपूर्णश्रवाश्री, हे प्रन्नु ! सादात् आप तो एकबाजु रह्या, पण आपना शाशनना अवयवो पण परतीर्थीना तिरस्कारमाटे समर्थ डे, एवा आशयवाला स्तुतिकार, स्याचादनी स्थापनामाटे प्रयोगने स्थापन करता का स्तुति कहे .
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३श्र
| १ | तवं परमार्थतं वस्तुजीवाजीवलक्षणमनन्तधर्मात्मकमेव नन्तास्त्रिकालविषयत्वादपरिमितायेधमीः सहजाविनःक्रमनाविनश्वपर्यायास्तएवात्मास्वरूपं यस्यतदनन्तधर्मात्मकं । एवकारः प्रकारान्तरव्यवच्छेदार्थः । अत एवाह । २ । अतोऽन्ययेत्यादि । अतोऽन्यथा उक्तप्रकारवैपरीत्येन सच्वं वस्तुतत्वमसूपपादं । सुखेनोपपाद्यते घटनाकोटिसंटङ्कमारोप्यते इति सूपपादं । न तथा सूपपादं घंटमित्यर्थः । अनेन साधनं दर्शितं । तथा हि । ३ । तत्त्वमिति धर्मि । अनन्तधर्मात्मकं साध्यो धर्म्मः । सत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति हेतुरन्यथानुपपत्येक लक्षणत्वातोः । अन्तर्व्याप्त्यैव साध्यस्य सित्वाद् दृष्टान्तादिभिर्नप्रयोजनं । यदनन्तधम्मात्मकं न भवति तत्सदपि न भवति । यथा वियदिन्दी
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| १ | तत्र एटले परमार्थजन एवो जीवाऽजीवादिक पदार्थ नंतमत्मक बे; अर्थात् अनंत एटले त्रकालना विषयवाला होवाथी अपरिमित, एवा साये अनारा ने बदलाता एवा पर्यायरूप जे धर्मो, तेज स्वरूप जेनुं, ते अनंतधर्मात्मक कहेवाय. हीं एवकार वे ते बीजा प्रकारना व्यवच्छेद माटे बे; अने तेथीज कहे बे के 121 उपर कला प्रकारथी विपरीतरीते पदार्थतस्व असूपपाद बे. सुखे करीने जे घटनाको टिना संटंकपर रोपाय, ते 'सूपपाद' कहेवाय. जे सुपपाद नही ते सूपपाद एटले उर्लन कहवाय, अर्थात् घंटे. थी करीने साधन देखाड्यं . ते कहे बे. । ३ । तत्व ए धर्मी बे. तेमां त्र्यनंतधर्मात्मकपणारूप धर्म साधवानो बे. वस्तुतत्त्वनी अन्यथाप्रकारे अप्राप्ति होवाथी ए हेतु बे. अर्थात् अन्यथाप्रकारे व्यप्राप्तिज बे एक लक्षण जेनुं एवा हेतुश्री. हीं अंतर्व्याप्तिवमेज साध्यनी सिद्धि थवाश्री दृष्टांत आदिकोनी जरुर नयी. एटले के जे अनंतधर्मात्मक होतुं नयी, ते सत् एटले बतुं पण होतुं नयी, जेम प्रकाशकमल.
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२२३ वर मिति । ४ । केवलव्यतिरेकी हेतुः साधर्म्यदृष्टान्तानां पदकुदिनिदिप्तत्वेनाऽन्वयाऽयोगात् । अनन्तधात्मकत्वं चात्मनि तावत्साकाराऽनाकारोपयोगिता' कर्तृत्वं नोक्तृत्वं प्रदेशाष्टक निश्चलता अमूर्तत्वमसंख्यातप्रदेशात्मकता जीवत्वमित्यादयः सहन्नाविनो धाः । ५। हर्षविषादशोकसुखःखदेवनरनारकतिर्यक्त्त्वादयस्तु क्रमन्नाविनः । धमास्तिकायादिप्वप्यसंख्येयप्रदेशात्मकत्वं गत्याद्युपग्रहकारित्वं मत्यादिझानविषयत्वं तत्तदवच्छेदकाऽवच्छेद्यत्वमवस्थितत्वमरूपित्वमेकश्व्यत्वंनिष्क्रियत्वमित्यादयः ।। घटे पुनरामत्वं पाकनरूपादिमत्त्वं पृथुबुनोदरत्वं कम्बुग्रीवत्वं जन्नादिधारणाहरणादिसामर्थ्य मत्या दिशेयत्वं नवत्वं पु.
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।। आ हेतु केवल व्यतिरेकी छे, केमके तुल्यधर्मवाला दृष्ठांतो पछनी अंदर दारुल करेला होवाथी अन्वयनो अयोग ले. आत्मानेविषे अनंतधर्मात्मकपणुं नीचे प्रमाणे जे. साकारनपयोगीपणुं, निराकार नपयोगीपणुं, कर्तापणुं, नोक्तापणुं, आठे प्रदेशोमां निश्चलपणुं, अमूर्तपणुं, असंख्यातप्रदेशात्मकपणुं, तथा जीवपणुं इत्यादिक आत्माना सहनावी धर्मो डे. । ५। हर्ष, विषाद, शोक, सुख, उःख, देवपणुं, मनुष्यपणुं, नारकीपणुं तथा तिर्यंचपणुं इत्यादिक आत्माना क्रमन्नावी एटले बदलाता धर्मो डे. धर्मा स्तिकायादिकोनेविषे पण असंख्यातप्रदेशात्मकपणुं, गतिआदिकमां सहाय आपवापणुं, मतियादिक झानवमे जणावापणुं, ते ते अवच्छेदकोथी अवच्छेद्यपj, अवस्थितपणुं, अरूपीपणुं, एकश्यपणुं तथा निष्क्रियपणुं, इत्यादिकधर्मो ने. । ६ । तेमन बमामां कचाश, पाकवायी थतुं रूपीआदिकपणुं, पोहोला अने जामा पेटारपणुं, शंखसरखी ग्रीवापणुं, जल नरवा लाववामाटेर्नु समर्थपणुं, मतिआदिकवमे झेयपणुं, नवापणुं तथा पुराणापणुं इ
२ । योगिना । इति द्वित यपुस्तकपाठः ॥
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३२४ राणत्वमित्यादयः। एवं सर्वपदार्थेष्वपि नानानयमतानिझेन शाव्दानार्थाश्च पर्यायान् प्रतीत्य वाच्यं । ७ । अत्र चात्मशब्देनानन्तेष्वपि धर्मेष्वनुवर्तिरूपमन्वयिश्व्यं ध्वनितं । ततश्चोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति व्यवस्थितम्। एवं तावदर्थेषु शब्देप्वपि नदात्ताऽनुदात्तस्वरित विवृतसंवृतघोषवदघोषताल्पप्राणमहाप्राणतादयस्तत्तदर्थप्रत्यायनशक्त्यादयश्चावसेयाः । अस्य हेतोर सिविरुझानैकान्तिकत्वादिकण्टकोध्धारः स्वयमन्यूह्यः । । इत्येवमुलेखशेषराणि ते तव प्रमाणान्यपि न्यायोपपन्नसाधनवाक्यान्यपि (आस्तां तावत्सादात्कृतश्व्यपर्यायनिकायो नवान् ) यावदेतान्यपि कुवादिकुरङ्गसन्त्रासनसिंदनादाः कुवादिनः कुत्सितवादिन एकांशग्राह .
naanananananananananana त्यादिक धर्मो जाणवा. एवीरीते सर्व पदार्थोमां पण नानाप्रकारना न. योना मतने जाणनारा विक्षने शब्दसंबंधि अने अर्थसंबंधि पर्यायोनी प्रतीति करी लेवी. । ७ । वली अहीं आत्मशब्दे करीने अनंता एवा पण धर्मो नेविषे चाल्या आवता स्वरूपवानुं अन्वयिव्य जणाव्यु जे; अने तेथी नत्पत्ति, विनाश अने ध्रुवपणायें करीने जे युक्त होय, ते सत् डे, एम श्रयु. एवीरीते पदार्थोमां कडं. हवे शब्दोमां पण नदात्त, अनुदात, स्वरित, विवृत, संवृत, घोषवान्, अघोषपणुं, अल्पप्राण, महाप्राणपणुं इत्यादिक ते ते अर्थोनी प्रतीतिनी शक्तिपादिक धर्मो जाणवा. आ हेतुअसिइपणुं, विरूपणुं तथा अनेकांतिकपणुं इत्यादिकोनो कंटकोझार पोतानी मेलेन करीलेवो. । ७ । एवीरीतनां अति उत्कृष्ट एवां आपनां प्रमाणो एटले न्याययुक्त साधननां वाक्यो पण कुवादीनरूपी हरिणोने त्रास आपवामाटे सिंहनादसरखां जे. ( सादात् करेल ने इव्यपर्यायोनो समूह जेणे एवा हे प्रन्नु! आप तो एकबाजुन रह्या.) कुवादीन एटने एकांशने ग्रहण करनारा नयने अनुसरनारा जे अन्यतीथिन, तेनन संसाररूपी निबिक वनमा वसवाना
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३२५ कनयानुयायिनोऽन्यतीर्थिकास्त एवं संसारवनगहनवसनव्यसनितया कुरङ्गा मृगास्तेषां सम्यक्त्रासने सिंहनादा इव सिंहनादाः । । । यथा सिंहस्य नादमात्रमप्याकण्यं कुरङ्गास्त्रासमासूत्रयन्ति तथा नवत्प्रणीत - वंप्रकारप्रमाण वचनान्यपि श्रुत्वा कुवादिनस्त्रासमश्नुवते । प्रतिवचनप्रदानकातरतां बिचतीति यावत् । एकैकं त्वउपझं प्रमाणमन्ययोगव्यवच्छे. दक मित्यर्थः । १० । अत्र प्रमाणानीति बहुवचनं एवं जातीयानां प्रमाणानां भगवच्चासन आनन्त्यज्ञापनार्थ । एकैकस्य सूत्रस्य सर्वोदघिसनिलसर्वस रिक्षानुकाऽनन्तगुणार्थत्वात् । तेषां च सर्वेषामपि सर्वविन्मूलतया प्रमाणत्वात् । अथवा इतिवचनान्ता गास्य संसूचका नवन्तीति न्यायादितिशब्देन प्रमाणबाहुल्यसूचनात्पूर्वाई एकस्मिन्नपि प्रमाणे उपन्यस्ते नचितमेव बहुवचन मिति काव्यार्थः ।।
व्यसनपणायकरीने हरिणो, तेनने सम्यकप्रकारे' त्रास आपवामाटे सिंहनादसरखां आपना प्रमाणो जे.ए। सिंहनो मात्र शब्द सांगलीने पण हरिणो जेम त्रास पामे डे, तेम आपना रचेला एवीरीतनां प्रमाणवचनाने सांनतीने पण कुवादीन त्रास पामे , एटने सामो नत्तर आपवाना नयने धारण करे ; अर्थात् प्रापर्नु रचेलु एकेकु प्रमाण अन्ययोगने व्यवच्छेद करनाऊं डे, एवो अर्थ जाणवो. । १० । अहीं 'प्रमाणानि ' ए बहुवचन एवं जणाववामाटे के, एवीरीतनां प्रमाणो नगवानना शासनमां अनंतां डे, कमके एकेक सूत्रनो, सर्व महासागरोनां जन्नश्री तथा सर्व नदीननी वेलुथी पण अनंतगणो अर्थ ने ; अने ते सर्वना रचनार सर्वज्ञ डे, तेथी ते प्रमाण नुतन ले. अथवा इतिवचनांतो गणने सूचवनारा होय डे, एवा न्यायथी इतिशब्दवमे बणां प्रमाणोनुं सूचन करवाश्री, पूर्वार्धमां एक प्रमाण को बते पण बहुवचन योग्यन डे. एवीरीते बावीसमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
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। ११ । अनन्तरमनन्तधम्मात्मकत्वं वस्तुनि साध्यं मुकुलितमुक्तं । तदेव सप्तङ्गी प्ररूपणारेण प्रपञ्चयन् भगवतो निरतिशयं वचनातिशयं स्तुवन्नाह ।
पर्ययं वस्तु समस्यमानमव्यमेतच्च विविच्यमानम् ॥
प्रदेशनेदोदितसप्तनङ्गमदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम् ॥ २३ ॥
संक्षेपें करी ने कहीये, तो पदार्थ पर्याय विनानो डे, ने जो पृथकरीते कही ये तो तेज पदार्थ इव्यविनानो बे; एवीरीते हे प्रभु ! यतिनृत्कृष्ट विद्वानोव जाणीशकाय एवी, तया सकलादेश ने वि कलादेश नामना वे देशोवमे प्रतिपादन करेली एवी सप्तनंगी आपेज देखामेली बे. ॥ २३ ॥
| १ | समस्यमानं संक्षेपेणच्यमानं वस्त्वपर्ययमविवक्तिपर्यायं । वसन्ति गुणाः पर्याया यस्मिन्निति वस्तु । धर्माधर्माकाशपुलकालजीवलक्षणं व्यकम् । प्रयमभिप्रायः । यदैकमेव वस्तु आत्मघटा
| ११ | पदार्थमां साधवानुं एवं जे अनंतधर्मात्मकपणुं, ते उपरना काव्यमा संपथी कयुं, मांटे तेज अनंतधर्मात्मकपणानुं सप्रसंगीना निरुपणारे करीने विवरण करता थका भगवानना अत्यंत उत्कृष्ट एवा वचनातिशयनी स्तुति करताथका हवे कहे .
। १ । समस्यमानं एटले जो संक्षेपथी कहीयें, तो वस्तु पर्यायविनानी बे. जेनेविषे गुणो एटले पर्यायो वसे, ते वस्तु कवाय; अर्थात् धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, व्याकाश, पुजल, काल ने जीव बे लक्षण जेनां एवां बन्यो जाएवां. जावार्थ ए जावो के, चेतन
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दिकं चेतनाऽचेतनं सतामपि पर्यायाणामविवक्षया इव्यरूपमेव वस्तु वक्तुमिष्यते तदा संक्षेपेणान्यन्तरीकृत सकलपर्याय निकायत्वलक्षणेनानिश्रीयमानत्वात् पर्ययमित्युपदिश्यते केवलव्यरूपमेवेत्यर्थः । २ । यथाडात्माऽयं घटोऽयमित्यादिपर्यायाणां इव्याऽनतिरेकात् । अत एव इव्यास्तिकनयाः शु संग्रहादयो इव्यमात्रमेवेच्छन्ति । पर्यायाणां तदविश्वरत्वात् । पर्यवः पर्ययः पर्याय इत्यनर्थान्तरं । ३ । अश्व्यमित्यादि । चः पुनरर्थे । स च पूर्वस्मादिशेषद्योतने निन्नक्रमश्च । विविच्यमानं चेति | विवेकेन यरूपतयोच्यमानं पुनरेतस्तु व्यमेव । विवदितान्वयिश्व्यं केवलपर्यायरूपमित्यर्थः । । यदाह्यात्मा झानदर्शनादीन् पर्यायानधिकृत्य प्रतिपर्यायं विचार्यते तदा पर्याया एव
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तथा अचेतन एवी आत्मा तथा घटादिक जे एकज वस्तु बे, तेने बता एवा पण पर्यायानी विवदाविना ज्यारे इव्यरूपज वस्तु वहीये, त्यारे संक्षेपें करीने एटले गौण करेल एवा सर्व पर्यायना समूहपणाना लक्षणें करी ने कहेवायी, पर्यायरहित कहेवाय बे, अर्थात् केवल द्रव्यरूपज कहेवाय बे. । २ । जेम या आत्मा बे, या मोबे, इत्यादिक पयो व्ययी जूदा नथी. याथी करीनेज इव्यास्तिक नयने अनुसनारा शु संग्रहादिको मात्र इव्यनेज इच्छे बे, केमके पर्यायो तेथी अन्न पर्यव, पर्यय ने पर्याय अत्रणे एक पर्थवाला बे. |३| अहीं ' च ' पुनः अर्थमां बे, नेते पुनः पूर्वी विशेष सूचववामां अने निन्नकमत्रालो बे. विविच्यमानं एटले विवेकवमे पृथकरूपपणायें करी ने कहेतांकां ते पदार्थ अड्व्यज बे, एटले अन्वयि इन्यनी विवाविनानुं केवल पर्यायरूपन बे । ४ । केमके ज्यारे आत्माने ज्ञानदर्शनादिक पर्यायाने श्रीने दरेक पर्यायप्रते विचारवामां आवे, त्यारे पर्यायोज जाय बे, परंतु यात्मा नामनुं कई पण इव्य जणातुं
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प्रतिज्ञासन्ते । न पुनरात्माख्यं किमपि इव्यं । एवं घटोऽपि कुमलो - ष्ठष्टथुबुनोदरपूर्वापरादिनागाद्यवयवापेक्षया विविच्यमानः पर्याय एव न पुनाख्यं तदतिरिक्तं वस्तु । ५ । त एव पर्यायास्तिकनयानुपातिनः पठन्ति | = | नागा एव हि जासन्ते । संनिविष्टास्तथा तथा । तान्नैव पुनः कश्चिन्निर्भागः संप्रतीयते ॥ = इति । ततश्च इव्यपर्यायोनयात्मकत्वेऽपि वस्तुनो इव्यनयार्पण्या पर्यायनयाऽनर्पणया च इव्यरूपता । पर्यायनयार्पण्या इव्यनयाऽनर्पण्या च पर्यायरूपता । ननयनयार्पण्या च तज्जयरूपता । अत एवाह वाचकमुख्यः “ अर्पितानर्पितसिेरिति ” | ६ | एवंविधं व्यपर्यायात्मकं वस्तु त्वमेवादीस्त्वमेव दर्शितवान् । नान्य इति काक्वावधारणावगतिः । ७ । ननु
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नी. एवी रीते घानुं पण, तेना कुंमलसरखा कांग, पोहोलुं तथा जाऊं पेट, पूर्वापरादिक जागादिकनी अपेक्षावमे ज्यारे विवेचन करवामां यावे, त्यारे ते घमो पर्यायरूपन देखाय बे, परंतु तेनाथी जिन्न एवी कोइ वट नामनी वस्तु देखाती नथी । ५ । आथी करीने पर्यायास्तिक नयने अनुसरनारान कहे बे के = | तेवी तेवीरी ते रहेला जागोज देखाय बे, पण तेवा जागवालो एवो निर्भागी कोइ प्रतीत यतो नथी. = अने तेथी पदार्थनुं इव्यपर्याय एम उजयात्मकपणुं होते बते पण इव्यनय यापवाथी ने पर्यायनय नही आप - वाथी इव्यरूपपणुं बे, ने पर्यायनय पवार्थ तथा इव्य नय नही
पायी पर्यायरूपपणुं बे; तेमज नजनय व्यापवाथी त जयरूपप; अने आधीन श्रीनुमास्वा तिजीमहाराज कहे बे के “ आपेलाथी ने नही पेलाथी सिद्धि बे. " । ६ । एवीरीतनो इव्यपययात्मक पदार्थ, हे प्रभु! पेज बतावेलो बे, परंतु बीजा कोइए बताव्यो नथी; एवीरीते काकुवाकुयी निश्चयार्थ जाणवो. । ७ । इव्य
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३२ए अन्यान्निधानप्रत्यययोग्यंश्व्यं अन्यानिधानप्रत्यय विषयाश्च पर्यायाम्तत्कथमेकमेव वस्तूनयात्मक मित्याशङ्कां विशेषणहारण परिहरति । आदेशनेदेत्यादि । आदेशनेदेन सकलादेशविकलादेशलहणेन आदेशयेन नदिताः प्रतिपादिताः सप्तसंख्याः नङ्गा वचनप्रकारा यस्मिन् वस्तुनि तत्तथा । । ननु यदि नगवता विन्नुवनबन्धुना निर्विशेषतया सर्वेन्य एवं विधं वस्तुतत्वमुपदर्शितं तर्हि किमर्थं तीर्थान्तरीयास्तत्र विप्रतिपद्यन्ते इत्याह । बुधरूपवेद्यमिति । ए । बुध्यन्ते यथाव स्थितं वस्तुतत्वं सारेतर विषयविनागविचारण्या इति बुधाः । उत्कृष्टा बुधा बुधरूपा नैसर्गिकाधिगमिकाऽन्यतरसम्यग्दर्शनविशदीकृतज्ञानशालिनः प्राणिनस्तैरेव वेदितुं शक्यं वेद्यं परिच्छेद्य । न पुनः स्वस्वशास्वतत्वान्यासपरिपाकशाणा निशातबुद्धिनिरप्यन्यैः । तेषामना दिमिथ्या
डे ते अन्य अन्निधाननी प्रतीतिने योग्य अने पर्यायो जे ते तेथी अन्य अन्निधाननी प्रतीतिना विषयवाला डे, तो पठी एकज पदार्थ नन्नयात्मक केम ? एवीरीतनी आशंकाने हवे विशेषणक्षारवमे दूर करे जे. सकलादेश अने विकलादेश सदण जेनुं एवा बे आदेशोवमे प्रतिपादन करेला के सात नांगा जेमां एवो पदार्थ हे प्रनु ! आपे बतावेलो . एवो संबंध जाणवो. । ७ । त्रणे नुवनोना बंधुरूप एवा नगवाने कं पण फेरफार विना सर्व प्राणीनप्रते ज्यारे एवीरीतर्नु वस्तुतत्व देखाड्युं , त्यारे अन्यदर्शनीन तेथी उलटीरीतनो स्वीकार शामाटे करे ? तेने माटे कहे . । ए। सार असारना नेदना विचारव जेन वस्तुतत्वने यथास्थितपणे जाणे जे, ते बुध एटले पंमितो कहेवाय जे. जेन नल्लष्ट बुधो, ते बुधरूप कहेवाय ; अर्थात स्वान्नाविक अथवा आधिगमिकमांथी कोश्पण प्रकारना सम्यक्त्ववके
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दर्शनवासनादूषितमतितया यथावस्थितवस्तुतत्वाऽनवबोधेन बुवरूपत्वाडभावात् । १० । तथा चागमः । = | सदसदविसेसान | नवहेनुजदबिनवलंजान ॥ नाणकलाभावा । मिच्छदिठिस्स अन्नाणं ॥ | =
तएव तत्परिगृहीतं द्वादशाङ्गमपि मिथ्या श्रुतमामनन्ति । तेषामुपपत्तिनिरपेक्षं यदृच्छया वस्तुतत्वोपलंजन संरंभात् । ११ । सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं तु मिथ्याश्रुतमपि सम्यक् श्रुततया परिणमते । सम्यग्टशां सर्व विपदेशानुसारिप्रवृचितया मिध्याश्रुतोक्तस्याप्यर्थस्य यथावस्थित
निर्मल करेला कानवमे शोजता एवा जे प्राणीज, तेजवमेज ते जाणीशकाय बे, परंतु पोतपोताना शास्त्रोना तत्वाना अन्यासना परिपाकरूप सराव थयेली तीक्षणबुवाला एवा पण बीजान तेने जाणीशकता नयी; केमके अनादिकालनी मिथ्यात्वनी वासनाथी दोषयुक्त मतिपणायें करी ने यथास्थित वस्तुतत्वना अज्ञानवमे तेज ने बुधरूपपणुं होतुं नथी. । १० । त्र्यागममां पल कह्युं बे के = || सत् असत्नो नेद जाण्याविना, तथा जवना हेतुरूप स्थितिनी प्राप्तिथी, ने ज्ञानफलना नाव मिथ्यादृष्टिने अज्ञान होय बे. = |यी करीनेज तेजए ग्रहणकरेली दादशांगीने पण मिध्याश्रुत कहे बे; केमके ते तो उपपसिनी अपेक्षा राख्याविना पोतानी मरजी मुजब वस्तुतत्वने मे लववाना संरंजवाला होय . । ११ । अने सम्यग्दृष्टिनए ग्रहणकरे तो मिथ्यात पण तेने सम्यक् श्रुतपणे परिणमे बे; केमके ते सम्यग्दृष्टिनी प्रवृत्ति तो सर्वज्ञ प्रभुना उपदेश अनुसारे होय , तेथी मिथ्याभूतमां कहेला अर्थने पण, यथार्थरी ते विधिनि
१ सदसद्द्भविशेषणत । भवहेतुयथास्थितोपलंभतः ॥ ज्ञानफलाऽभावतः । मिथ्याइडेअज्ञान || इतिकाया ॥
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३३१ विधिनिषेधविषयतयोन्नयनात् । तथा हि । १२ । किन वेदे अनैर्यष्टव्यम् इत्यादिवाक्येषु मिथ्यादृशोऽजशब्दं पशुवाचकतया व्याचक्षते । सम्यग्दृशस्तु जन्माऽप्रायोग्यं त्रिवार्षिकं यवव्रीह्यादि पञ्चवार्षिकं तिनमसूरादि सप्तवार्षिकं कंगुसर्षपादि धान्यपर्यायतया पर्यवसाययन्ति । १३ । अत एव च नगवता श्रीवईमानस्वामिना विज्ञानधन एवैतेभ्यो नतेन्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंझास्तीत्यादिका' रुचः श्रीमदिन्द्रनत्यादीनां द्रव्यगणधरदेवानां जीवादिनिषेधकतया प्रतिनासमाना अपि तच्चवस्थापकतया व्याख्याताः । १५ । तथा स्मार्ता
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षेधविषयपणायें करीने तेन जोमी ले ले. ते कहे . । १२ । वेदमा का जे के, 'अनोवमे' यज्ञ करवो, इत्यादिक वाक्योमा मिथ्याहटि ज्यारे 'अन' शब्दनुं पशुरूपे व्याख्यान करे , त्यारे सम्यक्ढष्टिन तो, वाव्याथी जे ऊगे नही एवा त्रण वर्षना जव अने वी हिआदिक, पांच वर्षना तल अने मसूरा दिक, सात वर्षना कांग अने सर्पवादिक धान्योना पर्यायतरिके माने जे. । १३ । वली आथी करीनेन नगवान् श्री वर्धमानस्वामिए 'विज्ञानवन' एवैतेच्यो नूतेन्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंझास्ति' इत्यादिक वैदिक मंत्रो, श्रीमान् इंश्लूतादिक द्रव्यगणधरोने जोके जीवादिकना निषेधरूपे प्रतिनासन यता हता, तोपण तेन्नुं ते जीवादिकना स्थापकपणावमे व्याख्यान करेलु . । १५ । वली स्मृतिने अनुसरनाराज पण =|| मां सन्नदणमा मद्यपानमां अने मैयुनमा दोष नथी, एतो प्राणीननी प्रवृत्ति
१ आ वेदमंत्रना इंद्रभूतिआदिक द्रव्यगणधरा एवो अर्थ करता हता के । विज्ञानघन एवो आत्मा आ पंचभूतोथी उत्पन्न थइने तेज भूतोमा पाछो विलीन थाय छे । माटे परलोक नथी । = पण श्री वर्धमान प्रभुए तेना एवो अर्थ कर्यो के । ज्ञाननो समूह छे ते आ पंचभूतोषी उत्पन्न वहमे तेज भतोमां विलीन थाय छे । पण तेनी पूर्वसंशा रहेती नथी ।
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अपि । =|| न मांसन्नवणे दोषो । न मद्ये न च मैथुने ॥ प्रवृत्तिरेषा नुतानां । निवृत्तिस्तु महाफला ॥ इति श्लोकं पठन्ति । अस्य च यथाश्रुतार्थव्याख्यानेऽसंबप्रताप एव । १५ । यस्मिन् हि अनुष्ठीयमाने दोषो नास्त्येव तस्मान्निवृत्तिः कथमिव महाफला नविष्यति ।
ज्याध्ययनदानादेरपि निवृत्तिप्रसङ्गात । तस्मादन्यदैदंपर्यमस्य श्लोकस्य । तथा हि । १६ । न मांसन्नदणे कृतेऽदोषोऽपि तु दोषः । एवं मद्यमैथुनयोरपि । कथं नादोष इत्याह । यतः प्रवृत्तिरेषा जूतानां । प्रवर्त्तन्त नत्पद्यन्तेऽस्यामिति प्रवृत्तिरुत्पत्तिस्थानं जूतानां जीवानां तत्तजीवसंसक्तिहेतुरित्यर्थः । प्रसिई च मांसमद्यमैथुनानां जीवसंसक्तिमूलकारणत्वमागमे । १७ । =॥ 'आमासुय पक्कासु । विपच्चमाणासु
बे, अने तेनी निवृत्ति तो महाफलवानी ले. =॥ एवीरीतनो श्लोक नणे ; अने तेनो यथाश्रुत अर्थ करवामां फक्त असंबइ प्रलापन D. । १५ । केमके जे कार्य करते बते बीलकुल दोष नथी. ते कार्यश्री निवृत्त थ, ए शीरी ते महाफनवाढं थशे? केमके तेथी तो यज्ञ अध्ययन तथा दानादिकोने पण नही करवानो प्रसंग थशे. माटे ते श्लोकनो नावार्थ तो नीचे प्रमाणे जे, ते कहे . । १६ । मांसनदणमां दोष नथी तेम नथी, परंतु दोष जे. एवीजरीते मद्यपान अने मैथुनमां पण दोष जे. हवे तेमां केम अदोष नथी? ते कहे जे. केमके ते न. तोनी एटले जीवोनी प्रवृत्तिनु एटले नत्पत्तिनुं स्थान ने ; अर्थात् ते ते जीवोनी उत्पत्तिना हेतुन ने. वनी मांस, मद्य, अने मैथुनोने जीवोत्पत्तिनुं मूलकारणपणुं आगममां प्रसिह . । १७ । =|| काची,
१ आमासु च पक्वास । विपच्यमानासु मांसपेशीषु ॥ आत्यंतिकं उपपातः । भणितस्तु निगोदजीवानां ।। = मये मधुनि मांसे । नवनीते चतुर्थे ॥ उपजायते अनंताः । तद्वर्णाः तेषु जंतवः ॥ = मैथुमासना(संज्ञा )रुढः । नवलमाणि हंति सूक्ष्मजीवानां । केवलिना प्रज्ञप्ताः। द्धित. व्याः सदाकालं =॥ इतिच्छाया ॥
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३३३ मंसपेसीसु ॥ आयंतियमुववान । नणिन निगोयजीवाणं = मजे महुमि मंसंमि । नवणीयंमि चनुत्थए ॥ नपज्जति अणंता । तवणा तत्थ । जंतुणो । मेहुणसन्नारूढो । नवलख्ख हणेश सुहुमजीवाणं ॥ केवनिणा पन्नता। सदहियवा सयाकालं ।। | तथा हि । १७ ॥ 'इत्यीनोणीर संनवंति । बेदिया उ जे जीवा ॥ श्कोवदोवतिन्निव । लकपुहुतं च नकोसं ॥= पुरिसेण सह गयाए । तेसिं जीवाण हो। नद्दवणं ॥ वेणुगदिछतेणं । तत्तायसिनागनाएणं ॥= | १ए। संसहायां योनौ हीन्डिया एते शूकशोणितसंनवास्तु गर्नजपञ्चेन्श्यिा इमे =|| पंचिंदिया मणुस्सा । एगनरनुतनारिगनमि ॥ नकोसं नवलख्खा ।
पकवेली, अने पकवाती एवी मांसनी पेसोनमां निगोदीया जीवानी अत्यंत नुत्पत्ति कहेली . =|| मद्यमां, मधमां, मांसमां अने चोथा माखणमां, तेना जेवा वर्णवाला अनंता जीवो उपजे . =|| केवनिनगवाने कह्यु डे के, मैथुनासनपर आरूढ थयेलो पुरुष नव लाख सूदम जीवाने हणे जे, अने ते वचन हमेशां श्रभाकरवालायक जे. ते कहे है. । १७ । -॥ स्त्रीनी योनिमां जे बेइंघिय जीवो होय जे, ते एक, अथवा बे, अथवा त्रण, अथवा उत्कृष्टा बे लाखथी नवलाखसुधि होय . = स्त्रीपुरुषनो संयोग थवाथी, रुथी नरेली वांसनी नलीमां तपावेलो लोखंमनो सत्तीन नाखवाना दृष्टांते, योनिमाना जीवोनो विनाश थाय . । १ए । अवियोनिमां ते जीवो बेश्यि होय , अने वीय तथा रुधिरनो योग होते ते ते जीवो गज पंचेंक्ष्यि थाय
१ लीयोना संभवति । बेंद्रियास्तु ये जीवाः ॥ एकोबाद्वौवात्रयावा । क्षलगु हुनं च उत्कृष्टं ॥= पुरुषेण सहगतेन । तेषां जीवामां भवति उद्दवणं ॥ वेणुकदृष्टांतेन । ततायम्शलाकाहातेन ॥ = इतिच्छाया ॥ २ पंचेंद्रिया मनुष्याः । एकनरभुक्तनारीगर्भे ॥ उत्कृष्ट नवलक्षाः । जायते एकडेलया = || नवलक्षाणां मध्ये । जायते एकस्य द्वौवा समे ॥ शेषाः पुनः एवंएव च । विलयं. बजति तथैव ॥ इतिच्छाया ॥
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३३४
जायंती एगहेलाए || = नवलख्खाणं मज्जे । जायs इक इन्हेगसमती ॥ सेसा पुण एमेवय । विलयं वच्चंति तत्येव ॥ तदेवं जीवोपमर्दहेतुत्वान्न मांसभक्षणादिकमष्टमिति प्रयोगः | २० | अथवा भूतानां पिशाचप्रायाणामेवा प्रवृत्तिस्त एवात्र मांसनक्षणादौ प्रवर्तन्ते । न पुनविवेकिन इति जात्रः । तदेवं मांसन कणादेऽष्टतां स्पष्टीकृत्य यपदेटव्यं तदाह । निवृत्तिस्तु महाफला । तुरेवकारार्थः । तुः स्यानेदेऽवधारणे इति वचनात् । ततश्चंतेच्यो मांसनऋण दिन्यो निवृत्तिरेव म हाफला । स्वर्गापवर्गफलप्रदा । न पुनः प्रवृत्तिरपीत्यर्थः | २१ | त । एव स्थानान्तरे पठितम् | = | वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन । यो यजेत शर्त
बे. =॥ एक पुरुषे जोगवेली स्त्रीना गर्भमां एकीवखते उत्कृष्ट नव लाख पंचेंपि मनुष्यो नृत्पन्न याय बे || || ते नव लाखनी मांहेश्री एक अथवा बे साथै उत्पन्न याय बे, अने बाकीना सबला तेमना तेमज नाश पामे बे. II= मांटे एवीरीते जीवहिंसानो हेतु होवाथी मांसमक्षणादिक दूषणरहित नथी, एवो प्रयोग जावो. । २० । अथवा ए प्रवृत्ति तोनी एटले पिशाचप्रायोनी बे, केमके तेजन मांसमां प्रवर्ते छे, पण विवेकीन प्रवर्तता नथी एवो जावार्थ जाणवो. माटे एवीरीते मांसनकादिकनुं उष्टपणुं देखामीने, जेनो उपदेश देवानो बे, ते कहे बे. ते मांसनकादिकथी निवृत्त श्रवं तेज महाफलवालुं बे, महीं 'तु' एवकारना अर्थमां जे. कहनुं बे के 'तु' ने
मां ने निश्चयार्थमां आवे छे. मांटे ते मांसनकादिकोश्री निवृ तिन महाफलवाली एटले स्वर्ग तथा मोकफलने देनारी बे, परंतु प्रवृत्ति कई महाफलवाली नयी । २१ । आयी करीनेज बीजी जगोए कहां बेके, = ॥ जे माणस दरवर्षे सो वर्षसुधि अश्वमेध यज्ञ करे.
ने जे माणस मांसमक्षण करे नही तेन बन्नेने तुल्य फल याय. ॥ =
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३३५ समाः ॥ मांसानि च न खादेद्य-स्तयोस्तुल्यं जवेत्फलम् ॥ = एकरात्रो षितस्यापि । या गतिर्ब्रह्मचारिणः ॥ न सा क्रतुसहस्त्रेण । प्राप्तुं शक्या युधिष्टिर || = | २२ | मद्यपाने तु कृतं सूत्रानुवादैस्तस्य सर्वविगर्हितत्वात् । तानेवंप्रकारानर्थान् कथमित्र बुधानासास्तीर्थिका वेदितुमर्हन्तीति कृतं प्रसङ्गेन । केडमी सप्तनङ्गाः । कश्चायमादेशनेद इत्युच्यते | २३ | एकत्र जीवादौ वस्तुनि एकैकसत्त्वादिधर्म्मविषयप्रभवशादविरोधेन प्रत्यक्षादिवावा परिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोश्च विधिनिषेधयाः पर्यालोचनया कृत्वा स्याच्छन्दताज्जितो वक्ष्यमाणैः सप्तभिः प्रकारैवचनविन्यासः सप्तनङ्गीति गीयते । तद्यथा । २४ । स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रथमो नङ्गः । स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः । स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृ
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हे युधिष्टिर ! एकरात्रिना उपवासी एवा ब्रह्मचारीनी जे गति थाय बे, ते गति एकहजार यज्ञोवमे पण मली शकती नथी । २२ । मद्यपानमाटे विवेचननी जरुर नथी, केमके तेने तो सर्व लोकोए निंधुं बे, एवीरीतना पूर्वे कडेला अर्थोने पंमितानाससरखा अन्यदर्शनीन शीरीत जाणी शके ? एवीरीते प्रसंगोपात कयुं. हवे ते सात जांगान कया कया बे ? मने या आदेशनेद शुं बे ? ते कहे बे. । २३ । एकज जीवादिक पदार्थमां बतापणादिक एकेक धर्मसंबंधि प्रश्ना वशयी प्रत्यक्षादिक प्रमाणनी बाधाना परिहारें करीने, पृथग्भूतएवा विधिनिषेधनी पर्यालोचनाये करीने, स्यात् शब्दे करीने युक्त एवो हवे कवाता सात प्रकारोवमे जे वचनविन्यास, ते सप्तनंगी कहेवाय बे. ते नीचे प्रमाणे. । २४ । ' सघलुं कथंचित् बेज ' एवीरीतनो विधिकल्पनाव मे पेहेलो नांगो जावो. 'सवलुं कथंचित् नयीज ' ए निषेधकल्पनावमे बीजो नांगो जावो. ' कथंचित् बेज, कथंचित्
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३३६ तीयः । स्यादवक्तव्यमेवेति युगपविधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः । स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवे ति विधिकल्पनया युगपविधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः । स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपछिघिनिषेधकल्पनया च षष्ठः । स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपविधिनिषेधकल्पनया च सप्तमः ॥२५॥ तत्र स्यात्कथंचित्स्वश्व्यदेवकालन्नावरूपेणास्त्येव सर्व कुम्नादि । न पुनः परश्व्यदेवकालनावरूपेण | तथा हि । कुम्नो इव्यतः पार्थिवत्वेनास्ति । नाबादिरूपत्वेन । देवतः पाटलिपुत्रकत्वेन न कान्यकुजादित्वेन । कालतः शिशिरत्वेन । न वासन्तिकादित्वेन । नावतः श्यामत्वेन ।
नथीन' एवीरीते अनुक्रमे विधिनिषेधनी कल्पनावमे त्रीजो नांगो जाणवो. 'कथंचित अवक्तव्यन डे' एवीरीते एकीवेलाए विधिनिषेधनी कल्पनावमे चोथो नांगो जाणवो. 'कथंचित् बेज, कथंचित् अवक्तव्यन डे' एवीरीते विधिकल्पनावमे अने एकीवेलाए विधिनिषेधकल्पनावमे पांचमो नांगो जाणवो. 'कथंचित् नथीज, कथंचित् अवक्तव्यन डे' एवीरीते निषेधकल्पनावमे अने एकीवेलाए विधिनिषेधकल्पनावमे बहो नांगो जाणवो. 'कथंचित् डेन, कथंचित् नश्रीज, कथंचित् अवक्तव्यन डे' एवीरीते अनुक्रमे विधिनिषेधकल्पनावमे तथा एकीवेलाए विधिनिषेधकल्पनावमे सातमो नांगो जाणवो. । २५। तेमां स्यात् एटले कथंचित् पोताना इव्य, नेत्र, काल अने नावरूपवळे कुंनादिक सर्व पदार्थ डे, परंतु परश्व्यदेवकालनावें करीने नथी. से कहे . घमो ऽव्यथी पार्थिवपणायेंकरीने , पण जलादिकस्वरूपवमे नथी. देवथी पाटलीपुत्रकपणावमे , पण कान्यकुजादिकपणे नथी. कालथी शिशिरपणावमे , पण वसंतऋतुपणावके नश्री. नावश्री श्यामपणावमे डे, पण रक्तादिकपणे नथी;
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३३७ न रक्तादित्वेन । अन्यथेतररूपापत्त्या स्वरूपहानिप्रसङ्ग इति । १६ । अवधारणं चात्र नङ्गेऽननिमतार्थव्यावृत्त्यर्थमुपात्तम् । इतरथाऽनन्निमततुल्यतैवास्य वाक्यत्य प्रसज्येत । प्रतिनियतस्वार्थाऽनन्निधानात् । तउक्तम् । = वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थ निवृत्तये ॥ कर्तव्यमन्यथाऽनुक्त-समत्वात्तस्य कुत्रचित् ।।= तथाप्यस्त्येव कुंन इत्येतावन्मात्रोपादाने कुंजस्य स्तंन्नाद्यस्तिवेनापि सर्वप्रकारणास्तित्वप्राप्तेः प्रतिनियत (रूपानुपपत्तिः स्यात् । तत्प्रतिपत्तये स्यादिति शब्दः प्रयुज्यते । स्यात्कचित्स्वव्यादिनिरेवायमस्ति न परव्यादिनिरपीत्यर्थः ।२७। यत्रापि चासौ न प्रयुज्यते तत्रापि व्यवच्छेदफवकारवत् बुझिमनिः प्रतीयत एव । यउक्तम् । =|| सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञैः । सर्वत्रार्थाA rrammarrrrrrrrrrrrr
wronrpanrron वन। जो तेम न होय तो अन्यत्त्वरूपनी आपत्तिवमे पोताना स्वरूपनी हानिनो प्रसंग थाय. । २६ । आ नांगामां नही स्वीकारेला अर्थनी व्यावृत्तिमाः अवधारण ग्रहण करेलु बे; अने जो तेम कयुं न होय तो, चोकस वार्य नही कहेवायी या वाक्यने नही स्वीकारताना तुल्यपणानो प्रसंग आवे. कर्वा डे के =|| वाक्यमां निश्चय ने ते अनिटअर्थनी निवृत्ति माटे ; अने कोश्क जगोए अन्यथाप्रकारे नही कहेलानी तुल्य होवाथी करीने. =| तो पण 'घमो बेज' एटर्बुज मात्र स्वीकारते बते, स्तंनादिकना अस्तिपणायें करीने पण, कुंचने सर्व प्रकारवमे अस्तिपणानी प्राप्तिथी चोकस स्वरूपनी अप्राप्ति थाय; तेथी ते स्वरूपनी प्राप्तिमाटे ' स्यात् ' एवो शब्द जोमवामां आवे जे. स्यात् एटले कथंचित वश्व्यादिकोवमेज आ कुंन डे, परंतु परद्रव्यादिकोवझे पण नथी, एवो अर्थ जाणवो. । २७ । वली ज्यां आ ' स्यान् शब्द जोमवामां न आवे, त्यां पण व्यवच्छेदना फलरूप एवकारनी पेठे बुध्विानो तेने जाणीज लेने, कह्यु डे के =॥ जेम प्रयोगादिकना
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प्रतीयते ।। यथैवकारोऽयोगादि-व्यवच्छेदप्रयोजनः = इति प्रथमो नङ्गः । २७ । स्यात्कथंचिन्नास्त्येव कुंनादिः परश्व्यादिनिरिव 'स्वव्यादिनिरपि । वस्तुनोऽसत्वाऽनिष्टौ हि प्रतिनियतस्वरूपाऽनावात् वस्तुप्रतिनियतिर्न स्यात् । न चास्तित्वैकान्तवादिनिरत्र नास्तित्वमसि मिति वक्तव्यं । कथंचित्तस्य वस्तुनि युक्तिसिइत्वात्साधनवत् । श्ए । न हि क्वचिदनित्यत्वादौ साध्ये सत्वादिसाधनस्यास्तित्वं विपके नास्तित्वमन्तरेणोपपन्नं । तस्य साधनत्वाऽन्नावप्रसङ्गात् । तस्माइस्तुनोऽस्तित्वं नास्तित्वेनाविनानतं नास्तित्वं च तेनेति । विवदावशाच्चाऽनयोः प्रधा
व्यवच्छेदना प्रयोजनवालो एवकार ने, तेम, जो के ' स्यात् ' शब्दने जोमवामां आव्यो न होय, तो पण तेना जाणकारो सर्व जगोए अथथी तेनी प्रतीति करी ले . एवीरी ते पहेलो नांगो जाणवो. । २७ । ' स्यात् एटने कश्रचिन् परश्व्यादिकोवमे जेम, तेम स्वश्व्यादिकोवने पण कुंनादिक नथीन ' केमके पदार्थ- अतापणुं जो स्वीकारवामां न आये, तो चौकस स्वरूपना अन्नावश्री पदार्थy चोकसपणुं न थाय. वत्ती अस्तिपणारूप एकांत वादने माननारानए 'अहीं नास्तिपणुं असि डे' एम नही बोलवू; केमके ते नास्तिपणुं पण साधननी पेठे कथंचित् पदार्थमा युक्तिथी सिइ थाय . । २ए । कारणके कोश्क अन्यपणा दिकने साधवामां, विपदमां नास्तिपणा विना सत्त्वादिक साधन, अस्तिपणुं घटीशके नही; केमके तेने साधनपणाना अन्नावनो प्रसंग थाय डे; माटे पदार्थ, अस्तिपणुं नास्तिपणाविना होतुं नश्री, अने नास्तिपणुं अस्तिपणाविना होतुं नथी; तथा कहेवानी इच्छाना वशयी ते बन्ननो मुख्य अने गौणनाव थाय ने, तथा बाकीना बीजा नांगानमां पण एवीजरीते जाणवू; केमके 'आपेलाथी अने नहीआ
। स्वव्यादिभिरिव परद्रव्यादिभिरपि । इति द्वितीयपुस्तकपाठः॥
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३३ए नोपसर्जननावः । एवमुत्तरत्नङ्गेप्वपि झेयं “ अर्पिताऽनर्पितसिरिति वाचकवचनात् । इति हितीयः । तृतीयः स्पष्ट एव । ३० । धान्यामस्तित्वना स्तित्वधर्मान्यां युगपत्प्रधानतयाऽर्पिताच्यामेकस्य वस्तुनोऽनिधित्सायां तादशस्य शब्दस्याऽसंनवादवक्तव्यं जीवादिवस्तु । तथा हि । सदसत्वगुणध्यं युगपदेकत्र सदित्यनेन वक्तुमशक्यं । तस्याऽसचप्रतिपादनाऽसमर्थत्वात् तथाऽसदित्यनेनापि तस्य सत्त्वप्रत्यायनसामथ्याऽनावात् । ३१ । न च पुष्पदन्तादिवत्साङ्केतिकमेकं पदं तक्तुं समर्थ । तस्यापि क्रमेणार्थक्ष्यप्रत्यायने सामोपपत्तेः । शतृशानयोः संकेतितसच्चब्दवत् । अत एव इन्कर्मधारयवृत्त्योर्वाक्यस्य च न तक्षा
पेनाथी सिदि थाय डे' एवं श्री नमास्वातिनी महाराजनुं वचन ले. एवीरीते बीजो नांगो जाणवो. अने त्रीजो नांगोतो स्पष्टन डे. ३०॥ एकीहारे प्रधानपणाव; आपला एवा अस्तिपणारूप अने नास्तिपणारूप बे धर्मोवमे एक पदार्थने कहेवानी इच्छा होते बते, तेवी रीतना शब्दना असंन्नवश्री जीवादिक पदार्थ अवक्तव्य डे. ते कहे जे. उतापणुं अने अउतापणुं एम बन्ने गुणो एकीहारे एकवस्तुमां 'सत्' एटर्बुज कहेवावमे कंई कही शकाता नथी; केमके ते 'सत्' ने ते, 'असत्ना' प्रतिपादनमाटे असमर्थ डे; तेमज 'असत् ' एटलुज क. हेवावमे करीने पण ते बन्ने गुणो कंशे कही शकाता नथी, केमके ते असत् डे ते, सत्नी प्रतीति कराववामाटे असमर्थ डे. । ३१ । वली पुष्पदंतादिकनी पेठे सांकेतिक एवु एक पद पण तेने कहेवाने समर्थ नथी ; केमके ते पण शतृ अने शानना संकेतवाला 'सत्' शब्दनी पेठे अनुक्रमे बे अर्थोनी प्रतीतिमाटे सामर्थ्यवानुं ले ; वत्नी आथी करीनेज इंच अने कर्मधारयवृत्तिने अने वाक्यने तेनुं वाचकपणुं नथी, एवीरीते सर्ववाचकरहित होवाश्री प्रवक्तव्य एवो पदार्थ, एकीहारे
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चकत्वमिति सकलवाचकर हितत्वादवक्तव्यं वस्तु युगपत्सवासवाच्यां प्रधाननावापितान्यामाक्रान्तं व्यवतिष्टते । न च सर्वथाऽवक्तव्यमवक्तव्यशब्देनाप्यन निधेयत्वप्रसंगादिति चतुर्थः । ३२ । शेषास्त्रयः सुगमानिप्रायाः । न च वाच्यं एकत्र वस्तुनि विधीयमान निषिध्यमानाऽनन्तधर्माभ्युपगमेनानन्तनंगी प्रसंगादसंगतैव सप्तनंगीति । विधिनिषे 'वप्रकारापेक्ष्या प्रतिपर्यायं वस्तुन्यनन्तानामपि सप्तभंगीनामेव संतवात् । यथा हि सदसच्च्त्वाच्यामेवं सामान्य विशेषान्यामपि सप्तनंग्येव स्यात् । तथा हि । ३३ । स्यात्सामान्यं । स्यादिशेषः । स्याज्जयं । स्यादवक्तव्यं । स्यात्सामान्याऽवक्तव्यं । स्याद्दिशेषावक्तव्यं । स्यात्सामान्यविशेषाऽवक्तव्यमिति । न चात्रविधिनिषेधप्रकारौ न स्त इति वाच्यं । सामान्यस्य विधिरूपत्वाद्विशेषस्य च व्यावृत्तिरूपतया निषे
प्रधानभाव मे पेला बता बता पायें करीने व्याप्त रहे बे. वली ते सर्वयाप्रकारे कई वक्तव्य नथी; केमके प्रवक्तव्य शब्दे करीने पण ननामापणानो प्रसंग आवे छे. एवीरीते चोथो नांगो जाणवो. | ३२ | ने बाकीना त्रण तो सुगम अभिप्रायवाला बे. वली एकज पदार्थमां स्वीकारता ने निषेध कराता एवा अनंता धर्मोना स्वीकारवनंती संगीना प्रसंगधी या सप्तरंगी अयोग्य बे, एम नही बोलवु . केमके विधिनिषेधना प्रकारनी अपेक्षाव दरेक प्रययप्रते पदार्थांनंती एवी पण सप्तभंगीननोज संभव थाय बे, जेम बता
बतावमे करीने, तेम सामान्य विशेषवमे पण सप्तनंगीज बाय. ते कहे बे. । ३३ । कथंचित् सामान्य बे, कथंचित् विशेष बे, कथंचित् तेन बन्ने बे, कथंचित् प्रवक्तव्य बे, कथंचित् सामान्य प्रवक्तव्य
बे, कथंचित् विशेष अवक्तव्य बे, अने कथंचित् सामान्यविशेषा
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वक्तव्य बे. वल्ली यहीं विधिनिषेधना प्रकारो नयी, एम नही बोलवु,
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धात्मकत्वात् । ३५ । अथवा प्रतिपदशब्दत्वाद्यदा सामान्यस्थ प्रा. धान्यं तदा तस्य विधिरूपता । विशेषस्य च निषेधरूपता । यदा विशेषस्य पुरस्कारस्तदा तस्य विधिरूपता इतरस्य च निषेवरूपता । एवं सर्वत्र योज्यं । ३।। अतः सुष्टतं अनन्ता अपि सप्त नंग्य एव सम्नवेयुरिति । प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां सप्तानामेव संनवातेषामपि मतत्वं । जप्त वेधतजिज्ञासा नियमात । तस्या अपि सप्तविरवं सप्तरे व तत्संदेह नमुत्पादान । तत्यापि सप्त विधत्व नियमः स्वगोचरवस्तुधर्माणां सप्त विधत्वस्येवोपपतरत । ३६ । श्यं च सप्तनङ्गी प्रतिनंगं सकलादेशचनावा विकलादशवन्नावा च । तत्र सकलादेशः
केमके सामान्यने विधिरूपपणुं ने, अने विशेषने व्यावृत्तिरूपपणायें करीने निवेधात्मकपणुं . |३४| अथवा प्रतिपदशब्दपणाश्रो ज्यारे सामान्यने प्रधानपणुं होय, त्यारे तेने विधिरूपपणुं होय, अने विशेपने निषेधरूपपणुं होय; अने ज्यारे विशेषने प्रधानपणुं होय, त्यारे तेने विधिरूपपणु होय, अने सामान्यने निषेधरूपपणु होय ; एवीरीते सर्व जगाए जोमी लेवू ; । ३५ । माट अनंत एवी पण सप्तनंगोनन थाय , ए युक्तन कहां डे, केमके दरेक पर्यायप्रते प्रतिपाद्य एवा पर्यनुयोगो सातन होय डे, अने तैश्री तेनने पण सातपणुं होय छे, केमके तेननी जीझासानो नियम पण सात प्रकारनो होय . वत्नी ते जीझाप्सा पण सात प्रकारनी ले, केमके तेनो संदेह सात प्रकारे जत्पन्न थाय डे; वनी ते संदेह पण सात प्रकारना. नियमवालो ने, केमके तेने गोचर एवा पदार्थधर्मोने सात प्रकारनीन प्राप्ति . । ३६ । वनी आ सप्तनंगी दरेक नांगाप्रते सकलादेशना स्वनाववाली अने विकलादेशना खन्नाववाली ले. तेमां सकलादेश एटले प्रमाणवाक्य, भने तेनुं लदण नीचे प्रमाणे बे. प्रमाणवमे करीने युक्त एवा अ
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४२ प्रमाणवाक्यं । तलदणं चेदं । प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधात्मकत्रस्तुनः कालादिन्निरनेदवृत्तिप्राधान्यादनेदोपचाराचा योगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेशः ।३७। अस्यार्थः। कालादिनिरष्टनिः कृत्वा यदनेदवृ.
धर्मधर्मिणोरप्रथकलावस्य प्राधान्यं तस्मात्कालादिनिनिन्नात्मनामपि धर्मधर्मिणामन्नेदाध्यारोपाक्षा समकालमन्निधायकं वाक्यं सकलादेशः । तहिपरीतस्तु विकलादेशो नयवाक्यमित्यर्थः । ३७ । अयमाशयः । योगपद्येनाऽशेषधर्मात्मकं वस्तु कालादिन्निरनेदवृत्त्याऽन्नेदोपचारेण वा प्रतिपादयति सकलादेशः । तस्य प्रमाणाधीनत्वात् । विकलादेशस्तु क्रमेण नेदोपचारानेदप्राधान्याचा तदनिधत्ते । तस्य नयात्मकत्वात । कः पुनः क्रमः । किंच योगपद्यं । ३ए । यदाऽस्तित्वादिधर्माणां का
नंत धर्मवाला पदार्थने कासादिकोवमे अन्नेदवृत्तिना प्रधानपणाथी अथवा अनेदना नपचारथी एकीहारे प्रतिपादन करनारुं जे वचन, ते सकलादेश कहेवाय. । ३७ । तेनो अर्थ नीचे प्रमाणे जाणवो. काल आदिक आठवझे करीने अनेदवृत्तिथी धर्मर्मिना अनिन्नन्नावनुं जे प्रधानपणुं, तेथी कालादिकोव निन्नरूप एवा पण धर्मधर्मिनना अनेदना अध्यारोपथी समकाले कहेनारूं जे वाक्य ते सकलादेश कहेवाय, अने तेथी विपरीत लक्षणवालुं ते विकलादेश एटले नयवाक्य कहेवाय. । ३० । तेनो नावार्थ ए डे के, सकलादेश ते, एकीवेलाए अशेषधर्मात्मक पदार्थने कालादिकोएं करीने अनेदवृत्तिवमे अथवा अन्नेदनपचारवमे प्रतिपादन करे , केमके ते प्रमाणने आधीन ठे. अने विकलादेश तो कमेंकरीने नेदना नपचारथी अथवा नेदना प्रधानपणाथी ते पदार्थने प्रतिपादन करे , केमके ते नयात्मक ले. हवे क्रम ते कयो ? अने युगपत्पणुं ते शु? (ते कहे जे.) । ३ए । ज्यारे अस्तिपणादिकधर्मोनो कालादिकोवळे नेद कहेवानी
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३४३ लादिनिर्नेदविवदा तदैकशब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने शक्त्यनावात्क्रमः । यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिनिरत्नेदन वृतमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शब्देनैकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकतामापन्नस्याऽनेकाशेषधर्मरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्नवाद्योगपद्यं । १० । के पुनः कालादयः । कानः । आत्मरूपं । अर्थः । संबन्धः । उपकारः । गुणिदेशः । संसर्गः । शब्दः । इति । तत्र स्यान्जीवादिवस्त्वस्त्येवेत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेषानन्तधर्मा वस्तुन्येकडेति तेषां कालेनाऽनेदवृत्तिः ।। यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेवान्यानन्तगुणानामपीति आत्मरूपेणाऽनेदवृत्तिः । १२ । य एव चाधारोऽर्थो व्याख्योऽस्तित्वस्य स एवाऽन्यपर्यायाणामित्यर्थेनाऽनेदवृत्तिः । ४३ । य एव चाऽवि
इच्छा होय, त्यारे एक शब्दने अनेक अर्थोनी प्रतीति कराववामां शक्ति नही होवाश्री क्रम थाय डे. वनी ज्यारे तेज धर्मोनुं कालादिकोवमे अनेदें करीने युक्त एबुं निनस्वरूप कहेवामां आवे, त्यारे एक धर्मनी प्रतीति कराववामां मुख्य एवा एक शब्दे करीने पण तदात्मकपणाने प्राप्त थयेला एवा बाकीना अनेकधर्मरूप पदार्थना प्रतिपादनना संनवश्री युगपत्पणुं . 100 । हवे ते कालादिक आठ कया कया ? ते कहे . काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, नपकार, गु. णिदेश, संसर्ग अने शब्द. त्यां ‘जीवादिक वस्तु कथंचित् बेज' ए वाक्यमां ने कालवाद्धं अस्तिपणुं , ते कालवाला बाकीना अनंताधर्मो एकज वस्तुमां ने, अने तेश्री तेउनी कालवमे अनेदवृत्ति ने. । ४१ । वन्नी अस्तिपणाने तद्गुणपणारूप जे आत्मस्वरूप , तेन बीना अनंत गुणोने. पण डे, एवीरीते आत्मस्वरूपवमे अन्नेदवृत्ति ने । ४२ । वत्ती अस्तिपणाना आधाररूप जे ऽव्य नामनो अर्थ डे, तेज बीना पर्यायोनो डे, एवीरीते अर्थवमे अनेदवृत्ति . । ३ ।
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ध्वगन्नावः कथंचितादात्म्यतण: सम्बन्धोऽस्तित्वस्य स एव शेषविशेषाणामिति सम्बन्धेनाऽनेदवृत्तिः । ४४ । य एवचोपकारोऽस्तित्वेन खानुरक्तत्वकरणं स एव शरैरपि गुणै रित्युपकारेणाऽनेदवृतिः ।। य एव गुणिनः संबन्धी देशः क्षेत्रलकणोऽस्तिवस्य स एवान्यगुणानामिति गुणिदेशेनाऽन्नेदवृत्तिः । ४६ । य एव चैकवस्त्वात्मनाऽस्तित्वस्य संसर्गः स एव शेषवर्माणामिति संसर्गेणाऽनेदवृत्तिः । अविष्वग्नावेऽ, नेदः प्रधान नेदो गौणः । संसर्गे तु नेदः प्रधानमन्नेदो गौण इति विशेषः । ४ । य एव चास्तीति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एव शेषाऽनन्तधर्मात्मकत्यापीति शब्देनाउनेदवृत्तिः-11 । पर्यायाधिकनय गुण नावे व्याधिकनयप्राधान्या उपयो । व्यायिक
सेमन अस्तिपणानो अनिन्नन्नावरूप कथंचित् तादात्म्यत्तदाणवालो ने संबंध में, तेन बीना विशेषोनो डे, एवीरीते संबंधवमे अनेदवृत्ति जे. । १४ । अस्तिपणामे करीने पोतामां अनुरक्त करवारूप जे नपकार , तेज बीजा गुणोवझे पण डे, एवीरीते नपकारें करीने अनेदवृत्ति . । ३५। वली गुणीनो संबंधी देवन्नकणवालो अस्तिपणानो ने देश में, तेज अन्यगुणोनो बे, एवीरीते गुण देशवमे अनेदवृत्ति जे. । ४६ । वन। जे एकवस्तुरूपे अस्तिपणानो संसर्ग डे, तेज बीना शेषधर्मोनो डे, एवीरीते संसर्गवमे अन्नेदवृत्ति ; तेमां अ. निन्नन्नावमां अनेद प्रधान ने, अने नेद गौण ने, अने संसर्गमां नेद प्रधान ने, अने अन्नेद गौण जे, एटलुं विशेष . । ४ । वत्ती अस्ति एवो जे शब्द अस्तिपणाना धर्मवान्नी वस्तुनो वाचक डे, तेन बीजा अनंतधर्मात्मकनो पण , एवीरीते शब्दवमे अनेदवृत्ति ले. ।। पर्यायाधिकनयगुणनावमां इत्यार्थिक नयना प्रधानपणाथी अन्नेदवृत्ति थाय ने, अने व्यार्थिकगुणनावमा पर्यायार्थिक प्रधा
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गुणनावे पर्यायार्थिकप्राधान्ये तु न गुणानामन्नेदवृत्तिः सम्नवति । समकानमेकत्र नानागुणानामसम्नवात् ।।ए। सम्नवे वा तदाश्रयस्य तावहा लेदप्रसङ्गात् । नानागुणानां सम्बन्धिन आत्मरूपस्य च निनत्वात् आत्मरूपाउनेदे तेषां नेदस्य विरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वादन्यथा नानागुणाश्रयत्वस्य विरोधात् । सम्बन्धस्य च सम्बधिनेदेन नेददर्शनान्नानासम्बन्धिनिरेकत्रैकसम्बन्धाऽघटनात् । तैः क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतस्वरूपस्याऽनेकत्वात् अनेकैरुपकारिनिः क्रियमाणस्योपकारस्य विरोधात् । गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं नेदात्तदानेदे निन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाऽन्नेदप्रसङ्गात् । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गिन्नेदात्तदनेदे संसर्गिनेदविरोधात् ! शब्दस्य प्रतिविषयं नानात्वात्सर्वगुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानाभेकशब्दवाच्यतापत्तेः ।
Arrrrrrrroran नपणुं होते ते गुणोनी अन्नेदवृत्ति संनवती नथी, केमके एकीवेलाए एकन पदार्थमा विविधप्रकारना गुणोनो असंनव होय . । ४ए । अथवा जो संनव होय, तो तेना आश्रयने त्यांसुधि नेदनो प्रसंग थशे, वली नाना प्रकाराना गुणोनुं संबंधि एवं आत्मस्वरूप निन्न थवाथी,
आत्मस्वरूपना अन्नेदमां ते गुणोना नेदनो विरोध आवशे; वत्नी सं. बंधिना नेदे करीने संबंधनो नेद देखावाथी, नानाप्रकारना संबंधिनसाथे एक भगोए एक संबंध घटी शकशे नही ; वली तेवमे कराता चोकसस्वरूपवाला नपकारने अनेकपणुं थवाथी अनेक उपकारीबमे कराता नपकारने विरोध आवशे; वली दरेक गुणप्रते गुणिदेशनो नेद थवाश्री, तेना अनेदमा निन्नार्थगुणोने पण गुणिदेशना अनेदनो प्रसंग थशे; वली संसर्गने दरेकसंसर्गीप्रते नेद थवाश्री, तेना अन्नेदमां संसर्गीना नेदनो विरोध आवशे; वली दरेक विषयप्रते शब्दने विविधप्रकारपणुं श्रवाथी, सर्व गुणोनुं एकशब्दवाच्यपणुं थवामां सर्व
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स्वद शब्दान्तरवैफल्यापत्तेश्च । ५० | तत्वतोऽस्तित्वादीनां एकत्र वस्तुन्येवमनेदवृत्तेरसंनवे कानादिनिर्मिनात्मनामनेदोपचारः क्रियते । तदेतान्यामन्नेदवृत्त्यनेदोपचाराच्यां कृत्वा प्रमाणप्रतिपन्नाऽनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः समसमयं यदनिधायकं वाक्यं स सकलादेशः। प्रमाणवाक्याऽपरपर्यायः । ५१ । नय विषयीरुतस्य वस्तुधर्मस्य नेदवृत्तिप्राधान्याद् ज्नेदोपचाराधा क्रमेण यदनिधायकं वाक्यं स विकलादेशो नयवाक्यापरपर्याय इति स्थितं । ततः साधूक्तमादेशलेदो दिनसप्तनङ्गमिति काव्यार्थः ॥
। ५५ । अनन्तरं नगवद्दर्शितस्याऽनेकांतात्मनो वस्तुनो बुधरूपवेद्यत्वमुक्तं । अनेकान्तात्मकत्वं च सप्तनङ्गीप्ररूपणेन सुखोन्नेयं स्यादिति
पदार्थोने एकशब्दना वाच्यपणानी आपत्ति आवशे, तेम बीना शब्दोने निष्फलपणानी आपत्ति थशे. । ५० । एवीरीते तत्वथी एकन वस्तुमां अस्तिपणा दिकनी अनेदवृत्तिनो असंनव होते ते कालादिकोवमे निन्नरूप एवा ते अस्तिपणादिकोनो अनेदोपचार कराय ने ; माटे ते अन्नेदवृत्ति अने अनेदोपचारवमे प्रमाणे करीने युक्त एवा अनंतधर्मात्मक पदार्थ ने कहेनारुं तुल्यसमयवाद्धं जे वाक्य ते सकलादेश कहेवाय, के नेनुं बीजुं नाम प्रमाणवाक्य ले. । ५१ । नयविषयरूप करेला वस्तुधर्म ने नेदवृत्तिना प्रधानपणाथी अथवा नेदना न. पचारथी क्रमवमे कहेनाकै जे बाक्य ते विकलादेश कहेवाय, के जेनुं बीजुं नाम नयवाक्य . माटे आदेशन्नेदे करीने कहेला सात नां. गान बे, एम जे का, ते युक्तन ले. एवीरी ते त्रेवीसमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
।५। नगवाने देखामेला अनेकांतात्मक पदार्थ- बुधरूपवैद्यपणुं पर कह्यु; अने ते अनेकांतात्मकपणुं सप्तनंगी प्ररूपवावमे
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सापि निरूपिता । तस्यां च विरुधर्माध्यासितं वस्तु पश्यन्त एका न्तवादिगेऽबुधरूपा विरोधमुन्नावयन्ति । तेषां प्रमाणमार्गाच्च्यवनमाह ।
नपाधिनेदोपहितं विरुई।
नार्थेष्वसत्त्वं सदवाच्यते च ॥ श्सप्रबुझ्चैव विरोधनीता।
__ जमास्तदेकांतहताः पतन्ति ॥२४॥ पदार्थोमां अंशन्नेदोवमे अर्पण करेलु अतापणुं, उतापणुं अने अवाच्यपणुं विरोधवाचु नश्री; एवीरीतना वास्तविक विरोधाऽनावने जाण्याविनाज विरोधथी मरेला, अने तेथी मूर्ख एवा ते परवादीन, ते एकांतवादवमे हणाया थका स्खनना पामे डे. . ।। अर्थेषु पदार्थेषु चेतनाचेतनेष्वसत्त्वं नास्तित्वं न विरुई । नविरोधावरुई । अस्तित्वेन सह विरोधं नाऽनुन्नवतीत्यर्थः । न केवलमसत्वं न विरोधावरुई किं तु सदवाच्यते च । सच्चाऽवाच्यं च सदवाच्ये । तयो वो सदवाच्यते । अस्तित्वाऽवक्तव्यत्वे इत्यर्थः । ते अपि न विरु। तथाहि ।। अस्तित्वं नास्तित्वेन सह न विरुध्यते ।
navin करीने सुगम थाय, तेथी ते संप्तनंगी पण निरूपण करी, अने ते सप्तनंगीमां विरुधर्मवाना पदार्थ ने जोता एवा एकांतवादी अझानी। विरोधने नन्नावे जे; तेन्नुं प्रमाणमार्गथी खसवापणुं कहे जे.
।। अर्थोमां एटले चेतन अचेतनरूप पदार्थोमां असत्त्व एटले नास्तिपणुं विरोधवाळु नथी; अर्थात् अस्तिपणानीसाथे विरोध धरा. वतुं नथी ; वली केवल ते नास्तिपणुंन विरोधवानुं नथी, परंतु सत्पणुं एटले अस्तिपणुं अने अवक्तव्यपणुं पण विरोधवानुं नथी. ते कहे .। २ । अस्तिपणुं नास्तिपणा साथे विरोधवाद्यं यतुं नथी, अने वि
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३ अवक्तव्यत्वमपि विधिनिषेधात्मकमन्योऽन्यं न विरुध्यते । अथवा अंवक्तव्यत्वं वक्तव्य वेन साकं न विरोधमुहहति । अनेन च नास्तित्वाऽस्तित्वाऽवक्तव्यत्वलणनङ्गत्रयेण सकलसप्तनंग्या निर्विरोधता उपलदिता। अमीषां त्रयाणां मुख्यत्वाच्छेषनङ्गानां च संयोगनत्वेनाऽमी. प्वेवान्तावादिति । ३। नन्वेते धर्माः परस्परं विरुज्ञः तत्कथमेकत्र वस्तुन्येषां समावेशः संनवति । इति विशेषणारेण हेतुमाह । नपाधिनेदोपहितमिति । नपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकारास्तेषां नेदो नानात्वं तेनोपहितमार्पतं (असत्त्वस्य विशेषणमेतत् ) उपाधिनेदोपहितं सदर्थेष्वसत्वं न विरुई (सदवाच्यतयोश्च वचनन्नेदं कृत्वा योजनीयम् ) नपाधिनेदोपहिते सती सदवाच्यते अपि न विरु३ । । । अयमन्नि
man
धिनिषेधरूप अवक्तव्य पण अन्यो अन्य विरोधवानुं यतुं नथी ; अ. थवा अवक्तव्यपणुं वक्तव्यपणासाथे विरोधने धारण करतु नश्री. वत्नी आथी करीने नास्तिपणुं, अस्तिपणुं अने अवक्तव्यपणुं, एम त्रण नांगावमे सर्व सप्तनंगीतुं अविरोधिपणुं देखाड्युं ; केमके आ त्रणे नांगा मुख्य होवाथी, अने बाकीना नांगा (तेनना) संयोगथी नत्पन्न थयेला होवाथी, तेननो आत्रणेमांज समावेश थाय ने. ३। आ धर्मो तो परस्पर विरोधि , तो पड़ी एकज वस्तुमां तेन्नो समा. वेश केम संनवे? एवी शंकाने दूर करवामाटे विशेषणरूपे हवे हेतु कहे जे. नपाधि एटने अवच्छेदक एवा अंशप्रकारो, तेन्नुं ने विविधपणुं, तेणे आपेवें एवं अप्रतापणुं विरोधवाद्यं नश्री (उपाधिन्नेदोपहितं) (ए असत्वंनुं विशेषण बे.) (वनी तेज विशेषण सत्पणाने अने अवाच्यपणाने पण वचननेद करीने जामी लेवु.) अर्थात् नपा:धनंदे अर्पण करेनुं सत्पणुं अने अवाच्यपणुं पण विरोधविनानुं नश्री. । ।। अनिप्राय ए जाणवो के, एकबीनाना परिहारे करीने
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ए प्रायः । परस्परपरिहारेण ये वर्तते तयोः शीतोष्णवत्सहानवस्थानलको विरोवः । न चात्रैवं । सञ्चाऽसवयोरितरेतरम विष्वगन्नावन वर्तनात् । न हि घटादौ सत्वमसत्वं परिहत्य वर्तते । पररूपेणाऽपि सस्वप्रसङ्गात । तथा च तद्व्यतिरिक्तान्तिराणां नैरर्थक्यं । तेनैव त्रिनुवनार्यसाध्याश्रक्रियाणां सिः । न चाऽसत्त्वं सत्त्वं परिहृत्य वर्तते । स्वरूपेणाऽप्यसत्व प्राप्तेस्तथा च निरुपाख्यत्वात्सर्वशून्यतेति । तदा हि विरोधः स्याद्ययेकोपाधिकं सत्त्वमसत्वं च स्यात् । न चैवं । यतो न हि येनैवांशेन सत्वं तेनैवाऽसत्वमपि । किंत्वन्योपाधिकं सत्त्वमन्योपाधिकं पुनरसत्वं । स्वरूपेण हि सत्वं पररूपेण चासत्वं । ६ । दृष्टं
जे बन्ने वर्ते , तेनबच्चे शीतोष्णनीपेठे साथै नही रहेवाना लक्षणवालो विरोध होय जे, अने अहीं तो तेवू कंई नथी, केमके सतूपणुं अने असत्पणुं, बन्ने परस्पर अनिन्नन्नावे वर्ते जे; कारणके घटादिकमां बता पणुं अउतापणाने तनी ने कंज्ञ रहेतुं नथी, केमके तेथी तो पररूपे करीने पण उतापणानो प्रसंग आवे; अने तेवीरीते तो तेथी निन्न एवा बीजा पदार्योने व्यर्थपणुं प्रावे, अने त्रणे नुवनोमा रहेला पदार्थोवमे साध्य एवी अर्थक्रियान पण तेना वमेन सिह थर जाय. । ५। वन्नी असत्पणुं ने ते सतूपणाने बोमीने पण रहेतुं नथी, केमके तेथी तो निजरूपवमे पण असत्पणानी प्राप्ति थाय, भने तेम होते बते तो निरूपाख्यपणाथी सर्वशून्यपणुं थइ जाय. वनी विरोध पण त्यारेज थाय, के ज्यारे एकनपाधिवाद्धं सत्पणुं अने असत्पणुं थाय; अने तेम तो ने नही, केमके जैज अंशवमे सतपणुं , तेज अंशवमे कंई असत्पएं पण नश्री ; परंतु अन्य नपाधिवाद्धं सत्पणुं बे, अने अन्य नपाधिवाळ असत्पणुं ने ; अर्थात् निजरूपवमे सत्पणुं डे, अने पररूपपणे असतूपणुं . । ६ । केमके एकन चित्रपटमां अन्यनपा.
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श्ए० हि एकस्मिन्नेव चित्रपटावय विनि अन्योपाधिकं तु नीनत्वमन्योपाधिकाश्चेतरेवर्णाः । नीलत्वं हि नीलीरागाद्युपाधिकं वर्णान्तराणि च तत्तइञ्जनश्व्योपाधिकानि एवं मेचकरक्तेऽपि ततहर्णपुलोपाधिकं वैचिव्यमवसेयं । न चैनिदृष्टान्तैः सत्वासत्त्वयोनिन्नदेशत्वप्राप्तिचित्रपटाद्यवयविन एकत्वात्तत्रापि निन्नदेशत्वाऽसिझेः । कथंचित्पदस्तु दृष्टान्ते दार्शन्तिके च स्याक्षादिनां न उर्खनः । । एवमप्यपरितोषश्चेदायुप्मतस्तकस्यैव पुंसस्तत्तउपाधिनेदात्पितृत्वपुत्रत्वमातुलत्वन्नागिनेयत्वपितृव्यवत्रातृव्यत्वादिधर्माणां परस्पर विरुझानामरि प्रसिझिदर्शनान् किं वाच्यं । एवमवक्तव्यत्वादयोऽपि वाच्याः । ७ । इत्युक्तप्रकारण नुपाधिनेदन वास्तवं विरोधाऽनावमप्रबुद्ध्यै वाऽज्ञात्वैव (एवकारोऽव
धिवातुं नीलपणुं, अने अन्यनपाधिवाला बीना रंगो देखायेला डे; तेमां नोनपणुंडे ते गलीना रंगआदिकनी नपाधिवाद्धं डे, अने बीजा रंगो ते ते रंगना इयोनी नपाधि वाला ले. एवीजरी ते काला अने लानमां पण ते ते वर्णना पुमलोनी उपाधिवालु विचित्रपणुं जाणी ले. वन्नी आ दृष्टांतोवमे सत्पणाने अने असत्पणाने कंई निन्नदेशनी प्राप्ति नश्री, केमके चित्रपटादिक अवयविने एकपणुं होवाश्री त्यां पण निन्नदेशपणानी असिदिले. तेम दृष्टांत अने दार्टी तिकमां कथंचित् पद तो स्याहादीनने कंई उलन नथी. । ७ । वली हे श्रायुष्मान्! एटलाश्री पण जो तने असंतोष रहेतो होय, तो एकज पुरुपने ते ते नपाधिनेदश्री पितापणुं, पुत्रपणुं, मामापणुं, नाणेजपणुं, काकापणुं तथा नत्रीनापणुं इत्यादिक. परस्पर विरुक्ष धर्मोनी पण प्रसिध्धि देखावाथी शुं कहेवू ? माटे एवीरीते अवक्त.व्यादिकोने पण जाणी लेवा. । । एवीरीते नपर कहेला प्रकारवमे नपाधिनेदवझे सत्य एवा पण विरोधना अन्नावने नही जाणीनेज (अहीं एवकार
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३५१ धारणे स च तेषां सम्यगङ्गानस्याऽन्नाव एव न पुनलेशतोऽपि नाव इति व्यक्ति ) ततस्ते विरोधनीताः सत्त्वाऽसत्वादिधर्माणां बहिर्मुखशेमुप्यासनावितो यो विरोधः सहाऽनवस्थानादिस्तस्मानीतास्त्रस्तमानसाः । अत एव नमास्ताविक नयहेतोरनावेऽपि तथा विधपशुवनीतत्वान्मूर्खाः परवा दिनस्तदेकान्तहतास्तेषां सत्त्रादिधर्माणां य एकान्तइतर धर्म निषेधनेन स्वानिप्रेतधर्मव्यवस्थापन निश्चयस्तेन हता व हताः पतन्ति स्खलन्ति ।ए। पतिताश्च सन्तस्ते न्यायमार्गक्रमणेनाऽसमर्या न्यायमार्गाधनीनानां च सर्वेषामप्याक्रमणीयतां यान्तीति नावः । या पतन्तीति प्रमाणमार्गतश्च्यवन्ते । लोके हि सन्मार्गच्युतः पतित इति परिनाप्यते ।१० अथवा यथा वजादिप्रहारेण हतः पतितो मूर्गमतुच्छामासाद्य
निश्चयार्थमां ने अने ते एवं जणावे ने के, ते अन्यदर्शनीनने सम्यम्ज्ञाननो अनावन डे, परंतु लेशमात्र पण नाव नथी.) अने तेथी तेन विरोधथी मरी गया जे. अर्थात् बहिर्मुख बुध्धिवमे जाणेलो, एवो सत्पणा तया असत्पणादिकनो साथे नही रहेवारूप जे विरोध, तेथकी त्रासयुक्त मनवाला थया ने; अने तेथी करीनेज तेन जम डे, एटले खरेखरो नयनो हेतु नही होवाउतां पण तेवीरीतना पशुनीपेठे जय पामवाथी मूर्ख एवा ते परवादीन, ते सत्त्वादिक धर्मोनो जे एकांतवाद, एटले बीना धर्मोना निषेधपूर्वक फक्त पोत मानेला धर्मनो स्थापनानो ने निश्चय, तेवके जाणे हणाया होय नही, तेम स्खलना पामे
; । ए । अने एवीरीते स्खनना पामताथका न्यायमार्गने तोमोपामवाथी असमर्थ थयायका, न्यायमार्गमा चालनारा एवा सर्व मनुष्योप्रते
आक्रमणीयपणाने पामे डे, एवो नावार्थ जाणवो. अथवा 'पतंति' एटने प्रमाण मार्गयी च्युत थाय जे; जे माणस सत्य मार्गथी च्युत
१। भीरुत्वान्मुखीः । इति द्वितीयपुस्तकपाठः
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निरुदिवाक्प्रसरो नवति । एवं तेऽपि वादिनः स्वाऽभिमतैकान्तवादेन युक्तिसरणिमननुसरन्तो वज्जाशनिप्रायेण निहताः सन्तः स्यादादिनां पुरतोऽकिंचित्करा वाङ्मात्रमपि नोच्चारयितुमीशत इति । ११ । अत्र च विरोधस्योपलक्षणत्वाहैयधिकरण्यमनवस्था संकरो व्यतिकरः संशयोऽप्रतिपत्तिर्विषयव्यवस्थाहा निरित्येतेऽपि परोनावनीया दोषा अन्यूह्याः । तथाहि । १२ । सामान्य विशेषात्मकं वस्त्वित्युपन्यस्ते परे उपलब्धारो नवन्ति । यथा सामान्य विशेषयोर्विधिप्रतिषेधरूपयेोरेकत्रान्नेि वस्तुन्यसंनवाच्चीतोष्णवदिति विरोधः । न हि यंदेव विधेरधिकरणं तदेव प्रतिषेधस्याधिकरणं नवितुमर्हति एकरूपतापत्तेतस्तो वैयधिकरण्यमपि भवति | १३ | अपरं च येनात्मना सामान्यस्याधिकरणं येन च
थाय बे, ते दुनीयामां पण 'पतित ' कहेवाय बे. । १० । अथवा वजादिकना प्रहारवहणायाश्री पतित थयेलो माणस अत्यंत मूर्च्छा पामीने जेम प्रवाचक थर जाय बे, तेम ते वादीन पण युक्तिमार्गने नही नुसरता एवा वज्रसरखा पोते मानेला एकांतवादवमे हणाया थका, स्यादादवादीनी गल अशक्त थया थका वचनमात्र पण नच्चरवाने समर्थ थता नथी । ११ । वली अहीं विरोधना उपलक्षप्रतिपत्ति
यी वैयधिकरण्य, त्र्यनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अने विषयव्यवस्था हानि, एटला परोद्भावनीय दोषो पण जाणी लेवा. ते कहे . | १२ | पदार्थ सामान्यविशेषात्मक बे, एवं स्थापन करते बते, बीजा कहेनारान होय बे के, विधि ने प्रतिषेधरूप एवा सामान्य ने विशेषनो अभिन्न एवी एक वस्तुमां असंभव होवाथी शीतोष्णनीपेठे विरोध मावे छे. वली जे विधिनुं अधिकरण बे, तेज प्रतिषेधनुं अधिकरण यवाने योग्य नथी ; केमके तेथी तो एकरूपपपानी आपत्ति यात्रे छे, मने तेथी वैयधिकरण्य नामनो दोष पण
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३५३ विशेषस्य तावप्यात्मानौ एकेनैव स्वभावेनाधिकरोति हन्यां वा स्वनावायां । एकेनैव चेत्तत्र पूर्ववद्विरोधः । छायां वा स्वनावाच्यां सामान्य विशेषाख्यं स्वनावश्यमधिकरोति । तदाऽनवस्था | वपि स्वभावान्तराज्यां तावपि स्वभावान्तराज्यामिति । १४ । येनात्मना सामान्यस्याधिकरणं तेन सामान्यस्य विशेषस्य च । येन च विशेषस्याधिकरणं तेन विशेषस्य सामान्यस्य चेति संकरदोषः । १५ । येन स्वनावेन सामान्यं तेन विशेषो । येन विशेषस्तेन सामान्यमिति व्यतिकरः । ततश्च वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्तेः संशयः । ततश्चाऽप्रतिपत्तिः । ततश्च प्रमाण विषयव्यवस्थाहानिरिति । १६ । एते
याय बे. । १३ । वली जे स्वरूपवमे सामान्यनुं प्रधिकरण बे, अने जेवमे विशेष अधिकरण बे, ते बन्ने स्वरूपो शुं एकज स्वनाववमे
विकरण करे बे ? अथवा बन्ने स्वभावो मे अधिकरण करे बे ? जो कहेशो के एकज स्वनाववमे, तो पूर्वनीपेठेज विरोध आवशे, मने जो कहेशो के बन्ने स्वभावावमे, तो सामान्य विशेष नामना बन्ने स्वजावोनुं ज्यारे अधिकरण करे बे त्यारे तेन बन्ने पण बीजा बे स्वनावो वमे, अने तेन बन्ने पण बीजा बे स्वनावो मे एम मनवस्था दोष त्र्यावे बे. । १४ । वली जे स्वरूपवने सामान्यनुं त्र्यधिकरण बे, ते स्वरूप मे सामान्यनुं मने विशेषनुं; तथा जेत्रमे विशेषनुं अधिकरण बे, तेव विशेषनुं ने सामान्यनुं पण, एवीरीते संकर नामनो दोष यावे छे. | १५ | वली जे स्वनाववमे सामान्य बे, तेवमे विशेष बे, मने जेवमे विशेष बे, तेत्रमे सामान्य बे, एवीरीते व्यतिकर दोष यावे बे ; ने तेथी असाधारण कारवमे पदार्थनो निश्चय करवानी शक्तिथी संशयदोष यावे बे; अने तेथी प्रतिपत्तिदोष ( स्विकारदोष ) यावे; अने तेथी प्रमाण विषयव्यवस्थानी हानि नामनो दोष आवे
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३५४ च दोषाः स्याहादस्य जात्यन्तरत्वानिरवकाशा एव । अत. स्याहादमर्म वेदिनिरुधणीयास्तत्तउपपत्तिनिरिति । स्वतन्त्रतया निरपेक्ष्योरेव सामान्य विशेषयोर्विधिप्रतिषेधरूपयोस्तेषामवकाशात् । १७ । अथवा विरोधशब्दोऽत्रदोषवाची। यथा विरुक्ष्माचरतीति उष्टमित्यर्थः । ततश्च विरोधेन्यो विरोधवैयधिकण्यादिदोषेच्यो नीता इति व्याख्येयम् । एवं च सामान्यशब्देन सर्वा अपि दोषव्यक्तयः संगृहीता नवन्तीति काव्यार्थः ॥
।१७। अथाऽनेकान्तवादस्य सर्वव्यपर्यायव्यापित्वेऽपि मूत्रनेदापेक्ष्या चातुर्विध्यानिधानारेण नगवतस्तत्वाऽमृतरसास्वादसौहित्यमुपवर्णयन्नाह ।
स्यान्नाशि नियं सदृशं विरूपं । वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव ॥
ने. । १६ । स्याक्षादमतने तो जात्यंतरपणुं होवाथी आ दोषो तेमा आवी शकता नथी ; आथी करीने स्याज्ञादनो रहस्य जाणनारानए ते ते नपपत्तिनबमे तेननो नकार करी लेवो; केमके स्वतंत्रपणावमे निरपेक्ष एवा ते विधिनिषेधरूप सामान्य विशेषमां ते दोषो आवे छे. । १७ । अथवा अहीं विरोधशब्द दोषवाची जे. जे विरुझ्ने आचरे ते उष्ट कहेवाय ; अने तेथी विरोधोथी एटले विरोध अने वैयधिकरण्यादिक दोषोथी मरेला. एवो अर्थ करी लेवो. अने एवीरीते सामान्यशब्दवमे सर्व दोषव्यक्तिन संगृहित थाय ने ; एवीरीते चोवीसमाकाव्यनो अर्थ जाणवो.
।१७। हवे अनेकांतवादने जोके सर्व व्यपर्यायव्यापिपणुं ठे, बतां पण मूलनेदनी अपेक्षावमे चार प्रकारो कहेवावमे करीने प्रनुना तत्त्वरूपी अमृतरसना स्वादना सुहितपणाने वर्णवताथका कहे जे.
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विपश्चितां नाथ निपीततत्त्व
मुधोगतोगारपरंपरेयम् ॥ २५॥ ते एकन वस्तु कथंचित् विनाशवानी अने कथंचित् नित्य ने, कथंचित् सदृश ने अने कथंचित विरूप डे, कथंचित् वाच्य डे अने कथंचित् अवाच्य , कथंचित् सत् डे अने कथंचित् असत् ले. हे प्रनु ! एवीरीतनी तत्वरूप अमृत पीवाथी नीकलेली विधानाना नजारोनी श्रेणि जे. अथवा हे बुद्धिवानोना स्वामी ! तत्वरूपी अमृतने पीवायी नीकलेली आपनी ए नजारोनी श्रेणि जे. ॥ २५॥
।१। स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं । अष्टास्वपि पदेषु योज्यं । तदेवाधिकृतमेकं वस्तु स्यात्कथंचिन्नाशि नशनशीलमनित्यमित्यर्थः । स्यान्नित्यम विनाशधर्मीत्यर्थः । एतावता नित्याऽनित्यनदणमेकं विधानं । ५। तथा स्यात्सदृशं अनुवृत्तिहेतुसामान्यरूपं । स्याहिरूपं विविधरूपं विसदृशपरिणामात्मकं व्यावृत्तिहेतुविशेषरूपमित्यर्थः । अनेन सामान्य विशेषरूपो दितीयः प्रकारः । ३ । तथा स्याहाच्यं व
।। ' स्यात् ' ए अव्यय अनेकांतने जणावनारो जे, अने तेने आठे पदोमां जोमी लेवो. 'तदेव' एटले जेनो अधिकार चाले डे तेज एक पदार्थ कथंचित् विनाशी एटले अनित्य ने, अने कथंचित् नित्य एटले विनाशधर्मे करीने रहित ले. एवो अर्थ जाणवो. एवीरीते नित्याऽनित्यनवणवालो पहेलो प्रकार कह्यो. ।। तथा ते पदार्थ कथंचित् सदृश एटले अनुवृत्तिना हेतुवालो सामान्यरूप ने, अने कथंचित विरूप एटले विविधरूपवालो अर्थात् असदृशपरिणामरूप एटले व्यावृत्तिना हेतुवालो विशेषरूप ले. एवीरीते सामान्य विशेषरूप बीजो प्रकार कह्यो. । ३ । वनी ते पदार्थ कथंचित् वक्तव्य जे अने
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... - . ३५६ क्तव्यं स्यान्न वाच्यमवक्तव्यमित्यर्थः । अत्र च समासेऽवाच्यमिति युक्तं तथाप्यवाच्यपदं योन्यादौ रूढमित्यसन्यतापरिहारार्थ न वाच्यमित्यसमस्तं चकार स्तुतिकारः । एतेन अनिताप्याऽननित्लाप्यस्वरूपस्तृतीयो नेदः ।।। तथा स्यात्सद् विद्यमानं अस्तिरूपमित्यर्थः । स्यादसत्तलिदणमित्यनेन सदसदाख्या चतुर्थी विधा । है विपश्चितां नाथ संख्यावतां मुख्य श्यमनन्तरोक्ता निपीततत्वसुधोगतोनारपरम्परा तवेति प्रकरणात्सामाझ गम्यते । ५ । तत्वं यथावस्थितवस्तुस्वरूपपरिच्छेदस्तदेव जरामरणापहारिवाहिबुधोपन्नोग्यत्वान्मिथ्यात्व विषोमिनिराकरिष्णुत्वादान्तराह्लादकारित्वाच्च पीयूषं तत्वसुधा । नितरामनन्यतया पीता आस्वादिता या तत्वसुधा तस्या उद्गता प्राउनता तकारणिका या नजारपरम्परा उगारश्रेणिरित्यर्थः । ६। यथा हि
कथंचित् अवक्तव्य जे. अहीं समासमां 'अवाच्य' शब्द युक्त हतो, तोपण 'अवाच्य' शब्द योनिआदिकमां रूढ बे, तेथी असभ्यतानो परिहार करवामाटे स्तुतिकारे ' न वाच्यं' एवं पद कयुं . एवीरीते वाच्यअवाच्यस्वरूपवालो त्रीनो प्रकार कह्यो. ।।। तथा कथंचित् सत् एटले विद्यमान अर्थात् अस्तिरूप पदार्थ जे; अने कथंचित् असत् एटले तेथी विपरीत लक्षणवालो . एवीरीते सत्यसतरूप चोथो प्रकार कह्यो. हे ! बुध्विानोमां मुख्य एवा प्रनु! आ नपर कहेली आपनी, पीधेला एवा तत्वरूपी अमृतनी बहार नीकलेली नमारोनी श्रेणि जे. अहीं 'आपनी ' ए पद चालता प्रस्तावथी अथवा सामNथी जणाश् आवे . । ५। तत्व एटले जे यथास्थितवस्तुस्वरूपनो परिच्छेद, तेरूपीज अमृत. केमके ते तत्वरूपी अमृत जरा अने मरणने दूर करनारुं , विबुधोवमे नपन्नोग्य बे. मिथ्यात्वरूपी जरना मोजांने दूर करनारुं , तथा मनमां हर्ष करनारुं . ते तत्वरूपी अ
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कश्चिदाकण्ठं पीयूषरसमापीय तदनुविधायिनीमुद्गारपरम्परां मुञ्चति तथा नगवानपि जरामरणापहारितत्वामृतं चरमा खाद्य तइसानुविधायिनी प्रस्तुताऽनेकान्तवादनेदचतुष्टयीलदणामुद्गारपरम्परांदेशनामुखेनोद्गीर्णवा नित्याशयः । ७ । अथवा यैरकान्तवादिनिर्मिथ्यात्वगरलनोननमातृप्ति नदितं तेषां तत्तच्चनयुक्ता उद्गारप्रकाराः प्राक्प्रदर्शिताः । यैस्तु पचेनिमप्राचीनपुण्यप्राग्नारानुगृहीतैर्जगद् गुरुवदनेन्उनिःस्यन्दितत्वामृतं मनोहत्य पीतं तपां विपश्चितां यथार्थवादविउषां हे नाथ श्यं पूर्वदलदर्शितोल्लेखशेखरा नद्गारपरम्परेति व्याख्येयं ।। एते चत्वारोऽपि वादास्तेपु तेषु स्थानेषु प्रागेव चर्चितास्तथाहि । आदीपमाव्योमेति वृत्ते नित्याऽनित्यवादः । अनेकमेकात्मकमिति काव्ये सा
wwwmorammarwinner मृतथी नत्पन्न थयेनी तत्कारणीक नकारश्रेणि जाणवी. । ६ | जम कोश्क लेक कंठसुधि अमृतरस पीने तेनासरखी नकार परंपरा मूके बे, तेम नगवाने पण जरामरणने दूर करनारा तत्वरूप अमृतने पोतानी मेले पीने ते रससरखी नपर कहेली अनेकांतवादना चारनेदोना लक्षणवाली नजारपरंपरा देशनारूपी मुखवझे बहार कहामी , एवो आशय जाणवो. । ७ । अथवा जे एकांतवादीनुए मिथ्यात्वरूपी फेरी नोजन डेक तृप्ति थतांसुधि नदाण करेलु बे, तेन्ना ते ते वचनोरूप नजारना प्रकारो पूर्वे देखाड्या ने, परंतु परिपक्क थयेला पुण्यना समूहथी अनुग्रहित थयेला एवा जे माणसोए प्रनुना मुखरूपी चश्मांथी जरता तत्वरूपी अमृतने पेट नरीने पीधेनु डे, तेवा यथार्थवादी विज्ञानोनी, हे प्रन्नु! पूर्वे कहेली अति उत्तम प्रकारनी नमार श्रेणि डे, एवो अर्थ पण जाणवो. ।। आ पूर्वे कहेला चारे वादोनी (नीचे प्रमाणे ) ते ते स्थानकोमा चर्चा करेल . ते कहे . 'आदीपमाव्योम ' ए काव्यमां नित्यानित्यवाद नणाव्यो ले. 'अनेकमेकात्मक'
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मान्यविशेषवादः । सप्तग्याम भिलाप्याऽनभिलाप्यवादः सदसादश्र । इति न नूयः प्रयास इति काव्यार्थः ॥
| ए | इदानीं नित्याऽनित्यपदयोः परस्परदूषण प्रकाशनबलतया वैरायमाणयोरितरेतरोदी रित विविध हेतु हे तिसंनिपातसंजातविनिपातयोरयनसि प्रतिपक्षप्रतिक्षेपस्य जगवच्छासनसाम्राज्यस्य सर्वोत्कर्षमाह ।
य एव दोषाः किल निसवादे । विनाशवादेऽपि समास्त एव ॥
परस्परध्वंसिषु कटकेषु । जयधृष्यं जिनशासनं ते ॥ १६ ॥
एकांत नित्यवादमां जे दोषो वेला बे, तेज दोषो एकांतत्र्यनित्यवादमां पण तुल्य बे; माटे हे प्रभु! एवीरीते ते कुपशत्रुसरखा एकांतवादीन मांहोमांहे लमीमरते बते यापनुं अधृष्य शासन जय पां बे. ॥ २६ ॥
ए काव्यमा सामान्य विशेषवाद जणाव्यो बे. सप्तभंगीना स्वरूपमां वाच्यावाच्यवाद तथा सत् सत्वाद जाणाव्यो बे; अने तेटलामाटे फरीने हीं प्रयास कर्यो नथी. एवीरीते पच्चीसमा काव्यनो अर्थ जावो.
| ए । अन्योन्य दूषणो प्रकाशवामां लक्षवाला, अपने वैरीनीपेठे आचरण करता, तथा परस्पर कहेला नाना प्रकारना हेतु रूपी शस्त्रोना पमवाथी थयेल बे विनिपात जेननो एवो एकांत नित्यमनित्यपक्ष होते बते, प्रयत्नविनाज जेना प्रतिपक्षनुं खंमन थयेल बे एवा प्रतुना शासनरूपी साम्राज्यनुं सर्वोत्कृष्टपणं हवे कहे बे.
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३५॥ ।१। किलेति निश्चये । य एव नित्यवादे नित्यैकान्तवादे दोषाः अनित्येकान्तवादिनिः प्रसञ्जिताः क्रमयोगपद्यान्यां अर्थ क्रियाऽनुपपयादयस्त एव विनाशवादेऽपि दणिकैकान्तवादेऽपि समास्तुच्या नित्यैकान्तवादिन्निः प्रसज्यमाना अन्यूनाधिकास्तथा हि । । नित्यवादी प्रमाणयति । सर्व नित्यं सत्त्वात् । दणिके सदसत्कालयोरर्थक्रियाविरोधात्तलक्षणं सत्त्वं नावस्थां बनातीति । ततो निवर्तमानमनन्यशरणतया नित्यत्वेऽवतिष्ठते । तथा हि ।३। दणिकोऽर्थः सन्वा कार्य कुर्यादसन्वा गत्यन्तराऽनावात् । न तावदाद्यः पदः । समसमयवर्तिनि व्यापाराऽयोगात् । सकलनावानां परस्परं कार्यकारणनावप्राप्त्याऽतिप्रसङ्गाच्च । ४ । नापि हितीयः पदः दोद दमते । असतः कार्यकरणMirmwarranwroom
।१। 'किल' एटने निश्चयें करीने नित्य एकांतवादमां नित्यनेकांतवादीनए क्रमयुगपद्वमे अर्थक्रियानी अनुपपत्तिा दिक जे दोषो
आपला , तेज दोषो विनाशवादमां पण एटले एकांत दणिकवादमां एकांतनित्यवादिनवझे अपातायका पण तुष्य ले. ते कहे . ।। एकांतनित्यवादी एबुं प्रमाण आपे डे के, सत् होवाथी सघल्लु नित्य ने, केमके कणिकवादमां सतअसतकालवाला पदार्थ ने अर्थक्रियानो विरोध आववाथी तेनुं लक्षण जे उतापणुं, ते टकीशकतुं नश्री. माटे त्याश्री निवर्तमान थयुं थकुं ते लक्षण बीजुं शरणुं नही मनवायी नित्यपणामां आवी नन्ने बे. ते कहे . । ३। क्षणिक पदार्थ ने ते, कांतो तो कार्य करे अने कांतो अबतो कार्य करे, केमके ते शिवाय बीजो प्रकार तो ने नही. हवे तेमां पेहेलो पद तो युक्त नश्री, केमके तुल्य समयवाला कार्यमा व्यापारनो अयोग होय , तेम सर्व पदाों ने परस्पर कार्यकारण नावनी प्राप्तिवमे अतिप्रसंग आवे . । । बीजो पद पण युक्तिवानो नथी, केमके अवताने कार्य करवानी
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३६० शक्तिविकलत्वात् । अन्यथा शशविषाणादयोऽपि कार्यकरणायोत्सहे. रन् । विशेषाऽनावादिति । ५। अनित्यवादी नित्यवादिनं प्रति पुनरेवं प्रमाणयति । सर्व दणिकं सत्वात् । अदणिके क्रमयोगपद्यान्यामर्थक्रियाविरोधात् । अर्थक्रियाकारित्वस्य च नावन्न दणत्वात् ततोऽर्थक्रियाव्यावर्त्तमाना स्वक्रोमीकृतां सत्तां व्यावर्त येदिति दणिकसिभिः ।६। न हि नित्योऽर्थोऽर्थ क्रियां क्रमेण प्रवर्तयितुमुत्सहते । पूर्वार्थक्रियाकरणस्वन्नावोपमर्दधारेणोत्तरक्रियायां क्रमेण प्रवृत्तेः । अन्यथा पूर्व क्रियाकरणाऽविरामप्रसङ्गात् । तत्खन्नावप्रच्यवे च नित्यता प्रयाति । अतादवस्थ्यस्याऽनित्यतालदणत्वात् ।। अथ नित्योऽपि क्रमवत्तिनं सहकारिकारणमर्थ मुदीक्षमाणस्तावदासीत् । पश्चात्तमासाद्य क्रमण ~~ ~
~~ ~ ~~ शक्ति होती नथी; अने जो तेम न होय, तो तफावत न होवाश्री शशशृंगादिको पण कार्य करवामां नत्साहवाला थर जाय. । ५। हवे अनित्यवादी ले ते नित्यवादीप्रते आवीरीते प्रमाण आपे ले. सत् होवाथी सधद्धं दणिक डे ; जो अदणिक मानीये, तो क्रमवमे अने युगपत्वमे अर्थक्रियामा विरोध आवे जे; केमके अर्थक्रियाकारिपणुं ए पदार्थ- लक्षण जे; अने तेथी अर्थक्रिया नष्ट होतीथकी पोत खीकारेली सत्ताने पण नष्ट करे, एवीरीते दणिकपकनी सिडि थाय डे. । ६। वली नित्य पदार्थ क्रमवमे अर्थक्रिया करी शकतो नश्री, केमके पूर्वना अर्थक्रिया करवाना वनावने तोमीपामा ने क्रमवमे नत्तरक्तियामां प्रवृत्ति थाय ; अने जो तेम न होय तो, पूर्व क्रिया करवामां नही विरमवारणानो प्रसंग आवशे; अने ते स्वनावनो नाश होते ते नित्यपणुं चाल्युं नाय ने, केमके जे तदवस्थामां एटले निजखरूपमा रहेतुं नथी, तेनुं अनित्यपणारूप लक्षण जे. ।। नित्य उतां पण क्रममा रहेला अने सहकारीकारणवाला अर्थनी राह जो
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कार्यं कुर्यादिति चेन्न । सहकारिकारणस्य नित्येऽकिंचित्करत्वात् ।
किञ्चित्करस्यापि प्रतिक्षणेऽनवस्थाप्रसङ्गात् । । नापि यौगपद्येन नित्योऽर्थोऽर्थक्रियां कुरुते अध्यक्ष विरोधात् । न ह्येककालं सकलाः क्रिया. प्रारभमाणः कश्चिपलभ्यते । करोतु वा तयाप्याद्यक्षण एव सकल क्रियापरिसमाप्तेर्दितीया दिक्षणेष्वकुर्वाणस्याऽनित्यता बलादादौकते । करणाकरणयोरेकस्मिन्विरोधात् इति । । तदेवमेकान्तयेऽपि ये तवस्ते युक्तिसाम्याहरु न व्यभिचरन्तीत्य विचारितरमणीयतया मुग्वजनस्य ध्यांध्यं चोत्पादयन्तीति विरुदाऽव्यभिचारिणो नैकान्तिका इति । १० । अत्र च नित्याऽनित्यैकान्तपचप्रतिक्षेप एवोक्तः । उपल
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इने त्यांसुधि रह्यो हतो, अने पालखी तेने मेलवीने क्रममे कार्य करे, एम जो कहीश, तो ते युक्त नयी; केमके नित्यपक्षमां सहकारीकारण कई पण करीशकतुं नथी, तेम जे कई करीशकतुं नथी तेने पण दरेकक्षणे अनवस्थानी प्रसंग यावे बे. । । वली नित्य पदार्थ एकीवखते पण अर्थक्रिया करतो नथी, केमके तेमां तो प्रत्यक्ष विरोध यावे; कारणके एकीवेला सर्व क्रियाजने प्रारंभतो कोइ पण देखातो नयी; अथवा कदाच तेम करे, तोपण पेहलेज कणे सर्व क्रियान समाप्त थवाथी बीजात्र्यादिक कणोमां कई पण नहीं करवाथी तेने बलात्कारे नित्यपणुं प्राप्त थाय बे, केमके एकमां करवा करवानो विरोध यावे बे । ९ । माटे एवीरीते बन्ने एकांतपोमां जे हेतुबे, ते युक्तना तुल्यपणाश्री विरुने व्यभिचरतां नथी; ने एवीतेव्यविचारित रमणीयपणावमे करीने मुग्धलोकनी बुद्धिना - धापाने उत्पन्न करे बे, माटे एवीरीते एकांत पक्को विरोधविनाना नथी. | १० | वनी हीं तो फक्त एकांत नित्याऽनित्यपक्षनुंज खंमन कयुं बे, परंतु उपलक्षणथी सामान्य विशेषादिक एकांतवादी पण परस्पर
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कणत्वाच्च सामान्यविशेषाद्येकान्तवादा अपि मियस्तुल्यदोषतया विरुकाव्यनिचारिण एव हेतू नुपस्टशन्तीति परिनावनीयम् । ११ । अथोतराई व्याख्यायते । परस्परेत्यादि । एवं च कएटकेषु दुशत्रुषु एकान्तवादिषु परस्परध्वंसिषु सत्सु परस्परस्मात् ध्वंसन्ते विनाशमुपयान्तीत्येवं शीनाः सुन्दोपसुन्दवदिति परस्परध्वंसिनस्तेषु हे जिन ते तव शासनं स्याहादप्ररूपण निपुणं हादशांगीरूपं प्रवचनं परा निनावुकानां कएटकानां स्वयमुच्छिन्नत्वेनैवान्नावादधृप्यं अपरानवनीयं “शक्ता कृत्याश्चेति” कृत्य विधानावितुमशक्यं धर्षितुमनह वा जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते । १२ । यथा कश्चिन्महाराजः पीवरपुण्यपरिपाकः परस्परं विगृह्य स्वयमेव दयमुपेयिवत्सु षित्सु अयत्नसिइनिष्कंटकत्वसमृई राज्यमुपनुञ्जानः सर्वोत्कृष्टो नवत्येवं त्वच्चासनमपीति
तुल्यदोषपणायें करीने विरुप होताथका व्यनिचारी हेतुननेज स्पर्श करे , एम जाणी लेवु. । ११ । हवे उत्तरार्धनुं व्याख्यान कराय जे. एवीरीते कु३ शत्रुसरखा एकांतवादीन सुंदोपसुंदनीपेठे माहोमांहे लमीमरत बत, हे प्रनु ! स्याक्षाद प्ररूपवामां निपुण एवं हादशांगीरूप आपनुं शासन, परस्पर लमीमरनारा परवादीरूपी दुइ शत्रुन पोतानीमेले नष्ट थवाथी अपरानवनीय एटने कोथी पण परानव न पामीशके एबुं श्रयुयकुं जय पामे . "शक्तार्हे कृत्याश्च" ए सूत्रवके कृत्य विधानश्री परानव पामवाने अशक्य अथवा अयोग्य एवं आपर्नु शासन जय पाम बे, एटले सर्वोत्कर्षपणे वर्ते डे. । १२ । कोश् महापुण्यना परिपाकवाला महाराजा, पोताना शत्रुन परस्पर पोतानी मेलेन नष्ट पामते उते, प्रयत्नविनाज सिह थयेला निष्कंटकपणाथी समृझोला राज्यने नोगवतोश्रको जेम सर्वोत्कृष्ट थाय डे, एवीरीते आपनुं शासन पण सर्वोत्कृष्टपणे जय पामे ले. एवीरीते वीसमा
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३६३ काव्यायः ॥
।१३। अनन्तरकाव्ये नित्यानित्यायेकान्तवाददोषसामान्यमन्निहितं। इदानी कतिपयतत्तविशेषान्नामग्राहं दर्शयंस्तत्प्ररूपकाणामसदनुतोनावकतयो पृततथा विधरिपुजनजनितोपद्रवमिव परित्रातुर्धरित्रीपतेस्त्रिजगत्पतेः पुरतो नुवनत्रयं प्रत्यपकारकारितामाविष्करोति । - नैकान्तवादे मुखःखलोगौ।
न पुण्यपापे न च बन्धमोदौ ॥ दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं ।
परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥ १७॥ एकांतनित्याऽनित्यपदमां सुखऽःखनो नपन्नोग, पुण्यपाप तथा बंधमोद घटी शकतां नथी; एवीरीते उर्नीतिवादना व्यसनरूपी तलवारवमे ते शत्रुसरखा एकांतवादीनए समस्त जगत्नो विनाश कर्यो बे. ॥ १७ ॥
। एकान्तवादे नित्याऽनित्यैकान्तपदान्युपगमे न सुखऽःखन्नोगौ
काव्यनो अर्थ जाणवो.
। १३ । नपरना काव्यमां एकांतनित्याऽनित्यवादना दोषो सा- .. मान्य प्रकारे कह्या, हवे केटलाक ते ते विशेषदोषोने नाम लेश्ने देखामता थका, ते दोषाने प्ररूपनाराउनु, असनूतनद्भावकपणायें करीने, तेवीरीतना शत्रुनए नत्पन्न करेला उपवने दूर करवाथी राजानी पेठे रक्षण करनारा एवा त्रणे जगतना स्वामिनी आगल, त्रणे नुवनोप्रते अपकारकारिपणुं प्रगट करे . . .
।। एकांतनित्याऽनित्यपद स्वीकारवामां सुखःखनो नपन्नोग घटतो नथी, तेम पुण्यपाप अने बंधमोद पण घटतां नथी. अहीं फसी
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-३६ध घटेते। न च पुण्यपापे घटते । न च बन्धमोदौ घटते । पुनःपुनर्ननःप्रयोगोऽ. त्यन्ताऽघटमानतादर्शनार्थः। तथाहि ।। एकान्तनित्ये आत्मनि तावत् सुखःखनोगौ नोपपद्यते । नित्यस्य हि लदणं अप्रच्युताऽनुत्पन्न स्थिरैकरूपत्वं । ततो यदात्मा सुखमनुन्य स्वकारणकलापसामग्रीवशात् उःखमुपत्नुले तदा स्वन्नावनेदाद नित्यत्वापत्न्या स्थिरैकरूपताहानिप्रसङ्गः । एवं उःखमनुनय सुखमुपत्नुञानस्यापि वक्तव्यं । ३ । अथा. ऽवस्थानेदादयं व्यवहारो न चावस्थासु निद्यमानास्वपि तहतो नेदः । सर्पस्येव कुंमलार्जवाद्यवस्था स्विति चेन्ननु तास्ततो व्यतिरिक्ता अ. व्यतिरिक्ता वा। व्यतिरेके तास्तस्येति संबन्धाऽनावोऽतिप्रसङ्गात । अव्यतिरेके तु तक्षानेवेति तदवस्थितैव स्थिरैकरूपताहानिः । कथं च त
momcomimirrorans फरीने करेलो ' नञ् ' नो प्रयोग अत्यंतअघटमानपणुं देखामवामाटे बे. ते कहे . । । एकांत नित्य आत्मामां सुखःखनो नपन्नोग प्राप्त थतो नथी; केमके विनाश अने उत्पत्ति विनानुं ने एक स्थिररूपपणुं, ते नित्यनुं लक्षण ले. तेथी आत्मा ज्यारे सुखने अनुन्नवी ने पोताना कारणोना समूहनी सामग्रीना वशयी उखने नोगवे झे, त्यारे स्वन्नावनेदश्री अनित्यपणानी आपत्तिवमे स्थिरैकरूपपणानी हानिनो प्रसंग
आवे बे; एवीजरीते उखने अनुन्नवी ने सुखने नोगवतांयकां पण थाय , एम जाणी लेवु. ।३। अवस्थानेदश्री आ व्यवहार डे, अने अवस्था नेदाते उते पण जेम सर्पनी कुंमलाकार तथा सिझा आकारवाली अवस्थामा तेम, अवस्थावाननो कंई नैद यतो नथी, एम जो कहीश, तो ते अवस्था ते अवस्थावानश्री निन्न ? के अनिन्न ले ? निन्नपदमां 'तेन तेनी' एवीरीतना संबंधनो अतिप्रसंग थवाथी अन्नाव थशे; अने अनिन्न पदमां तो ते तेनावालोन जे, तेश्री स्थिरैकरूपपणानी हानि तो तेवी नेतवीन रही ; वली तेना ए
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देकान्तैकरूपत्वेऽवस्थाभेदोऽपि भवेदिति । ४ । किं च सुखदुःखनोगो पुण्यपापनिर्यो । नन्निर्वर्तनं चार्थक्रिया । सा च कूटस्थ नित्यस्य क्रमेपाsकमेण वा नोपपद्यत इत्युक्तप्रायं । अत एवोक्तं न पुण्यपापे इति । पुण्यं दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभं कर्म । पापं हिंसादिक्रियासाध्यमशुनं कर्म । ते अपि न घंटेते । प्रागुक्तनीतेः । ५ । तथा न 1 बन्धमोको । बन्धः कर्मपुलैः सह प्रतिप्रदेशमात्मनो वन्ह्ययः पिएमवदन्योऽन्यसंश्लेषः। मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयस्तावप्येकान्तनित्ये न स्यातां | बन्धो हि संयोगविशेषः स चाऽप्राप्तानां प्राप्तिरितिलक्षणः । प्राक्कालाविनी प्राप्तिरन्यावस्था | उत्तरकालनाविनी प्राप्तिवान्या | तदनयोरप्यवस्थाभेददोषो ऽस्तरः । ६ । कथं चैकरूपत्वे सति तस्या
किया बे,
कांतएकरूपपणामां त्र्वस्यानंद पण क्यांथी थाय ? । ४ । वली सुखदुःखना उपभोगनुं पुण्यपापवने निर्वर्तन थाय बे, अने ते निर्वर्तन ते अर्थक्रिया हमेशां स्थिर एवा नित्यने एटले एकांत नित्यने क्रमवमे अथवा अक्रमत्रमे घटती नयी, एम कहेलुंज बे, श्रीकरी ने कह्युं बे के एकांतनित्यमां पुण्यपाप घटीशकतां नयी पुण्य एटले दानादिकक्रियाज उपार्जन करातुं शुभ कर्म, मने पाप एटले हिंसादिकक्रियाथी सधातुं अशुभ कर्म ; ते बन्ने पूवक्तनी तिथी घटीशकतां नयी । ५ । तेम बंबमोक पण बटीशकतां नथी. बंध एटले पनि लोह पिंमनीपेठे दरेक प्रदेशप्रते आत्मानो. कर्मपुलोनीसा परस्परसंबंध; मने मोक एटले सर्व कर्मोंनो कय, ते बन्ने एकांत नित्यमां होइशकतां नयी. बंध बे ते संयोगविशेषरूप बे, अने अप्राप्तनी जे प्राप्ति, ए तेनुं लक्षण बे ; वली पूर्वकालमां यनारी अप्राप्ति अन्यत्र्यवस्थावाली बे, अपने उत्तरकालमां श्रनारी प्राप्ति पण अन्य व्यवस्थावाली बे, माटे ते बन्नेनो पण अवस्थाभेदरूप दोष स्तर
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३६६ कस्मिको बन्धन संयोगः । बन्धनसंयोगाच्च प्राकिं नायं मुक्तोऽभवत् । किं च तेन बन्धनेनासौ विकृतिमनुभवति न वा । अनुभवति चेच्चमदिवदनित्यः । नानुभवति चेन्निर्विकारत्वे सतासता वा तेन गगनस्येव न कोऽप्यस्य विशेषः । इति बन्धवैफल्यान्नित्यं मुक्त एव स्यात् । ततश्च विशीर्णा जगति बन्धमोकव्यवस्था |9| तथा च पठन्ति । ॥ वर्षातपा यां किं व्योम्न - श्रर्मण्यस्ति तयोः फलम् ॥ चर्मोपमश्चेत्सोऽनित्यः । खतुल्यश्वेदसत्फलः ॥ = बन्धाऽनुपपत्तौ मोदस्याप्यनुपपत्तिबन्धन विच्छेदपर्यायत्वान्मुक्तिशब्दस्येति । ८ । एवमनित्यैकान्तवादेऽपिसुखडःखाद्यनुपपत्तिः । नित्यं हि प्रत्यन्तोच्छेदधर्मकं । तथानृते चात्मनि पुएयोपादान क्रियाकारिणो निरन्वयं विनष्टत्वात् कस्य नाम तत्फलन्तसु
"
बे. । ६ । वली एकरूपपणुं होते बते, तेनो आकस्मिक बंधनसंयोग शीरीते थाय ? अने बंधनसंयोगश्री पूर्वे ते मुक्त केम न थाय ? वली ते बंधने करीने ते विकृतिने अनुभवे बे के नही ? जो वे बे, तो ते चर्मादिकनीपेठे नित्य बे ने जो अनुभवतो नथी, तो निर्विकारपणामां बता अथवा बता एवा ते बंधन में प्रकाशने जेम, ते तेने कंई पण विशेष यतुं नथी; एवीरीते बंधनी विफलताथी हमेशां मुक्तज थाय; अने तेथी जगतमां बंधमोदनी व्यवस्था नष्ट याय. | ७ | कह्युं बे के = | वर्षा तथा यातपवमे आकाशने शुं बे ? अर्थात् कंई नथी; परंतु चर्मने विषे ते बन्नेनुं फल थाय बे. माटे जो ते चर्मसरखो होय, तो अनित्य थाय, मने आकाशसरखों होय, तो सत्फलवालो याय ; = | एवीरीते बंधनी प्राप्ति होते बते मोहनी पण प्राप्ति याय, केमके बंधन विच्छेद ए मोहशब्दनो पर्याय बे. । । एवीरीते एकांतत्र्यनित्यवादमां पण सुखः खादिकनी प्राप्ति बे; केमके अनित्य बे ते अत्यंत उच्छेदना धर्मवालुं बे, अने तेवा आत्मामां
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खानुनवः । एवं पापोपादान क्रियाकारिणोऽपि निरवयवनाशे कस्य :खसंवेदनमस्तु । एवं चान्यः क्रियाकारी अन्यश्च तत्फलनोक्त्यसमअसमापद्यते । ए । अथ =॥ यस्मिन्नेव हि सन्ताने । आहिता कर्मवासना ॥ फलं तत्रैव सन्धत्ते । कपासे रक्तता यथा ॥ इति वचनानासमञ्जसमित्यपि वाङ्मात्रं । सन्तानवासनयोरवास्तवत्वेन प्रागेव नि
झेवितत्वात् । १०। तथा पुण्यपापे अपि न घटेते । तयोहि अर्थक्रिया सुखःखोपन्नोगस्तदनुपपत्तिश्चानन्तरमेवोक्ता । ततोऽर्थ क्रियाकारित्वाऽनावात्तयोरप्यघटमानत्वं । ११ । किं चाऽनित्यः कणमात्रस्थायी। तस्मिंश्च दणे नत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात्तस्य कुतः पुण्यपापोपादान क्रियाजनं । दितीयादिक्षणे पु चावस्थातुमेव न लन्नते । पुण्यपापोपादान क्रि
पुण्योपादान क्रियाकारी अन्वयरहित नष्ट थवाथी, तेना फारूप एवो सुखनो अनुनय कोने थशे? एवीजरीते पापोपादान क्रियाकारोनो पण अन्वयरहित विनाश होते ते उःख- संवेदन पण कोने थशे? एवीरीते क्रियाकारी बीजो, अने तेना फलने नोगवनारो बीजो, एम गोटालावालु थाय . । ए । वत्नी =॥ जेज संतानमां कर्मवासना स्थापित थ डे, तेमांज, कपासमा जेम रताश, तेम फलने सांधी आपे ले. ॥= ए वचनश्री गोटालो यतो नथी, एम कहेवू पण फक्त वचनमात्र ने, केमके संतान अने वासनाना अवास्तविकपणानुं पूर्वेन खंमन करवामां
आव्यु ले. । १० । वली एकांतअनित्यवादमां पुण्यपाप पण घटीशकतां नथी, केमके तेनुनी अर्थक्रिया सुखऽःखनो नपन्नोग डे, अने तेनी अप्राप्ति तो नपरज कहेवामां आवी डे; माटे अर्थ क्रियाकारिपणाना अन्नावथी ते पुण्यपापर्नु पण अघटमानपणुं . । ११ । वनी जे अनित्य , ते तो दणमात्र रहेना5 डे, अने ते कणे तो मात्र छत्पत्तिमांन व्यग्र होवाश्री तेने पुण्यपापना नपादानरूप क्रियानुं मेल
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या नावे च पुण्यपापे कुतो निर्मूलत्वात् । तदसवे च कुतस्तनः सुखS:खनोगः | १२ | आस्तां वा कथंचिदेतत् । तथापि पूर्वकणसदृशेनोत्तरकणेन भवितव्यं । उपादानाऽनुरूपत्वाऽपादेयस्य । ततः पूर्वक
दुःखितात्तरक्षणः कथं सुखित नृत्पद्यते । कथं च सुखितात्ततः सः खितः स्यात् । विसदृशमागतापत्तेः । एवंपुण्यपापादावपि । तस्माद्यत्किंचिदेतत् । १३ । एवं बन्धमोक्षयोरप्यसंभवः । लोकेऽपि हि य एव बधः स एव मुच्यते । निरन्वयनाशाऽभ्युपगमे च एकाधिकरणत्वाऽनावात्सन्तानस्य चाऽवस्तुत्वात् कुतस्तयोः संभावनामात्रमपीति | १४ | परिणामिनि चात्मनि स्वीक्रियमाणे सर्व निर्वाधमुपपद्यते । = परिणा
ववापणुं क्यांचीज होय ? तेम बीजा आदिक कणोमां तो ते रहीज शकतुं नथी; वल्ली पुण्यपापना उपादानरूप क्रियानो ज्यारे अनाव थयो, त्यारे मूलविना पुण्यपाप क्यांश्री होय ? मने ज्यारे ते पुण्यपाप न होय त्यारे सुखःखनो उपभोग क्यांथी होय ? । १२ । अथवा ते गमे तेम हो, तोपण पूर्वक जेवोज उत्तरक्षण होवो जोइए, केमके उपादानसरखोज उपादेय होय बे; माटे दुःखी एवा पूर्वदणथी सुखी एवो उत्तरक्षण क्यांथी नृत्पन्न थाय ? मने सुखी एवा तेथी ते डुःखी क्यांथी नृत्पन्न याय ? कारणके तेश्री सदृशनागपणानी पत्ति थाय बे; एवीज रीते पुण्यपापादिकमां पण जाणीलेवु. माटे त यत्किंचित बे | १३ | एवीरीते बंधमोक्षनो पण असंभव बेनीयामां पण एमज कहेवाय बे के, जे बंधायबे तेज मूकाय बे. वली - न्वयरहित नाश स्वीकारते ते एकाधिकरणपणाना अनावधी तथा संतानने वस्तुपणुं होवाथी तेज बन्नेनी संभावना पण क्यांथी थाय ? । १४ । परंतु आत्माने जो परिणामी स्वीकारवामां यावे, तो सवलुं बाधारहित प्राप्त थाय छे. कह्युं बे के = | परिणाम एटले व्यवस्थां
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मोऽवस्थान्तर-गमनं न च सर्वथाह्यवस्थानं । न च सर्वथा विनाशः । परिणामस्तहिदा मिष्टः =|| इति वचनात् । पातञ्जन्नटीकाकारोऽप्याह । अवस्थितस्य व्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणाम इति । एवं सामान्यविशेषसदसदनित्नाप्याऽनन्निलाप्य एकान्तवादेष्वपि सुखःखाद्यनावः स्वयनियुक्तैरन्यूह्यः । १।। अथोत्तराईव्याख्या । एवमनुपपद्यमानेऽपि सुखःखनोगादिव्यवहारे परतीर्थिकैरथ च परमार्यतः शत्रुन्निः (परशब्दो हि शत्रुपायोऽप्यस्ति) पुर्नीतिवादव्यसना मिना । नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्षः प्रतीतिविषयमानिरिति नीतयो नया । उष्टा नीतयो उ तयो उर्नयास्तेषां वदनं परेन्यः प्रतिपादनं उर्नीतिवादस्तत्र ययसनमयासक्तिरौचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावत्
तरमां गमन ; अर्थात् सर्वथाप्रकारे अवस्थान पण नही, अने सर्वथा प्रकारे विनाश पण नही, एवीरीतनो जे परिणाम, ते तेना जाणनारानने इष्ट जे. पातंजलटीकाकार पण कहे जे के, अवस्थित एवा इव्यनी पूर्वधर्मनी निवृत्ति होते ते बीजाधर्मनी जे नत्पत्ति, ते परिणाम कहेवाय. एवीनरीते सामान्य अने विशेष, सत् अने असत्, वाच्य अने अवाच्यरूप एकांतवादोमां पण सुखःखादिकनो अनाव प्रत्य
नए पोतानीमेनेज जाणी लेवो. । १५। हवे उत्तरार्धनुं व्याख्यान करे . एवीरीते सुखःखादिकना नोगनो व्यवहार घटमान न होते बते पण परती नए एटले परमार्थथी शत्रुनर ('पर' शब्द शत्रुवाची पण .) उर्नयना प्ररूपणनी टेवरूप खो करीने ( सर्व जगत्ने विलुप्त कर्यु बे, एवो संबंध जे.) एकदेशविशिष्ट पदार्थ जेनवमे प्रतीतिना विषयमां आवे ते नीति एटले नयो कहेवाय. उष्ट एवी ने नीतिन ते पुर्नीतिन कहेवाय. एवी उर्नीतिन्नु परप्रेत जे प्रतिपादन करवू, ते उर्नीतिवाद कहेवाय. तेमां जे अत्यंत आसक्ति एटले नचि
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२७० उ तिवादव्यसनं । तदेव सद्बोधशरीरोच्छेदनशक्तियुक्तत्वादसिरिवासिः कृपाणो धर्नीतिवादव्यसनासिस्तेन उर्नीतिवादव्यसनासिना करणनतेन उनयप्ररूपणहेवाकखन एवमित्यनु नवसिई प्रकारमाह । अपिशब्दस्य निन्नक्रमत्वादशेषमषि जगन्निखिन्नमपि त्रैलोक्यगतजन्तुजातं विलुप्तं । सम्यग्ज्ञानादिनावप्राणव्यपरोपणेन व्यापादित । तत्रायस्वेत्याशयः । १६ । सम्यग्ज्ञानादयो हि नावप्राणाः प्रावचनिकैर्गीयन्ते । अत एव सि.ई. प्वपि जीवव्यपदेशः । अन्यथा हि जीवधातुः प्राणधारणार्थेऽनिधीयते । तेषां च दश विधप्राणघारणाऽनावादजीवत्वप्राप्तिः । सा च वि. रुन। तस्मात्संसारिणो दशविधव्यप्राणधारणाज्जीवाः । सिाश्च झानादिनावप्राणधारणादिति सिई। उर्नयस्वरूपं चोत्तरकाव्ये व्या
.
noornmarrARA
तपणानी अपेक्षा विना जे प्रवृत्ति करवी, ते उ तिवादव्यसन कहेवाय. सुबोधरूपी शरीरने बेदवामां शक्तिवान होवाथी ते उधतिवादव्यसनरूप तन्नवारवमे, एवीरीते एटले अनुन्नवसिप्रकारवमे (अपिशदने निन्नक्रमपणुं होवाश्री ) त्रणे लोकमां रहेला समस्तप्राणीनने ते शत्रुन्त तीर्थातरीनए लुप्त करेलांडे, अर्थात् सम्यग् ज्ञानादिकरूप जावप्राणोने नष्ट करवावमे करीने तेनए त्रणे जगतोनो विनाश कों जे. माटे हे प्रन्नु! आप ते जगतो- रक्षण करो? एवो आशय जाणवो. । १६ । सम्यग्नानादिकोने शास्त्रकारोए नावप्राण कहेलांडे, अने तेयीन सिझेनेविषे पण जीवनो व्यपदेश करेलो जे; अने जो तेम न होय तो, 'जीव' धातु तो प्राण धारवाना अर्थमां ने, अने ते सिझेने तो दशप्रकारना प्राणोने धारणकरवानो अनाव होवाश्री अजीवपणानी प्राप्ति थाय, अने ते तो विरु६ ; माटे संसारीन दश प्रकारना इ. व्यप्राणोने धारण करता होवाथी नीवो डे, अने सिशे तो हानादिक नावप्राणोने धारण करता होवाथी जीवो डे, एम सिइ थयुं ; अने
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ख्यास्याम इति काव्यार्थः ।।
। १७ । सांप्रतं उनयनयप्रमाणप्ररूपणारेण " प्रमाणनयैरधिगमः" इति वचनात् । जीवाऽजीवादितत्वाऽधिगम निबन्धनानां प्रमाणनयानां प्रतिपादयितुः स्वामिनः स्याहादविरोधिधनयमार्गनिराकरिष्णुमनन्यसामान्यवचनातिशयं स्तुवन्नाह ।
सदेव सत्स्यात्तदितिनिधाऽर्थो ।
मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः ॥ यथार्थदर्शी तु नयप्रमाण
पथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थः ॥ २॥ ___ सत्न डे, सत् डे अने स्यात्सत् डे, एवीरीतनो त्रण प्रकारनो अर्थ (अनुक्रमे ) उर्नय, नय अने प्रमाणवमे मापीशकाय जे; अने यथास्थित पदार्थने जोनारा एवा हे प्रन्नु ! आपेन नय अने प्रमाणना मार्गवमे उर्नयमार्गने दुर कर्यो ने. ॥ ५ ॥
। १। अर्थ्यते परिच्छिद्यत इत्यर्थः पदार्थस्त्रिधा त्रिन्निः प्रकारे
उनयना स्वरूपर्नु तो हवे पळीना काव्यमां व्याख्यान करीशु. एवीरीते सत्तावीसमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
।१७। हवे उनय, नय अने प्रमाण ए त्रणेना व्याख्यानारे करीने “प्रमाण अने नयोवमे अधिगम थाय डे" एवा तत्वार्थसूवना वचनश्री, जीवाऽजीवादिक तत्वोने जाणवाना कारणरूप एवा प्रमाण अने नयाने प्रतिपादन करनारा एवा प्रनुना, स्याशदना विरोधि एवा पुर्नयमार्गने दूर करनारा अने बीजानने नही प्राप्त थता एवा वचनातिशयने स्तवताथका कहे ...
1१। जेनो परिच्छेद कराय ते अर्थ एटले पदार्थ कहेवाय. ते पदार्थ
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मीयेत परिच्छिद्येत ( विधौ सप्तमी) कै स्त्रिनिः प्रकारे रित्याह । उनींतिनयप्रमाणैः । नीयते परिच्छिद्यते एकदेशविशिष्टोऽर्थ आनिरिति नीतयो नयाः। ऽष्टा नीतयो उतियो उर्नया इत्यर्थः । नया नैगमाद्याः । । प्रमीयते परिच्छिद्यतेऽर्थोऽनेकान्तविशिष्टोऽनेनेति प्रप्रमाणं । स्याहादात्मकं प्रत्यदपरोदनदणं । उ तयश्च नयाश्च प्रमाणे च उर्नीतिनयप्रमाणानि तैः केनोल्लेखेन मीयतेत्याह । सदेव सत्स्यात्सदिति (अव्यक्तत्वान्नपुंसकत्वं । यथा किं तस्या गर्ने जातमिति ) सदेवेति उर्नयः । सदिति नयः । स्यात्सदिति प्रमाणं । तथा हि । ३ । पुर्नयस्तावत्सदेवेति ब्रवीति अस्त्येव घट इति अयं वस्तुन्येकान्ताऽस्तित्वमेवान्युपगच्छन्नितरधर्माणां तिरस्कारेण स्वानिप्रेतमेव धर्म व्यवस्थापयति । उनयत्वं चास्य मिथ्यारूपत्वात् । मिय्यारूपत्वं च तत्र धर्मा
त्रण प्रकारोवमे मपाय . ( विधि अर्थमां सप्तमी जाणवी ) कया त्रण प्रकारोवमे ? ते कहे . एकदेश विशिष्ट पदार्थ जेनवमे परिच्छेदाय, ते नीतिन एटने नयो कहेवाय. उष्ट एवी जे नीतिन एटने नयो, ते उनयो कहेवाय. नयो एटने नैगमादिक जाणवा. ।। अनेकांतवादे करीने युक्त एवो पदार्थ जेनावमे परिच्छेदाय, ते प्रमाण कहेवाय ; एटले स्याहादरूप प्रत्यद अने परोदनदणवानां प्रमाणो. उर्नय, नय अने प्रमाणोवमे कया उल्लेखे करीने मपाय ? ते कहे . मतज सत् अने स्यात्सत्. (अव्यक्त होवाश्री नपुंसकपणुं जे. जेम तेणीना ग
मां शुं नत्पन्न थयुं ?) 'सत्न डे' ए उनय , 'सत् डे' ए नय ने अने 'कथंचित् सत् डे' ए प्रमाणवाक्य जे. ते कहे जे. । ३ । - नय एम कहे जे के, सत्न बे, अर्थात् घमो डेज, एवीरीते ते ऽनय ने ते पदार्थमां एकांतअस्तिपणाने स्वीकारतोयको बाकीना धर्मोना तिरस्कारको स्वानिष्ट धर्मनेज स्थापन करे डे; अने तेनुं उनयपणुं मि
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न्तराणां सतामपि निवात् । ४ । तथा सदित्युल्लेखवान्नयः स ह्यस्ति घट इति घट स्वानिमतमस्तित्वक्षम प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गनिमीलिकामालम्बते । न चास्य उनयत्वं धर्मान्तराऽतिरस्कारात् । न च प्रमाणत्वं स्याच्छब्देनाऽत्नातित्वात् । ५ । स्यात्सदिति स्यात्कथंचित्सइस्तु इति प्रमाणं । प्रमाणत्वं चास्य दृष्टेष्टाऽबाधितत्वापि बाधकसन्नावाच्च । सर्व हि वस्तु स्वरूपेण सत्पररूपेण चाऽसदित्यमउक्तं । सदिति दिङ्मात्रदर्शनार्थ । अनया दिशा असच नित्यत्वाऽनित्यत्ववक्तव्यत्वाऽवक्तव्यत्वसामान्य विशेषाद्यपि बोहव्यं । इत्थं वस्तुस्वरूपमाख्याय स्तुतिमाह । ययार्थदर्शीत्यादि । ६ । उर्नीतिपथं उनयमार्ग wwwvarwwwwwwwwwwwwwwwwwwww थ्यारूपपणाथी जे, अने तेनुं मिथ्यारूपपणुं तेटलामाटे जे के, तेमां बता एवा पण बीना धोने ते उलवे . । । तथा सत् एवा नल्लेखबानो नय ‘ते घट डे' एवीरीते घटमां पोताना इच्छित एवा अस्तिपणारूप धर्म ने सावतोश्रको बाकीना धर्मोनेविषे अांखामा कान करे जे, तेम तेने ऽनयपणुं नथी, केमके ते बीना धर्मोने कंई तिरस्कारतो नथी, तेम तेने प्रमाणपणुं पण नश्री, केमके ते ' स्यात् ' शब्देकरीने रहित जे. । ५। ‘पदार्थ कयंचित सत् ' ए प्रमाणवाक्य ले; अने तेनुं प्रमाणपणुं तेटनामाटे के, ते प्रत्यद अने परोद एम बन्ने प्रमाणोवमे अबाधित डे, तेम विपदमां बाधकनो सद्भाव ले. सर्व पदार्थ निजरूपे तो जे, अने पररूपे अउतो बे, एम वारंवार कहेवामां आव्युं ले. अहीं जे फक्त सत्' शब्द कहेलो , ते दिग्मात्र देखामवामादे ले, पण तेवीनरी ते असत्पणुं, नित्यपणुं अनित्यपj, वक्तव्यपणुं, अवक्तव्यपणुं तथा सामान्य विशेषादिक पण जाणी लेवा. एवीरीते पदार्थ- स्वरूप देखामी ने हवे 'यथार्थदर्शी' इत्यादिकवमे स्तुति कहे . | ६ । (हे प्रनु!) नयना मार्ग ने तो आपेज दूर कर्यो
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तु शब्दस्य अवधारणार्थस्य निन्नक्रमत्वात्वमेव आस्थस्त्वमेव निरा. कृतवान् । न तीर्थान्तरदेवतानि । केन कृत्वा नयप्रमाण पथैन । न. यप्रमाणे नक्तवरूपे तयोर्मार्गेण प्रचारेण । यतस्त्वं यथार्थदर्शी यथार्थोऽस्ति तथैव पश्यतीत्येवंशीलो यथार्थदर्शी । विमलकेवलज्योतिषा यथावस्थितवस्तुदर्शी तीर्यान्तरशास्तारस्तु रागादिदोषकलङ्कितत्वेन त. था विधानाऽनावान्न यथार्थदर्शिनः । ततः कथं नाम उर्नयपथमश्रने प्रगख्नन्ते ते तपस्विनः । न हि स्वयमनयप्रवृत्तः परेषामनयं निषेधुमुधुरतां धत्ते । ७ । इदमुक्तं नवति । यथा कश्चित्सन्मार्ग वेदी परोपकारउर्ललितः पुरुषश्चौरश्वापदकण्टकाद्याकीर्ण मार्ग परित्याज्य पथिकानां गुणदोषोनयविकलं दोषाऽस्टष्टगुणयुक्तं च मार्गमुपदर्शयति
डे, परंतु बीना तीर्थांतर। देवोए तो दुर कर्यो नश्री. ( अहीं तु शब्द निश्चयार्थमां अने निन्नक्रमवालो .) शामे करीने ? तोके नयप्रमा. एना मार्गवमे करीने, अर्थात् नय अने प्रमाण के जेननुं स्वरूप पूर्वे कहेवामां आव्युं , तेन्ना प्रचारवमे करीने ; केमके आप यथार्थदर्शी डो, अर्थात् जेवो पदार्थ डे, तेवोन आप जुन डे, एटले निर्मल केवलझाने करीने यथावस्थित पदार्थ ने जोनारा बो; अने अन्यदर्शनोना शास्तारो तो रागादिक दोषोवमे कलंकित होवाथी, तेवीरीतना झानना अन्नावथी यथार्थ जोनारा नथी, अने तेथी करीने ते विचारान उनयमार्गने मथवामां शीरीते समर्थ थाय? केमके पोतेज अन्यायमार्गमां प्रवर्ततो एवो माणस बीनाना अन्यायने दूर करवाने आगल पमी शकतो नश्री. । ७ । नावार्थ ए जाणवो के, सन्मार्गने जाणनारो तथा परोपकारमा तल्लीन श्रयेलो एवो कोश्क पुरुष जेम, चोर, फामीखानारां प्राणी तथा कांटा आदिकयी नरेला मार्गने तनावीने, पंथिनने, गुण अने दोष बन्नेश्री रहित, तथा दोषरहितगुणवालो मार्ग देखामे
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एवं जगन्नाथोऽपि उनयतिरस्करणेन नव्येन्यो नयप्रमाणमार्ग प्ररूपयतीति । । (आस्थ इत्यस्यतेरद्यतन्यां " शास्त्यस्तिवक्तिख्यातेरमित्य मिश्वयत्यस्तवचपतः श्वास्थवोचपप्तमिति" अस्थादेशे 'स्वरादेस्तास्विति । वृौ रूपं) । ए। मुख्यवृत्त्या च प्रमाणस्यैव प्रामाण्यं । यञ्चात्र नयानां प्रमाणतुल्यकताख्यापनं तत्तेषामनुयोगधारनूततया प्रझापनाङ्गत्वज्ञापनार्थ । चत्वारि हि प्रवचनाऽनुयोगमहानगरस्य झा. राणि । उपक्रमो निदेपोऽनुगमोनयश्चेति । एतेषां च स्वरूपमावश्यकन्नाप्यादेर्निरूपणीयं । इह तु नोच्यते ग्रन्थगौरवनयात् । १० । अत्र चैकत्र समासान्तः पथिनशब्दः । अन्यत्र चाऽव्युत्पन्नः पथशन्दोऽदन्त इति पयशब्दस्य दिःप्रयोगो न ऽप्यति । अथ उर्नयनwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwne... बे, तेम जगतना स्वामी एवा जिनेश्वर प्रन्नु पण ऽनयनो तिरस्कार करीने, नव्याप्रत नयप्रमाणनो मार्ग प्ररूपे . । । ('आस्थः' ए 'अस्' धातु, अद्यतन नृतकालमां 'शास्त्यस्ति वक्तिख्यातेरट्' ए सूत्रवमे 'अट्' होते ते 'श्वयत्यस्तवचपतः श्वास्थवोचपप्त' ए मूत्रवमे अस्थादेश करते ते ' स्वरादेस्तासु' ए सूत्रवमे वृद्धि करते ते रूप थयुं .)।ए। मुख्यवृत्तिवझे तो प्रमाणनेन प्रमाणपणुं बे, अने नयो, जे प्रमाणतुल्यपणुं का डे, ते एटनामाटे डे के, ते नयो अनुयोगना एकक्षारतूत डे, अने तेथी प्रज्ञापनानुं अंगप जणाववामाटे
; केमके प्रवचनानुयोगरूप महानगरना नपक्रम, निदेप, अनुगम अने नय नामना चार दरवाजा बे, अने तेनु स्वरूप आवश्यकनाप्यादिकयी जाणी लेवु. ग्रंथगौरवना नयथी अहीं कह्यु नथी. । १० । वत्नी अहीं एक जगोए समासांत 'पथिन् ' शब्द बे, अने वीजी जगाए अव्युत्पन्न अदंत 'पथ' शब्द ले, माटे एवीरीते बे वखत वापरेनो पथशब्दनो प्रयोग दूषणवालो नश्री. हवे ऽनय, नय
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--३६ यंप्रमाणस्वरूपं किञ्चिन्निरूप्यते । तत्रापि प्रथमं नयत्वरूपं । तदनधिगमे पुर्नयस्वरूपस्य उपरिझानत्वात् । अत्र चाचार्येण प्रथमं ऽनयनिर्देशो यथोत्तरं प्राधान्यावबोधनार्थ कृतः । ११ । तत्र प्रमाणप्रतिपन्नाथैकदेशपरामर्शो नयः । अनन्तधर्माध्यासितं वस्तु स्वाभिप्रेतैकधर्मविशिष्टं नयति प्रापयति संवेदनकोटिमारोहयतीति नयः । प्रमाणप्रवृ. तेरुत्तरकालनावी परामर्श इत्यर्थः । नयाश्चानन्ता अनन्तधर्मत्वावस्तुनस्तदेकधर्मपर्यवसितानां वक्तुरनिप्रायाणां च नयत्वात् । १२ । तथाच वृक्षाः । " जावश्यावयणपहा तावश्याचेवहुंति नयवाया" इति । तथापि चिरन्तनाचार्यैः सर्वसंग्रा हिसप्तानिप्रायपरिकल्पनाहारेण सप्त नयाः प्रतिपादिताः । तद्यथा । नैगमसंग्रहव्यवहारकजुसूत्रशब्दसमनिरूवनूता इति । १३ । कयमेषां सर्वसंग्रहाकत्वमितिचेउच्यते । अन्निप्रागc
omwww अने प्रमाणनुं किंचित स्वरूप निरूपण कराय डे. तेमां पण प्रथम नयनुं स्वरूप कहे डे, केमके ते जाण्याविना उनयन स्वरूप जाणवू मुश्केल जे. वली अहीं आचार्यमहाराजे प्रथम जे उनयनो निर्देश करेलो , ते उत्तरोत्तर प्रधानपणुं जणाववामाटे ले. । ११ । त्यां प्रमाणयुक्त पदार्थना एक देशनो जे विचार ते नय कहेवाय. अनंतधर्मवाला पदार्थ ने, पोताने अन्नीष्ट एवा एकधर्मप्रते ने ले जाय, अर्थात् संवेदनकोटिपर जे चमावे, ते नय कहेवाय ; एटले के प्रमाणनी प्रवृत्तिश्री नत्तरकाले थनारो विचार. वत्नी ते नयो अनंता डे, केमके पदार्थना धर्मो अनंता डे, तथा तेमाना एक धर्मवमे पर्यवसित एवा वक्ताना अनिप्रायोनै नयपणुं . । २२ । वृक्षो कहे जे के “जेटना वचनमार्गो डे, तेटला नयवादो होय ." तोपण चिरंतन आचार्योए सर्वनो संग्रह करनारा एवा सात अभिप्रायनी कल्पनाना हारे करीने सात नयोने प्रतिपादन करेला जे. ते नीचे प्रमाणे ब्रे. तैगम, संग्रह,
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स्तावदर्थक्षरेण शब्दधारेण वा प्रवर्तते । गत्यन्तराऽनावात् । तत्र ये केचनाऽर्थनिरूपणप्रवणाः प्रमात्रन्निप्रायास्ते सर्वेऽप्याद्ये नयचतुष्टयेऽन्तनवन्ति । ये च शब्द विचारचतुरास्ते शब्दादिनयत्रय इति । तत्र नैगमः सत्तालदणं महासामान्यमवान्तरसामान्या नि च व्यत्वगुएत्वकर्मत्वादीनि । तथाऽन्त्यान्विशेषान्सकलाऽसाधारणरूपलक्षणान् । अवान्तर विशेषांश्चाऽपेक्ष्या पररूपव्यावर्तनमान् । सामान्यादत्यन्तपनि वितस्वरूपाननिप्रैति । इदं च स्वतंत्रसामान्यविशेषवादे कुप्म मिति न पृथकप्रयत्नः । प्रवचनप्रसिनिलयनप्रस्थदृष्टान्तक्ष्यगम्यश्चायं ॥१॥ संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानधारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते ।
ninanimmmmmmmmmmmm व्यवहार, जुमूत्र, शब्द, समनिरूढ अने एवंन्नूत. । १३ । ते सातने सर्वसंग्राहकपणुं केम डे ? एम जो को पूरे, तो तेमाटे कहीयेडीये के, अभिप्राय जे ते पदार्थधाराए अथवा शब्दाराए प्रवर्ते , केमके ते शिवाय त्रीनो प्रकार तो डे नही. तेन्मांथी केटलाको, के जेन पदार्थना निरूपणमां समर्थ एवा प्रमाताना अभिप्रायो , तेन सर्वेनो पहेला चार नयोमा समावेश थाय ने, अने जे अभिप्रायो शब्दविचारमा समर्थ डे, तेननो शब्दादिक त्रण नयोमा समावेश थाय जे. । १५ । तेमां नैगमनय ने ते, सत्तालदणवायूँ महासामान्य, तथा इव्यपगुं, गुणपणुं अने कर्मपणुं इत्यादिक अवांतरसामान्यो, तथा स
मां असाधारणरूपलक्षणवाला अंत्यविशेषो, अने अपेक्षावमे परखरूपना व्यावर्तनमा समर्थ एका अवांतर विशेषो, ए सघना, सामान्यथी अत्यंत विनि ति स्वरूपवाना ने, एवो अभिप्राय आपे . आ बाब. तनुं स्वतंत्रसामान्य विशेषवादमां खमन कर्यु , तेश्री तेमाटे जूदो प्रयास करता नश्री. वनी आ नैगमनय ने ते, शास्त्रोमां प्रसिद एवा निलयनना अने पानीना, एम बे दृष्टांतोवमे जाणी शकाय . । १५।
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एतच्च सामान्यैकान्तवादे प्रापञ्चितं । १६ । व्यवहारस्त्वेवमाह | यथा लोकग्राहमेव वस्त्वस्तु । किमनया अदृष्टाऽव्यवह्रियमाणवस्तुप रिकल्पनकष्टपिष्टिकया । यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवाSनुग्राहकं प्रमाणमुपलभ्यते । नेतरस्य । न हि सामान्यमनादिनिधन - मेकं संग्रहाऽनिमतं प्रमाण मिस्तथानुभवाऽभावात् । सर्वस्य सर्वदशिवप्रसङ्गाच्च । १७ । नापि विशेषाः परमाणुलक्षणः कषक थिएः प्रमाणगोचरास्तथाप्रवृत्तेरभावात् । तस्मादिदमेव निखिललोकाडबाधितं प्रमाणप्रसिं कियत्कालना विस्थूलतामा वित्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थक्रियानिवर्तनकमं वस्तुरूपं पारमार्थिकं । पूर्वोत्तरकालमा वितत्पर्याय
हवे संग्रहनय बे ते सर्व विशेषोने आच्छादित करीने सवलुं सामान्यरूपे अंगीकार करे बे; मने तेमाटेनुं विवेचन पूर्वे एकांतसामान्यवादमां करेलुं बे. । १६ । व्यवहार नय एम कहे वे के, जे वस्तु लोकोना उपयोगमां आवे छे, तेज रहो ! परंतु नही दीवेली ने लोकव्यवहारमां नही यवती एवी वस्तुनी कल्पना करीने फोकट कष्ट सहन करवानी शी जरूर बे ? जे पदार्थ लोकव्यवहारना मार्गमां यावे बे, तेनेज ग्रहण करनारुं प्रमाण मलीशके बे, पण बीजानुं प्रमाण मलतुं नथी. वली अनादिनिधन ने संग्रहनये मानेनुं एवं एक सामान्य कई प्रमाणनुं स्थानक नयी, केमके तेवा मनुजवनो प्रभाव बे, वली सर्वने सर्वदर्शीपणानो प्रसंग आवे बे. । १७ । वल्ली परमा पुलक्षणवाला अने दणदयी एवा विशेषो पण प्रमाणगोचर नथी, केमके तेवरीतनी प्रवृत्तिनो अभाव बे. माटे सर्व लोकोप्रते बाधाविनानुं प्रमाण की प्रसि, केट लेक काले घनार स्थूलपणाने धारण क रनारुं तथा जलादिकने लाववाच्यादिकनी अर्थक्रिया करवामां समर्थ एवं पदार्थस्वरूप पार्मार्थिक ; अने पूर्वोत्तरकाले अनारा एवा तेना
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पर्यालोचना पुनरज्यायसी । तत्र प्रमाणप्रसराऽनावात् । प्रमाणमन्तरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अवस्तुत्वाच्च तेषां किं तमोचरपर्यासोचनेन । तथा हि । १७ । पूर्वोत्तरकालनाविनो ऽव्यविवर्त्ताः कणदयिपरमाणुलक्षणा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयन्ति । तन्न ते वस्तुरूपाः । लोकव्यवहारोपयोगिनामेव वस्तुत्वात् । अत एव पन्या गच्छति। कुमिका स्ववति । गिरिदह्यते । मञ्चाः क्रोशन्तीत्यादिव्यवहाराणां प्रामाण्यं । तथाच वाचकमुख्यः “लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारः” इति । १ए । ऋजुसूत्रः पुनरिदं मन्यते । वर्तमानकण विवर्येव वस्तुरूपं । नाऽतीतमनागतं च । अतीतस्य विनष्टत्वादनागतस्याऽलब्धात्मलानत्वात्खर विषाणादिन्योऽविशि
a rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrपयायोनो जे विचार, ते तो मतलबविनानो डे, केमके तेमां प्रमाणना प्रसरनो अन्नाव डे, अने प्रमाण विना विचार करवाने पण अशक्य ने; तेम तेनने अवस्तुपणुं होवाथी ते संबंधि विचार करवावमे पण शुं जे? ते कहे . । १७ । पूर्वोत्तरकाले थनारा व्यगत अथवा कएदयिपरमाणुलक्षणवाला विशेषो को पण रीते लोकव्यवहारने रचता नथी, माटे ते पदार्थरूप नथी, केमके जेन लोकव्यवहारमा नपयोगी होय , तेनेन पदार्थपणुं ले ; आथीकरीनेन मार्ग जाय डे, कुंभी मेरे डे, पर्वत बन्ने बे, मांचा शब्द करे , इत्यादिक व्यवहारोने प्रमाणपणुं ले. श्री नमाखातिनीमहारान पण कहे जे के " लौकिकसरखो नपचारप्राय विस्तृतार्थ व्यवहार जे." । १ए। जुसूत्र नय तो एम माने डे के, जे वर्तमानदणमा रहे , तेज वस्तुरूप ले, पण अतीत अने अनागतकालमा रहेना5 वस्तुरूप नथी; केमके अ. तीतकालसंबंधि वस्तु नष्ट थयेत होवाथी, अने अनागतकालसंबंधि वस्तु अनती होवाश्री, तेने खरशृंगादिकोथी कं विशेषपणुं न होवायी,
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प्यमाणतया सकलशक्ति विरहपरूत्वान्नार्थ क्रियानिवर्तनदमत्वं । तदनावाञ्च न वस्तुत्वं । यदेवार्थ क्रियाकारि तदेव परमार्थसदिति वचनात् । २० । वर्तमानदणासिङ्गितं पुनर्वस्तुरूपं समस्तार्थ क्रियासु व्याप्रियत इति तदेव पारमार्थिकं । तदपि च निरंशमन्युपगन्तव्यं । अंशव्याप्ते युक्ति रिक्तत्वात । एकस्याऽनेकचन्नावतामन्तरेणाऽनेकवावयवव्यापनाऽयोगात् । अनेकखन्नावतैवाऽस्त्विति चन्न । विरोधव्याघ्राघातत्वात् । तथा हि । २१। यद्येकः स्वन्नावः कथमनेकोऽनेक श्चेत्कथमकः । एकाऽनेकयोः परस्परपरिहारेणाऽवस्थानात् । तस्मात्स्वरूप निमनाः परमाणव एव परस्परोपसर्पणछारेण कथंचिन्निचयरूपतामापन्ना निखिलकार्येषु व्यापार नाजः । इति त एव स्वलदणं न स्थूलतां धारयत् पाwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwimmmmmmms सर्वशक्तिरहित होवाथी, तेने अर्थ क्रिया करवानुं सामर्थ्य होतुं नथी, अने तेना अन्नावश्री तेने वस्तुपणुं नथी, केमके, कहां ले के, जे अर्थक्रिया करनारुं , तेज परमार्थथी सत् डे. । २० । वली वर्तमान द. णवमे आलिंगित एटले वर्तमानकालमा वर्तनारुं जे वस्तुस्वरूप डे, ते सर्व अर्थक्रियानो व्यापार करी शके डे, माटे तेज परमार्थनूत डे, अने ते वस्तुस्वरूप पण अंशोरहित स्वीकार, केमके अंशोवानुं तो युक्तिविनानुं ; तेम एकने अनेकस्वन्नावपणाविना अनेक एवा पोताना अवयवोमां व्यापवानो अयोग जे. अनेकखन्नावपणुंज थान ? एम जो कहेशो, तो ते गुक्त नथी, केमके ते तो विरोधरूपी व्याघ्रथी आघात थाय ने, अर्थात् विरोधवानुं थाय डे. ते कहे . । २१। जो एक स्वन्नाव डे, तो अनेक केम डे ? अने जो अनेक ले, तो एक केम डे ? केमके एक अने अनेक, बन्ने एकबीजाने लोपीने रहे . माटे निजरूपमां निमग्न श्रयेला, अने परस्पर मनीजवावमे करीने कोश्कप्रकारे समूहरूप श्रयेना, एवा परमाणुन सर्व कार्योमा व्यापारवाला थाय
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रमार्थिकमिति । एवमस्यानिप्रायेण यदेव स्वकीयं तदेव वस्तु । न परीकयं अनुपयोगित्वादिति । २२ । शब्दस्तु रूढतो यावन्तो ध्वनयः कस्मिंश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते । यथेन्श्शक्रपुरन्दरादयः । तेषां' सर्वेपामप्येकमर्थमनिप्रैति । किन्न प्रत।तिवशाद्यथा शब्दाऽव्यतिरेकोऽर्थस्य प्रतिपाद्यते तथैव तस्यैकत्वं वा प्रतिपादनीयं । न चेन्ऽशक्रपुरन्दरादयः पयायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीयन्ते । तेन्यः सर्व दैकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति । ५३ । शब्द्यते आहूयतेऽनेनाऽनिप्रायणार्थ इति निरुक्तादेकार्थप्रतिपादनान्निप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयो
ma n orren. .............. डे; माटे तेनन परमार्थनत , पण स्थूलपणाने धारण करतुं एवं निजलदण पारमार्थिक नश्री. एवीरीते या नयना अनिप्रायवमे जे स्वकीय , तेज पदार्थ डे, परंतु परकीय पदार्थ नथी, केमके ते अनुपयोगी . । २२। शब्दनय ठे ते, रूढीयकी, जेम ३२, शक, पुरंदर आदिक जेटला शब्दो कोपण अर्थमा प्रवर्ते , ते सघलानो एक अर्थ डे, एवो अभिप्राय आपे डे. प्रतीतिना वशयी अर्थप्रते शब्दनो अनेद जेम स्वीकारवामां आवे डे, तेमज तेना एकपणाने अथवा अनेकपणाने पण स्वीकारवू. वली २२, शक्र तथा पुरंदरआदिक पयायशब्दो निन्न अर्थेने कहेनारा डे, एq कोश्पण समये प्रतीत अतुं नथी, केमके हमेशां एकाकारना विचारनी नत्पत्तिनी अस्खलित वृतिपणायें करीने तेनप्रते तेवोन व्यवहार देखायो डे. माटे पर्यायशब्दोनो एकन अर्थ जे. । २३ । आ अमुक अनिप्रायवमे अर्थन प्राहाहन जेश्री कराय ते शब्द ; एवीरीतना निरुक्तार्थथी एक अर्थना प्रतिपादनना अन्निप्राये करीनेज पर्यायशब्दोनो प्रयोग थाय ने. नेम
१। सुरपतो तेषां । झते द्वितीयपुस्तकपाटः ।।
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३७५ गात् । यया चायं पर्यायशब्दानामेकमर्थमन्निप्रेति । तथा तटेस्तटी तटमिति विरुइनिङ्गलकृणधर्मानिसंबन्धास्तुनो नेदं चानिधत्ते । न हि विरुधर्मकृतं दमनुन्नवतो वस्तुनो विरुधर्माऽयोगो युक्तः । एवं संख्याकालकारकपुरुषादिनेदादपि नेदोऽभ्युपगन्तव्यः । तत्र संख्या एकत्वादिः कालोऽतीतादिः । कारकं कादिः । पुरुषः प्रथमपुरुषादिः । २४ । समनिरूढस्तु पर्यायशब्दानां प्रविनक्तमेवार्थमनिमन्यते । तद्यया । इन्दनादिन्यः परमैश्चर्यमिन्दशब्दवाच्यं परमार्थतस्तक्ष्त्यर्थे । अतक्षति पुनरुपचारतो न वा कश्चित तवान् । सर्वशब्दानां परस्परविनतार्थप्रतिपादिततया आश्रयाश्रयित्नावेन प्रवृत्त्यसिः । २५ । एवं शकनाच्चक्रः पूारणात्पुरन्दर इत्यादिनिन्नार्थत्वं सर्वशब्दानां द
mins आ नय पर्यायशब्दोना एक अर्थनो अभिप्राय आपे , तेम 'तट, तटी, अने तटं' एवीरी ते विरुइ लिंगना लदणवाला धर्मना संबंधथी पदार्थनो नेद ( पण ) कहे डे, केमके विरुक्ष धर्मे करेला नेदने अनुन्नवता एवा पदार्थने विरुझ धर्मनो अयोग कंई युक्त नथी. एवीज रीते संख्या, काल, कारक तथा पुरुषादिकना नेदर्थी पण नेद जाणी लेवो. तेमां संख्या एटले एकपणादिक, कान एटले नूतकालादिक, कारक एटने कर्ताआदिक, पुरुष एटले प्रथमपुरुष आदिक. ।२५। समनिरूढ नय तो पर्यायशब्दोनो जूदोजूदोन अर्थ माने दे. ते नीने प्रमाणे. ऐश्वर्यपणाश्री इंश. इंशब्दने कहेनारुं परमेश्वरपणुं परमार्थथी तेवाला अर्थमा प्रवर्ते जे. अने तेविनाना अर्थमा उपचारश्री वर्ते डे, केमके तेवा ऐश्वर्यवालो कोइ न पाण होय ; कारणके सर्व शब्दो परस्पर निन्न अर्थाने स्वीकारता होवाथी, तेनने आश्रयाश्रयोजावेकरीने प्रवृत्तिनी असिदिले. । २५ । एवीजरी ते शक्ति होवाथी शक्र, पुरूने विदारवाश्री पुरंदर ; इत्यादि सर्व शब्दानुं निन्नअर्थपणुं आ
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३०३ शयति । प्रमाणयति च । शब्दा अपि निन्नार्थाः । प्रविनक्तव्युत्पत्तिनिमितकत्वात् । इह ये ये प्रविनक्तव्युत्पत्ति निमित्तकास्ते ते निनाः । यथेन्ऽपशुपुरुषशब्दाः । विभिन्नव्युत्पत्ति निमित्त काश्च पर्यायशब्दा अपि । अतो निन्नार्था इति । २६ । एवंनूतः पुनरेवं नापत्ते । यस्मिन्नर्थे शब्दो व्युत्पाद्यते स व्युत्पत्ति निमित्तमर्थो यदैव प्रवतते तदैव तं शब्दं प्रवर्तमानमनिप्रैति । न सामान्येन । यथोदकाद्या. हरणवेज्ञायां योषिदादिमस्तकारूढो विशिष्टचेष्टावानेव घटोऽनिधीयते । न शेषो धटशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तशून्यत्वात् । पटादिवदिति । २७ । अतीतां नाविनी वा चेष्टामङ्गीकृत्य सामान्येनैवोच्यत इति चेन्न । तयो
menurutruvina समनिरूढनय देखामे ले. अने तेने (नीचे प्रमाणे ) प्रमाणरूप पण करे . पर्यायशब्दो पण निन्नअर्थवाला डे, केमके तेन निन्न व्युत्पत्तिना निमित्तवान्ना डे; अहीं जे जे निन्न व्युत्पत्तिना निमित्तवाला जे, ते ते निन्नअर्थवाला ने; जेम इंश, पशु तथा पुरुष आदिक शब्दो ; अने पर्याय शब्दो पणं निन्न व्युत्पत्तिना निमित्तवाला
. माटे निन्नअर्थवाना . । २६ । एवंनूत नय तो वनी एम कहे ने के, जे अर्थमां शब्दनी व्युत्पत्ति थाय बे, ते व्युत्पत्तिनो निमित्तरूप अर्थ ज्यारे प्रवर्ते डे, त्यारेज ते शब्दरूपे प्रवर्ते , परंतु सा. मान्यपणे नही, एवो ते नयनो अनिप्राय ले. जेम पाणी आदिकने नरीलावतीवेलाए स्त्रीआदिकना मस्तकपर रहेलो, एवीरीतनो विशिष्ट चेष्टावालोज घट कहेवाय डे, पण बीजो नही, केमके ते तो पटादिकनी पेठे घटशब्दनी व्युत्पत्तिना निमित्तथी रहित . । २७ । थयेली अथवा थवानी चेष्टाने स्वीकारीने सामान्यवमेज (ते घट) कहेवाय ने, एम जो कहेशो, तो ते युक्त नश्री, केमके ते बन्ने चेष्टाउने तो नष्टपाणु अने अनुत्पत्तिपणुं होवाथी ते शशशृंगसरखी ने ; बतां पण
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... --- ३०४ विनष्टाऽनुत्पन्नतया शशविषाणकल्पत्वात् । तथापि तद्वारेण शब्दप्रवतने सर्वत्र प्रवर्तयितव्यो विशेषाऽनावात् । २० । किं च यद्यतीतक. स्यच्चेष्टापेक्ष्या घटशब्दोऽचेष्टावत्यपि प्रयुज्येत । कपालमृत्पिएमादावपि तत्प्रवर्तनं उर्निवारं स्याहिशेषाऽनावात । तस्माद्यत्र दणे व्युत्पत्ति निमित्तम विकलमस्ति तस्मिन्नेव सोऽर्थस्तच्छब्दवाच्य इति ।२॥ अत्र संग्रहश्लोकाः । =॥ अन्यदेव हि सामान्य-मनिन्नझानकारणं । विशेषोऽप्यन्य एवेति । मन्यते नैगमो नयः ।।। | ३० । सद्रूपताऽनतिक्रान्त-स्ववन्नावमिदं जगत् ॥ सत्तारूपतया सर्वं । संगृह्णन् संग्रहो मतः ॥ ॥ । ३१ । व्यवहारस्तु तामेव । प्रतिवस्तुव्यवस्थिताम् ।। तथैव दृश्यमानत्वा-व्यापारयति देहिनः ॥॥ । ३२। तत्र मृत्रनीति:
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तेने लीधे तफावत न होवाथी शब्दप्रवर्तनमा सर्व जगोए ते घटने प्रवतीववो. । २० । वली थयेली अने थनारी चेष्टानी अपेदाये तो घ. टशब्दने अचेष्टावान्मां जोमीशकाय ! अने एवीरीते तो तफावतना अनावथी ठीबमी तथा माटीना पिंमादिकमां पण ते घटशब्दनुं प्रवर्तन कं पण अटकायतविना थ३ जाय. माटे जे कणे व्युत्पत्तिनुं निमित्त विकलताविनानुं , तेज कणे ते अर्थ ते शब्दनो वाच्य . । २ए । अहीं (ते नयासंबंधि) संग्रहश्लोको ले. (तेननो अर्थ नीचेप्रमाणे बे.) =|| अनिन्नानना कारणरूप सामान्य उंज डे, अने विशेपपण (तेनाथी) जूदोज डे, एवीरीते नैगमनय माने . ॥॥॥३०॥ बता रूपने नही अतिक्रमेला एवा निजस्वन्नावरूप आ जगत ने, ए. वीरीते सत्तारूपपणायें करीने सर्वने ग्रहण करतो जे नय, तेने संग्रह. नय मानेलो . ||1|| ३१ । व्यवहार नय उ ते, दरेक वस्तुप्रते र. हेली तज सत्ताने तेवीजरी ते दृश्यमान थवाथी शरीरीप्रते जो डे. =II । ३२ । तेमां शुभ पगायोवमे संश्रित श्रयेलो, नश्वर पदार्थनाज
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३५ स्या-चुपयायसंश्रिता ॥ नश्वरस्यैव नावस्य । नावात् स्थितिवियोगतः ।। || । ३३ । विरोधनिङ्गसंख्यादि-नेदानिन्नवन्नावताम् ॥ तस्यैव मन्यमानोऽयं । शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ।।।३।। तथाविधस्य तस्यापि। वस्तुनः दणवर्तिनः ॥ ब्रूते समनिरूढस्तु । संझानेश्न निन्नताम् ।। । ३।। एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं । सदा तन्नोपपद्यते ॥ क्रियानेदेन निनत्वा-देवन्नतोऽनिमन्यते ॥ ॥ ३६॥ एत एव च परामर्शा अनिप्रेतधर्मावधारणात्मकतया शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना उर्नयसंझामश्नु. वते । तद्वनप्रनावितसत्ताका हि खव्वते परप्रवादास्तथाहि । ३७ । नैगमनयदर्शनानुसारिणौ नैयायिकवैशेषिकौ । संग्रहानिप्रायप्रवृत्ताः सवेऽप्यतिवादाः सांख्यदर्शनं च । व्यवहारनयानुपाति प्रायश्चार्वाकद
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नावयी स्थिति वियोगयी जुसूत्रनय थाय . (आ श्लोकनो अर्थ अमोने जेम बेगे डे, तेम लख्यो , उतां बहुश्रुत कहे ते खरो) ।। । ३३ । विरोध, लिंग तथा संख्या दिकना नेदश्री, तेनान निनवनावपणाने मानतो एवो आ शब्दनय रहे डे. ॥|३४ । तेबीनरीतनी तथा दणस्थायी एवी ते वस्तुनुं पण संझानेदे करीने समनिरूढनय निन्नपणुं कहे . ॥॥ । ३५ । एवंनूतनय एम माने जे के, एक एवो पण शब्द, क्रियानेदे करीने निन्न होवाश्री, तेने हमेशां तेवाच्यपणुं प्राप्त यतुं नथी. ॥= । ३६ । उपर जणावेला साते नयोसंबंधि तेन विचारो, ज्यारे पोते मनिला धर्मनेज पकीराखी ने, बाकीना धर्मोना तिरस्कारे करीने वर्ते , त्यारे ते ऽनयनी संझाने धारण करे ले ; अने खरेखर ते (निन्नभिन्न ) नयोना बलवमे करीने सत्तावाला थयेला ते परप्रवादो डे. ते कहे . । ३७ । नैयायिक अने वैशेषिकदर्शनो नैगमनयने अनुसरनारा ने. सघला अतवादो अने सांख्यदर्शन संग्रहनयना अन्निप्रायप्रमाणे प्रवर्तेला ले. चार्वाक
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शनं । जुसूत्राकूतप्रवृत्तबुझ्यस्ताथागताः । शब्दादिनयावलम्बिनो बैयाकरणादयः । उक्तं च सोदाहरणं नयऽनयस्वरूपं श्रीदेवसूरिपादैः। तथा च तद्वन्थः । ३ । नीयते येन श्रुताख्यप्रमाण विषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपत्तुर निप्रायविशेषो नयः" इति। स्वानिप्रेतादशादितरांशापलापी पुनर्नयानासः । ३ए । स व्याससमासान्यां हिप्रकारः । व्यासतोऽनेक विकल्पः । समासतस्तु हिन्नेदो । ६. व्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । आद्यो नैगमसंग्रह व्यवहारनेदात त्रेधा । धर्मयोर्धर्मिणोधर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनन्नावेन यहिवदणं स नैकगमो
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दर्शन प्रायें करीने व्यवहारनयने अनुसरनारो ने. बौझे जुसूत्रनयना विचारप्रमाणे प्रवृत्त थ डे बुद्धि जेन्नी एवा . तथा वैयाकरणादिको शब्दादिनयना आलंबनवाला . वली पूज्य श्री देवसूरिजीमहाराजे नय अने उनयनुं स्वरूप नदाहरणोसहित नीचेप्रमाणे पोताना ग्रंथमां कडं . ।३। आगम नामना प्रमाणे विषयरूप करेला अर्थनो अंश, बीजा अंशोप्रते मध्यस्थपणुं राखीने, जेनावमे ले जवाय, एवो जे स्वीकारनारनो अन्निप्राय विशेष, ते 'नय' कहेवाय; अने पोते स्वीकारेला अंशथी बीजा अंशोने नलवनारो, ते नयानास कहेवाय. । ३ए। ते नय व्यास अने समासवमे बे प्रकारनो . व्यासथी अनेक विकल्पोवालो ने, अने समासथी बे नेदोवालो ने, एक इव्यार्थिक अने बीजो पर्यायार्थिक. तेमां पहेलो व्यार्थिकनय नैगम, संग्रह अने व्यवहारना नेदथी त्रण प्रकारनो के. बे धर्मोनु, बे धर्मीननु, अने धर्मधर्मीनें मुख्य अने गौण नावे करीने जे कहे, ते, के जेनो एक गमो नथी, ते नैगमनय कहेवाय. 'आत्मामां सच्चैतन्य डे' एम जे कहेवू, ते बे धर्मोनुं कहेवू जाणवू. 'वस्तुपर्यायवद् एव्य' एम ने कहे, ते वे धर्मीननु कहेवू जाणवू. 'विषयासक्त जीव एक
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नैगमः । सच्चैतन्यमात्मनीति धर्मयोः । वस्तुपयायवद्रव्यमिति धर्मिणोः। दणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणोः । धर्मक्ष्यादीनामैकान्तिकपार्थक्यान्निसंधिर्नैगमानासः । यथात्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यन्तं प्रयग्नूते । 10 | सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः । अयमुन्नयविकल्पः ! परोऽपरश्च । अशेष विशेषेष्वौदासीन्यं नजमानः शुद्रव्यं सन्मात्रमनिमन्यमानः परः संग्रहः । विश्वमेकं सदविशेषादिति यथा । सत्ताऽतं स्वीकुर्वाण: सकल विशेषान्निराचदाणस्तदानासः । यथा सत्तैव तत्वं ततः पृथग्नूतानां विशेषाणामदर्शनात् । ३१ । व्यत्वादीन्यवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तन्नेदेषु गनिमीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसंग्रहः । धर्माऽधर्माकाशकालपुमलव्याणामैक्यं व्यत्वाऽनेदा
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दणसुधि सुखी होय डे' एम जे कहे, ते धर्मधर्मिनु कहेवू जाणवू. ते बे धर्मादिकोनो एकांते पृथक्पणानो जे विचार, जेमके आत्मामां सत्पणुं अने चैतन्यपणुं बन्ने परस्पर अत्यंत निन्नरूपे , ते नैगमानास कहेवाय. | 0 | सामान्यमात्रने ग्रहणकरनारो जे विचार ते संग्रहनय कहेवाय. तेना पर अने अपर, एम बे नेदो ने. सर्व विशेषोमां मध्यस्थपणाने धारणकरतो अने सन्मात्र शुझ्व्य ने मानतो एवो परसंग्रहनय जे, जेम सत् शिवाय बीजुं न होवाथी सघर्बु एक ने. तथा सत्ता शिवाय बीजुं कंज नथी, एम स्वीकारतो यको, सर्व विशेषोने जे तिरस्कारे डे, ते परसंग्रहानास कहेवाय ; जेमके सत्तान तत्व डे, केमके तेथी पृथक्न्त विशेषो देखाता नथी. । १ । वनी व्यपणादिक अवांतर सामान्योने मानतो, तथा तेना नेदोमां आंखामा कान करतो, एवो अपरसंग्रहनय डे, नेम धर्म, अधर्म, आकाश, काल अने पुगलआदिक ऽव्योने ऽव्यपणाना अन्नेदथी एकपणुं ने, इत्यादिक. तथा तेन्ना व्यपणा आदिकने स्वीकारतो
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३० दित्यादिर्यथा । तद्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तहिशेषान्निवानस्तदानासः । यया व्यत्वमेव तत्वं ततोऽर्थान्तरनूतानां व्याणामनुपलब्यः । ४२ । संग्रहेण गोचरीकतानामर्थानां विधिपूर्वमवहरणं येनाऽनिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः । यया यत्सत्तद्रव्यं पायो वेत्यादि । यः पुनरपारमार्थिकं व्यपर्यायप्रविनागमनिप्रैति स व्यवहारानासः । यथा चार्वाकदर्शनं । १३ । पर्यायार्थिकश्चतु । जुसूत्रः शब्दः समनिरूढ एवंनूतश्च । रुजु वर्तमानदणस्थायिपर्यायमात्रं प्राधान्यतः मूत्रयन्ननिप्रायः जुसूत्रः । यथा सुखविवर्तः संप्रत्यस्तीत्यादिः । सर्वथा
व्याऽपनापी पुनस्तदानासः । यथा ताथागतमतं । कालादिनेदेन ध्वनेरर्थन्नेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः । यथा बन्न नवति नविप्यति सुमेरु
rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrroran थको, अने तेन्ना विशेषोने नन्नवतो थको अपरसंग्रहानास कहेवाय डे; जेमके इव्यपणुं एज तत्व डे, केमके तेथी बीजा पदार्थोरूप एवा इव्योनी प्राप्ति यतो नश्री. । ४२ । संग्रहनये गोचरकरेला पदार्थोनी जे विचारवमे विधिपूर्वक वेहेंचाण कराय, ते व्यवहारनय कहेवाय, जेमके, जे सत् बे, ते ऽव्य अथवा पर्याय जे, इत्यादि ; परंतु इव्यपर्यायनी वेहेंचणप्रते जे अपारमार्थिक अन्निप्राय धरावे जे, ते व्यवहारान्नास जे. जेम नास्तिकमत. । ४३ । हवे पर्यायार्थिकनयो, ऋजुसूत्र, शब्द, समनिरूढे तथा एवंनूतना नामश्री चार प्रकारना ले. ऋजु एटले वर्तमानदणमा रहेनारा पर्यायमात्रने प्रधानपणाश्री रचतो, एवो जे अनिप्राय ते जुसूत्रनय जे, जेम हमणां सुखमाकाल डे; ३.
त्यादिक ; तथा सर्वथाप्रकारे व्यने उलवनारो ते रुजुसूत्रानास डे, । जेम बौइमत. कालादिकना देकरी ने शब्दना अर्थन्नेदने स्वीकार
नारो शब्दनय हे, जेम मेरु थयो, थाय ने अने थशे, इत्यादि. वनी ते कालादिकना नेदेकरीने ते शब्दना तेन अर्थने समर्थन क
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रित्यादि । तन्नेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदानासः । यथा बनव नवति नविष्यति सुमेरुरित्यादयो जिन्न कान्ताः शन्दा निन्नमेवाश्रमनिदधति । निन्नकालशब्दत्वात्ताहकसि दाऽन्यशब्दवदित्या दिः ।।।। पर्यायशव्देषु निरुक्ति नेदेन लिन्नमर्य समनिरोहन्समनिरूढः । ३. न्दनादिन्दः । शकनाच्चक्रः । पूर्दारणात् पुरन्दर इत्यादिषु यथा । पयायव्वनीनामनिधेयनानात्वमेव कदीकुर्वाणस्तदानासः । यथेन्दः शक्रः पुरन्दर इत्यादयः शब्दा निन्नानिधेया एव निन्नशब्दत्वात्करिकुरङ्गतुरंगशब्दवदित्यादिः । १५ । शब्दानां स्वप्रवृत्ति निमित्त नूतक्रिया विशिष्टमयं वाच्यत्वेनाऽज्युपगच्छन्नेवन्तः । यथेन्दनमनुन्नवन्निन्दः । शकनक्रियापरिगतः शक्रः ! पूरणप्रवृत्तः पुरन्दर इत्युच्यते । क्रियाऽ
रतो शब्दानास श्राय ; जेम मेरु थयो, थाय ने अने थशे, इत्या - दिक निन्नकालवाला शब्दो निन्नन अर्थने धारण करे , केमके ते तेवीजीतना सिह थयेला बीना शब्दोनी पेठे जूदा जूदा कालघाना शब्दो छे, इत्यादि. । ४ । पर्यायशब्दोमां निरूक्तिना नेदयो निन्न अर्थने समर्थन करतो समनिरूढनय डे; जेम ऐश्वर्यपणुं यवाश्री इंश, शक्तिवान् होवाश्री शक्र, पूर्दारवाश्री पुरंदर. वनी पयायशब्दाना विविधप्रकारनान नामोने स्वीकारतो समन्निरूढानास थाय ने; जेम इंश, शक्र तथा पुरंदरादिक शब्दो निन्न शब्दो होवार्थी जूदा जूदा नामोवामान बे, जेम हाश्री, हरिण तथा घोमो, इत्यादिक. 1 ५। शब्दोना, पोतानी प्रवृत्तिना निमितन्त क्रियावाला अर्थने वाच्यपणावमे करीने स्वीकारनारो एवंनूतनय ; जेम ऐश्वर्य ने अ. नुन्नवतो इंश डे, शक्तिक्रियामां जोमायेलो शक डे, तथा पूरणमां प्रवृत्त ययेनो पुरंदर कहेवाथ डे. तथा क्रियामा नही जोमायेनी वस्तुनो शब्दवाच्यपणावमे प्रतिक्षेप करतो, एवो एवंनूतानास जे; जेम
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३ए नाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रति क्लिपस्तु तदानासः । यथा विशिष्ट चेष्टाशून्यं घटाख्यं वस्तु नैव घटशब्दवाच्यं । घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तनूतक्रियाशून्यत्वात्पटवदित्यादिः । ४६ । एतेषु चत्वारः प्रथमेऽथ निरूपणप्रवणत्वादर्थनयाः । शेषास्तु त्रयः शब्दवाच्यार्थगोचरतया शब्दनयाः । पूर्वःपूर्वो नयः प्रचुरगोचरः । परःपरस्तु परिमितविषयः । ४ । सन्मात्रगोचरात्संग्रहान्नैगमो नावाऽनावन्नुमिकत्वादनमविषयः । । । सविशेषप्रकाशकाद् व्यवहारतः संग्रहः समस्तसत्समूहोपदर्शकत्वाद्बहुविषयः । ४ए । वर्तमानविषयादृजुमूत्राच्यवहार स्त्रिकालविषयावलम्बित्वादनल्पार्थः । ५० | काला दिनेदेन निन्नार्थोपदर्शिनः शब्दादजुमूत्रस्तविपरीतवेदकत्वान्महार्थः । ५१ । प्रतिपर्यायशब्दमर्थनेदमन्नी
name.com ( जलाहरणादिक ) विशिष्ट चेष्टा विनानो घटादिक पदार्थ बटशब्दवाची नथीज, केमके पटनी पेठे घटशब्दनी प्रवृत्तिना निमित्तान्त एवी क्रियाविनानो ते ले. इत्यादि. । ५६ । तेनमांश्री पेहेला चार अर्थनिरूपणमां समर्थ होवाथी अर्थनयो ठे, अने बाकीना त्रण शब्दवाच्यअर्थपणायें करीने शब्दनयो ने. तेनमांथी पूर्वपूर्व नय महाविषयवालो ठे, तथा उत्तरोत्तर नय परिमितविषयवानो डे. । ४७ । सन्मात्रना विषयवाला मंग्रहनयथी नैगमनय डे ते, नावाऽन्नावना स्थानकरूप होवाथी महाविषयवालो ने. । । सहिशेषने प्रकाशनारा व्यवहारनयथी, संग्रह नय ने ते, सर्व सत्समूहने देखामनार होवाथी महाविषयवालो . । ।ए । वर्तमानकालना विषयवाला जुसूत्रनयथी व्यवहारनय जे ते, त्रिकालिक विषयोना अवलंबनवालो होवाथी महाविषयवालो . । ५० । कालादिकना नेदवमे निन्न अर्थने दे. खामनारा शब्दनयथी जुसूत्र नय ते, तेथी विपरीत जणावनारो होवाथी महाविषयवानो . । ५१ । दरेक पर्यायशब्दप्रते अर्थदने
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३१ प्सतः समनिरूदाच्छब्दस्तविपर्ययानुयायित्वात्प्रनूनविषयः । ५२ । प्रतिक्रियं विभिन्नमर्थप्रतिजानानादेवंन्तात्समनिरूढस्तदन्यथास्थापकत्वान्महागोचरः । ५३ । नयवाक्यमपि स्वविपये प्रवर्तमानं विधिप्रतिपेधान्यां सप्तनङ्गीमनुबनतीति । विशेषार्थिना नयानां नामान्वर्थविशेषलदणादेपपरिहारादिचर्चस्तु नाप्यमहोदधिगन्धहस्तिटीकान्यायावतारादिग्रन्थेच्यो निरीक्षणीयः । ५४ । प्रमाणं तु सम्यगर्थनिर्णयलक्षणं सर्वनयात्मकं स्याच्छन्दलानितानां नयानामेव प्रमाणव्यपदेशन्नाक्त्वात। तथा च श्रीविमलनाथस्तव समन्तनः =|| नयास्तव स्यात्पदलाबना श्मे । रसोपविज्ञ व लोहधातवः ॥ नवंत्यनिप्रेतफला यतस्ततो । नवन्तमायाः प्रणता हितैषिणः । इति । ५५ । तच्च विविधं । प्रत्यद
www.ravrrrrrrrrइच्छता एवा समानरूढनयर्थी शब्दनय ३ ते, तेथी विपरीत होवाथी महाविषयवालो . । ५५ । दरक क्रियाप्रते निन्न अर्थने स्वीकारता एवा एवंनतनयथी समनिरूढनय डे ते, तथा अन्यथाप्रकारे स्थापन करनार होवाश्री महा विषयवालो . । ५३ । नयवाक्य पण पोताना विषयमा प्रवर्ततुं थकुं विधिनिषेधे करीने सप्तनंगी ने अनुसरे . आ नयोसंबंधि विशेष माहेती मेलववाना अर्थीए, तेउना नामने अनुसारे विशेष लक्षण आदेपपरिहारादिकनी चर्चा नाप्यमहोदधिगंधह स्तिटीका तथा न्यायावतार आदिक ग्रंथोथी जो लेवी. । ५५ । सम्यकप्रकारे पदार्थना निर्णयरूप ले लदण जेनुं, एवं जे प्रमाण, ते सर्वनयात्मक ले; केमके स्यात् शब्दे करीने युक्त एवा नयो प्रमाणना व्यपदेशने नजे . श्री विमलनाथप्रनुनी स्तुतिमां श्री समंतनश्महाराज पण कहे डे के =॥ हे प्रनु ! स्यात्पदे करीने युक्त एवा आपना आ नयो, रसोपवि लोहधातुननी पेठे इच्छित फलोने आपनारा थाय ने, अने तेटलामाटे हितेच्नु उत्तम माणसो आपने नमेला ले।
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परोदं च । तत्र प्रत्यदं विधा । सांव्यवहारिकं पारमार्थिक च । सां. व्यवहारिकं विविध मिन्श्यिाऽनियिनिमित्तनेदात् । तद्वितयमवग्रहे. हावायधारणानेदादेकैकशश्चतुर्विकल्पं । अवग्रहादीनां स्वरूपं सुप्रतीतत्वान्न प्रतन्यते । ५६ | पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेदं । तद्विविधं । दायोपशमिकं दायिकं च । आद्यं अवधिमनःपयोयनेदाद
ध्या । दायिकं तु केवलज्ञानमिति । ५७ । परोदं च स्मृतिप्रत्यनिझानोहाऽनुमानागमन्नेदात्पञ्चप्रकारं । तत्र संस्कारप्रबोधसन्न्तमनुनतार्थविषयं तदित्याकारं वेदनं स्मृतिः । तत्तीयकर बिम्ब मिति यथा । अनुन्नवस्मृतिहेतुकं तिर्यगर्ध्वतासामान्यादिगोचरं संकलनात्मकं ज्ञान
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। ५५ । हवे ते प्रमाण बे प्रकार- बे, एक प्रत्यद अने बीजुं परोक. तेमां प्रत्यद बे प्रकार- डे, एक सांव्यवहारिक अने बीचं पारमार्थिक. तेमां सांव्यवहारिक यिनिमित्तवालुं अने अनियिनिमित्तवालुं एम बे प्रकारनुं ले. ते बन्ने अवग्रह, ईहा, अवाय अने धारगाना नेदश्री अकेका चार प्रकारनां . ते अवग्रहादिकोनुं स्वरूप प्रसिद्ध होवाथी तनो विस्तार को नथी. । ५६ । हवे पारमार्थिक प्रत्यक्ष ने ते, नत्पत्तिमा आत्ममात्रनी अपेदाबाडं , अने ते बे प्रकारचें जे. एक दायोपशमिक अने बीजं दायिक. तेमां पेहेलु दायोपशमिक अवधि अने मनःपर्यायना नेदथी बे प्रकार, डे; अने दायिक ए. टने केवलज्ञान. । ५७ । वली परोक्षप्रमाण ने ते, स्मृति, प्रत्यनिझा, कहा, अनुमान अने आगमना नेदश्री पांच प्रकार, ले. तेमां संस्कारना प्रबोधश्री नुत्पन्न थये , अनुनवेला अर्थना विषयवाछु तथा
आ ते बे, एवीरीतना कारवाळु जे ज्ञान, ते स्मृतिपरोद ; जैम ते तीर्थकर- बिंब . । ५७ । अनुन्नवस्मृतिना हेतुवालु, तथा तिर्यसामान्य अने नुर्वसामान्यादिकना विषयवार्बु एवं संकलनात्मक
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प्रत्यनिझानं । यथा तज्जातीय एवायं गोपिएको गोसदृशो गवयः । स एवायं जिनदत्त इत्यादिः । एए। उपन्नम्नाऽनुपलम्नसम्नवं त्रिकालोकनितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्यानम्बनमिदमस्मिन् सत्येव नवतीत्याद्याकारं संवेदनमूहस्तकोऽपरपर्यायः । यथा यावान् कश्चिधूमः स सर्वो वह्नौ सत्येव नवतीति । तस्मिन्नसत्यसौ न नवत्येवेति वा । ६० । अनुमानं ब्धिा । स्वार्थ परार्थ च । तत्राऽन्यथाऽनुपपत्त्येकलदणहेतुग्रहणसंबन्धस्मरणकारणकं साध्य विज्ञानं स्वार्थ ! पदहेतुवचनात्मक परार्थमनुमानमुपचारात् । ६१। आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः । नपचारादाप्तवचनं चेति । स्मृत्यादीनां च विशेषवरूपं स्याहादरत्नाकरात् साक्षेपपरिहारं झेयमिति । ६२ । प्रमाणान्तराणां पुनरर्थापत्युपमानस
जे झान, ते प्रत्यनिझानपरोद ने ; जेम तेज जातिनो आ गोपिम तथा गोसरखो गवय , तथा आ तेन जिनदत्त ने, इत्यादि. । एए । नपलंन अनुपत्ननश्री नत्पन्न श्रयेचु, तथा त्रिकालयुक्त साध्यसाधनना संबंधादिकना आलंबनवाचु, तथा आ होते बतेज आ थाय ,
यादिक आकारवामुं जे झान, ते कह कहेवाय ने, के जेनुं बीजुं नाम तर्क डे; जेमके, आ आटलोबधो जे कोश्क धुंवामो डे, ते सघलो अनि होते उतेज थाय ने, अथवा ते न होते ते आ नज थाय. । ६० । हवे अनुमानपरोक बे प्रकारचें , एक स्वार्थ अने बीजुं परार्थ. तेमां अन्यथाप्रकारे अप्राप्तिरूप एक लक्षणवाला हेतुना ग्रहणना संबंधना स्मरणना कारणवाद्धं जे साध्य विज्ञान ते स्वा
ऑनुमान डे, अने उपचारथी पदहेतुवचनरूप परार्थानुमान ले. ६ यथार्थवक्ताना वचनयी प्रगट थयेन्चु जे पदार्थ विज्ञान, ते आगमपरोद , अने नपचारथी प्राप्तना वचनने पण जाणवू. वनी ते स्मृति आदिकोनुं विशेष स्वरूप स्याक्षादरत्नाकरयी आपपरिहार सहित
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३एन म्नवप्रातिनैतिह्यादीनामत्रैवान्तावः । सन्निकर्षादीनां तु जमत्वादेव न प्रामाण्यमिति । तदेवं विधेन नयप्रमाणोपन्यासेन उनयमार्गस्त्वया खिन्नीकृत इति काव्यार्थः ॥
। ६३ । इदानीं सप्तदीपसमुश्मात्रो लोक इति वावदूकानां तन्मात्रलोके परिमितानामेव सत्त्वानां सम्नवात् परिमितात्मवादिनां दोषद. निमुखेन नगवत्प्रणीतं जीवाऽनन्त्यवादं निर्दोषतयाऽनिष्टुवन्नाह ।
मुक्तोऽपि वाऽज्येतु नवं नवो वा ।
नवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे ॥ पजीवकायं त्वमनन्तसंख्य
माख्यस्तथा नाथ यथा न दोषः ॥ श्ए । संख्याता आत्मानने स्वीकारवारूप वादमां, मुक्त थयेलो जीव पण संसारमा आववो जोश्ये ; अथवा कांतो आ संसार डे ते, संसारी जीवोथी रहित यवो जोश्ये ; परंतु हे प्रन्नु! आपे तो जेम कंई दोष
जाणी लेवु. । ६२ । वत्नी अर्थापत्ति, उपमान, संनव, प्रातिन तथा ऐतिही आदिक बीजां प्रमाणोनो पण आनीअंदरज समावेश थाय ने; अने सन्निकर्षादिकोने तो जमपणुंज होवाथी प्रमाणपणुं नथी. माटे (हे प्रन्नु ! ) एवीरीतना नय अने प्रमाणोना स्थापनवमे आपे पुर्नयमार्ग ने अटकाव्यो डे, एवीरीते अठावीसमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
। ६३ । हवे 'आ लोक फक्त सात होपो अने सात समुशे जेटलोज ठे' अने तेटना लोकमां तो फक्त परिमित प्राणीनज संन्नवी शक डे, तेथी तेवा वाचाल परिमितवादीनना दोषदर्शनहाराए करीने, प्रन्नुए रचेता अनंता जीवोना मतने निर्दोषपणावमे स्तवताथका कहे .
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ए५ न आवे, तेवीरी ते अनंतसंख्यावालो उ प्रकारना जीवोनो समूह कहेलो . ॥ २ ॥
।। मितात्मवादे संख्यातानामात्मनामन्युपगमे दूषणक्ष्यमुपतिष्ठते । तत्क्रमेण दर्शयति । मुक्तोऽपि वाऽभ्येतु नवमिति । मुक्तो निवृतिप्राप्तः सोऽपि वा (अपिर्विस्मये) ( वा शब्द उत्तरदोषापेक्ष्या समुच्चयार्थः । यथा देवो वा दानवो वेति ) नवमन्येतु संसारमन्यागच्चतु । इत्येको दोषप्रसङ्गः । नवो वा नवस्थशून्योऽस्तु । नवः संसारः । स वा नवस्थशून्यः । संसारिजी वैर्विर हितोऽस्तु नवतु । इति हितीयो दोषप्रसङ्गः । । श्दमत्राकूतं । यदि परिमिता एवात्मानो मन्यन्ते तदा तत्त्वज्ञानाऽन्यासप्रकर्षा दिक्रमेण पवर्ग गच्चत्सु तेषु संन्नाव्यते खन्नु कश्चित्कालो यत्र तेषां सर्वेषां निर्वृतिः । कालस्याऽनादिनिधनत्वादात्मनां च परिमितत्वात् । संसारस्य रिक्तता नवन्ती केन
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।। मितात्मवादमां एटले संख्याता आत्मान स्वीकारते बते बे दृषणो आवे छे, ते अनुक्रमे देखामे ले. मोदने प्राप्त थयेलो जे जीव जे, ते पण संसारमा आववो जोश्ये, ए पहेला दोषनो प्रसंग जाणवो. (अहीं 'अपि' विस्मयअर्थमां डे) (तथा 'वा' शब्द नत्तरदोषनी अपेक्षाये समुच्चयार्थमां में ; जेम 'देव अथवा दानव' ) अथवा तो नव एटले जे संसार, ते संसारी जीवोथी रहित थइ जाय, ए बीजो दोषनो प्रसंग जाणवो. ।। अहीं नावार्थ ए जाणवो के, ज्यारे आत्मानने एटले जीवोने परिमितज मानवामां आवे, त्यारे तत्वज्ञानना अति अन्यासना क्रमवमे ते जीवो मोदमां जाते बते, एवो पण कोश्क काल आवशे, के ने काले ते सर्व जीवोनी निवृत्ति थशे, केमके काल तो अनादिअनंत डे, अने जीवोनी संख्या तो परिमित ;
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वार्यतां । ३। समुन्नीयते हि प्रतिनियतसलिलपटलपरिपूरिते सरसि पवनतपनातपनजनोदञ्चनादिना कालान्तरे रिक्तता । न चायमर्थः प्रामाणिकस्य कस्यचित्प्रसिदः । संसारस्य स्वरूपहानिप्रसङ्गात् ।। तत्स्वरूपं ह्येतद्यत्र कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः संसरन्ति समासापुः संस. रिप्यन्ति चेति । सर्वेषां च निवृतत्वे संसारस्य वा रिक्तत्वं हगदज्युपगन्तव्यं । मुक्तैर्वा पुनर्नवे आगन्तव्यं । न च दीण कर्मणां नवाधिकारः । =|| दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं । प्राउनवति नाङ्कुरः ॥ कर्मबीने तथा दग्धे । न रोहति नवाङ्कुरः ।।= इति वचनात् ।। आह च पतञ्जलिः “ सति मूले तहिपाको जात्यायुर्नोगा' इति । एतट्टीका
माटे एवीरीते थतुं एवं संसार- रिक्तपणुं कोण अटकावी शके तेम ने ? । ३ । कारणके अमुक मापवाला जलसमूहथी नरेला तलावमांथी वायु, सूर्यनो तमको तथा माणसोना नरवाआदिकवमे, ते तलाव खाली थन जाय . वली आ बाबतने कोइ पण प्रामाणिक माणस स्वीकारे नही, केमके तेथी संसारने स्वरूपहा निनो प्रसंग आवे ने । । केमके ते संसारनुं स्वरूप तो ए के, जेमां कर्मोने वश थयेला प्राणी संसरे डे, संसर्या ने अने संसरशे, ते संसार कहेवाय, अने सघनाननी ज्यारे निवृत्ति थाय, त्यारे पराणे संसार, रिक्तपणुं स्वीकारवु पमशे, अने कांतो मुक्त थयेतानने फरीने संसारमा आवq पमशे ! ! परंतु जेननां कर्मो वीण थयां बे, तेन ने तो संसारमा फरीने आववानो अधिकार नथी. कर्वा डे के =|| जेम बीज अत्यंत बली जाते ते अंकुरो नत्पन्न यतो नथी, तेम कर्मरूपी बीज बनीजाते ते संसाररूपी अंकुरो नगतो नथी. ॥ | ५ । पतंजलि पण कहे जे के “ मूल होते ते तेना विपाकरूप जाति, आयु तथा नोग थाय ." तेनी दीकानो नावार्थ ए के, “क्लेशो होते बते कर्मा
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च " सत्सु लेशेषु कर्माशयो विपाकारम्नी नवति । नोच्चिन्नक्लेशमूलः। यथा तुषावनाः शानितंमुला अदग्धवीमन्नावाः प्ररोहणसमर्था न-' वन्ति । नाऽपनीततुषा दग्धवीजन्नावाः । तथा क्लेशावनः कर्माशयो विपाकप्ररोही नवति । नाऽपनीतक्लेशो न दग्धबीजन्नावो वेति । स च विपाकस्त्रिविधो नातिरायुर्नोग इति" । ६ । अदपादोऽप्याह । “ न प्रवृत्तिः प्रतिसंधानाय हीनक्लेशस्येति" । एवं विनङ्गशा निशिवराजर्षिमतानुसारिणो दूषयित्वोत्तराईन नगवउपमपरिमितात्मवादं निर्दोषतया स्तौति । पम्जी वेत्यादि । ७ । त्वं तु हे नाथ अनन्तसंख्यं अनन्ताख्यखंख्या विशेषयुक्तं । पम्जीवकायं । अजीवन् जीवन्ति जीविष्यन्ति चेति नीवाः । इन्श्यिादिज्ञानादिश्व्यन्नावप्राणधारणयुक्तास्तेषां “ संघ
शय विपाकना आरंजवालो थायं ने, परंतु लेशरूप मूल बेदायाबाद यतो नश्री. जेम फोतरांवान्ता सानना चोखा, के जेनमांश्री बीजपणुं दग्ध अयुं नश्री, तेन उगवाने समर्थ थाय डे, परंतु फोतरां नखेमीनीधेला चोखा, के जेनमाथी बीनपणुं दग्ध थयुं डे, ते नगवाने समर्थ यता नश्री; तेम लेशयुक्त श्रयेलो कर्माशय विपाकना प्ररोहवालो थाय , परंतु क्लेशरहित अथवा दग्ध थयेन के बीजपणुं मांथी एवो कर्माशय विपाकना प्ररोहवालो यतो नथी; अने ते विपाक जाति, आयु: अने नोगरूप त्रण प्रकारनो डे. । ६ । अदपाद पण एम कहे के “लेशरहितनी प्रवृत्ति प्रतिसंधानमाटे होती नथी." एवीरीते विनंगझानवाना शिवराजर्षिना मतने अनुसरनारान्नु खमन करीने, नत्तरार्धवमे प्रनुए कहेला अपरिमितात्मवादनी स्तुति करे . । । हे प्रन्नु ! आप तो अनंत नामनी संख्याविशेषवाला षजीवकायने कहेलो . जे जीव्या ने, जीवे डे अने जीवशे, ते जीवो कहेवाय ; अर्थात् इंश्यआदिक इव्यप्राणोने धारनारा, तथा झानादिक नाव
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--... ३ए वानू " इति चिनोतेञि आदेश्च कत्वे कायः समूहो जीवकायः । पृथिव्यादिषणां नीवकायानां समाहारः पम्जीवकायं ( पात्रादिदर्शनानपुंसकत्वं)। अथवा षण्मां जीवानां कायः प्रत्येकं संघातः पम्जीवकायस्तं पम्जीवकायं । एथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसन्न दणषमजीवनिकायं । तथा तेन प्रकारेण आख्यः मर्यादया प्ररूपितवान् । यथा येन प्रकारेण न दोषो दूषण मिति । ( जात्यपेदमेकवचनं ) प्रागुक्तदोषक्ष्यजातीया अन्येऽपि दोषा यथा न प्राऽप्यन्ति तथा त्वं जीवानन्त्यमुपदिष्टवानित्यर्थः । । । 'आख्यः' इति आङ्पूर्वस्य ख्यातेर मि सिदिः। त्वमित्येकवचनं चेदं शा. पयति यज्जगद्गुरोरेवैकस्येहकप्ररूपण सामर्थ्य । न तीर्यान्तरशास्तृणामिति । १०। एथिव्यादीनां पुनर्जीवत्वमित्यं साधनीयं । यथा सात्मिका
प्राणोने धारनारा जीवो. " संवेवानूचे " ए सूत्रवमे 'चिनोतिने ' घम होते ते “ आदेश्च" एवमे कत्व थवाथी 'काय ' शब्द थयो . जीवोनो काय एटले जे समूह, ते जीवकाय कहेवाय. प्रथ्वीआदिक उ प्रकारना जीवोना समूहनो जे समाहार, ते पम्जीवकाय कहेवायं. ( पात्रा दिकदर्शनश्री नपुंसकपणुं .)। । अथवा उ प्रकारना जीवोनो दरेकनो जे समूह ते पम्जीवकाय, तेवा पम्जीकायने एटले पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति अने त्रस लक्षणवाला पम्जीवनिकायने, हे प्रनु ! आपे तेवीरीते मर्यादापूर्वक प्ररूप्यो डे के, जेथी तेमां दूषण
आवतुं नथी. (अहीं जा तिनी अपदाये एक वचन ) अर्थात् पूर्वे कहेला वे दोषो जेवा बीजा पण दोषो जेम तेने दूषित कर नही, तेवी रीते आपे जीवोनुं अनंतपणुं उपदेशेनुं बे. । ए। 'आख्यः' ए आङ्पूर्व ख्यातिने अट होते बते सिह थाय जे. त्वं ए एक वचन एg जणावे डे के, एक एवा जगतना स्वामी जिनेश्वरप्रन्नुनेज आवीरीतना प्ररूपए मां समर्थपणुं जे, पण बीजा दर्शनोना शास्तारोने तेवू समर्थ
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विद्रुमशिलादिरूपा प्रथिवी बेदे समानधातूस्थानादर्शोऽङ्कुरवत' । नौममम्नोऽपि सात्मकं इतनसजातीयस्य खन्नावस्य सम्नवात् शालूवरत् । अन्तरिदमपि सात्मकं अनादिविकारे स्वतःसम्न्य पातात म. स्यादिवत् । तेजोऽपि सात्मकं आहारोपादानेन वृश्चादिषिकारोपनम्नात् पुरुषाङ्गवत् । वायुरपि सात्मकः अपरप्रेरितत्वे तिर्यग्गतिमत्वाजोवत् । वनस्पतिर पि मात्मकः दादिनि न्यादिदर्शनात् पुरुषाङ्गजत् । केषांचित् स्वापांगनोपश्लेषादिविकाराच्च ।११। अपकर्षतश्चैतन्याहा सर्वेषां सात्मकत्व सिरािप्तवचनाच्च । त्रसेषु च कृमि पिपीलिकान्त्रमरमनुष्यादिषु न केषांचित्सात्मकत्वे विगानमिति । यथा च नगवउपझे
पणुं नश्री. । १० । हवे पृथ्वीपादिकमां जीवपणुं नीचेप्रमाणे साधq. नेमके, परवानां तथा पत्थररूप पृथ्वी जीववानी ने, केमके ते अर्शीकुरोनी पेठे समानधातुना नत्थानवाली . पृथ्वीसंबंधी पाणी पण नीववाढं बे, केमके ते शावरनी पेठे खणेली एथ्वीसरखा वनावना संभववायूँ . अंतरिक्त जल पण जीववाळ बे, केमके ते वादलांबादिकोनो विकार होते ते मत्स्यादिकनी पेठे पोतानीमेले नत्पन्न थश्ने पमें डे. तेज पण जीववालुं , केमके तेमां पुरुषांगनी पेठे आहारना नपादानवमे वृझिआदिको विकार थाय डे. वायु पण जीववालो ने, केमके ते बीनाथी प्रेराते बते बलदनी पेठे तिर्वी गतिवालो याय . वनस्पति पण जीववाली डे, केमके तेमां पुरुषांगनी पेठे वेदादिकोवमे म्ला नियादिक देखाय ; तेमज केटनीक वनस्पतिनमा निश तथा स्त्रीना आलिंगन आदिकथी विकार थतो देखाय जे । ११ । अपकपंथी अथवा चैतन्यश्री अने आप्तवचनथी सर्वना सात्मकपणानी सिदि थाय . वत्नी कीमा, कीमी नमरा तथा मनुष्यादिक सोना सात्म
२ । दीकरवत् । इति द्वितीयपुस्तकपाठः ॥
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नीवाऽनन्त्ये न दोषस्तथा दिग्मात्रं नाव्यते । १२ । नगवन्मते हि षमा जीवनिकायानामेतदल्पबदुत्वं । सर्वस्तोकास्त्रसकाथिकास्तेच्याऽसंख्यातगुणास्तेजःकायिकास्तेन्यो विशेषाधिका पृथिवीकायिकास्तेन्यो विशेषाधिका अप्कायिकास्तेन्यो विशेषाधिका वायुकायिकास्तेच्योऽनन्तगुणा वनस्पतिकायिकास्ते च व्यावहारिका अव्यावहारिकाश्च । १३ । 11|| 'गोलाय असंखिज्जा। असंखनिग्गोयगोलन नणि॥शक्विक्कं मि निगाए। अणन्तनीवा मुणेयवा || सिज्जंति जत्तिया खनु । इहसंववहारजीवरासि ॥ इति अणाश्वणस्स-रासीन तत्तिा तंमि ॥ इति ववनात् । १५ । यावन्तश्च यतो गच्छन्ति मुक्तिं जीवास्तावन्तोऽनादिनि
कपणामां कोश्ने पण संदेहजेवू नथी. वली प्रन्नुए कहेला जीवाना अनंतपणामां जे कं पण दोष नथी, ते दिग्मात्र कहीये डीये. [१श प्रन्नुना मतमा उए जीवनिकायो- अल्पबहुपणुं नीचेप्रमाणे . सर्वश्री थोमा त्रसकायो डे, तेन्थी असंख्यातगुणा तेजस्कायो बे, तेन्थी विशेषत्राधिक पृथ्वीकायो जे, तेन्थी विशेषाधिक अप्कायो , तेन्थी विशेष अधिक वायुकायो जे, अने तेन्थी अनंतगुणा वनस्पतिकायो ने, तेम वली तेनना व्यवहारराशिवाला अने अव्यवहारराशिवाला एम बे नेदो ले. कर्वा डे के =|| असंख्याता गोलान डे, अने तेनमां असंख्याता निगोदना गोला कहेला डे; अने ते एकेक निगोदमां अनंता जीवो जाणवा. ।। || अहीं संव्यवहारराशिमांथी जेटला जीवा मोके जाय , तेटना अनादिवनस्पतिराशिमाथी तेमां आवे . = । १४ । जेमांथी जेटला जीवो मोदे जाय डे, तेटला अनादिनिगोदव
१ गोला असंख्याताः । असंख्यनिगोदगोलाः भणिताः ॥ ऐकैस्मिन् निगेदे । अनंतजीवर ज्ञातव्याः ॥= सिध्यन्ति यावंतः खलु । इह संव्यवहारजीवराशितः ॥ आयोति अनादिवनस्यति राशितः तावनः तस्मिन् ॥ इतिच्छाया ।
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गोदवनस्पतिराशेस्तत्रागच्छन्ति । न च तावता तस्य काचित्परिहाणिर्निगोदजीवाऽनन्त्यस्याऽयत्वात् । निगोदस्वरूपं च समयसागरादवगन्तव्यं | १५ | अनाद्यनन्तेऽपि काले ये केचिन्निर्वृता निर्वान्ति निर्वास्यन्ति च ते निगोदानामनन्तनागेऽपि न वर्त्तन्ते नावर्तिषत न वत्स्यन्ति । ततश्च कथं मुक्तानां नवागमनप्रसङ्गः । कथं च संसारस्य रिक्त - ताप्रसक्तिरिति । अभिप्रेतं चैतदन्ययूथ्यानामपि । यथा चोक्तं वार्त्तिककारेण | १६ | = |त एव विशुत्सु । मुच्यमानेषु सन्ततम् | ब्रह्मलोकजीवानामनन्तत्वादशून्यता ॥ अन्त्यन्यूनातिरिक्तत्वै-युंज्यते परिमाणवत् ॥ वस्तुन्यपरिमेये तु । नूनं तेषामसम्भवः ॥ इति काव्यार्थः ॥
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नस्पतिराशिमांथी तेमां आवे छे अने तेथी तेनो कई पण घटामो यतो नयी, केमके निगोदजीवोनुं अनंतपणुं यदय बे ; वली ते निगोदनुं स्वरूप समयसागरथी जाणी लेबुं. । १५ । अनादिअनंतकालमां पण जे केटलाको मोदे गया बे, मोदे जाय ने अने मोक जसे, तेन निगोदोना अनंतमे जागे पण नथी, नहोता मने नहीं । होशे, अने तेश्री मुक्ताने फरीने या संसारमां यात्रानो प्रसंग क्यांथी यशे ? तेम संसारने रिक्तपणानो प्रसंग पण क्यांश्री यशे ? वल्ली प्रावीजरींत बीजा अन्यदर्शनीनए पण स्वीकार्य बे. तेवीजरी ते वार्तिककारे पण कह्युं बे के–| १६ | = || श्री करीनेज विशु आत्मान हमेशां मोदे जाते बते, ब्रह्मांमलोकना जोवो अनंता होवाथी रिक्तपशुं यतुं नश्री ॥ = ॥ अंय, न्यून ने अतिरिक्तपणावमे परिमाणवालुं घटे वे ; परंतु अपरिमेय पदार्थमां तो तेननो संभव होतो नथी. = || एवीरीते उगणत्रीसमा काव्यनो अर्थ जावो. ॥
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. । १७ । अधुना परदर्शनानां परस्पर विरु-क्षार्थसमर्थकतया मत्सरित्वं प्रकाशयन् सर्वझोपसिझान्तस्याऽन्योऽन्याऽनुगतसर्वनयमयतया मात्सर्याऽनावमावि वयति ।
अन्योऽन्यपक्षप्रतिपदनावात् ।
यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः ॥ नयानशेषान विशेष मिच्छन् ।
न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥ ३०॥ परस्पर पक्षप्रतिपकना नावथी जेम बीजां दर्शनो मत्सर। होवाश्री (पक्षपाती ) , तेम सर्व नयोने अविशेषपणे इच्छतुं एवं आपनु आगम पदपाती नथी. ॥ ३० ॥
। १। प्रकर्षणोद्यते प्रतिपाद्यते स्वाऽज्युपगतोऽर्थो थैरिति प्रवादाः । यथा येन प्रकारेण परे नवच्छासनादन्ये प्रवादा दर्शनानि मत्सरिणः । अतिशायने मत्वर्थीय विधानात्सातिशयाऽसह नताशालिनः ।
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। । १७ । हवे अन्यदर्शनीन, परस्पर विरुड़ पदार्थना समर्थनपणाथी मत्सरीपणुं देखामताथका, सर्व प्रनुए कहेला सितना, परस्पर लागुपमता एवा सर्वनयमयपणायें करीने, मात्सर्यना अनावने प्रगट करे .
।। पोते स्वीकारेलो अर्थ प्रकर्षवमे जेल प्रतिपादन करे, तेन प्रवादो कहेवाय. हे प्रन्नु! जे प्रकारवझे आपना शासनथी अन्य, एवां दर्शनो मत्सरवाला डे (तेवु आपनुं शासन मत्सरी नथी, एवो संबंध जाणवो.) अतिशयार्थमां मत्वर्थीय करवाश्री, अतिशयपणाव; असहनतावालां, एटले क्रोधरूप कषाये करीने मलीन अंतःकरणवाला
१। सातिशया अमत्सरशालिनः । इति द्वितीयपुस्तकपाठः ॥
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१०३ क्रोधकपायकलपितान्तःकरणाः सन्तः पदपातिनः । इतरपदतिरस्कारंण चकदीकृतपदव्यवस्थापनप्रवणा वर्तन्ते । । कस्माइतोर्मत्सरिण इत्याह । अन्योऽन्यपदप्रतिपकनावात् । पच्यते व्यक्ती क्रियते साध्यधर्मवैशिष्टयेन हेत्वादिन्निरिति पदः । कदीकृतधर्मप्रतिष्ठापनाय साधनोपन्यासः । तस्य प्रतिकूलः पदः प्रतिपदः । पदस्य प्रतिपदो विरोधी पदस्तस्य नावः पदप्रतिपदनावः । अन्योऽन्यं परस्परं यः पदप्रतिपदनावः पदप्रतिपदत्वं अन्योऽन्यपदप्रतिपदन्नावस्तस्मात् तथा हि । ३ । य एव मीमांसकानां नित्यः शब्द इति पदः । स एव च सौगतानां प्रतिपदस्तन्मते शब्दस्याऽनित्यत्वात् । य एव सौगतानां अनित्यः शब्द इति पदः । स एव मीमांसकानां प्रतिपदः । एवं सर्वप्रयोगेषु योज्यं । ४ । तथा तेन प्रकारेण ते तव । सम्यक् एति गच्छति
थयां थकां ते परदर्शनो पक्षपाती ने ; अर्थात् तेन बीना पदोना तिरस्कारे करीने, फक्त पोते स्वीकारेला पदनेज स्थापवामां तत्पर होय .! ५ । हवे ते अन्यदर्शनो शामाटे मत्सरवाना होय ? ते कहे डे. परस्पर पदप्रतिपदना नावथी. साध्यधर्मना विशिष्टपणायें करीने हेतुआदिकोवमे जे प्रगट कराय, ते पद कहेवाय, अर्थात स्वीकारेला धर्मने स्थापवामाटे साधननो उपन्यास. हवे तेनो जे प्रतिकूल पद ते प्रतिपद कहेवाय, अर्थात् पदनो प्रतिपदी एटले विरोधीपद, अने तेनो जे नाव ते पदप्रतिपदनाव कहेवाय ; अने जे परस्पर पदप्रतिपदनो नाव ते अन्योऽन्यपदप्रतिपदनाव कहेवाय ; तेथी. ते कहे ने. । ३ । 'शब्द नित्य डे' एवो मीमांसकोनो जे पद छे, तेज बौशेनो प्रतिपद डे, केमके तेन्ना मतमा शब्दने अनित्यपणुं ; अने 'शब्द अनित्य डे' एवो बौनो जे पद ले, तेन मीमांसकोनो प्रतिपद जे. एवीज रीते सर्व प्रयोगोमां जोमी लेवु. । । । (हवे जेवी
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शब्दोऽर्थमनेनेति “ पुन्नानि वे " समयः संकेतः । यज्ञ सम्यगवैपरीत्येनेयन्ते ज्ञायन्ते जीवाजीवादयोऽर्था अनेनेति समयः सिध्वान्तः । अथवा सम्यगयन्ते गच्छन्ति जीवादयः पदार्थाः स्वस्मिन् रूपे प्रतिष्ठां प्राप्नुवन्ति यस्मिन्निति समय आगमः । न पक्षपाती नैकपदानुराग। | ५ | पक्षपातित्वस्य कारणं मत्सरित्वं परप्रवादेषूक्तं । त्वत्समयस्य च मत्सरित्वाऽजावान्न पक्षपातित्वं । पक्षपातित्वं हि मत्सरित्वेन व्याप्तं । व्यापकं च निवर्तमानं व्याप्यमपि निवर्तयतीति मत्सरित्वे निवर्तमान पक्षपातित्वमपि निवर्त्तत इति भावः ' तव समय' इति वाच्यवाचकभावलक्षणे सम्बन्धे षष्टी । ६ । सूत्रापेक्षया गणधर कर्तृकत्वेऽपि सम
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रीते ते अन्यदर्शनो मत्सरी बे ) तेवीरीते हे प्रभु! व्यापनुं समय एटले प्रागम मत्सरी नथी. जेनाव मे सम्यकप्रकारे शब्द अर्थप्रते जाय, ते 'समय' एटले संकेत कहेवाय. 'पुंना म्रिये " ए सूत्रवमे 'समय' शब्द थयो बे. अथवा सम्यक् एटले विपरीतपणा विना जीवाजीवयादक पदार्थों नाव मे जणाय, ते 'समय' एटले सिद्धांत कहवाय.
थवा जीवादिक पदार्थों सम्यक्प्रकारे जाय बे, एटले ज्यां निजस्व - रूपमा प्रतिष्ठा पामे बे, ते 'समय' एटले यागम कहेवाय. एवं प्रापागम पक्षपाती एटले एक पहना अनुरागवानुं नथी । ५ । पक्षपातीपणाना कारणरूप जे मत्सरीपणुं, ते ( नपरमुजब ) अन्यदर्शनोमां कयुं, परंतु प्रापना सिद्धांतने तो मत्सरीपणुं न होवाथी, तेने पक्षपातीपणुं नथी; केमके पक्षपातिपणुं तो मत्सरिपणावमे व्याप्त ययेलुं बे, अने व्यापक पोते निवर्तमान यतुं यकुं व्याप्यने पण निव र्तन करे बे, एवीरीते मत्सरिपणुं निवर्तन होते बते, पक्षपातिपणुं पण निवर्तन या बे एवो भावार्थ जाणवो. अहीं 'आपनो सिद्धांत' ए
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वाच्यवाचकजावरूप संबंधयर्थमां बठ्ठी विभक्ति यइ बे. । ६ । सि
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४०५ यस्यार्थापेक्ष्या नगवत्कनुकत्वाक्षाच्यवाचकनावो न विरुध्यते " अयं नासर अरहा । सुत्तं गंथन्ति गणहरा निठणं " इति वचनात् । ७ । अथवा नत्पादव्ययध्रौव्यप्रपञ्चः समयः । तेषां च नगवता सादान्मातृकापदरूपतयाऽनिधानात । तया चापम् " नुप्पन्ने वा विगमे वा धुवेति वा” इत्यदोषः । ७ । मत्सरित्वाऽनावमेव विशेषणवारण समर्ययति । नयानशेषान विशेष मिच्चन् इति। अशेषान् समस्तान् नयान् नैगमादीन् अविशेषं निर्विशेष यया नवत्येव मिच्न नाकांछन् । नयात्मकवादनेकान्तवादस्य । यया विशकलितानां मुकाम गोतामेकमूत्राऽनुस्यूतानां हारव्यपदेशः। एवं एथगन्निसन्धीनां नयानां स्यानादलहणैकसूत्रप्रोतानां श्रुताख्यप्रमाणव्यपदेश इति । ए । ननु प्रत्येक नयानां विरु20
པཔཔཔཔ པ པ པ ཕཔ པས པ པ༦ པཔ་ཕཔ ་པ ་བ ་བ ་བ... པ་... པ ་ शंतने सूत्रनी अदाए जोके गणधरकत्तागणुं डे, तोपण (तेना) अर्थनी आपदाये नगवत्कर्तापणुं होवायी, वाच्यवाचकनावमां विरोष आवतो नयी. कहां डे के " अरिहंतो अर्थ कहे डे, अने गाणधरो निपुण सूत्रने गुंथे ठे." ।। अयवा नत्पाद, व्यय अने धौव्यरूप जे प्रपंच, ते 'समय' कहेवाय, केमके ते उत्पादादिकोने नगवाने साक्षात् मातृकापदरूपे कहेला ने. वली 'नुत्पन्न थाय ने, नाश पामे डे तथा स्थिर रहे डे' एवं कृषिवाक्य पण डे; माटे दोपर हित जे. । ७ । प्रनुना सिहांतमा मत्सरीपणानो अनावज , ए, हवे विशेषणक्षाराए समर्थन करे ले. समस्त एवा जे नैगमादिक नयो, तेने अविशेषरीते इच्छतो एवो आपनो सिद्धांत ठे, केमके अनकांतवादने नयात्मकपणुं . नेम बुटां मुक्तमणिनने ज्यारे एक दोरामां गुंथवामां आवे, त्यारे जेम तेनुं नाम 'हार' पमे डे, तेम निन्नभिन्न र. हेला नयोने ज्यारे स्याक्षादरूप एक दोरामां गुंथवामां आवे, त्यारे श्रुतनामनो प्रमाण व्यपदेश थाय . ।। अहीं को शंका करे
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५०६ इत्वे कयं समुदितानां निर्विरोधिता । उच्यते । यथा हि समीचीनं मध्यस्थं न्यायनिर्णेतारमासाद्य परस्परं विवदमाना अपि वादिनो विवादाशिमन्ति । एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सार्वज्ञ शासनमुपेत्य स्याच्चब्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तयः सन्तः परस्परमत्यन्तसुहृद्नयाऽव तिष्टन्ते । १० । एवं च सर्वनयात्मकत्वे नगवत्समयस्य सर्वदर्शनमयत्वमविरुझमेव । नयरूपत्वाद्दर्शनानां । न च वाच्यं तर्हि नगवसमयस्तेषु कथं नोपत्नन्यत इति । समुश्स्य सर्वसरिन्मयत्वेऽपि विनक्तासु तास्वनुपनम्नात् ।११। तथा च वक्तृवचनयारैक्यमध्यवस्य श्रीसिइसेनदिवाकरपादाः । =|| नदधाविव सर्व सिन्धवः । समुद्रीणीस्त्वयि नाथ दृष्टयः ॥ न च तासु नवान्प्रदृश्यते । प्रविनक्तासु मरि
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के, दरेक नयोमां तो ( परस्पर ) विरोधपणुं , तो पड़ी तेन एकग थवाश्री विरोधपणुं केम न आवे ? तेने माटे कहे जे. जेम नुत्तम अने मध्यस्थ एवा न्यायाधीशने पामीने परस्पर विवाद करता एवा पण वादीन नेम विवादश्री विरमे डे, एवीजरीते परस्पर वैर राखता एवा पण नयो सर्वप्रनुना शासनने पामी ने, स्यात शब्दना प्रयोगयी शांत थयेन ने विवाद जेन्नो, एवा थयाथका परस्पर अत्यंत मित्रन्नाव राखी ने रहे जे. । १० । वन्नी एवीरीते प्रनुना सिद्धांतने सर्वनयात्मकपणुं होते उते, सर्वदर्शनमयपणुं विरोधर हित , केमके ते सर्व दर्शनोने नयरूपपणुं जे. वत्नी एम नही बोन के, प्रन्नुनो सिहांत त्यारे तेनमां केम उपलब्ध थतो नथी ? केमके रूमुश्ने सर्व नदीनमयपणुं होवा उतां पण निन्नभिन्न एवी ते नदीनमां ते समुझ नपलब्ध थतो नश्री. । ११ । वत्नी वक्ता अने वचन- एकपणुं ध्यानमां लेने पूज्य श्री सिझसेनदिवाकरजी महाराज पण कहे डे के =॥ हे प्रनु ! समुइमां नेम सर्व नदीन, तेम आपनामां दर्शनो सम्यक प्रकारे नदीर्ण
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विवोदधिः । । १२ । अन्ये वेवमाचदते । यथा अन्योऽन्यपदप्रतिपदानावात्परे प्रवादा मत्सरिणस्तथा तव समयः सर्वनयान्मध्यस्थत. याऽङ्गीकुर्वाणो न मत्सरी । यतः कथं नूतः पदपाती पदमेकपदानिनिवेशं पातयति तिरस्करोतीति पदपाती। अत्र च व्याख्याने न मत्सरीति विधेयपदं पूर्वस्मिश्च पदपातीति विशेषः । अत्र च क्लिष्टाऽक्लिष्टव्याख्यान विवेको विवे किनिः स्वयं कार्य इति काव्यार्थः ॥
। १७ । इत्थंकारं कतिपयपदार्थ विवेचनक्षारेण स्वामिनो यथार्थवादाख्यं गुणमनिष्टत्य समग्रवचनातिशयव्यावर्ण ने स्वस्याऽसामर्थ्य दृ. ष्टान्तपूर्वकमुपदर्शयन् औध्धत्यपरिहाराय नंग्यन्तरतिरोहितस्वानिधानं प्रकाशयनिगमनमाह ।
wwwmummmmmm.2 याय ने, परंतु निन्ननिन्न एवी नदीनमा जेम समुश, तेम आप तेने विषे देखाता नथी. = | ११ बीजान वल्ली आ कायनो एवो अर्थ करे ने के, जेम परस्पर पकप्रतिपदना नावथी बीजां दर्शनो मत्सरी
, तेम सर्व नयोने मध्यस्थपणावमे अंगीकार करतो एवो आपनो सिद्धांत मत्सरी नथी. केमके, आपनो सिशंत केवो ? तो के, पदपाती एटले एक पदना अन्निनिवेशने तिरस्कार करनारो . आ व्याख्यानमा ‘न मत्सरी' ए विधेय पद , अने पूर्वे 'पदपाती' ए विशेष ले. अहीं लीष्ट अक्लीष्टनो विचार विवेकीनए पोतानीमेलेन करी लेवो. एवीरीते त्रीसमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
। १३ । एवीरीते केटलाक पदार्थोना विवेचनधाराए प्रनुना यथार्थवाद नामना गुणने स्तवीने, तेमना सर्व वचनातिशयना वर्णनमां पोतानुं असमर्थपणुं दृष्टांतपूर्वक देखामताथका, तथा नइतपणाना परिहारमाटे नंग्यंतरवमे गुप्त गोठवेलां पोताना नामने प्रकाशताथका निगमन कहे .
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ម០០ वाग्वैनवं ते निखिलं विवेक्तु___ माशास्महे चेन्महनीयमुख्य ॥ लक्षेम जङ्घालतया समुई।
वहेम चन्श्युतिपानतृष्णाम् ॥ ३१॥ - हे पूज्योमा मुख्य ! एवा प्रनु ! आपना समस्त एवा वचननवनो विचार करवाने जो अमो इच्छीये, तो जंघानपणावमे अमो समुने पण लंगी जश्ये ! तथा चंनी कांतिने पीवानो अनिताष करीये !! ॥३१॥
।। विनव एव वैनवं ( प्रज्ञा दत्वात्वार्थेऽण् ) विनोनावः कम चेति वा वैन । वाचां वैनवं वाग्दैनवं वचनसंपत्प्रकर्ष । विनोनांव इति पदे तु सर्वनयव्यापकत्वं । विनुशब्दस्य व्यापकपर्यायतया रूढत्वात् । ते तव संबन्धिनं निखिदं कृतनं विवेक्तुं विचारयितुं चेद्यदि वयमाशास्महे इच्छामः । । हे महनीयमुख्य । महनीयाः पूज्याः प. ञ्चपरमेष्टिनस्तेषु मुख्यः प्रधानन्तः आद्यत्वात्तस्य संबोधनं । ननु सिन्यो होनगुणत्वादहतां कयं वागतिशपशानिनामपि तेषां मुख्यत्वं।
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।। विन्नव एन वैनव. (प्रशादि होवाश्री स्वार्थमां 'अण्' अयो .) विनुनो जे नात्र अथवा कर्म, ते वैनव कहेवाय. वचनोनो जे वैनव ते वाग्वैनव एटले वचनोनी संपदानो प्रकर्ष. 'विनुनो नाव ' ए पदमां तो, वैजव एटले सर्व नयानुं व्यापकपणुं जाणवू. केमके विन्नु शब्द व्यापकना पर्यायरूपे रुढ . एवीरीतना आपना वचनवैनवने संपूर्णरी ते अमो जो विचारवाने इच्छाये तो-। हे महनीयमुख्य ! महनीय एटले पूज्य एवा जे पंचपरमेष्टिन, तेनमा पेहेला होवाथी प्रधाननूत एवा हे प्रन्नु! = अहीं वादी शंका करे डे के, वचनातिश
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ए न च हीनगुणत्वमसि । प्रव्रज्याऽवसरे सिझेन्यस्तेषां नमस्कारकरण - श्रवणात् । “कानण नमुक्तारं सिहाणमनिग्गहंतु सो गिएहे " इति श्रुतकेव तिवचनात् ।३। मैवं । अर्ह उपदेशेनैव सिमानामपि परिझानात् । तथा चार्षम् “अरहन्तुवएसेणं सिज्ञ नऊंति तेण अरिहाई" इति। ततः सिई नगवत एव मुख्यत्वं ।।। यदि तव वाग्वैनवं निखिलं विवेक्तुमाशास्महे ततः किमित्याह । लबेमेत्यादि (तदा इत्यध्याहार्य) तदा जङ्घालतया जाविकतया वेगवत्तया समुई लखेम । किन्न समुश्मिवातिक्रमामः । तथा वहेम धारयेम । चंद्युतीनां चन्श्मरीचीनां पानं चन्श्युतिपानं तत्र तृष्णा तर्षोऽनिलाष इति यावत्। चन्द्युतिपानतृष्णा तां ( नन्नयत्रापि सम्नावने सप्तमी) । ५। यथा कश्चिच्चरणचंक्रमणवेग
यथी शोन्नता एवा पण श्री अरिहंत प्रन्नुन, सिझोथी उगगुणवाला बे, उतां पण तेन्नुं मुख्यपणुं शामाटे छे ? वली तेन्नु उगुणपणु कंई असिह नथी, केमके दीदावखते तेन सिशेने नमस्कार करे , एम सनब्युं . " सिशेने नमस्कार करीने ते अरिहंत प्रनु अनिग्रह ग्रहण करे " एवं श्रुतकेवलिमहाराजनुं वचन . । ३ । हवे ते वादीने सिध्धांतिक उत्तर आपे ले के, तारूं ए कहेवू युक्त नथी; केमके श्रीअरिहंतप्रन्नुना नपदेशवमेज सिध्धोनुं झान थाय जे. ऋषिवाक्य पण कहे जे के “अरिहंतप्रन्नुना उपदेशे करीने सिध्धमहाराजो जणाय डे, माटे अरिहंतप्रन्नु आदिमां डे." माटे एवीरीते श्रीअरिहंत नगवाननेन मुख्यपणुं सिध्ध थयु. । । । हे प्रन्नु! आपना समस्त वचनवैनवने विचारवानी ज्यारे अमो इच्छा करीये, त्यारे शुं थाय ? ते 'लंघेम' इत्यादिकवझे कहे . (अहीं ' त्यारे ' एटर्बु अध्याहारथी लेवू) जांधिकपणावमे खरेखर जाणे अमो समुश्ने नत्नंगी जश्ये डीये ! तथा चंपनी कांतिने पीवानो अनिलाष करीये डीये !
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वत्तया यानपात्राद्यन्तरेणापि समुद्रं लवितुमर्माहते । यथा च कश्चिच्चन्श्मरीचीरमृतमयीः श्रुत्वा चुनुकादिना पातुमिच्छति । न चैतड्यः मपि शक्यसाधनं । तथा न्यदेण नवदीयवाग्वैनववर्णनाकांदाऽपि अशक्यारम्नप्रवृत्तितुल्या । ६ । आस्तां तावत्तावकीनवचन विनवानां सामास्त्यने विवेचन विधानं । तषियाकांदापि महत्साहसमिति नावार्थः । ७ । अथवा लघु शोषणे इति धातो वेम शोषयम समुई जङ्घालतया अति रहसा । अतिक्रमणार्थलवस्तु प्रयोगे पुलंन्नं परस्मैपदं अनित्यं वा आत्मनेपदमिति । ७ । अत्र चौध्धत्यपरिहारेऽधि. कृतेऽपि यदाशास्महे इत्यात्मनि बहुवचनमाचार्यः प्रयुक्तवास्तदिति सू. चयति । यहिद्यन्ते जगति मत्सदृशा मंन्दमेधसो नयांसः स्तोतार इति
(अहीं ननयस्थानके संन्नावनअर्थमां सप्तमी जाणवी.) । ५। जेम कोश् पगे चालवाना वेगपणायें करी ने वहाणादिक विना पण समु. इने उलंगीजवाने इच्ने , तथा जेम कोश 'चंपनी कांतिन अमृतवाली डे' एम सांजलीने अंजलिआदिकवमे तेनने पीवाने इच्छे डे; परंतु ते बन्ने कार्यों कं बनीशके तेवां नथी, तेम समस्तपणावझे आपनां वचनवैनवना वर्णननी आकांदा पण न बनाशके तेवा कार्यसरखी . । ६। अर्थात् आपनां वचनवेनवोनुं समस्तप्रकारे विवेचन करवू तो एकबाजु रहो? परंतु ते संबंधि आकांक्षा करवी, ते पण मोटु साहस , एवो नावार्थ जाणवो. । ७ । अथवा 'लघु' धातु शोषवाअर्थमां . तेथी जंघालपणामे एटले अतिवेगवमे समुन अमो शोषी नश्ये. अतिक्रमणअर्थवाली संघधातुनो प्रयोग करते बते परस्मैपद उर्खन , अथवा अनित्य आत्मनेपद . । ७ । वली अहीं नध्धतपणानो त्याग स्वीकारते उते पण 'अमो इच्छीये डीये' एवीरीतनुं पोतानेविषे आचार्यमहाराजे जे बहुवचन वापर्यु डे, ते एम सू
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१११ बहुवचनमात्रेण न खल्वहंकार विकारः स्तोतरि प्रन्नौ शङ्कनीयः। प्रत्युत निरनिमानताप्रासादोपरिपताकारोप एवाऽवधारणीय इति काव्यार्थः । एप्वेकत्रिंशतिवृत्तेषूपनातिच्छन्दः ॥
। ए । एवं विप्रतारकैः परतीथिकैामोहमये तमसि निमज्जितस्य जगतोऽज्युध्धरणेऽव्यनिचा रिवचनतासाध्येनाऽन्ययोगव्यवच्छेदेन नगवत एव सामर्थ्य दर्शयन् तउपास्तिविन्यस्तमानसानां पुरुषाणामौचितीचतुरतां प्रतिपादयति ।
दं तत्त्वाऽतत्त्वव्यतिकरकरालेऽन्धतमसे ।
जगन्मायाकारैरिव हतपरैर्दा विनिहितम् ॥ तदुपर्तुं शक्तो नियतमविसंवा दिवचन
स्त्वमेवातस्त्रातस्त्वयि कृतसपर्याः कृतधियः ॥३॥ अधम तथा इंजालिकसरखा अन्यदर्शनीनए तत्व अने अतत्वना फेरफारथी नयंकर एवा निबिमअंधकारमां, हा इति खेदे, आ
चवे ने के, आ जगतमां मारासरखा घणा मंदबुध्धिवाला स्तुतिकरनारान ; एवीरीते बहुवचनवमे करीने स्तुतिकरनारा आचार्यमहाराजप्रते खरेखर अहंकारना विकारनी शंका करवी नही; परंतु उलटो निरनिमानपणारूपी मेहेलपरपताकारोपज जाणवो. एवीरीते एकत्रीसमा काव्यनो अर्थ जाणवो. या एकत्रीसे काव्योमा उपजातिबंद डे.
।ए। एवीरीते ठगारा एवा अन्यदर्शनीवमे मोहमय अंधकारमां मुबेला एवा जगतनो नध्वार करवामां, अव्यनिचारिवचनपणायें करीने साधीशकाय एवा अन्ययोगना व्यवच्छेदे करीने, प्रन्नुमुंज समर्थपणुं देखामताथका, तेमनी सेवामां जोमेन डे मन जेनए, एवा पुरुषोना उचितपणानी चतुराश्ने प्रतिपादन करे ले.
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४१२ जगत्ने स्थापन कर्यु ले. ते जगतनो नार करवाने, विसंवादरहित वचनवाला एवा हे त्रणे जगतोनुं रक्षण करनारा प्रनु! आपज समर्थ बो तेथी आपना प्रते कृतार्थबुश्विाला पुरुषोए सेवा करवा मांझी ठे.
।। दं प्रत्यदोपलन्यमानं जगदिश्वमुपचाराज जगी जनः । हतपरैर्हता अधमा ये परे तीर्थान्तरीया हतपरे तैर्मायाकारै रिवैन्डजालिकैरिव शांवरीयप्रयोगनिपुणे रिवेति यावत् । अन्धतमसे निविमा. न्धकारे हा इति खेदे विनिहितं विशेषेण निहितं स्थापितं पातितमित्यर्थः । २ । अन्धं करोतीत्यन्धयति । अन्धयतीत्यन्धं । तच्च तत्तमश्वेत्यन्धतमसं " समवान्धात्तमस " इत्यत्प्रत्ययस्तस्मिन्नन्धतमसे । कथंनूतेऽन्धतमस इति व्यान्धकारव्यवच्छेदार्थमाह । ३ । तत्वाऽतत्वव्यतिकरकराले । तत्वं चाऽतत्वं च तत्वातत्वे तयोर्व्यतिकरो व्यतिकीपता स्वन्नावविनिमयस्तत्वाऽतत्वव्यतिकरस्तेनकराले नयंकरे। यत्रान्धतमसे तत्वेऽतत्वान्निनिवेशोऽतत्त्वे च तत्त्वानिनिवेश इत्येवं रूपों व्य
। १ । इदं एटले प्रत्यक्ष देखातुं एवं आ जगत, नपचारथी जगत्मां रहेतो जनसमूह. हत एटले अधम एवा जे तीर्थातरीन, तेन जाणे इंजालना प्रयोगमां निपुण एवा इंजानिको होय नही, तेम तेनए आ जगत्ने, हा इति खेदे, निबिग अंधकारमा विशेषे करीने पामेलु . । । अंध करे ते अंधयति कहेवाय. अंधयति ते अंध कहेवाय ; अने अंध एवं जे तमः, ते अंधतमसं कहेवाय. “समवांधा त्तमस" ए सूत्रवमे अत् प्रत्यय थयो जे. एवा अंधतमस्ने विषे. हवे ते अंधतमस् केवु ? एम कहीने ऽव्य अंधकारना व्यवच्छेदमाटे कहे ३. । ३ । तत्व अने अतत्वना वनावनो ने फेरफार, तेवमे करीने नयंकर. अर्थात् जे अंधतमस्मां, तत्वमां अतत्वनो अनिनिवेश अने
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तिकरः संजायत इत्यर्थः । । । अनेन च विशेषणेन परमार्थतो मिथ्यात्वमोहनीयमेवान्धतमसं । तस्यैवेटदलदणत्वात् । तथा च ग्रन्थान्तरे प्रस्तुतस्तुतिकारपादाः =॥ अदेवे देवबुाि । गुरुधीर गुरौ च या । अधर्मे धर्मबुद्धिश्च । मिथ्यात्वं तपिर्ययात् ॥= । ५ । ततोऽयमों यथा किलैन्जानिकास्तथाविधसुशिक्षितपरव्यामोहनकलाप्रपञ्चास्तथाविधमौषधीमंत्रहस्तलाधवादिप्रायं किंचित्प्रयुज्य परिषजनं मायामये तमसि मजयन्ति । तथा परतीथिकैरपि तादृकप्रकारउरधीतकुतर्कयुक्तीरुपदिश्य जगदिदं व्यामोहमहान्धकारे निक्षिप्त मिति । ६। तज्जगउतु मोहमहान्धकारोपप्लवातक्रष्टुं नियतं निश्चितं त्वमेव । नान्यः शक्तः समर्थः । किमर्थमित्थमेकस्यैव नगवतः सामर्थ्यमुपवर्यते इति विशे
marrrrrrrrrrrrrrrr अतत्वमा तत्वनो अन्निनिवेश थाय जे, तेवो व्यतिकर. । । वली आ विशेषण व परमार्थथी मिथ्यात्वमोहनीयरूपन अंधतमस जणाव्यु ; केमके तेनुन तेवू लक्षण दे. वली बीना ग्रंथमां प्रान स्तुतिकार कहे डे के =|| कुदेवमां जे देवबुध्धि, कुगुरुमां जे गुरुबुध्धि, तथा कुधर्ममा जे धर्मबुध्धि ते मिथ्यात्व कहेवाय ; अने तेथी विपरीत ते सम्यक्त्व कहेवाय. ॥= | । पाश्रीकरीने एवो अर्थ जाणवो के, तेवा प्रकारना सारीरीते शिखेला डे, परने व्यामोह करवानी कलाना प्रपंचो जेनए, एवा इंजालको, तेवा प्रकारनी औषधि, मंत्र तथा हस्तलाववादिक कंक करीने जेम सन्नाजनीने, मायामय अंधकारमां मुबामे डे, तेम परतीींनए पण तेवीरीतनी खोटीरीते शीखेली कुतकनी युक्तिन्नो उपदेश देश्ने, आ जगतने व्यामोहरूपी अंधकारमा नाखेल्नु . । ६ । ते जगतने ते महामोहरूपी अंधकारना नपश्वथी बचाववाने खरेखर हे प्रनु! आपज समर्थ गे, परंतु बीजो कोइ स. मर्थ नश्री. एवीरीतनुं सामर्थ्य आ एकज प्रनु- शामाटे वर्णववामां
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. ----१४ षणधारेण कारणमाह । । अविसंवा दिवचनः । कपच्छेदतापलदाणपरीदात्रयविशुश्त्वेन फलप्राप्तौ न विसंवदतीत्येवं शीलमविसंवादि । तथाविधं वचनमुपदेशो यस्याऽसावविसंवादिवचनोऽव्यभिचारिवागित्यर्थः । यथा च पारमेश्वरी वाग् न विसंवादमासादयति तथा तत्र तत्र स्याछादसाधने दर्शितं । ७ । कषादिस्वरूपं चेत्थमाचदते प्रावच निकाः । =|| 'पाणवहाश्याणं । पावठाणाण जो नु पमिसेहो ॥ ज्माणऽऊयणाईणं । जो अ. विही एस धम्मकसो ॥= वज्छाणुठाणेणं । जेण न बाहिजए तयंनियमा ॥ संनवश् य परिसुई। सो पुण धम्मंमि च्छेनत्ति ॥ ॥ जीवाश्नाववाच । बंधाश्पसाहगो ऽहं तावो ॥ एएहिं
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आवे ठे? तेनुं कारण विशेषणहाराए हवे कहे . । ७ । कष, बेद अने तापरूप त्रण परी दानश्री शुभ होवावमे करीने फलप्राप्तिमां ने विसंवादवाळु नथी एवीरीतनुं ने वचन एटले उपदेश जेमनो, अर्थात् व्यनिचार विनानी जेमनी वाणी , एवा प्रनु जे. वली परमेश्वरनी वाणी जे विसंवादने धारण करती नथी, ते त्यां त्यां स्याछादना साधनमा देखाड्यु ले. । ७ | वनी कषादिकनुं स्वरूप सिहतिको नीचे प्रमाणे कहे . =॥ प्राणातिपातादिक पापास्थानोनो जे प्रतिषेध, तथा ध्यानअध्ययनादिकनो जे विधि ते धर्मकष जाणवो. ॥ ॥ वली जे बाह्य अनुष्ठानवमे तेने निश्चये करीने बाधा न आवे, परंतु ते शुइ थाय, ते धर्मने विषे वेद जाणवो. ॥॥ बंधादिकने साधनारो जीवादिक पदार्थोनो मां वाद होय, ते धर्मताप जाणवो. एवीरीतना कष, बेद अने
१ प्राणवधादीनां । पापस्थानानां यस्तु प्रतिषेधः ॥ ध्यानअध्ययनादीनां । यश्च विधिः एषः धर्मकषः ॥ = ॥ बाह्यानुष्ठानेन । येन न वाध्यते तन्नियमा ॥ संभवति च परिशुद्धं । स पुनः धमें छेदः इति ॥ = || जीवादिभाववादः । बंधादिप्रसाधकः इह तापः ॥ एभिः परिशुद्धः । धर्मः धर्म. त्वं उ.ति ॥ = || इतिच्छाया |
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४१५ परिसुशे । धम्मो धम्मत्तणमुवे ॥= । ए। तीन्तरीयाप्ता हि न प्रकृतपरीदात्रयविशुध्वादिन इति ते महामोहान्धतमसे एव जगत्पातयितुं समर्थाः । न पुनस्तउर्तुं । अतः कारणात्कुतःकारणात्कुमतध्वान्ताऽर्णवान्तःपतितन्नुवनाऽज्युझारणाऽसाधारणसामर्थ्यवदणात् । हे त्रात स्त्रिन्नुवनपरित्राणप्रवीण ( काक्वाऽवधारणस्य गम्यमानत्वात् ) त्वय्येव विषये । न देवान्तरे कृतधियः ( करोतिरत्रपरिकर्मणि वर्त्तते । यथा हस्तौ कुरु पादौ कुरु इति ) कृता परिकर्मिता तत्वोपदेशपेशनतत्तच्छास्त्राच्यासप्रकर्षेण संस्कृता धीबुध्र्येिषां ते कृतधियश्चिद्रूपाः पुरुषाः कृतसपर्याः । १० । (प्रादिकं विनाप्यादिकर्मणो गम्यमानत्वात् ) रूता कर्तुमारब्धा सपर्या सेवा विधियैस्ते कृतसपर्याः । आराध्यान्तरप
तापवझे जे धर्म शुरू होय, ते धर्मपणाने पामे ले. ॥॥ । ए। वनी वीजा दर्शनोना आप्तो ते पूर्वोक्त कषादिक त्रण परीदाबमे शुभ वचन बोलानाराम नथी, माटे ते महामोहरूपी निबिक अंधकारमांज जगत्ने पामवाने समर्थ डे, परंतु तेनो नार करवाने समर्थ नश्री. आ कारणथी एटले कया कारणथी? तोके कुमतरूपी अंधकारना समुइमां पमेला जगत्नो नधार करवामां (आपy) असाधारण समर्थपणुं होवाथी, हे! त्रणे जगतनुं रक्षण करवामा प्रवीण एवा प्रनु ! (काक्व अवधारण, गम्यमानपणुं होवाथी) आपना प्रतेन कृतार्थबुझिवाला, परंतु बीजा देवप्रते नही, ('करोति ' ए अहीं परिकर्ममां वर्ते जे, जेम ‘हाथ करो' 'पग करो,) कता एटले परिकर्मिता अर्थात् तत्वोना नुपदेशश्री मनोहर एवा ते ते शास्त्रोना अन्यासना प्रकर्षे करीने संस्कारयुक्त थयेनी छे बुध्धि जेननी एवा पुरुषो आपनाप्रतेन कृतसपर्याः एटने सेवाना हेवाकिपणाने धारण करे . । १०। (प्रादिकविना पण आदिकर्म गम्यमान होवाथी) करवा मांमेली सेवा.
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४१६ रित्यागेन त्वय्येव सेवाहेवाकितां परिशीलयन्तीति शिखरिणीच्छन्दोऽलंकृतकाव्यार्थः ॥ - ।११। समाप्ता चेयमन्ययोगव्यवच्छेदशत्रिशिकास्तवनटीका॥
॥अथ श्रीटीकाकारस्य प्रशस्तिः ॥
येषामुज्ज्वलहेतुहे तिरुचिरः प्रामाणिकाध्वस्टशां । हेमाचार्यसमुन्नवस्तवननूरर्थः समर्थः सखा ॥ तेषां उर्नयदस्युसंनवनयाऽस्टष्टात्मनां
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विधि जेनए ते कृतसपर्याः' कहेवाय. अर्थात् तेवा पुरुषो बीजा आराध्यने तजी ने आपनेविषेज सेवाना हेवाकीपणाने परिशीलन करे छे, एवीरीते शिखरिणीबंदे करीने शोन्नता एवा बत्रीसमा काव्यनो अर्थ जाणवो.
।११। एवीरीते अन्ययोगव्यवच्छेद नामनी क्षत्रिंशिकारूप स्तवननी (स्याादमंजरी नामनी) टीकानो अर्थ समाप्त थयो.
॥ अथ श्रीटीकाकारस्य प्रशस्तिः ॥
=|| प्रामाणि कोना मार्गमां चाननारा एवा जे माणसोनो, नज्जवल हेतुनरूपी तेजश्री मनोहर थयेलो, तथा श्रीहेमचंऽमहाराने रचेली स्तुतिश्री उत्पन्न थयेलो एवो अर्थरूपी समर्थ मित्र जे, एवा, ते मापसोने ऽनयरूपी चोरोथी जय नुत्पन्न न थवाश्री, प्रयासविना मोद
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संभव-त्यायोसन विना जिनागमपुरप्ताप्तिः शिवश्रीप्रदा ॥ १ ॥ चातु'विद्यमहोदवेगवतः श्री हेमसूरेगिरां । गंजीरार्थ विलोकने यदभवद्दष्टिः प्रकृष्टा मम || शघीयः समयादाग्रह पराभूतप्रभूतावमं । तन्नूनं गुरुपादरेणुक एका सिञ्जनस्योर्जितम् || २ || अन्यान्यशास्त्रतरुसंगत चित्तहारि-पुष्पोपमेयकतिचिन्निचितप्रमेयैः ॥ दृष्ट्वा ममान्तिमजिनस्तुतिवृत्तिमेनां । माला मिवामलहृदो हृदये वहन्तु || ३ || प्रमाणसिशन्तविरु६मत्र । यत्किचिऽक्तं मतिमान्द्यदोषात् ॥ मात्सर्यमुत्सार्य तदार्य चित्ताः । प्रसादमाधाय विशोधयन्तु ॥ ४ ॥ व्यषि सुधानुजा गुरुरिति त्रैलोक्यविस्तारिणो । यत्रेयं प्रतिज्ञानरादनुमितिर्निर्दम्नमुज्जृम्भते ॥ किं चामी विबुधाः सुधेतिवचनोमारं यदीयं मुदा शंसन्तः प्रथयन्ति ताम
रूपी लक्ष्मीने आपनारी जिनागमरूपी नगरनी प्राप्ति थाय बे. ॥१॥ चातुर्विद्यना महासागरसरखा एवा महान् श्री हेमचंदजी महाराजनी वाशीना गंजीर अर्थने जोवामां जे मारी प्रकृष्ट दृष्टि थइ, तथा महान् सियांना आदरनी आग्रही मोटां विमानो जे विनाश थयो, ते स धनुं खरेखर गुरुमहाराजना चरणनी रजकणिका रूप सिध्धांजननुं माहात्म्य बे ॥ २ ॥ भिन्न भिन्न शास्त्रोरूपी वृक्षोमां रहेला मनोहर पुष्पोसरखा केटलाक वापरेला प्रमेयोवमे करीने मालासरखी, एवी या मारी चरम जिनेश्वरनी स्तुतिनी टीकाने जोइने, निर्मल हृदयवाला (सज्जनो ) तेने ( पोताना ) कंवमां धारण करो ? || ३ || आ टीकामां मतिमंदपणाना दोषी प्रमाण ने सिद्धांती विरुद्ध एवं जे कई क
वायुं होय, ते प्रते मत्सरीजावने तजीने, उत्तम जनो कृपा लावी, तेने शुरू करो ? ॥ ४ ॥ त्रणे लोकमां विस्तार पामेला एवा प्रतिज्ञाना समूह, पृथ्वीमां या देवोना गुरु बे, एवीरीतनुं खरेखरुं अनुमान जेमनाविषे थाय बे, तथा जेमनां वचनोना नमारने, मृत बे, ए
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६१ तितमां संवादमेदस्विनीम् ॥ ५॥ नागेन्द्रगच्छगोविन्द-वदोऽलंकारकोस्तुन्नाः ॥ ते विश्ववन्द्या नन्द्यासु-रुदयप्रत्नसूरयः ॥ ६ ॥ युग्मं ॥ श्री. मलिषेणमूरिनि-रकारि तत्पदगगनदिनमणि निः ।। वृत्तिरियं मनुर विमित-शाकाब्दे दीपमहसि शनौ ॥ ७ ॥ श्रीजिनप्रनसूरीणां । साहाय्योन्निन्नसौरना ॥ श्रुतावुत्तंसतु सतां । वृत्तिः स्याहादमञ्जरी ॥ ७ ॥ बित्राणे कलि निर्जयाजिनतुलां श्रीहेमचन्प्रत्नौ । तहब्धस्तुतिवृत्तिनिर्मितिमिषान्नक्तिर्मया विस्तृता ।। निर्णेतुं गुणदूषणे निजगिरां तन्नार्थये सज्जनान् तस्यास्तत्वमकृत्रिमा बहुमतिः सास्त्यत्र सम्यग्यतः ॥ ५ ॥
वीरीते प्रशंसता थका. आ विवुधो संवादे करीने पुष्ट थयेला ते वचनरूप अमृतने अत्यंत विस्तारे . ॥५॥ तथा नागेगच्छरूपी वि. प्णुना वदःस्थतने शोनाववामां कौस्तुन्नमणि सरखा, तथा जगतूने वंदनीक एवा ते नदयप्रनसूरिमहारान समृद्धि पामो ? ॥ ६॥ युग्मं ॥ ते आचार्यमहाराजना पटरूपी आकाशमां सूर्यसरखा, एवा श्री मल्लिषेण नामना आचार्यमहाराने आ (स्याक्षादमंजरी ) नामनी टीका, शक ११५ मां दीपोत्सवदिने शनिवारे रची जे. ॥ ॥ श्री जिनप्रनसूरिमहाराजना सहायथी प्रगटेल सुगंधि जेमांथी, एवी आ स्याछादमनरी नामनी टीका सज्जनोना कानुषणरूप थान ? ॥७॥ कनिकालने जीतवाथी जिनेश्वरप्रन्नुनी तुल्यताने धारण करता, एवा श्री हेमचंजीमहाराजप्रते, तेमणे रचेली स्तुतिनी टीका बनाववाना मिषा में मारी नक्ति विस्तारेनी जे. वन्नी मारी वाणीना गुणदोषनो निर्णय करवाने ढुं सज्जनोनी तटनामाटे प्रार्थना करतो नथी, केमके अकृत्रिम एवी जे बहुमति, ते वाणीनुं तत्त्र , अने ते आनी. अंदर सारीरीते जे. ॥ ५ ॥
॥ इति श्रीटीकाकारस्य प्रशस्तिः समाप्ता ॥
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॥ अथ श्रीनाषांतरकारस्य प्रशस्तिः ॥
अत्रास्ति जामनगरं नगरं गरिष्ठं । यस्मिञ् जिनेशनिलयोपरिगा पताका ॥ कहिं पुरस्य किन दर्शयितुं द्युलोकं । लोलानिलेन लुन्निताहयतीव रेजे ॥ १॥ तत्रौशना तिवणिजां मुकुटोपमस्तु । वंशो बनूव किन लालणनामधेयः ॥ तइंशमौक्तिकै निनोऽत्र बनूव चेन्यः । श्रीवर्धमान इतिनामविमंमितो वै ॥२॥ विरचितमिह तेन मंदिरैक । मधिगततुंगतया तिरस्कृतादि ॥ अगणितवसुना जिनेशविः । प्रवरतरैः परिमंमितं मनोझम् ॥ ३ ॥ तस्य कोटीध्वजस्याथो। ऽनुत्सुपुत्रः कलान्वितः ॥ नाना जगमुशाहश्च । पापसंतापवर्जितः ॥ ४ ॥ तस्यानूइनन्नाजस्तु । पुत्रो गोवर्धनाह्वयः । धनधान्यैश्च संपूर्णः । पुत्रादिपरिवारनाक् ॥ ५ ॥ अनुतस्य सुतश्चारु । नाम्ना वनमनित्खनु ॥ कच्चदेशे हि मंत्रित्वं । प्राप्तं तेन ततादरम् ॥ ६ ॥ दृष्ट्वा तस्य च चातुर्य । नूमिपालोऽर्पयध्वराम् ॥ वर्षेके सततं लद-मुश्किादायिनी तदा ॥ ७ ॥ श्रेष्टिनोऽनुत्सुतस्तस्य । तुल्यस्तेन कलान्वितः ॥ चारुस्तु लालचंशख्यो । राज्यमानेन शोनितः ॥ ॥ धनराजश्च तत्पुत्र। स्तस्य पुत्रस्तु शोनितः ॥ श्रेष्टी ज्येष्ठाह्वयश्चासीत् । परिवारैः समन्वितः ॥ ए ॥ सत्यं श्राध्धवृतं तेन । हितीयं परिपालितम् ॥ यावज्जीव तथा त्यक्तं । श्रेयसे रात्रिनोजनम् ॥ १० ॥ तस्य सूनुवरसामजिदाहो । राजमान्य इव वारिधिदेशः ॥ रत्नमौक्तिकमणिप्रकराव्योऽ । त्रानवत्सुकमलापरिवृत्तः ॥ ११॥ हंसराज शिति नामतोऽन्नवत् । तस्य सूनुरमितैर्गुणैर्युतः॥जैनशास्त्रवरवारिधौ मनो । मीनतामनजदस्य सर्वदा ॥ १२ ॥ रचितस्तस्य पुत्रेण | हीरालालानिधेन च ॥ ग्रंथस्यास्य मयाह्यर्थः स्वल्पो गुर्जर नाषया ॥ १३ ॥
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________________ -420 लब्ध्वा यदीयचरणांबुजतारसारं / स्वादच्छटाधरित दिव्यसुधासमूहम् // संसारकाननतटे ह्यटतालिनेव / पीतो मया प्रवरबोधरसप्रवाहः // 14 // वंदे मम गुरुं तं च / 'चारित्रविजयाह्वयम् // परोपकारिणां धुर्यं / चित्रं चारित्रमाश्रितम् // 15 // // समाप्तोऽयं ग्रंथः गुरुश्रीमच्चारित्रविजयसुप्रसादात् // -- 1 आ श्रीचारित्रविजयजीमहाराज / प्रख्यातिपामेला श्रीआत्मारामजीमहाराजना ( श्रीविअयानंदसूरीश्वरजीना ) शिष्योमाना एक मोठा शिष्य छ / के जेमनी पासे में आ संस्कृतभाषामा अभ्यासना प्रारंभ कर्यो हतो / तथी मारापर तेमनो परम उपकार थया छे /