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भावनगर - श्री " शारदाविजय " जैन ग्रन्थमाला.
श्रीरत्नमनसूर - शिष्य - आचार्यश्री कमलमनविरचितम्
श्रीपुण्डरीक - चरित्रम्.
संपादक:- दोशी - जीवराजतनुजः पं० - बेचरदासो न्यायतीर्थो व्याकरणतीर्थश्च. इदं पुस्तकं शाह - गिरधरलालस्यात्मजेन मोहनलालेन भावनगरे शारदाविजय - मुद्रणालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम्.
वैक्रमम् १९८०
वर्धमानीयम् २४५०
मूल्यम् १०-०-० रूप्यकाः
Printed by Shah Matulal Bashkarbhai at the Sharda-Vijaya printing press-BHAVNAGAR.
प्रतयः २००
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सन् १९२४
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प्रस्तावना.
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श्रीमान् महावीरमभुना जैन शानमां कोटीगण, वज्रशाखा अने चंद्रगच्छ विस्तार पाम्यो. चंद्रगच्छना नायक 8 श्री चंद्रप्रभमूरिनी पाटे धर्मघोषमुरि थया. धर्मघोपमूरिनी पाटे चक्रेश्वरमूरि, चक्रेश्वरसूरिनी पाटे त्रिदशमभमूरि, त्रिदश-8 प्रभमूरिनी पाटे तिकक.मूरि, तिलकमूरिनी पाटे धर्मप्रभमूरि, धर्मप्रभमूरिनी पाटे अभयमममूरि अमे अभयप्रभसूरिनी पाटे रत्नप्रभमूरि थया. ते रत्नपभमुरिना शिष्य कमळपभमूरि चौदमा सैकामां थया जेमणे आ पधबंध मूळग्रंथनी रचना विक्रम संवत १३७२ मां धोळका गाममां करी.
भामूळ ग्रंथना रचनार महान् धुरंधर आचार्य थइ गया. तेमनो संस्कृत भाषा उपर अलौकिक काचु होवो जोइए। कारण के तेमर्नु बनाएं आ महाकाव्य विविध प्रकारना अलंकारो भने उपमाओथी व्याप्त छे, एटलुंज नहि पण केटलाक अर्ककारी भने उपमानो तो विचित्र अने अलौकिक रीते घटाव्या छे. कविओ जे कहे छे के 'साचु अमृत काव्यरसज छे' तेने आ ग्रंथ परेपूरी पुष्टि आपे छे. संस्कृत जाणनारने आग्रंथ अवश्य वांचवा कायक अने घ[जशान आपवावाळो छे. ठेकाणे 8 ठेकाणे बीजे स्थळे रष्टिमा न आवे तेवा प्रस्ताविक श्लोको पण आकाव्यमा घणा आवे छे. आ ग्रंथ वाचवाथी अने वांच्या
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पुंडरीक-8 पछी तेनुं मनन करवाथी कर्ताए काव्यमां गुंथेली चमत्कृतिनो प्रकाश थाय छे. वांचनारने एकंदर आनंद रस उपजावनारु
अने एक वखत वांच्या पछी फरीथी तेनुं तेज पुस्तक वाचवानी प्रेरणा करनारुं आ पुस्तक छे.
आ संस्कृत काव्य महाकाव्य छे. कर्ताए जो के तेनी अंदर अनेक चमत्कारो अने भावो प्रगटपणे तेमज गूढपणे 18 राखेला छे छतां तेने अत्यंत कठण थवा दीधं नथी, संस्कृत भाषा अत्यंत कोमळ छटादार अने आनंददायक छे. वांचनारने संस्कृतनो तेमज जैनशास्त्रनो सारो बोध आपनारुं आ काव्य छे.
भाज मुधी शāजयना दीपकतुल्य पुंडरीकस्वामी जेवा महा पुरुषतुं चरित्र संपूर्णपणे बहार न पडवानुं कारण एज देखाय छे के कमलमभमुरिए रचेला भा काव्यनी नकलो जोइए तेटला प्रमाणमा लखायेली नहि होय, कारणके आ चरिप्रनी प्रत अमने फक्त एकज मळी शकी अने ते पण पडी मात्रानी अने अत्यंत जुनी होवाथी जीर्ण मायःहती. आग्रंथ अत्यंत उपयोगी तेमज प्रसिद्ध करवानी आवश्यकतावाळो होवाथी अमे एक सारा पंडित तरीके गणांता मी. बेचरदास पासे सारी रीते संशोधन करावी बहार पाड्यो छे. वाचनारने सरळ थवा वास्ते पर्याय शब्दो अने नोट पूरता प्रमाणमा आपेली छे.
आ ग्रंथना आठ संग अने छेवटे एक सर्ग जेटली समाप्ति करेली छे. तेमां विस्तारथी पुंडरीकस्वामीन चरित्र लखवा उपरांत संक्षेपथी प्रथम चक्रवर्ती भरतमहाराजनुं अने प्रथम जिनपति ऋषभदेवनु वर्णन आपेलुं छे. सिद्धादि-शत्रंजय वर्णन पण सारा प्रमाणमां आपी घणी प्रकाश कर्यों छविषयानुक्रमणिका
सर्ग १ को-आ सर्गमां काए मांगलिक करीने युगादिनाथने केवळज्ञानना प्रसंगमा अयोध्यानगरीथी शरुआत करीने ऋषभदेषराजा, तेमनी पत्निओ, तेमना पुत्रोना पूर्वभवनी साधे जन्म अने नामो, पुंडरीफस्वामीनो जन्म, ऋषभदेवनी
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चरित्रम्
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पुहरीक
दीक्षा तथा तेमने भिक्षानी अप्राप्ति, कच्छ महाकच्छ, नमि अने विनमि, श्रेयांसकुमारनु दान, तक्षशिलाना उद्यानमा पाहु-8 बलिने प्रभुनो समागम न थवो, प्रभुने केवळज्ञान थया पछी मरुदेवा माताने लइने भरतराजानुं वंदन माटे जवू, मरुदेवा माता- सिद्धिगमन, पुंडरीकस्वामीनी दीक्षा अने गणधरपदनी स्थापना विगेरे वर्णवेला छे.
सर्ग २ जो-भरतराजानो दिग्विजय, भरत चक्रीना अट्टाणु भाइओनी दीक्षा, बाहुबलि साथे युद्धनी तैयारीनुं 8 वर्णन आपेल छे. ..सर्ग ३ जो-भरत अने बाहुबलिनु युद्ध. बाहुबलिने केवळज्ञान, ऋषभदेव- स्फटिकाचळ उपर गमन भरतमहाराजे फरेलु साधर्मिक वात्सल्य, भरतराजाए करेला चार वेदो, भरत पुत्र मरीचिनोमद, भरतमहाराजनुं चोवीश जिनना नामवाल्लं 8 बार श्लोकनुं वीतराग स्तोत्र, पुंडरीकस्वामीए पोताने केवळज्ञानना संबंधमां करेलो प्रश्न. प्रभुनी आज्ञानुसार पुंडरीकस्वामीनु 8 विमळाचळ प्रत्ये गमन वर्णवेला छे.
सर्ग ४ थो—विहार करता पुंडरीकस्वामीनं पोतनपुरना उद्यानमा आगमन, त्यां मौन रहेल रत्नचूडराजा साये १४ मुनिचंद्र नामना मंत्रीरों आगमन, मंत्रीए राजाना मौन थवाना संबंधमां करेल प्रश्न, पुंडरीकस्वामीए कहेल दान महिमा प्रद.8 18शित राजानो पूर्वभव, ते रत्नचूडराजानं पांच हजार मंडलिक राजाओ साथे दीक्षा ग्रहणनं वर्णन.
. सर्ग ५ मो-पुंडरीकस्वामीन चंपापुरीमा आगमन, लक्ष्मीधरराजा चंद्रना छत्र सहित प्रभुने वंदन करवा आवद्यु, हरिणगमेषोदेवे ते राजाने चन्द्रनं छत्र प्राप्त थवानं पूछेलं कारण, पुंडरीकस्वामीए कहेल शियळ अने तप महिमा प्रदर्शित करनार लक्ष्मीधरराजानो पूर्वभव, एंशी लाख मंडळीकराजा साथे लक्ष्मीधरराजाए लीधेली दीक्षानुं वर्णन.
सर्ग ६ हो-पुंडरीकस्वामी- गजपुरनगरमां आगमन, त्यां सोमयशाराजानुं विजयसेन मंडळीकराजा तथा गुणाराम
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पुंडरीक-8
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श्वाननी साथे आववं, याननी धर्म भावनाना संबंधमा पंडरीकस्वामीए कहेक भावमहिमा पनि विजयसेन राजानी पूर्वभव अने देव द्रव्य भक्षण उपर गुणाराम श्वानना पूर्व भवन वर्णन अने विजयसेन राजानु दीक्षामाका
सर्ग ७ मो-पुंडरीकस्वामीनु मथुरापुरीमां आगमन, त्यां धन श्रेष्ठी पोताना पुत्र देवदत्तने लइने आवg. 8 2 श्रेष्ठीए देवदत्तनी स्त्री विमळाना दुर्भिगंधपणानो करेलो प्रश्न, पंडरीकस्वामीए कहेल देवदत्तनो तथा मुनिनी दुर्गच्छा, ४
मंदिरनी आशातना अने माणिओनो वियोग करवाना फळ प्रदशित देवदत्त अने विमलाना पूर्वभवन वृत्तांत अने देवदत्तनु त्रीश हजार वणिकोनी साथे दीक्षाग्रहण.
संग ८ मो-भरतचक्रवर्ती प्रथमतीर्थपतिने वांदवा जाय छे. ते वखते तेमनी साथे पुंडरीकस्वामीने नहि देखवायी प्रभुने तेनुं कारण पूछे छे. प्रभु कहे छे के पुंडरीक गणधर विमळाचळ प्रत्ये जाय छे अने त्यां तेमने केवळज्ञान उत्पन्न थवानुं छे. भरतराजानी ते वखते संघ काढीने सिद्धाचळप्रत्ये जवानी इच्छा थाय छे अने प्रभुने साथे पधारवा विज्ञप्ति करे छे. पछी प्रभु तथा संघ सहित भरतराजा नीकळी मथुरामां पुंडरीकस्वामीनी साथे मळे छे. संघ सिद्धाचळनी ते वखतना
तळाटी रुप वणारसीपुरीमां पहोंचे छे. भरतराजा अहिं विमळाचळना दर्शनमो अपूर्व उत्सव करे छे. चैत्री पूर्णीमाने ४ दिवसे पुंडरीकस्वामी पांच क्रोड मुनिओ साथे अनशन करी केवळज्ञान पामी मोक्षे जाय छे. भरतराजा सिद्धावळ उपर 8 जिनप्रासाद करे छे. प्रांते आदिजिननो परिवार बतावी अष्टापद उपर आदिश्वर प्रभुना निर्वाणर्नु वर्णन अने अष्टापद उपर भरतराजाए करावेल जिनमंदिरनुं वर्णन छे.
छेवटे समाप्तिमां-भरतराजाने अरिसाभुवनमा केवळज्ञान अने अष्टापद उपर तैपना बिगिनी इकोका अविस्तर आपेली . मांत ग्रंयकारची परंपरानं वर्णन आपी आ अंथ समाप्त करेल छे.
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पुंडरीक
चरित्रम्
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आ ग्रंथना पहेला त्रण सर्गमा अने आठमा सर्गमा जे आदिश्वर भगवाननु चरित्र, भरतमहाराजन चरित्र तथा शत्रंजयनी हकीकत आपेली छे ते जो के घणे ठेकाणे आवी गयेली छे, छतां आ ग्रंथमां तेज हकीकतनुं कर्ताए घणी खुबीथी। वर्णन कर्य. सर्ग चोथा, पांचमा, छठा अने सातमामां आपेला चार चरित्रो तहन अप्रसिद्ध छे. ते चरित्रो खास मनन पर्वकांचवा जेवा के अने जीवनमां घणोज सुधारो करवावाला छे. आ ग्रंथ हाथमां लीधा पछी साद्यंत बांचवानी रुची थया विना रहेती नथी. आ ग्रंथन जो विस्तारथी विवरण करवा बेसीये तो ग्रंथ करतां पण मोटुं पुस्तक थइ जाय तेम छे वास्ते साधत वांची जइ कर्त्तानो अने प्रसिद्ध कर्त्तानो श्रम साफल्य करशो एवी आशा छे.
आ पुस्तकनुं गौरव वधारवा तेमां आवता पंदर आकर्षक चित्रो नाखवामां आव्या छे.
संस्कृतना अभ्यासीओ सर्व होता नथी तेथी तेमज ग्रंथ वाचवा भणवा योग्य होवाथी अमे आ ग्रंथनु भाषांतर पण बहार पाडधु छे ग्रंथनी अंदरना सधळा प्रस्ताविक श्लोको भाषांतरमा दाखल कर्या छे, भाषांतर अत्यंत रसीक छे अने १३ डीझाइनना चित्रो नाखी सचित्र करेल छे. भाषांतर प्रसारक सभाना मंत्री रा. रा. कुंवरजी आणंदजीभाइनी दृष्टि नीचे छपायेक के भाषांतरनी किंमत फक्त रु. ५ राखी छे.
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संवत १९८० चैत्र शुद १५
शाह मोहनलाल गीरधरलाल.
भावनगर.
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॥श्रीजैनी शारदा विजयते ॥
अर्हम् । श्रीपुण्डरीक-चरित्रम्
श्रीरत्नप्रभसूरि-शिष्य
आचार्यश्रीकमलप्रभविरचितम् । मङ्गलानि - इश्री-कीर्ती-श्वरता-ऽऽत्ममोदसदनं दुष्कर्मनिष्कन्दनं स्थैयौँ-दार्य-विवेकिताप्रमदनं सर्वाऽमरामोदनम् । स्फूर्जत्सप्तनयं सुहेतुनिचयं विज्ञातविश्वत्रयं पायात् पुण्यमयं सुमङ्गलमयं वो वाङ्मयं चिन्मयम् ॥१॥
श्रीप्रथमो जिनः - विश्वच्छायाविधायी सकलसुकविपुस्कोकिलाचवाचः संस्कुर्वन् मञ्जरीतिप्रभृतिचतुरतामञ्जरीस्वादानात्।। आकल्प स्थायिरूपोऽतुलरस-फलदःसद्विवेको रसालो येन प्रारोपितोऽसौ प्रथमजिनपतिर्यच्छताद् वान्छितानि॥
श्रीशान्तिजिनः - ४दत्तेऽल्पादपि सेवनान्निजतुलां पारापतस्यात्मनो देहेनाऽपि तदेष मे त्रिभुवनेश्वर्या जिनेन्द्रश्रियः ।
१ सप्त नयाश्चैतेः-नैगमः, संग्रहः, व्यवहारः, ऋजुमूत्रः, शब्दः, समभिरूढः, एवंभूतश्च । २ प्रवचनम् । ३ चितेः । ४. कारणात्-उपचारदृष्टया चिन्मयम् । ४ उच्चवाचः-उच्चा वाचः संस्कुर्वन् । ५ त्रिभुवनेश्वर्याः चक्रवर्तिश्रियाः।
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पुण्डरीक - दाता सख्यमितीव चक्रिकमलां जन्मद्वयस्याऽनुगां यो हृष्टां कृतवान् करोतु स जिनः शान्तिः प्रभां सप्रमाम् ॥ चरिणम्श्रीनेमिजिनः
॥२॥
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गत्वोद्वाहमिषान्निजौजसगुणेनैवाऽष्टजन्मप्रियां मोहारेः प्रविमोच्य पाणिनिहिते दीक्षाऽभिधे भाजने । हस्तक्षालनवत् प्रदाय विमलज्ञानाम्बु सिद्धेः सुखं भोज्यं भोजितवान् स्वयं तु बुभुजे पश्चात् स नेमिः श्रिये ॥ ४॥ श्री पार्श्वजिनः
यः पूर्व कमठस्य वृष्टिसमये नागेश्वरात् सोल्लसद् - देहो वृद्धिमयन् सुरद्रुम इवोत्सर्पत्फणापल्लवः । उन्मीलत्सुमना विनीलकिरणैः पत्रैरिव प्रावृतो जातज्ञानफलस्तदैव कुरुतात् पार्श्वः श्रियं पार्श्वगाम् ॥ ५॥ श्रीवर्धमानजिनः —
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स्वामी श्रीत्रिशलोदरेऽतिलघुतां स्नाने पदप्रान्ततो मेरोर्नर्तनशिक्षणे च गुरुतां विश्वे निजां दर्शयन् । मातुर्गौरवमुच्चकैः कथितवान् यो गर्भयोगी जिनः सोऽस्तु ध्यानविवर्धमानमहिमा श्रीवर्धमानः श्रिये ॥६॥ श्रीगुरुः पुण्डरीकः
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आद्यं केवलरत्नकोशमचलं शत्रुंजयाख्यं जवाद् गत्वा यः प्रकटं विधाय विजितक्रोधादिशत्रुवजान् । योधेन्द्रानिव सन्मुनीन् विहितवानऽक्षीणलक्ष्मीयुतान् श्रीनाभेयनिदेशतः स गणराट् श्रीपुण्डरीकोऽवतात् ॥
श्रीगौतमो गुरुः
अस्त्यक्षीणमहानसी मयि यथा लब्धिः स्वभोगावधिः स्यादेषाऽपि कदा तथेति मनसा ध्यात्वेव हस्तस्थिताम्
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॥ २ ॥
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पुण्डरीक-ज्ञानद्धि प्रथम प्रदाय सुयतिव्यूहाय यो भुक्तवान् स खामी मम गो-तमोऽपहरतु श्रीगौतमोऽयं गुरुः ॥८॥ ४ चरित्रम्.
श्रीअतिमुक्तको मुनिः - येन नारदमुनेः पुरः पुरा सिद्धतीर्थमहिमा महाद्भुतः। कीर्तितः सुकृतकीयलंकृतः सोऽतिमुक्तकयतीश्वरोऽवतात्।। 8 श्रीसूरीन्द्राः -
यः पञ्चधाऽऽचारविशेषितश्रीरवाप्तसिद्धान्तसमुद्रपारः। सरीन्द्रवर्गोऽस्तु सुबोधिरत्नभरप्रदो ज्ञानरुचाग्रदीपः॥४ B ग्रन्थकर्तुरात्मलाघवम् - 8 पुण्डरीकचरित्रस्य प्रोज्ज्वलस्य विलोकने । मार्तण्डमण्डलस्येव स्वल्पदृष्टिः क्षमोऽस्मि किम् ? ॥ ११ ॥ 8 मुनिप्रेरणया प्रवृत्तिः - 8 मुनीनां पितृतुल्यानां वाक्यालम्बनतोऽथवा । करिष्यामि पदोच्चारान् बालः स्वल्पवलोऽप्यहम् ॥ १२॥ ४ 8 तथाच -
शत्रुजयमाहात्म्ये पूर्वाचार्याः - सिरिसत्तुंजयगिरिवर-माहप्पं भद्दबाहुणा रइअं। श्रीशनुजयगिरिवरमाहात्म्यं भद्रबाहुना रचितम् ॥8 ४ तत्तो य वयरसामी उद्धरह इह समासेण ॥१३॥ ततश्च बज्रस्वामी उद्धरति इह समासेन.॥ १३ ॥ 8 तं इह पालित्तणं उद्धरिअं गिरिवरिंदरुंदाओ। तद् इह पादलिप्तेन उद्धृतं गिरिवरेन्द्ररौद्रात् ।
१ गोः वाण्याः, तमः-अज्ञानम्-गो-तमः । २ "रुंदो विउल-मुहलेसु"-(दे० स०व०) इति देशीनाममालावचनाव 8. अत्रत्यो रुंद-शब्दो विपुलार्थः, स च रौद्रशब्दप्रकृतिक इति ।
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हुण्डरीक - 8 कप्पं पाहुभिन्नं भणिमो संखेवओ सारं ॥ १४ ॥
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कल्पं प्राभृतभिन्नं भणामः संक्षेपतः सारम् ॥ १४ ॥ पौण्डरीकी कथा श्रूयताम् -
अतश्च
विवेकलोचनार्कस्य श्रीनाभेयजिनेशितुः । धर्मधीरत्वशृङ्गारसुभगस्याद्यचक्रिणः ॥ १६५॥ शत्रुंजयस्य सिद्धाद्रेश्चरित्रैश्चित्तचित्रदा । पौण्डरीकी कथा पुण्या पुण्याय श्रूयतां जनाः ॥ १६॥ - ( युग्मम् )
सत्पण्डिताः
प्रसय सद्भिर्विद्वद्भिर्महारगुम्फे मनो निजम् । नैर्मल्याय निघातत्र्यं कतकक्षोदवले ॥१७॥
अयोध्या
अस्त्यsयोध्येति नगरी गरीयः संपदास्पदम् । याऽर्हन्नाथा नृत्यतीव देवगेहध्वजैर्भुजैः ॥१८॥ मणिवप्रस्फुरंद्धाम- नीरे प्रासादपद्मिनि । यस्याः प्रविष्टो मध्याह्ने हंसो हंस इवाबभौ ॥ १९ ॥ दानं प्रियवाक्सहितं ददतो वीक्ष्य सज्जनान् । मौक्यतो लज्जिता यत्र कल्पवृक्षास्तिरोऽभवन् ॥२०॥ मानयन्ति सदा पुत्राः पितॄन् यत्र पुरे भृशम् । इति प्रेक्ष्येव कामाऽर्थों धर्मं पीडयतो नहि ॥२१॥ ऋषभो भूमिपतिः - पौराश्चः -
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अर्हन् श्री ऋषभस्तत्र पाति भूमीपतिः प्रजाः । सुरा-सुरशिरोरत्नराजिनीरें। जितक्रमः ॥ २२ ॥ आचारचातुरीचारु विश्वं विश्वं चकार यः । स्रष्टेत्यवादि पुरुषोत्तम - नाभिभवो जनैः ॥२३॥
१ एकः श्रीशत्रुंजयकल्पः श्रीपादलिप्तसूरिणा संकलित- इति जैन ग्रन्थावल्यां दृटम् स एव अत्र अमेन ग्रन्थकृता स्मृत इति सुसंभवम् । २ अत्र धामानि नीराणि, प्रासादाः पद्मानि । ३ मूकभावात् । ४ कृतारा त्रिकक्रमः । ५ विश्वं समस्तम् ।
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चरित्रम्
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SOORA
पुण्डरीक-8 बालचन्द्रेऽतिकौटिल्यं चञ्चलत्वं समीरणे । बहावेयातिदाहित्वं न पौरेषु कदाचन ॥२४॥
স্বস্তি प्रीयन्ते गो-रसैर्यत्र गो-पोला उभयेऽपि हि । दान-सद्गतिसंयुक्ताः कुंजराश्च नृकंजराः ॥२६॥
हृदि स्त्रीदर्शनाद् मारो बन्धश्च प्रेमतो नृणाम् । गुप्तिमनो-वाक्-कायानां क्रियते यत्र यजनैः ॥२६॥ ४ पवित्रा सचरित्रा च समृद्धा तत्र धर्मिणि । न्यायिनि दानिनि सर्वाऽप्युर्वराजनि राजनि ॥२७॥ प्रभोः प्रगयिनी कीर्तिः सुरा-ऽसुर-नरेश्वरान् । नमयामास तन्नासावधिज्यं विदधे धनुः ॥२८॥
किंबहुना? धान्यादिना जिन-इनः स तमोऽपहारं कुर्वस्तु येषु न करै विदधेऽङ्गितापम् । ८ धन्या जनाः प्रभुमहेषु च यैः सपुण्याः पीतः कुतूहलरसः स्मितपद्मनेत्रैः ॥२९॥
ऋषभपत्न्योसुमङ्गला स्वरूोण दृशोराहितमङ्गला । सुनन्दा च सदाऽऽनन्दा प्रभोः पत्न्यो बभूवतुः ॥३०॥ ४ स्वामी ताभ्यामनासक्त-मनाः स वुभुजे सुखम् । पारो भोगफलाम्भोधेः प्राप्यते कथमन्यथा ? ॥३१॥ १२४ अथाऽसंपूर्णषट्पूर्व-लक्षा देवी सुमङ्गला । दधेऽस्य गर्भ मौक्तिकं शुक्तिकेव पयोमुचः ॥३२॥
१ द्वितीयाचन्द्रस्य अतिवक्रवात् । २ पवने । ३ गो-रसाः दधि-नवनीतादिकाः, वाणीरूपाश्च । ४ गो-पालाः पृथ्वीपाला:, आभीराश्च । ५दानं मदः, ददनं च । सद्गतिः-प्रशस्तं गमनम्, सद्रोधश्च-गतेोधार्थखात-अथवा गतिः स्वर्गादिः।४ १६ गुप्तिनिषेधपक्षे गुप्तिः कारागृहम् । ७ तत असा ऋषभो न धनुः अधिज्यं विदधे-की- एव सर्वेषां वशीकरणात । ८ इनः । मूर्यः, पतिश्च । ९ कराः किरणाः, रोज-देया भागाश्च ।
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चरित्रम्
पुण्डरीक-४ सुनन्दाऽपि हृदानन्दा प्रभुसेवाप्रभावतः । बभार गर्भ सद्धर्म-मदभ्रं भव्यधीरिव ॥३३॥ ॥६॥ अन्यदा निशि संसुप्ता साऽथ देवी सुमङ्गला । चतुर्दश महास्वप्नान् दर्शाऽऽमोददायिनः ॥३४॥
, गजो-क्ष-सिंह-लक्ष्मी-लक्-चन्द्रा-ऽर्क-कलश-ध्वजाः। पद्माकर-विमाना-ऽब्धि-रत्नपुञ्जा-ऽग्नयश्च ते ॥३५॥४ स्वप्नान् स्वबुद्धावास्थाप्य सा प्रवुद्धा महासती। प्रभाते सप्रभा प्रष्टुं प्रमोदात् प्रभुमभ्यगात् ॥३६॥ ४ कराभ्यां क्रान्तहस्तीन्द्रं मृगेन्द्र सान्द्ररोचिषम् । दृष्ट्वा सो (स्वो) त्संगगं स्वप्ने सुनन्दाऽप्यत्र साऽऽययौ ॥३७॥ ४ तयोः स्वप्नान निशम्याऽऽह स्वामी कोमलया गिरा। देवि! स्वप्नप्रभावात ते चक्री पुत्रो भविष्यति ॥३८॥ ४ सुमङ्गला पुन: प्राह मत्सुतः कर्मतः कुतः। भविष्यति स चक्रेशः प्रसद्यदं वद प्रिय ! ॥३९॥ ८ जगाद जगदीशोऽथ ज्ञानत्रयपवित्रवाक । युवाभ्यां स्थिरचित्ताभ्यां देव्यो! संभ्रूयतां वचः ॥४०॥
___ऋषभपुत्रपूर्वभवाः४ क्षेत्रे महाविदेहाख्ये नगरी पुण्डरीकिणी । वज्रसेनाऽहतस्तत्र पुत्राः पञ्चाऽभवन्नमी ॥४॥ ४ वज्रनाभस्तथा बाहुः सुबाहुः पीठसंज्ञकः। महापीठश्चेति सुता आद्यश्चयभवञ्चिरम् ॥४२॥ कियत्यपि गते काले संसाराऽसारताविदः। वज्रसेनजिनस्याऽन्ते तपस्यां ते समासदन ॥४३॥ गणेश्वरपदे प्राप्त वज्रनाभो महामुनिः। अहद्भक्त्यादिभिः स्थानस्तीर्थशत्वमुपार्जयत् ॥४४॥ बाहुबहुभ्यः साधुभ्यो भक्तं भक्तिभराद् ददत् । आर्जयच्चक्रवर्तित्वं महाभोगविभूतिदम् ॥४५॥
१ अदभ्रम्-संपूर्णम् ।
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पुण्डरीक-8 यतः
বমি धर्मोपदेशे गुणसन्निवेशे चित्तप्रसादे शुचिशास्त्रवादे। अन्नं हि हेतुर्दुरिताब्धिसेतुर्दयं यतिभ्यः शम-सन्मतिभ्यः॥
उक्तं चः
"तीहिं ठाणेहिं जीवा सुहदीहाउयत्ताए कम्मं त्रिभिः स्थानः जीवाः शुभदीर्घायुष्कतया कर्म पगरंति. तं जहा-पाणे नो अइवाइत्ता, नो मुसं प्रकुर्वन्ति. तद्यथा-प्राणान् नो अतिपात्य, नो मृषा: ४ वइत्ता, तहारूवं समणं वा फासुएणं, एसणिज्जेणं, उदित्वा, तथारूपं श्रमणं वा प्रासुकेन, एषणीयेन
मणुन्नेणं, पीइकारणेणं असण-पाण-खाइम- मनोज्ञेन, प्रीतिकारणेन, अशन-पान-खादिम-8 8 साइमेणं पडिलाभित्ता भवइ-इच्चेहिं तीहिं ठाणेहिं स्वादिमेन प्रतिलाभ्य भवति-इत्येतस्त्रिभिः स्थान-8 ४जीवा सुहदीहाउयत्ताए कम्म पगरंति"।
र्जीवाः शुभदीर्घायुष्कतया कर्म प्रकुर्वन्ति । ४ सुबाहुः श्रीमणाङ्गेषु चक्रे विश्रामणां सदा । तत्प्रभावेण चक्रेशाऽधिकवीर्यत्वमार्जयत् ॥४७॥
यतः४तपःपुषां ग्लानिमुपेयुषां यो जराजुषां देहमथो गुरूणाम् । विश्रामणाद्यः कुरुते बलाढय बलाधिक: स्यात् स कथं न विश्वे ? ॥४८॥ श्रीवज्रनाभोव्याचख्यो सुबाहं बाहमप्यथ । जाती पीठ-महापीठौ रोषेण कलुषान्तरौ ॥४९॥ १ उग्रं तपस्तपस्यन्तावप्येतो रोषतो मुनी। ईषन्मायायुती स्त्रीत्वं कोपार्जयतामुभौ ॥२०॥
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१ अयं पाठः स्थानान्सूत्रे तृतीयस्थाने प्रथम उद्देशके (पृ० ११७ बाबू), २ श्रमणस्य इदम्-श्चामणम् ।
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Doorn
चरित्रम्
पुण्डरीक-8 वश्यपश्चेन्द्रियाः पश्च-नमस्कृतिकृतोऽथ ते। यतिनः कृतिनः पञ्च संप्रापुः पश्चतां सुखात् ॥५१॥
जीवः श्रीवज्रनाभस्य च्युतः सर्वार्थसिद्धितः । मरुदेवोरेऽभूव-महं नाभिनृपात्मजः ॥२२॥ बाहोः पीठस्य जीवो नु च्युत्वा तस्माद् विमानतः। त्वत्कुक्षावागतौ देवि ! सांप्रत युग्मरूपिणी । महापीठः सुबाहुश्च भोगान् भुक्त्वा च्युतौ ततः । संजातो युग्मरूपेण सुनन्दाकुक्षिकन्दरे ॥५४॥ सुनन्दा न्यगदन्नाथ ! महापीठ-सुपीठयोः। जातं मायाफलं स्त्रीत्वं किं भावि नु तपाफलम् ? ॥२५॥ स्वामी जगाद हे देवि ! महानन्दप दम् । लप्स्येते केवलित्वं तौ महापीठ-सुपीठको ॥२६॥ १ एवं सुकोमलं स्नेह-सहितं मधुरोज्ज्वलम् । स्वामिनो गो-रसं पीत्वा ते प्रीते जग्मतुहम् ॥२७॥ 8 ऋषभपुत्रादिजननम्8 अथो सुमङ्गला युग्मं सुषुवे मुखवेश्महृत् (?) । महौजा भरतपुत्रस्तत्र ब्राह्मी च पुत्रिका ॥१८॥ ४सुनन्दापि ततोऽसूत यमलं विमलं रुचा। तत्र बाहुबलिः पुत्रः सुन्दरी चैव पुत्रिका ॥२९॥ ४ अथो एकोनपश्चाशत्-पुत्रयुग्मान्यजीजनत् । प्रभूतभाग्यसंभूतमङ्गला सा सुमङ्गला ॥३०॥ ४ तेषां नामानि:४ काबेर-कीर-काश्मीर-काम्बोज-कमलो-कलाः। करहाट-कुरुक्वाण-कैशिकक्रथ-कोशलाः ॥६॥ ४कारू-केशका-रूष-कच्छ-कर्णाट-कीटकाः। केकि-कोल्लगिरी-कामरूप-कुङ्कण-कुन्तला ॥३२॥ कलिङ्ग-कलकूटी च केरलः कलकण्ठकः । खर्परः खस-खेटौ वा गोप्या-ऽङ्गो गौड-गाङ्गको ॥३३॥
१ मृत्युताम् ।
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મુમ’ગળા-( આદીશ્વર ભગવાનને કહે છે કે ) હે પ્રભુ ! મેં આજે સવપ્નમાં ચંદ્ર મહા સ્વપ્નાઓ દીઠા છે.
મુન દા - હે પ્રભુ ! મેં બાજે સ્વપ્નમાં જેણે પોતાના પંજામાં ઐરાવણ હાથીને કામણ કર્યો છે એ વે મૃગેન્દ્ર જે યે છે. ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※
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पुण्डरीक - 8 चैद्य चैवरचूडाच जालंवर-कटंकणौ । टक्कोडी आण डाहाल- भङ्ग - तायक-तोसलाः ||३४| दशार्ण - दण्डकt देवसभ - नेपाल - नर्तकाः । पञ्चाल - पल्लवी पुण्ड्र पाण्डेय - प्रत्यग्रथा -ऽर्बुदाः ॥६५॥ ॥ ॥ ९ ॥ बर्बरा बीर- महीय माहिष्मक - महोद (व) याः । मरुण्ड - महलौ मेद-मह-मद्गुरु-मङ्कनः ॥३३॥ मलवर्त - महाराष्ट्र-यवना राम-राटकाः । लाट-ब्रह्मो- तरब्रह्मावर्त - ब्राह्मगवाहकाः ॥६७॥ विराट-बङ्ग - वैदेह - वनवास - वनायुजाः । वाल्हीक बल्लवाऽवन्ति वह्नयः शक - सिंहली ॥ ६८ ॥ सुह्य-सूर-सौवीर-सुराष्ट्र - सुहडा -ऽश्मकाः । हूण -हरक-हम्यजि-हंसा - हुक - हंहको ॥३९॥ इत्यष्टानवतिः स्वामि- पुत्राः सुत्रांमेरोचिषः । उत्सवाद् दत्तनामानः सुजन्मानः शुभः बभुः ॥७०॥ प्रभोरेतान्यपत्यानि धात्रीभिः पञ्चपञ्चभिः । लाल्यन्ते स्म समितिभिः शीलाङ्गानीव नित्यशः ॥ ७१ ॥ शतपुत्रस्फुरत्पत्रो नालीकप्रतिभः प्रभुः । यशोरसे रसापीठे रेजे राजश्रियाऽनिशम् ॥ ७२ ॥ स्वामी सुवर्णवर्णाङ्गः सच्छायावृतोऽङ्गजैः । सुरशैल इवोद्भूतैः कोमलैः कल्पवृक्षकैः ॥ ७३ ॥
४
८
पुत्राणां विवाहादि
१२ ४astraarsयोध्यायामेव देवयशानृपः । शैशवादादिदेवस्य वयस्यः सुप्रशस्यधीः ॥ ७४ ॥ विमलाभिः कलालीभिः कलिता ललिता गुणैः । ऋषभश्रीरिति नाम्ना तस्माज्जाताऽस्ति पुत्रिका ॥ ७२ ॥ यस्यां विलोकितायां हि रंतिर्न रतिदा दृशोः । सुदन्त्यां सुवदन्त्यां तु रीणां वीणाऽपि कर्णयोः ॥ ७३ ॥ ॥ १ इन्द्रकान्तयः । २ नालीकं कमलम् । ३ छाया कान्तिः, वृक्षच्छाया च । ४ सुरशैलो मेरुः । ५ रतिः स्मरपत्नी । ६ रीणा क्षीणा ।
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चरित्रम्
॥९॥
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पुण्डरीक-8 तां कन्या लक्षणर्धन्यां प्रभुः प्रेक्ष्य विचाय च । स्मित्वा ययाचे तं भूपं भरतायाऽऽत्मसूनवे ॥ ७७॥ २०॥ अथ देवयशाभूपः प्रणिपत्य जगत्पतिम् । स्वकरी कोरकीकृत्ये जगाद जगतां वरः ॥ ७८ ॥
जगदीश ! क्व ते पुत्रो देवेभ्योऽधिककान्तिमान् । मम त्वत्पदासस्य मुग्धरूपा क्व बालिका ॥ ७९ ॥ ४ किन्तु प्रभो ! मे तनया सवयास्तनयेन ते। अतः प्रसादमाधाय प्रमाणय मनोरथम् ॥ ८० ॥
इति प्रतिश्रुतेऽनेन भरतं स्वसुतं प्रभुः। व्यवाहयत सविधिना कुमारीमृषभश्रियम् ॥ ८१ ॥ कुमारं भरतं मुग्धं क्रीडारम्भरतं तया । वन-वाप्यादिषु प्रेक्ष्य कुतुकी स्वजनोऽभवत् ॥ ८२ ॥
कटाक्षर्वचनैः पाणिक्षेपैरालिङ्गनस्तयोः। स्नेहेन यौवनेनोच्चस्त्रपा-मौग्ध्ये तनूकृते ॥ ८३ ॥ ८ बाल्यसेतुं व्यतिक्रम्य यौवनाम्भोधिमध्यगौ । तौ दम्पती नवं सौख्यपीयूषं पपतुर्मिथः ॥ ८४ ॥ 8 भरतपुत्रपुण्डरीकोत्पत्तिः8 इत्थं प्रयाति समये पद्मस्वप्नेन सूचितम् । सूनुमृषभसेनाख्यमृषभश्रीरसूत सा॥ ८५ ॥ 8 पुण्डरीकगर्भस्वप्नात् पुण्डरीकाङ्गगन्धतः । पुण्डरीक इति जनैः कृताख्यो ववृधे शिशुः ॥ ८६ ॥ ४ श्रीऋषभविचिन्तनम्४ इतश्च जगतां नाथो भवपाथोनिधिं स्वयम् । प्रसरन्मोहतरङ्ग हतरङ्गं व्यचिन्तयत् ॥८७॥ हो ! आत्मन् ! विहायांऽहो मोक्षं चेद् गन्तुमिच्छसि । संसारे ध्वस्तसंसारे किं लुब्धोऽसि विचेतनः ॥८८॥
आत्मा आह- अन्येऽपि स्थिताः सन्ति । १ कोरकीकृत्य संपुटीकृत्य । २ प्रमाणय प्रमाणं कुरु । ३ अंहः पापम् । ४ समीचीनः सारः ध्वस्तो यस्मिन् । ४॥१०॥
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पुण्डरीका
चरित्रम्.
प्रभुराह॥ पञ्चेन्द्रियघटक्षिप्तं स्मरसौख्यविषोदकम् । यथा यथा पिबन्त्येते तथा मूर्छन्ति जन्तवः ॥८९॥
आत्मा आह-अहमत्र राजा। (प्रभुराह-) ४स्त्री -पुं-नपुंसकत्वे-श-रङ्करूपाणि यच्छतः। मोहस्य नटनाजीव! कट नाऽद्यापि खिद्यसे? ॥९॥ किं बहुना?- सिष्णांसुरुच्चैर्मृगतृष्णिकासु सोऽन्त्रनिजाझं परिधित्सुरेव।
खपुष्पमालां स्वगले निधित्सुः समीहते यो विषयः सुखानि ॥११॥ आत्मा प्रोचे-किं कुर्वे ?
स्वामी आह८ ततो व्रतं समाश्रित्य स्फूर्जन्नियमतीव्रतम् । आत्मानं च जनं चैनं मोचयाऽऽशु भारितः ॥९२॥
लोकान्तिकाः सुरा जगुःअत्रान्तरे प्रभोरग्रे व्योम्नो लोकान्तिकाः सुराः । तीर्थ प्रवर्तय स्वामिन् ! इति प्राञ्जलयो जगुः ॥१३॥
श्रीऋषभ-भरतवार्तालाप:४ततः श्रीभरतं बाहुबलि प्रमुखबान्धवः। युक्तमाकारयत् स्वामी सोऽपि तत्राययौ जवात् ॥९४। नत्वा पुरस्थितो ज्ञात-नयः स तनयः प्रभोः । प्रसादभरतः प्रोचे भरतः स्वामिनाऽभुना ॥९॥ वयं मुमुक्षवो वत्स : भवं परिजिहीर्षवः। ततो भव महीनस्त्वमहीनभुजविक्रमः ॥१६॥
१ स्नातुमिच्छुः । २ अन्त्र-आंतरडा । ३ परिधातुमिच्छुः । ४ निधातुमिच्छुः । ५ स्फूर्जन्ती नियमस्य तीव्रता १ यस्मिन् तत् । ६ भवशत्रोः । ७ प्रसाद एव इभो हस्ती । ८ परिहतुमिच्छवः । ९ मह्याः इनः स्वामी ।
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द या गिर।। स कुमारः मा
॥ १२॥ यथा ताल ! पति
पुण्डरीक-2 इत्यादेशं पितुः श्रुत्वा स्नेह गद्गदया गिरा। स कुमारः सुकमारमित्युवाचौचितीचंगः ॥२७॥
यथा लात! पवित्रं मे त्वत्पादरजसा शिरः । तथा राज्याभिषेकेऽपि सर्वतीर्याम्भसा नहि ॥९८॥ यथा त्वत्पाणिपद्मन सलीलेन श्रुती मम । प्रीयेते न तथा तात! मागवानां चक्तिभिः ॥१९॥
श्रीऋषभोक्तिःद्रुममननेन स्मितेन सुरभीकृताम् । उवाच वाचं स स्वामी भरतं स्वसुतं प्रति ॥१०॥ गृहारम्भं स्वयं श्रित्या स्वतात धर्मकर्मणि । अनुमत्य पुनन्त्यत्र पुत्रा अन्वर्थतस्तु ते ॥ १ ॥ वत्स ! धत्स्व ततो राज्यं प्राज्यं कुर्मा व्रतं वयम् । वृद्धानामिह सा भक्ति- धर्म प्रेरणा परा ॥ २ ॥ तातस्याऽऽज्ञो सुरमान्या श्रवेति भरतः सुतः। द्विधाऽपवाङ नुवनयी चिजीतानामियं स्थितिः ॥ ३ ॥
भरतराज्याभिषेक-बाहुबलिप्रमुखभागदानं चयुगादीशनिदेशेन भरतं वरवारिभिः। कारितमङ्गलोद्ानाः प्रधानाः सिषिचुस्तदा ॥ ४ ॥ स वाहवलिमुख्यानां स्वामी बाहबलस्पृशाम् । विश्वान् विश्वभराभोगान् तदौचित्याद ददौ तदा 8 श्रीऋषभप्रवज्याभिषेक:४दानं संवत्सरं यावद् दत्त्वा निर्मत्सराऽऽन्तरः। श्यामाष्टम्यां तिथौ चैत्रे तुरीये वासरांशके ॥ ६ ॥ चन्द्रे श्रितो तराषाढे सुरा-ऽसुर-जरेश्वरैः । शुचिभिः स्नापितो नीरैः सुरत्नशिबिकाश्रितः ॥ ७ ॥ अमरीभिश्च नारीभिः गीयमानोऽम्बरे भुवि । संसिद्धार्थः स सिद्धार्थ-वनं प्रापाऽङ्गिपावनः ॥ ८॥
१ सुकोमलम् । २ औचितीचतुरः ।
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पुण्डरीक- श्रीऋषभदीक्षा-मनःपर्यवज्ञानम्
(विशेषकम्) नयानादधोत्तीर्याऽशोकोऽशोकतरोस्तले । स त्रिलोक्या अलंकारोऽलंकारानमुचत् प्रभुः ॥९॥ प्रभुः स्वकुन्तलान् श्यामान विश्वश्यामत्वभित् प्रभुः। उच्चखान युगादीशो जवान मुष्टिचतुष्टयात् ॥१०॥ ल्याणकुम्भस्कन्धाग्र-स्फुरत्पल्लवसंनिभाः। सन्त्वितीन्द्रेण संरुद्धः प्रभुः पञ्चममुष्टितः ॥११॥ आद्यस्त्रैलोक्यशृङ्गारः प्रासादाग्रे च मण्डनम् । वासो वासर्वसंमुक्तं दधौ स्कन्धे जिनेश्वरः ॥१२॥ दुग्धसिन्धौ विनिक्षिप्य कुन्तलानमरेश्वरः। तुमुलं मुकुलीचक्र जनानां हस्तसंज्ञया ॥१३॥ कृतषष्ठतपाः सिद्ध-नमस्कारं स्मरत्नरम् । सायद्ययोगं त्रिविधं त्रिवा सर्व निषिद्धवान् ॥१४॥ ४ इति दीक्षाजुषो ज्ञानं मनापर्यवसंज्ञकम् । उत्पेदे केवलज्ञानभानोः प्रातःप्रकाशवत् ॥१६॥
श्रीऋषभेण सह अन्येषां प्रव्रज्याभूपाः कच्छ-महाकच्छ-प्रमुखाः प्रभुणा सह । व्रतं जगृहिरे भक्ताश्चतुःसाहस्रसंपिताः ॥१६॥ इ श्रीऋषभविहारे भिक्षाप्राप्तिः
सुरेषु सर्वपुत्रेषु स्तुत्वा नत्वा गतेष्वर्थ । मौनवान् मुनिनाथोऽयं विजहार धरातलम् ॥१७॥ ४ वर्ष यावत् पुरा दानं ददता सर्वगेहतः। स्वामिना दृरिता भिक्षा प्रभुं प्रापेव सा न तत् ॥१८॥ केऽपि रूपवतीः कन्याः केऽपि मत्तांश्च दन्तिनः । केऽपि सर्वां समृद्धिं स्वां प्रभवेऽढोकयन् मुदा ॥१९॥
वासवो देवेन्द्रः। २ पु०-गः।
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पुण्डरीक- दारांस्तु कारा इव योऽत्युदारो नागांश्च नागानिव नाकिपूज्यः ।
चरित्रम्. ॥१४॥
भूति तथा भूतिमिवोच्चभूति-काम्यरतकामोऽचकमरिजनो न ॥२०॥ कच्छ- महाकच्छादीनां त्रिपथगातटस्थितिःदुःसहान् सहमानेन स्वामिनैवं परीषहान् । सह गन्तुमशक्तास्ते कच्छाद्या इत्यचिन्तयन् ॥२१॥ इतरणं गरुडेनाऽधौ समीरेण समं रयः। आरब्धं स्वामिनाऽस्माभिः यत् तीव्र व्रतपालनम् ॥२२॥
चेतसा चिन्तयित्वैवं कच्छाद्या अल्पशक्तयः। तस्थुस्त्रिपथगाप्रस्थे स्वस्थेन मनसाऽखिलाः ॥२३॥ ४ नमि-विनमी८६अथो नमि-विनम्याख्यौ घ्यावृत्तौ स्वामिकार्यतः । प्रेक्ष्य कच्छ-महाकच्छौ पितरौ चैवमूचतुः ॥२४॥ अभक्ताभ्यां युवाभ्यां किं ताता! लेभे दशेशी। ऋषभस्वामिनो भक्तिः परत्रहाऽपि सौख्यदा ॥२५॥
तो प्रभोस्तीव्र व्रतं वं चाल्पशक्तिकम् । ज्ञात्वा राज्यं त्वगृहन्तो वयमित्थमिह स्थिताः ॥२६॥ 8 पित्रोः श्रुत्वा स्वरूपं तौ-ऊचतुः क्षत्रियोत्तमौ । त्यजद्भयां स्वामिनं नैव युवाभ्यां सुकृतं कृतम् ॥२७॥ 8त्रिविष्टपहितः स्वामी सेवकानां सुरद्रुमः। अदास्यत् तद् वचो येन युवयोः स्यान् महोदयः ॥२८॥ ४ तदाऽऽवामेकचित्तेन प्रभु सेवावहे ऽधुना । साम्राज्यमपि यच्छन्तं भरतं मनसाऽपि न ॥२९॥ । ४ इत्थं कृतप्रतिज्ञो तो प्रभुं प्राप्यैकमानसो। पाणी कृपाणी विभ्राणी तिष्ठतुः पारिपार्श्वगौ ॥३०॥ स्वमनोवद् विभोरग्रे विरजीकृत्य भूमिकाम् । सिषेचतुः सुमोऽम्भोभिः-लिप्सयेव फलस्य तौ ॥३१॥ ? सर्पानिव । २ भस्मवत् । ३ न कामयांचक्रे । ४ पु० सिक्त्वा चक्राते । ५ सुमानि कुसुमानि ।
४॥१४॥
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परिष
यतः
पुण्डरीक
धरणेन्द्रागमनम्अन्यदा घरजेन्द्रोऽथ जिनपं नन्तुमागतः। सेवाहेवा किनौ वीक्ष्य तौ वीरौ विस्मितेोऽवदत् ॥३२॥ 8 दर्शयन्तौ प्रभु खड्गबिम्बेनैव हृदि स्थितम् । को युवां कुरतं सेवां किमर्थ क्षत्रियोत्तमौ?? ॥३३॥
नमि-विनमिप्रतिवचःचक्रतः फणिनाथं तो भृत्यावावामसौ प्रभुः। दीक्षां जिघावर्षण दानादमीणयजगत् ॥३४ तदा दरस्थितावावामभूव स्वामिकार्यतः। चिन्तामणिरिवैकोऽपि दास्यत्यत्राऽपि नौ मतम् ॥३५॥
सेवकैनिजपतिः खलु सेव्यो निर्धनोऽपि सधनोऽपि परो न ।
नीरहीनमपि नीरदमेव चातकः श्रयति नैव समुद्रम् ॥३६॥ साधिपोऽवदत्४ इत्याग्रहस्थौ तौ प्रेक्ष्य मा भृत् सेवा वृथेत्यसो । प्रभुभक्तरतयोः सावरक्तः साधिपोऽवदत् ॥३७॥
४ परत्र भाविनी मुक्तिर्युवयोः रवा मिसेवनात् । साधर्मिकत्वाद् विद्यारवं मत्तो गृहीतमादा त् ॥१८॥ १२४ अष्टचत्वारिंशद्विद्याः सहस्रान् धरणस्तयोः। प्रददौ रोहिणी-गौरी-प्राप्तीप्रमुखानथ ॥९॥
___नमि-विन मिवैताब्यगमनम् - प्रणम्य स्वामिनः पादा-वापृच्छय घर.श्वरम् । विमानमद्भुतं कृत्वा-ऽऽरा तो योम्नि स्तुः ॥४०॥ प्रभुभक्तिफलं पित्रोः संदर्य भरतस्य च । तौ निजं लोकमादाय गती वैतादथपर्वतम ॥४१॥
१ 'ऊचतुः' इति भवेत् । २ भृत्या आवाम् । ३ दूरस्थिती आवाम् अभूव । ४ पु० त । ५ पु० शवित- ।
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॥१५॥
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पुण्डरीक - 8 कृत्वोत्तरस्यां षष्टिं सत्- पुराणि नमिभूपतिः । राजधानीं निजां चक्रे पुरे गगनबल ॥४२॥ ॥ १६ ॥ विनमिर्दक्षिणश्रेण्यां पञ्चाशन्नगराण्यसौ । संस्थाप्य सुस्थितिं चक्रे पुरेऽथ स्वनूपुरे ॥४३॥ आयदानी श्रेयांसः
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अतो वृषभनाथोऽपि क्षुत्परीषहसासहिः । भिक्षां गवेषयामास ग्रामे ग्रामे गृहे गृहे ॥ ४४॥ वरं व्रतजनन्या नो वैरस्यं भिक्षया सह । इति ज्ञात्वेव स विभु-रीहांचक्रे ती रसान् ॥४२॥ ज्ञानादाद्यो जिनो मत्वा श्रेयांसं त्वाद्यदानिनम् । वत्सरान्ते निराहारः पुरं गजपुरं ययो ॥ ४३ ॥ तत्र श्रीबाहुबलेश - पुत्रः सौम्ययशा नृपः । श्रेयांसोऽस्य सुतः स्वप्नं निश्यऽपश्यदयेदृशम् ॥४७॥ भृशं निष्प्रभतां प्राप्तो मेरुः सर्वसुराश्रयः । सुधाम्भः कुम्भसेकेन पुनश्चक्रे प्रभधिकः ॥४८॥ दृष्टं च श्रेष्ठिना स्वप्नं जयन कोऽपि बहून् नरान् । खिन्नः श्रेयांससाहाय्यं प्राप्य सर्वान् जिगाय तान् ॥ ४९ ॥ श्रीसोमयशसा दृष्टो भानुर्भानुविवर्जितः । श्रेयांसोऽयोजयत् तांश्च सोऽपि तैः शुशुभे पुनः ॥ ५०॥ सर्वे ते संसदि प्रातः स्वस्वस्वमविचारतः । श्रेयांसस्य शुभप्राप्तिं निश्चिन्वन्ति स्म चेतसि ॥२१॥ यावत् सभायाः स्वस्थानं विचार्य समये ययुः । तावद् विवेश भगवान् पुरं धर्म इवाङ्गवान् ॥ ५२ ॥ पादान्ते लुठनं केचित् केचिन्न्युब्छनकानि च । पुरे प्रविशतश्चक्रुः प्रभोः परायणाः ॥२३॥ (वृतं वन्दारुभिर्नाथं चातकैरिव नीरदम् । पश्यन् केकिवदुद्रीवः श्रेयांसो मुमुदेतराम् ॥५४॥ ईदृक्षं रूपमग्रेऽपि दृष्टमित्येष चिन्तयन् । सस्मार प्राग्भवेऽर्हन्तं वैरसेनं विलोकितम् ॥२५॥
१ पु० ऋषभ - । २ तथा भिक्षया । ३ पु० रसा । ४ पु० निभवताम् । ५ वन्दनशीलो बन्दारुः ।
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चरित्रम्
।। १६ ।।
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મૂળ પાનું ૧૭
ભાષાંતર પાનું ૧૬
શ્રેયાંસકુમાર એક વર્ષને અંતે પ્રભુને ક્ષિરસનું દાન આપે છે જેની ?િ ઉર્ધ્વ શિખા થાય છે. દેવે તે વખતે પંચ દિવ્ય પ્રગટ કરે છે.
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पुण्डरीक-तदोक्तं वज्रनाभोऽयं भरते भविता जिनः। स्मृत्वा श्रेयांस इत्यागान-नाभेयं प्रपितामहम् ॥२६॥
चरित्रम्. नत्वा नाथं निमन्त्रयाऽसौ दानायाऽनं व्यलोकयत् । तावदिक्षुरमोऽभ्यागान-नव्यः श्रेयांसहकपुरः ॥२७॥ 2.इक्षु बालोऽग्रहीनाथस्त्यक्त्वाऽन्याः सुखखादिकाः। इत्युत्सुक इवाऽन्नेभ्यः स्नेहादिक्षुरसोऽभ्यगात् ॥१८॥ ४ सर्व कुम्भततेरिनु-रसं स वितते प्रभोः। करे वरेण भावेन सदाऽऽरोहच्छिखं ददौ ॥१९॥
तदा जयजयारावं देवा देव्यो दिवि व्यधुः। सुवर्ण-रत्नवर्ष च चक्रस्तस्य गृहाजिरे ॥३०॥ श्रेयांसं श्रेयसां स्थानं नृपाः सर्वेऽपि तुष्टुवुः। तापसास्तेऽभ्यधु थो भिक्षार्थी विविद कथम् ! ॥३॥ सोऽवदद् वीक्षिते नाथेऽस्मार्ष पूर्व निजं भवम् । सारथिर्वज्रनाभस्य केशवोऽहं पुरा भवे ॥३२॥ 8 स्वयंप्रभाभवात् पूर्व संगतः स्वामिना समम् । अष्टौ भवा अमुं यावद्-उत्पन्न: स्नेह वन्धतः ॥२३॥
इति श्रुत्वा नृपा हृष्टास्तापसाश्चाशिषं ददुः। जय त्वं दानिनां धुर्य! जय धीरशिरोमणे ! ॥१४॥ ४ श्रीनाभेयकराऽऽलवालवलये वर्षात् प्ररूढः पुरा, कृत्वा गेहजनस्य संमदमयोऽशुष्यन् स दानद्रुमः। ४संसिच्येक्षुरसैः कृतो यतिमुदे येनातिनव्यच्छविः, श्रेयांसः स नरोत्तमो विजयतां दानैकवीरश्चिरम् ॥३५॥ ४
तदारभ्य जने जाते पुण्यनैपुण्यतत्परे । विहरन भगवान् भिक्षां यथाकालं सलेभिवान् ॥६६॥ विदधे परिणां यत्र स्वामी तत्र स राजसूः । व्यधापयन्मणीपीठ-मन्यांहिस्पर्शरक्षकः ॥३७॥ साक्षादेतो प्रभोरंही इति ध्यायन् स पादुके। विधाय तत्राऽनुप्रातः पूजां भूजानिजोऽकरोत् ॥३८॥ श्रेयांसमिति कुर्वन्तं वीक्ष्याऽन्योऽपि जनोऽखिलः। प्रभुपारणस्य पृथ्व्यां कृत्वा पीठमपूपुजत् ॥६९॥ १ पु० न्यमन्त्र्य-।२ सद्-आरोहत्-शिखम् । ३ पु० भवान् । ४ पु० पारणा।
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चरित्रम्
पुण्डरीक- आदित्यमण्डलम्
आदिकृद् मण्डलमिद-मित्यस्माद् वचनाच्छनैः। आदित्यमण्डलमिति श्रुतिर्जगति पप्रये ॥७०॥ ॥ १८॥ प्रभुस्तक्षशिलापुरे४४ध्यानात् कृतमनोरक्षः प्रभुस्तक्षशिलापुरे । त्यक्तक्रोधादिसंसर्गः कायोत्सर्गमदाद् बहिः ॥७१॥
बाहुबलिना वन्दनाय गतेऽपि असमागमः, तद्विलापश्च8 उद्यानपालैर्विज्ञतो नृपः स्वाभिसमागमम् । सायं मुदाऽयं संध्यो बली बाहुबली नृपः ॥७२॥ ४स्फूर्जत्तमोऽपवित्रायां रात्रौ यात्रौचिती नहि। प्रातस्तातस्ततो वन्द्योऽनवद्योऽयं मया नयात् ॥७३॥ निशायां स विशामीशश्चिन्तयित्वेति संस्थितः। पुरी प्रसाधयामास चारुचन्द्रोदयादिभिः ॥७४।
स्नातः श्वेतवासाः श्रितश्वेतमतंगजः। उच्चैधतसितच्छेत्र-सितचामरवीजितः ॥७॥ रगत्तुरंगै राजन्यै राजराजि स राजितः । परीतोऽन्तःपुरीवृन्दैरनुयातः पुरीजनैः ॥७॥
रनवगीतैश्च प्रेक्षणैः प्रीणितेक्षणः। दत्तवित्तः स्फुरच्चित्तस्तवनं प्राप पावनम् ॥७७। १२ यावद् गजं परित्यज्य विमुश्चन मणिपादके । क्व प्रभुः क्व प्रभुश्चेति जगाद जगतीपतिः ॥७८।
वनीपालोऽवनीपालं नत्वा तावद व्यजिज्ञपत । देव! देवाधिदेवो नो तिष्ठेद भास्वति भास्वति ॥७९॥ ४ श्रुत्वेति मूर्छितः प्राप भुवोऽङ्कमथ भूविभुः। चन्दनैः शिशिरैः नीरैः ससंज्ञो व्यलपत् शुचा ॥८॥
हा तात! त्रिजगत्त्रातः! कथं त्रातस्त्वयाऽस्मि ना। स्वांहिवन्दनपुण्येन पापारेबलिनोऽधुना ॥८॥ ७१ पु० त्यक्तः। २ स्फूर्जता तमसा अपवित्रायाम । ३ यात्राया औचिती। ४ पु०-सितच्छत्रम्। ५ राज्ञांराट्-राजराट्-तस्मिन्
राजराजि । ६ प्रभावति सूर्ये । ७ निषेधार्थे ।
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४॥१८॥
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अमू.
पुण्डरीक
८
वृक्षं प्रतिस्वामिना कृतसख्यत्वाद् वृक्षमुख्योऽसि वृक्ष ! भोः। त्वत्सदृक्षस्तु नैवाऽह-मलब्धप्रभुदर्शनः ॥८२॥
इत्युक्त्वा वृक्षं स्वामिना-ऽऽश्रितपूर्वमालिङ्गति । ४९ पृथुपुण्याऽसि हे पृथ्वि ! प्रथमस्य जिनस्य यत् । पादौ व्यूढतरी रात्रा-वप्राप्तौ शिरसाऽपि मे ॥८३॥
इत्युक्त्वा प्रभुपादपद्मयो रजः शिरसि निक्षिपति। ४ इत्याऽऽभीक्ष्ण्येन मूर्छन्तं मूर्छयन्तं जनानमून् । वीक्ष्य राजमृगाडाख्यो मन्त्री प्रोचे नरेश्वरम् ॥८४॥ ४राजन् ! विलपनं मुक्त्वा पश्य श्रीऋषभप्रभुम् । कुत्र कुत्रेत्यदित्वाऽसौ राजा दृरभ्यां व्यलोकयत् ॥८॥ ४सचिवः प्रोचिवान् स्वामिन् ! जगन्नाथोस्ति नो हृदि । नित्यं चित्तस्थितं रूप-प्रनित्यं वीक्षता बहिः ॥८६॥ 8 बाहुबलिना पाभूमौ मणिपीठकरणम्४निःशीकोऽथ नृपो नाथ-पादभूमावचीकरत् । मणिपीठं योजनोच्चं विस्तृतं पश्चयोजनम् ॥८७॥
प्रभुः पुरिमतालके
-ऽनार्यदेशेषु भ्राम्यन् मौनी मुनीश्वरः। जनं दर्शनतः शान्त शीतांशरिव सोऽकरोत् ॥८८॥ व्रताद् वर्षसहस्रान्ते पुरे पुरिमतालके । तले न्यग्रोधवृक्षस्य कानने शर्केटानने ॥८९॥
मफाल्गुनकादश्यां त्रिरात्रं प्रतिमास्थितः। उत्तराषाढगे चन्द्रे घातिकर्मक्षयोज्ज्वलः ॥१०॥ ध्यानान्तरस्थः पूर्वाहणे प्रथमः स जिनाधिपः । अवाप केवलज्ञानं लोका-ऽलोकावलोकदम् ॥११॥ (विशेषकम् )४
१ पु० राज । २ पु. चित्रस्थितं रूपमनित्यं वीक्ष्य तं वहि । ३ अचीकरत् । ४ तन्नाम्नि बने ।
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पुण्डरीक- स्वामी सिंहासनमाश्रयत्२०॥ यथाधिकार देवेन्द्र विहितेऽङ्गिहितेच्छया। स्वामी समवसरणे सिंहासनमथाऽऽश्रयत् ॥१२॥
पितामह्या सह भरतः४४ इतश्च भरतो भक्ति-भरतो जननीं पितुः। अकुण्ठोत्कुण्ठयाऽभ्येत्य तदा प्रातनमोऽकरोत ॥९॥
किमन्यैर्वीक्षितर्वीक्ष्य नन्दनं निजनन्दनम् । नीलीचिहने इतीवाऽऽस्ये नेत्रे तं पश्येतो हृदि ॥१४॥ ज्यायान् पौत्रो जगन्मातः ! त्वत्पादानभिवन्दते । उक्त्वेति नत्वा पुरतो निविष्टो भरतेश्वरः ९५॥
हृत्कुम्भे स्नेहसंपूर्ण दुःखाग्नितापितेऽथ सा। मुश्चत्यश्रूणि तद्विन्दू-निवाऽगदत् सगद्गदा ॥९॥ ८४ लीलया लालयामासु-र्य स्वर्गललनाः पुरा । स याति तीव्रतापासु पापासु मरुभूमिषु ॥९७।।
बाल्ये दिव्यामृताहारान् इन्द्ररभ्यर्थ्य भोजितः। स पुत्रो मे क्षुधाक्षाम-कुक्षि4मति हा ! क्षितौ ॥९८४ 8न स्नानं नाऽशनं पानं यानं तस्य न चाऽऽसनम् । दुकूलं नास्ति ताम्बूलं श्रुत्वेन्यस्मि म्रिये न धिक् ॥९९॥ ४ ४एकेनाऽपि सुपुत्रेण सुखी स्याद् वार्धके पिता। असौ सुतशते सत्य-प्यत्र भ्रमति दुःखितः ॥२०॥
येन स्वपुत्रमुख्यत्वे कृतो दत्वा निजं पदम् । मम पुत्रस्य तस्य त्वं चिन्तामपि करोषि न? ॥१॥ २ इत्युक्त्वा तारतारं तां रुदतीं भरतोऽवदत् । कथं सामान्यनारीव-जगजननि! रोदिषि? ॥२॥ ४ पुष्टज्ञानत्रयः स्वामी विलोकितजगत्त्रयः। यस्याः कुक्षाववातीर्णः सा किं शोकेन बाध्यते ॥३॥
१ जाणे गळीनां टपकां मुखे, तेने (ऋषभने) नेत्रो हृदये जुए । २ क्रियापदम् । ३ पु० व्ययान् । ४ वृद्धावस्थायाम् । ॥२०॥
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મૂળ પાનું ૨૧
ભાષાંતર પાનું ૨
ભરત મહારાજ મરૂદેવામાતાને કહે છે કે- હે માતા ! આ તમારા પુત્ર ઋભદેવુની બદ્ધિ જુએ.
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चरित्रम्.
पुण्डरीक
-राज्यं रज इव त्यक्त्वा प्राज्यं प्रकरुते तपः। त्रिलोकीदैवतं मातः! से किं स्याजनमात्रवत् ॥४॥ ॥२१॥ इति पौत्रसरस्वत्यां स्नात्वा तस्या मनोऽत्यजत् । शोकस्पर्शोत्थमालिन्यं हर्षवासश्च पर्यधात् ॥९॥
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भरताय वर्धापन यम्वेत्रिणा ज्ञापिता-वेत्य तं विज्ञापयतामुभौ । स्वामिज्ञानं च चक्रस्य प्रादुर्भूतिं नरौ तदा ॥३॥ दिष्टयाऽद्य वर्धसे देव ! कानने शकटानने । युगादिजगदीशस्य संजज्ञे केवलं महः ॥७॥ निजगाद द्वितीयस्त-मद्भुतप्रतिभं प्रभो! । चक्ररत्नं नभोरत्न-मिवाऽऽयुधगृहेऽजनि ॥८॥ ४ अथो व्यचिन्तयचित्ते तदा भरतभूपतिः। कस्यादौ कस्य वा पश्चाद् उत्सवो मम बुध्यते ॥९॥ हुआ ! कुत्सो मम संदेह इन्द्र-चक्रिपप्रदम् । पुण्यं प्रभुप्रणामात् स्यात् चक्रात् पापं तु दुस्सहम् ॥१०॥ 8 वन्दनाय गमनम्
राजा ध्यात्वेति दानेन तौ संतोष्य व्यसर्जयत् । आरूरुहद् गजं देवीं मरुदेवां सहात्मना ॥११॥ १२४ परीतोऽन्तःपुरी-पौरीः पुण्डरीकादिभिः सुतः। पितामहीं महीन्द्रोऽपि जगाद भरतो व्रजन् ॥१२॥
रूप्य-स्वर्ण-मणीरूप-मिन्द्रः शालत्रयं पुरः। कृतमस्ति जनन्यत्र त्वत्पुत्रासनहेतवे ॥१३॥ पवित्रचित्रसंस्तोत्र-व्यग्रास्त्वत्पुत्रदृकपुरः। कुर्वन्त्येते जयध्वानं चतुःषष्टिः सुरेश्वराः ॥१४॥ रम्भा-तिलोतमाद्याभि-देवीभिदिव्यभाषया । चतुराश्चारु चर्चों गीयन्ते शृणु कौतुकात् ॥१५॥
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१० सा । यो वृषभः त्रिलोकीदैवतं स किं स्याज्जनमात्रवत् । २ पु० लोक-। Jain Educationagmational
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२१॥
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पुण्डरीक
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मरुदेवा कौँ दत्त्वा आकर्णयति
अमर-नर-मुकुटमणिकिरणरञ्जितपदं विमलतरचरितभरनिहतपापापदम् । ललिततरकलितबहुविमलगुणसुन्दरं प्रथमजिनमखिलजनवृजिनहरणादरम् ॥१६॥ भरतभुवि दुरितभरतिमिररविमद्भुतं सकलकुलगुरुगुरो भिनृपतेः सुतम् ।
नमत दर्शितविवेकीय मणिगणनिधिं प्रहतबहुसलिलमलकलितयुगलकविधिम् (युग्मम् ) ॥१७॥ १प्रथमजिनेशो विहितावेशो विपुलपरीवहवर्गम् । अहह ! विषेहे सुललितदेहे कथमिह हतसुखसर्गम् ? ॥१८॥
वर्षसहस्रं दुःखमजलं परिषह्याऽनिशमेव । प्रकटितसारं जगदुपकारं संप्रति कुरुषे देव ! ॥१९॥ 8 यस्य कुलेऽमलकमलनिभेऽयं जिनवरराजमरालः। बाल: कलिं किल विदधे धन्यो धन्यो नाभिनृपाल: २०8) ४स्थित्वा यस्या वपुषि जिनो जननयनामृतगात्रम् । ईडग्रूपं किल विदधे मरुदेवा स्तुतिपात्रम् ॥२१॥ ४ मोहाम्भोधौ युगलविधौ मजन्तं भुवि सर्वम् । धारयति स्म निर्वचनैर्वन्दे तं गतगर्वम् ॥२२॥ ४सुर-नर-किंनर-नागकुलान्यतिनिर्मलभामंन्ति । अस्य निपीय सुवागमृतं संसार संसार संसारं प्रतरन्ति ॥२३॥४
सुरवर-किंनर-नाग-नरा यं युगपत् प्रणिपत्य । इह हि पिबन्ति सुवागमृतं देवं देवं देवं प्रणमामि ॥२४॥४] 8 मरुदेवया ऋषभ-वैभवो दृष्टःश्रत्वेत्युभूतहर्षाश्रु-सुधापुरैः सुविस्तृतः। नीलीपङ्कः क्षणाक्षितः मरुदेवाऽक्षियुग्मतः ॥२२॥ प्रभोर्वाक्यप्रभोल्लासैः प्रफुल्लनयनाम्बुजा। आलोककलिताऽऽलोक्य पुत्रद्धि सा व्यचिन्तयत् ॥२६॥ १ पु० गतवर्गम् । २ भा-प्रभा-तद्वन्ति ।
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पुण्डरीक-8 तस्या एकीभावचिन्तनम्
अये! मदीयपुत्रस्य वैभवं भुवनाद्भुतम् । भरतस्याऽस्य हाहाऽहं वृथा दोषमदा पुरा ॥२७॥
स्थर्यावदत्सङ्गे सुतास्तावन्निजा ध्रुवम् । एष वैभवसंयुक्तोऽ-प्यौदासीन्ययुतो मयि ॥२८॥ वदन्त्यां वत्स ! वत्सेति रुदन्त्यां मे मुदे सुतः। अयं स्ववातौं न प्रेषी-देकदेवमुखादपि ॥२९॥ वृथा तःखिता पूर्व-महमस्य विमोहतः। यतो न कोऽपि कस्याऽपि विश्व स्वाथै कनिधिलेला एवं मोहः सौख्यचौरो मनोऽस्या धर्नामप्यगात् । दुर्जनस्थानदानेन सतां देशान्तरो भवेत ॥३१॥ 8 मरुदेवासिद्धिगमनम्४ जातेऽस्याः परमेश्वर्याः परमे ब्रह्मणि स्फुटे । आत्माऽत्यजद् निजं देहं तिष्ठेद गुप्तौ हि का प्रभा ३२॥ ४ अत्र क्षेत्रेऽवसर्पिण्यां सिद्धस्याद्यस्य तद्वपुः । पूजयित्वाऽऽशु विबुधा निदधुर्दुग्धनीरधी ॥३३
भरतशोकापगमः-ऋषभस्तुतिश्च४ अथाऽसौ भरतः सौरैरिन्द्रवाक्यैरशोकहृत् । अशोकच्छायया छन्नो विशेज्जैनेन्द्रसद्मनि ॥३४॥ १२ यथाविधि प्रविश्याऽसौ त्रिः परीय जिनेश्वरम् । महेन्द्रः स महीन्द्रश्च तदा तुष्टुवतुः समम् ॥३५॥
देव-भरतकृता ऋषभस्तुतिः
नमो नाभेयाय ध्रवमनुपमेयाय महसा भवल्लोकालोकामलतरविलोकाय सहसा ।
महामोहान्मूढं भवकुहरगूढं जनमनः प्रचक्रे यो वक्रेतरशिवपरपथस्थं विवृजिनः ॥३६॥ १ पु० निष्ठिचेत् । २ हृत्-हृदयम् ।
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चरित्रम्
पुण्डरीक
अहो! देहोऽप्यहोवसतिरिह नानापरिभव-व्यथाकारी मान्यः स्तव-नमनतो मे समभवत् । सितिः पङ्कः पङ्केरुह निवहतः किं न वहति, प्रसिद्धिं वा स्वर्णात् किल मलगणो जन्यजनिताम् ॥३७॥ मनो हन्ता हन्त ! स्फुटमसि सुविधांस्यपि जगन्-मनांसि त्वय्येवाऽहमहमिकया यान्ति तदहो। अपूर्व सौभाग्यं किमिदमथवा संसदि तव, प्रभो! स्निह्यन्त्येते भुजग-नकुलाद्या अपि मिथः ॥३८॥ जगद्वन्द्य ! स्वामिन् ! यदि तव मता सर्वसमता, तदंहः किं हंसिं प्रमदयति चेतांसि किमु वा । विदूरे संसार शिवसुखमदरे च कुरुवे, वितर्कः को वाऽसाऽवनवगत ! तुभ्यं जिन ! नमः ॥३९॥ गुणानां निर्णाशं विषयसुखविक्षेपमखिलं, कलत्रा-ऽपत्यादिस्वजनविरह देव! यतिनाम् ।। भवान् यच्छन् यच्छत्यलमतुलसौख्यं स्थिरतरं, न विज्ञः सर्वज्ञ! त्वमिव सुखदाने त्रिजगति ॥४०॥ स्फुरत्केन्द्रत्वेन त्वदमलमुखश्वेतरुचिना, प्रभो! दृष्टे जीवे सुकृतधनगेहस्थितिभृति । 18 अभूचित्ते लग्ने त्वयि मम महानन्दजननं, तमाक्रोडो वक्रोऽपि हि मयि न वक्रो भवति तत् ॥४१॥
विभो! भव्यव्यूहं विभव ! विभवस्थं स्थिरविभ!, वृषाङ्कत्वे तिष्ठन्नपमलवृषाङ्कत्वसहितम् । १२ नमस्कारायैनं निजपदगतं भक्तिभरतः, करोषीति स्थाने जिन ! निजपदेऽप्यक्षरमये ॥४२॥
प्रसिद्धा ते स्वामिन् ! युगलविधिविच्छेदपरता, यथा सिद्धान्तेऽमी अभिद्घति दक्षाः खलु तथा। ४ अहं व्यक्तं मन्ये सुखमसुखमात्मीयमितरत्, रिपुर्मित्रं चेति प्रबलयुगलोन्मूलनमळम् ॥४३॥ ४/१ हन्ता घातकः । २ संसदि सभायाम् । ३ अंहः पापम् । ४ हंसि घातं करोषि । ५ असौ अनवगत !। ६ श्वेतरुचिः-चन्द्रः ।8 ४/७ क्रोडो वराहः । ८ अत्र श्लोके वृषभ-शब्दगतानां तृ-प-भ-इति-अक्षरप्रयाणां पादानुक्रमपूर्वमर्थः मूचितः ।
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॥ २४॥
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चरित्रम्.
पुण्डरीक-हृदम्भोधेर्जज्ञेऽसमशम-समत्वाऽम्बुलहरी-परीता त्वद्वाक्यामृतममर-तिर्यग-नृषु सदा। ॥२५॥सम स्वाद पत्त
मं स्वादं दत्ते सदसि धनिनामप्यधनिनां, समं सौख्यं मोक्षे जनकमनु जन्यस्य हि गुणः ॥४४॥ स्वयं व्यर्थ साक्षादमृतममृतांशुक्षयकृते, ददौ गर्भावाप्तेरनृतममरत्वं च मरुताम् । ४ वचः सत्यं तेऽर्थैरमृतमिह पीतं भुवि नृणां, प्रदत्ते गर्भादिव्यथनविरता ताममरताम् ॥४॥
४ अपुण्ये पुण्ये वा जगति मनसः संगतिरिति, द्वयोरन्यद् वान्छन् परिहतमनास्त्वं जिनवर। ४ अनित्ये नित्ये वा भवति हि नृणां प्रेरणमति-रनेकान्ते कान्ते चरति विरतिस्थेति तव गौः ॥४६॥ विना युंग्यं यातो जिन ! गतिमगम्यां त्वदितरै-विना सन्नाहं त्वं स्मररिपुशराणामविषयः।
असंख्यान्निःसंख्यं प्रहरसि तमोऽरींश्च भविनां, महेलाहीनोऽपि स्थिरमहिम-हेलासुललितः ॥४७॥ 8न नेत्रैरन्नयो मिलति सह नान्येन भुवने, न मेयो वाक्यैः सन्मतिभिरुपमेयो ने च विभो!। ४ श्रयेन्नार्थीपत्तिं समतृणमणेऽभावमपि नो, प्रमाणस्थैः पूज्य ! प्रमितिमयते ते मैं महिमा ॥४८॥
४ वचः शुद्धं वुडेननु मनसि जाता भवति सा, मनोऽणु व्यामूढं त्वमनणुगुणालंकृततनुः। १२४ मनोमुक्तो दृरं ननु मनसिजाऽगोचररुचे !, चिरं विश्वे विश्वेश्वर ! जय जयद्वागविषय ! ॥४९॥
गौर-वाणी। २ युग्यं-शकटम् । ३ सनाहं-कवचम् । ४ पु० नास्ति । ५ निःसंख्यम्-असंग्रामम् । ६ महेला-स्त्री। ४७ महिम्नः हेला-महिम-हेला । ८ प्रत्यक्षा विषयः । ९ अन्येन संमेलाभावाद् व्याप्तेरविषयः-अनुमानातीतः । १० आग
माविषयः । ११ उपमानाऽविषयः । १२ अर्थापत्तेरविषयः। १३ हे समणमणे!। १४ अभावाऽविषयः । १५ ममितिम् अयते-४
४ गच्छति । १६ पु० नास्ति । १७ जयद्वार । Jain Educat interational
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पुण्डरीक- इत्थं प्रथमतीर्थेशं प्रथमार्थकिरा गिरा । नुत्वा नत्वाऽनु देवेन्द्र भरतो न्यविशत् पुरः ॥५०॥
आयोजनविसर्पिण्या सर्वभाषानुरूपया। गिराऽमृतगिराऽकार्षीद देशनां क्लेशनाशिनीम् ॥५१॥ 2 श्रीऋषभदेशना-तथाहि४पापारी नन्ति लब्ध्वा मनुजतनुहयं येऽथ तेभ्यः प्रदत्ते. देवेन्द्रत्वादिकेभान् सुकृतनरपतिनित्यमारोहणाय
ये तुद्रुस्यन्त्यमु मै कुचरितनिरतास्तान् खराभेषुदीने ध्वाऽऽरोप्याऽङ्गे पुजीवान भ्रमयतिस भवं पीडयन्नुग्रदुःखै॥ निर्मादत्वयुतधर्मः शर्मदः सेव्यतां ततः। यश्च कामा-ऽर्थ-मोक्षाणां जनकत्वं श्रयत्यहो ! ॥२३॥
ऋषभपुत्र-पौत्रादिप्रव्रज्या४ श्रुत्वेति निर्मला धर्मदेशनां देश-ने-ऽङ्गानाः। सम्यक्त्वं श्रावकत्वं च यतित्वं केऽपि केऽप्यधुः ॥२४॥
पुत्रा ऋषभसेनाद्यास्तदा पञ्चशतीमिताः। सप्त शतानि नप्तारो भरतस्य प्रवव्रजुः ॥५५॥ B आद्यया देशनया चतुर्विधसंघ:ब्राह्मी व्रतं प्रपेदे सा श्रेयांसः श्रावकायताम् । सुन्दरी श्राविकात्वं च प्रभोर्देशनयाऽऽद्यया ॥२६॥
नामशीर्ति च गणेशान् विदधे विभुः। ऋषभसेनस्तेष्वाद्यः पुण्डरीकाऽभिधो हि यः ॥२७॥
गणधरा:-द्वादशाङ्गं च8 उत्पत्ति-विगम-ध्रौव्य-मयीं लब्ध्वा पद्धयीम् । पुण्डरीकादयश्चक्रुादशाङ्गीमथो रयात् ॥५८॥
मरीचिप्रव्रज्या-तापसाश्च१ देशस्य ना-पुरुषः, अङ्गना:-स्त्रियः। २ श्रावकायताम्-श्रावकस्य आयो लाभः तत्ताम् ।
४॥२६॥
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पुण्डरीक-तस्मिन् समवसरणे मरीचिव्रतमाददे । ऋते कच्छ-महाकच्छौ तदा सर्वेऽपि तापसाः ॥१९॥ ऋषभविहारः-भरतगमनं च
सर्गः-२ ___ अथो नाथः पाथोधर इव सुधर्माकुरविधी, व्यहार्षीदन्यत्र प्रसृमरमहाज्ञानजलयुक् ।
महं कृत्वा स्वश्रीभैरत इह स श्रीभरतराट्, जगामाऽयोध्यायां प्रमद्भरकर्पूरकलसः ॥३०॥ ग्रन्थकारोपसंहार:श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषाभिषङ्गं त्यजन्, यो जाडयस्थितिरप्यऽभूत् प्रतिदिनं प्राप्ताद्भुतपातिभः । तेन श्रीकमलप्रभेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः, श्रीश@जयदीपकस्य चरिते सर्गोऽयमाद्योऽभवत् ॥२६१॥ इति श्रीरत्नप्रभमूरिशिष्य-आचार्य-श्रीकमलमविरचिते श्रीपुण्डरीकचरिते श्रीयुगादिनाथकेवलज्ञानश्रीपुण्डरीकचरित्राङ्गीकरण-गणधर-पदस्थापना नाम प्रथमः सर्गः॥
॥ अथ द्वितीयः सर्गः ।। भरतः शस्त्रगृहान्तरं गतः१२ 8 अथ शस्त्रगृहान्तरं गतः किल चक्रं भरतोऽतिरङ्गतः । दशशेत्यरयुक् तदाऽनमत् सुदिनायोदितपुण्यसूर्यवत् ॥१॥8 ४ अथ हर्षितसर्वपूर्जनं नवनैवेद्यभरेण पूजनम् । दिवसाष्टकमाहितोत्सवं नृपतिश्चक्रपुरोऽकरोत् तदा ॥२॥
मागधदेवविजयाय भरतगमनम्४१ निजलक्ष्मीसमूहेन । २ कराः-किरणाः, हस्ताश्च । ३ दोषा-रात्री, दोषश्च । ४ सहस्र-आरायुक्तम् । ५ पुरः-पूर्षाः,
जन:-लोकः।
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सर्गः-२
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पुण्डरीक-ठगजरत्नमसौ समाश्रितः सुमुहूर्तेऽथ गृहीतमङ्गलः । अनुचक्रमवक्रमानसोऽवलदैन्द्री दिशमेव भूपतिः ॥३.8 चरित्रम् ॥२८॥४हय-वर्धकि-चर्म-काकिणी-मणि-सेनान्य-सि-सत्पुरोधसः।नृपमन्वगुरातपत्रयुग-इण्डो बकुटुम्बिका अपि॥४॥
भरतेश्वरसैनिकैयदा जयढका पुरतः प्रताडिता। हृदयानि च गहवराव्यहो! युगप ध्वनुरुषभूभृताम् ॥२॥ ककुभोरमसोत्थदुन्दुभी-भटभेरी-हय-हस्तिशब्दितः।बधिराअभवंस्तदाऽति तत् प्रतिजल्पन्ति न जल्पिता अपि 8 जवनं पवनं विजिग्यिरे हरयश्चेह रयप्रचारिणः। तत आतपवारणं रजश्च यमुद्धृत्य सहाऽचलत् से तैः ॥७॥ अयमस्य दिनप्रतापतो दहनं मा लभतामितीव तैः।हरिभिः खुरखातरेणुभिः पिवे प्रीतिभरात् डेंगो हरिः ॥८ अथ योजनवाहिनी शनैर्नृपतेः श्रीभरतस्य वाहिनी । सुगभीरहृदः पुरोऽम्बुधेरुपकण्ठं परिलभ्य संस्थिता ॥९॥ १ वरवर्धकिना विनिर्मितेवनलेषु प्रचुरेषु धामसु । म्यवसत्रय सर्वसैनिका भुवमाद्वादशयोजनी क्षणात् ॥१०॥ ४ मणिपौषधशालिक नपो विहितां वर्धकिनाऽतिनिर्मलाम्। कुशल कुशसंतरेस्थितः उपचासत्रयवानुर्वास सः।११8 ४अथ तुर्यदिने दिनोदये नृपतिः स्नाततनुर्वराम्बरः। चतुरन्तगवीरघण्टिकं रथमस्त्रैर्भूतमारुरोह सः ॥१२॥
द्विरविं शशियुग्मसंयुतं प्रथमदीपमिवाऽमराचलः । भरतः कनकमभः स्थिरः स चतुर्घण्टरथं श्रितो बभौ ॥१३॥१ १२४समहाः स महारथो रथं रथनाभियंसे तदाऽम्भसि । नृपतिः स्थिरसारसारथीरितरथ्यं स्वरसादसारयत्॥१४॥
धनुरत्र धनुर्धरोरो जवतोऽधिज्यमयं विधाय तत् । गुरुकृतितोऽकरोत् तदाऽखिलयादांसि रणजीस्यथ ॥१५॥४ ४१ उच्चभूभृतः-उत्तमनृपाः, उच्चपर्वताश्च । २ पवनः भातपवारणं रजश्चयमुद्धृत्य तैः हरिभिः अवैः सह अचल-तैर्विजित-8 8 वाद-विजितो हि छत्रं धरति । ३ खातम्-उत्क्षिप्तम् । ४ खगः-गगनगः । ५ हरिः-मूर्यः। ६ उवास। ७ रथनाभिप्रमाणे ।8 १४८ ईरितरथ्यम-रथ्या-मार्गः। ९ उद्वर:-उत्कृष्टो वरः। १० रणेन जवांसि वेगवन्ति-चपलानि-प्रस्तानि ।
४॥२८॥
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મૂળ પાનું ૨૬
ભાષાંતર પાનું ૨૮
આદીશ્વર ભગવાનની પ્રથમ દેશના સાંભળીને પુંડરીકસ્વામીએ દીક્ષા મણ કરી. પ્રભુમ્ભે ચતુર્વિધ સંધની સ્થાપના કરી.
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पुण्डरीक-अथ मागधनिर्जरं प्रति जलयो द्वादशवाजनस्थितम् । निजनामसुर्वणं शोभित विससोश सुवर्णपत्रिगम्॥४] चरित्र ॥२९॥रभसानभसा ययौ शरो गुरु त्कारपरः श्रमादिव। सुरसंसदि सुस्थितो मुखं भुवि निक्षिप्य तलं गमीव सः॥सर्ग:-२
स सुरः सुशरं पुरस्थितं सहसा प्रेक्ष्य रुषाऽरुणोऽवदत्। मम संसदि कोऽमुमक्षिपन्निजजीवोदहने विखिनहत्॥४ ४३ फणिनाथफणामणीगणैर्मुकुटं कोऽत्र चिकीर्षुरुत्कटः।। क इहाऽमरदन्तिदन्ततो निजजायाकरकरणे चिकीः॥
गर्वयुतः सुपर्वराद् निजपाणी परिगृह्य पत्रिणम् । इह पुगताक्षरावलिं विमला वाचयति स्म विस्मयात्॥ भरतःप्रथमोऽद्य चक्रिराट् दिशतिश्रीऋषभाङ्गभूरिति।मम यच्छत दण्डमाशु भो! यदि नित्यं स्वमुखेषिणासुराः मागधदेवजयः
इति वीक्ष्य सुरोऽक्षराण्यसौ प्रशमी श्राद्ध वाऽऽमेक्षणात् । ___ मणिभिः कुसुमैरिवोधेः सुधियाऽऽनर्च नृदेवमेत्य तम् ॥२२॥ भरताहिपुरो विमुच्य तत् मणिसारं सह तेन पत्रिणा।विहिताअलिराह भक्तिमान् स जयारावपुरस्सरं सुरः॥ ४ करतः कुलिशं हरेरिव तपसस्तेज इवाऽऽस्य॑तो यतेः शपनं च सतीमुखादिव सहते को धनुषः शरं तव ॥२४॥ १२४ अहमस्मि तवैव सेवको भवतां भूपनिवेशिताऽधुना ।सततं मयि तत् प्रसन्नता करणीया निजयाऽऽज्ञया प्रभो!॥४
इति भक्तिवचोभिरभुतैर्भरतःप्रीततरो विसृज्य तम्। उधेः स्वरथं न्यवर्तयत् प्रगतिप्रान्तरुषोहि साधवः॥२६॥४, इस गतः कटकं विकण्टका प्रविधायाऽऽशु नृपोऽथ पारणम्। दिवसाष्टकमुत्सवं व्यधात् प्रमदाद मागधदेवतं प्रति ॥४] 8 . निर्जरो-देवः । २ सु-वर्णाः-शोभनानि अक्षराणि । ३ गच्छतः शरस्य सररर-इति ध्वनिः सूत्कारः । ४ कर्तु-18 मिच्छति चिकीः । ५ आगमाः-अनादीनि जैनसूत्राणि । ६ आस्यम्-मुखम् । ७ मणतिः-प्रणामः ।
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सर्ग:-२
वरदामपति-प्रभासकाधिपति-सिन्धुनदीविजय:
परित्रम् ॥३०॥ वरदामपतिं प्रभासकाधिपति सिन्धुनदी विजित्य च।स्वबलाढयभुजोऽथ राजतं गुरुवैतादयगिरि रयोदयात्।२८॥
वैतादयदेव विजयःगिरिदक्षिणपक्षतो निजं कटकं चक्रपतिनिवेश्य सः । त्रिरुपोष्य चकर्ष हर्षतः किल वैताढयकुमारनिर्जरम्॥२९॥ स सुरश्चलितासनः पुरः समुपेत्याभुतरत्नढोकनम् । प्रविधाय निधाय मस्तके भरताज्ञां च यथाऽऽगतं ययौ ॥ कृतपारणकोऽष्टवासरं विरचय्योत्सवमभुतं नृपः। ललितः किल लीलयाऽलपद् निजसेनाधिपरत्नमुच्चकः॥३१॥
रजताचल सिन्धुनिम्नगातटयुग्मसाधनाय सेनाधिपस्य आज्ञाकरणम्४ रजताचलसिन्धुनिम्नगातटयुग्मं सकलं तु दक्षिणम्। स्वसुखेन सखे ! सुखेन भोः! त्वरितं साधय साधनोद्यतः॥
सिन्धुनदीपरतीरस्थतुरुष्काणां विजयः४ अथ सिन्धुनदी स सैन्यपः सहसोत्तीर्य च चर्मसेतुना। प्रविजित्य तुरुष्कभूपतीनिह तद्दण्डधनान्युपानयत्॥३३॥ ४
तमिस्रागुहा-प्रकाशनम्१२४ पुनराप्य वचोऽत्र चक्रिण: स तमिस्रारयगुहाप्रकाशने। त्रिरूपोच्य दिनाष्टकोत्सवं तमालाय सुराय निर्ममे३४॥ ४ हयरत्नगतस्त्रिधाऽऽह ते दृढदपन गुहाकपाट के । विरलीकृतवान् समाधिना मद-रोषाविव नितिं गमी॥३५॥४
कृतमालसुरविजयः१ तदुपेत्य विभो! यवेदयत् प्रतिरूढस्तुरगे प्रतापगे। मणिमस्य निवेश्य कुम्भके गजरूढःस चचाल चक्रिराट् ३६४ ४१ रयो-वेगः । २ उपोष्य-उपवासं कृत्वा । ३ आकृष्टवान् । ४ तुरुष्कभूपतीन्-तुरुक-तुक-इति ख्यातान् भूपतीन् । ५ गन्ता। ॥३० ।।
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पुण्डरीक - 8 स तमिस्रगुहां नरोत्तमो मणिभासा वितमिस्रतां नयन् । स कलैरनुगैः सहोडुभिर्गगने चन्द्र इवाऽविशत् तदा ॥ अथ का किणिमण्डलान्यसौ किल पञ्चाशतमेककं विना । अनुगध्वंजिनीप्रकाशने जननाथोऽजनयद् गजस्थितः ॥ अनिम्नगा - निम्नगा - नद्यौ -
॥ ३१ ॥
दृषदामपि सुप्रतारिकामनिग्नगां सरितं व्यतीयिवान् । वरवर्ध कि सेतुबन्धनात् स निम्नगामपि तूर्लेमज्जनाम् ॥ स्वयमुद्घटिताद्धोत्तरात् स गुहा-द्वारत आशु निर्गतः । प्रचचाल च चक्रपृष्ठगो भरतार्धं प्रविजेतुमुत्तरम् ॥ ४० ॥
भिल्लभटाः संतापसुनामकाः
नृपसैन्यमदृष्टपूर्विणः किल संतापसुनामकास्तदा । प्रविलोक्य धृताद्वरायुधा विदधुर्युद्धमथाग्रयोध्धृभिः ॥ ४१ ॥ अथ भिल्लभः पराङमुखे कटके चक्रपतेरयात् कृते । हयरत्नगतोऽथ सैन्यपः स दधावे भृश-तज्जिघांसया ॥ ४२॥ भिल्लानां देवाराधनम् -
इमकेन निराकृताश्च ते सुकृतेनेव सुविघ्नराशयः । विविधैर्निजदेहतापनैः कुलदेवानधिराद्धुमुद्ययुः ॥४३॥ अतिसेवनतः प्रतोषिता द्रुतमेत्याऽब्दमुखाः सुरा जगुः । कुरुतेति किमङ्गतापनं ननु वत्सा ! बहुलङ्घनानि च ॥ न नरैर्न सुरैर्न किन्नरैरसुरैनैव महोरगैरपि । निजपूर्वभवोत्थपुण्यतः प्रबलश्चक्रविभुर्विजीयते ॥ ४२॥ पुनरात्मबलानुमानतो भवदाराधनतोषिता वयम् । इह विघ्नमहो महन्तरं ननु वत्साः ! प्रविदध्महे ऽधुना ४६
१२
४
८
१ कलाभिः सहितैः सकलैः समग्रैव । २ अनुगा ध्वजिनि-सेना । ३ पाषाणानामपि । ४ तूलमपि यत्र मज्जति - बुडति - तूलमिति - 'रू' । ५ चक्रस्य पृष्ठं गच्छति इति । ६ न दृष्टं पूर्व यैस्ते । ७ भृशं तेषां हन्तुमिच्छया । ८ कुरुत - इति । ९ भवताम् आराधनं भवदाराधनम् ।
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चरित्रम् -
सर्गः - २
।। ३१ ।।
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पुण्डरीक
॥ ३२॥ 8
सर्गः-२
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चक्रिपराजयाय तैः कृता मुशलधारा वृष्टिः
चरित्रम् इति मेघमुखा निगद्य ते प्रविकृत्याऽम्बुधनान् घनाघनान् । ववृधुर्मुशलप्रमाणकै हुधारानिवहरथाऽम्बरात्।४७।४ ध्वजिनीजनकण्ठनतां गतमालोक्य जलं नृपोत्तमः । स्वकरेण चकार चर्म तत् क्षणतो द्वादशयोजनस्थितम् ॥ अधिरोप्य निजांचमूमिह प्रततं छत्रमपि व्यधात् तथा । जनदृष्टिविलोकहेतवे किल दण्टेऽत्यमणिन्यवीविशत् ॥ इह धान्यचयं कुटुम्बिना निहतं रूढमथो विपाचितम्। विविध प्रतिवासरं रसाद् बुभुजे सैन्यमदैन्यमानसम् ॥ इति चर्म-सितातपत्रयोः पुटमालोक्य जलान्तरे तरत्।जगदे जगदेकचित्रदं सुगुरुहिम्यमिदं महाण्डकम् ॥२१॥
अथ चक्रपतिः स सप्तमे दिवसे चिन्तितवानिदं हृदा।विहिता अहिता ममाऽहितैः कथमेतेऽम्बुधराः सुदुधराः। ८इति चिन्तनतोऽस्य चक्रिणस्तनुरक्षासुविचक्षणैः सदा । किल षोडशभिः सहस्रकैरमरर्मेवमुखा वभाषिरे॥५३४
8 इह चक्रिणि देवता! नृणां भरतक्षेत्रनिवासिनां प्रभो । प्रकुरुध्वमतीवदुष्टतां तदहो! मूर्खतरा मुमूर्षवः ॥२४॥ ४ इति यक्षवचोभिरुद्धतैर्य युरम्भोदमुखा भयाकुलाः। प्रतताप घनौघ निर्गतो रविरुच्चैर्भरतप्रतापवत् ॥१५॥
४ भरतस्य पुरः कनिष्ठिकाङ्गुलिदानात् निजमूर्धरक्षणम्। विदधुश्चतुरास्तुरुक्ककाः क्षितिभोग तृणचर्वणादपि॥५६॥ १२४ हिमालयगमनम्
४ अथ सिन्धतटं तदौत्तरं निजसेनापतिना विजित्य सः। प्रसरन्महिमा हिमालय ल वुमेवोऽजमखमाऽऽलेयः ॥२७४ ४ शिबिरं विनिवेश्य दक्षिणेस नितम्बेऽस्य गिरेः कृताष्टमः। अधिरुह्य रथं विसृष्टवान् निजबाणं हिमवत्कुमारके॥४
१ अम्बुघनान्-जलपूर्णान् मेघान् । २ सेनाजनकण्ठ-प्रमाणताम् । ३ घनाया-मेघसमूहः। ४ उच्चरूपाया माया हैं लक्ष्म्या आलय:-गृहम्-स्थानम् । ५ सेनास्थानम् ।
४॥३२॥
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पुण्डरीक-8 अमरः प्रतिगृह्य तं शरं द्विकयुक्-योर्जनसप्ततौ स्थितः । स तदक्षरवीक्षणाच्छंसी प्रणनामैत्य नृपं सढौकनः ॥६९॥१ चरित्रम्प्रविसृज्य सुरं स आर्षभिर्निजनामर्ष भकूटपर्वते । प्रतिलिख्य च काकिणीमुखाद् विदधेऽष्टाहमहं महामहाः ॥
सर्गः - २
॥ ३३ ॥
रजताचलगमनम् —
अथ दिग्विजयान्निवृत्तवान् महसाऽनुत्तर एष उत्तरे । कटके रजताचलस्य तत् कटकं प्राटयदस्तकण्टकः ॥ ६१ ॥ विनमि-नमिभ्यां सह संग्रामः -
विनमिं च नमिं खगेश्वरं विजिगीषुर्जगतीपतिस्ततः । अहतप्रसरं स रंहसा स्वशरं वीरवरो व्यसर्जयत् ॥ ६२ ॥ नृपनायकसायकेक्षणाद् गुरुरोपारुणितेक्षणौ क्षणात् । गगने गगनेचरत्वम् परिगृह्याऽऽययतुर्निजाश्चमः ॥६३॥ कटकानि रुषोत्कटान्यथ दिवि को द्वादशवत्सरीं मिथः । शरतोमर-भल्लि शक्तिभिः प्रविजेंद्र दृढबाहुशक्तिभिः भरतो भरतो भुजौजसां रथमारुह्य महारथस्ततः दृढसंगरबद्ध संगरः स धनुःसंग - रतोऽजनि स्वयम् ॥ ६५॥ विनमि-नम्योः पराजयः
स्वचरानपि तान् विपक्षकान् प्रविचार्येव धनुर्धरोत्तमः । विदधे स्वशरै रंयेरितैरखिलानुद्गतपक्षकान् क्षणात् ६६ १२ ४ भरताशेगवेगतो दले दलिते व्योम्नि घनप्रभो यसौ । अचिरद्युतितां समाश्रितः स्वचराधीश्वरयोः प्रतापकः ६७ अथ शीततैरान्तरौ रयात् कुपितं सान्त्वयितुं तमार्षभिम् । विनमिश्च नमिः प्रणम्य तं चतुरौ प्रोचंतुरौचितीचणो १ ७२ योजनानि । २ शमी- नष्टगर्वः शान्तः । ३. दिवि - गगने, को-भूमौ । ४ महारं चक्रुः । ५ भुजवलानां भरतः - समूहतः । ६ संगरो - युद्धम् । ७ संगर:- प्रतिज्ञा । ८ धनुःसंगे रतः । ९ रयेण वेगेन ईरितैः । बाणाः । ११ शीततरम् - आन्तरं हृदयं ययोस् । १२ मोचतुः औचितीचणा ।
१० आशुगाः
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४
॥ ३३ ॥
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मर्ग:-२
इण्डरीक-अनभिज्ञतया यदाऽऽवयोरभवाललितं प्रभो स्वयि। अधुना सकलं सहस्व तत् किल सर्वसहयाऽसि संश्रितः। ॥ ३४॥8 ताभ्यां धनढोकनम्, पुत्रीदानं च
नमिरार्षभये मणीगणं विदधे प्रीतिभरण ढौकनम् । विनमिः स्वसुतामदान्मुदा स सुभद्रा ललनाशिरोमणिम्॥ ४पमदादथ चक्रधारिणा प्रविसृष्टौ स्वपुर समागतो । इति चारुविचारमादराद्विधाते स्थिरमानसाविमो॥७॥
नमि-विनम्योवैराग्यपूर्व व्रतादानम्ऋषभप्रभुपुत्रमादिम भरतेशं स्वगृहे समागतम् । न हि सच्चवाऽतिमोहतो ह! ह! हाऽऽवामुचितेन वनितो॥ ऋषभप्रभुपादसेवनादिदमाप्तं गुरुराज्यमीदृशम् । सर्मेरोऽसमरोषतः कृतो धिगहो । तत् प्रथमाजजन्मनः ॥७३॥ इह राज्यमदान्ध्यतो ध्रुवं विहितो द्वादशवार्षिको रणः । इति पापनिरॉचिकीर्षया करवावं प्रभुसंनिधौ व्रतम्। ४ इति चारु विचार्य चेतसा तनयो ज्ञातनंयो निजे पदे । अभिषिच्य विभोः कराद् व्रतं बहुविद्याधरसंयुतो श्रितो॥४ 8 भरतस्य सिन्धुतटवने रमणम्
अथ चक्रधरो वसुंधरावलयं निविलयं जयन्नयम् । सुरसिन्धुतटीगतं स्फुटीकृतनानाद्रुममाप काननम् ॥७॥ १२४सकलां सकलर्तुभिः सदा स सदाकार-महीरुहावलिम् । अवलोक्य वनीमथाऽवनीरमणोऽयं रमणोद्यतोऽजनि 8
४ स्थैपतिः स्वपतिस्थितेः कृते मणिभिनिर्मितसतभूमिकम् । विदधे युदधेरिवोद्गतं विमलं मन्दिरमिन्दिराश्रयम्। ४ ११ सर्वसहा-पृथ्वी । २ सत्पूर्वस्य कृ-धातोः परोक्षे अस्मत्पुरुषद्विवचनम् । ३ आवाम् । ४ समरो-युद्धम् । ५ असमरोषः8 अत्यन्तरोषः। ६ रणः संग्रामः । ७ निराकर्तुमिच्छया । ८ पञ्चम्या अस्मत्पुरुषद्विवचनं क-धातोः। ९ नीतिज्ञा। ११० निर्विघ्नम् । ११ शोभनाकारा। १२ वर्धकिः। १३ इन्दिरा-लक्ष्मीः।
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४॥३४॥
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पुण्डरीक-8 स्वबलेऽथ यथास्थिति स्थिते तरलो तुङ्गतुरङ्गसंगतः । तरुराजिविलोकनाथ स प्रचचालाऽखिललोकनायकः ॥७९॥१परिष || ३५ || भरतोऽथ रतिप्रियप्रभः स सुभद्रायवरोर्धसंयुतः । प्रविलोकितदिव्यकाननः समभूद् विस्मयतः स्मिताननः८० ९ सर्गः - २
वन्दिकृतं द्रुमसंघ - वर्णनम् -
अथ बन्दिवरः प्रियंवदः प्रभुचित्तं परिभाव्य सस्पृहम् । रुचिरं रुचिरञ्जिताम्बरं द्रुमसंघं स जवादवर्णयत् ॥८१॥ विजयस्व विभो। पृथग भुवः प्रविभागे सकलतुभिः स्थितैः। वनमद्भुतषड्रसं नय-प्रणय ! त्वं नय नेत्रभोज्यतम् ॥ वर्षावर्णनम् -
४
दृढदिव्यविभावतो विभा गगनेऽत्र स्थिरनेत्रचित्रदम् । शुभगं शुभगन्धतः शुचि प्रविमुञ्चन्ति पयः पयोमुचः॥ नयनप्रमदप्रदायिनः पुरतः पश्य विवेककेकिनः । सुमनोहरनृत्य कृत्यतो दयितानां दयितं वितन्वतः ॥ ८४॥ नृप । केऽपि कला-कलापिनां सुकलाssलपवतीं विलोक्य ताम् । ललितेक्षणवीक्षणात् प्रिया-हृदयं ये मदयन्ति हेलया रवि- वह्निमहोविनाशके जलदेऽप्यात्तपदा महखिनी । अहमस्मि तडिल्लता मदादिव नृत्यन्ती विलोकय प्रभो ! शुचि सृष्टिकरं सुशीतलं सलिलं शोषितवान् भवान् भुवः । विधृताऽशनिरग्बुदो रविं विरुण द्धीति सुकालतां वहन १२ शीतं स्वाद्दुजलं समग्रसरितां नीत्वाऽथ वारांनिधि-निग्नं क्षारमपेयमेव कुरुते मेघो विनष्टं तु तत् । कृत्वा प्रोच्चतरं रसेन रुचिरं विश्वोपकारे नयेत् जीयासुः सुविवेकिनो घृतधनैः किं निर्विवेकैर्जनैः ॥ ८८ ॥
१ निजसैन्ये । २ तुरंगा अश्वाः | ३ अवरोधः - अन्तःपुरम् । ४ रुच्या कान्त्या रञ्जितम् - अम्बरं गगनं येन द्रुमसंवेनअत्युच्चो द्रुमगणः । ५ नेत्रेण भोज्यताम् भक्ष्यतां नय - नयनेन पश्य । ६ दिव्यविभावः - दिव्यशक्तिः । ७ विशेषेण भान्ति(इति ८ स्थिरनेत्राः चातकाः - इति प्रायः । ९ द्वितीया बहुवचनम् । १० प्रियम् । ११ कळा - कलापवताम् ।
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पुन्हरीक- रसमत्र सुरानुभावजाम्बुदपात्रात् परिरीय मारुतः। सुमेमालितमालतीलता-ललनाऽऽलिङ्गनतः प्रमोदते।८९॥8 चरिणम्.
सुविकासितसत्कदम्बिका जगतो जीवनदानतत्परा।तव दृष्टिसमा सुवृष्टिरप्यवतात् पार्थिव पार्थिवं जनम्॥९०४. सर्गः-३ 8 शरत्प्रशंसा४ घनकालमयाऽतिभूयसः समयात् संवलितोऽनुभूय सः। स्फुटमुच्चरति प्रियंवदः शरदि प्रोच्चरति प्रियंवदे ॥९॥
स्मितपद्ममुखी सितेतरोत्पलनेत्रा धवलाभ्रवस्त्रयुक् । कलिताऽद्भुतबन्धुजीवकप्रसवोद्भासिकुसुम्भचीवरा॥९२४ कुसुमाथिततारका शिरोमणिमौलीयितशीतदीधितिः। गुरुमौक्तिकहारवल्लरीयितसुव्यामगहंसमालिकॉ॥९३॥ क्रमुकाङ्कितनागवल्लिजच्छदीन शोणमुखान शुकोत्तमान्।शरदक्षतशालिहस्तके दधती माङ्गलिकाय तेऽस्त्वसौ ।
(विशेषकम् ) सरसी सुषुवेऽम्बुजं सुतं विमलाऽस्थात् वपये च निम्नगा। स चकोरचयेऽशनं ददावपि दोषाकर उद्गते मुंनो। ४ ४ स्वविभा शरदुद्भवां शशी स सुभद्रावदनाय दत्तवान्। विदधाति चकोरगौरवं तदिदं देव! सुराजवल्लभम् ९६४
इति बन्दिवरः शशंस तां शरदं सप्रशशंस च प्रभुः। विमलं जगतोऽपि जीवनं कुरुते यः स न किं प्रशस्यते ॥४ १२ अथ बन्दिवराय तत्क्षणं निजरत्नाभरणानि देहतः। प्रददौ प्रमदौचितीयुता भरताधीश्वरजीवितेश्वरी ॥९८॥ ४
हेमन्तऋतुप्रवर्णनम्
१ मुमेन कुसुमेन मालिता राजिता । २ सप्तमी-एकवचनम् । ३ शीता दीपितयः किरणा यस्य-चन्द्रः । ४ समस्तमेतत् । १५ क्रमुकं-पूगफलम् । ६ छदैः पक्षैर्भान्ति छदभाः । ७ हस्तको हस्तः, हस्तनक्षत्रं च-शरदि तस्यागमनात् । ८ सरोवरम् ।
९ श्वपथ:-गगनम्-गम्यते । १० मना-अगस्ता उदिते ।
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परीक-8स ससार ससारहन्मही-मिहिका मिहिकारिता महीम्। वदति स्म ततः प्रियंवदं स्थिरहेमन्तऋतुप्रवर्णनाम्॥ चरित्रम्. । हिमरोचिरतिप्रतापनादिह निर्दध रुषा सरोजिनीम् । हिममग्लपयद् विभे विभुं समये वन्धुरिपुनिहन्यते ।
सवितारमहो! हिमोद्यमे न निजाशप्रियिणं ररक्ष यत्। मुखमप्यवलोकतेऽस्य तद्न हि जीवन जगतीजनोऽखिला ४४ महसामधिपो यथायथा जडतामाम हिमात् तथातथा । जगतो हृदयप्रकम्पना दोषी अपि गुरुतामगुभंशम् ॥२॥
न मुरुगंगने गुरुर्गुरुस्त्वयः किल दुःखतोऽसितः । दहने दहति स्वदेहमप्यऽहिमांशी महिमच्युते हिमात् ॥ पिदवे खगचित्रभानुमप्यऽहहेनं पिधातु मा हिमम्। करयुग्ममतो हुताशनो-परि लोकः सकलोऽपि यच्छति।।
वदतीति तदा प्रियंवदे नृपतिः प्राह सुधूम एष कः । अभिमत्य सविस्मयस्तु स न्यगद् भारतभूपति पुनः ८४ किन् ! इह दिव्यकुण्डकत्रितये धूपचयोऽसितो गुरुः । घनसार इति त्रयं पतद् वियतः पश्य सुरप्रभावतः॥ असति द्रमवल्लिजे सुमे जननाशो सुखिनी कथं भवेत् । इति तत्सुखहेतवेऽगुहेप्रमुखा अग्निमखे विशन्त्यमा
हिमतो हि मतोऽपि मे रुचां निवहोऽल्पो भवितेत्यऽवेत्य तत।
निदघे रविरक्षयं महः स्वयि रे-ति निजाभिधाद्वितम् ॥ ८ ॥ १२ १ सारसहितं ससारं हृद् हृदयं यस्य सः । २ मिहिकांशुश्चन्द्रः । ३ मिहिका-धूमिका-मातः काले पतद रिमम।
हिमरोचि:-चन्द्रः । ५ विभाविभु-सूर्यम् । ६ सवितारं-सूर्यम् । ७ आशा-दिशा अपि । ८ सूर्यः। ९ आम-पाप। १० दोषा-8 राय:-अपि । ११ बृहस्पतिः । १२ अगुरुधूपविशेषः । १३ सूर्य । १४ शीतकाले हि जना अग्निशकटिका अभितः शीत-8 निवारणाय करयुग्मं स्थापयन्ति, तल्लक्ष्यीकृत्य कविना एतद् उदक्षि मुरसम्-खगं गगनगम्-चित्रभानुं सूर्यम् । १५ जन-४ नासा-श-सयोरक्यात । १६ अगुरुप्रभृनयो धूपविशेषाः। १७ त्वयि भरतसम्राजि 'शूर' इति निनाभिधाम ।
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पुष्परीक इति बन्दिराय वादिने वरवीरेषु मणिः शिरोमणिम् । भरताधिपतिः प्रदत्तवान् निजमुष्णां समानतेजसम्॥ पहिला
प्रणते शिशिराशयः क्षतिं स नरेशः शिशिराश्रयां श्रितः । जगदे जगदेकपालनः सुविवेकाद् मुदितेन पन्दिनाः -२
मपत्रनिपातनाशुगै रचयन् को-रपतीव्रतामपि । नरराज ! रराज फाल्गुनः स्फुटवैरोचेंनधामवृद्धिदः ॥११॥४, हरिद हरि प्रभा द्रुषु स्फुटपत्रं दयितामुखेन्दुरुक । कुसुमं च तवानपिङ्गतां शिशिरोऽप्यातनुते फलोचयम् ॥
वसन्तवर्णनाचलिते तदिलातलादिलाधिपतो चार वसन्तवर्णनाम् । अथ मागध एष वागंधाकृतपीयूषरसोऽगिरद् गिरः ॥
मुकुलालिकुलाऽतिसंकुला वकुला भान्ति पुरो धराधिप! । किमु मौक्तिकनीलरत्नजाः स्मरभूमीश्वरकोशराशयः ८ अलीनां पटले तमोऽन्तरे ज्वलिताऽग्लाविय चम्पकोत्करे । स्मर एष स योगिनां गुरुईतवान् पहिरहातहत्तिलान । त्रिजगत्प्रिगतामहश्यतां सुतनूनामपि वर्णनीयताम् । ललिता जगदात्यहेतुतां लभतां किन सतां मता सेताम् ॥४॥
(युग्मम्.) १६॥ मुक्कुरोत्थपरागपिञ्जरामलिमाला परमालिकामिव । ऋतुराजरमाऽध्यरोपयत् सहकारेऽत्र पिकदिजोदितात् ॥ १ १ उष्णांशुः-सूर्यः । २ क्षतिं कृत्वा मणते न जने यो नरेशः शिशिराशयः शीतलाभिप्रायः । पुनश्च शिशिराभयां शीतल
समयां स्थिति स्थितः-दति गम्यते । ३ को पृथिव्याम, रखतीव्रताम-पदवीव्रताम्-खरसडाटम्, कौरवाणां तीव्रतां च ।। १४ फाल्गुनो मासः, अर्जुनश्च । ५ वैरोचनः-सूर्यः । ६ हरिदश्यः-पूर्यः । ७ तद् इलातलात् । ८ वाचा अधः कृतः पीयूषरसः
येन सः । ९ योगवताम्-संयोगिनाम् । १० पुरोहितः । ११ स्मरः। १२ आम्रवक्षे । १३ अन्यत्रापि हिजोदितात् ब्राह्मणोदितात् वरमालारोपणम्, अत्राऽपि दिनोदिताव-पक्षिवचनात् ।
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రంగారమయును నయం .0000000000000
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पुण्डरीक-अलिगायनसंकुला कृतद्विजतोषाऽद्भुतमञ्जरीध्वजा । मधुरा मधुराजधानिका पुरतो भाति रसालमालिका चरित्रम्. ॥ ३९ ॥ दददेष सुवर्णवत्फलं कलकण्ठैः सुमनोलिहैर्वृतः । तरुराजिषु राजतां वहन् सहकारो नरराज! राजताम् ॥
शिशिरं परिपीय यद् भृशं भुवि वृद्धोऽपि वयस्येतद्वनम्। द्विविधं सुरभीकरोत्यसौ सुकृतज्ञो नृप! पाटला-तरु॥ ४३ फणिवल्लियनं विलोक्यतां कृतकर्पूरसुवेगवेष्टनम् । सुखयेद् गुणयोग्यताजुषामपि संगो नयनानि धीमताम् ॥5
पवनः परिगृह्य निर्मलं घनकर्पूरपरागमम्बरे । अविवृत्य धृतालि-कालिमं कुरुते चन्द्रममुद्रतेजसम् ॥२२॥ मयने नय नेतरत्र तां नयनेतः ! प्रति मागवल्लरीम। बचसाऽखिलचित्तरञ्जिनी सुरसंज्ञामपि या तु रञ्जयेत रदनादिपरिच्छदावृता रसनिर्मलभारतीश्वरीम् । कुरुतां वर्सनान्वितामिय क्रमुकं नागलतावरञ्जनात् ॥२ ४ किल नीलदुकूलकनुली रतिराज्ञी हृदयस्य कोमला । फणिवेल्लरिका स्मरप्रभोः शिरसि श्रीकरिका जयत्यसो॥१ १ सुदृशां हृदयस्य मोहनं नृप ! कपूरतरं पुरस्कुरु । अमुमत्र पिशङ्गपत्रिणा प्रवृतं नागलताद्वयेन तु ॥२६॥ इतराः फणिवल्लयो वने निखिला निर्मलनीलकान्तयः । इदमत्र नवं लतायुगं शुभचामीकरचारुपत्रयुक् ॥२७॥
४ घनसारतरोः ससौरभं नवसौभाग्यमहो किमप्यदः । इदमीशवल्लरीद्वयं परिरभ्याऽस्ति रसाकुलं हि यत् २८४ १२ ४ इह देव! तव प्रियाऽऽगमे भवताऽकोप्यधुनेति निश्चितम् । वसुधा प्रियमत्र सौम्यरुक् वदतीयं वसुधाप्रिय! त्वयि॥४
१ द्विनाः पक्षिणः । २ मधुर्वसन्तः । ३ सुमनांसि पुष्पाणि । ४ शिशिरं शीतकालजलम् । ५ मित्ररूपं तद्वनम् । ६ फणिवल्लिः ताम्बृललता । ७ धृतः अलीनां भ्रमराणां कालिमायत्र परागे । ८ नागवल्लरीम्-ताम्बुलवल्लीम् । ९ सुरसज्ञाम8 अनुस्वारस्तु काव्यवैचिच्यार्थम्-इति गम्यते। १० वसनम्-बखम् । ११ फणिवल्लरिका-ताम्बूललता । १२ मानसूचक-? चिहविशेषः। १३ नावगतो यं यथार्थम् । १४ तव निमित्तम् ।
॥३९॥
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॥४०॥
पुन्हरीक-नरसिंह सुसिंहविष्टर त्वमिहाऽल कुरु विष्टपाधिप।ऋतुराजसुखं गृहाण च श्रममुचैनिहाण च क्षणम् ॥३०॥
अनुमत्य सुरागधीगिरः क्षितिपो निर्मलमागधीगिरः। स तु रङ्गमिवाऽऽत्मचेतसि प्रवहन्नेव तुरंगमत्यजत्॥३१॥ अथ तत्र मृगेन्द्रविष्टरे विनिविष्टंऽखिलविष्टपेश्वरे । भरताधिपवल्लभाऽपि सा गुरुभद्रासनमाश्रयत् पुरः ॥३२॥ नृपदृष्टिमथो निजांशकैविरजीकृत्य तदा प्रियंवदम् । उपदेशयति स्म चासने सुदृशो नोचितवञ्चिताः क्वचित् ॥ अथ भारतभूपभूषणप्रचयाय प्रसवावेचायकाः। कुसुमावचयाय नायकाः प्रययुदिव्यवनान्तरेऽभितः ॥३४।। पुनरप्यवदत् प्रियंवदो निभृतं संभृतकोतुकोत्सुकः । इह दिव्यविमानमद्भुतं गगने याति विमोऽवधीयताम् ॥
काऽप्यमरी निजेश्वरी प्रति कस्याऽप्यधिपस्य वर्णनम्। विदधाति ततो जगत्प्रभो! निभृतीभूय निशम्यतेक्षणम अनुमत्य सुमत्यलंकृतं वचनं तस्य चकार चक्रयपि । श्रवणो श्रवणोधतो निजी नमयेत प्रेम मम प्रभोरिति 108 अथ भारतभूपतिस्तदा सकलान्तःपुरसंयुक्तो मुदा । अशृणोत् स्वशिरोऽम्बरादिति श्रुतिलेपे घुसृणोपमं वचः ॥
तथाहि-गगने देवीकृता भरतवर्णना४ अमरीणामरीणां च महसां मोहयन् मनः । स वीरवरशृङ्गारो जीयाद् भरतभूपतिः ॥३९॥ यो राजा यदु () वाचि भङ्गमतनुं कम्पं तनो सर्वतो वैवय निजदर्शनेन विततं स्वेदं च रोमोद्गमम् । वामानां द्वितयस्य मानहननं मारेण कुर्वन् समं राजारं च भयं च यत् पृथगदात् तत् कर्मजं तत्फलम् ॥४०॥ आदौ येन सुविग्रहे क्षतर्मुरः पीठे प्रदत्तं रसात् संप्राप्य द्विविधा अपीह सुभगंमन्या महानायकाः।
१ पुष्पोच्चयकारकाः । २ न गम्यतेऽत्र यदु-शन्दार्य:-कदाचित् 'यदु' स्थाने न्यदपि पदं भवेत् । अथवा 'यद्' * इति 'यत्+उ' एवम् अव्ययं भवेत् । ३ क्षतम्-खण्डितम्-उरः वक्षस्थळम् ।
1 ॥४०॥
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चरित्रम्.
पुण्डरीक-रङ्गाद् नित्यरताः मुलब्धविषयाः निजित्य संतोषिता:-तस्यैकस्य सुवर्ण्यतेऽत्र महिमा श्रीवीर-शृङ्गारिणः ४१
क्रान्त्वा भूमिभृतां शिरांसि सहसा सर्वत्र लब्धोदयो यः शुद्धोभयपंक्षभाक कुवलयामोदप्रदोऽहनि ॥४१॥ ४ा 'ज्ञानोन्नम्रसरस्वतीरसभृतात्-यजन्म जज्ञे जिनात् सोऽयं सूरगणे कलां प्रवितरन् जीयात् स्थिरेन्दुर्नवः ॥४२॥ तस्तनुकम्पनेन शिशिरो निष्पत्राधानतः, तजातिप्रसवंच्छिदे मधुरसौ ग्रीष्मस्तु संतापनात् ।
वासनात् शरदहो! तच्छीर्षविच्छेदनात् शत्रौ षड्विधकाल एव यदसि प्रादात् पुनः पञ्चताम् ॥ ४ बाहुर्यस्य विषादकजलजलस्थानेषु दुर्वैरिणां वक्त्रेषु स्फुटखड्गलेखिनिकया साक्षेपनिक्षिप्तया। सदिभित्तिषु सुस्थिरां जयभवां कीर्ति प्रशस्ति स्थिरा-मेणाद्युतिनिर्मलां यदलिखत् तत् कस्य नात्यद्भुतम्॥8 यो राजा च्युतधर्मिणां क्रमयुगप्रक्षालनोत्थैर्जलैः श्रीखण्डद्रवसान्द्रित रचितया दानक्षणे गङ्गया । ४ कालिन्दी रिपुकामिनीनयनजैर्नीरैः कृतां साञ्जनैः संमील्याऽङ्गजतां व्यभासयदसौ तीर्थकरस्यात्मनि ॥४५॥४ 8 १ पर्वतानाम्, राज्ञां च । २ उभयपक्षमाक्-मात-पितृशुद्धपक्षमाक्-पक्षे शुक्ल-श्यामपक्षमाक् । ३ कुवलयम्-पृथिवी
वलयम, पक्षे चन्द्रविकासि कमलम् । ४ मूरगणः शूरगणः, मूर्यगणश्च । ५ भरतराजो हि हेमन्तः-शत्रुशरीरकम्पनेन । १२१६ शिशिरः निष्पत्रतायाः पर्णरहिततायाः, शत्रोः निष्पत्रताया आधानतः । ७ मधुर्वसन्तः-शत्रुजाति-उत्पत्तिच्छेदनाय । ४८ शत्रुहंसानां निवासनात् । ९ शत्रुशीर्षविच्छेदेन शरत् । १० एतत् तु आश्चर्यम्--यः पविधोऽपि यस्य असिः पञ्चतां
मृत्युम, पञ्चसंख्यात्वमपि । ११ एणाङ्कश्चन्द्रः । १२ च्युतधर्मिणां युगलिनाम्-जैनसंपदाये युगलिनो धर्महीनाः (१) प्रसिद्धाः। यथा हि ऋषभजन्माभिषेके युगलिभिर्जलगङ्गा प्रवाहिता तथा भरतेन रिपुकामिनीनेत्रनीरैः साञ्जनैः यमुना प्रवाहिताइति पितृवत् पुत्रेण कृतम् ।
8॥४१॥
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पुण्डरीक-यः स्वर्णान्यवगम्य गाढमृदुतामाश्रित्य रत्नोचयं त्यक्त्वा क्षारमिहाऽश्व-वारण-मणीन् सुज्ञानतः कामिनीम्। चरित्रम् ४२ ॥ साधूक्त्या हृदि कल्पितं प्रवितरन मेरुं चरन्नाचलं वार्धि कामगवीं च कल्पफलदं वेगाद् विजिग्ये विभुः ॥४६॥ ४ सर्ग:-२
किंबहुनाहयद्वाक्यं न शृणोत्यसौ न स कवियों नेक्षते साऽमरी नारी चारुचिराऽपि नैव सुभगाऽरण्याकुलीपुष्पवत् । विश्व यानभिषेणयेन्नहि नृपास्ते न प्रशंसास्पदं ते स्यूनों हृदयालवो हृदयगो येषामसौन प्रभुः ॥४७॥
देवि ! गङ्गे यमधिपो रङ्गं गेयगुणोऽकरोत् । पीयूषरसनाशां तु रसनां मे विभयंसौ ॥४८॥ ४ अलंकृतसुवाग-ऽङ्गा गङ्गाऽग्रे का वदत्यसौ । सुभद्रयेति तन्त्रोक्ते व्योम्नि प्रोचेऽथ जाह्नवी ॥४९॥ ८४मनोरमे! तवाऽऽसिच्य गवां पीयूषवर्षिणीम् । जातो मद-प्रमोदाढ्यौ कौँ मे तर्णकाविव ॥५०॥
मनोरमे ! मनोरं मे रमयित्वा वचोऽमृते । मनोरमेऽथ विरम तृष्णाशान्त्यै सुधां पिब ॥५१॥ 8 अमुं मम वनाऽऽयातमवनायाऽवने स्थितम् । द्रष्टुं याम्यथ चक्रेशं चक्रे शं योऽत्र जन्मिनाम् ॥१२॥ ४ प्रविश्य कर्णयोरस्य गुणैर्वद्धवा मनो मम । तत्पार्श्व जगृहे तन्न शक्नोम्यत्र विलम्बितुम् ॥२३॥ ४ अनयोर्वचनं परस्परं प्रवदन्त्योर्मनसोऽनुरागतः। व्रजति स्म विमानमाशु तत् नृपचित्ते प्रवितीर्य विस्मयम् ॥५४४ ४ अबलामुखतः स्तुतिः श्रुतेत्यतिमन्दाक्षविलक्षमानसः । स तदा स्थितवानऽवाङ्मुखो वसुधावर्जेधरो हृदा गुरुः॥४ ४ मम जीवितवल्लभः सुरा-ऽसुरनारीहृदये शेयो ध्रुवम् । इति तत्र तदा सुभद्रया विकसद्वक्त्रसरोजया स्थितम्॥8
१'आकुली' भाषायाम्-'आवळ' शब्देन ख्याता, तस्याः पुष्पाणि पीतानि मनोहराणि प्रसिद्धानि । २ अवने:-पृथिव्याः, अवनाय-रक्षणाय । ३ शं-मुखम्, चक्रे-कृतवान् । ४ वजधर-इन्द्रः। ५ शेते इति शयः-निवासी।
४॥४२॥
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पुण्डरीक-8 वदति स्म ततः प्रियंवदो जय कपूरतरोऽतिथिप्रियः। विर्ष ()तोऽप्युपनीय सेवनात् प्रददौ यः सुवचासुधा मम॥ ४ चरित्रम्. ॥४३॥ नृपनाथ ! मया सदा तव श्रवंसी आश्रवसीमसेविते । मम कर्णसुखं मनोरमां परिहाय प्रददाति कोऽधुना ॥५८४ सर्गः-२
अथ ताः कुसुमावचायिकाः कुसुमालंकरणानि भूभुजे। ग्रथितानि सुभङ्गिभिर्नवान्युपनिन्युनयनाग्रतस्तदा ॥५९४ नृपतिनृपतिप्रियाऽपि सा मणिभूषां प्रविमुच्य पर्यधात् । कुसुमाभरणानि कोमलं सुरभिं कोऽमलतान्वितस्त्यजेत् ? विहिताद्भुतपुष्पभूषणस्तुरगस्थोऽखिलभूविभूषणः । प्रचचाल निजप्रियायुतो धृतसन्नाह इव स्मरोऽङ्गवान् ॥६१
ग्रीष्मवर्णनाःअथ तत्र तेपर्तुशोभितां जगतीशो जगतीमधिश्रितः। जगदे मुदितेन बन्दिना रवितापाऽपनयोद्यतं वचः ॥३२॥४ सविताऽपि सुनिष्टुरैः करैर्जगतीप्राणमतिप्रतापयेत् । दहतीह च भूतधात्रिका न तु दुष्काल इदं किमद्भुतम्॥६३४ जैडसंगमकोऽत्र गोपतिर्भूशवरस्य॑विवर्धकोऽभितः। इति दुःखत एव धात्रिका-हृदयं त्यक्तरसं तदाऽस्फुटत्॥६४४ तर्पनाऽऽतपतप्तरूक्षितक्षितिवीक्षारुषिते स्ववीक्षणे । नृपते ! घनगोस्तैनीवने शिशिरस्त्यानवसे प्रसादय ॥६५॥ रसनात् सुखमद्भुतं फल रसनायां ददती तु नेत्रयोः। निजदर्शनतः सुनीलतार्यंत एवाऽघनगोस्तनीलताः॥६६
१ विषं हि जलम्, पाकेसरम्, मृणालश्च । २ श्रवसी-कर्णों । ३ आश्रवसीमसेविते-आसमन्तात् श्रवस्य-श्रवणस्य सीमा 8 ४ सेविता याभ्यां ते । ४ निर्मलतायुतः । ५ तपतुः-ग्रीष्मर्तुः । ६ दुष्टः कालः । ७ जलसंगमकः-ड-लयोरैक्यात् । ८ गोपतिः ४ सूर्यः-भूपश्च । ९ वैरस्यं विरसताम् । १० तपनः सूर्यः । ११ वीक्षणं नेत्रम् । १२ गोस्तनीवनं द्राक्षावनम् । १३ शिशिरेण स्त्याना वसा वल्लिविशेपो यत्र । १४ बहुवचनम् ।
॥४३॥
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सग:-२
पुण्डरीक-8 सरसी सरसीहै {ता सरसीभूतसमीरसेविता । स्वरसेन रसेन ! दृश्यतां गमिता हंसगणैः सुदृश्यताम् ॥३७॥8 चरित्रम् फलशालिसुशालशालिताऽस्ति च पालिजिनधाममालिका।
क्षितिपालशिराप्रपालितक्रम! पश्याऽद्भुतविक्रमक्रमा ॥३८॥ आन् मधुपायिनोऽतनोद् नमरी विभ्रमरीतिरभुता। धवला धवलालिता शृशं वरलाऽऽस्ते वरलास्यसंगिनी॥ इह हंसकरैर्विकासिता शचि सैरपि सेविताऽब्जिनी । स्वरसं मधुपाय यदी तदियं पङ्क-कु-लीनता स्फटा॥ कलापात्रे चन्द्रे यदनभिमुखी सा कमलिनी, करस्पर्शात् स्मित्वाऽपि न भजति सूरान्तिकमहो!। शरीराशान् भोज्यं सितविहगवर्गाय ददती, रसं रोलम्बेऽदात् तदनवगतं स्त्रीहृदि गतम् ॥७॥ इह दिव्यसरोवरे सरोरुहरम्येऽमृतपूरपूरिते। जलकेलिविलासतः क्षणं तनुतापं तनुतामथाऽऽनय ॥७२॥ ४ इति वाश्रवणेन कौतुकात् सरसोऽयं सरसोऽन्तरेऽद्भुतम् ।
प्रविवेश विशामधीश्वरो निजजायात्रजशोभितोऽभितः ॥७३॥ 3 १ सरोवरम् । २ कमलैः । ३ सरसीभूतः रससहितः । ४ समीरणो वायुः । ५ रस-इन !-रसस्वामिन् ! । ६ विभ्रमा विविध
भ्रमयुता रीतयो यत्र सा । ७ घवेन स्वामिना लालिता। ८ वरला हंसिनी । ९ सूर्यकरैः । १० अब्जिनी मूर्यकरैविकसिता, पवित्रहंसैः सेविता अपि स्वरसं श्यामाय-पङ्करङ्गाय मधुपाय एव ददौ-न निजरक्षकाय-निजाश्रिताय च, अत एव तस्याः पङ्क-कुलीनता-पङ्कपृथिवीलीनताऽवसीयते-पङ्काद् हि जातं पङ्कवर्णेन एव प्रीतिमेति । ११ अब्जिनी-स्त्रीहृदि गतं कौटिल्यमे
तत्-तस्या रागो न कलापात्रे चन्द्रे, न सूर्य, न हंसे, अपि तु श्यामे रोलम्बे भ्रमरे । १२ तनुताम् कृशताम् । १३ प्रथ-8 8 मान्तम् । १४ पठुयन्तम् ।
॥४४॥
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पुण्डरीक - टमणी रमणीवृतोऽशुभत् रमणीयो रमणीयसः स्मरात् । अंधिको जगतां रतीश्वरो हरवदेरिव गोपितोऽम्भसि । किल किश्चित् कोमलेक्षणा रमयित्वा सुचिरं मृगेक्षणाः । विरराम ततोऽभिरामंरुग् जलकेलीरसतो रसाधिपः ॥ नवरो ह्यवरोर्धेयुक् सरस्तटगोऽयं रुरुचे रुचेः पदम् । धनकौलमतीत्य तारिकाकलितो निर्मलचन्द्रमा इव ।। धृतसद्दशचीवरस्तदा शुशुभे भूमिशैचीवरः स्थितः । किमु शारदचन्द्र - चन्द्रिकां परिधी या स्ति सुवर्णपर्वतः १ ॥ अथ देवगृहं हिरण्मयं नृपतिर्वीक्ष्य विवेश यावता । मकरध्वजमूर्तिमद्भुतां पुरतस्तावदसौ व्यलोकयत् ॥७८ गुरुदिव्यसरोवरोद्भवैर्जलजैस्तं परिपूज्य च स्मरम् । स नृपोऽस्य च रङ्गमण्डपे किल शिश्राय मृगेन्द्रविष्टरम् ॥७९ भरतेन सुरीसमागमः -
इह काऽपि सुरी सुंरीतिवित् समुपेत्य प्रणिपत्य तं नृपम् । अवतंसितपाणिपद्मका विदुषी प्रौढिमयुक्तमब्रवीत्। विजयख चिरं जगत्त्रयप्रभुनाभेय जिनेन्द्रनन्दन ! अवधार्य वचः सुधानिभं वसुधाधीश ! शृणु प्रसव मे ॥ भरतक्षितिवासिनीचतुर्दशसाहस्रमदीश्वरीवृता । तव दर्शनमिच्छति प्रभो ! ननु गङ्गा निजचित्तरङ्गतः ॥ ८२|| ४ इति तद्वचनं निशम्य स स्मितलीलाललितं किलाऽलपत् । तव वाग्विषये मनोरमे ! मम हर्षेण मनोरमेधते ॥ ८३ ॥ अथ भारतभूपतिप्रिया सहसा साऽऽह सुहास्यवासितम्। वचनाद् विदिता मनोर मे (?) जगतीजीवितनाथ ! किं तव इति तद्वचनं निपीय सा मुदिता यातवती च यावता । अभवन् सुविमान राशयः प्रकटास्तावद्धाऽम्बरे सुराः ॥
४
१२
१ स्मरादपि रमणीयः । २ जगतां हि प्रियो रतीश्वरः कामः- शिववहेः भयात् जले गोपितः प्रच्छन्नीकृत इव भरतः सरोवर-गतो भाति । ३ सुन्दरकान्तिमान् । ४ अवरोधो हि अन्तःपुरम् । ५ पदं स्थानम् । ६ मेघकालम् । ७ भूमिइन्द्रः । ८ परिधानं कृत्वा । ९ मेरुः । १० सिंहासनम् । ११ सुरीतिं वेत्ति । १२ अरम् अत्यर्थम् - एधते - वर्धते ।
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चरित्रम्
सर्गः - २
।। ४५ ।
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चरित्रम्
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पुण्डरीक-तत एकत उच्चयानतः खसखीवृन्दसखी स्मयन्मुखी ।मुदितोदतरत् पुरः प्रभोरिह भन्दाकिनिदेवता जवात्।।८३/४ ॥४६॥8 सुरीदर्शनाद् भरतो विस्मितः
सर्गः-२ निजदेहमहोजेले नृणां नयनं नीरजैयन्त्यसौ तदा । भरतेशितुरप्यऽपाहरत् हृदयं रागतरङ्गभङ्गिभिः ॥८७॥8 ४ अथ स त्रिदशापयां स्मरदिपलस्नेहिलसारसौरभम् । अवलोक्य रसाधिपो रसादिति चित्तान्तरचिन्तयच्चिरम्।
विद्गोरससंभवं स्मरविधिः सत्पौष्यभन्यानतः, शृङ्गार सुदधि प्रमथ्य जलितेहैंयङ्गवीनैनवैः । यदेहावयवान् प्रयत्ननिरतः सुस्नेहिलान् कोमलान , स्फ़र्जत्सौरभसंभृतान् व्यरचयन् मन्ये मनोमोहिनः ८९९
कारं दधि पात्रके व शशिनि प्रयोगुणावेष्टिना, वैशाखेन यवाभिलाषनिचयेनैव स्वभार्याकरे।।। ८ निर्मथ्य व्यतनोदिमा स्मरविधिः सारैः कपायादिमंत्, ज्योत्स्नातक्रममुश्चदम्र जगतस्तापोपशान्त्यै ध्रुवम् ॥९०४ 8फुल्लत्तामरस रसप्रविलसत् सौवर्णनालं स्फुरत्, पञ्चप्रोज्ज्वलपद्मरागकलितं साच्चेत् प्रसर्पत्प्रभम् ।।
अस्याः शोणतलस्य निर्मलनखज्योतिष्मतः भोल्लसज-जहाऽनयमचनुतस्तु सरतां दध्यात् पदाम्भोरुहः ॥९१४ 8 अरम्भाद्या रम्भा न इरिरणुसंध्यो न कलसः, सुवर्णः सौवयों न भवति मृणालं न मृदुलम् । न कम्बुः शोभाम्बुस्थितिरशितिर सोऽपि शितस्क, सगह: स्याद वहीं सुतनु ! तनुमालोकितवताम् ९२४ प्रत्यंशं प्रतिवासरं निजतनुं छित्त्वा कलकाकितं, चन्द्रः पर्वणि चित्रभानुमहसो मध्ये जुहावाऽऽशु यत् ।
१ मुदिता उदतरत्-उत्ततार । २ निजदेहतेजोजले । ३ नीरजयन्ती कमलयन्ती-कमलं कुर्वती-नीरजं हि कमलम् । ४ ४ चित्तान्तः अचिन्तयत् । ५ स्मरब्रह्मा । ६ पुष्पाणां समूहः पौष्पम् । ७ कषायरसादियुक्तं तक्रम् । ८ विकसत् । 8 ९ मध्ये कृशः । १० श्वेतकान्तिः चन्द्र:-अपि शितरुक श्यामकान्तिः । ११ मूर्यतेजसः ।
४॥४६॥
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पुण्डरीक-8 अस्या आस्यशुकं तक्षियपदं तत् प्राप दुष्प्रापयाक्- पीयूषप्रसारात् प्रसिद्ध विबुधप्रीतिपदं प्रोज्ज्वलम् ॥९३॥ ॥ ४७ ॥ निःश्रीकं नवनीलनीरजमहो ! लीलोऽनिलान्दोलितं ज्ञातेयाय चलन् कृतप्लुतिरपि स्यात् खञ्जनः खञ्जरुक् । सारङ्गी भयतस्त्रसत्प्रचलिताऽपाङ्गाऽपि रङ्गाय नो अस्याः प्रेक्ष्य मद-प्रमोदरसकृत्संवीक्षणे वीक्षणे ॥ ९४ ॥ दोषोत्थानमवेक्ष्य नाशमपि च ज्ञात्वाssयुपस्तौ खलु चक्रौ तीव्रतरं यदक्षतमिह ब्रह्मव्रतं चक्रतुः । तेनाऽस्यां स्मरवासचामरपुर प्रौढस्तनो निर्जरी, जज्ञाते सुकृतेन सुस्थिरनिजज्ञातेयसंयोगिनौ ॥ ९५ ॥ इति चिन्तnists भूपतेः पुरतः क्षीरतरङ्गगौरस्क् । कलिताद्भुतरत्नपादुका प्रलुलन्नीलदुकूल भासिनी ९६ अमरेंद्रुमपुष्यम्फनोत्तमधम्मिल्लसलसत्प्रभा । मितदिव्यविभूषणा सुरी सुरसिन्धुः पुरतः समाययौ ॥ ९७ सुरीकृता भरतशंसाः
४
८
अथ भारतभूस्थिराखिलत्रिदशैश्वर्यमवश्रिया श्रितम् । द्विसहस्रमितैः सुरोत्तमैः सकलाङ्ग विकलङ्कतेजसम् ॥ ऋषभप्रभुनन्दनं नरामरशृङ्गारशिरोमणि तु सा । अवलोक्य सविस्थ्य-स्मय- स्मर-हर्ष- स्थिरसाध्वसाऽजनि ॥ उपठोकयति स्म ढौकनान्यथ यावच सखी मनोरमा । इह तावदियं सुरापणा हृदये ध्यातवतीति विस्मिता २०० १२ 8 गरि गुणिनां गुणज्ञतां हलितत्वं चतुरत्वनिर्मलम् | जगदुत्तम निस्तस्तनुप्रतिभैवारय विभोर्विभासयेत् ॥ १ — इति विस्मयः ।
१ शुको हि प्रसिद्धः । २ नं वृद्धिं गतम् । ३ अनिलः पवनः । ४ ज्ञातिभावाय । ५ खञ्जकान्तिः । ६ दोषाया रात्रेः उत्थानम्, दोपस्य उत्थानम् । ७ नामाक्षराणि पठितुं शक्यन्ते - पुस्तके ' त्वक्षपः' इति अस्पष्टम् । ८ चक्रवाकीaarat | ९ ब्रह्मचर्यम् | १० अमरद्रुमः कल्पवृक्षः |
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चरित्रम्.
सर्गः - २
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पुण्डरीक- 8 अयमा दिजिनेन्द्रनन्दने भुवनेन्द्रो धृतरागधी-रयः । हृदयं मम धीरयत्यपि स्वदृशा सौम्यरुचिस्पृशा भृशम् ॥२॥
— इति स्मयः ।
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भुवनोत्तमकामिनीजनो हृदये ध्यायति यं रतक्षणे। रमयेद् यदि सोऽपि मां विभुः
परशृङ्गारसुवासुवाम्बुविः ॥ ३ - इति स्मरः । भरतेश्वरनेत्रजं जनद्वितयीहृत्कमलेऽस्ति मे तथा । अचिरादपि कामिनीजनप्रभुता संभवितेति वेद्म्यहम् ॥ ४ इति हर्षः ॥ किमु मौग्ध्यमथो महोदधेः किमहं ज्ञानमहोदधेः पुरः । विदुषा विभुनाऽधुनाऽमुना सह शक्ष्यामि न वक्तुमुत्तमम् ॥५ - इति साध्वसम् ॥ चिरमित्यनुचिन्त्य ढौकने निहितेऽसौ सुरसिन्धुदेवता । प्रणनाम सखीशताऽऽवृता भरतं भारतभूमिदैवतम् ॥ ६ ॥ या सुरी सा गङ्गाः
प्रतिहारिकया सुविष्टरे निहिते रत्नमये सुरापगा । भरतेशितुरग्रतस्तद्ा प्रविवेश स्मितहृष्टलोचना ॥७॥ प्रथितप्रभुता - पवित्रितं पृथिवीशोऽप्रथयद् वचः शुचि। सुखिनी किमु देवि ! विद्यसे सं पुनाना जगतो जनं जलैः॥ अवदत् स्मितभासुरीकृताऽखिलरत्नप्रतिभा सुरी च सा ।
जयति त्वयि देव! किं कुतोऽप्यसुखं स्याद् जगदीश ! जन्मिनाम् ॥ ९ ॥ नवकीर्तिसरोऽन्तरे मनः - कलहंसः सुखितोऽस्मि मे तरन् । भवताऽस्मि कृता पवित्रितास्पदमद्य त्वनवद्यदर्शन! |
१ सु-आसने । २ स पृथिवीशः ।
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चरित्रम् सर्गः -२
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पुण्डरीक-8सुपवित्रय मेऽद्य मन्दिरं स्वपदाम्भोजरजाप्रसादतः ।इति मानसमानमुज्ज्वलं वितर त्वं सुतरस्विनां वर! ११/४ चरिम्। ॥४९॥ विनमः खचरेशितुः सुता नृपते ! जीवितवल्लभा तव । मम गेहमुपैत्वहं यथा निजशक्त्या विदधामि सेवनम्॥ ४ सर्गः-२
गङ्गागृहे भरतगमनम्४ इति भक्तिपुरःसरी सुरी सुरसिन्धुनरसिन्धुरं तदा । अधिरोप्य विमानमानयन्निजगेहे परिवारसंयुतम् ॥१३॥
विमलैः शिशिरैः सुगन्धिभिः सुकुमारैर्वसनैर्दिवोभवैः। विविधैरपि दिव्यभोजनर्जननाथं तमुपाचरत् सुरी।। ससुधावसुधासुधारितैर्ललितैनन्दनचन्दनः सुमैः । अनुरक्षितमानसं नृपं विदधे सा नति-मानसंगता ॥१५॥ 8 अवगत्य मनःप्रकाशितैः सविभावैः शुचिहावभावकैः। सुरसोऽप्यमरी जनो भवेत् इति भावं सुरतं सुरी व्यधात् ।
भरतस्य मनो मनागपि स्पृहयामास यत्र तत् सुरी। उपभोगविधावुपानयवधिज्ञानवती स्वशक्तितः ॥१७॥ 8 विनमेस्तनयां च भूपति सुरसिन्धुः समुपाचरत् तथा। न विवेद यथा मनस्तयोर्व्यतिरिक्ताममरीमिमां मुदा ४ अतिदक्षतयाऽतिसेवया ललितत्वेन वशंवदीकृतः। अथ ताममरीमरीरमद् भरतो मुद्भरतो रतो भृशम्१९४
४ गङ्गया सह दैविकं सुखं बुभुजे भरतः१२ विनमे सुतया च गड्यासह मानुष्यक-दैविकं सुखम्।बुभुजेसनिजेच्छयाऽच्छंयाऽऽसरमेशोऽत्र समाःसहस्रकम् ।
४सुरसं प्रविलोक्य हर्षितं सुरसंगीतकरोऽन्यदा नृपम् । स तु बन्दिवरः प्रियंवदो वदति स्म प्रकटोचविस्मयः॥8 ४ अयोध्यास्मृतिः
१ सुधासहितायां वसुधायां सुधारितैः । २ अरीरमत्-रमयामास । ३ हर्षभरतः । ४ अच्छया-निर्मळया । ४५ आस-चिक्षेप ।
॥४९॥
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पुण्डरीक-8 भुवनोत्तमवल्लभाद्वयान्वितमालोक्य भवन्तमीश्वर ! । घनसारतरं स्मरामि तं फणिवल्लीयुगलेन शोभितम् ॥४ परिवार
अथ सस्मितमाह भूपतिः किमहो! त्वद्वदनं प्रियंवद । चलितोत्कविलोचनद्वयं सुपरिम्लानमिवाद्य वीक्ष्यते ॥ 8 अवदत् तदनु प्रियंवदस्तदयोध्यानगरं विनाऽधुना। मम नो रमते मनो मनोरमभूमावपि संप्रति प्रभो!॥ असुखे न समेति रोचते निशि निद्रान दिने न भोजनम् । अत एव तनुस्तनुप्रभाऽजनि भूजानिशिरोमणे! मम छ यतः8"असुखंच सुखं चचेतसि स्थितमस्त्येव न जातु वस्तुनि।भविनःसुखिनः स्युरन यैर्य तिनस्तैरिह दाखिताःखल" भुवि किं नगराणिसन्ति नो बहवः किन जनाश्च सन्ति वा।निजजन्मपुरेसजन्मभिः सह यः स्यात् प्रमदः स नाऽन्यतः
ति तद्वचनात् सचेतनः समयित्वा कियतोऽपि वासरान्।समभूत्स्वपुरं समायितुंसमहीशः सहसा समुत्सुकः ६ अथ सा सुरसिन्धुदेवताऽप्यवगत्यैव मनो नरेशितुः। निजगाद चिरं प्रसादिता भवताऽक्षोभवताऽहमीश्वर !
तव दर्शनसौख्यसस्पृहा अथ साकेतनिवासिनीः प्रजाः । नृप ! मोदयतां भवान् मयि प्रणयो विस्मरणीय एष न 8 इति भोगवियोगदं वचोऽप्यवदत् साऽत्र सुरी सुरीतिमत्। विदुषी हृदिनो तथा सुखे यतते प्रेमविधौ यथा भृशम् । ४ उचितोक्तित एव रञ्जितो भरतोऽवोचत देवि : मेऽनिशम्। ददती मनसो मतं सुखं भवती विस्मरतीह किं कदा ४. गणोत्तरतटविजयः४ इति स स्ववशां प्रमोद्यतां सुरसिन्धुं भरतक्षितीश्वरः। प्रचचाल सुखेन सैन्यात् प्रविजित्याऽत्र तदुत्तरं तटम् ॥४ 8 खण्डप्रतिपातिकागुहाविजयः, नव निधानानि च१ उत्कम्-उत्सुकम् । २ यापयित्वा । ३ सुरीतियुक्तम् । ४ सैन्यम् एव पादौ यस्य सः ।
४॥ ५० ॥
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पुण्डरीक-प्रविजित्य सुरं व्यतीयिवानथ खण्डप्रतिपातिकां गुहाम्।सुरसिन्धुतटेऽथ दक्षिणे विजितेऽत्राऽऽप निधीनसौ नव चरित्रम्. अयोध्याप्राप्ति:
सर्ग:-२ प्रविधाय निदेशवर्तिनः सकलानित्थमसौ नरा-ऽमरान् । स्वपुरं प्रति चेलिवानथो स्वगुहां सिंह इवाऽतिदुस्सहः । भटेहेतिभिरत्र दर्शयन्निजतेजोऽङ्गुरकानिवाऽग्रतः। निजभूपशतातपत्रकैः कुसुमानि स्वयशस्तरोरिव ॥३६॥ अनतान् नमयन् प्रसादयन् प्रणतानुन्नमयन् विवेकिनः। विदुषः परिपूजयनयं तदयोध्यानगरं समासदत् ॥३७॥ अयोध्यावर्णना
(युग्मम् ) ४ मणि-तोरणराजिराजितां मुदितोत्कण्ठितपौरपूरिताम्। कुतुकाकुलसत्कुल स्त्रियं विलसल्लास्यविलासितेक्षणाम् । 8 अतिनिर्मलरत्नपुत्रिकाङ्कितमञ्चोच्चयचारुवीथिकाम् । निजदिग्विजयोत्थगीतिकाऽभिनवाऽऽकर्णनकर्णहर्षदाम कलमङ्गलतौर्यगजितेनटयन् केलिकलापिनां कुलम् । प्रविवेश पुरीमरीणरक भरतो मुद्भरतो नृपाधिपः ॥४०॥
(विशेषकम् ) ४स्वपुरोहितरत्ननिर्मितान् बहुमाङ्गल्यविधीन नयन् ययौ। निजसौधमसौ धराधवः शुचिसौधर्मसदः सुरेन्द्रवत् ४ १२४ चक्रधराभिषेक:४ कलमङ्गल गानपूर्वकं विधिना द्वादश वत्सराण्यथो । अभिषिच्य नरा-ऽमराधिपैविधे चक्रधरोऽयमादिमः ४२४ ___ भरतभगिनी-सुन्दरीकृततपांसि
१ आप पाप । २ भटहेतिभिः भटशस्त्रैः। ३ पुत्रिका-भाषायाम्-'पुत्तलिका' । ४ अक्षीणकान्तिः । ५ सौधम् । ४ आवासम् । ६ सौधर्मसभाम् ।
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पुण्डरी
स शशाङ्ककलामिवाऽमलामवलोक्याऽतिकृशां च सुन्दरोम् ।
8 चरित्रयू. सचिवान् परिपृष्टवान् नृपः प्रति तं प्राहुरमी अधोमुखाः ॥४३॥ मो:तव दिग्विजयाद्यवासरादियमुच्चैतसंजिघृक्षया । नृप! षष्टिसहस्रवत्सराण्यकृतोऽस्तांऽशनमद्भुतं तपः ४३४
सुन्दरीप्रवज्याअथ चक्रधरोऽपि सुन्दरीकृतचित्तसहसुन्दरीमिमाम्।परिगृह्य विभोः कराव्रतंस तदाऽऽदापयतिस्मसोत्सवम् । 8 लघुभ्रातृन् प्रति दूतप्रेषणम्
अभिषेकविधावनागतान वितते द्वादशवार्षिकेऽपि तान् अभि दूतगणं व्यसर्जयद् भरतोऽष्टानवति निजानुजान | ८स्वनमस्करणाच संगमाद् भरतेशः त्वरितं प्रमोद्यताम् । इति दूतवचो निशम्य तद् जगदुस्ते जगदुद्धरा नृपा
है अस्माकं स्वामी तु ऋषभ एव जनकः४ प्रविभज्य स राज्यमात्मनो जननोऽस्माकमदात् पुराऽस्य च । भवतां पतिरेष लोभतः कथमस्मत्त इदं समीहते।। ४ इतरेण नहि प्रयोजनं निजराज्यं ननु रक्षितुं क्षमाः। बलतोषजुषो वयं स्वयं कथमेनं प्रविदध्महे पतिम् ॥४९॥४
भरतो हि हतधी:हतधीरतिधीर एष चेत् रणरङ्गे समुपैतु तजवात् । न वयं च पराश्च एव भोः ! स्वशरैर्नर्तयितुं तमागतम् ५०४ रुषिता अपि भो! भृशं वयं निजतातेन समं विमृश्य तु । समर भरतेन कुर्महे कलहारम्भरतेन नाऽन्यथा ५१४
अष्टापदे ऋषभस्य देशना४१ अकृत-चकार । २ अस्ताशनम्-अस्तं क्षिप्तम्-अशनं भोजनं यत्र तपसि तद् अस्ताशनम् । ३ जननो जनकः-ऋषभदेवः४॥ ५२ ॥
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पुण्डरीक-इति ते प्रणिगय भूमिपाः प्रभुमष्टापदपर्वतस्थितम् । अभिगम्य मुदा प्रणम्य चाऽभ्यधुरुचर्भरताऽऽभियोगिकम् ।
चरिघर ॥ ५३॥ ४शुचिशान्तविलोचनांशुभिभगवानेष सुधाकणैरिव । अभिषिच्य जगी निजाङ्गजांस्तदसूयानलशान्तये किलाइ सा-१
अनंयाऽऽश्रितया श्रियाऽनया ननु यूयं तनया नयाधिकाः। कथमिच्छत संगम हहा ! शुचिचित्ता इव धूर्तवेश्यया । स्वपुराजितपुण्यनीरदात् धनपूरो भविता विनश्वरः। स्थिरमत्र तु केवलं ततोऽद्भुतशीलद्रुममूलनाशनम् ! अतिकुत्सतरैविनश्वरैर्भवभोगैः नरान्तकारकैः। इह तुष्यति रङ्कवजनः शिवराज्याय करोति नोद्यमम् ५६५ नृवरा-ऽमरराज्यसौख्यदः परमात्मा परमः सुरद्रुमः। प्रकटीक्रियतामथ व्रतविषयाशाविषवल्लिनाशनात् ॥१७॥ 8 अपमानकलङ्कपाप्मनां विषयेच्छा ध्रुवमूलमत्र भोः । तदिमामपहाय मुक्तये सुकृताख्याः कुरुताऽऽदरं रयात् । ४ वचसा मनसाऽङ्गकेन च श्रुत-सद्ध्यान-तपस्विह क्षमाः। दुरितान् कुशरीरसंगतान् ननु यूयं किमथो करिष्यथ 8 8 विभुवाक्यमिदं निशम्य ते शमिनः संयमिनश्च जज्ञिरे। भरताय निजेश्वराय तेऽप्यथ दृता अभिगम्य चावदन 8 8 भरतेन लघुबन्धु-राज्यानि ग्रसितानि
४ अथ भूतिभृतानि जग्रसेऽनुजराज्यानि स सार्वभौमराट्।स्फुटवहिरिवेन्धनान्यहो' अशनानीव धनानि भस्मैकी ४ १२४ भरतं सैन्यपो व्यजिज्ञपत्४ नरशेखरशेखरीकृतक्रमयुग्मं भरतेशमन्यदा। प्रणिपत्य सुषेणसैन्यपः समुपेतः सदसि व्यजिज्ञपत् ॥६२५४
१ भरतदूतकथितसंदेशम् । २ अनयो हि अन्यायः, तम् आश्रित्तया अनया श्रिया । ३ अत्र संसारे केवलम् -8 आत्मतचं स्थिरम्, अत एव यद् यूयं शील द्रममूलनाशनं कर्तुमुद्यता:-तद् अद्भुतम्-इति गम्यते । ४ पुस्तके तु 'परहांत । इति अस्पष्टम् । ५ रयाद् वेगात् । ६ अशनानि भोजनानि । ७ भस्मकी भस्मकरोगवान् ।
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पुण्डरीक- चक्र नहि संविशति
चरित्रम बलतो नमितोचभूधरे विहिते दिग्विजये प्रभो! त्वया। समदद्विरदः स्वशालिकामिव चक्रं नहि देव ! संविशेत् | ___को हि अजितः ?
सचिवः शुचिवाचमूचिवान् सुमतिः श्रीभरताधिपं प्रति ।
ननु कोऽस्त्यजितो जगन्जिति त्वयि नाथेऽपि रवी तमोऽशवत् ॥३४॥ बाहुबली अजितःस्मृतमाः! प्रथमस्तवाऽनुजोन महाराज! भृशं वशंवदः। स हि बाहुबली बलीयसांततिभिःप्रस्तुतविक्रमस्तुतिः 8 गुणरत्ननिधिबलाम्बुधिः सहितः स्वस्य महामहीधरैः। प्रसरन्निजमुद्रया स्थितः स्थिर-ओजोवडवाग्निभीषणः । 8 भरतो हि वणिक8 अविजित्य महाबलं ह्यमुंभवता दिग्विजयस्य कैतवात् । वणिजेव विदेशयायिता विदधे कोऽपि पराक्रमस्तु न ४ ४ अनुजः संमहा महाभुजस्त्वतिकीर्तिश्च बलं च मे ध्रुवम् । इति चक्रिवचो निशम्य स न्यग मन्त्रिवरः ससंभ्रमम् ।। ४ मन्त्रिणा भरतःप्रेरितः४ उपमेयबलोऽमुनाऽधुना भुवने त्वं भुवनेश्वरोऽपि सन् । विजितेऽत्र महाभुजेऽनुजेऽनुपमौजा भव चक्रनायकः ४ स्वसमं समुरेक्षसेऽथ तं सरल: स्वच्छनितान्तवत्सलः। लघुनाऽपि लघुकृतं वचो गणयिष्यन्ति नृपाः कथं तव:8 ४कुरुषे प्रथमं रणं न चेद् निजदूतं विसृज प्रभो! ततः । समुपेत्य नमत्यसौ यथेतरथा तु त्वममुं प्रणामय ॥७१॥४
समदो हस्ती। २ महसा सहित:-समहाः।
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पुण्डरीक-8 बाहबलिं प्रति दूतप्रेषणम्
चरित्रम् इति मन्त्रसमीरणविभा-वसुरप्येष नृपः प्रशान्तहृत् । प्रति बाहुबलिं दिदेश तु स्वकदृतं नय एष भूभुजाम्॥४ सर्ग:-२
दूतगमनम्४४ शतशोऽशुकुनर्निवारितः स सुवेगः पविवेगतो गमैन् । नियतं नियतिश्रिता गतिर्जगति स्यादिह धीमतामपि
बहुलीदेशकीतिः१कणराशिभिरुच्चितर्घनः सुख-लक्ष्म्य-ऽङ्गमणीगणरिव । बहलीकृतसंमदं दृशोबहुलीदेशमथो विवेश सः ॥७४॥ ३ १सुरशैलसमेतदेवता-सुखगीतादिजिनेन्द्रगीतिकाः। प्रपठद्भिरनुत्सुकैः शुभैः श्रितदूतद्रुमशीतभूतलम् ॥७॥ १ किल बाहुबलिः समेत्यहो! अपशास्त्रा-ऽनययुद्धनिश्चलः। इति भिल्लगिराभिरुत्त्रसद्गज-शार्दूल-मृगेन्द्र-भोगिनम् । 8 पथि पान्यवधूविभूषणद्युतिनिधृततमीतमश्चयम् । फलशालितशालि पालिनीललनाऽऽनीतसुबाभूपतिम् ॥७७॥
(चतुभिः कलापकम् ) ४ इति देशममुं व्यलोकयन् कुतुकैनव्यमनाः स इतना। इव देवभवं समागतं स्फुटमात्मानममन्यत ध्रुवम् ७८४
तक्षशिला४ अथ निर्मलशालशालितां स विलोलध्वजरा जिराजिताम्। स्फुटधर्म-यशोद्विवाससा सहितां तक्षशिलामवक्षत।
बाहुबलिना दूतसमागमः, बाहुबलिकृता भरतभर्सना चस विशिष्टमदो विशिष्टराट चकितः कौतुकितो विवेश ताम्। घटिकागृहपार्श्वगोरथं परिहत्याऽस्मरदीशवाचिकम् । १ 'गच्छन्' स्थाने 'गमन्' इति कवेर्वैचित्र्यम् । २ तमीतमो रात्री-अन्धकारः । ३ दूतपुरुषः ।
॥५५॥
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पुण्डरीक - 8 नृपवाक्यमवाप्य वेगतः प्रतिहारोऽथ सुवेगसंज्ञकम् । जलरत्नजकुट्टिमस्फुरज्जलभावं तमवेशयत् सदः ॥८१॥ नृपतिः क इति स्वसंशयं जनितं स्तम्भनिषक्तमूर्तिभिः । त्यजति स्म सविस्मयैर्वचोनिचयैर्वाहुबलेः स दौत्यकृत् ॥ ५६ ॥ प्रणिपत्य निविष्टवत्यसावध दूते नृपतिर्जगौ गिरम् । हृदयोद्भवहर्षवृक्षजस्मितपुष्पैः परिपूजितामिव ॥ ८३ ॥ अभद्र ! ममाग्रजो बहुकुशली तिष्ठति भोः ! प्रियंवद ! ।
अयि तेन जिताः सभासदः पृथिवीशाः किमु सन्ति सन्मुदः ॥८४॥
मुर्ख भारत । एष भारतं किमु जित्वा गतवान् महीतलम् । अधि तस्य परस्परं क्वचिद् न पुमर्थत्रितयं विबाधते इति भूपसुवर्णवागलंकृत कर्णोऽथ स दूत ऊचिवान्। स्मृतितोऽस्य जनाद् रुजाहजो व्रजति स्यात कुशली कथं न सः समरेऽसमरेख एष चेत् क्व भटः स्यात् प्रकटस्तदोत्कटः । तरणिर्यदि खे क्व तारको गरुडश्चेत् क्व नु चण्डकुण्डली जननीमिव जीवदां नृपा भरताज्ञां बहु मानयन्ति ते । न निजं विषयं त्यजन्त्यहो ! पुरुषार्था अपि तद्भयादिव अथ भारतभूमिभूमिपा भरतस्य स्वकभक्तिभारतः । विधुर्विदितं स्वचक्रितोत्सवमाद्वादशवत्सरीमा ८९ स निजाननुजान नागतान विवुध्यात्र महे महत्यपि । पुरुषानरुषा व्यसर्जयद् मुदितस्तैर्निजसंगमश्चिकः ॥९०॥ सु विकल्प ! धियो विकल्प्य ते किमपि स्वान् विषयान् विहाय च । सुमधुव्रततां समाश्रयन् विकसन्नाथकरार विन्दतः इति बन्धुवियोगनीरधौस विषादानवधौ निमज्जति । तदमुं प्रति धीर ! संप्रति त्वमुपेक्षां कुरुषे किमन्यवत् ॥ लघुबन्धुवशो न यद्यपि त्वमुपेतो नृपते ! तदुत्सवे । अपवक्ति तवैतदन्यथा पिशुनोऽयं हि निसर्गतो जनः॥ ९३ ॥
१२
४
८
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१ मुखस्य भायां शोभायां रत ! - वाचालशिरोमणे । । २ असमरेखो हि अद्वितीयः । ३ प्रचण्डसर्पः । ४ निजशक्तिभारेण । ५ निजसंगेन मञ्चे तिष्ठति इति निज-संगमञ्चिक:- समासनस्थायी ।
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चरिणम् सर्गः - २
।। ५६ ।।
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पुण्डरीक-भरतांहिनमस्कृतेः कृतिन् ! प्रभवत्कीर्तिसरित्यहो! निजम्।जनवादरजोयुतं गुणप्रचयं क्षालय भोः! प्रभालय! चरित्रम्. ॥ ५७॥ ४९९
इह भूरि धनं सभूधनः प्रदानोऽपि निखिलानुजीविनाम् । प्रियमानधनोऽतिनिस्पृहः स्पृहयत्यद्य तवाऽऽनतिं नृपसर्ग-२ इलघुबन्धुरहं मनोभ्रमः प्रविधेयस्त्वयि ! धेय ! न त्वया। शनिमात्मजमप्यहर्षतिग्लपयत्येव हि सूरभावतः॥९३) अवधीरयसेऽथ धीर ! चेत् प्रवरं चक्रधरं मदादमुम् । अरिभूमहवह्निरेष ते शलभत्वं सुलभं करिष्यति।९७॥
किं बहुना४ अवनेरवने च जीवने यदि वाञ्छा हृदि काचिदस्ति ते। स्वरसाच्छिरसाऽस्य शासनं वह भूपा अपरे यथाऽखिलाः ४/अमरैभ्रमरैरिवास्य यत् परिसेव्यं पदपद्मयुग्मकम् । पृथिवीतललेशदेशप ! प्रणमंस्त्वं किमु तत्रल ४ इति दूतवचो निशम्य स प्रबलो बाहुबलिनिजी भुजौ।अवलोक्य जगाद तत्क्षणे स्फुरति प्रेरयतीव दक्षिण|३००४ ४ मम संगममीहते स यत् रुचिरं तत् खलु पूज्य एव मे । यदनीनयदात्मनो भुजांस्तदहो! प्रौढवया स्थिरस्मृतिः४ यदमीषु शमीभवत्सु भो ! अतिवान्ता अपि राज्यसंपदः । अयमाहरदुत्लुकश्ववत् प्रकटस्नेह इवाऽस्ति ते पतिः४
लघुभिजित इत्यसइचो भुवि मा भूदिति ते पान्विताः। विधुश्चरणं रणं न तजितकासी स बभूव निस्त्रपः॥३४ १२४अपवक्ति च मां महाजनोऽनुजराज्यग्रहणोद्यतं न तम् । पुनरत्र वचोहर ! त्वया पतिभक्तिः प्रकटीकृता भृशम् ।
बाहुबलिना ऋषभ एव पूज्या, नान्यःवरिवस्य इहादितीर्थकृद् भुवनेऽन्यो मम नैव दूत! भोः । गुरुबन्धुतयानमस्कृति भरतस्याऽस्मि करोमिनाऽन्यथा लघबन्धविवासनांहसानाहियोग्योऽपिसमीहतेनतिम् । इति पापविशुद्धयेऽस्तु मे भुज उच्छेद-कशास्त्रशुद् गुरुः ह.१ प्रभामन्दिर । २ 'तु-अयि ' इति पदच्छेदः । ३ अवनेः अवने रक्षणे । ४ अमीषु अष्टानवतिभ्रातृषु । ५ संयम विदधुः। 8 ४६ 'अहम्' इत्यर्थे।
४. ॥ ५७॥
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चरित्रम्.
सर्गः-२
पुण्डरीक-निजबन्धुषु नैव सौहृदं मयि पुष्णाति मदग्रजोध्रुवम्। निजदिग्विजय यशो-धनं सुखिनो दित्सति मेऽन्यथा कथम् ?
अरिभूरुहवह्निरेष ते पतिरस्ति प्रतिभाति भासुरः। मम चापधनाघने शरैरतिवर्षत्यथ भावि किं हहा ! ? ॥८॥ त्रिजगजनकोटिहृद् मुर्दा जनकोऽयं जनको युगादिकृत् ।
अनुजोऽस्मि च यस्य विक्रमी न स सेव्योऽस्तु कथं सुरा-ऽसुरैः ? ॥९॥४ तरलीकृतलोचनो मया खुरलीभिर्विजितः पितुः पुरः। तदसौ मयि मा विलज्जतामिति मत्वा कृपयाऽस्मि नागतः 8 स्वकरेण सखे! संखेरितःप्रपतत्कन्दुकवन् मया धृतः। पटुचाटुभृता गिराऽद्य तद् भृशमत्तस्य नु तस्य विस्मृतम् 8 ४ अयि दूत! तवेश्वरो ध्रुवं निजचक्रेण करोत्यहंकृतिम् । किमधाकृतचक्रयुग्मका ननु कुर्वन्तु रथाः कथं न ताम् ॥8 ४ तदरे! ब्रज दूत! वेगतो मद्भूतग्रहिलं निजं पतिम् । प्रहिणु स्वकमण्डलाग्रतः शमिनं तं विदधामि मान्त्रिकः४ है।इति भाविरणश्रुतेरिवाऽऽदृतनृत्यं किल बाहुभूपतिः। करवालमलालयत् करे स तु दूतः सभयः सदोऽत्यजत् ४
सुभटान् प्रकटायुधानिह प्रविलोक्यात्मरथं श्रितो भयात् । समतत्वरदुच्चवैरिणं सतताशति मनो नृणां भवेत्॥४ ४ दूतः प्रत्यागमत्, भरतं व्यजिज्ञपच्च४ बहलीविषयाद् विनिर्गतः स्थिरचित्तो निजनाथनीवृतः। भयतस्त्रसंतो विलोकयन् स उपेतो भरतं व्यजिज्ञपत्॥४
यदि मेरुरहर्पतेः करैर्यदि च व्योम समीरजेरणैः। यदि पाणिनिषेवणाद् पविझटिति प्रस्फुटति क्षितीश्वर ! ॥१७॥ 8 बाहुबलिरजेयः४१ चापमेघे । २ खुरली तीरक्षेपणाभ्यासः । ३ 'सखा' 'ईरितः' इति पदद्वयम् । ४ भृशमत्तो भृशाभिमानी । ५ यदि तव ईश्वरः-3
भरतः चक्रेण अहंकृतिं करोति, तदा चक्रद्वयसमेता रथाः कथं न अहंकृतिं घनघनं कुर्युः। ६ द्वितीयाबहुवचनमेतत् । ४७ समीरणेरणैः पवनेरणः-पवनानाम् ईरणैः।
४॥ ५८॥
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पुण्डरीक-हैन तथापि विभो! विभोच्चयः प्रवरानव-देव-दानवैः । अनुजस्तु महाभुजस्तव सबली बाहुबली विजीयते॥(यु०), चरित्रम्. ५९॥ तव देव! पराक्रमो यदा विहितोऽस्य श्रवणातिथिर्मया।स विलोक्य तदा निजी भुजौ स्मयते इमझुनिवेशिताङ्गुलिमा -२ प्रबलरिपुबलेभ्योऽशीतविद्याधरौधैः शरणवितरणेनाऽऽजन्म संतुष्टचित्तैः।
कृतनवनगरीभिः शोभिता यत् पुरी सा चतुरतरसखीभिः सेविता स्वीश्वरीव 8स विक्रमयुतोऽद्भुतोपकृतिदत्तचित्तस्तथा सुरीभिरिह गीयतेऽप्यमृतपानशैथिल्यतः।
___ यथा श्रुतिपथं श्रितो न मम कोऽपि वीरोत्तमः सुरासुरनरेष्वहो ! भरतभूमिवज्रायु चरणयुगमसौ समेत्य बन्धुर्मम वरिवस्यति चेति चिन्तनम् ।
मा मनसि नृपपते ! वृथा कृथा त्वं गगनसुमैरिव पूजन जिनेन्दोः ॥२२॥ इत्थं दूतं वदन्तं प्रति सचिवधवः सोऽद्भुताटोपकोपः प्रोचे वाचं महोचभृकुटिकुटलितः प्रोत्कटास्यः प्रहस्य ।। द्वात्रिंशद्भपसाहस्रकबलकलितेऽग्रे सुषेणे रणस्थे । रे ! रे ! कोऽयं स्वगेहप्रथितपृथुबलो बालिशो बाहुभूपः २३४
बाहुबलिना युद्धसज्जताप्रयाणं भो! भूपा इति भरतनाथार्धवचन-प्रसादं संप्राप्योद्वसिततनुभिः सैन्यपतिभिः ।।
हतां ढक्का हक्कामिव रिपुम्रपत्रासविधये भटौघः श्रुत्वाऽभूत् समरमदकर्पूरकलशः ॥२४॥४ द्वितीयः सर्गः१ भाषायाम्-मूछे ता दईने । २ सु+ईश्वरी-स्वीश्वरी।
४॥५९ ॥
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पुण्डरीक-श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुवङ्गं त्यजन् यो जाड्य स्थितिरप्यभूत् प्रतिदिन प्राप्ताद्भुतप्रातिभः । चरित्रम्. ६ तेन श्रीकमलप्रभेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः श्रीशजयदीपकस्य चरिते सों द्वितीयोऽभवत् ॥३२॥
सर्गः-३ इति श्रीरत्नप्रभसूरिशिव्य-कमलप्रभसूरिविरचिते श्रीपुण्डरीकचरिते भरतदिग्विजय
बाहुबलिभूपोत्साहनो नाम द्वितीयः सर्गः ।
॥ तृतीयः सर्गः ॥ अचलद् भरतः इस श्रीमानथ भरतो रतोऽतिसौर्यैः प्रारूढो गुरुगजरत्नमादरेण ।
सर्वोवौं कटकभरैनिजैरनुर्वी कुर्वाणोऽचलदखिले तो नरेन्द्रः ॥१॥ त्वत्सन्याद् व्रजति रसातलं रसाऽसौ तद् भूभृत्प्रथम ! शनैः कुरु प्रयाणम् ।।
प्रोन्नादादिव गिरयोऽभ्यधुस्तमेवं मातङ्ग:-ऽश्व-करभ-पत्तिषु नदत्सु ॥२॥ चन्द्रोऽयं ध्वमिति भावतो हसैन्तीमाश्लिष्य प्रसृतकरः कुमुदतीं ताम् ।
___ आत्मानं दलभर धूलिधूसरोऽपि सूर्योऽसाविह बहु मानयांबभूव ॥३॥ 8. सा सेना बहलीदेशं प्राप४सा सेना प्रसृतरजस्तमासेमूहेऽप्युत्तास्तेनगुरुहस्तिराजयाना।
राजन्ती गुणमणिभिः सुनायका द्राक् प्राप्याऽस्थादथ बहलीसुदेशकण्ठम् ॥४॥8 १ पुस्तके न स्पष्टम् । २ लम्वीम् । ३ हसमानाम् । ४ स्त्रीपक्षे-रात्रौ । ५ स्तनो हि मेघध्वनिरपि ।
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पुण्डरीक-8 प्रारूढो बाहराजःतं चक्राधिपतिमथो निशम्य हर्षादायातं स्फुटजयडिण्डिमप्रघोषः।
सैन्यानि त्वरयति स्म सभस्म योऽन्तः प्रारूढः करिवरमन बाहराजः ॥६॥ धूलीभिः सुपिहितभास्करेऽतिगर्जनिस्वानस्वननिभृताम्बरान्तराले।
प्रत्युद्यत्पटुभटहेतिविद्युतीह विस्तीर्ण धृतघनडम्बरेऽस्य सैन्ये ॥६॥ रोमाश्चाङ्कुर उरसत्त्वरत्नभूषु वीरेषु प्रतिददृशेप्ररूढः। भीतानां तृणनिचयो मुखेष्वरीणांतनारीनयनयुगेषु चाम्बुपूरः ।। ४चकाधीश्वरशिविरस्य नाऽतिदरे स्वं चक्रं रिपुनृपचक्रवालचक्रः।
(युग्मम् ) स्वादेशादथ लघुरार्षभिः सतर्षः शुद्धायां भुवि विनिवेशयांचकार ॥८॥18 प्रातः स्यादिह जगद दिवीरयोस्तु संग्रामो व्यसमरसः कुतूहलाख्यः ।
व्याहतु वरुणमिवाऽगमत् प्रतीच्यां मित्रोऽसौ द्रुतमथ विश्वकर्मसाक्षी ॥९॥ ४ संध्यायामरुणविभौ रुषेव दीसावालोक्य द्रुतमुदितकरैः स्वकीयैः।
सैन्यौघान् रणभरतोऽरुणत् स राजा सौम्यानां नहि पुरतो भवेद् विरोधः ॥१०॥४ ४ तां श्यामां शशिवदनां विलोलतारां लिप्साङ्गीमिव परिलँभ्य चन्द्रभाभिः।
वीरेन्द्रा उभयदलेषु चक्रुरुयत्क्रीडानि स्फुटविषमायुधार्चनानि ॥११॥ ४१ सधूलि । २ हेतिः शस्त्रम् । ३ सेनावासः शिविरम् । ४ बाहुबलिः । ५ विषमरसः । ६ सूर्यः । ७ सैन्यसमूहान् ।8 ४८ परिरभ्य ।
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॥ ६१ ॥
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पुण्डरीक-8/तां दोषां यमजनको भृशारुणास्यः संत्रास्य स्वपतियुतां लघू?-युक्तम् ।
चरित्रम् ॥ ६२॥ सैन्यद्यौः स निजकरैरैचालरतां (2) वेगेनानणुरणतौर्यगजितानि ॥१२॥
सर्गः-३ द्वन्द्वायाऽभ्युदितचमूसमूहमल्लद्वन्द्वस्यापरगिरि-पूर्वशैलसंस्थौ ।
चन्द्रा-ऽकौं प्रसृतमहामयूखदण्डानुद्दण्डान् विदधतुरत्नरालभागे ॥१३॥ अश्वोऽश्वं प्रति सुभटो भटं च नागो नागेन्द्रं भुवि रथिनं रथीह खे तु ।
उन्नादप्रतिनिनदं रजो रजश्चाभ्यायासीद् दलयुगलस्य भावनैक्यात् ॥१४॥ ४/नाराचस्फलनभवस्फलिङ्गभाराभाराढये समररजोमहान्धकारे ।
आः! केषामहरदसौ न जीवितद्रव्याणि प्रबलतरोऽत्र कालचौरः ? ॥१५॥8| प्रथमजिनेश्वरपूजा४ कृत्वा तौ प्रथमजिनेश्वरस्य पूजां युद्धाय स्थिरमनसौ तदाऽऽर्षभी द्वौ ।
सन्नाह्योत्कटकटकान्यकारयेता का सूरः खसुतहिताय नोद्यतेत ? ॥१६॥४ युद्धवर्णना४आकाशे करतललीलयैव वीररुत्क्षिप्ताः पृथुकुथसंयुताः करीन्द्राः।
भूयांसो भुवि सहसाऽसिताः पतन्त उत्पक्षा बलनिचयभ्रमं वितेनुः ॥१७॥ ४१ यमजनकः सूर्यः । २ उडूनि नक्षत्राणि । ३ न प्रतीयते स्पष्टम् । ४ नाराचः लोहमयो वाणः । ५ भारस्य आभा, १ तया राज्य । ६ पुस्तके न स्पष्टम् । ७ कुथ:-भाषायाम्-हाथी उपर नाखवानी झूल ।
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-प्रेर्याऽश्वं निजशिरसा हयो रयोचाग्रांऽहिन्यां रदनयुगाऽऽक्रमाद् गजस्य ।
चरित्रम्. ___स्कन्धेऽस्य स्वपतिमरोपयद् हतारिः किं न स्यादतिगुरुता सुशिक्षितेभ्यः ॥१८॥8
सर्गः-३ कौक्षेयक्षतबहुकुम्भिकुम्भभुक्ताकीर्णायां रुधिरिमकुङ्कुमारुणायाम् ।
तत्रोव्यां भटधटेनाट्यसंकटायां किं कुर्यान्न यमनृपः पुरप्रवेश दद्यायुक्तो बाहुभूपःसस्फोटं कुन्त-हय-हस्ति-योधदेहप्रस्फोटं स्फुटमवलोक्य बाहभूपः।
आश्लिष्टो हृदि दयया रयात् स वीरो धौर्याढयो दृढमिति चिन्तयांबभूव ॥२०॥ संमदै करटिभटादिकीटकोटीसंमदोत्कटकलुषं प्रजायमानम् ।
धर्मज्ञो बलसहितोऽप्युपेक्षमाणः किं लज्जे निजकुलतो दयावतो न? ॥२१॥ वातूलो रणदहनेऽस्त्रदीपिते य इङ्गालानिव सुभटान् प्रदह्यमानान् ।
सोच्छ्वासो निकटगतोऽप्युपेक्षतेऽसौ निर्जीवो ध्रुवमिह चर्मभस्त्रिकेव ॥२२॥ १२ । इत्येवं मनसि विचार्य वीरराजः स प्रेषीत् तदनु निजाग्रजाय दूतम् ।
तद्वाक्याद् भरतनृपोऽत्रपो रणाय प्राचालीत् स्वयमथ बन्धनायुयुत्सुः ॥२३॥४ ४ आयात भरतमहीमहेन्द्रमेनं दृष्ट्वाऽसौ समर कृते गृहीतदक्षः।
राजन्यः स कनककण्टकैः परीतः प्रारूदः कलभमिलापतिश्चचाल ॥२४॥ ४१ कौलेयः-असिः । २ घटं भाषायाम् ‘धड' इति ख्यातम् । ३ पुस्तके कुत-तच्च अस्पष्टम् ।
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पुण्डरीक - प्रकान्तं स्वयमथ युद्धमार्षभिभ्यां वीरराभ्याममरवरा निरीक्ष्य सर्वे । विश्वस्य प्रलयभयात् प्रकम्पमाना आजग्मुर्नभसि समुल्लसद्विमानाः ॥२५॥
॥ ६४ ॥
द्वयोर्षभ्योः इन्द्रेण सह संवादः - गीर्वाणविजयगिरं पुरो गिरद्भिः संयुक्तं सुरपतिरस्य दृष्टिसंज्ञम् ।
संप्राप्याददुचितं चितं च युक्त्या सद्वाक्यं भरतनृपाऽऽन्तरप्रशान्त्यै ॥ २३ ॥ भोश्वक्रिन्निखिलमिलातलं विजित्य संग्रामं निजभुजखर्जभञ्जनाय ।
आरिमुः सह लघुबन्धुना त्वं किं लज्जां परिरभसे स्वयं न देहे ॥२७॥ स्मित्वाचे भरतमहीमहेन्द्र इन्द्र ! त्वं स्वर्गाधिप । न हि वेत्सि कार्यतत्त्वम् । स्वभ्रात्रा कलहमहो ! कदापि कोऽपि किं कण्डूकलितकरो नरः करोति ॥ २८ ॥ शस्त्रगेहे शान्तत्वे मन इव दुर्मदेऽजितेऽस्मिन् ।
चक्रं तु प्रविशति नैव १२ 8 तचक्रं झटिति निवेश्य
आत्मत्वं सुविमलके व लौजसाऽऽयं विश्वान्तर्मम च पिधीयमानमस्ति ॥ २९ ॥ शस्त्रधाम्नि मद्भ्राता मयि नमतादधैकवारम् ।
वेगेनाsपहरतु सर्वकार्यचक्रं भूपीठे भवतु विभुस्ततः स एव ॥ ३०॥
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श्रुत्वेदं भरतवचः सुनीतिपूतं स्वनथो लघुमृषभाङ्गजं समेत्य ।
१ आरम्भं कर्तुमिच्छुः ।
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नाभेयाङ्गज ! जय वीरवारवर्य ! व्याहृत्येत्यवदद् हृदो मुदर्थम् ॥३१ ॥
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चरित्रम्सर्ग: - ३
॥ ६४ ॥
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चरित्रम्
पुण्डरीक - 8 भूमीन्द्र ! प्रणयपर ! त्वमग्रजं स्वं हर्षेण द्रुतमिह किं न सत्करोषि । संरंभ भरतमभिप्रयाणकस्य पश्य स्वे मनसि शुभो विभाति किं भोः ! ! ॥३२॥ ६ सर्गः - ३ अद्य श्रीभरतविभुः प्रयाणमेकं त्वभ्राता स्वयमयमिच्छतीह पूज्यः ।
॥ ६५ ॥
प्रीत्याऽस्मिन् विनयपवित्रितां सुकीर्ति स्वामित्वं सकलभुवश्च संगृहाण ॥ ३३ ॥ देवेन्द्रं गरिमगभीरधीरसेनानेताऽसौ स्मयमयहास्यगर्भमूचे ।
वृद्धत्वाद् यदि मम सत्कृतिं नतिं वा गृह्णीयादयमथ तत् करोमि वेगात् ॥ ३४|| ईशोऽहं भुवनजयी बलबाहुरित्युच्चैर्निन मंयिषुर्बलादसौ माम् ।
एनं न त्रिदिवपते ! ततो नमामि गर्वाद्ये नरि विनयो नयोदितो न ॥ ३५ ॥ अस्याद्याऽप्यथ न विनष्टमस्ति किञ्चित् तद्यातु स्वपुरमसौ निवृत्त्य वेगात् ।
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१२
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त्वद्वाक्यादहमपि संगरप्रतिज्ञां मुक्त्वेमां त्रिदिवपते ! ध्रुवं निवर्ते ॥३६॥ ६ एषोऽन्यान् मदरहितान् विधाय भूपान् उन्मत्तो मद्गजवद् गजान् समग्रान् ।
निर्निद्रीकृतमथ मामनेrपारिं यद् योद्धुं त्वभिलषतीह तद् मुमूर्षुः ॥ ३७ ॥ त्रैलोक्योत्तममभिनम्य तातमीशं सत्यत्वात् समभिदं मदुत्तमाङ्गम् ।
नैवाऽन्यं नमति परत्र चेहलोके को हित्वा मुकुटमहो ! घटं बिभर्ति ? ॥ ३८ ॥ विस्मित्याऽवदथ वासवो महीशं वैषम्यं विपुलमते ! मतेर्ममाऽत्र ।
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१ बलूलं - बलिष्ठम् । २ नमयितुमिच्छुः । ३ अनेकपारिं सिंहम् । ४ तातम् - ऋषभदेवम् । ५ समदं - मदसहितम् ।
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।। ६५ ।।
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न्यायस्थो भरतनृपोऽस्ति चक्रवश्यः त्वं मानिन् ! विनयपरोऽस्य शिक्षणीयः ॥३९॥४ ॥६६॥टग्-वाग्भ्यां भुज-युग-मुष्टि-दण्ड-युर्योद्धव्यं न तु निशितायुधैर्युवाभ्याम् ।
सर्गः-३ ___अत्रार्थ ननु शपथो युगादिभर्तुरित्येतौ सुरपतिरूचिवान् नभःस्थः ॥४०॥8 ४ एताभ्यामिति वचने प्रतिश्रुतेऽन्यान् वीरांश्च प्रथमजिनाज्ञया निषिध्य ।
अङ्गाङ्गिप्रधनकृते तयोः सुरेन्द्रश्चक्रेऽस्यां भुवि सलिलप्रसूनव ___अक्षियुद्धम्वीरेन्द्रौ मददृढमानसौ समानौ तावन्धी इव सुभृताऽवनिमितोर्मो ।
. आयातौ रणविधये रणोर्वरायां द्वौ सूयौं नभसि महःप्रमित्येव ॥४२॥ ताबुच्चै कुटियुगौ स्थिराग्रतारौ गौराङ्गी महिमोच्चवीरलक्ष्म्योः।।
... प्रासादाविव नवतोरणी विनीलपाञ्चालीयुगलयुतौ कृतौ सुवर्णैः ॥४३॥ ४|देवानामवनिभुजां च लोचनौटेग्युग्मं युगपदपि श्रितं तयोस्तत् ।
नवाल्पं किमपि विवेद भारखेदं दुष्पापात् सदृशसंगमादिवाऽत्र ॥४४॥४ भाव्येषोऽप्रतिदर्शनोऽस्मदने तत् तस्मिन्नपि समशीर्षिकां धरासु (2)।
इत्यन्तभरतशी विचिन्त्य बाष्पं संवेगादिव गिरतः स्म संनिमिथ्या ॥४५॥४ ननु बहलीश्वरेण राज्ञा प्रत्यक्ष त्रिभुवनवासिनां जितं भोः!। १ निशितम्-तीक्ष्णम् । २ प्रधनम्-युद्धम् । ३ सुभृतौ अनिमितोर्मी-इति पदच्छेदः । ४ प्रमातुमिच्छा प्रमित्सा । ॥६६॥
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पुण्डरीक-8 ॥६७॥
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इत्युच्चैरमरगिरः स्मितोज्ज्वलाभाः संरंभान्नभसि भृशं विलेसुराशु ॥४६॥ | स्वरयुद्धम्चक्रीशो नयनजितोऽपि बाहुभूपं गर्वोचस्वररणहेतवे जवेन ।
... आह्वयतेऽनुमतेनोन्मृगेन्द्रनादं बाधिर्यप्रदमथ नाकि-नाग-नृणाम् ॥४७॥8 स्वस्थेषु त्रिभुवनेषु बाहुवीरः सिंहस्य ध्वनितमप्रथत् प्रतापी ।
एतेनाऽभवदचला चलाऽचलानाण्यापेतुः किल कुकुभामिभा मुमूर्छः ॥४८॥ ४ ही मुष्टियुद्धम्८६चक्रेशो वचनरणेन निर्जितोऽपि धैर्यायः किल बहलीश्वरं स्वयं सः।
. आह्वास्त द्रुतमथ पुष्टमुष्टियुद्धे मुञ्चेयुः किमवचनै रणं भुजालाः ॥४९॥ 8| आस्फार्टय स्फुटमवनीभुजौ भुजौ स्वानुत्पाट्योत्कटतरपुष्टिमेकहस्तम् ।
शोणाक्षौ पदपरिकम्प्रभूमिपीठौ दिग्नागाविव रुषितौ दधावतुस्तौ ॥५०॥ १२ यत्पाणिः सकलदलेन नाम्यते न तस्योच्चैर्भरतपतेस्तु मुष्टिसृष्टेः।
श्रीवाहविगतमनाः शिरी धुनानः संरेजे मुदित इव प्रहारतोऽस्मात ॥५१॥8] तां मूर्छा द्रुतमवमत्य बाहुराजश्चक्रीशं पटुरवटी स्वमुष्टिनैषः । 8 १ विलासं चक्रुः । २ अचला पृथ्वी । ३ अचलायाणि गिरिशिखराणि । ४ अवचनैः-निन्दितवचनैः । ५ वाहुबलाः । 18 ६ आस्फाल्य । ७ रचनेत्रौ। ८ ग्रीवाया ऊर्श्वभागे-भाषायां 'डोक उपर' ।
४॥६७॥
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पुण्डरीक
हन्ति स्म स्वभटविलोचनाश्रुनीरैः सार्धं सोऽपतदहहा! बलस्य गर्व: श्रीखण्डद्रवनिवहैरखण्ड मक्तिव्यक्तिस्तं प्रगुणयति स्म बाहुवीरः ।
सर्गः-३ मात्सर्येऽप्यमलतरः कुलस्य भावः स्यादग्नाविव रत्नेकम्बलस्य ॥५३॥ दण्डयुद्धम्आक्षेपादतिखररोषरूक्षवी क्षौ दोर्दण्डस्थितदृढदण्डतः प्रचण्डौ ।
द्वावेतौ भुवनभयंकरौ मिथोऽपि गर्जन्तावथ समधावतां जवेन ॥५४॥ तत्र श्रीभरतनृपोऽथ बाहुभूपं त्वाजानु प्रकटविभोऽपि वज्रमूर्तिम् ।
शीर्षस्योपरि घनघातपातनेन वेगेनाऽभिधरणि मज्जयांचकार ॥५॥ एकाङ्कादिव स इलातलात् सहेलं कृष्ट्वाऽ ही त्वरितमखण्डचण्डदण्डात् ।
चक्रीशं शिरसि निहत्य कण्ठघ्नं भूपीठे हठकठिनो न्यमजयत् तम् ॥२६॥४ ४ देवं हाऽस्त्विति सुभटा अपि ब्रुवन्तः शस्त्राणि स्वभुजमदैः समं विमुच्य ।।
कुदालान् जगृहुरथेशरत्नलोभात् मान्यः स्यात् क्वचिदपि कार्यतो हि हीनः ॥७॥४ आकृष्टं (टः) शिशिरजलै विलीनमूर्छश्चक्रीशः कथमहमेष वाऽत्र भूमौ ।
इत्यन्तर्भरतपतिः स संशयानश्चक्रेण श्रित उरुभानुना कराब्जे ॥५८॥४ बाहुबलिघाताय चक्रक्षेपः१ रत्नकम्बलं हि तापसनिधाने शीतलम्, शीतसन्निधाने च उष्णं जायते इति श्रुतिः। २ पादौ। ३ विशालकिरणेन ॥४॥६॥
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॥६९॥
पुण्डरीक- चक्रेशो निजमनुजं जिघांसुराशुक्रोधोऽयं स्फुटमिव पिण्डितं स्वहस्तात् ।
चरित्रम्ज्वालालीजटलमिदं मुमोच चक्रं कल्पान्ताऽम्बुधर इवाऽशनि प्रगर्जन ॥५९॥ी -३ तच्चक्रं पथि शर-शक्ति-कुन्त-खड्गै राजन्यैरपि परितः प्रहण्यमानम् ।
संप्राप्तं लघु लघुकार्षभेः समीपे किं मूर्ती भरतनृपप्रताप एषः ॥६०॥ चक्रं विफलम्१ षटखण्डावनिविजयी ममाऽपि नेता येताभ्यां जित इति दृष्टिदोषहत्यै ।।
चक्रं तत् खलु बहलीश्वरस्य बाह्वोरात्मानं भ्रमणपदे चकार हर्ष __ बाहुबलिना ऊर्वीकृतो मुष्टिः8/चक्रेऽस्मिन् गतवति चक्रवर्तिपाणी रोषेणाऽरुणनयनो दृढाग्रमुष्टिम् ।
दोर्दण्डं त्वरितमुदस्य बाहयोद्धाऽधाविष्टाऽग्रजमपि बान्धवं जिघांसन् ॥६२18| हा ! चक्री हत इति वादिभिः सुरेन्द्रयों रुद्धो न खलु तमेव बाहुवीरम ।
__तजन्मा ललिततरो विवेक एको रुड़वाऽस्थादिति बली सुतोऽपि (2) ॥३३॥४| बाहुबलेविवेकोद्गमः-वैराग्यं चएलोभे-यादिभिरवजित्य यो विचेतीचक्रे तद्गतपरमात्मधैर्य इत्थम् ।
१ अनुज लघुवन्धुम् । २ अशनि विद्युतम् । ३ शीघ्रम् । ४ नेत्राभ्याम्-नेत्रयुद्धे चक्रस्वामी भरतो नेत्राभ्यां जित-181 इति । ५ अपूर्ण प्रतीयते, नातो विशदीकर्तुं शक्यते।
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एनं तं किमहह हन्मि मुष्टिनाऽहं हन्तव्या न विगतचेतना धीरैः ॥६४॥ ४ स्वगोत्रे किल न हि बुद्धयते विनाशो मर्यादामिति न मुमोच चक्रमेतत् ।।
एतस्मादपि भृशहिंस्रतो नृशंसः स्वं बन्धुं भरतमहं रुषा जिघांसन् ॥६५॥ किमु विरुणद्धि मां कदापि लोभायैर्यदिन विचेतनीकृतः स्यात् ।
___एतांश्च ध्रुवमपराधिनोऽन्तरारीन् जेष्यामि स्वयमिह जैनदीक्षयाऽहम् ॥६६॥8 बाहुबलिना केशलोचः कृतःइत्यन्तर्विमलतरः सुधीः सुधीरो निश्चित्योद्धृतमुष्टिनाऽमुनैव बाहुः ।।
मालिस्थान् द्रुतमुदमूलयत् समूलान् मूलानि खभवतरोरिवेष केशान् ॥३७॥ लघुकान् कथं नमामि18/एषोऽहं न हि विनतोऽग्रजस्य बन्योानाढ्यानपि लघुकान् कथं नमामि ।
तत्तुल्यो यदि च भवामि केवल द्धा तत् तातान्तिकमुपयामि नान्यथाऽहम् ॥६८॥ कृत्येति स्वमनसि निश्चलां प्रतिज्ञा योगीन्द्रो विमलदनङ्गसंगरङ्गxx
समधित सत्समाधिमाधि-व्याधित्खननकुठारक कठोरम् ॥ धावित्वा प्रतिभरतं प्रकोपमल्लं हन्ति स्म स्व-परगतं य एक एव ।
योऽक्षीणं व्यधित कुलाय कीर्तिदानं सोऽख्यात् त्रिभुवनवीरवीरमुष्टिः ॥७०॥8 १ मूढाः । २ हिंस्रम्-हिंसाकरणस्वभावम् । ३ बाहुबलिः । पु० नास्ति । ४ पुस्तके न स्पष्टं प्रतीयते । ४॥ ७० ॥
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॥७१ ॥
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पुण्डरीक-स्तुत्वेत्थं मुखरमुखः प्रमोदसंगी संगीतं शुचि विरज्य तत् पुरस्तात् ।
8 चरित्रम्. सौधर्म समगमद् देवराजः संयुक्तः सकलसुरैः प्रहृष्टचित्तैः ॥७१॥ सर्गः-३
। इति श्रीबाहुबलिमहिमोदयः । भरतस्य विमर्शःपरिहताखिलशस्त्रसमुच्चयं स्वमेनुज विगलद्विषयेन्द्रियम् ।
___ भरत एप विलोक्य पुरः स्थितः प्रविममर्श सुविस्मितदुःखितः ॥७२॥ विरहकृत्सकलैरपि बान्धवैधिगिदमस्तु सुचक्रिपदं मम ।
ननु मधूकतरोः फलजन्म किं सरसपत्रविनाशि न निन्द्यते ॥७३ ४ बलिभुजैकदृशाऽपि निजं बलिं परिजनेन विभज्य विभुञ्जता।
विहगकेन नु नेत्रशतायितं तदहमस्य समोऽस्मि न संप्रति ॥७४॥ ४ मम विभुः स युगादिविभुर्भवेदिति वदन्तममुं प्रजिंगीषता।
___न गणितो जनकोऽपि मया ततो दुरिततोऽस्तबलो विजितो ध्रुवम् ॥७५॥ ४ विजितवान् भुवन कृतकेवलोत्सव ! भवान् सुकृतादहमग्रतः ।
___ ऋषभभक्तममुं परिखेदयन्-असुकृतिश्च श्रितवांश्च पराभवम् ॥७६॥ 8 १ स्वकीयम्-लघुबन्धुम् । २ बलिभुक् काकः । ३ शतं नेत्राणां यस्य असौ नेत्रशतः-तद्वद् आचरितम्-एकदृशाऽपि 18काकेन सपरिजन भोजनं कुर्वता नेत्रशतायितम् । ४ प्रजेवम्-इच्छता । ५ नास्ति सुकृतिर्यस्य ।
४॥७१॥
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पुण्डरीका
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स सचिरं शुचिरन्तरिलापतिः समनुचिन्त्य घनाश्रुविमिश्रक । सपदि बाहवलिं प्रणिपत्य तं विनयवान् गदति स्म सगद्गदम्
सर्गः-३ भरतप्रार्थना४ शपथलोपिनि पापिनि तापिनि त्वमकरो रण ऊर्ध्वकरी दयाम् ।
अयि मयि प्रविधाय तथाऽद्य तां नरपतित्वमलंकुरु निर्मम परिहृतस्य समग्रसहोदरैः सुकृतगात्रमिदं मम सांप्रतम् ।
अपयशोरिपुभिः परिवेष्टितं त्वदितरेण न बान्धव ! रक्ष्यते 8 ऋषभनन्दन ! वीरशिरोमणे ! कुचरितानि विषह्य नु चक्रिताम् ।
श्रय कृपाश्रय ! दास्यमहं श्रये तव बलेन हि बाहुबले! जितः ॥८॥ ४त्वमथ चैकवचोऽमृतबिन्दुना नुदै तनोः तनुतापममुं मम ।
इति विलापपरं तमिलापतिं निजगदुः सचिवाः शुचिवॉचिनः ॥८॥४ सचिवानां वाणी- त्वदनुजो मनुजोतम ! निस्तम पदमदः सुयतिव्रतमाश्रितः ।
भवपरिभ्रमदं प्रसरन्मदं श्रयति चक्रिपदं न शिवेच्छया ॥८२॥8 ४ भरतवासव ! संपिहिताश्रवस्तव सहोदर एष महामुनिः। ४१ अन्तःशुचिः । २ सप्तमीएकवचनम् , पुस्तके तु 'रणस' इति दुर्गम् । ३ दूरीकुरु । ४ शुचि वक्ति इति शुचिवाचिन् । ४५ तमोहीनं पदम् ।
॥ ७२ ॥
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पुण्डरीक
स्वहृद्भिग्रहयन्त्रितविग्रहो न हि महाऽऽग्रहितोऽपि वदत्यहो ! ॥ ८३ ॥ चरित्रम्इति निशम्य स भारत भूपतिव्रतविभारतमाह निजानुजम् । सर्गः - ३
॥ ७३ ॥
शिशिरयाऽथ स्यान्निजया दृशा मुनिवर ! स्पृश मां प्रशमस्पृहा ॥ ८४ ॥
बाहुबलेः प्रसादः -
नवविमेव विवेकविवस्वतो नयनकान्तिरनेन निवेशिता । भरत भूमिवरस्य मनोगुहामकृत दुःखत मोरहितां क्षणात् विगत सर्वधनोऽल्पधनादिव गलितविद्य इवाऽल्पपदस्मृतेः । अनुज लोचनगोचरमात्रतः प्रमुमुदे भरतो यतिबान्धवः भरतकृता बाहुबलिस्तुति:- अथ मुनीश्वरमेनमनेनसं भरत एष मुदां भरतस्ततः । विनयवान् नतवान् तुतवानयं स्वमतितः प्रवितत्य च वाङ्मयम् ॥ ८७ ॥ ॥ बाहुबले राज्ये अन्यराजस्थापना - भरतप्रत्यावर्तनं चइह च सोमयशाः प्रसरयशाः प्रचुरशौर्यमहा महतो यशात् ( 2 ) । भरतभूपतिना बहलीपतिः स विहितोऽवहितोऽवनिपालने ॥८८॥ १२ ४ बलभरैर्दधतीं पृथुवेपथुं लघुकरग्रहवाननुरागिणीन् । उपबुभुक्षुरिलां भरतोऽविशत् स्वनगरं मणिचित्रगृहान्तरम्
४ यदनिविश्य न या (1) बुधमन्दिरं स किल बाहुबलिः परिखेदतः ।
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४
विगिह वक्रचरित्रमिदं ममेत्यजनि चक्रमहो ! प्रशमाश्रितम् ॥९०॥
१ व्रतस्य विभायां रतम् । २ अपापम् । ३ भरः समूहः । ४ स्तुतवान् । ५ अकारान्तोऽपि 'यश' शब्दो भवेत् क्वचित् । ६ वेपथुः - कम्पः ।
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॥ ७४॥
पुण्डरीक-8 अधिबलेऽपि हि बाहुबलौ व्रतं श्रितवति प्रतिबुद्धमिव स्वयम् । .
चरित्रम् प्रविशति स्म तथा स्वगृहे यथा निरसरन्नहिचक्रमथैकदा ॥९१॥४ -३ अथस षोडशयक्षसहस्रकैदिगुणसंख्यनपैश्च निषेवितः। शुचिगुणाभिरितो द्विगुणाभिरप्यनुदिनं प्रमदाभिरमोद्यत 8 चतुरशीतिमिताद्भुतवारणा-ऽश्व-रथलक्षद्लैर्भटकोटिभिः।
नवतिषट्पमिताभिरथो पुरैवियुतसप्ततिसंख्यसहस्रकैः ॥१३॥ सहितमद्भुतचक्रिपदं श्रितो नवनिधान-चतुर्दशरत्नभृत्।स्वसमयं समयन्तमयं तदा रसमयं न विवेद रसापतिः इतश्च-बाहुबलितपः- हिम-समीरण-रेणु-महातपा-ऽम्बुद-लता-ऽहि-खगाश्रयदुःखदैः ।।
स ऋतुभिः सुमना न मनाक् कदाप्यचलि बाहुबलिबलिनो व्रतात् ॥९॥ किमु वशी स्ववशीकृतवानभून् षडपि षड्रिपुजैत्रमहाव्रतः ।
सखिभिरेभिरथारिचयं निजं मुनिरजारयदाशु ++ तत् ॥१६॥ बाहुबलेः तपसा श्रीऋषभस्य ममता- जितषडंर्शकभारतवर्षजित् ऋतुयुतं च स वर्षमिदं मुनि:
निरशनो जितवान् कथमन्यथा निजपितुर्लभतां ममतां मताम् ॥१७॥ है इह युगादिजिनोऽस्य सहोदरीयुगलवाझवणाद् मदनाशनम् ।
१ इतः । २ संगच्छमानम् । ३ पु० खण्डितम् । ४ जितषडंशकभारतवर्षों हि भरतः, तं जयति इति-जितषडंशक-8 भारतवषजित-बाहुबलि:-तेन भरतस्य पराजयात । ५ अशनरहितः-उपवासी। ६ श्रीऋषभदेवस्य-अधस्तने श्लोकद्रये सा ममता परिस्फुटा । ७ मदस्य नाशनम् ।
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॥ ७४॥
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पुण्डरीक
चरिभम्
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४
विदितवान् समयं च सुकेवलावरणकर्मविनाशकरं तदा ॥९८॥४ ॥७५ ॥४
श्रीयुगादिनिदेशेन बाहुबलिभगिनीद्वयन 'अवतर आशु गजात्' इत्येवं युगादिजिनेशनिदेशतः स्वमयुगं समुपेत्य तदन्तिके ।
अवतराऽऽशु गजादपि बान्धवेत्यवद्दुच्चगिरा युगपत् तदा ॥९९॥8 प्रमुदितश्रवणस्तदुदीरितश्रवणतः श्रमणः स गतश्रमः ।
__ हृदि विचारयति स्म सविस्मयः किमु मम खसृवाक्यमिदं मृदु ॥१०॥ न वंदतोऽनृतमादिजिनेशितुर्दुहितरी हितरोपितमानसे।
न हि मतंगजमस्मि च संश्रितस्तदनयोर्गदितं किमु वेभि नो ? ॥१०॥8 बाहुबलिविचारणा, तद्-माना-ऽपगमश्च- अहह ! तत्वयुतं च वचोऽनयोरहमवैमि बहिर्मुखधीयुतम् ।।
यदिह मानमतंगजतोऽद्य मां द्रुतमिमे अवतारयतो हि ते ॥१०२॥४ शिवपथस्य हि यः स्खकनामजाक्षरयुगेन करोति निषेधनम् ।
तमविमान्य नु मा-नरिपुं कुधीरहमगां स्वपितुर्नतये न ही ॥१०॥४ १ भरतयुद्धमपास्य लघूनपि व्रतगुरून शमिनः स्फुटकेवलान् ।
__ स्वमनसैव विकल्य विरोधयन्-अहमनल्पमदादतवतः ॥१०४॥४ ४१ वदतः' तृतीयपुरुषद्विवचनम् । २ हिते रोपित मानसं याभ्यां ते-। ३ वचसो विशेषणमेतत । ४ प्रथमाद्विवचनम् । 8५ 'मा-न' शब्दे 'मा'कार-'न'कारौ द्वौ अपि निषेधवाचकौ । ६ असत्यव्रतः ।
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पुण्डरीक
परिवारयुगादिजिनानतेः सफलयामि निजं भवमद्य तत् ।
चरित्रम्. इति विनीतमतिः स यतिर्ज वादचलदुच्चपदः किल यावता ॥१०॥ ७६॥ तावत्-बाहुबलेः केवलम्
सर्गः-३ प्रशमसौम्यतमः स रजस्तमश्चयमय परिहाय मनो मुनिः। भृशत्रलोक लोकविलोकनप्रदमवाप महः किल केवलम् सुराणां स्तुतिः- उदनदन दिधि दुन्दुभयोऽभितः समभवर कुसुमोत्करपृष्टयः ।
- उपययुर्नव केवलिनं मुनि सुमनसः प्रमदात् प्रणिनंसवः ॥१०७॥ ४ विमलवीरसुशान्तरसां स्तुति प्रकटयद्भिरथो दिविद्गणैः ।
परिवृतो विवृतोत्सवसंमदैमुनिरयात् स रयात् प्रभुसंनिधौ ॥१०८॥ 8सुरवधूकृतमङ्गलगीतिको जिनपतिं च पीय विभावसुम् ।
मुनिवरः स उवाह सकेवल श्रियमिह स्फुटमौक्तिक(सत्) प्रभाम् ॥१०९।। यदि न के बलिनोऽप्यभवन समास्तदिह केवलिनोऽस्य भवन्त्वमी ।
साम्. तमसां च चयमयं मनः। २ लोका-लोकविलोकनकुशलम्-इति । ३ पणन्तुम्-इच्छवः-नम्राः सुमनसः-देवाः, है सज्जनाश्च । ४ दिविषदो-देवाः । ५ लोके हि विभावसुम्-अग्निम् परिक्रम्य विवाहो वर-वध्वोः प्रसिद्धः-एवम् अत्राऽपि बाहु-18 बलिः, विभावप्नुम् -केवलज्ञानरूपविभायुतं श्रीकाभं परोय-प्रदक्षि गोकृत्य केवलेन सहितां श्रियम्-मुक्तिरमणीम् उवाह । श्रीऋषभपक्षे-विभा-शब्दः केवलज्ञानप्रभावाचकः, वसु-शद्रश्च धनवाचकः । ६ पूर्व तावत् अस्य बाहुबलेः समाः-समानाः केपि बलिनो न अभवन् । परन्तु इह अस्मिन् काले (बाहुबलि केवलितासमये ) अस्य बाहुबलेः समानाः अमी केचलिनो भवन्तु-४ 8 इति हृदयम् । अत्र व-वयोरैक्यं नेयम् ।
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॥ ७६॥
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ભાષાંતર પાનું ૭૯ ૨
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‘બાથી અને સુંદરી બાહુબલિ પાસે આવીને કહે છે કેહું બાંધવ શીધ્ર ગજથી નીચે ઉતરે.'
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पुण्डरीक
॥ ७७ ॥ ४ सकलतापहरं प्रशमात्मकं समयतो बहुतः सरसं मुनिः ।
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इति वदत्सु सुरासुर - किंनरेष्वधिजगाम स केवलिपर्षदि ॥ ११० ॥
अनुदिनं कवलोच्चयमेकशः स सततं बुभुजे त्वथ केवलम् ॥ १११ ॥ [ प्रथमतीर्थपतेः स्फटिकाचले गमनम् -] सकल केवलिलोकविदूरितामलमनोऽणुगणैरिव निर्मिते प्रथमतीर्थपतिः समवासरत् यतिततिप्रयुतः स्फटिकाचले ॥ ११२ ॥ विविधशाल सुशालितमद्भुतं सदुपदेशसदो घुंसदो व्यधुः । चतुरचारुचतुर्मुखरूपभागिह दिदेश स धर्ममधर्मे भित् ॥ ११३ ॥
[ प्रथमतीर्थपतिदेशना - ]
[ तदा च भरतदानम् — ]
दशशतद्विकसार्धभिदं तदा कनककोटिचयं भरतो मुदा । प्रभुसमागमनं वदतां नृणामिह वितीर्य गिरं तमवाप सः अथ यथाविधिनैष परीय तं प्रथमतीर्थपतिं भरतेश्वरः ।
[ भरतो जगाद - ]
प्रभुरभाषत चक्रपते ! भव-प्रभवभङ्गुरभोगभरे रतम् ।
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समभिनय विधाय च संस्तुतिं सह सहस्रदृशा समुपाविशत् ॥ ११५ ॥ भरतचक्रपतिर्गुरु-देशनामिह निशम्य गतच्छलवत्सलः ।
निजसहोदर भोगविभुक्तये सपदि सोऽपि जगाद् जगत्पतिम् ॥ ११६॥
१ केवलिनां हि मनांसि निरुपयोगीनि - अत एव तानि तैर्विदुरितानि तेषां केवलिविदूरितमनसाम् - अणूनां विमलत्वेन तैरणुभिरिव निर्मिते अत एव विमले स्फटिकाचले । २ युसदो देवाः । ३ अध भिनत्ति - इति । ४ गिरं-वाणीम् । 'तम्' इति “ लिङ्गमतन्त्रम्" इत्यनेन 'गिर्' शब्दस्य पुंलिङ्गत्वेन, अन्यथा 'ताम्' इति भवेत् । अथवा 'तम्' इति कोटित्रयस्य विशेषणम्, गिर:- अन्तम्- 'गिरन्तम्' इति समस्तं वा वाच्यम् । ५ इन्द्रो हि सहस्रदृक्-इति पौराणिकाः ।
चरित्रम्सर्ग: ३
॥ ७७ ॥
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पुण्डरीक
निजमनोऽपि विहाय सुसाधवो त्यभिलषन्त्यपरं न तु भोजनात् ॥११७॥ [भरतो भोजनमानयत्-] इति निशम्य दृढप्रतिभो जनप्रभुरिहाद्भुतभोजनमानयत् । 8 सर्गः-३
__अथ जगाद विभो ! मम बान्धवान् यतिवरान् विसृजाऽशनहेतवे ॥११८॥ ४जिनवरो न्यगदन्नवभोजनं सुयतिनामिह कल्पत एव न ।
नृपतिपिण्ड-निमित्तकृता-ऽऽहतैस्त्रिभिरतिप्रकटगुरुदूषणैः ॥११९॥ इति विभोर्वचनादतिदैन्यभाक् मुषितवद् भरतोऽजनि चयपि ।
स्वविभुता स्वजनानुपयोगिनी सुमनसा सुखयेन मनांस्यहो! २०॥४॥ [सुरपतिरवदत्-] सुरपतिदृढधार्मिकबान्धवेऽसुखनिराकृतयेऽस्य तदाऽवदत् ।
सुयतिनां हि भवेयुरवग्रहा इह कियन्त इति प्रवद प्रभो! [अवग्रहाः पञ्च-] प्रभुरवोचत भारतभूतले प्रथमकल्पपतेरथ चक्रिणः।
नरपतेर्गृहिणः स्वगुरोरिति भवति पञ्चविधोऽयमवग्रहः [सुरपति-जनपतिभ्याम्-अवग्रहदानम्-] इति तदा गदिते प्रभुणा दिवःप्रभुरवग् जगदीश्वर ! नित्यशः।
विचरणाय मया, यतिनां ददे ध्रुवमवग्रॅह एष सुभारते ॥१२३॥४ भरतभूपतिरप्यतिहर्षतः प्रथमतीर्थपतिं प्रणिपत्य सः । वसतये यतिनां प्रददौ तदा भरतभूमितले स्वमवग्रहम् ।
१ नृपतिपिण्डो-राजान्नम्। निमित्तकृतम्-साधून् उद्दिश्य हिंसादिकरणतो यद् भोजनादि कृतं तत् । आहृतम्-साधूनां भक्षणाय तेषां संमुखम-यद् आनीतं ) तत्-एतत्त्रयविशेषणविशिष्टं भोजनं हिंसादिअनेकदोषजनकत्वेन न श्रमणानां कल्पते-इति । २ लुण्टितवत् । ३ दिवःप्रभुः-इन्द्रः । ४ अवग्रह-शब्दः अनुज्ञा-पर्यायप्रायः।
18॥ ७८॥
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चरित्रम्.
७९॥
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पुण्डरीक-कमह मद्य सुरेश्वर! भोजये? भरतभूपतिनेत्युदिते तदा।
प्रतिजगाद दिवोऽधिपतिर्गुणाधिकजनेभ्य इदं प्रवितीर्यते ॥१२॥ [जिनविहारः-भरतनगरीगमनं च-इति निगद्य विभुं प्रणिपत्य च त्रिदिवमापदसौ त्रिदिवप्रभुः।।
M४ सर्गः-३ व्यहरदन्यत एष जिनेश्वरः स भरतस्तु निजां नगरीमगात् ॥१२६॥ [भरतः सुचिन्तितवान्-] अथ पुरं समुपेत्य सुचक्रभृत्-हृदि सुचिन्तितवान् सुकृतोत्सुकः ।।
सुमुनयो न नयन्ति ममन्निमप्यथ गुणभुवि को भविकोऽधिकः ॥१२७॥ अविरताद् मदमी प्रवरा जिनानुगहृदो विरताऽविरता नराः। .
अहममीषु सुवत्सलतां दधत् भुवि भवामि कृतार्थधनोऽधुना ॥१२८॥ ४ 8 [भरतेन साधमिकेभ्यः उक्तम्-मम गृहे भोजनं विधीयताम्-] स भरतः सुकृतैकरतः कृती प्रमदतस्त्विति संसदि संस्थितः।
___अविचलान सुकृती भविनो जनान् समनुहय स भूयस इत्यवक् ॥१२९॥8 ननु कृषिप्रमुखा निजजीविका अपि विहाय गृहे मम भोजनम् ।
___ इह भवद्भिरहो ! प्रविधीयतां सततधर्मरतैरथ भूयताम् ॥१३०॥ [साधर्मिका वदन्ति-] अनुदिनोदय मेत्य ममाग्रतः प्रपठनीयमिदम्-'विजितो भवान् ।
बहुतरं च भयं परिवर्धते-तदिह मा हन मा हन भूपते ! ॥१३१॥ १ मम भरतस्य अन्नम्। २ मत-मत्तः-मदपेक्षया इति-'मत्' : पञ्चमीएकवचनम् । ३ महाहिंसादिभ्यो विरताः, अल्पहिंसादितो न विरतास्ते। ४ प्रभूतान्8 ५ एतत्-अनुकरणम्-अत एव न शब्दशास्त्राद् विरुद्धम् ।
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॥८
सर्गः-३
स्वयमिति स्वविबोधविधित्सया स भरतो भविकाननुशिष्टवान् ।
शिरसि चाऽक्षतवर्धनपूर्वकं तिलकतोऽनुवचश्च वदन्त्यमी ॥ [भरतभावनम्-] इह समुद्रससौख्यसमुद्रजाद्भुतमभ्रमिविभ्रमितान्तरः।
तदुदितं वचनं च निशम्य तत् प्रतिदिनं हृदि चिन्तितवानिति ॥१३३॥ अहह ! ! ! केन जितो : विदितं ध्रुवं दृढतरैः प्रतिघंप्रमुखैरहम् ।
- इह च तद्भयमेव विवर्धते तथ जीवद्या क्रियतां मया ॥१३४॥ ४ इति स तद्वचनैः प्रकटीकृताद्भुतविवेकहुताशनहेतिभिः।
निजेरजो ज्वलयंस्तु कुसंगतं सुयश एव सुवर्णमथाऽतनोत् ॥१३५॥४ सुकृतिनोऽस्य मुखेन्दुविलोकनात् शिशिरता शुचिता च भवत्यहो।
इति विचार्य जना अतिदूरतोऽशनमिषाद् वनिनोऽत्र समाययुः ॥१३६॥8 [साधर्मिकपरीक्षणम्-] अथ विवेक्य- विवेकिविवेचने निपुणधीभिरथो सचिवैरयम् ।
___ निगदितो भरताधिपतिः स्वयं प्रकृतवानिह तेषु परीक्षणम् ॥१३७॥ 8 अणु-गुणा-ऽद्भुत-शिक्षणसद्गुणव्रतविदः शुचयः स्वर्संदा त्रिधा ।
इति दशद्विकपुण्डयुताः कृताः त्रिरथ तेन च काकिणिरेखिताः ॥१३८॥ भरतेन विहिता वेदचतुष्टयी- स भविनां स्वयमात्मसधर्मिणां प्रपठनाय च वेदचतुष्टयम् ।
१ विधातुम् इच्छया । २ मुद्रासाहितः समुद्रः, सौख्यसहितः ससौख्यः, समुद्रजा लक्ष्मीः, तस्या अद्भुतमदभ्रम्या विभ्रमितम् आन्तरं यस्य सः । 18| ३ प्रतिघाः क्रोधादिकषायाः। ४ हेतयः-शस्त्राणि । ५ निजं रजो मलः । ६ भोजनव्याजात् । ७ वनवासिनः । ८ स्वसभया।
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पुण्डरीक
सुकृतनिर्मलसूक्तसमन्वितं रचितवानथ भारतभूपतिः ॥३९॥8 (अन्नसत्राणां विधापनम्-) तदनु सर्वगृहाणि बृहत्तराण्यतिसितानि तु पञ्च शतानि सः।।
स्थपतिरत्नकरेण च पूर्व दिग्भुवि पुरात् नृपतिनिरमीमपत् ॥४०॥8 रसवतीः सरसाः स रसांधिपोऽद्भुतरसात् तरसा स्थिरसारवान् ।
__ प्रमुदितोऽनुदिनं समभोजयद् विमलसत्रगृहेषु परीक्षितान् ॥४१॥ स्वपुरपश्चिमभूमितलेऽमलैर्मरकतैर्मणिभिः स महीमणिः ।
___ सपदि पञ्चशतीं सितवासनो व्यरचयत्-शुचिसत्रगृहाण्यसौ ॥४२॥ 8 इह सुषेणनृपः सुकुटुम्बिना विहितमन्नचयं सैरसं नवम् ।
विविधशाकविपाकविशोभितं तदितरांश्च जनान् समभोजयत् ॥४३॥४ (पाठकशालिका व्यरचयत्-) नगरदक्षिणतो हृदि दक्षिणो मणिविनीलितपाठकशालिकाः।
व्यरचयद् विपुला बहुशोऽभितः स सुकृतैर्विततैबहुशोभितः ॥४४॥ ४ १२ ४भरतभूमिभुजा त्रिरुपोष्य सा हृदि धृता मुदितैत्य सरस्वती। . .
विमलवेदचतुष्टयपुस्तकैरभृत ताः किल पाठकशालिकाः ॥४॥ (रचयति सुपौषधशालिकाः-) निजपुरोऽन्तरतस्तु महत्तराः कनकपिङ्गमणीभिरयं नृपः।
सुरसहस्रयुजः स्थपतेः करात् रचयति स्म सुपौषधशालिकाः ॥४६॥81 १ सत्रगृहम्-अन्नगृहम्-" छत्रं” इति तामिलभाषायां प्रसिद्धम् । २ रसाधिपः- भूमिपतिः। ३ सिता पवित्रा वासना वृत्तियस्य सः। ४ सरसम्-रसेन सहितम्, सुन्दरं च। ५ दक्षिणो दक्षः । ६ अभितः सर्वतः ।
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सर्गः-३
पुण्डरीक-अथ चतुर्ध्वपि ते श्रुतपर्वसु प्रचुरपुण्यपवित्रतरा नराः। विदधतेऽमलपौषधशालिकान्तरमुपेत्य सुपौषधमद्भुतम् । चरित्रम्. (विवाहविध्यादि-) अथ विवाहविधिप्रमुखं नृपोऽखिलजनव्यवहारममुं तदा ।
भविषु तेषु निरोपयति स्म सोऽतुलविवेकितया मुदितो भृशम तलोभरतो भरतोऽनिशं विविधदानमिति प्रददन मुदा।
सकलशारदचन्द्रवदुजवलं निजयशः प्रततान विशारदः ॥४९॥४ (अष्टमतीर्थपती शिवं गते जिनधर्मविहीनता-) ४ किल गतेऽष्टमतीर्थपती शिवं समभवद्-जिनधर्मविहीनता।
अथ तदन्वयिनोऽसुकृते रता अजनि वेदचतुष्कमतोऽन्यथा ॥५०॥8 (श्रीऋषभः स्फटिकपर्वते, भरतप्रणतिश्च-) ऋषभदेवजिनः समवासरत् स्फटिकपर्वतशृङ्ग इति श्रुते ।४
भरतचक्रपतिः समुपेत्य स प्रणतवान् बहुभक्तिभरानतः ॥५१॥४] ४मुकुलितात्मकरः स्थितलोचनः प्रभुमुखाम्बुजतो मसृणोऽशृणोत् ।
सकलकृष्ण-बल-प्रतिकृष्णयुग-जिनप-चक्रिनृणां चरितान्यसं इति विचित्रचरित्रसमुच्चयं भरत एष निशम्य पवित्रहृत् ।
विपुलकौतुकसंकुलमानसो जिनपतिं प्रणिपत्य पुनर्जगौ ॥५३॥ (भरतप्रश्नः-) इह हि संसदि कोऽपि नरोत्तमः किमु जिनाधिप ! योऽस्ति स पुण्यमान् ।
जिनप-चक्रप-कृष्ण-बलादिषत्तमनरेषु भविष्यति तेषु यः ॥५४॥४॥ १ सुकृतलोभे रतः । २ इदानीं यद् वेदचतुष्कं वर्तते तद् एतद् अन्यथाभूतम्-इति सांप्रदायिकाः । ३ स्निग्धः । ४ 'पुण्यवान्' इति शिष्टतरम् । ॥८२॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
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(श्रीऋषभप्रतिवचः, मरीचिपरिचयश्च-) भरतभूमिपतिः प्रभुणा तदा निजगदे जगदेकदयालुना
शृणु मरीचिरयं तव यः सुतो मम पुरोऽस्ति गृहीतमुनिव्रतः ॥५५॥ सर्गः-३ बहुभवस्थितिकर्मवशादसौ न परिपालयितुं व्रतमीशिता।
अथ बिभर्ति सहाऽऽतपवारणं स्फुटमिवाऽऽवरणं परमात्मनः ॥५६॥ मम मनः सकषायमतस्तमपि वृणोति कषायितवाससा।
इह च दण्डित एव भृशं त्रिधा त्रिविधदण्डधरोऽस्मि बहिस्ततः ॥२७॥ 8 न निजकीर्तिसुगन्धियुतोऽस्मि तत् स हरिचन्दनमण्डलमण्डितः।
इति च वेषधरो भ्रमति क्षितौ भवति नैव गृही कुललजया श्रित इतीह नवीनमिव व्रतं भविजनैर्गदितोऽतिकुतूहलात् ।
वद जवानिजधर्ममथाह सः प्रभुमुखाभिहितोऽस्ति नहीतर ४ अहमशक्त इह व्रतपालने मशकवद् दुरितैरबलो हृदि ।
इति विबोध्य ममान्तिकमानयत्ययमनेकनरान् विमलान्तरः ॥३०॥ (चक्रधरः, प्रथमकृष्णः, अन्तिमजिनश्च मरीचि:-) त्वमिव चक्रधरः प्रियमित्र इत्यथ विदेह जमूपुरीपतिः।
प्रथमकृष्ण इतो भरतावनौ स भविताऽन्तिमतीर्थकरो ध्रुवम् ॥६ ॥ 8 (भरतः सहर्ष वक्ति, नमति च-) तनय एष जिनो भविता ममेत्युदितसंमदमेदुरमानसः १ ईशिता समर्थः । २ आत्मनः परम्- आवरणम् । ३ शरीरम् । ४ 'विदेहक्षेत्रे मूकपुरी नाम नगरी' इति जैनसंप्रदायः ।
४॥ ८३.॥
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॥ ८४ ॥8
सर्गः-३
पुण्डरीक-8
मुनिमरीचिमुपेत्य परीय च स्थित उवाच पुरो भरतेश्वरः ॥६२॥ ४ व्रतमिदं गततीव्रतमत्र नो न च शरीरमिदं तव किंतु भोः ।।
किल भवान् भविता यदपश्चिमो जिनपतिस्तदहं प्रणमाम्यथ ॥६३॥ B (मरीचिमदः-) इति निगद्य नमस्कृतवत्यथो प्रभुसमीपगते भरतेश्वरे।
मुनिमरीचिरसौ चिरसौहृदान्निजपितुर्नमनान्मदवानभूत् ॥६४॥ अहमहो ! प्रियमित्र इति ध्रुवं सुभगभोगयुतः किल चक्रभृत् ।।
___ अहमहो ! प्रथमः पुरुषोत्तमः प्रभविताऽहमहोऽत्र जिनेश्वरः ॥६५॥3 विहितविश्वविवेकविलोचनो मम पितामह आद्यजिनेश्वरः।
__ भरतचक्रपतिश्च पिता ततो महदलं सकलं विमलं कुलम् ॥६६॥ इति मरीचिमुनिविदुरोऽन्तराप्रमदतुन्दिलहृत् प्रननत सः।
अबलधर्म-शरीरजुषामहो ! रसवती सहते न हि चक्रगीः ॥६७॥ (भरताभिग्रहग्रहणम्-) प्रतिदिनं विदधामि जिनार्चनं ध्रुवमभिग्रहमेनमथाग्रहात् । ।
जिनपतेः पुरतो भरतोऽग्रहीद् विमलवासनया कलितस्तदा ॥३८॥४ (श्रीजिनबिम्ब-स्थापना-) प्रथमतीर्थपतिं प्रणिपत्य सोऽवतरति स्म ततः स्फटिकाचलात्।
सुरपतिर्भरताय च हर्षितो मणिमयं जिनबिम्बमिहार्पयत् ॥६९॥४॥
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१ परीय-परिक्रम्य । २ गता तीव्रता यास्मिन् व्रते तत् ।
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મૂળ પાનું ૮૪
ભાષાંતર પાનું ૮૭ ક
ભરત મહારાજ ગયા પછી મરીચી મુની મદ કરે છે કે,' અહા ! હું , ચક્રવત થઈશ ! હુ” પેહેલા વાસુ દેવ થઈશ ! અને જિનેશ્વર પણ થઈશ ! મારા દાદા ( ઋષભદેવ ) પ્રથમ જિનેશ્વર થયા છે, મારા પિતા ( ભરત ) પહેલા ચક્રવત થયા છે તેથી મારૂ’ કુળ અત્યંત નિર્મળ છે.
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SCHOROTO
पुण्डरीक-अथ पुरं समुपेत्य स चक्रभृत्-निजगृहस्य पुरो मणिधामनि ।
चरित्रम्. अनुपमेयममेयमहाविभुं जिनविभुं तमतिष्टपञ्चधी ॥८५॥
॥ सर्गः-३ (जाह्नवीसमागमनम्-) अवधितो भरतं किल जाह्नवी जिनवरार्चनसंगतमानसम्।।
समवगत्य भृशं मुदिता हृदि सुखशयानममुं समुपागमत् ॥७॥ (भरत-जाह्नवी-प्रियालाप:-) सरभसं भरतो भृशनीरजःकृतमनाः स्मितलोचननीरजः। ।
परिचितां च पुरा खपुरीस्थितां त्रिपथगाममरीमवदन्मुदा ॥७२॥ बहुतरादेयि ! ते दयिते ! कथं समयतो भवदागमनं बद।
किमु सहास्यमिहास्यसरोरुहं त्वमृतवर्षि विभर्षि दृशोर्मम ॥७३॥ इति निशम्य वचः प्रियतः प्रियं स्मितरुचा सह सा सहसाऽवदत् ।
__ अदयतो विषयोदयतो मया सुभग ! तत्र तदाऽसि निषेवितः ॥७४॥ ६ 8/नयनसोम! ततो मनसो मम त्वमसि विस्मृत एव कदापि न ।
अथ भवन्तमवेत्य जिनार्चनाच्छिवपथे प्रभवन्तमिहाऽऽगता ॥७॥ अजननाय पुनर्जननायक सुजिननायकमर्चय भावतः। अहमहर्निशमेव निषेवणं तव करोमि यथा विषयविना,
(गङ्गाकारितं भरतस्नानादि-) इति स चक्रपतिः शुचिजाह्नवी-वचनतोऽनलसो नल-सोमस्क् ।।
१ स्थापयांचक्राणः । २ रजोरहितम् नीरजः । ३ नीरजं-कमलम् । ४ बहुतराद्-अयि-इति विशेषः । ५ इह-आस्थसरोरुहम्-इति पदभङ्गः । ६ दया18 रहितातू-इति गम्यते । ७ जन्मरहितपद प्राप्तये। ८ आलस्यहीनः । ९ नलनरपतिवत् सोमरुचिः ।
॥ ८५
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चरित्रम्.
उषंसि देहविशोधनतो जवादधिजगाम सुमज्जनशालिकाम् ॥७७॥४ ॥८६॥ स्फटिकपीठनिविष्टममुं स्फुटप्रभजलैः प्रविमर्च सुगन्धिभिः।
सर्गः-३ गगनगा खयमेव सरापगा लपयति स्म गतस्मयमानसा ॥७८।।। जलकणप्रचयोऽलकलालितो गुरुरूंचे रुरुंचेऽस्य शिरःस्थितः।
विमलकामतरोरिव, शीर्षगः सुकृतबीजगणोऽस्य विधायकः ॥७९॥ विमलगागाजलं वलयाकृति खशिरसि प्रदधत् पृथुनि स्फुटम् ।
निजगदेऽविजनरयमीश्वरः प्रियतमां प्रबिभर्ति नु जाह्नवीम् ॥८॥ धवलगाइजलपतिमप्रभं प्रविदलत्कदलीदलकोमलम् । वसनयग्ममढौकयददभुतं नृपपतेः परिधानकृतेऽथ सा ।। 8
(महासादितीर्थेश्वराः समीयु:-) श्रीमत्प्रहास-वरदाम-सुमागधाख्य-तीर्थाधिपाः स्वपरिवारयुताः समग्राः।
चक्रेश्वरं च जिनपूजनबद्धबुद्धिं मत्वा समीयरमलान् प्रविधाय वेषान् ॥८२॥ 18 (श्रीजिनप्रतिमालपनादि-) जन्माभिषेकविधिमानपरासु सर्वदेवाङ्गनासु विलसन्मधुरस्वरासु॥
गीर्वाणवाक्यसुभगं शुभगन्धवारिपूरजिनलपनमेष चकार चक्री ॥८३ आनन्दतस्तदनु नन्दनचन्दनेन कृत्वा विलेपनमसौ विगतावलेपः।
१ प्रातः । २ पुस्तके प्रायः सर्वत्र एवं स्कटिक' स्थाने 'स्फुटिक' पाठः । ३ अलकैलालितः जलकणसमूहः । ४ महत्] शोभायै । ५ परोक्षकालरूपम्18 'रुच्' धातोः। ६ विस्तीर्ण शिरसि । ७ स्वजनैः-इत्यर्थः । ८ प्रभासादितीर्थनामानि जैनसंप्रदायप्रसिदानि । ९ अबलेपो गर्वः।
॥८६॥
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సంద
पुणपरीक
सर्गः-३
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अष्टप्रकारमपि पूजनमष्टकर्मच्छेदाय तत्र विचकार स निर्विकारः ॥८॥ 8 आरात्रिकं दशविधत्रिकभाववेत्ता निर्माय स ध्रुवममायमन। नृनाथः ।
सन्माङ्गलिक्यविधये वरमाङ्गलिक्यदीपं प्रदीपसुकृतः कृतवान् कृतीशः ॥८॥ (श्रीवीतरागस्तवनम्-) अथो चतुर्विशतितीर्थर।ज-नामाक्षराद्यं भरताधिराजः ।
श्रीवीतरागरतवनं प्रधानं चक्रे विधायाऽऽत्म-मनोनिधानम् ॥८६॥ तथाहिः
(श्रीऋषभ-महावीरो-)
श्रीकेवलज्ञानविभैक..........धाम ! ऋते भवन्तं हृदयं दुरीहाँ। पदशत्रुजातादतिदुःखरा......वी भक्याऽऽगतोऽस्मीत्यथ रक्ष वीर! ॥ ८७॥
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१ मायारहितमनोयुतः । २ भवन्तं विना दुरीद्दा दुष्टा ईहा आगत्य हृदयं चित्तम् समलीकरोति-अपवित्रीकरोति-इति भावार्थः । ३ अतश्चाहम्षड्पुिसमूहात्-क्रोधादिकषायवर्गात् प्रस्तः सन् अतिदुःजरावी अतिदुःखरोदनशीलः भवत्या आगतः, अतो हे भगवन ! बीर ! अथ रक्ष-इति तत्त्वम् । ४॥ ८७।।
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पुण्डरीकश्रीअजित-पार्श्वनाथौ
चरित्रम्. श्रीवीतरागाद्भुतमोह-ता....पा
सर्गः-३ असंशयं जग्मुरकर्म पाई।। जिन ! त्वदास्यांशुसुधानिपाना
तथा तव स्नात्रजलेन ना....थ ! ॥८॥ श्रीसंभव-नेमिनाथौ
श्रीमन्जिन ! त्वां हृदि दुःखदूने संस्थाप्य यद्देव ! सुखीभवामि । भक्तिर्ममेयं न तु काऽपि नाना
वर्णा कृपां ते जयतीह नाथ ! ॥ ८९ ॥ १ श्रीवीतराग ! पार्श्व ! अद्भुतमोह-तापाः त्वदास्यांशुसुधानिपानाः सन्तः -असंशयं अकर्म-निष्क्रियतां जग्मुः प्रापुः, तथा तव स्नात्रजलेन-अन्यत् सर्व 18 स्फुटमेव । २ अत्र पूर्वार्ध प्रततिम् । उत्तरार्धं तु-मम काऽपि भक्तिः, हे नाथ ! तव-ते-कृपां जयति-या न नान वर्णा -किन्तु एकरूपा-अखण्डा-इति यावत्। 8 ॥८
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पुण्डरीक
सर्गः-३
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(श्रीअभिनन्दन-मिजिनौ-)
अरूपिणी नष्टगुणा शिवश्रीरेभिन्ना कदाप्यस्तरसा रसेन (!) नन्दप्रभावा भवतोच्चकामि
दमाश्रितास्तां जिन ! के न नेमुः ? ॥ ९० ॥ (श्रीसुमति-मुनिसुव्रतौ-)
न को मनोभूस्त्रिजगन्त्यमू-नि सुखाद् बबन्ध त्वरितं मनस्सु । मत्वेति हत्वा मन एव तीवं (!)
तिरोभवस्त्वं शुचिधर्मधातः ! ॥ ९१ ॥ १ हे जिन ! हे रसेन ! (रसानाम्-इनः स्वामी-रसेनः, तदामन्त्रणे) या शिवश्रीः, नष्टगुणा (रजस्-सत्त्वादिगुणरहितत्वेन, वा क्षायोपशमिकगुणहीनत्वेन, वा आत्मविशेषगुणाभावयुतत्वेन) अत एव भिन्ना, अस्तरसा, अरूपिणी च-एतादृशी अपि सा भवता (भवदाश्रिता सती) नन्दत्प्रभावा जाता-अत एव हे जिन ! तां शिवश्रियम्-उच्चकामिदमाश्रिताः के न नेमुः-सर्व एव उच्चकामिनः उच्चस्थानाभिलाषिणः, दमाश्रिता दमयुताः श्रमणाः नेमुः इत्यर्थः । अथवा 'रसेन' इति 8 ततीया-एकवचनम् । अथवा हे भिन्न ! लोकोत्तरत्वेन सर्वतः पृथग्भूत ! अकदापि-निरन्तरम् अस्तरसा-सहीना-इत्यादि पूर्ववत् । २ को मनोभः कामदेवः8 अमुनि त्रिजगन्ति अपि मनस्सु न बबन्ध-अपि तु सर्व एव त्वरितं बबन्ध, अत एव हे तीव्र | हे शुचिधर्मधात ! त्वं मन एव हत्वा तिरोऽभवः-अतस्त्वयि
न कदापि मनोभूसामर्थ्य प्रभवितुं प्रभु-इति । अथवा हे शुचिधर्मधातः ! त्वं तोत्रम्-एव मनो हत्वा इत्यादि प्राग्वत् । 'तीव्रम्' इति पक्षे अस्य चित्रकाव्यत्वेन "नानुस्वार-विसौ च चित्रभङ्गाय सम्मती" इति श्रीवाग्भटालंकारवचनत्वेन नात्र अनुस्वारः सन्नपि चित्रभर कति ।
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जरिभम्
पुण्डरीक
सर्गः-३
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(श्रीपद्मप्रभ-मल्लिजिनौ-)
पइयाऽऽहिता दुनिंगडे प्रमादेडभको वयं दुःखकदन्नमेव । प्रभो!ऽसि सौख्यामृतमात्तधाम !
भवे त्वदन्ता किमिदं न भलिः ॥९२ ॥ (श्रीसुपार्श्व-अरनाथौ-)
श्रीवीतरागेन्द्र ! शिवश्रिया अंसुखा-ऽऽसुखाद्यल्पविकल्पभा-र! पाचे न तस्याऽक्षरणोऽहिना ना (?)
श्वेवृन्दमातिष्ठति नव नाथ ! ॥ ९३ ॥ १ हे प्रभो ! हे आत्तधाम ! (प्राप्तज्योतीरूप !-धाम-शब्दः ज्योति:--पर्यायः-अकारान्तश्च) वयं भवे संसारे, प्रमादरूपे दुर्निगडे आहिताः सन्तः दुःखकदमकमेव अद्मक:-अद्मः (अद्म एव अद्मकः-स्वार्थिक:-कः) तत् त्वं पश्य । अस्य एतादृशस्य दुःखस्य प्रतीकाररूपं किमिदं सौख्यामृतमेव त्वदन्ता भलि:9 शस्त्रं न ? अर्थात् त्वत्समीपस्थितं सौख्यामृतमेव तस्य कष्टस्य छेदनाय भल्लिः पर्याप्ता । २ हे श्रीवीतरागेन्द्र | हे नाथ! हे असुख-आसुखाद्यल्प विकल्पभार !
त्वं शिवश्रिया विराजसे (असुखं दुःखम् , आसुखं संसारसुखम् ) तस्य वीतरागस्य पार्श्वे अहिना सर्पण सह अक्ष-रणो न-रुद्राक्ष-ध्वनिन (अन्ये देवा रुद्राक्षेण जापं जपन्ति, ससर्पाश्च) एवमेव तस्य पार्श्व श्ववृन्दमपि न आतिष्ठति (अन्येषां केषांचित् पूज्यतमानां निकटे श्ववृन्दमपि दृश्यते) अित्र 'श्ववृन्दम्' इत्यस्य उपरि गतो रेफ:-चित्रकाव्यार्थमेव प्रयुक्त इति गम्यते. नाऽत्र 'ना' शब्दार्थो गम्यते ।
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पुण्डरीक
चरित्रम्
सर्गः-३
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(श्रीचन्द्रप्रभ-कुन्थुनाथौ-)
चन्द्रो यथा नन्दति सर्वरौ कुं द्ववेत् तु चन्द्राइमचयोऽमृतं थु। प्रभो! तथा शान्तरसान्विता जना
भवन्ति ते वाग्भिरनूनवित्पथ! ॥९४ ॥ (श्रीसुविधि-शान्तिनाथौ-)
श्रीरज्जुबद्धा नृततिं दृढाशां सुमोह एष भ्रमयन्नरातिर । विभो! तवाग्रे तु नयेत् कदा-ना-ss धि-व्याधि वहिप्रशमेऽसि पाथः ॥९॥
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१ पुस्तके तु चन्द्रो यथा नन्द ह सर्वकु' इति पाठः । यथा सर्वरी-शर्वरी-रात्री चन्द्रः, कुं पृथिवीं नन्दति, एवमेव चन्द्र श्मचयो यथा थु इव अमृतं द्रवेत् तथा हे प्रभो !, हे अनूनवित् !-सवित !, हे पथ ! मार्गरूप ! ते तव वाग्भिः-देशनाभिः, जनाः शान्त-रसान्विता भवन्ति । २ एष अरातिः सुमोहः श्रीरज्जुबां लक्ष्मीपाशवदाम, अत एव दृढाशा नृततिं भ्रमयन् कापि हे विभो ! तब अग्रे न न येत्-त्वं तु अधि-व्याधिवहिप्रशमे जलरूप:-असि (पाथः-जलम)।
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॥ ९१॥
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पुण्डरीक
॥ ९२॥
सर्गः-३
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(श्रीशीतल-धर्मनाथौ-)
चरित्र श्रीमन्नहं मोहतमोभिरन्धः शीलाध्वहीनं कृतवान् कुकर्म। तस्य क्षयोऽभूत् तव दर्शने ना-s
लसं मनो मेऽस्तु तवाङ्कितेऽथ ॥९६ ॥ (श्रीश्रेयांस-श्रीअनन्तौ-)
श्रीमन् ! यथाऽऽद्यो लघुरष्टजुः श्रीश्रेष्ठः प्रवृद्धथै वचनश्रिया अ।। यांस्त्वं चित्तेऽणुरपीह नूनं
सर्वोरुरेवाऽसि तथाऽद्य नेतः ! ॥ ९७ ॥ १ हे श्रीमन् ! अहं मोहतमोभिः अन्धः सन् शीलाध्वनि कुकर्म कृतवान् , तस्य कुकर्मणः तब दर्शने सति क्षयोऽभूत्, अथ तव आईते मम मनः अलसं न भवतु-इति । २ हे. श्रीमन् | यथा आद्यो लघुः-अकारः वचनश्रियाः प्रवृद्धय श्रीश्रेष्ठः अष्ट जुः ('अष्टज्जुः' इति न गम्यते) अथवा अष्टौ गुणान् जुषति-इति भवेत् तथा तम् अद्य हे नेतः ! चित्ते यान् गच्छन् , अणुः अपि इह नूनं सवारुरेव सर्वगुरुरेव असि इति ।
16॥१२॥
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पुण्डरीक
॥ ९३ ॥
४
१२
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( श्रीवासुपूज्य - श्री विमलौ — )
ajita ! ते सर्वसमा वच: श्री सुधास्रवा सद्भिरिति व्यभावि । पूर्णात् सुभात् त्वम्बुधितो निकाम ! ज्या थोर सोल्लोलततिः समूल ! ॥ ९८ ॥
इत्थं श्रीजिनराजमव्ययसुखा -ऽऽयु - वर्यं - तेजोयुतं स्वस्थैः श्रीऋषभादिनाममणिभिः श्रेणिद्वयस्थैः क्रमात् । नित्यं भूषितमात्मचेतसि मुदा संस्थाप्य यो ध्यायति सिद्धिश्रीकमलप्रभः स भवति स्फूर्जयशः सौरभः॥ -स्तवनम् ।
इति विधाय जिनार्चनमन्वहं भरतभूमिसुरैर्भरतोऽन्वितः । भविजनान् बहुशो भुवि भोजयन् सुकृतवान् कृतवानथ भोजनम् ॥ २००॥ सुरसरिद्-वरदाम- सुमागधाद्यधिपदेवकृतं स्नपनं तदा ।
हृदि निधाय नृपा बहवो भुवि विदधिरे जिनपूजनमन्वहम् ||१||
उक्तं च
१ पूर्वार्ध प्रतीतम् । उत्तरार्धे तु यथा पूर्णात् सुमात् चन्द्रात् ('तुः समुच्चयार्थे) अत एव पूर्णात् अम्बुधितः ज्यायोरसोहोलततिः जायते इत्यादि - अन्यत् तु स्पष्टमेव । अत्रापि पुस्तके तु 'र्णायोरसोलोलततिः' इति विचित्रः पाठः । २ पूर्वनिर्दिष्टेषु लोकेषु श्रेणीद्वये श्रीजिनराजनामानि प्रतीतान्येव - तानि च अस्माभिः विशेषस्पष्टीकरणाय महद्भिरक्षरैः मुद्रितानि । ३ अयं च प्रन्थकर्तुरपि नामनिर्देश: 'कमलप्रभ' इति । ४ भूमिसुरा: भूदेवा:-ब्राह्मणा इति यावत् ।
चरित्रम्सर्ग: - ३
॥ ९३ ॥
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पुण्डरीब
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शस्तसमस्तसरित-समुद्र-तीर्थोदकानि घोषणया। स्मरयन् प्रागभिषेकं छेकः शेषं विधिं कुर्यात् ॥२॥ (भरतानुसरणम्-अन्यैः कृतम्-) भरतचक्रधराचरितं च तद् भविकभोजन-दानमपि क्षिती।
सर्गः-३ सुकृतिभिर्विदधे निजशक्तितो नृपतिभिबहभिर्बहभावतः ॥३॥ (ऋषभसेनप्रश्नः स्फटिकाचले-) ४ ऋषभसेनगणः प्रथमोऽन्यदा ऋषभदेवविभुं प्रणिपत्य च। सविनयं स्फटिकाचलमूर्धनि सममपृच्छत केवलसंभवे । हे बाहुबलिप्रमुखाः प्रभो! यतिवरा अपि केवलिनोऽभवन् ।
प्रथमतः श्रिततीव्रतरवतः कथमहं न लभे परमं महः ? ॥५॥ बहुभवोपचितं दृढकेवलावरणनाम-कुकर्म मम प्रभो!।
व्रजति केन तपोविधिनाऽधुना रुचिरतीर्थभुवि क्व नु वा क्षयम् ॥६॥ (युगादिजिनो जगाद-) अथ जगाद युगादिजिनाधिपो विमलशैल इतोऽपरदिग्भुवि ।
ध्रुवमनन्तमुनीश्वरमुक्तिदो विमलताकलितोऽस्ति पुराऽपि यः ॥७॥४ १२ विमलशैलवरस्य शिरस्यहो ! गणपते ! तव तस्य समीयुषः ।
विमलता शिवसौख्यफलावलिप्रसवकल्पलताऽस्ति च भाविनी ॥८॥ ४ ४/पथि भविप्रतियोधविधायिनो विमलशैलविभावविभासनम् ।
तव च तत्र भवेद् बहुभावनोदय इति त्रितयं दुरितापहम् ॥९॥ १ छकः चतुरः । २ शिरसि शिखरे । ३ विभावः प्रभावः । ४ भविप्रतिबोधः, विमलशैलविभासनम्, भावनोदयश्च-एतत् त्रितयम् ।
॥ ९४॥
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पुण्डरीकयतः- त्रितयमेव तद् दर्शयति
चरित्रम्"सयलम्मि जीवलोए तेण अहं घोसिउ एअमाघाओ। सकले जीवलोके तेन अहं घोषयितुमेतद् आख्यातः। इक पि जो दुहत्तं सत्तं बोहेइ जिणवरणे ॥१०॥ एकमपि यो दुःखात सत्त्वं बोधयति जिनवचने ॥१०॥
४ सर्गः-३ समत्तदायगाणं दुप्पडीयारं भवेसु बहुए। सम्यक्त्वदायकानां दुष्प्रतीकारं भवेषु बहुकेषु । ४सव्वगुणमीलियाहि वि उवयारसहस्सकोडीहि ॥११॥ सर्वगुणमीलिताभिरपि उपचा(का)र सहस्रकोटिभिः॥8 -एकम् ।
-एकम् । तित्थयराण गुरूणं साहणं बंभयारीणं ।
तीर्थकराणां गुरूणां साधूनां ब्रह्मचारिणाम् । तित्थाणं खु पहावो पयासिओ परमसुहहेउं ॥१२॥ तीर्थानां खलु प्रभावः प्रकाशितः परमसुखहेतुम् १२४ तित्थयराण प्पहावं तित्थाणं चेव जो प्पयासेह। तीर्थकराणां प्रभावं तीर्थानामेव यः प्रकाशयति। ४खविऊण पावकम्मं सिद्धिसुहं सो लहइ जीवो १३ क्षपयित्वा पापकर्म सिद्विसुखं स लभते जीवः ॥१३४ ४तित्थाणं च जिणाणं मन्नेह पूर्व संपइ न पहावं । तीर्थानां च जिनानां मन्यते पूजां संप्रति न प्रभावम्।। ४सो अत्थिक्कविहूणो दुल्लहवोही नरो होही ॥१४॥ स आस्तिक्यविहीनः दुर्लभबोधिनरो भविष्यति१४४ -द्वितीयम् ।
-द्वितीयम् 18 ४ जिणनाहा गणनाहा जत्थ य सिज्झन्ति कम्मपरिमुक्का। जिननाथा गणनाथाः यत्र च सिध्यन्ति कर्मपरिमुक्ताः भवियाण पूयणिज्जं सिद्धिखित्तं हु तं वत्तं ॥१५॥ भव्यानां पूजनीयं सिद्धिक्षेत्रं खलु तद् वृत्तम् ॥१५॥४
वित्तगयाणं भवियाणं भावणा भवे तिक्खा। सिद्धक्षेत्रगतानां भव्यानां भावना भवेत् तीक्ष्णा ॥९५६
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१२
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पुण्डरीक -8 तिबखाए भावणाए पावं कम्मं गलह सयलं ॥ १६ ॥ तीक्ष्णया भावनया पापं कर्म गलति सकलम् ||१६|| ॥ ९६ ॥
- तृतीयम्
- तृतीयम् । (सिद्धप्राभृते शत्रुंजय - वर्णिकाः गाथा:-) तथा च सिद्धपाहुडे
पढमारए असीई उस पन्नास जोयणा दिट्ठा । वीरे जोयण बारस छट्ठ इए सत्त रयणीओ ॥ १७॥ पुव्वमतं कालं ओसप्पिणि-सप्पिणीसु तित्थगरा सितुंजगिरिवरम्मि अ समोसरिडं सिवं पत्ता १८
।
४
१२
तथा च सिद्धप्राभृते
प्रथमारके अशीतिः ऋषभे पञ्चाशद् योजनानि दृष्टानि । वीरे योजनानि द्वादश षष्ठे इते सप्त रत्नयः ॥ १७ ॥ ॥ पूर्वमनन्तं कालं अवसर्पिणी - उत्सर्पिणीषु तीर्थकराः । शत्रुंजयगिरिवरे च समवसृत्य शिवं प्राप्ताः ||१८||
( श्रीपद्मनाभप्रमुखा जिना: - ) सिरिपनाहप्पमुहा तित्थयरा भाविणो असंखिज्जा । सिरित्तिं गिरिम्मि उ विहित्ता निव्वुडिस्संति । १९ । ( त्रयोविंशतिर्जिनाः - अन्ये राजानश्च - ) aati fareer समोसढा नेमिवज्जिया जेण । तं विमल गिरीतित्थं सुकयत्था केsपि पिच्छंति २० पन्नास कोfsलक्खा अधराई जाव अजियजिणो । आइजसप्पमुहा रायाणो निव्वुइ पत्ता ॥ २१ ॥
१ षष्ठे अरके इते प्राप्ते आगते सति । २ रत्नयो हस्ताः । ३ अतराणि - सागरोपमानि - इति जैनानां सांप्रदायिकः कालमानसूचकः संकेत विशेषः ।
श्रीपद्मनाभप्रमुखाः तीर्थकरा भाविनोऽसंख्येयाः । श्रीशत्रुंजयगिरौ तु विहृत्य निर्वृतथिष्यन्ति ॥ १९ ॥
त्रयोविंशतिस्तीर्थकरा समवसृता नेमिवर्जिता येन । तद् विमलगिरितीर्थं सुकृतार्थाः केऽपि प्रेक्षन्ते ॥२०॥ पञ्चाशत् कोटिलक्षाणि अंर्तराणि यावत् अजितजिनः । आदित्यशःप्रमुखा राजानो निर्वृतिं प्राप्ताः ॥ २१ ॥
चरित्रम्
सर्गः - ३
॥ ९६ ॥
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पुण्डरीक- (चातुर्मासे श्रीअजित-शान्तिजिनौ-)
चरित्रम्. सिरिअजिय-संतिनाहा चाउम्मासम्मि संठिया जत्थ श्रीअजित-शान्तिनाथाः चातुर्मासे संस्थिता यत्र । सर्गः-३ " निम्मलनयवाणीए पडियोहिस्संति भवियजणं॥२२॥ निर्मलनयवाण्या प्रतिबोधयिष्यन्ति भव्यजनम् ॥२२॥
(नारद प्रमुखाः -) नारयरिसी असमणा भद्दयभावा उ जत्थ महरिसिणो। नारऋषिश्च श्रमणा भद्रकभावास्तु यत्र महर्षयः ।। १ एगाणउइलक्खा सिवं लहिस्संति तिथम्मि ॥२३॥ एकनवतिलक्षाणि शिवं लप्स्यन्ते तीर्थे ॥२३॥ 8 (पाण्डया:-)
षाणाम् । ४साहण वीस कोडी पंडवसरिसाण धीरपुरिसाण। साधूनां विंशतिः कोटिः पाण्डवसदृशानां धीरपुरु ४ सिडि सिद्धिगिरिम्मि उ भगीरहे इत्थ सिझंति २४ सिद्धि सिद्विगिरौ तु भगीरथे अत्र सिध्यन्ति २४४
कोडाकोडीसायर-मज्झे इञ्चेवभाइया मुणिणो। कोटाकोटीसागर-मध्ये इत्येवमादिका मुनयः। है सिद्धिसुहं संपत्ता तिलयम्मि इत्य सेलम्मि ॥२५॥ सिडिसुखं संप्राप्ताः तिलके अत्र शैले ॥२५॥ प्रतिदिनं भविनः प्रतिबोधयन् विद्धदद्भुतभावविभासनम् ।
विमलयन् स्वमनो विमनोभवं व्रज मिहाविमलं विमलाचलम इति निदेशमवाप्य जिनेशितुः सुयतिपञ्चशतीसहितस्तदा ।
अवततार ततः स्फटिकाचलाद् विमलशलमभि प्रयियासया ॥२२७॥ ४ १ मनोभवः कामः-तद्रहितम् । २ मिहा प्रातःकाले पतद् हिम-सीकरम् । ३ प्रयातुम् इच्छया ।
॥९ ॥
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सर्गः-४
पुण्डरीक-विमलभूमिधरं प्रति हर्षतः प्रचलिते प्रथमे गणनायके। हरिणवेषसुरं सह वासवः प्रहितवांस्तदुपासनहेतवे॥२२८॥ चरित्रम्.
वातव्याधूतनूतध्वजभुजनिवहरातनुत्तेव हृष्ट-स्वर्गस्त्रीवर्गगीतैरिव विहितमहामाङ्गलिक्योच्चरावा। नव्या दिव्या विमानावलिरिह विमलादि प्रति प्रस्थितस्य रेजे श्रीपुण्डरीकप्रथमगणधरस्यानुगा हर्षितेव ॥२९॥ जय स्वाभिन् ! स्वामिन्निति हरिणवेषप्रभृतिभिः सुरैः स्तोत्रव्यग्रेरनुगतपदोऽयं गणधरः। ४चचाल श्रीशत्रुजयगिरिवरं प्रत्यथ मुदा, चतुर्तानी सर्वागमवचनकर्पूरकलशः॥२३०॥
श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुषङ्ग त्यजन् यो जाड्यस्थितिरप्यभूत् प्रतिदिनं प्राप्याद्भुतप्रातिभः । ४ तेन श्रीकमलप्रभेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः श्रीश@जयदीपकस्य चरिते सर्गः तृतीयोऽभवत् ॥२३१॥
इति श्रीबाहुबलिकेवलज्ञान-भरतसाधर्मिकवात्सल्य-पुण्डरीकयात्राप्रचलनो नाम तृतीयः सर्गः। ( विहरन्-श्रीपुण्डरीक:-)
चतुर्थः सर्गः। श्रीपुण्डरीकः सॅमितोऽप्रतिमप्रतिभप्रभुः । बहूनदीक्षयद् भव्यान विबोध्य विहरन् भुवि ॥ १॥
(पोतनं पुरम्-) धनुःपञ्चशतीदेहस्ततः साधुशतैर्वृतः । प्राप पारिपुः पुग्योद्योतनं पोतनं पुरम् ॥ २॥
तस्योद्याने शुकैहसैमङ्गलालापिभिर्वते । मुनिप्रभावात् सर्वर्तुरमणीयतरूच्चये ॥३॥ 18 वातनिधूतपुष्पौषकृतचन्द्रोदयंभ्रमे । यतिस्थितिकृते चक्रुस्ते देवा रत्नशालिकम् ॥ ४॥(युग्मम् )
१ हरिणवेषो नाम 'हरिणेगमेषी'नामा देवः प्रतीयते, स च जैनसंप्रदाये प्रसिद्धः । २ आत्तं नृत्तं यया सा-ईदृशी विमानावलिः । ३ गयो-ध्वनिः । a४ पूर्वगतकोकव्याख्यावद् अस्याऽपि व्याख्या आख्येया। ५ पञ्चभिः समितिभिः समितः। ६ अप्रतिमा-अनुपमेया । ७ पापशत्रुः। ८ सर्व-ऋतु-रमणीयः 18 तरूणाम् उच्चयो यत्र । ९ चन्द्रोदयः-भाषायाम् चन्दरखो-इति ख्यातः ।
॥९८॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्
(देवता आगता-) है मुनेस्तत्र निविष्टस्य काचिदभ्येत्य देवता । नत्वांऽहियुगलं यावत् तस्थौ सुस्थमनाः पुरः ॥ ५ ॥ ॥ ९९ ।। (श्रीरत्नचूडो राजा-)
४सर्गः-४ तावत् कृतारिदैन्येनं सैन्येन परितो वृतः। अगर:महादः सुभटैरुद्भटैस्तथा ॥ ६ ॥ मन्त्रिणा मतिचन्द्रेण राजहंसेन सूनुना । युक्तः श्रीरत्नचूडाख्योऽभ्येत्य राजाऽनमद् मुनिम् ॥ ७ ॥
(सचिवप्रश्न:-). स ततः सचिवः प्रोचे भगवन् ! अस्य भूपतेः । देवः कोऽपि पुरा वैराद् जिह्वास्तम्भं चकार किम् ? ॥ ८॥ कस्माद् वा भक्षणादेष जोषंदोषं पुपोष किम् । यौवराज्येऽवदद् वाक्यं नो राज्यप्रापणात् कथम् ॥९॥
(ऊचे मुनि:-) मुनिरूचे पुराऽनेन कर्मबन्धकरं वचः। उक्त्वा ज्ञातमिदं पश्चात् क्षामितं विनयात् पुनः ॥ १० ॥ ततः पूर्वभवं स्मृत्वा बिभ्यत् वाक्-कर्मबन्धतः । नासौ वदति तद् नाऽन्यद् नृपमौनेऽस्ति कारणम् ॥११॥
(जगाद पुनमन्त्री-) स जगाद पुनमन्त्री कोऽस्य पूर्वभवः प्रभो ! । किं वा तद्वचनं चेति ! कथ्यता संसदि द्रुतम् ॥ १२ ॥
(स्वामिदेशना-रत्नचूडनृपपूर्वभवश्च-) तेनेति पृष्टे 'तेनेऽथ स्वामिना देशनाऽमुना। संमोहगेहसंदेह-व्यपोहार्य सुमन्त्रिणः ॥ १३ ॥
(विदेहे क्षेत्रे रत्नपुरम्-) क्षेत्रे महाविदेहाख्ये विजयो मङ्गलावती । तत्र रत्नपुरं नाम नगरं पुण्यनागरम् ॥ १४ ॥
(वैरसिंहो राजा-) १ कृतम् अरिषु दैन्यं येन । २ मूकतादोषम् । ३ वाचा जन्यः कर्म-बन्धः-ततः। ४ सभायाम् । ५ 'तन्' धातोः परोक्षकालरूपम्-विस्तार कृतवान्-इत्यर्थः । ६ व्यपोहो-दूरीकरणम् । ७ पुण्याः नागरा नगरवासिनो यत्र तत् ।
8॥९९॥
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पुण्डरीक
॥१०॥
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वैरसिंहोऽत्र राजाऽपि नैव यः कुवलप्रियः । जगन्मित्रोऽपि सूरोऽपि नैव यः विश्वतापनः ॥ १५ ॥
चरित्रम् (लीलावती राज्ञी-) शीललीलावती तस्य नाम्ना लीलावती प्रिया । अक्षीणसत्यपीयूषों यस्या आस्यामृतद्युतिः ॥ १६ ॥ सर्गः-४ . (पुत्रो मेघनादः-) पूर्वपुण्यस्तयोर्दत्तः पुत्रः सुत्रामविक्रमः । मेघनाद इति ख्यात्या ख्यातो ध्यातो जगजनैः ॥ १७ ॥ बाल्य क्रमेण तल्याज मौग्ध्यं सर्वत एव यः । यौवनं यः क्रमात् प्राप कलाः कीर्तिं च सर्वतः १८ ॥
(मेघनाददानन्यसनम्-) साक्षिणं शुद्धपुण्यं यः कृत्वा दत्त्वा निजं करम् । मैत्र्यं दानाख्यमित्रेण स्थिरं जग्राह साग्रहः ॥ १९॥ दत्वाऽथिभ्यः सुवर्ण यः संवर्ण वादमग्रहीत्। विधाप्य पुण्यप्रासादॉन् प्रसादं पुण्यतोऽनयत् ॥ २० ॥ स दानं च सदानन्दकरं धीमान् सदा ददौ । यथा यथा तथाऽभ्येयुः कलापात्राण्यनन्तशः ॥ २१ ॥ महादानं ददानोऽयं वर्धमानमथो दिने। अष्टादश स्वर्णकोटीकोटीरः प्रदत्तवान् ॥ २२ ॥
(दानव्यसनभीतो राजा जगौ-) दानव्यसनतो भीतो राजा रहसि तं जंगी। वत्स! स्वच्छतया भोगः कार्यों नौदार्यमद्भुतम् ॥ २३ ॥
(मेघनादप्रवास:-) निशम्येति महादानी महामानी महानिशि । निस्ससार सदाचारसार: सारभृतो भृशम् ॥ २४ ॥
(प्रीष्मः-) १ राजा चन्द्रो हि कुवलं कुवलयम्-चन्द्रविकासि पद्मम्-तस्य प्रियः । अयं वैरसिंहो राजा-नृपः सन्नपि नैव कुबलानां निन्दितबलानां प्रियः-तेषां नाशकत्वात्।४ ४ पुनश्च अयं वैरसिंहो नृपः जगन्मित्रः, सूरोऽपि सन् नैव विश्वतापनः, जगन्मित्रः-सूरः-भानुहि विश्वतापनः प्रतीतः इति विरोध-परिहारी । २ अक्षीणं सत्य ४ पीयूषम्-अमृतं यस्यां सा । ३ यः शुद्धपुण्यं साक्षि विधाय, निजं हस्तं दत्त्वा दाननाम्ना मित्रेण स्थिरं मित्रत्वं संपादितवान्-दानशूर आसीद्-इति तत्त्वम्।। ४ शोभना वर्णा यस्मिन्-यशोवादम्-इत्यर्थः । ५ पुण्यमहालयान् । ६ कलापात्राणि-कलानिपुणाः । ७ कोटीरो-मुकुटः । ८ कथयामास ।
॥१०॥
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પુ ડરીકસ્વામી પાતપુર નગરના ઉધાનમાં આવીને રહ્યા છે તે વખતે રેન૧૩ રાજન પાતાના રાજહ સે નામના પુત્ર તથા મતિચંદ્ર નામના મંત્રી સાથે વંદન કરવા માગે છે. સ્ત્રી રાજનેતા નોન ૨ ટેવાના સંબંધમાં ગણુધર્મ મહારાજને પ્રશ્ન કરે છે..
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पुण्डरीक-8
सर्गः-४
४
भीष्मे ग्रीष्मेऽन्यदा गच्छन् वकुलस्य तरोस्तले । परिश्रान्तः सुविश्रान्तः शान्तस्वेदस्तु वायुना ॥ २२॥
(दान्तिकं हरिणी-) ॥१०॥ तत्राऽकस्माद् भयत्राता सजला लोललोचना। हरिणी गर्भखिन्नाङ्गी वेग.दागात् तदन्तिकम् ॥ २३ ॥
मनुष्यवाचं जल्पन्ती रक्ष रक्षेति सेोत्सुकाम् । स्वहस्तेन ततस्तेनाऽऽस्पृष्टा हृष्टा स्थिताऽथ सा ॥२७॥ मा भैर्मा भैरिति स्पष्ट कृपापुष्टं वदन वचः । स्वात्सङ्गे रगतो नीवा स ददावभयं तदा ॥ २८ ॥
. (आजगाम सिंह:-) तदेव देवयोगेन प्रस्ताऽऽस्यः ऋधा क्षुधा । आजगाम हरिः काममप्रेक्ष्यः कातराङ्गिनाम् ॥ २९ ॥
(सिंह-मेघनादयोः संल.प:-) मृगी वीक्ष्य मैहातादो मेघनादाङ्कसंगताम् । स्थित्वा सुखं च संमील्याऽऽश्वस्य नागेंगदद् गिरम् ॥ ३० ॥ त्रिलॅन्याऽद्य देवेन दत्तवा यद गता मृगी। कवलः किल वक्त्रस्थ इव वातस्ततेो मम॥ ३१ ॥ 8 जन्मसब्रह्मचारिण्या ह हा क्रूरतया तया । भवन्तं पुण्यवन्तं तु दृष्ट्वा मुक्तः करोमि किम् ॥३२॥
अहं करोऽपि शूरोऽपि पशुरज्ञानवानपि । भूकल्पभूरुहं नत्वा हन्तुं कुर्व मनोऽपि नो ॥ ३३ ॥
सदाकार! सदाचार ! सदोपकृतिकारक ! ॥ कुमाराऽपय मे भक्ष्यं धर्म संख्यं तवाऽस्ति चेत् ॥ ३४ ॥ ८ स.कारमन्मथो वाचमथोवाच नृपाङ्गभूः। अहो ! सिंह ! महोयुक्त ! शृणु संवृणु मानसम् ॥ ३५ ॥
(क्षत्रियस्यार्थ:-) क्षत्रिया: सर्वतेजांसि समुच्छित्य भुवस्तले । परमाणपरित्राणकृते सृष्टिकृता कृताः ॥ ३६ ॥
१ ददौ अभयम् । २ क तरमनुष्यैः अप्रेक्ष्यः । ३ महान.दोन सिंहः । ४ स्राग्-झटिति । ५ त्रयाणां लङ्घनानां समाहारः-उपवासत्रयी इत्यर्थः । 8६ जन्मसहचारिण्या । ७ पृथिव्यां कल्पवृक्षरूपम् । ८ सांत्वम् । ९ मूर्तिमान् अनङ्गः । १० तेजस्विन् ! । ११ रुद्धं कुरु । १२ सर्वतेजांसि संगृह्य।॥१०॥
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2.
चरित्रम्.
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ततस्ते प्राज्यसाम्राज्य! देहगेहतद्भवान् । दानेनाऽपि सदा दानत्वहो! शरणागतम् ॥ ३७॥
प्रसन्ननाद्य देवेन पुण्यदेहस्य पोषदम् । भीतत्राणं महाभोज्यं दत्तं तत् किमहं त्यजे ॥ ३८ ॥ ॥१०२॥
सर्गः-४ (सिंहाय मृगीस्थाने स्वदेहदानम्-) मम भक्ष्यान्तरायेण सर्वमेतत् प्रलेष्यते । इति चेद् वदसि तद्देहं ममाऽऽस्वादय सत्वरम् ॥ ३९ ॥ इत्युक्त्वा पतितेऽग्रेऽस्मिन् सिंहोऽवाचन्नरोत्तम । मानुषं जन्म दुष्प्रापं मोक्षदं किं परित्यज ॥ ४० ॥ मृगकान्ता कृते:प्राणान् यच्छतस्तुच्छधीजुषः । भोक्ष्याम्यहं न मांसं ते गच्छ स्वच्छ ! विचारय ॥४१॥४ स ऊचे जगृहे मोक्षो मया श्रेयाश्रियाऽनया। मृग्या जीवस्थापनिको मोक्षं कुर्यान्नपापदम् ॥ ४२ ॥ प्रसादं कुरु पारीन्द्र ! शरीर मे कृतार्थय । वदन्निति पुनर्यावत् पपाताऽग्रेऽतिसाहसी ॥ ४३ ॥
(मृगी-सिंही अन्तहिती-) तावद्ग्रे मृगी सिंहं नोऽपश्यद् विस्मितस्ततः । पित्तन दूनचित्तेन ददृशे किमिदं मया? ॥ ४४ ॥ इति विस्मित्य विस्मित्य स्वेन चित्तन तच्चिरम् । वकुलादचलद् मेघ-जादो नाऽदो धिया त्यजन् ॥ ४॥ पुण्येऽरव्येऽन्यदाऽनेन गच्छता स्वच्छतान्विता । फल-मालिकलिता नदी काचिददृश्यत ॥ ४६॥ हेलया संचरंस्तत्र पुलिने विपुले.ऽमले । मेघनादः फलान्यादै पपी नीरं च निर्मलम् ॥ ४७ ॥
(मेघनादो दःर्श प्रासादमू-) पुरस्तदा स्कुरनानारत्नराशिप्रभाभरैः । पवित्रिताम्बरतलं प्रासादं प्रदर्श सः ॥ ४८ ॥ ३१ पुत्रान् । २ प्रलयं यास्यति “लीच् श्लेषणे" धातुः । ३ आत्मनेपदमनित्यम् । अत एव भोक्ष्यामि-भोजनं करिष्यामि । ४ जीवरक्षा । ५ अपापदम् ।
६ सिंह ! । ७ पित्तेन शरीरस्थेन तन्नाम्ना धातुना-पित्तेन हि भ्रमो जायते इति प्रसिद्धः । ८ न अदः एतत् पूर्वोक्तं वचित्र्यम् । ९ पुलिनः तटः । १० आद भक्षयामास ।
॥१०२॥
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पुण्डरीका
॥१०३॥
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(प्रासादस्था देवी-)
चरित्रम्. कुतूहलरसावेशस्फीतप्रीतविलोचनः । तदारे सुप्रभाधारे गत्वा मध्यं व्यलोकयत् ॥ ४९ ॥ एकया सुप्रतीहार्या छत्रधारिकयैकया । द्वाभ्यां चामरभृद्भ्यां च नारीभ्यां सेविता मुदा ॥ ५० ॥
सर्मः-४ आनन्दामृतकुल्येव कल्पवल्लीव जङ्गमा । सीमा सुदर्शनीयानां रेखा रूपभतां भुवि ।। ५१ ॥ १ अतीवदिव्यदेहाभिः देवीभिः परिता वृता । रत्नसिंहासनासीन। दुःखदीनानना भृशम् ॥ ५२ ॥ है सर्वदेवीश्वरी काचिद् विद्या स्मितचक्षुषा । नृसारेण कुमारेण ददृशे हर्षदा दृशोः ॥५३॥ -कलापकम् ।
(देव्या विषाद:-) दृष्ट्वा दुःखमुखीश्याममुखीमेनां सुमानसः । कामेकां मुमुखीमस्या दुःखहेतुं स पृष्टवान् ॥ ५४ ॥ मजुवाचमथोवाच सा तदा कर्णसाताम् । शृणु वृत्तं निजं चित्तं स्थिरीकृत्य सुकृत्यवित् ॥ ५५ ॥४ स्वामिन्याः कुलवृत्तान्तं स्वामिनी ज्ञापयिष्यति । दुःखहेतुं मया कथ्यमानमाकर्णयाऽभुतम् ॥ ५६ ॥
(विषादकारणम्-) अत्र यक्षवने हर्षात् क्रीडन्त्या पुष्पकन्कः । सखी प्रति स्वहस्तेन स्वामिन्या प्रेरितो यदा ॥ ७ ॥ । तदाऽङ्गलीयोऽप्यङ्गल्याश्चिन्तामणिविभूषितः । पाच दिव्याग्निसंपूर्णकुण्डे स सहसाऽविशत् ॥ ५८ ॥ । तस्य दिव्यस्य कुण्डस्य वह्निज्वाला कुलोचयः । न शाम्यति विना सत्वं सात्त्विकानां महात्मनाम् ॥ ५९॥ । मनःपुराद् विनिर्वास्य हर्षराजं म(हा)या हठात् । विषादो(त्थ)लनिषादोऽस्याः तदा प्रभृति तस्थिवान् ॥३०॥
१ समस्तमेतत् । २ सुदर्शनीयानां सीमा- नातः परा सुदर्शनीया । ३ नात: परा रूपवती । ४ आसीना-स्थिता । ५ कर्णसुखदाम् । ६ कन्दुको ४. हि भाषायाम् ' दडो' इति । ७ अङ्गलीपरिधेयः-चिन्तामाणः ८( ) एतचिह्नगतः पाठः कल्पितः शोधकेन ।
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पुण्डरोक-8
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( तद्विपादनाशाय मेघनादपौरुषम् - )
चरित्रम् इति मौनावलम्बियां कामिन्यां स व्यचिन्तयत् । निशम्याऽपि महादुःखं चेन्न हन्मि ततः पशुः ॥६॥ ॥१०४॥
सर्ग:-४ विश्वेऽस्मिन् दीनताभीतो न दुःखं कथयेज्जनः । कथयेचेत् तदा दुःखनाशमाशास्य चेतसा ॥ १२ ॥ अस्मात् कायव्ययादेष स्थिरां पुण्यतनूं लभे । अथवा मन्दभाग्यत्वं पुरा प्र.दुरभूद् मम ॥ ६३ ॥ न मां वदति जिह्वाऽस्या यावद् दुःखापनीतये । तावत् करोमि-मे वाञ्छा पुण्यभूयात् फैलेग्रहिः ॥३४॥ 8| सतां मान्यः स तां देवीमवदत् तदनु स्फुटम् । वह्निकुण्डस्थितं शीघमङ्गलीयं प्रदर्शय ॥ ६॥
साऽऽक्रम्य भूमिकां स्तोकां तर्जन्या तद्वचोऽकरोत् । मुमुदेऽथ स तं दृष्ट्वा मुनिवद् वद्वितीपनम् ॥६६॥ परदुःखविनाशाय कार्य कुर्यात् पुनविधिः । इत्युदित्वा ददौ झम्पां निष्कम्पाङ्ग-मनस्थितिः ॥ ६७ ॥
(बहेर्जलीभावः-) तस्मिन् सत्त्वसुधाकुण्डे संगते कुण्डमण्डनम् । वह्निः स जलतां भेजे कीर्तिबीजलतां तदा ॥ ६८ ॥
(मेघनादस्य स.फल्यम्-) जयनादेन देवीनां स्फीतेन यशसा समम् । मूर्ती मुदमिवैतस्य। मुद्रां नीत्वा स निर्ययौ ॥ ६९ ॥
(देवीप्रसन्नता-) सत्त्वेन तुष्टाऽतुष्टाऽहं वत्स! स्वच्छ ! वरं वृणु । देव्या एवं वदन्त्यास्तं पुरो मुक्त्वा ननाम सः ॥७॥
तस्याः प्रसन्नचित्ताया आलोक्याऽऽलोकनिर्मलम् । मुखचन्द्रमदुःखीभ्रमथाऽवादीत् कृताञ्जलिः ॥ ७१ ॥ ४ यद्वरं दर्शनं स्वीयं दत्तं सोऽभूद् महावरः। पूर्ववृत्ते तु संदेहमन्देह मतिरस्ति मे ॥ ७२ ॥ 18/१ आशां कृत्वा । २ फलवान् । ३ आतापनासेवनं यथा मुनिः करोति । ४ मेघनादे । ५ एतस्याः पूर्वोक्ताया देव्याः । ६ दुःख-अभ्रहीनम् । ७ इह संदेहमन्द।। 8 ॥१०४॥
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चरित्रम.
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पुण्डरीक
(देवीपूर्ववृत्तम्-) ॥१०॥
देव्यूचे मद्वचःपूरं कर्णपूरं कुरु स्थिरम् । कुमार ! सद्गुणाधार ! मन्मनःप्रमदप्रद ! ॥ ७३ ॥ सर्वराज्याधिदेवी मां विद्धि सिद्धिप्रदां सदा । एलाश्चतस्रः सैनस्य चतुरङ्गस्य देवताः ॥ ७४ ॥
सर्गः-४ (मेघनादसत्त्वपरीक्षार्थमेव एतत् देवीकृतम्-) ममात्मस्थानमासीन-देवीजिह्वाभिरागता । त्वद्दानसंभवा कीतिः कर्णाकर्ष चंकर्ष सा ॥ ७५ ॥ सदैन्या-ऽदैन्यरूपाभ्यां मृगनारी-मृगेन्द्रयोः। अथि क्षत्त्रं च सत्त्वं च वीक्षितं च परीक्षितम् ॥ ७६ ॥ तव मार्गविषण्णस्य निषण्णस्य तरोस्तले । देहाद दाध्यमहं प्रापं सुष्प्रापं तदा यतः ॥ ७७ ॥ जना ज्ञातमहत्वाय प्रायः स्वमुपकुर्वते । त्वं तु मामप्यविज्ञायो-पचके तद् भूशार्यते ॥ ७८ ॥
(मेघनादं सार्वभौमं करोमि-) योग्याः स्वल्पस्य राज्यस्य सेवका बहवोऽपि मे । अत्यद्भुतगुणं त्वां तु सार्वभौमं करोम्यहम् ॥ ७९ ॥ इत्यूचाना प्रसन्नास्या पृष्ठेऽस्य करपङ्कजम् । निवेश्योत्थापयांचवे राज्यदेवी कुमारकम् ॥ ८० ॥ माणिक्यमणिरत्नाव्यशिरःकोटीरमध्यतः। मन्दारपुष्पं हस्तेन नीत्वा तस्मै ददौ सुरी ॥ ८१ ॥ राजसूनो ! प्रस॒नेनाऽनेनाऽवश्यं वशंवदाः । भविष्यन्ति नृपाः सर्वे तभित्यूचेऽथ देवता ॥ ८२ ॥
( मेघनादप्रवास:--) राज्यदेवी तिरोभूता सा प्रभूताऽमरीवृता। सोऽप्यचालीदिलीऽऽलोककुतुहलरसाकुलः ॥ ८३ ॥
१ कृष्टवान् । २ मृगी सदैन्या, सिंहः-अदैन्यः । ३ तव देहाद् अहं एतादृशं दाढ्य प्रापम्-अर्थात् तव देहे अहम् एतादृशं दाढ्य निरीक्षितवती-यद् | अन्यत्र सुदुर्लभम् । ४ प्रभूतीभवति । ५ सर्वभूमीश्वरम्-सर्वमुख्यम् । ६ उक्तवती । ७ अस्य मेघनादस्य पृष्ठ । ८ मन्दार:-कल्पतरुः । ९ प्रसूनं पुष्पम् ।। १. इला-भूमिः ।
॥१०॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्. सर्गः-४
॥१०६॥
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(विशाला नगरी-) भूपभूर्भूतलं भ्राम्यन्-अन्यदा दानिनां नृणाम् । कुञ्जराणां च शालायां विशालायां ययौ पुरि ॥८४ सहेलाभिर्महेलाभिः पुरुषैः धनपूरुषः । कन्याभिर्गुणधन्याभिः पण्डितैश्चातिमण्डितैः ॥ ८॥ सशृङ्गारैर्मुदागारैर्जनः सुकृतसजनैः अश्वैरनिःश्वैर्महसा वारणैररिवारणैः ।। ८६॥-युग्मम् ।। सकौतुकां पुरी प्रेक्ष्य किश्चित् पप्रच्छ पौरुषम् । उत्सवैरुत्सवो लोको भद्रेह किनु दृश्यते ? ॥ ८७ ॥
(राजेन्द्रो राजशेखर:-) सोऽवदत् कार्यवानस्मि तथाऽपि शृणु कारणम् । यशोगङ्गागिरीन्द्रोऽस्ति राजेन्द्रो राजशेखरः॥ ८८ ॥
(हेमवती राज्ञी, तत्पुत्री त्रैलोक्यसुन्दरी च-) तस्य हेमवतीभार्या-कुक्षिभूताऽद्भुता सुता। त्रैलोक्यसुन्दरी नाम कामधाम महोज्ज्वलम् ॥ ८९ ॥ कैलालीकोकिलोद्यानं गुणहंसालिमानसम् । युर्वन्मयूरजीमूतं लज्जामृतहिमयुति ॥ २० ॥ रौजधाम सुकामस्य सदाचारस्य वासभूः । प्रापाऽतीव निष्पापा यौवनं रूपपावनम् ॥ ९१ ॥
(यशोमती गणिनी-तद्दत्तो महालक्ष्मीमन्त्रः-) मातृष्वस्रा यशोमत्या गणिन्या हर्षतोऽपितम् । सा सस्मार महालक्ष्मीमन्त्रं स्थिरमना भृशम् ॥९२॥ प्रत्यक्षीभूय सा लक्ष्मी देवी प्राह कुमारिकाम् । मम हंसेन निर्दिष्टं वृणीष्व मण्डपे नरम् ॥९३॥ इत्युक्त्वाऽथ कुमारी सा महालक्ष्मीस्तिरोदधे । इतश्चेमा सुतां राजा यौवनस्था व्यलोकयत् ॥९४॥
१ दानिनाम्-दानरसिकानाम्, मदवतां च । २ निःस्वो निर्धन:-अनिःस्वो धनाढ्यः--अनिःश्वा: भूषणादिसहिता अश्वाः । अत्र स-शोरक्यम् । ३ वारणो रोधकः । ४ पुरुष एव पौरुषम्-पुरुषम्-इत्यर्थः । ५ कार्यव्यग्रः । ६ कामगृहम् । ७ समस्तम्। ८ मानसं मानससरोवरम् । ९ 'युवमयूर' इति भवेत् । १० हिमातिश्चन्द्रः । ११ राजधानी । १२ भाषायां 'माशी'-मातुर्भगिनी-तया। १३ गणिनी-साध्वीगणस्वामिनी ।
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४॥१०६||
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पुण्डरीक
चरित्रम्. सर्गः-४
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(त्रैलोक्यसुन्दरीपितुश्चिन्ता, स्वयंवरार्थ च भूपाह्वानम्-)
चिन्ताकूपमयो भूपचित्तं तद्रूपदर्शनात् । पपात स तदाकृष्टिहेतो पानजूहवत् ॥१५॥ ॥१०७॥
पुरीपूर्वदिशो भागे स्वयंवरणमण्डये। समेष्यन्त्यद्यःसर्वेऽपि निमन्त्रितमहीभृतः॥ ९६ ॥ कुमारी सुप्रतीहारी मुखाद ज्ञात्वा नवं वरम् । सप्रेममालया पुष्पमालया केलयिष्यति ॥ ९७॥ 8 नवग्रहाभरत्नोद्यत्सकणे करकङ्कणे । इमे नीत्वाऽस्मि याम्यऽस्था भूषायै सिद्धिरस्तु ते ॥ ९८॥ इत्युदित्वोत्सुके याते तस्मिन् सोऽथ व्यचिन्तयत् । संमुख कङ्कणे श्रेष्ठं शकुन समभूद् मम ॥ ९९ ॥
(मेघनादः स्वयंवरणमण्डपं चचाल-) 8 माङ्गल्ये वचनं चैतत् भूषायै सिद्धिरस्त्विति । ततो यामीति निश्चित्य चचाल किल तद्दिशि ॥ १०० ॥
(स्वयंवरमण्डप:-) 8 विस्फुरत्स्वर्णकलसं रणत्किङ्किणितोरणम् । मुक्तावचूलमालाभिर्मालितं शालितं ध्वजः ॥ १॥
कर्पूरपूरकस्तरीमण्डलीमण्डितक्षितिम् । मौक्तिकस्वस्तिकाकीर्ण विस्तीर्ण तीर्णखार्णवम् ॥२॥ रमणीरमणीयं तमनणीयःश्रिया श्रितम् । मुमुदे मण्डपं दृष्ट्वा मण्डितं नरमण्डनः ॥ ३ ॥ (विशेषकम् )
(स्वयंवरागतनरपतिवर्णना-) येषां घनेषु सैन्येषु स्फूर्जदुर्जायितं रवेः। ज्वालाभिः खञ्जमालानामुद्यद्विच्छतायितम् ॥ ४॥ येषां सहीरैः कोटीरैः स्फुरत्सूर्यशतायितम् निर्मलैश्चात पत्रैश्च व्योम्नि सोमशतायितम् ॥ ५ ॥ यान् सुवर्णसवर्णाङ्गान् रत्नालंकृत्यलंकृतान् । राजन्यान् रोहणालीनान चलान स्वर्णाचलानिव ॥६॥
१ चित्ताकृष्टिः-चिन्ताकूपपतितचित्तस्य आकर्षणम् । २ सूर्याद्या नव ग्रहाः । ३ अनणीयो महत् । ४ विद्यच्छतमिव आचरितम् । ५ कोटीरा मुकुटाः । ६ चन्द्रशतवद् आचरितम्। ७ रोहणाख्ये पर्यते आलीनान् ।
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॥१०७॥
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पुण्डरीक
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कुन्नरेन्द्रसमारूढान् सिंहान् शङ्गगतानिव । वर्षतश्च सुवर्णानि जलानि जलदानिव ॥७॥ दिशो दिशः सशतशः-तान् समेतान् नृपोत्तमान् । दृष्ट्वा व्यचिन्तयदहो! स्त्रीनामाऽप्यतिमोहनम् ॥ ८॥
४सर्गः-४ अत्युच्चचारुमञ्चस्था रत्नसिंहासनावलिः। तैनरेन्द्ररलंचक्रे मित्र-मन्त्रिवरावृतः ॥१॥
(मेघनादकुमारम् काऽपि देवी अवदत्-) 8 अथो कुमारमागत्य देवी काऽप्यवद् वचः। लक्ष्म्या दत्तममुं हंसं पुण्याश्रय ! समाश्रय ॥१०॥
नृराज राजहंसस्थं कृत्वा देवी दिवं ययौ । स ध्यौ मयि साम्राज्यदेवता ममतायुता ॥ ११॥ दृष्ट्वा व्योम्नि मैरालस्थं भूपा विस्मयमित्यधुः। सभालोकसमालोकपरः किं कोऽप्ययं सुरः? ॥ १२ ॥
(कन्या त्रैलोक्यसुन्दरी-) ततः श्रीचन्दनालेपा सुधांशुविमलांशुका । सरत्नकोटीकोटीरप्रमुखाभरणभारिणी ॥ १३ ॥ नरयानसमारूढा शतसंख्यसखीवृता। बुद्धिपोरीप्रतीहारीनीतमालास्थलोचना ॥ १४ ॥ श्रीः पुण्याद् दानतः कीर्तिः सिद्धिर्ज्ञानाद् मतिःश्रुतात् । प्रादुरासीत् तथा सौधात् कन्या त्रैलोक्यसुन्दरी॥४ शङ्काराम्भोघनालीव नृपचित्तसरस्ततिम् । सा तत्रोत्तरेलीचक्रे न तु तं सत्त्वसागरम् ॥ १६ ॥ कुमरी सन्मुखं पाणिमुध्धृत्य वचनोद्वरी । प्रतिहारी समारेभे सुरूपं भूपवर्णनम् ॥ १७ ॥
( काञ्चनपुरीपतिनृपः अमरचन्द्रः-- ) अयि कुवलयनेत्रे! काञ्चनाया नगर्याः नृपतिरमरचन्द्रः कीर्ति-चन्द्रातपादयः। अनुमितिविमलाङ्गं लोचनाभ्यां निपीय । त्वमसि रसथकोरि!प्राप्नुहि प्रौढहर्षम् ॥ १८ ॥ १ मेघानिव । २ मरालो-हंसः । ३ अंशुक-वनम् । ४ पारी पात्रविशेषः । ५ चञ्चलीचक्रे । ३ तं मेघनादम् । ७ वरवचना ।
॥१०८।।
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सर्गः-४
पुण्डरीक- तत्रतेन महोदधेरपि महागम्भीरमत्यद्भुतं । प्रौढरष्टशतैस्तथाऽष्टसहित रम्यैश्चतुर्की(द्वी)रिभिः । चरित्र
श्रीजैनप्रतिमाऽऽलिमालितमहाप्रासादराजवृतं । पीयूषोज्ज्वलनीरपूरभरितं सारं सरः कारितम् ॥ १९॥ द्वात्रिंशत् शतान्येवं द्वात्रिंशदधिकान्यसौ । जैनबिम्बानि निर्माय निर्मायः समपूपुजत् ॥ २० ॥ (गौडभूमीमहेन्द्रः)
[* कवित्वस्य व्याख्यां नृपविगणना मस्तकधुतेः । अयि! कनकरथोऽयं गोडभूमीमहेन्द्रः स्ववितरणयशोभिर्येन धृतो महेन्द्रः।। गुणिगणगुणविज्ञे! तं वृणु त्वं प्रमोदात् शृणु च सुकृतगीतान्यस्य कर्णामृतानि ॥ २१ ॥
आबाल्यात शिक्षितानां सुविमलकरिणां विंशतेः पृष्ठभागे यश्च श्रीखण्डपट्टेरतिदृढरचनं पीठबन्धं निधाय । ४ सौवर्ण्य जैनहम्यं तदुपरि च चतुर्दाररम्यं सुनाव्यं । गर्जन्निस्वाननादैरखिलदलवृतो योऽकरोत् तीर्थयात्राम्॥४ ( कान्तीनगरीशः पद्मः-)
[* प्रदेशन्यङ्गल्या अपि विचलनाद् वाक्यविरतौ । ४ 8 कान्तीनगयों नृप एष पद्मः साम्राज्यपद्मास्थिरवासपद्मः ।
यः कीर्तिपत्र वनं सरोवत् व्यापत पुनः कण्टकसंगहीनः ॥ २३ ॥४ संम्यक्त्वस्य परीक्षणात् प्रमुदितेन्द्रेण दत्ताद् वराद् विश्वाजेयो विजित्य प्रतिनृपतिवरान् यश्चतुष्पष्टिसंख्यान्। चक्रे तेषां करस्थैः शुचिजलकलसैः स्नात्र पूर्व महात्मा ब्रह्मण्यास्थाप्य चित्तं शशिमणिविहितश्रीजिनस्य प्रतिष्ठा-राजसूयाख्यमुत्सवं प्रविधाय सः।सम्राट् संस्थापयामासस्वस्वराज्येषु भूपतीन् ।।२।। [प्रतिष्ठाम्॥२४॥ १ (प्रतिष्ठानपुरनाथो हेमचूड:--)
[* मुखे हस्तादानात् । 8. एनं प्रतिष्ठानपुरस्य नार्थ श्रीहमचूडं प्रथितं पृथिव्याम् । शृङ्गारपूरामृतवल्लिविश्वकल्पद्रुमालिङ्गय कोमलाङ्गि॥२६॥ * एतचिहितानि वाक्यानि त्रैलोक्यसुन्दर्या अस्वीकारसूचकानि । १ वितरणं दानम् । २ पद्यमिदं विचित्रम् ।
॥१९॥
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पुण्डरीक
॥११०॥
४
१२
यः पूर्वं रचितस्य पत्रनिचये सौवर्ण्यवर्णालिभिः संलेख्य श्रुतपुस्तकान् सुयतिनां प्रादात् पितृश्रेयसे । श्रीतीशपदप्रणामकृतये देवेश्वरैरागतैः दृष्ट्वा तानतिपुण्यहृष्टहृदयैर्धूतं शिरो विस्मयात् ॥ २७ ॥ [ * त्वमतिनिपुणा - इति प्रवचनात् । हेमाङ्गद श्रीधर पुष्पचूल वज्रायुध-स्वर्णभुजादयोऽमी । महीमहेन्द्रान् मनसा परीक्ष्य पुण्यानुमानेन लभस्व तन्वि ॥ * कुमारी न त्वेवम् - पुनरपि पुनः प्रेरयदिमाम् ।
(अन्ये नृपा:-)
इति प्रतीहारिका प्रधानपृथ्वीभुजां वर्णनसिन्धुमध्ये । तथा कथंचिद् निहितं यथाऽस्या मनोऽतिमूढं न विवेद कन्याकरग्रहावेश-रज्जुविश्लेषतस्तदा । नृपचित्तमहाकुम्भाः पेतुर्दुःखमहाऽवटे' ॥ ३० ॥ [ कार्यम् ॥ २९ ॥ बुद्धेषु बुद्धया बद्धेषु विमुखीषु सखीषु च । पुण्याद् वर इति स्वस्थे राजशेखरभूपती ॥ ३१ ॥
( हंसो मेघनादमवर्णयत् -- )
स्वःसुवर्णबिसाहारात् किं सुवर्ण सुकोमलम् । हंसो वाणीमतोऽभाणीत् कुमारं पृष्ठतो वहन् ॥ ३२ ॥ चक्रेशो जयदेवनामनृपतिः षट्खण्डपृथ्वीजयात् भुञ्जानो विषयान् मुदा प्रतिदिनं लक्षद्वयीसंख्यया । हे ददौ पदं स्वशयनात् भूमौ प्रियाभिर्मितान् प्रासादान् स कृती चकार सुकृती दानैकवीरस्तु यः ॥ पुत्रस्तदीयो नृपवैर सिंहो जीया चिरं निर्मलधर्मधीरः । तदङ्गजोऽयं विजयी जगत्यां श्रीमेघनादः स्फुटकीर्तिवादः॥ वितसुकृततस्त्वयि प्रसन्ना समजनि राज्यसुरी ततस्तयाऽयम् । सकलनृपगुणैः परीक्ष्य दत्तो वृणु तदमुं मम [ पृष्ठगं कुमारम् ॥ ३५ ॥
非 त्रैलोक्यसुन्दर्याः अस्वीकार सूचकीन वा यानि । १ अवटे - कूपे ।
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चरित्रम्
सर्ग :-४
॥ ११०॥
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॥११॥
सर्मः-४
पुण्डरीक-8 तदति परिहर प्रवृद्धचिन्तां स्वजनविषादविनाशहेतवे त्वम् ।
भज सुखमेखसंमदं हृदन्तः कुरु मुखचन्द्ररुचा शुभां समा त्वम् ।। ३६ ॥ 5 तदनु तदनुरागपत्रपात्रात् नृपतनयाहृदयाम्बुजाद् विनिद्रात् ।
अरुणवदनहंसवाकूप्रभाभिभ्रमर इवाऽपगतोऽभितो विषादः ॥३७॥ अवहृषिततनूरुहा नताङ्गी स्फुरदुरुवेपथुवेपमानवस्त्रा । तरलतस्कटाक्षलोलनेत्रा नृपदाहिता सहिता (मेघनादस्य मालारोपणम्-)
ह्यनेकभावः ॥ ३८ ॥ परिमलमुदितालिगीयमानां स्वकरसरोजयुगेन संगमय्य ।
विधिविलसितविस्मितस्य कण्ठे नृपतिसुतस्य मुदा न्यधत्त मालाम् ॥ ३९॥ तदा चहंसास्यद्वारनिर्यातसौभाग्याकृष्टया तया। समं गत्वा नृपदृशः कुमारे विस्मयात् स्थिताः ॥ ४० ॥ देवीदत्तप्रसूनेऽथ भ्रामिते तदृशां पुरः । नीतास्तेन विशामीशास्ते विश्वेऽपि स्ववश्यताम् ॥ ४१ ॥
लक्ष्मीदेवी अब्रवीत-) सुप्रकाशे सदाकाशे सिंहासनसमाश्रिता । देवताभियंता ताभिलक्ष्मीदृष्टा ततोऽब्रवीत् ॥ ४२ ॥
हो! निरंहोमनसः श्रूयतां वचनं नृपाः! । त्रिखण्डानामखण्डानामथो नाथो सपत्य सौ ॥४३॥ यतः शुचिनरुचिः सुकृती च कलाकृती । तात्विका सात्विकश्चैष गुणझो एगिरा पाये ॥४४॥ पुरा परीक्ष्य वीक्षायां बद्धस्य गुणदृढः । सन्मनोऽन्यं मनोज्ञ नो मन्यते सुवने नृपम् ॥ ४ ॥ आज्ञा मान्या ततोऽस्यैव मान्याः कुरुत कल्पनाः । स्वामिनं स्वसमानं तनमतनं गतसं ॥ ४३ ।।
१ अखं मनः-इति गम्यते। २ अंहः-पापम् । ३ पु. मनोऽन्यम् । ४ एन:-पापम् ।
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॥११
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चरित्रम्
॥११२॥
सर्गः-४
४
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एवमुक्त्वाऽऽसन मुक्त्वा श्रीरेत्याऽम्बरतः पुरः । नमत्सु तेषु भूते(पे)षु पुण्डूं चक्रे च चान्दनम् ॥ ४७॥ चतुरङ्गचमूचक्रस्वामिनीभिर्मुदा महत् । वर्धापनं प्रवधिष्णु दिव्याक्षतभरैः कृतम् ॥ ४८ ॥ दिवि दुन्दुभयो नेदुः प्रसेदुः सकला दिशः । रसस्फीतं जगुर्गीतं देव्यो दिव्याङ्गकान्तयः ॥ ४९ ॥ अङ्गनागानपीयूष-धाराभियोमपल्वलम् । भृतं ततोऽनृणीभूता भूम॑घोपैकृतेस्तदा ॥ ५० ॥ सत्प्रभावनया धर्मो न्यायो बुद्धथा यथा तथा । स तया सप्रभो रेजे पद्मया पद्मनाभवत् ॥ ५१ ॥
(कृतत्रैलोक्य-सुन्दरीपाणिग्रहणो मेघनादः प्रासादं समासदत् ) ततश्च पञ्चशब्देषु वाद्यमानेषु निर्भरम् । स्तुवत्सु कविवृन्देषु जयवादिषु बन्दिषु ॥ ५ ॥ ददानः स्वर्णदानानि राजहंसासनोऽम्बरे । सकलः कलभारूढः प्रौढभूपतिशोभितः ॥ ५३ ॥ अहंपविकया लोकनेत्रैः पीतप्रभामृतः । राजशेखरराजस्य प्रासादं स समासदत् ॥ ५४ ॥ मिष्टान्नैः प्राज्यपक्वान्नैः सारैः सरसभोजनैः । सुवर्ण-वज्राभरणैर्दुकूलैर्मृदुलैस्तथा ॥ ५५ ॥ महोत्सवे महीनाथान् राजा श्रीराजशेखरः । सचकार चमत्कारयुतचित्तोऽतिचित्रितः ॥५६॥ (यु-वि०)
(मेघनादो भूमि विजेतुं चचाल-) चचाल सोऽचलां जेतुमथो राजकराजिकः । अग्रे तथा प्रतापोऽपि ग्रहराजकराजितः ॥ ५७ ॥ निस्वानर्धन निस्वानरूजितैमर्जुसेंजितैः । ढक्काभिर्भटहकाभिः शब्दाद्वैतं तदाऽभवत् ॥ ५८ ॥ व्यवजहुर्जनाः कार्य हृदिस्थं हस्तसंज्ञया । तदा बाधिर्यतोऽद्यापि ददते नोत्तरं दिशः ॥ ५९ ॥ इभकुम्भस्थलस्थानि सिन्दूरपटलान्यभुः । सूरेणाऽनेन विहिता किं संध्याऽरिग्रहापहा ॥ ६० ॥
१ भाषायाम्-'वधामपुं'। २ मेघः, मेघनादोऽपि । ३ प्रहराजस्य करैः किरणैः-अजितः-ततोऽपि विशिष्ट इति । ४ मर्जु:-चाटुवादी चारणः । 8 ५ भटानां हकाररूपाभिः ।
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8 ॥११॥
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चरिणम्
सर्ग:-४
पुण्डरीक-8 यौष्माकं सुदशाचक्रं भ्रान्तमास्माकचक्रवत् । तद् यातेति रथाः शत्रून् प्रेरयन्ति स्म किं ध्वजैः ॥३१॥
* सहेतयश्च सस्नेहा दर्जया मरुता अपि । चेलुः शस्त्रपतंगानां सद्दीपा इव पत्तयः ॥ १२॥ दान्ताः कृत्वाऽथ दुर्दान्तानीन्द्रियाणि सुसाधुवत् । ज्ञानीव क्रूरकर्माणि विनाश्य करचेतसः ॥ ६३ ॥ संस्थाप्य धर्मिणो राज्यप्रासादान भूतले यथा । नीत्वा सार्धं च सद्बुहान् चण्डो दण्ड-धनानि च ॥६४॥
(मेघनादः सर्व जित्वा प्रतिनिवृत्त:-) इति जित्वा दिशः सर्वाः सर्वोर्वीशसमन्वितः । प्रार्थितः स्वसुरेणाथ विशालां प्रति सोऽचलत् ॥६६॥
(सरोवरम्-) इतश्च पञ्चगव्यतिशेषे पुरपथि स्थितम् । सरोवरं नरोत्तंसः प्रेक्ष्याऽस्थात् सपरिच्छदः ॥ १६॥ केऽपि छायासु विश्रान्ताः प्रान्तरश्रमपीडिताः । भव्या इव भवं भ्रान्त्वा धर्मस्थानेषु धर्मिणः ॥ ६७ ॥ तृषातुराः पपुरं शास्त्रं प्रज्ञापरा इव । मनसीव महाज्ञानाः स्नानं तत्र व्यधुर्जनाः ॥ ६८ ॥ मन्त्रिभिः कारितं तत्र मेघनादो महत्तरम् । राजराजेश्वरो हर्षात् राजावासं समाश्रयत् ॥ ६९॥ भूमीरुहारिशीर्षाणि संचूर्ण्य यशसः कणा: । राशीकृता इवाऽनेन राज्ञां तस्थुगुरुदराः ॥ ७० ॥
( वनपालविहित-उपायनवर्णना-) 18 सिंहासने निविष्टस्य सेवितस्य नरेश्वरैः । तस्य पद्मचयश्चक्रे वनपालैरुपायनम् ॥७१।।
तत्र पत्रशताकीर्णमेकं स्वर्णसरोरुहम् । स ईशः स्वर्शये निन्ये नासा-त्रमदप्रदम् ॥ ७२ ॥ तघ्राणप्राणपीयूषं गन्धं जिघ्रन्नरानमून् । व्यलोकयदिलापालो लीलाललितलोचनः ॥ ७३ ॥
१ प्रान्तरो दूरस्थो मार्गः । २ भूमीरुहारि:-अग्निः । ३ शयो हस्तः
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पुण्डरीक
॥११४॥
४
१२
( इदं सरः केन कारितम् ? - )
सरः साररसाssपूर्ण किमेतत् केन कारितम् । अप्राक्षीद् वनपालान् सोऽवनिपालावलीवृतः ॥ ७४ ॥ ( सरोवरस्य प्रणेता - )
ऊचुस्ते देवराजोऽस्य स्वसुरस्य पुरा तव । पितामहो महोयुक्तोऽभूद् मनोरथसंज्ञकः ॥ ७५ ॥ वृतं भूतचतुःशत्या द्वारैरष्टभिरेव च । संव्यापसव्यपक्षस्थसत्रप्रासादशोभितैः ॥ ७६ ॥ धर्मकर्म महोत्कण्ठामकुण्ठां वहता हृदि । कारितं तेन तत् ख्यातं मनोरथसरो ह्यदः ॥ ७७ ॥ सूपकारैः सुपक्वानि वनानि भावतः । स सदादापयद् धर्मी धर्माधिकृतमन्त्रिभिः ॥ ७८ ॥ पूर्णिमास्याममावास्यां चतुर्दश्या (म) टमीदिने । पष्ठाख्यं च चतुर्थांख्यं तपः कृत्वाऽभ्यगादिह ॥ ७९ ॥ अष्टासु जैनगेहेषु पूजामष्टविधां स्वयम् । कृत्वाऽष्टसु च सत्रेषु दृष्टा पान्थानभोजयत् ॥ ८० ॥ पारणस्य दिने स्वर्णदानं दानेश्वरो मुदा । यावद्वेदं सुपान्थेभ्यो यावज्जीवं स्वयं ददौ ॥ ८१ ॥ कालं कृत्वा शुभध्यानादिन्द्रसामानिकः सुरः । ईशान देवलोकेऽभूत् स राजर्षिर्महर्द्धिमान् ॥ ८२ ॥ यदा नन्दीश्वरे याति ससुरस्तीर्थयात्रया । सरोवरे तदाऽत्रापि समायाति कदाचन ॥ ८३ ॥ वयं तेन सरः- सत्र - प्रासाद-तरूपालने | नियुक्ता धर्मिणो नित्यं ततो रक्षां विदध्महे ॥ ८४ ॥ इत्युक्त्वा सरसो वृत्तं सारसान् स रसाधिपः । जगन्मान्यः स संमान्यः तुष्ट्वा दानाद् व्यसर्जयत् ॥ ८५ ॥ ततः सोऽचिन्तयचित्ते चित्रः पद्म गुणोच्चयः । सौरभ्यः सौकुमार्य च साधुवत् सुकुंलीनता ॥ ८६ ॥ अहो ! घ्राणं विनिद्राणं प्राणितोऽकारि येन मे । क्वाऽपि पत्रे स पद्मस्य गन्धो मूर्खोऽपि वीक्ष्यते ॥ ८७ ॥ १ सव्य - अपसव्यौ -- दक्षिण- वामौ । २ पद्मपक्षे सुकुः - सुभूमिः, तत्र लीनता ।
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चरित्रम् !
सर्गः - ४
॥११४॥
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चरित्रम्.
पुण्डरीक-तेनेति पत्रविततिवितेने वितना यदा । तदा मुदाऽत्र मुद्राङ्कमेकं लेखमलोकत ॥८८॥ (मुमूर्छ मेघनादः-) 'श्रीवैरसिंहराजेन मेघनादप्रसादतः । इति प्रेक्ष्याऽक्षरश्रेणि रसनिश्रेणिमारुहत् ॥८॥
सर्गः-४ पितृनामावलोकेन हर्ष दःखं वियोगतः। आत्मनिन्दामविनयात् विपापःप्राप भूमिकाम् ॥९॥ तथाहि
(मेघनादपित्रा प्रहितो लेख:-) स्वस्तिश्रीरत्नपुर्याः सुकृतकृतमतिर्भूपतिर्वैरसिंहः । क्वाऽपि स्थाने स्वपुत्रं दिशति गुणशतालंकृत मेघनादम्।। वत्साऽनिच्छासुखं मां तव विरह भराद राज्यभाराच खिन्नं । तर्ण भो ! भक्तिपूरामृतकलसनिभात् मोदय ।
उत्कण्ठातस्ततावेशस्तातादेशस्य पत्रिकम् । इति प्रवाच्याऽनिर्वाच्यसंमदं स दधौ हृदि ॥९२॥ [स्वागसंगात् ॥8 ८ ततो विचार-वित्तेशः स्वचित्ते स व्यचिन्तयत् । अहो! पितृगिरोऽतुच्छसद्वात्सल्यगिरो भृशम् ॥९३॥ यतः-४
(मेघनादगतं पितृवात्सल्यम्-). पितुमनोरोहणभूमिकाया अपूर्वमेतत् किल भेदकत्वम् । यत्र स्थिता पुत्रकुदोषधूलिभजेदवश्यं गुणरत्नभावम्॥ जनकस्य तनूजा न मान्यतार्जेनकस्य च । प्राप्य शिक्षावचोऽप्येकं कुप्यन्ते ते कुपुत्रकाः ॥ ९५ ॥ निजभाग्यलतोद्भूतं प्रभूतापुष्पमद्भुतम् । प्राप्य यः पूजयेत् पित्रोचरणौ स नरोत्तमः ॥ ९६ ॥ करकोमलितभोज्यैर्भाजने येन भोजितः । तं तातं विस्मृतं मोहाद् हा! हाऽहं स्मारितोऽक्षरैः ॥२७॥ लोभाद् धर्म स्मराच्छीलं प्रतिपन्नमर्सत्वतः । स्नेहं च विस्मरेद् वृडेयः स जीवेत् पुमान् कथम् ॥ ९८॥ (पुनरपि मेघनादमूर्छा-) इति दाखभराक्रान्तः सोऽपतद मईया भुवि । विनयस्य मनस्थस्य गुरोः शिक्षाहतेरिय॥
१ऐच्छिकसुखहीनम् । २ ततो विस्तारयुतः-आवेशो यस्य । ३ गिन्ति इति-गिरः । ४ मान्यतया जनकस्य गुरोः । ५ ये तनूजा जनकस्य 8. मान्यताजनकविशेषणविशिष्टम्य शिक्षाव चः प्राप्य कुप्यन्ते ते न तनूजाः, किन्तु कुपुत्रका एव-इति ज्ञायते । ६ असत्त्वतो निर्बलत्वेन, प्रतिपन्नं शरणागतम् । ७ वृद्धः-धन-धान्य- राज्य-सुखादिवृद्धः । ८ विनयरूपोऽत्र गुरुः ।
॥११५॥
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बरित्रम्
॥११६॥४
पुण्डरीक-8 ( तदुपचार:-) श्रीमेघनादं राजेन्द्रं स राजा राजशेखरः। समुपाचीचरच्चारुविधेः स सविधस्थितः ॥ २०० ॥ ततश्च
सर्गः-४ सिञ्चन्ति स्म जलं केचित् मुञ्चन्ति स्माऽम्वुजानिके। समीरमीरयन्ति स्म केऽस्मिन् विस्मितदुःखिताः ॥१॥8 | मसृणैघुसृणैश्चारु चन्दनैरवन्दनः। तस्याऽवशा विवशता लेक्तैिन व्यलोपि तैः ॥ २॥
उपचाराः कृताः सर्वे तस्मिन्न परिचक्रमुः । पनि वाऽथ चाट्रनि हितान्यज्ञे जने यथा ॥ ३ ॥ विद्यावशद्यहृद्यस्तैवैद्यैदेहेऽस्य वीक्षिते । नात्मा लक्षयते लक्ष्यं तद्दक्षाः प्रवदन्ति तम् ॥ ४ ॥
( मूर्छानाशे वैद्यानामपि वैफल्यम्-) तस्याङ्गारोग्यसाध्यं ते मत्वाऽसाध्यं विचक्षणाः । क्षणाद् वैद्या ययुर्दुःखात् श्राद्धहीना इव द्विजाः ॥५॥ __( शोकक्षण:- ) एवं जाते महोत्पाते ह्यापाते दुःखवैरिणः । लुलुटुः केऽपि भूपीठे त प्रहारहता इव ॥६॥४ कस्मादकस्मादस्माकं पश्यतां नय दुर्नय ! । राजेन्द्रं यमराजेति महीशा मुमुहमहः ॥ ७ ॥ आजन्माराधिते ! वुद्ध ! सा काऽपि प्रकटा भव । जयी त्वयाऽयं जायेत सचिवा इत्यचिन्तयन् ॥ ८॥ गरीयसां गुणानां क्व स्थानमेनं विना भुवि । शात्रवैरपि तत्थं दुःखांचक्रे चिरं चरैः ॥ ९ ॥
(त्रैलोक्यसुन्दरीशोक:-) अथाऽयमहिषी तस्य देवी त्रैलोक्यसुन्दरी । बहशोकमलं गाद तुमैलं बहशोऽशृणोत् ॥ विदुषी सा सखीमेवमवादीत् तां प्रियंवदाम् । दुःखगुरूचीरोहाब्दः कः शब्दः श्रूयते सखि ! ॥ ११ ॥ अनाकर्येव तत् सोचे तदीयं वलयद्वयम् । स्पृशन्ती निजहस्तेन स्फारयन्ती स्वलोचने ॥ १२ ॥ प्राप्याऽपि पाणिकमलं तव स्थानमदोऽद्भुतम् । किं कङ्कले गतच्छाये इव त्रैलोक्यसुन्दरि! १३ ॥
१ तैस्तैलेपितैः तस्य मे बनादस्य विवशता न यलोपि । २ द्विजानां श्राद्धं हि प्रियम्-यतो मोदकप्रातिः। ३ कोलाहलम् । ४ गुरूची-भाषायाम-'गळो' ॥११६॥
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चरित्र
-४
पुण्डरीक- सोचे भङ्गवा नवैः स्वर्णरित्यक्ति विषादिनी । दध्यो भाव्यऽशुभं किञ्चित् नववाक्याद् विलस्यते ॥१४॥ ॥११७॥ ४
हा! हित्वाऽस्मान् कथं स्वामिन्! यासि लोकान्तरं स्वयम् । इत्युच्चै रुदितं श्रुत्वा दध्यौ त्रैलोक्यसुन्दरी॥१५॥४ स्वामिचामरधारिण्यौ विमला-कमलाभिधौ । कथं चक्रन्दतुः सेति सनुत्तस्थौ समुत्सुका ॥ १३ ॥ हूँ संभ्रान्ता सा तता यान्ती त्रुटितात् सारहारतः । चिक्षेप मौक्तिकश्रेणीं पुण्यधीजमिव क्षितौ ॥ १७ ॥ 'प्रियंवदादयः सख्यश्चेलुरलक्त-काङ्कण(न)म् (2)। कुर्वन्त्य इवाऽसौख्यस्याऽऽगच्छतोऽनुपदं मुदे ॥१८॥
(त्रैलोक्यसुन्दरी-मूर्छा-विलापी) ततः प्रेक्ष्याऽतिदुष्प्रेक्ष्यामवस्थां भर्तुरात्मनः । वियोगोष्णतुसंतप्ता पद्मिनी साऽपतद् भुवि ॥ १९ ॥ सखीशीतापचारैः स्राग् मूर्छाऽगच्छत् तदङ्गतः । ज्वलद्वियोगज्वलनज्वलज्जालभयादिव ॥ २० ॥ यद्वियोगव्यथामन्था ममन्थाऽस्या मनोऽम्बुधिम् । दुःखक्षाराम्बुयुग्वाणीमणीश्रेणी तदद्ययौ ॥ २१ ॥ आश्वस्य स्वामिनः स्वस्योन्नमय्यास्यमथाऽब्रवीत् । ब्रूहि नाथ ! यतो नाऽथ करिष्ये विप्रियं प्रिय ! ॥२२॥ वाक्यं देहि दृशं देहि स्मितं वा देहि वल्लभ !। एकेनाऽप्येषु दत्तेन जीवाम्येषाऽन्यथा कथम् ? ॥२३॥ श्यामास्यताऽक्षिसंकोचो मानाद् मौनं चिरं कृतम् । स्नेहं हन्ति त्वयेत्युक्तं मयि स्मर भृतास्मर ! ॥२४॥ । शत्रणामपि नम्राणां त्वं प्रसादपरः सदा। मयि नाऽसि कथं मानादपमानमनुस्मरन् ॥ २५ ॥ यावदेवमपि प्रोक्ते न रेजे च ततस्तया । व्यचिन्ति स्वगतं धर्मवाक्यादेष वदिष्यति ॥ २६ ॥ प्रोचे प्राणेश! मध्याहस्वपनं न वरं बह । उत्तिष्ठाऽमी निविष्टा हि विद्वांसो वचनेच्छवः ॥ २७ ॥ त्वदानयशसाऽऽनीता द्वारे सन्त्यर्थिनोऽर्थिनः । दानप्रिय प्रियं दानं तेभ्यो देहि मुदे हि मे ॥ २८ ॥
१ न गम्यतेऽस्य भावः । २ स्मृति नय ।
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॥११॥
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9
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सायंतनी जिने पूजा भूजाने ! क्रियतां त्वया । त्वं पूजापुण्यतः कालं त्रिकालमपि:वश्वसे ॥ २९ ॥ तद्वचोऽनाप्य साऽमूर्छद मूर्छयन्ती सभासदः। सखीभिः शिक्षिताऽरोदीद रोदयन्तीव रोदसी ॥३०॥
( त्रैलोक्यसुन्दरी परलोकप्रयाणाय प्रोत्तस्थी-- ) परासुं तं परिज्ञाय प्राणनाथं महासती । परलोकप्रयाणाय प्रोत्तस्थौ सुस्थिरा तदा ॥ ३१ ॥
(तदकरणाय अन्येषाम् उपरोध:-) सतां सदाक्यसंबोधम्-उपरोधं महीभृताम् । नाऽमस्त शस्तशास्त्रार्थानुक्त्वा विनयवाक्यतः ॥ ३२ ॥ ४ विश्वान्निास्वामिकाच्छन्याद विभ्यती वाऽमुना समम । निजालीष नृपाली साऽचालीद दाखितास्व
(प्रियंवदा प्रोचे-) तदा प्रियंवदा प्रोचे पृथ्विपत्नीयतः पतिः। याति ते किं ततोऽस्वस्था ज्ञातं वाऽसि रजोमयी। ३ लोकाः कुलबलं भूपाः हृद्धलं मुनयस्तदा । सुस्नेहबलमित्याह दक्षं सर्व तु साहसे ॥ ३५ ॥
(सर्वेषां विस्मयः-) प्रजापाश्च प्रजापाश्च प्रजाः सर्वाश्च विस्मिताः । भवामोहेन, सत्त्वेन तस्या रूपेण च क्रमात् ॥ ४ (चिता-) रचितायां चितायां सा दध्यौ-श्रीचन्दनादयः । स्पर्शस्नेहात् समं तस्थुर्भूभुजाऽत्र हविर्भुजि ॥४
( त्रैलोक्यसुन्दरीजननी दुःखिनी-- ) दुःखिनी जननीं सोचे किं दुःखायस्व मानसे । विवाह इव मन्येऽग्निमद्याऽम्ब ! पतिपार्श्वगा ॥ ३८ ॥
(जीवन्तौ दम्पती--) इत्युक्त्वा त्यक्तहृत्कम्पा यावज्झम्पामदादसौ। जीवन्तौ दम्पती तावद् दृष्टौ सिंहासने जनैः ॥ ३९॥ एष धन्यः पितुर्भक्तो धन्यैषाऽतिपतिव्रता । स्तुवन्तो ददृशुश्चैवं सुरं लोकाः पुरस्सरम् ॥ ४० ॥
१ पृथ्वीपते ! । २ परासुम-गतप्राणम् । ३ प्रकर्षण जापसाहिता इति ।
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॥११८॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
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जनास्यानि तदा रेजुरश्रुभिश्च स्मितांशुभिः । चन्द्राश्ममण्डलानीव पूर्णिमा स्यानिशात्यये ॥ ४१ ॥ राजा दध्यौ स लेखः क्व किं देवीह ममासने । जातप्रोषितशोकः किं दृश्यते हर्षितो जनः ॥ ४२ ॥
सर्गः-४ ततो व्यचिन्तयद्देवी क्वेदमीहक कुतूहलम् । क्व सा विलोपवैभागादहो! चित्रीयते भवः ॥ ४३ ॥
(कविद् देवः-) तं देवं नरदेवोऽथ सस्मितं विस्मितस्तदा। दिव्यं सिंहासनं त्यक्त्वा नत्वाऽपृच्छत् कुतूहलम् ॥ देवो वाचमुवाच द्राग चरित्रं शृणु भूपते ! । ईशानस्वर्गिणं विद्धि मां मनोरथभूमिपम् ॥ ४५ ॥3
( मेघनादजनक-देवयोः संगमः, संल पश्च-) आगच्छन् स्वर्गतोऽद्राक्षमहं रत्नपुरेश्वरम् । गवाक्षे दुःखिनं लेखलेखिनं भूविलेखिनम् ॥ ४६॥ परोपकृतिलोभेन दुःखक्षाभेण तस्य च । प्रेरितः पार्श्वमेत्याऽहमपृच्छमसुखं नृपम् ॥ ४७ ॥ वैरसिंहनृपः प्रोचे प्रमृज्य निजलोचने । गीर्वाण ! शृणु मे वाणीमन्तर्वाणिगणाग्रणीः ॥ ४८ ॥
सुतो गुणयुतो देव ! भूविभूषणम द्भुतः। ययौ देशान्तरे क्वाऽपि मया प्रापि पुनः स न ॥४९॥ । अद्य द्वादश वर्षाणि पश्यतः स्वस्त्यशैः (?) सुतम् । जग्मुर्वार्तास्तु नाऽऽजग्मुस्तस्य प्रीतिप्रदा मम ॥ यतः-४
भृशायतेऽन्वहं धर्मः स्वजनश्च सुखायते । वंशः शस्तायते येन को वाञ्छति न तं सुतम् ॥५॥ देवीदत्तप्रसादोऽयं खण्डत्रितयनायकः। यः श्रूयते स मे पुत्रो नामसाम्येन भूतले ॥२२॥ व्यामोहमेघसंपूर्ण प्रावड़वद् यौवनं ययौ। शरद्वद् वार्धके हसकाशं संस्मराम्यहम् ॥५॥ सुरप्रवर ! चेल्लेखममुमाप्य ममैति सः। तस्य न्यस्य महीमंसे मुनीन् सेवे स्वमुक्तये ॥५४॥
१ भुवं विलिखति-इति । २ अन्तर्वाणि:-पण्डितः । ३ न अवगतम् । ४ हंसतुल्यं पुत्रम् । ५ तस्य अंसे स्कन्धे महीं भूमिम्-राज्यं न्यस्य मुनीन् सेवे-संयम समाश्रये।
४॥११९॥
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॥१२
पुनरीक- प्रोच्येति स शुचिर्वाचं तस्थौ प्रोचे मया ततः। लेखं स्थापय मत्पाणी हर्षे स्वं मानसं नृप ! ॥ ५५ ॥ स्वत्पुत्रं मेलयिष्यामि खेलयिष्यामि ते मनः । तत्रेत्युक्त्वा गृहीत्वाऽहमागच्छं स्वसरोवरे ॥ ५६ ॥
४ सर्गः-१ . ( देवकृता मेघनाद-परीक्षा-) 8 सैन्यावासांस्तव प्रेक्ष्य चित्तेऽचिन्ति मया ततः । परीक्षेऽहं पितुर्भक्तिमस्मिन् विश्वेश्वरे स्थिराम् ॥ ५७॥ एष लेखस्ततोऽक्षेपि छद्मना पद्मनालके । ततो मूर्छा मया प्रेक्ष्य विस्मृतं विनयात् तव ॥ ५८ ॥ मम पौत्रस्य पुत्रीति ज्ञात्वा त्वन्मूर्छया ततः। पतिव्रताव्रतस्थैर्यमस्याः सत्या मयेक्षितम् ॥ ५९॥ यतःदानवान् धनवान् श्रेयान् विद्यावान् बलवान् पुमान् । पितृ-मातृ-गुरुग्वेषु विनयेनैव राजते ॥३०॥ चातुर्यमार्जवं रूपं कलासु किल कौशलम् । पतिव्रताव्रतेनैव कुलवध्वाः सुशोभते ॥३१॥ अतः
(दवस्तुष्ट:-) तुष्टस्त्वयि पितुर्भक्त्या हृष्टोऽस्या भर्तृभक्तितः। आचष्व तद् वरं राजन् ! पुत्रि! त्वमपि सत्वरम् ॥४ अमसे विररामैवमुक्त्वा तावूचतुस्ततः । नास्ति वाञ्छा तवाऽऽलोकादावयोस्तुटभावयोः ॥३३॥
( देवदत्ता विद्या, प्रतिमा च-) श्रीमेघनादराजस्याऽनिच्छतोऽप्यमरोत्तमः। आकाशयानविद्यायाः कर्णे मन्त्रमदात् तदा ॥ ६४॥ विद्येयं विद्यमाना न प्रकाश्या कस्यचित् पुरः । सुरः शिक्षा प्रदायेति प्रोचे त्रैलोक्यसुन्दरीम् ॥६५॥
देवाधिदेवप्रतिमा गुणरपतिमा त्वया । इयं सति! सुते! पूज्या भक्त्या चित्तस्य नित्यशः ॥ ६६ ॥ 8 वत्से ! चित्तेऽथ किंचित् तेऽसाध्यं साध्यं भवेत् तदा । स्मर्तव्य एव देवोऽहं समेष्यामि क्षणादिह ॥६७॥
(देवो गतः-) अहो! महाप्रसादोऽयं तयेत्युक्ते कृतेऽञ्जलौ। दिवं विद्योतयन् देवो महसा सहसाऽगमत् ॥१८॥
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१तेजसा ।
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४सर्गः-४
पुण्डरीक- मूर्ति देवाधिदेवस्य तदा स्वर्णसमुदगके । संस्थाप्याऽऽरोहयत् पट्टगज भूपो निजं मुदा ॥ ६९ ॥
(तातदर्शनाय अचलद् मेघनाद:-) ॥१२॥ द्विविधात्मबलेनैष द्विधा भूमिधरो धरीन् । चालयाचलापालोऽचलनिश्चलमानसः ॥ ७० ॥
तातदर्शनपीयूषभोज्यं द्वादशवार्षिकम् । वुमुक्षुभ्यां स्वचक्षुभ्यो पृष्टं तेन रजः पुरः ॥ ७२ ॥ प्रेक्ष्यान्तरिक्षे तहलीमण्डलं मण्डलाधिपान । निजान प्रेषीत् परिज्ञानहेतवे वेगतो नृपः ॥ ७२ ॥ मत्या ज्ञात्वा समागत्य तं प्रगत्य महर्षिताः ।याचमानास्तुष्टिदानं तेऽथ भूपं व्यजिज्ञपन् ॥ ७३ ॥
(मेघनादपिता वैर सिंहो मेघनादं समभ्वति--) श्रीवैरसिंहभूपस्य स सुरस्त्वत्पितुः पुरः । स्वरूपं सकलं स्वामिन् । हर्षतोऽकथयत् पुरा ॥ ७४ ॥ ततस्त्वन्मिलनोत्कण्ठामकुण्ठां मनसा वहन् । देव ! तातस्तवाऽभ्येति देवतातः कृतागमः ॥ ७॥ इति वाक्यसुधाप्रीतो कौँ तस्याऽवगम्य च । संरम्भाल्लोचने प्रोदे तृप्तयेऽथ प्रसस्रतुः ॥ ७ ॥
(मेघनादो तातं ददर्श, प्रणनाम च--) मेघनादोऽथ स.नन्दः प्रफुल्लाक्षो विलोकते । यावत् तावत् पुरस्तात् तं हर्षात् तातं ददर्श सः ॥ ७७॥8 तदा सर्व सहायं स विहांय सहसा हयम् । मलुठत् प्रणनामैष प्रदपङ्के रुहे पितुः ॥ ७८ ॥ अकस्मात् पुत्रसंस्पर्शात् पित्रा प्रीतेन मुक्तयोः हर्षाऽभुकणयोः पृष्टे हष्ट) पर्यस्तयोस्तयोः ॥७९॥ (प्रीतः पिता-) पिताऽपि तापितःस्वास्वाजं संगमस्य सःप्राप मीसिं पर्ण काश्चित् वेत्तियां तन्मनोमनाक। (मेघनादनगरप्रवेश:-) स्वाङ्गगजमारोप्य जनको जनकोटिभिः परीतः स्वपुरीमध्ये शुभे प्रावीविशद् दिने ॥८॥ सहाऽस्माभिः कृता क्रीडाऽनेन ब्रीडाऽपिना कृता । तत्र क्षत्रिमपुत्राः के वार्वदूकास्तदाऽवदन् ॥ ८२ ॥
१ समुद्गको मञ्जूषाविशेष:-भाषायां 'डाबहो । इति । २ विद्याबलेन, सैखवलेन च । ३ धरान् महीधरान् नृपान् अथवा अकारसंश्लेषे अपरान् अन्यान् सर्वान् । ४ देवसहायतः । ५ संदिग्धमेतत् । ६ बाचालाः ।
॥१२१४
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पुण्डरीक- लक्ष्मीवल्लीफलानीव स्वर्णपिण्डानदादसौ । मेघनादः स एवेति जगदुर्मागधा गिरम् ॥ ८३ ॥
चरित्रम्. ॥१२२॥ है उत्सङ्गेऽस्माकमेतेन बालेन क्रीडितं चिरम् । वृद्धा धान्य इति प्रोच्य स्वचित्तेऽन्वभवन् मुदम् ॥ ८४ ॥
सर्ग:-४ मङ्गलानि ववृन्दाद् आशीर्वादान् गुरुव्रज.त् । उपायनान्य भीष्टेभ्यो गृहन् प्रीतिवचो जनात् ॥ ८ ॥ ईक्ष प्रेक्षवर्थिजने जाम्बूनदोच्चयम् । ग्रामग्राम कवीन्द्रेभ्योऽगच्छद् यच्छन् पुरान्तरम् ॥८६॥ (युग्मम्) ( ( मेघनादपितृभक्ति:-) सौधास्तवैरसिंहोऽथ स्वासने संनिवेशयन् । जगदे मेघनादेन नत्वा कृत्वाऽञ्जलिं पुरः ॥८७॥
तात! सर्वागि सौख्याने विना त्वत्पादसेवनम् । न रोचन्ते यथा प्रौढमोदका हीनशर्कराः ॥ ८८ ॥ यता-पितस्तव ऽपत्यमाधिपत्यं यदाऽऽनुवम् । हेतुरुवं तत्र पुण्यस्य गन्धे मूलं यथा तरोः ॥ ८९ ॥ एवं विनयतः पाद-पीठेऽथ निविशन् पितुः। स चमत्कारयांचक सद्भक्तीनपि भूपतीन् ॥ १० ॥ ( प्रसन्नः पिता- ) अथ द्वादशवर्षेभ्यः स्वसुतस्य समागमात् प्रीतः स्वजनवर्गभ्यो राजा भोज्यमदाद् मुदा ॥९॥४॥
( मेघनादे राज्यभारः, वरसिंहवतग्रहणं च-) १ ततोऽवादीत् सुतं पुत्र : नय राज्यं नयस्थिरः। भोगेबु गतनिबन्धोऽनिबन्धो यास्य(म्य)तः शिवम् ॥१२॥
अनिच्छतोऽपि पुत्रस्य दत्वा राज्यं नरोत्तमः । चक्रेश्वरगुरोः पार्श्व साग्रहः सोऽग्रहीद् व्रतम् ॥ ९३ ॥ वैरसिंहं विनेशं हि कथं स्यामिति दुःखिनीम् । गोत्रवृद्धां भुवं भूपः सहसा स शशास तत् ॥ ९४ ॥ (मेघनादप्रवृत्तिः ) प्रातमध्यंदिने सायं पूजयित्वा जिनेश्वरम् । अदात् सदा सदानेशः स्वर्णकोटित्रिक मुदा ॥९॥
(मेघनादो नन्दीश्वरद्वीपं यथा--) देव्या त्रैलोक्यसुन्दर्या युतः शय्यागतोऽन्यदा । जागरूकोऽम्बरे रात्री किञ्चित् तेजो ददर्श सः ॥ ९६ ॥
१ सुवर्णोच्चयम् । २ ग्रामसमूहम् । ३ शर्करा-भाषायाम्-' साकर' इति । ४ हे पितः ! अहं तव अपत्यं यद् आधिपत्यं प्राप्नुवम्-इति । ५ अत्र · निविशमानः ' इति युक्तम्-निपूर्वस्य विश:-आत्मनेपदित्वात् ।
४ ॥१२२॥
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पुण्डरोक-8
॥१२३॥
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तदालोकविलोकाय प्रोत्थितोऽपि व्यलोकयत् । प्रधानानि विमानानि वृन्दारकभूतानि च ॥ ९७ ॥ चरित्रम्. स देवविद्ययाऽचालीदम्बरे संवृताम्बरः। मिलित्वा सह तैरेकममाक्षीत् क्व प्रयास्यथ ? ॥ ९८ ॥
सर्गः-४ वाणीमवाणीद् गीर्वाणः शृणु नन्दीश्वरे वरे । सुराः शाश्वततीर्थेश-प्रणामाय प्रयान्त्यहो! ॥ ९९ ॥ कुतुकिन् ! कौतुकाचेत्थं समायासि मया सह । सुप्रतिष्ठस्ततस्तिष्ठ विमाने मन्मनोमुदे ॥ ३० ॥ देवसन्माननादेवमासीनः स तदासने । ययौ नन्दीश्वरद्वीपसमीपनमरैः समम् ॥ १ ॥
( नन्दीश्वरगतो जिनदेवप्रासाद:-) सुध.सधर्मसंगीतं कुर्वतीवमरीध्वथ । खे विमुच्य विमानानि देवाः प्रासादमासदन ॥ २ ॥ ( देवकृता जिनपूजा.) तीर्थाम्भाकलसः स्नानं दिव्यपुर पैश्च पूजनम्। धनुःपञ्चशतोन्मानमूर्तीनां विदधुः सुराः॥३।। अथो इन्द्राश्चतुःषष्टिस्तुष्टियुक्ता विवेकतः । जिनस्याऽऽरात्रिकं कर्तुमरमै राज्ञे तदा ददुः ॥ ४ ॥ (हेमशेखर: केवली- ) जिनमूर्तीन मस्कृत्य पुरस्कृत्य नृपं सुर। हेमशेखरन न.नं नेनुः केवलिनं जिनम् ॥ ५॥ श्रोतुं चित्तप्रविष्टे: निविष्टेषु च तेवथ । दिदेश देशनां साधुः कृतधर्मनिवेशनम् ॥ ६॥ तथाहि
। केवलिकृता यात्रादेशना-) सकलसुमनसा या पावनी भावनीरः प्रभवति सुकृताः सद्विवेकाब्जयुक्ता। भवमपि तमतीत्य प्रक्रमेत् स्वर्नदीव सुकृतिभिरिति सत्र.ऽऽरभ्यता तीर्थयात्रा ॥ ७॥ भवद्भिः पूर्णिमा-चैत्रीमहापर्व सुपर्वभिः । विहाय विषयासंगं कर्त यं सकलं सदा ॥ ८ ॥ एवं सुधर्मवचनैः प्रस्तावौचित्यसंयुतः । देवान् प्रमुदित न श्रु वा मौनमाप महामुनिः ॥ ९ ॥
( केवलिने इन्द्रप्रश्न:-) १ वृन्दारका देवाः । २ सुमनसो देवाः, सुपुरुषाश्च ।
४॥१२३॥
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चरित्रम्
पुण्डरीक-ौधरीको
सौधर्मेन्द्रो वचोऽवोचत् भगवन् ! भरतनामनि । मम क्षेत्रे महातीर्थ किश्चिद् भावि कदापि किम् ? ॥ १० ॥ ॥१२४॥ Brom ( केवलिप्रतिवच:-) आविरासीद् मुनेरास्यात् सोत्सुकेव सरस्वती। मा कार्षीनिसं स्वीयं दुःखावासं हि वासवः॥ :
यतः-( शत्रुजयगिरिः, तद्वर्णना च) पञ्चाशत्योजनी मूले तुङ्गत्वे चाष्टयोजनी । यस्याऽस्ति शिखरावासो दशयोजनसंमितः ॥ १२ ॥ शव॒जयगिरिः सोऽयं प्रसिद्धः सिद्धिदायकः । सिद्धान्तेऽनन्ततीर्थशैाख्यातः श्रूयते पुरा ॥१३॥ यद् ब्रह्मचर्येण तपोयुतेन धनेन कालेन किलाऽन्यतीर्थे । एकोपत्रासेन तदन जीवाशजये सिद्धगिरी लभन्ते। राजानश्चक्रिणश्चाथ मुनिराजा अनन्तशः। सिद्धाः सिद्धि गमिष्यन्ति पुरा पश्चादपि ध्रुवम् ॥ १५ ॥ श्रीमयुगादितीर्थेशतीर्थे सिद्धगिरे भृशम् । आविर्भावी प्रभावोऽस्य सुखितो भव घासंब! ॥ १६ ॥
(सुराः, मेघनादश्च ययुः--) इति श्रुत्वा मुनिं नत्वा कृत्वा चित्तं निजं स्थिरम् । सौधर्मेन्द्रस्तथाऽन्येऽपि स्वस्वस्वर्ग सुरा ययुः ॥१७॥ ४
( केवली ययौ ) देवयुक्तोऽथ राजाऽयमगमत् स्वपुराय च । विद्याधरमुनिश्चैव केवली खेऽन्यतो ययौ ॥ १८ ॥४ 8 स्थाने तस्मिन् नृपं मुक्त्वा स्वर्ग सोऽगात् सुरोत्तमः । सन्तो यतो दृहस्नेहात् कार्यदीपप्रवृडिदाः ॥ १९॥8 नृपः प्राणप्रियाः प्रोचे दयिते ! किं नु रोदिधि । समीक्ष्य स्वामिनं सत्यमुगिरति स्म मुद्गिरम् ॥ २०॥8
(त्रैलोक्यसुन्दा 'कम गत्तं भवता ' इति पृष्ठम्--) विहाय मामिह स्वामिन् ! रजनाबजनावनौ । केन किं संगतं क्वाऽपि गतं युष्माभिरुत्सुकः ॥ २१ ॥
(तदनुत्तरम, गमनापलापश्च-) १ सौराष्ट्र वर्तमान प्रसिद्ध तीर्थम् । २ इद्ध ! अनलम्बनी-जनरहित भूमी-एकान्ते इति ।
18 ॥१२॥
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पुण्डराक- गमने गमनं देव-शिक्षातः स्थगयनिजम् । सस्नेहोऽपि स दक्षोऽपि स्वकर्मप्रेरितोऽवदत् ॥ २२॥ परित्रम्, ॥१२५॥ लोकेऽस्मिन् लोलचित्तानां लोलाक्षीणां पुरो नराः । गुह्यवार्तास्तु नैवाऽऽती अपि प्रकटयन्ति ते ॥२३ ॥
२३ ॥ सर्गः-४ लीलया निविचाराऽसावित्युक्त्वा कठिनं वचः । सभामभासयद् गत्वा राजा राजासनश्रितः ॥ २४ ॥
( अत एव स्नेहभङ्गेन त्रैलोक्यसुन्दा वैराग्यम् - ) प्रियाऽऽस्यादप्यदः श्रुत्वा सा ध्यौ भुवि नाऽङ्गिनाम् । स्नेहो देहोऽथ नाऽहोऽपि-कल्पनातो ध्रुवोध्रुवम्॥२५॥६ भासिनीत्युन्मनीभूय जातभूयस्तराऽतिः । विश्वं विनश्वरं विश्वमवश्यं सा व्यभावयत् ॥ २६ ॥
(देवसानिध्यम-) पितुः पितामहं देवं तं मनोरथसंज्ञकम् । सस्मार हतशं-सारं संसारं हातुमुत्सुका ॥२७॥2 सुरः प्रादुरभूत् भूतप्रभूतप्रमदस्ततः । उवाच वत्से ! किं धत्से कार्य कर्तुं सुचेतसा ॥ २८ ॥ ४ तं निजं पूर्वज प्रेक्ष्य सा जगाद सगद्गदम् । समीपे सुगुरोर्मा त्वं गृहाण सुर! सत्त्वरम् ॥ २९ ॥
कर्मणो हि प्रधानत्वम्-इति विद्वेषवजिता । अनित्यः सर्वसंसार: स्नेहहीनाऽहमस्मि तत् ॥ ३० ॥ समग्रस्वजनस्नेह-बन्धनिर्मुक्तमानसाम् । कृत्वा प्रसादं मां तात! गृहाण गुरुसंनिधौ ॥३१॥ भव्यं भावं विभाव्याऽस्या ज्ञानादथ सुरोतमः । प्रीतः पुत्रीचरित्रेण सोऽयद् वदतां वरः ॥३२॥
( मेघनादपिता केवली, तत्समीपे गता त्रैलोक्यसुन्दरी-) है वत्से! श्रीवैरसिंहस्य राजर्षेः सुतपस्यतः । अद्यैव केवलज्ञानम्-अपुनर्भूत्वभूरभूत् ॥ ३३ ॥
( काश्चनपर्वते केवली-) १ अपलपन् । २ दुःखिता आप। ३ कल्पनातो ध्रुवः स्नेहः, देहोऽपि अहरपि दिवसमपि न ध्रुवो ध्रुवम् । पुस्तके तु ' नेहोऽपि स्वल्पानतो' इति पाठः । ४ जाता भूयस्तरा अरतिर्थस्याः सा । ५ विश्वं समग्रम् । ६ शं सुखम, सारस्तु प्रतीत:-तो हतौ यस्मिन्-तं हतशं-सरम-संसारम् ।
8॥१२५॥
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चरित्रम्
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पुण्डरीक- कमलासनमासीनः सोऽस्ति काञ्चनपर्वते । प्रयान्तः सन्ति देवेन्द्राः सुते ! तस्य महेऽद्भुते ॥ ३४ ॥ ॥१२६॥
यद्यस्ति परलोकेच्छा मुक्तच्छायोः सुतेऽथ ते । गेहान्निसर तत् पाप-पयोधि प्रतर त्वर ॥ ३५ ॥
(तत्र गता त्रैलोक्य सुन्दरी-) १ इत्युक्त्वा च ततो नीत्वा देवीं त्रैलोक्यसुन्दरीम् । ययौ काञ्चनशैलेऽथ तया सह ननाम तम् ॥३६॥
(वैरसिंहकेवलि-देशना-) निविष्टेषु सुरेष्वग्रे वैरसिंहो महामुनिः । सदुःखां स्वस्नुषां वीक्ष्य सवैराग्यं वचोऽब्रवीत् ॥ ३७ ॥
( त्रैलोक्यसुन्दर्या व्रतयाचना-तस्या दीक्षा च-) निशम्य शमसंपूर्ण शमिनोऽस्य मुनेवचः । चतुर्गतिभवोच्छित्यै ययाचे चतुरा व्रतम् ॥ ३८ ॥ ४ मा कार्षीर्भवनिर्बन्धमेवमुक्त्वा मुनीश्वरः । दीक्षां ददौ स दक्ष.याः समक्षं सर्वसंसदः ॥ ३९ ॥ प्रव्रज्यां प्राप्य संतुटा मनःसंवेगवेगतः । सा समादाय संन्यासं बारिताऽपि सुपर्वभिः ॥ ४० ॥
(प्रियां विना दुःखितो मेघनाद:-) १२ राजा श्रीमेघनादोऽथ प्रियामेप्रक्ष्य दुःखितः । केनाऽप्यऽपहृतामिति राज्यदेवीमतोऽस्मरत् ॥ ४१ ॥
(गज्यदेवीसांनिध्यम्--) उपवासत्रयप्रान्ते साऽऽविर्भूताs बदद् वचः । निस्नेहवचसा ते सा साते सानुशयाऽभवत् ॥ ४२ ॥ ततः स्मृतेन देवेन नीता सद्गुरुसंनिधौ । दीक्षा नीत्वाऽद्य संन्यासं सा जग्राह महाग्रहा ॥ ४३ ॥
( मेघनादो ययौ कञ्चनपर्वते-) निशम्येति नृपो राज्ये निवेश्य निजगोत्रिणम् । सह राज्यसुरी नीत्वा ययौ काञ्चनपर्वते ॥ ४४
१ महः-उत्सवः । २ मुक्ता इच्छ। यया-तस्याः । ३ त्वरां कुरु । ४ देवैः । ५ सा ते तव, साते सुखे सानुशया सपश्चात्तापा। .
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नवश्य निजगोत्रिणम् । सह राज्यसुरीं नीत्वा ययौ काञ्चनपर्वते ।
१ ॥१२६॥
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पुण्डरीक
॥१२७॥
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(मेघनादप्रश्न:-) वैरसिंहमुनि नत्वा सरसंसदि सोऽवदत । पतिभक्तिपरित्यागात् कथं पुण्यं प्रशस्यते ॥ चरित्र यतो युष्मद्ववूः सर्वम्-अवधूय गृहक्रमम् । स्वयं संन्यासविन्यासं चक्रे वक्रेतरान्तरा ॥ ४६ ॥
सर्ग:-४ मुनिराह महाराज ! भर्तृभक्तिर्भवे वरा । प्रधानं मुक्तिमार्गस्य साधने तु व्रतं महत् ॥ ४७ ॥ यतः
(भर्ता न मुक्तिदः-) भर्ता मेऽयमिति स्नेहः स तु मोहमयो भृशम् । महामोहान्न मुक्तिः स्याद्-अतो भर्ता न मुक्तिदः ॥४८॥
(भार्या न मोक्षदा-) भार्या ममेति च स्नेहः स तु मोहमयः सदा । महामोहान्न मुक्तिः स्याद्-अतो भार्या न मोक्षदा ॥४९॥ नारी नरस्य मोहेन नरो नारीविमोहतः। यदि व्रते न वर्तेत तदाऽनन्तो भवेद् भवः ॥ ५० ॥ भार्या भवे भवेऽपि स्युः पतयश्च पुनः पुनः । एवं बद्धो भवेत् किं तत् मुक्तिजन्तुबजो ब्रजेत् ॥११॥
(केवलिदर्शितं मेघन दस्य अल्पम् आयु:-) तथा त्रैलोक्यसुन्दर्यास्तवाऽपि नृप! संप्रति । विद्यतेऽनित्यताग्रस्तमायुः सप्त दिनावधिः ॥२२॥ त्यज तस्मान् महामोहं भज स्थैर्य भुवो विभो । स्मर स्मरस्य पापित्वं भव मा भवदुःखाक् ॥२३॥
(मेघनादो वाणीमवाणीत -) श्रुत्वेति यतितो राजा शमसाम्यसमाकुलः । वाणीमवाणीत् संयोग्य पाणी प्रापेश्वरीप्रति ॥२४॥ मया देवनिषिद्धेन प्रिये ! न कथिता तव । नन्दीश्वरस्य यात्रा यत् न्यूनं तद् मान्यतां मम ॥२५॥ साऽऽह नाऽहमिति क्रोधाद् दान्तमादां तपो नृप ! । मोहव्यपोहतः किन्तु विश्वं वीक्ष्य विनश्वरम् ॥५६॥४ १ सरला इति । २ भुवः विभो !-नृप ! । ३ यतिजनात् । ४ भवदुःखभाग मा भव ।
॥१२७॥
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पुण्डराक
8 सगे:
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क्षान्तं क्षान्तं महाराज! स्वान्तं शान्तं यतो मम । यतस्व त्वं ततः स्वार्थ संकल्पं द्रुतमल्पय ॥२७॥ (मेघनादसंन्यास:-) ततो नृपोऽपि विज्ञाय निजायूर्वायुचञ्चलम् । मनो निजं नियम्याऽसौ संन्यासे संन्यवेशयत् । (सिद्धगिरेः कीर्तिः-) केवली वैरसिंहोऽथ तयोः संन्यस्तचित्तयोः । पुरः पुरा श्रुतां सिद्धगिरेः कीर्तिमकीर्तयत् ॥१ एवं ततः श्रवणतः शुद्धध्यानस्थयोस्तयोः। देही देहान्तरं गन्तुम्-ईहांचके नवं पुनः ॥३०॥
(त्रैलोक्यसुन्दरी सौधर्मस्वर्गे-) जीवः त्रैलोक्यसुन्दर्याः स्वर्ग सौधर्मनामनि । सौधर्मेन्द्रस्य भार्याऽभूद् नाम्ना सेयं मनोरमा ॥६१॥
(मेघनादो रत्नचूडो नृपः-) श्रीमेघनादजीवस्तु जःतस्वल्पभव स्थितिः। चन्द्रचूडस्य पुत्रोऽयं रत्नचूडनृपोऽभवत् ॥ ६२॥ ( देवी आगता-) पितर्यपगते प्राप्ते राज्ये रात्रौ च सोऽन्यदा । देवीं ददर्श शय्यास्थो विस्मितस्तां ततोऽवदत् ।।
का त्वं सुन्दरि ! कस्याऽसि कामिनी किमिहाऽऽगता । इदं निवेद्यतां सर्व मदीयमनसो मुदे ॥६४। है हसित्वा सहसा साऽऽह राजन् ! जानासि किं न माम् । तव पूर्वभवस्याऽस्मि भार्या त्रैलोक्यसुन्दरी ॥३५॥2
(पूर्वभववेदी रत्नचूडो विरक्त:-) इति श्रुत्वा निजं पूर्व-भवं स्मृत्वा नृपोत्तमः । मुश्चन्नभूणि सोऽवोचत् संसारोद्विग्नमानसः ॥६६॥ पूर्वाम्नातेन नाम्ना ते जाति स्मृत्वा पुरातनीम् । राज्यं रजस्समं मन्ये विषवद् विषयानपि ॥३७॥ मया त्वयि पुरा प्रोक्तं स्नेहहीनं हि यद् वचः। तद् मे स्मरति हृदेहि येनाऽदाहि मनस्तव ॥६८॥ तदा त्वां गुरुपादान्ते नाऽहं दान्तेन चेतसा। क्षामये यदि तद् मे स्यादनन्तं भ्रमणं भवे ॥३९॥ १ अल्पं कुरु । २ नवं देहान्तरम् । ३ हृदयं दहति इति ।
॥१२८॥
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पुण्डरीफ
॥१२९॥
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सर्ग:-४
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भवे भवेऽपि भविनो मनो-वाक्-कायसंभवा । व्यापाराऽपारता नित्यं भवेत् पापं ततो हहा ! ॥७॥ चरित्रम्.
(भवं विहातुकामो रत्नचूड:-) भवं विहातुकामोऽस्मि तत् त्वं कथय सत्वरम् । गुरोर्गुणगुरोः कस्य पार्श्व गृह्णाम्यहं व्रतम् ॥ ७१ ॥
(देवीदर्शितो गुरुः पुण्डरीकः--) अवादीत् साऽऽदिदेवस्य पुण्डरीको गणेश्वरः । शत्रुजयगिरौ गच्छन् समेष्यत्यत्र निश्चितम् ॥७२॥ समागत्य तदैव त्वां ज्ञापयिष्यामि भूमिप ! । तं गणाधीश्वरं नत्वा स्वार्थ कुर्याद् यथोचितम् ॥७३॥
(गता देवी--) एवमुक्त्वा तिरोभूता सा देवी स्नेहवत्सला । राजा श्रीरत्नचूडोऽपि स्वचित्तेऽथ व्यचिन्तयत् ॥४ मिथ्यादुष्कृतदानेन उक्तपूर्व कुवाक्यतः। अहं तु सांप्रतं हन्त पापी स्यां निश्चितं वदन् ॥७२॥
(मौनवान् रत्नचूड:--) एवं कुवाक्यतः पाप-तापतोऽद्भुतभीतिभाक् । मन्त्रि ! श्रीरत्नचूडोऽयं तदा प्रभृति मौनवान् ॥७॥ अस्मानत्राऽऽगतान् ज्ञात्वा सेयं देवी मनोरमा । श्रीरत्नचूडराजानं प्रमोदादानयत् पुरः ॥७७॥ मतिचन्द्रमहामात्य-पृष्टमुक्त्वा गणेश्वरः। मौनावलम्बिनं भूपं प्रत्यालोक्य ततोऽब्रवीत् ॥७८॥ श्रीरत्नचुडराजेन्द्र मा भैषीर्वचनं वद । सत्यां धा यतो वाचं वदन्ति यतयोऽपि हि ॥७९॥
(इति रत्नचुडपूर्वभव:-) इत्थं पूर्वभवं राज्ञो मन्त्रिणोऽग्रे मुनीश्वरः। गदित्वा स्वाऽऽस्यकौशान्तर्वाक्यरत्नान्यगोपयत् ॥८॥
(रत्नचूडकृता पुण्डरीकस्तुति:---) रत्नचूडस्ततः प्राश्चद्रोमाञ्चनिचयाञ्चितः । पुण्डरीकगणाधीशं नत्वा स्तोतुं प्रचक्रमे ॥८१॥
॥१२९॥
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१ व्यापाराणाम् अपारता ।
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पुण्डरीव
३०॥
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पूज्यादिदेवकुलपल्वलपुण्डरीके! श्रीपुण्डरीकगणनाथ ! बहक्षुधार्ताम् । त्यक्तान्यकद्वचनधान्यरसा रसज्ञी खां भोजये ननु तव स्तवनामृतान्नैः ॥८२॥
सर्गः-४ स्वामिन् ! भवोदधिममुं जिनधर्मयानप्राप्तेस्तरन्तमपि तत्र स कामचौरः ।
नारीविलोचनतरीयुगलाधिनाथस्तीक्ष्णैः कटाक्षविशिखैर्निरपातयद् माम् ॥८३॥ यद् राग-रोषरजसा कलुषं किलाऽऽसीत् ज्ञानोदकं मम तवोदयतस्तदैव ।
पीतागमामृतसमुद्र! मुनीन्द्र ! पूतं भूतं विवेककमलालयहंसशोभि ॥ ८४ ॥ पूर्वानुभूतमखिलं नरकस्य दुःखं मंमन्यते मम मनोऽतिमनोहरं तत् ।
स्यां तद् विनाऽतिविमलः किमहं ततः स्यात् किं दर्शनं तव शिवद्रुमशुद्धबीजम् ॥ ८५ ॥ त्वं विश्ववन्द्य ! यदि सर्वसमोऽस्ति तत् किमहांसि हंसि मम मोदयसे मनः किम् ।
मोक्षं समीपयसि दूरयसीह जातिं तुभ्यं नमोऽनवगताय ततो यतीश ! ॥ ध्यानाद् मनो नयनयुग्ममिदं विलोकात् कौँ वचःश्रवणतश्च शिरः प्रणामात् ।।
स्वामिन् ! कृतार्थमधुनाऽजनि सर्वमेतत् जन्माऽस्ति मेऽद्य सफलं तव सेवया तु ॥ ८७ ॥ (रत्नचूडकृतो राज्यत्याग:-) यतिस्तुतिमिति प्रोच्य ययौ पोतनपत्तने । राज्यं निजं ददौ राजा राजहंसाय सूनवे ॥४
( श्रीपुण्डरीकगुरुसमीपे रत्नचूडो गतः सपरिवार:ततश्च-स्नातदेहस्तुटन्मोहैस्त्यक्तगेहावरागिभिः । गजारूढः वयाप्रौढैः प्रबुद्धैर्बहबुद्धिभिः ॥ ८९ ॥ श्वेतवस्त्रैर्धतच्छत्रैः संगीताकृष्टदृष्टिभिः । मण्डलेशसहस्रेस्तु पञ्चभिः सहितस्तदा ॥ ९ ॥ १ कमलरूप ।। २ रसज्ञा जिह्वा । ३ मन्यतेर्यडन्तं रूपम् । ४ अंहांसि पापानि ।
॥१३०॥
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पुण्डरीक
॥१३॥
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रत्नचूलोऽचलद् दानं ददन्नचलचेतसा । अतुच्छरुत्सवैर्विश्वत्रयमुत्सुकयन्नसौ ॥ ९१ ॥
चरित्रम्. देवदूष्यरितो देवा विदधुर्देवमण्डपम् । पञ्चयोजनविस्तारं गव्यूतित्रितयोच्छ्रितम् ॥ ९२ ॥
सर्गः-४ श्रीमद्-युगादिदेवस्य तत्र मूर्तिचतुष्टयम् । जगच्चित्रकरं चक्रुश्वारुचामीकरप्रभम् ॥ ९३ ॥
(सिंहासने श्रीपुण्डरीक -) दिव्यमूर्तिभृतः स्थालमक्षयं विदधुः सुराः। श्रीपुण्डरीकः पूर्वस्यामासीनः सिंहविष्टरे। आतपत्रं गजं खङ्गं मुक्त्वा मुकुटमप्यसौ । तैर्युतो रत्नवूडोऽथ प्रविश्य प्राणमन्जिनम् ॥ ९५ ॥
(रत्नचूडगृहीता दीक्षा-) ततः श्रीपुण्डरीकोऽस्य मानि मन्त्रं समुच्चरन् । हस्तं न्यवेशयज्जन-वतन्यासं च तत्तनौ। नाभेयमूर्ति परितस्ततो भ्रामति भूपतौ। दिव्यचूर्णभरोऽक्षेपि सुरा-ऽसुर-नरेश्वरैः ॥ ९७ ॥ तत्र मङ्गलगीतानि गायन्तीषु सुरीष्वसौ । प्रदक्षिणात्रयं दत्त्वा मुनि नत्वा निविष्टवान् ॥ १८ ॥
( श्रीपुण्डरीकदेशना--) ततः पञ्चसहस्राणां शिष्याणां गोचरे मुनिः। निजां प्रचारयामास गावं पीयूषवर्षिणीम् ॥ ९९ ॥ तथाहिजैनव्रतं येन गृहीतमेतत् तेनेह पापं निगृहीतमेव। यः पालयेन्निर्मलमानसस्तत् तं लालयेन् मुक्तिरियं निजाविशेषतोऽपि धन्यास्ते ये मोहं राज्यसंभवम् । सुदुस्त्यजं परित्यज्य प्रपन्ना मुक्तिवीथिकाम् ॥ [४००॥ ४ श्रौतज्ञानपयोधिसंभववचोरत्नोचये राजितां स्फूर्जद्बोधगुणोत्तरेण सहितां तत्त्वोपदेशसृजम् । सभ्येभ्यः परमात्मभूषणकृते दत्त्वोज्ज्वलां चाऽक्षयं साधुर्कोषमसौ पुपोष विगलद्दोषस्तपस्तीव्ररुक ॥२॥ (देशनासमाप्ति:-) ततोऽन्ये भूमीशा गणधरवरं गच्छसहितं प्रणम्योर्वीपीठे प्रलुठितशिरोहीरनिकराः। १ सिंहविष्टर सिंहासनम् । २ मुक्तिमार्गम् । ३ श्रुतेः आगतम्-श्रौतम्-श्रुतज्ञानम् । ४ गुणाः सूत्राणि अपि । ५ जोषं मौनम् ।
॥१३॥
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पुण्डरीक-8 निजस्थानं जग्मुर्विगतगृहमोहं व्रतयुतं स्तुवन्तो राजानं शुचिसुकृतकर्पूरकलसम् ॥ ३ ॥ ॐ चरित्रम् (४ सर्गः पूर्ण:--) श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुषङ्गं त्यजन् यो जाड्यस्थितिरप्यभूत् प्रतिदिन प्राप्ताद्भु
१४४ सर्ग:-५ तेन श्रीकमलप्रमेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः श्रीशत्रुजयदीपकस्य चरिते सर्गश्चतुर्थोऽजनि ॥४॥ [तप्रातिभः। इति श्रीरत्नप्रभसूरिशिष्य-आचार्यश्रीकमलप्रभ-विरचिते श्रीपुण्डरीकचरिते महाकाव्ये
श्रीरत्नचूडपूर्वभव-वर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः ।
पञ्चमः सर्गः
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( श्रीपुण्डरीकः प्रतस्थे-) श्रीपुण्डरीकोऽथ गणाधिनाथो भुवं दिवं तैर्मुनिभिः सुरैश्च ।
पवित्रयन् विश्वविबोधहेतुं स्वैर्भानुभिर्भानुरिव प्रतस्थे ॥१॥ ( चम्पापुरी प्राप-) अथो यथोक्तक्रमतो धरित्रीं क्रामन् मुनीशः स मैनःस्थितिज्ञः ।
___स्वशोभया दत्तदिवप्रकम्पां चम्पापुरी प्राप विपावृत्तिः ॥२॥ ( चम्पकद्रुः जगाद-) तस्याः समीपोपवनेऽस्ति शस्तः प्रौढः प्ररूढः किल चम्पद्रुः ।
स शाखया संनतयाऽवगम्य जगाद् तं दिव्यगिरा गणेशम् ॥३॥ 8 ( लक्ष्मीधरो राजा तदागमनं च-) कृत्वा प्रसादं भगवन् ! इहाऽद्य गृहाण वासं निगृहार्ण खेदम।
लक्ष्मीधराख्यं नृपतिं वयस्यं मम प्रशस्यं कुरु बोधदानात् ॥४॥ १ किरणैः, शोभाभिश्च । २ मनसां स्थिति जानाति इति-मनोवित् । ३ यया चम्पया दिवस्य स्वर्गस्य-अपि, प्रकम्पो दत्तः । ४ निष्पापः । ५ दु:वृक्षः । ६ मार्गजन्यखेदं दूरीकुरु-इति ।
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॥१३२॥
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મૂળ પાનું ૧૩૩
ભાષાંતર પાનું ૧૨૮
પુંડરીકસ્વામી ચંપાપુરીમાં પધાર્યા છે. તે વખતે લક્ષ્મીધર રાજા ચંદ્રના છત્ર સહીત વંદન કરવા આવ્યા. હરિગમેવદેવ પ્રશ્ન કરે છે કે- હે વિભુ ! આ રાજાએ પૂર્વ ભવમાં એવું કયું ઊગ તપ કે તે થવા એવુ શું . શ્રેષ્ઠ દાન દીધુ છે કે જેના પુણ્યથી ચંદ્ર તેની શે | કરે છે ? '
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॥१३३॥
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वृक्षाद् वचश्चित्रकरं निशम्य ज्ञानोपयोगादवगम्य किञ्चित् ।
व तस्थौ सुरैनिर्मितरम्यरत्न-सिंहासने तत्र मुनिः स यावत् ॥६॥ तावच्च कर्पूरपरागपूरप्रभापुर-क्षीरभृताऽभ्रशोभा ।
देहाद हरन्ती तपनस्य तापं ज्योत्स्ना शनैश्च प्रससार तत्र ॥३॥ दिनेऽपि चन्द्रातप एष किं स्यात्-इत्युत्थिता ये मुनयः सुराश्च।
___ आगच्छतः श्रीधरभूमिपस्य छत्रस्वरूपं ददृशुः शशाङ्कम् ॥७॥ अहो महोष्णांशुमहोऽप्यनेन स्थिरौजसा चन्द्रमसा निरस्तम् ।
इत्थं सुरेषु प्रवदत्सु राजा सैन्यैर्युतोऽभ्येत्य यति ननाम ॥८॥ (मृगवेषो देवः, तत्प्रश्नश्च-) प्रणम्य संस्तुत्य गिरं प्रतस्ये भूपोऽथ देवो मृगवेष एषः।
खं पञ्चषक्रोशमित तदिन्दुप्रकाशितं प्रेक्ष्य विभुं बभाषे ॥९॥ प्रभो! नृपस्याऽस्य घनप्रभोऽयं करोति किं श्वेतकरोऽतिसेवाम् ।
चक्रं यथा पूर्वभवोद्भवेन पुण्यप्रभावेण तु चनेतुः ॥१०॥ उग्रं समग्रं विहितं तपः किं दानं प्रधानं किमु वा प्रदत्तम् ।
___पुरा भवेऽनेन सदा कृतैनःपराभवेनेति विभो ! वदाऽऽशु ॥११॥ 8 स्पृष्ट्वाऽस्य पादौ वचनं तु पृष्ट्वा गुरोः पुरोऽभूत् स सुरोऽथ मौनी ।
लक्ष्मीधरः पूर्वभवं स्वकीयं शुश्रुषुरस्थाद् विहितावैधानः ॥१२॥ १ सूर्यस्य । २ चन्द्रप्रकाशः । ३ महाष्णांशुः-सूर्यः, तस्य महः तेजः । ४ पु० तु 'पुरेषु' इति पाठः । ५ पञ्चभिः, षड्भिः वा क्रोशैर्मितम् । ६चन्दः । ७ चक्रवर्तिनः। ८ एनः पापम् । श्रोतुमिच्छुः । १. सावधानः ।
॥१३३॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
सर्गः- ५
( उवाच श्रीपुण्डरीक:-) उवाच वाचंयम एष वाचं दन्तांशुभिश्चन्द्ररुचिं प्रपुष्णन् ।
प्रोद्यत्प्रभायां श्रवणे सभायां पतत्रिवर्गेष्वपि मौनवत्सु ॥१३॥ ॥१३४॥ (आचाम्लचन्द्रतप:-)
महीपस्य यदस्य जातं शशाङ्करत्नं किल नित्यसेवि ।
आचाम्लचन्द्राख्यतपस्तरोस्तत् फलं स्फुट चाऽत्र पुराकृतस्य यतोऽत्र जीवाः कृतपूर्वकर्मदत्तं सुखं वाऽप्यऽसुखं लभन्ते। ..
ततस्तपोऽनेन कृतं यथैतत् शृण्वन्तु पूर्वोऽस्य भवश्च भव्याः ॥१५॥ तथाहिं( लक्ष्मीधरनृपपूर्वभवः, लक्ष्मीपुर नगरम्-) द्वीपेऽत्र जम्बूपपदे विदेह-क्षेत्रे पवित्रैः सुकृताम्बुपुष्टैः ।
प्रासादपद्मः सहितं सरोवल्लक्ष्मीपुरं नाम पुरं पुराऽऽसीत् ॥१६॥ ( राजा सुरेन्द्रदत्तः- ) सदाऽपि यो निर्मलधर्मकर्मकर्ताऽपहर्ता भुवनस्य भीतिम् ।
सुरेन्द्रदत्तोऽर्थिजने सुरद्रुर्बभूव भूवल्लभ एष तत्र ॥१७॥ सौर्याग्निरस्मिन्निहितो विधात्रा दाहं समृहुस्तु द्यनारिवंशाः।।
यशोऽस्य शश्वच्च चचार विश्वं तेषां मनो दिग्विजये तु खिन्नम् ॥१८॥ (राज्ञी चन्द्रलेखा-) भूमीपतेरस्य महाय॑सौख्यरत्नोच्चयानामिह सारकोशः।
चातुर्य-सौन्दर्यविलासवासो भार्या सदाऽऽर्याऽजनि चन्द्रलेखा ॥१९॥ सदा सदाचारसरिद्वरायां मनो मनोभूसहितं यदीयम् ।।
१ पक्षिवर्गेषु । २ तडागमिव । ३ अत्रैवं चित्रम्-सौर्याग्निर्नृपे, दाहस्तु अरिवंश यशस्तु चचार, अरिवंशानां मनः खिन्नम् । वस्तुतस्तु यत्र अग्नि:8 तत्रैव दाहः उचितः, एवं यो गतिकर्ता स एव खिन्नो भवति-अत्र तु नैवम् ।
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४॥१३४॥
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पुण्डरीक
॥१३५॥
मर्गः ५
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सस्नौ तयोश्चञ्चलता ततोऽगात् हत्येव दरं विमलात्मिकाया ॥२०॥ चरि न्यायेन युक्तो मृदुलैः कराग्रैः स्वैः पालयंस्तत्र निजां प्रजां ताम् ।
मेने सुतत्वेन सुतेन हीनो महीनंमुख्योऽयमहीनधैर्यः ( अम्बरतोऽवतीर्णो नर:-) शस्त्रशे-शास्त्रेश-धनेश-धीशैः सद्भिः शुभायां पुरतः सभायाम् ।
दिव्याम्बरं सोऽम्बरतोऽवतीर्ण नृपो नरं कान्तिधरं ददर्श ॥२ (आह राजा-) संभ्रान्तनेत्रस्तमवेक्ष्य राजा हास्यस्मितास्यः सहसा स आह ।
आगम्यतामत्र सुमित्र! शीघ्रमालिङ्गनं देहि च पद्मभूपः ॥२३॥ ( पद्मभपः-) आलिङ्गन्य पार्श्व स निवेश्य पध्र प्रोचे बहभ्यः किमहो! दिनेभ्यः।।
त्वमागतः किं च मदीयभिन्न धूमध्वजो भोः ! कुशली वदेति ॥२४॥ ४ ( जगाद पनः-धूमध्वजो नृपः, तत्कृता चक्रेश्वरी सेवा, प्रसन्ना देवी -) जगाद पद्मः शृणु सावधान ! वैताट्यशैले शिवमन्दिरेशः । धूमध्वजः सैप्सदिनीमुपोष्य चक्रेश्वरीमेष नृपः भूत्वाऽथ देवी प्रकटा तदा सा धूमध्वजं भूमिपति बभाषे ।
_[ सिषेवे ॥२५॥ तिष्ठामि तुष्टा तव सत्वतस्तद् वरं वृणु त्वं ननु धर्मवीर! ॥२६॥ श्रीधूमकेतुः स उवाच चेत् त्वं देवि ! प्रसन्नाऽसि मयि प्रकामम् ।
१ राजग्राह्यभागैः । २ महीनाः महीस्वामिनः । ३ अहीनं धैर्य यस्य अथवा अहीनवत्-सर्पराजवत्-धैर्य यस्य । ४ शस्त्रंशाः युद्धविद्याविचक्षणाः । ५ पण्डिताः। ६ श्रोष्ठनः । ७ घोप्रधानाः तार्किकाः । ८ दिव्यवस्वधरम् । ९ गगनतः । १० हास्येन स्मितम् आस्यं यस्य । ११ सप्त दिनानि यावद् उपवासान् कृत्वा ।
४॥१३५॥
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पुण्डरीक
॥१३६॥
४
१२
Jain Educatio
( सुरेन्द्रदत्तार्थं वरयाचा — )
चक्रेश्वरी साऽऽह सुरी नरेशं राजन् ! हरिद्वर्णतुरंगिकायाः ।
सोऽयं किंसोरो भविता तवाऽद्य तमर्पयेस्त्वं नु निजस्य सख्युः ॥ २८॥ ( देवीदर्शितः पुत्रेोपायः — ) सुरेन्द्रदत्तस्य हयं तमेवाऽऽरूढस्य भावी तनयाऽभ्युपायः । धन्यः पुनस्त्वं तु नृप ! स्वमित्रे प्रीतिं सदा स्फीतमतिं विभर्षि ॥ २९ ॥ ( आशीर्वचनमुक्त्वा देवी तिरोबभूव - ) यन्मित्रदुःखेन तु दुःखितोऽसि ददासि तत् ते वरमय तुष्टा । वैताढ्यशैosa तवोत्तरस्यां विद्याधरेशत्वमखण्डमस्तु ॥३०॥
सुरेन्द्रदत्तस्य ततो नृपस्य मदीयमित्रस्य सुतं प्रयच्छ ॥२७॥
देवत्युदित्वाऽथ तिरोबभूव भूवल्लभोऽप्याप फलं वरस्य ।
सायं दिने तत्र हयं तु जातं वर्षत्रयं पालितवान्नरैः स्वैः ॥३१॥ ( पवनंजयो हय: - ) तेन त्वयि प्रीतिभृता नृपेण विमानमारोप्य हयः स एव । प्रस्थापितोऽयं पवनंजयाख्यो विद्याभृतां पञ्चशतैर्मया च ॥३२॥
अतो बहुभ्यो नृप ! वासरेभ्यो ममाऽऽगमोऽभूदिति सर्वमुक्त्वा ।
जगाद पद्मः करमुन्नमय्य भो ! भोः ! कुरुध्वं तुरगं नृपाग्रे ॥३३॥
विद्याधरास्तेऽथ विधाय नम्र विमानमेकं पवनंजयाख्यम् ।
temational
उत्तारयामासुरमुं तुरंगं सुरेन्द्रदत्तस्य नृपस्य दृष्टौ ॥३४॥
सुरेन्द्रदत्तः सहितः प्रधानैः स्फुरत्प्रभं प्रेक्ष्य पुरस्तुरंगम्
१ हरिद्वर्णा नीला । २ अश्वपोतः ।
परित्रय्सर्ग: - ५
॥१३६॥
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ण्डरीक
॥१३७॥
४
१२
स्कन्धोद्धतं मध्यमितं सरोषं संकीर्णकर्ण लघुचक्रववत्रम्
हृष्टः समुत्थाय सुकोमलेन पश्येर्श तं पाणिसरोरुहे ॥ ३२ ॥
तदा मुदा मन्त्रिमुखानि वीक्ष्य हृष्टो बभाषेऽथ सुरेन्द्रदत्तः ।
वलत्पदं लोमसुतेजसाऽऽयं स्थूलं च पश्चात् तुरगं ददर्श ॥ ३६ ॥
तथा च - सदाऽपि सौजन्यसुधाभृतेषु महीयसां निर्मलमानसे
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स्नेहः सतां मेरुरिवाऽक्षयोऽयं घनेऽपि काले विमलोऽचलश्च ॥ ३७ ॥
एवं स्तुवन्तं नृपतिं सुरेन्द्र दत्तं प्रणम्याऽथ जगाद पद्मः ।
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न क्रोधवहिर्भवतीति युक्तो यत्प्रीतिरेखाऽविचले ति चित्रम् ॥३८॥
१ स्पर्श चकार । २ स्कन्धेन उद्भतं समुन्नतम्
३ लघुकर्णम् । ४ रोमतेजस्स हितम्-तथा च अश्वलक्षणम्'दीर्घग्रीवाऽक्षिकूटखिकहृदय पृथुस्ताम्रतात्वोष्ठजिकः सूक्ष्मत्वकेशवालः सुशकगतिमुखो स्वर्णेष्ठपुच्छः ।
जङ्घाजानूरुवृत्तः समसितदशनश्चारुसंस्थानरूपों वाजी सर्वाङ्गशुद्धो भवति नरपतेः शत्रुनाशाय नित्यम् " ||१|| - वराहमिहिरो निजायां बृहत्संहितायाम् - अध्याय ६५ ।
राजा ततोऽभ्वं पवनंजयाख्यं तं पालयामास सुभक्षक्षैः ॥३९॥
अर्थात् प्रविया, अक्षिकूटेन दीर्घः कटिभारेण हृदयेन च पृथुः अष्ठेन, तालुना, जिह्वया च रक्तः; शरीरचर्म, मूर्धजाः, पुच्छवाल:- एते यस्य सूक्ष्माः; शक्तैः, गत्या, मुखेन च सुप्रमितः; कर्णौ, उत्तरोष्ठः, पुच्छमूलं च एतानि यस्य इस्वानि जङ्घया, जानुना, उरुणा च वृत्तः; दन्तैः समः, वेतच; संस्थानेन रूपेण च चाहः एवंविधो वाजी- अश्वः सर्वाङ्गशुद्धो ज्ञेयः ।
५ लोके हि विना तापं
मानससरसि न कदापि रेखा भवति, अत्र तु क्रोधवनिं विनैव अचला प्रीतिरेखा अविचका-इति चित्रम् । सुभोज्यलक्षैः ।
चरि
सर्गः-५
॥१३७॥
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पुण्डरोक
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चरित्रम्.
॥१३८॥
सर्गः-५
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( सुरेन्द्रदत्तस्य वाह्यालिकेलि:-) अन्येारुर्वीपतिरेष सर्वसैन्यैरचालीत् तुरगाधिरूढः ।
वाह्या लिकेलीषु कुतूहलेन कुर्वन्निलागोलमलं विलोलम् ॥४॥ ततश्च-शरासनं कोऽपि शाररासनेन प्रासः प्रयासं नृपतेः पुर: कः ।
गदाभृतः केऽप्यर्ग-दारणं च स्वं दर्शयामासुरितश्च वीरः ॥४१॥ राजा निजं चारुतरं तुरंगं गतीश्चतस्रश्चतरो विधाय।
स तं ततं कारयितुं तु वेगं दासनोऽभूद् दृढधैर्यधुर्यः ॥४२॥ ( राजानं गृहीत्वा उच्चचाल पवनंजयः सार्धशतये.जन.मू- ) विशामधीशेन कशाहतोऽथ विहाय भूमि स विहायसेव ।
क्षणं खगान् व्याकुलयन् पुरोगान् हयो रयोचममुच्चचाल ॥४३॥ अरे ! हरे ! भूभिविभुं गृहीत्वा मा याहि धूलीति पदेऽग्रहीत् तम् ।।
विन्यस्थतामन्यतुरंगमाणां शिरस्सु सोऽगानृशं विलय ॥४४॥ यथा यथा तं नृपतिश्चकर्ष तथा तथा स प्रचकर्ष भूपम् ।
तद् योजनानां शतमेकमेवं साधं ययौ गन्र्धवहेन स.र्धम् ॥४॥ ( राजा सरे।वर प्राप-) करेऽथ दूनो नृपतिर्मुमोच वलूगां तुरंगश्च दिवं तदेव ।
तर्ण ततः प्राप पयःप्रपूर्ण सरोवरं चित्तहरं हरीन्द्रः ॥४३॥ १ भूगोलम्-सकम्पं कुर्वन् । २ प्रासः-अवविशेषः-कुन्तास्त्रम् । ३ अगा:-पर्वताः, तेषां दारणम् । ४ रयेण-वेगेन, उच्चो क्रमो पादौ यथा स्यात् तथा । ५ वेगपूर्वकगमनात् जाते धूलीप्रचारे कविरेतत् उत्प्रेक्षते । ६ वायुना ।
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॥१३८॥
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चरित्रम्. सर्गः-५
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पुण्डरीक-४ पीत्वा समीरं लघुरोमरन्धैः प्रीतः स तस्थौ तरुमूलमेत्य ।
राजाऽवतीर्याऽथ हयं स्वयं तं पानीयपानाय ततो निनाय ॥४७॥ संस्नाप्य सस्नौ च पपौ निपाय तरगराजं स नराधिराजः।
प्रीतः प्रमोदात् प्रशशंस विश्वमूलं जलं निर्मलतानुकूलम् ॥४८॥ ( नृपा ललनां ददर्श-) तीरस्थितो नीरविलोकनाय प्रसारयामास नृपोऽथ मेरे।
स निस्सरन्तीं सरसोऽपि रक्तां कयाऽपि युक्ता ललनां ददर्श ॥४९॥ संकेतयन्तीव रणाय काम वित्र सय तीव कुलस्य लज्जाम् ।
संतर्जयन्तीव तुलस्य सत्वं सा वामनेत्रा विकटः कटाक्षः ॥२०॥ पीनस्तनाभ्यामतिमोदकाभ्यां प्रलोभयन्तीव युवन्मनांसि ।
तस्योपकोयं कतिचित् पदानि गत्वा समालिङ्गय तहं पुरोऽस्थात् ॥ ५१ ॥ (युन्मम् ) निरीह चित्तं नृपतिं समेतं पालीवनालीषु हयं च बद्धवा ।
स्थितं समीरः शिशिरो मुदेव सहागतः स्नेहत आलिलिङ्ग ॥५२॥ ( तया ललनया प्रहितो दृतीमुखेन संदेश:-) सत्य दूती नृपति प्रणत्य प्रोवाच संयोज्य करी पुरस्था।
प्रसादमाधाय मयि क्षितीश ! वाक्यं समाकर्णय सावधानः ॥९॥ १ लघुभी रोमच्छिद्रः, समीरो-वायु पी-ते। २ मर्यादम् । ३ वर्तुलाकृत्या, पुष्ट्या च मोदकम् आतिक्रान्तान्याम-अथवा अतिहर्षप्रदाभ्याम् । ४ 'युवमनां स' भवेत् । ५ कायसमीपम् । ६ अग्रस्थिता।
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१॥१३९॥
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सर्गः-५
॥१४०॥
पुण्डरीक-8 कामेन कामं स्वशनिषिक्तैः संप्रापितां विह्वलता लतान्तः।
) चरित्रम् सदौषधीसंनिभदेहयष्टिस्पर्शात् विशल्यां कुरु मे सखीं त्वम् ॥५४॥ (ललनाया: कामपारतम्य -) तस्यों वदन्त्यामिति तत्र सख्या मदालसाक्षी लुलदडायटि।
राज्ञः समीपं समुपेत्य हाव-भावैर्युता स्वामवदत् सखी सा ॥२५॥ प्रतीच्यामम्भोधौ प्रमरकर श्रेणिकलितं रवेबिम्बं रक्तो पलमिव पुरः प्रेक्ष्य सहसा। ___ तमस्तोमोऽप्युच्चैः सखि ! स विदलत्कइमलेरुचिश्चचाल प्रोल्लोलालिकुलवलं चन्द्रवदने ! ॥५३॥ प्रशान्तनेत्रो नरनायकोऽयं तां नायिका कोमलवागुवाच ।
(राज्ञः एकपत्नीव्रतदृढता, ललनायै उपदेशश्च-) अधि प्रसता भव चामरूप-प्रज्ञापितग्रौढकुले! मृगाक्षि! ॥२७॥ भद्रे ! सुखं वैषयिक क्षणं स्यादनन्तपापं त्वतिदुःखदायि।
धीरीकुरु त्वं तु मनो निजं तत् वीरीभवाऽस्मिन् स्मरयोधयुद्धे यतः-रूपं सशीलं नययुंग नृपत्वं धनं सदानं वचनं तु सत्यम् ।
परोपकारे बहु बुद्धिमत्त्वं तत् पायसं शकरयेव स.रम् ॥१९॥ अन्यच्च-विश्वत्रये सन्ति परस्त्रियो यास्ता मे स्वसारो नियमोऽस्ति सारः ।
विधाय चित्तं विमलं स्वकीयं यथाऽऽगतं सुन्दरि तत् प्रयाहि ॥३०॥ १ लताकुञ्जमध्ये । २ शल्यरहिताम् । ३ मदेन अलसे नेत्रे यस्याः सा । ४ प्रसरणशीला: । ५ कश्मलम् - मलिनम् । ६ भ्रमरकुलवत्-श्यामत्वेन । ४७ वीरा शुग भव । ८ नीतियुक्तम् ।
४॥१४०॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
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(गज्ञ उपरि तस्याः का प्रवशाया आक्रमणम्-) अस्मिन् क्षितीशे वदतीति सख्या सत्योद्यतस्याधि तनुः प्रमुक्ता।
आलिङ्गयन्ती तरसा रसाच्या राज्ञाऽपहस्तेन ततो निरस्ता ॥३१॥ तस्थौ ततश्चन्द्रमुखी विषादमधीकृतश्याममुखी नितान्तम् ।
सा सन्मुखीभूय सखी तु तस्याः साटोपकोपात् प्रकटं जगाद ॥३२॥ जहेन राजन् ! भवताऽनुरक्ता विमाननात् कोपयुता क्षता या ।
साऽपत्यभावेन तव प्रियाया भवं समग्रं समलंकरोतु ॥६३॥ ___ ( ललना-दूत्यौ अदृश्यतां जग्मतुः-- ) अदृश्यता जग्मतुरेवमुक्त्वा स्वान्ते वहन्त्यो बहुरोषपोषम् ।
तं शाकुनं ग्रन्थिमसौ तु बड्वा विचारयामास वचस्तदीयम् ॥६४॥ उक्ता क्रुधा दुटतरात् कुवाक्यात् दृटो यदर्थः स सतप्रमृतेः।
आभ्यां कृताद् मे महतोऽपि विघ्नात् संभाव्यते मङ्गलमेव पश्चात् ॥३५॥ । अरण्य रात्रि:-) एते तु देव्यो कुपिते मयि स्तः करिव्यतस्तद्विघ्नं कदाऽपि
रात्रिस्तथाऽपि प्रसरपिशाची तच्छोधाम्यात्म-मनः सुवाक्यैः ॥३६॥ आलोचनायाऽऽत्मकुकर्मणोऽसावुत्तार्य मौलेर्मणिमेकमेषः।
मन्त्रं स्मरन् मण्डितवान् पुरस्तं विचिन्तयन सद्गुरुमेव मूर्तम् ॥३७॥ १ तस्य सत्यपरायणस्य अघि-उपरि, तया कामिन्या निजं शरीरं प्रमुक्तम् । २ अनुरक्ता या स्त्री विमाननात कोपयुता क्षता च जाता । ३ त्रुटति छन्दः । ४ शुई करोमि । ५ नमस्कारमन्त्रम्।
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॥१४॥
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पुण्डरीक
॥१४२॥
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१२
( नृपेण कृतं प्रतिक्रमणम् ) नृपस्तदेर्यापथिकीं भणित्या क्रामन् प्रतीपं मनसैव पापात् । संक्षेपतो वन्देनकं विधाय चित्तोद्भवं भावमुवाच वाचा ॥६८॥ निरीहचित्तस्य ममेव देहं विलोक्य ताभ्यां विधृतः स्वचित्ते ।
कामो निकामं च कुकृत्यहेतुर्मिथ्याऽस्तु तद्दुष्कृतमेव मे
प्रयच्छतो बोधच्छितोऽपि संगं ममाऽङ्गेऽत्र तयाऽप्यनङ्गात् ।
यत् तामधिक्षिप्य करेण सख्याश्चित्तेऽतिकोपो विहितो मया सः ।
कृतोऽभिषङ्गः शुचिशीलभङ्ग-कर्ता विदं दुष्कृतमस्तु मिथ्या ॥ ७० ॥
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तथाहि-
॥ ६९ ॥
Sarsaatri afe वादिता सा मिथ्याऽस्तु तत् केवलिनां समक्षम् ॥७२॥
(सुरः समागत: - ) मां चेत् सदाचारपवित्रगात्रं पात्रं प्रशान्ते रेहिते समेत्य । इत्यर्धवाक्ये विनिवारयन्तं पुरस्सरं सोऽथ सुरं ददर्श ॥ ७२ ॥
जगाद देवो नृप ! यत् त्वदीये चित्तेऽस्ति तत् ते रिपवो लभन्ताम् । राज्यं कुरु त्वं सुचिरं शुचित्वं चन्द्रस्यें मुष्णन् विमलेश्वरित्रः ॥७३॥ ( सुरं प्रति राज्ञः प्रश्नः - ) मया त्वयि द्रोहमतिः कृताऽऽसीत् तत् क्षम्यतामक्षत पुण्यभूमे ! | भूयोऽवदत् कोऽसि कथं सकोपो मयि प्रसन्नोऽसि कथं पुनस्त्वम् ||७४ ||
१ गुरुवन्दनम् । . २ प्रशान्तेः पात्रम् । ३ रहिते - एकान्ते । ४ चन्द्रस्य शुचित्वं मुष्णन्-लुष्टयन् ।
चरित्रम्
सर्गः-५
॥ १४२॥
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पुण्डरीक- ( भूतानन्दो भवनाधिनाथः- ) स्मितस्मितास्यो द्रुतमुजगार सुधाकिरं सोऽथ गिरं सुरेन्द्रः ।
चरित्रम्. मीतलनाथ ! भूतानन्दाभिधं मां भवनाधिनाथम् ॥७॥ ॥१४३॥
सगः-५ प्राणप्रिया मे सुरसुन्दरीति सरोवरे कौतुकतः समेता ।
कामाकुला संगमपोहमाना तवाऽपमानात् सविधं ममाऽगात् ॥७३॥ तया त्वयि क्रोधयुतः कृतोऽहं विनाशबुद्धया समुपागतोऽत्र ।
वाक्यानि ते चित्तविशोधकानि श्रुत्वा प्रशान्तः प्रकटश्च जातः ॥७७॥ अहो नारीनेत्रयोः पापित्वम्- आभ्यां कृतस्नेह इह प्रवृद्धः कलङ्कितोऽन्ते भवितेति दत्त।
___ धाता मषी नेत्रयुगे तु नार्याः संकेतयन् दक्षजनान् समग्रान् ॥८॥ धनं घनैश्चर्ययुतं सुरूपं सयौवनं ते किल वर्ततेऽपि।
__एतानि पापाय नयनतोऽहं जाने गुणायैव सतां हि संगः ॥७९॥ __(मुरकृता राजप्रशंसा--) धन्या त्रिलोक्यां तव वंशभूर्भुवयं त्वयेदं नृपते ! ततस्त्वम् ।
सुरा-ऽसुराश्चर्यकृतान्यनारी-सहोदरत्वेन महाव्रतेन ॥८॥ समग्रसौख्यप्रदधर्मभूमेभूमीश ! तेऽत्राऽप्रियमीर्शते के ? । 8१ संगम् अपि ईहमाना । २ अत्र श्लोके नारीनेत्रयोः पापित्वमेव दर्शयति-आभ्यां नारीनेत्राभ्यां कृत: स्नेह:-प्रवृद्धः सन् अन्ते इह कलड़ितो भविता
इति हेतुना विधाता समप्रान् दक्षजनान् संसूचयन नार्याः नेत्रयुगे मर्षी दयामतां दत्ते । लोकेऽपि कलाकतो जनः श्यामतामेव प्राप्नोति ।। ३ के तव अप्रियं कर्तुं समर्थाः ?।
४ ॥१४३॥
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पुण्डरीक
॥ १४४ ॥
४
८
१२
दातुं सुतेच्छाम एष योऽस्ति फलेग्रहिस्त्वीदृशपुण्यतोऽस्ति ॥ ८१ ॥ देवः स एवं वचनं सहर्ष संभाष्य तथ्यं मनसश्च पथ्यम् ।
भूत्वा समीरेsय नृपस्य कर्णे प्रच्छन्नवाक्यं च जगाद किंचित् ॥ ८२ ॥ ( देव्यै अभवं दापितं राज्ञ) विस्मारणीयं वचनं नहीदं त्वयेत्युदित्वा स जगाम देवः
महाग्रहाद् भूपतिना प्रणम्य प्रयाचितः सन्नभयं तु देव्याः ||८३ ॥
rase देवे नरदेव एष पूर्वी दिशं रक्ततराम्बरान्ताम् ।
nirushierrari सहर्ष नारीभिव प्रेक्ष्य मुदा जगाद ||८४|| ( सूर्योदय: - ) महामार्ग क्लान्त्यात्यरुगवदनो विष्टति स्थितः प्राची ते पृयुगगनपात्रे विनिहितम् करैस्ताराभोज्यं त्वरितमशनीकृत्य पपिवान् प्रगे पान्थः पूजा शशधरसुधाघोलममलम् ॥८५॥ ( नृपसेवकाः समागता: – ) तुङ्गास्तुरंग दृढवेगरङ्गः मनोरवातीतस्था स्वाश्च |
दृष्ट्वा दृष्टा विजसेवकाः स्त्रागू विलोकयन्तः परितो नृपेण ॥८३॥ रास्ते नृपतिं विलोक्य हृष्टा निविष्टाश्चरणौ प्रणम्य ।
राजा तुरंगाहरणं तु रङ्गाद् जगाद तेषां पुरतो न चान्यत् ॥८७॥ मर्दनमस्य देहे खेदापनोदाय मुदा तदाऽथ |
( अश्ववैद्या: - ) मलैः कृतं
संवाहयामासुरमुं ववाहं हस्तेन ते वाहसमूहवैद्याः ॥८८॥
१ आसनसमाने प्राचीशैले २ र सति सूर्योदये तारकाणाम् अभाव:, चन्द्रस्य च इनिकान्तिता भवति अत एव कविना एवमुदप्रोक्ष । ३ सैनिका: । ४ अश्वम् ।
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चरित्रम्
सर्ग: ५
॥ १४४ ॥
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चरित्रम्
॥१४५॥
सर्गः-५
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( चचाल सुरेन्द्रदत्तो नृपः - ) महीमहेन्द्रः स सुरेन्द्रदत्तश्चतुश्चमूसंवलितश्चचाल ।
_ अनेकरूपैः शुचिसाम-दानादिभिर्युतो न्याय इवैष मूर्तः ॥ ८९ ॥ पुरं प्रविश्य प्रकृतिस्थितिज्ञः शशास नित्यं करणानि सोऽथ ।
विवेक-विज्ञान विकाशहेतुरात्मेव लोकस्य ततः प्रियोऽभूत् ॥ ९० ॥ (चन्द्रलेखा बभार गर्भम्-) सदा भुवं भुक्तवताऽपि देहरते कृते तेन रते कृतेऽथ ।
__सा चन्द्रलेखाऽमलशीललेखा बभार गर्भ बहुसौख्यगर्भम् ॥ ११ ॥ भूवल्लभस्याऽथ सुवल्लभायाः कपोलपालीष्वथ निर्मलत्वम् ।
रराज गर्भे वसतो नरेन्दोविश्वप्रकाशोदयिनः प्रभेव ॥ ९२ ॥ राजाऽन्यदाऽनेन मनोरमाङ्गी प्राणप्रिया सा ददृशे कृशाङ्गी।
तनूतनुत्वं वचनैः प्रसन्नैः हृष्टा हिया नाख्यदसौ प्रियाय ॥ ९३ ॥ विचिन्त्य किंचिनिजचेतसैव समुत्थितः प्रौढमुदाऽन्यदाऽयम् ।
दिने चतुर्थे जगदे च तेनाऽप्यसंभवद्दोहददुबलाङ्गी ॥९४ ॥ ( राशीदोहदः - ) स्वच्छा निजेच्छा सुकृतैरतुच्छा संपूर्यतामेवमसौ निगद्य ।
प्रेषीत् समारोप्य सुखासने तां सखीसमेतां जिनमन्दिरेषु ॥ ९५ ॥ पासादयाताऽखिलजैनमूर्ति-शीर्षेषु, हेग्नो मुकुटान् नवीनान् ।
१ सुरते। २ पु० अन्यपाऽयम् । ३ तृतीयान्तमेतत् । ४ प्रासादस्थिताः मूर्तयः ।
0000000000000000000ROMONOMORROOOO000000000000
॥१४५॥
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पुण्डरीक
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॥१४६॥
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सा प्रेक्ष्य दध्यौ मम दोहदोऽयं ज्ञातो मनःस्थोऽपि कथं प्रियेण ॥ ९६ ॥ ( दोहदपूरणम्- ) जैनेन्द्रबिम्बेषु विधाय पूजां स्वर्णा-उन्नदानानि मुदा प्रदाय ।
स्वं दोहदं सर्वमिति प्रपूर्य समेत्य पप्रच्छ नृपं नतास्या ॥ ९७ ॥ ज्ञातः कथं मानसदोहदोऽयं निगद्यतां चित्रमिदं ममाऽद्य ।
राजाऽप्यहंकारविषेण मुक्तं युक्तं प्रशान्त्या वचनं वभाषे ॥ ९८ ॥ पुण्येन केनाऽपि हि पूर्वजानां सुरः स तुष्टः सरसस्तटे यः ।
. जिनेन्द्रकोटीरकरश्च कर्ण त्वद्दोहदस्तेन पुरा ममोचे ॥ ९९ ॥ सा द्यौरिव च्छन्नशशाङ्कबिम्बा सद्बुद्धिवद् गूढपरोपकारा ।।
__संगुप्तपद्मा सरसीव राज-राजप्रिया गर्भयुता रराज ॥ १०० ॥ ( राशी असूत सूनुम् - ) प्राचीव सूर्य द्वितीयेव चन्द्रं चिन्तामणि रोहणभूरिवैषा।
तेजोद्भुतं लोचनसेवनाऽऽभं संपूरिताशंसमसूत सूनुम् ॥ १०१॥ ( दानादिविधानम्-) तदा सदाऽऽनन्दकरं स दानं ददावदारिद्रयकरं जनेभ्यः ।
मुमोच गुप्तिं बहदीनतृप्तिं चकार भूपस्त्वन कारवाक्यः॥१०२॥ ( सुनोनाम अमरशेखरः- ) अस्मिन् सुते गर्भगतेऽस्य मातुर्वाञ्छा बभूवाऽमरशेखराणाम् ।
ततः कुमारोऽमरशेखरोऽयं पित्रा पवित्रायें इति व्यधायि ॥ १०॥ ( अष्टादशलिप्यादिकला:-) नवाङ्कभेदाद द्विगुणों लिपीस्तद् द्वैगुण्यतोऽप्यायुधयुद्धभावान् ।
१ 'जिनेन्द्रकोटीरकरश्च त्वद्दोहदः' इत्यन्वेयम् । २ क्वापि कॉर्थ नकारं न वक्ति। ३ अमरमुकुटानां दोहदः पूर्वोक्तः । ४ पवित्रनाभधेयः, 8 पवित्रकीर्तिर्वा । ५ अष्टादश लिपयः, ताश्च इमाः
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॥१४६॥
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पुण्डरीक-8
कलास्ततोऽपि द्विगुणाः कुमारो वुबोध मारोद्वररूप एषः ॥ १०४॥ 18 ॥१४७॥४ "१ हंसलिपि २ भूतलिपि ३ र्यक्षी तथा ४ राक्षसी च बोद्धव्या, ५ उडी ६ यवनी ७ तुरुष्की ८ कीरी ९ द्राविडी च १० सिन्धविका। 8
११ मालविनी १२ नटी १३ नागरी १४ लाटलिपिः १५ पारसी च बोद्धव्या, तथा १६ अनिमित्तिका लिपि १७ श्चाणक्या १८ मौलदेवी च ॥( प्राकृतमेतत् प्रथमकर्मग्रन्थे पृ० ११-१२ टी०) समवाय -अङ्ग- प्रज्ञापनाप्रभतिग्रन्थान्तरेषु अन्यप्रकारेणाऽपि लिपेरटाददाभेदा भाविताः, ते च तत्तत्प्रन्थेभ्य एव अवसेयाः, ललितविस्तरादिबौद्धग्रन्थेषु तु लिपेर्भेदानां चतुष्षष्टिः संख्याता। आयुधविषयान् - षटत्रिंशद् युद्धभावान् । कलाश्च द्वासप्तति,ता श्चैता:- १ लेखम्, २ गणितम्, ३ रूपम, ४ नाट्यम, ५ गीतम, ६ वादितम्, ७ स्वरगतम, ८ पुष्करगतम्, ९ समतालम्, १९ धूतम्, ११ जनवादम, १२ पौरकाव्यम्, १३ अष्टापदम्, १४ दकमृत्तिकम्, १५ अत्रविधिः, १६ पानविधिः, १७ वसविधिः, १८ शयनविधिः, १९ आर्या(छन्दः ), २० प्रहेलिका, २१ मागधिका, २२ गाथा, २३ श्लोकः, २४ गन्धयुक्तिः, २५ मधुसिक्थम, २६ आभरणविधिः, २७ तरुणीप्रतिकर्म २८ स्त्रीलक्षणम, २९ पुरुषलक्षणम्, ३० हयलक्षणम, ३१ गजलक्षणम्, ३२ गोलक्षणम्, ३३ कुक्कुटलक्षणम, ३४ मिण्डकलक्षणम्, ३५ चक्रलक्षणम्, ३६ छत्रलक्षणम, ३७ दण्डलक्षणम्, ३८ असिलक्षणम, ३९ मणिलक्षणम्, ४० काकणीलक्षणम, ४१ चमलक्षणम्, ४२ चन्द्रलक्षणम्, ४३ सूर्यचरितम्, ४४ राहुचरितम, ४५ ग्रहचरितम, ४६ सौभाग्यकरम्, ४७ दौर्भाग्यकरम्, ४८ विद्यागतम्, ४९ मन्त्रगतम्, ५० रहस्यगतम्, ५१ सभास (प) म, ५२ चारम, ५३ प्रतिचारम, ५४ व्यूहम्, ५५ प्रतिव्यूहम, ५६ स्कन्धावारमानम्, ५७ नगरमानम, ५८ वस्तुमानम्. ५९ स्कन्धावारनिवेशः, ६० वस्तुनिवेशः, ६१ नगरनिवेशः, ६२ इघु-अस्त्रम, ६३ सुरूपवाद (त)म, ६४ अश्वशिक्षा, ६५ हस्तिशिक्षा,
६६ धनुर्वेद, हिरण्यपाकः ६७ सुवर्ण-मणि-धातुपाकः ६८ बाहुयुद्धम् दण्ड-मुष्टि-अस्थि-युद्धम्.-युद्धम, नियुद्धम्, युद्धाति पुद्धम्, ६९ सूत्रखेटम्, नालिका18 वृत्त-धर्म-चर्मखेटम्. ७० पत्रच्छेद्यम, कटकच्छेद्यम, ७१ सजीवम् निर्जीवम्, ७२ शकुनरूतम्"-(एतच्च समवाय-अगसूत्रमूलादा ( समिति पृष्ट ८३) अनुवादितम्, आसामर्थजिज्ञासुना समवायअङ्ग-जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति- राजप्रश्नीयादिटीकाः एव संविलोकनीयाः ।
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चरित्रम्. सर्गः-५
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( वसन्तसेनो मित्रम्-) इत्थं शिशुत्वे सकलाः कलास्ता अधीयुषो भूमिभुजः सुतस्य ।
श्रीकान्तमन्त्रिप्रवराङ्गजेन वसन्तसेनेन बभूव सख्यम् ॥ १० ॥ ( यौवनम्-) तथाऽस्य देहे प्रससार सार-शास्त्राम्बुयुग यौवनसिन्धुिरुच्चैः।
मौर्य-यथा तत् तृणवद् जगाम बाल्यं ममजाऽमलवालुकेव ॥ १०६॥ ( वसन्तक्रीडा-) वसन्तसेनेन युतोऽथ सख्या सख्याद् वसन्ते स वनाऽवनीयु ।
पुष्पोच्चयं भूपसुतश्चिकीर्षुर्जगाम कामाधिकधामधामी ॥ १०७ ॥ ( वृक्षाः सशोभाः-) ततोऽवनीजानिसुतो वनीजानितो विलोक्येति समृद्धशोभान् ।
आस्यं वयस्यस्य स जातहास्यं सलीलमूचे सहसोन्नमय्य ॥१०८|| त्वं नेत्रमित्रीकुरु मित्र! चित्र-प्रदान विशेवान् मधुनाऽधुनाऽत्र ।
तरून गुरुन् पल्लवपुष्पलक्षम्या मनो जनानां हरतो रयेण ॥१०९॥ तथा चैतत् प्रतिपन्नम् । ४ नाऽम्भोभोज्यभरंददाति दमयेद्-अंश्यानशत्रं दवं नो तिष्ठेद् मितकालतोऽथ दिवसं पाव वसन्तः कदा। हर्षे हेतुमकुर्वति दुमततिश्चास्मिन् समेते सदासोल्लासा किल सा तदत्र जयति प्रीतिनिराशाश्रया ||११०॥ छायाद्यायासशान्त्यै कुसुमपरिमलः कायसौरभ्यकर्ता
[अन्यच्चनिष्णातान्येव तृष्णा-क्षदपशमविधावस्य नानाफलानि । धन्यो वन्योऽपि भूमीरुहनिवह इहाऽनेकलोकोपकारी ।
१ यत्र सिन्धुः प्रसति तत्र तृणानि, वालुकाश्च न स्थातुं शक्नुवन्ति-अत्राऽपि योवनसिन्धी प्रसरति तृणरूपं मौर्व्यम् , वालुकारूपं च बाल्यं दुरापगतमेव । २ कामाधिकतेजोयुतः। ३ बनीजान-वन्यां जातान्-वृक्षान् । ४ पश्य । ५ वसन्तेन । ६ न श्याना घनः । ७ वषा ।
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॥१४८ ॥
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पुण्डरीक
॥१४९॥
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१२
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'विद्वानप्येष नैवाऽहितनिहितमना यो मनागप्यधात् स्यात् ( १ ) ॥ १११ ॥ त्वं पश्य कर्पूरतरौ वयस्य । कोदण्डदण्डं पुरतः प्रचण्डम् |
चच्चरस्तन्निजहस्तवाञ्छां संपूरयाम्येनमहं विमृद्य ॥ ११२ ॥
( टङ्कारो धनुषः - ) एवं गदित्वा मुदितोऽथ गत्वा नत्वा धनुः सोऽतनुवीर्ययुक्तः । प्रसृज्य हस्तेन तु कौन्तकान्तिं चकार दिव्यायुधमेतदूर्ध्वम् ॥ ११३ ॥
वामस्य हस्तस्य समर्प्य मध्यं सुदक्षिणत्वादपरस्य कोटिम् ।
दत्त्वा वरेsस्मिन् धनुषि प्रणम्रे गुणं समारोपयदेष विज्ञः ॥ ११४॥ [ ततश्चदुः पर्वतकन्दरा द्रुतपदं नेशुश्च सिंहा अपि, पेतुः कुम्भिघटा नदीषु च तटाद् यान्त्यो जवेनोत्कटाः । चक्रुः शब्दममूर्मिथच मिलितस्त्रीवत् तथाऽष्टौ दिशः - टङ्काराद् धनुषो मुखायितमतस्तैर्विश्वकर्णैरपि ॥ ११५ ॥ सज्यां समुत्तार्य ततः प्रसह्य सलमालोक्य वसन्तसेनम् ।
जगाद यस्य शरासनस्य योग्याः शराः स्युस्तदहो ! सुयोगः ॥ ११६॥ ( कुमारो तिरो भूव— ) यावत् तदुक्तस्य सुमन्त्रिपुत्रः प्रत्युत्तरं किंचिदपि प्रदत्ते । तावत् कुमारोऽमरशेखरोऽथ स चापहस्तोऽपि तिरोबभूव ॥ ११७ ॥
( तद्रवेषणाय मित्रप्रयास:-) निमेषमात्रात् क्व ययौ कुमारो विचारयन् मन्त्रिसुतोऽतिवेगात् । शब्दायमानः प्रतिवृक्षमेष बभ्राम कुत्राऽपि न तं ददर्श ॥ ११८ ॥
१ पु० अस्फुटम् । २ ' चल त्वरातो निज ' - इत्यपि पठितुं शक्यते । ३ 'कान्तकान्ति' उचितम् । ४ धनुषो मध्यम् । ५ अत्यतं वलिने धनुषि ६नादं चक्रुः। ७ शब्दं कुर्वाणः - आकारयन् ।
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चरित्रम्. सर्ग: ५
॥ १४९ ॥
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चरित्रम्
पुण्डरीक- मित्रावलोकेन विनाऽस्य दःखदोषाकुलं लोचनपद्मयुग्मम् ।
__ संकोचमानं च तथाऽङ्गयष्टिस्तन्नालवद् नम्रतरा लुलोल ॥११९॥ पूर्वप्रशंसामुदिता इवैते द्रुतं द्रुमाश्चारुचिरोपचर्याम् ।
चक्रुः प्रसूनैः शिशिरैः समीरैर्भूमीशपुत्रस्य वयस्यदेहे ॥१२०॥ विना सखायं किल तस्य कायं मूर्छा पिशाचीव वने असन्ती।।
___ समीरहकाभिरनुप्रसूनबाणावलीभिस्तरुभिनिरासे ॥१२१॥ __ (मित्रकृतः प्रविलाप:-) संप्राप्य संज्ञां सचिवस्य पुत्रो नाऽऽलोक्य मित्रं बहुदुःखतापात् ।
स्फूर्जद्वहुस्नेहभवा हि धीरों इवोजगार प्रविलापवाचः ॥१२२॥ सेंचक्रसंमोदकरस्य दृष्टेः दोषापहस्य प्रतिभाप्रकाशात् ।
___ सूरस्य मित्रस्य वियोगतस्ते विलोकितुं विश्वमहं क्षमो न ॥१२३॥ [ यतः8न भास्करो भास्करतां प्रयाति चन्द्रत्वमप्यश्चति नैष चन्द्रः।।
दुःखाऽवनं नैव वनं करोति वियोगधातुविपरीतसृष्टेः ॥१२४॥ (मित्रवियोगतः तपसोऽभिलाषः) तस्माद् जगद् दुःखमयं समग्रं हा! मित्रहीनं त्वरितं विहाय ।।
चरामि किञ्चित् तप एव गत्वा तपोधनान्ते स्वर्तमोऽभिदाहम् ॥११॥ १ मित्रदर्शनेन। २ कमलनालवत् । ३ निरस्ता । ४ धीराः प्रविलापवाचः । ५ सूरपक्षे सच्चक्रश्चक्रवाकः, दोषा रात्री । मित्रपक्षे सच्चकं सज्जनसंघः, दोषाः दुगुणाः । दुःखाद् रक्षणम् । ७ वियोगरूपस्य विधातुः । ८ तपस्विनो निकटे । ९ निजतमोदाहकम (तमः-पापम् )
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॥१५॥
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हुण्डरीक
चरित्रम्
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सर्गः-५
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( अरण्ये यतिः-) एवं विचार्य स्वमनो निवार्य मोहाद् महादुःखभराच्च भोगात् ।
गच्छन्नरण्येऽथ यतिं विलोक्य नत्वाऽऽर्थयन्निर्मलजैनदीक्षाम् ॥१२३॥ ( यतेः उपदेश:-) दीक्षोन्मुखं वीक्ष्य सुदुःखितं तं द्राग मौनमुद्रां स मुनिर्विमुच्य ।
ज्ञानांशुयुक्तोऽमलवाक्यरत्नोचयं स्वयं तस्य ददौ विहस्य ॥२७॥ हहो ! विशुद्धात्मक ! पूर्वकर्म प्रवर्तते भोगकृते गरीयः।
भुक्तेऽथ तस्मिन् व्रतभावमुक्तेर्जीवो भवेऽस्मिन् भवितैव भव्यः ॥१२८॥ ( वयस्यसंगमो भावी- कि प्रष्टुकामः स्ववयस्यसंगं त्वं विद्यसे तत् शृणु मन्त्रिपुत्र ।
दिने तृतीये कुशलस्वरूपं वेत्तासि तस्येति विलम्ब्यता तत् ॥१२९॥ किन्तु, ( यतिनिकटे द्वादशव्रत स्वीकार:-) सम्यक्त्वशैलाभ्युदितं प्रभाढ्यं तीव्रव्रतं द्वादशमतिमुच्चैः ।
श्रीजैनधर्मे भवदुःखसृष्टिकल्पान्तदं भानुनिभं गृहाण ॥१३०॥ (महामन्त्रः-) तस्या महामन्त्रममुं महाधिव्याधिप्रणाशाय परॉत्मनोश्च ।
बीजाक्षरैश्चारुभिरष्टषष्टिमितैर्युतं नित्यमतः स्मर त्वम् ॥१३१॥ ( वसन्तसेनस्य अरण्ये प्रवासः-) वसन्तसेनस्य तदोपकर्ण भूत्वा मुनिस्तं निभृतं जगाद।
अथो गुरोरंदिरजः स्वमौलो न्यस्याऽचलन्निश्चलचित्तवृत्तिः ॥१३२॥ ( कश्चित् कीलित:-1 पर षः मञ्छितः-) ततः फलवृत्तिकरो विहारपरो व्रजन्नेष पुरोऽद्विशङ्के ।
१ प्रार्थयत् । २. योग्यः । ३ जैनसंप्रदाये श्रावकाणां द्वादश व्रतानि, काव्यसंसारे सूर्या अपि द्वादश-अत एव तयोयोरपि अत्र श्लोके साम्यम्। अत्र व्रतस्य नपुंसकत्वेन द्वादशमूर्ति ' स्यात् । ४ स्व-परयोः। ५ जैनसंप्रदायप्रसिद्धो नमस्कारमन्त्रः-अष्टषष्टि-अक्षरमित एव । ६ संधार्य।
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४॥१५॥
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पुण्डरीक॥१५२॥
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१२
सुतं शिलायां बहुलोहकीलैः संकीलितं सत्पुरुषं ददर्श ॥ १३३ ॥
तं मूर्च्छितं वीक्ष्य कृपाभृतोऽयं गिरेर्झरात् साष्टशतं चलूनाम् ।
तेनैव मन्त्रेण ततोऽभिमन्त्रय चिक्षेप साक्षेपमनास्तदङ्गे ॥ १३४ ॥
( मन्त्रप्रभावात् तस्य पुरुषस्य मूर्च्छापगम: - ) तन्मन्त्रपूतोदकसेकतोऽथ तुष्णींबभूवुः किल लोहकीलाः । नरोऽपि चैतन्यधरः क्षणेन प्रोत्तस्थिवानुन्मिषताक्षिपद्मः ॥ १३५ ॥
( वरयाचनाय प्रार्थनम्-- ) कृतं विशल्यं करणं मनस्तु प्रयाच्य किंचित् कुरु मे महात्मन् ! | वसन्तसेनं विहितोपकारं वीक्ष्याऽवदत् सोऽथ कृतज्ञधुर्यः ॥१३६॥
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( तद्वत्तम्- ) ऊचे वसन्तो नहि देव ! याचे परं वद त्वं कथमेक एव ।
संपीडितः केन च कान्तकान्तिकायेन संसूचितभूपभावः ? ॥१३७॥
(वैताये जयन्ती - ) असौ बभाषे बहुधीरवीर ! हीराख्यवैताढ्यगिरौ समस्ति । वरीयसी निर्मलरत्नहम्यैर्गरीयसी भो ! नगरी जयन्ती ॥ १३८ ॥ ( रिपुमल्लो नृप:, रत्नमाला राज्ञी— ) तस्या नरेन्द्रो रिपुमल्लनामा कामाधिको जेतृतयाऽऽभया च । सदा मनोनर्तनरङ्गशाला भार्या तदीयाऽजनि रत्नमाला ॥१३९॥ ( तत्पुत्रः—चन्द्रावतंसोऽहम् —लीलावती मम भगिनी — ) अनेकसंग्रामजयोर्जितौजाश्चन्द्रावतंसोऽस्मि १ चलुः -- जलाञ्जलिः । भाषायाम् ' चळू' । २ करणं शरीरम् किंचित् प्रयाच्य मे मनो विशल्यं कुरु । ३ कान्त्या ।
सुतस्तयोस्तु ।
चरित्रम्सर्ग: ५
॥१५२॥
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पुण्डरीक
॥१५३॥
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सुवर्णलावण्यगुणौघरत्ननिधिं शरीरं किल वीक्ष्य तस्याः ।
प्राकारवद् यौवनमेष कृत्वा वेधाः स्मरं यामिकवद् मुमोच ॥ १४१ ॥ ( विशाल कीर्ति ज्योतिर्वित - ) भूपः सुतां रूपयुतां विलोक्य ज्योतिर्विदं तत्र विशलकीर्तिम् । पप्रच्छ स स्वच्छमना वरोऽस्याः कः स्यादतोऽसाववद् विचार्य ॥ १४२ ॥ ( कनकान्तरीपे द्वीपे पद्मावती) राजन् । समुद्रे कनकान्तरीपे पद्मावती तिष्ठति तत्र देवी । तद्गेह मध्येऽस्ति धनुः प्रचण्डमदृश्यरूपं धरणेन्द्रमुक्तम् ॥१४३॥
प्रादुर्भवन्निर्मलशीललीला लीलावती तद्दुहिता स्वसा मे ॥ १४०॥
( दिव्यं धनुः — ) तत्रोपवासत्रय-भूमिशय्या - ब्रह्मव्रतस्थस्य नरस्य दृश्यम् ।
( पुत्रीवर योग्यता — ) ( मणिचूलो वीरः - )
भवेद् विगृह्याऽथ धनुस्तु दिव्यं तन्मण्डनीयं वरमण्डपेऽत्र ॥ १४४ ॥ कोदण्डदण्डं किल यो व्युदस्य कोटौ गुणं स्थापयिता बलेन ।
धन्यः स कन्यां तव भूमिभर्तललावतीं स्वीयकरे ग्रहीता ॥ १४५ ॥ ज्योतिर्विदो वाक्यमिदं निशम्य दिदेश राजा मणिचूलवीरम् ।
स तत्र गत्वा विधिवद् धनुस्तद् नीत्वा चचालाथ विमानरूढः ॥ १४६ ॥ ( लक्ष्मीपुरम् — ) आगार्नेसौ दिव्यधनुस्तदेव लक्ष्मीपुरस्योपवनान्तराले ।
कर्पूरवृक्षस्य तले विमुच्य वाप्यां स्वयं स्नानकृते जगाम ॥ १४७॥
१ यामिक:- प्रहरी - भाषायाम् पहेरो देनार। २ पु० ' तन्मण्डलीयं ' इति । ३ ' वनस्य इति ' पु०४ आगच्छन् ।
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चरित्रम्. सर्ग: ५
॥१५३॥
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पुष्टरीक
चरित्रम्.
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सर्गः-५
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(चापधरो नरो धृतः-) स्नानं वितन्वन् धनुषो गुणोत्थं टङ्कारमाकर्ण्य जवाकुलोऽसौ।
तत्रागतश्चापधरं नरं तं विलोक्य धृत्वा स्वपुरी निनाय ॥१४८॥ तं राजपुत्रं स्वगृहे विमुच्य चापं गृहीत्वा मणिचूलवीरः ।
गत्वा सभायां रिपुमल्लवीरं नत्वा सहर्षः समुपाविवेश ॥१४९॥ (राज्ञाश्चन्ता, तन्निरासश्च-) राजा धनुः प्रौढधनुःप्रभाढयं वीक्ष्याऽवदत् कोऽपि बली न तादृक् ।
कोटौं' समारोप्य गुणं हि योऽस्य करोति मे कोटिगुणं प्रमोदम् ॥१५॥ उक्त्वेति मौनस्थममुं सचिन्तं दृष्ट्रा वभाषे मणिचूलवीर।
भूत्वोपकर्ण नृपतिस्तदैव हृष्टो नेरन्द्रान् सहसाऽऽजुहाव ॥१५॥ (विवाहयोग्या सामग्री-)उपस्कर तत्र विवाहयोग्यं भूभीपतौ कारयति प्रकामम् ।
रात्रौ स्वसौधाग्रगचन्द्रशालां संश्रित्य चन्द्रेऽभ्युदितेऽस्मि सुप्तः ॥१५२॥ (राजपत्रहरणम्-) केनाऽपि विद्याधरपॉशनेन विहायसव व्रजताऽस्मि ।
हृत्वाऽग्रवैरादिह शैलशृङ्गे संकीलितो विस्मृतसर्वविद्यः ॥१५३॥ ततोऽतिपीडाभरतो न वैरी सम्यग् मयाऽलक्ष्यत यद्यपीह ।
संजीवितोऽहं त्वयका तथाऽपि ज्ञात्वा करिष्यामि रिपुं प्रशान्तम् ॥१५४॥ स्पृहाविहीनस्य च जीवदातस्तवोपकारादनृणो न हि स्याम् ।
कृत्वा कृपां धन्य ! तथाऽपि किञ्चित् याचस्व मां पुण्यनिधिं कुरुष्व ॥१५॥ [ यतः१ धनुषः-अप्रभागे । २ आकारयामास । ३ पशिनो नीचः ।
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॥१५४॥
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पुण्डरीक
হিমু,
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सर्गः-५
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स कल्पवृक्षः स तु कामधेनुश्चिन्तामणिः सैष सुधा स एव ।
योऽनेकदुःखाकुलजन्तुजातोपकारकारी दृढधर्मधारी ॥१५६॥ ( वसन्तसेनो जगाद-) वसन्तसेनो हृदयप्रमोदसुधागिरं साधुगिरं जगाद।
नरेशसूनो! बहुदुःखदीनोऽप्यहं त्वयैवोपकृतोऽग्रतोऽपि ॥१५७॥ यथा नरः कोमलकल्पवृक्षच्छायासु तृप्तश्च गतश्रमः स्यात्।।
अहं तथा तद्वचनैः सुशीतैर्मन्मित्रवार्तासहितैः प्रहृष्टः ॥१५८॥ प्राणाधिकं यद् भवता वयस्यं प्रकाश्य दत्तं मम जीवितव्यम् ।
महोपकारो विहितः स एव परात्मवद् दर्शयता तमेवम् ॥१५९॥ (योम्नि विमानम्-) इत्याप्तमौनेऽथ वसन्तसेने व्योमाङ्गणे निर्मलकान्तकान्ति ।
प्रादुर्बभूवाद्भुतमेकमुच्चैविमानमाश्चर्यकर पुरस्तात् ॥१३०॥ नरो विनिर्गत्य विमानमध्यात्-चन्द्रावतंसं प्रणनाम भक्त्या ।
क्षेमोऽस्ति भो! भो! मणिचूलवीर ! तदा मुदा तं सहसा स आह ॥१६ चन्द्रावतंसो मणिचूलपृष्टो वृत्तं समाख्याय निजं समग्रम् ।
वसन्तसेनं कृतजीवदानं निर्दिश्य स स्वेन समं निनाय ॥१६२॥ वसन्तसेनं स्वकरे गृहीत्वा विमानमारूरुहदादितोऽथ ।
स्वयं समारुह्य ततश्चचाल कुमारराजो मणिचूलयुक्तः ॥१६॥ १ या सुधां गिरति ताम्। २ आरोहणं कारयामास ।
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॥१५६॥
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( मणिचूलवीरो बभाषे-) विहायसा गच्छति सद्विमाने वीरो बभाषे रिपुमल्लपुत्रम् ।
स्वयंवरायातनृपाय॑हेतोय॑लोकयत् त्वां स यदा पिता ते ॥१६४॥ त्वदङ्गरक्षैः शयनीयमओभूयेक्षितं तत् त्वयका नु हीनम् ।
हृतो हृतो राजसुतो हि केने-त्यारावमुच्चैर्विदधुस्ततस्ते ॥१६५॥ त्वद्विप्रयोगाच विराईकृत्याद् व्यग्रं नृपं वीक्ष्य मया बभाषे।
स्वामिन् ! अहं ते तनयं निरीक्ष्याऽऽनेष्यामि तत् त्वं भव सुप्रसन्नः ॥१६६॥ (धूमध्वजो नृपः सपरिवार:-) एवं निगद्य प्रचचाल सद्यस्ततोऽहमद्राक्षमितः प्रयान्तम् ।
धूमध्वजं पद्म-महेन्द्र-सूर-भीमयुतं स्वामिनमुत्तरस्याः ॥१६७॥ एनं प्रणम्याऽथ मयेति पृष्टं किं कुत्र दृष्टो रिपुमल्लपुत्रः ।
पद्मोऽवदत् तत्सदृशोऽस्ति शूलिशैलस्य शृङ्गे मृतवद् वराकः ॥१६८॥ हतः कुमारः कथमेभिरेवं विचारयन् वेगभरादिहाऽऽगाम् ।
__ वसन्तसेनेन तु सेवितं त्वां दृष्ट्वाऽस्मि हृष्टः परिपूर्णभावः ॥१६९॥ (भूमध्वजो वैरी-) चन्द्रावतंसोऽवददुत्सुकोऽहं ज्ञातं हि धूमध्वजभूप एषः ।
पूर्व रिपुस्तन्मम देहपीडा कृतेदमुप्तं हि विरोधबीजम् ॥१७०॥ एवं तदालापपरायणस्य चन्द्रावतंसस्य विलोचनाये।
पुरी परीता फल-पुष्प-वृक्षैर्वभूव भूक्लभनन्दनस्य ॥१७१।। १ आसवः कलकलः। २ विरहकृत्वात् ।
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( स्वीया नगरी - ) समीपमेतां नगरीं समेतां विज्ञाय साश्वर्यमना वतंसः ।
उत्थाय विस्तार्य विलोचने स्वे जगाद सौत्सुक्यवचांसि हर्षात् ॥ १७२ ॥ [ तथाहिरिरिदेवगृहध्वजमाला भान्ति विनिर्मलकान्तिविशालाः ।
धर्मनृपस्य भटैरिव सारा धूता अभ्यासिभिरसिधारा ॥ १७३॥ [ अतः - प्रासादाः स्फुरदुरुकान्तिहेमकुम्भैः शोभन्ते मरुजश्रवैर्मदप्रदेश्व ।
पापारिप्रहतमुदा प्रहस्तला लें किं योधाः सुकृतमहीभुजो हसन्तः ॥ १७४॥ अहो ! अग्रतो दृश्यते राजधामें मरुमार्गगच्छत्सुवर्णैघधाम ।
हिमाद्रिं प्रति स्पर्धया पिङ्गगाङ्ग-प्रवाहस्य कीर्त्येव मेरुदृढाङ्गः ॥ १७२ ॥
गजगजितजित सिन्धुपतिं भटशस्त्रततिस्खलद्गतिम् ।
ननु राजगृहाजिरमत्र वरं प्रविभाति जगज्जन चित्रकरम् ॥ १७६ ॥
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( राजपर्यंत् – ) वसन्तसेने वदतीत्थमेतद् विमानमागादुपराज पर्षत् ।
शीघ्रं समुत्तीर्य ततस्त्रयोऽपि नेमुर्नृपं विस्मयसस्मितास्यैम् ॥ १७७॥
(नृपचिन्ता - ) कुमारवृत्ते मणिचूलवीर - प्रज्ञापितेऽसौ रिपुमल्लराजः ।
व्यचिन्तयच्छत्रु विनाशविद्या - पूजाकृतेऽनेन सुतो गृहीतः ॥१७८॥ तोsanisi भुजवीर्यमत्तो रिपुर्विजेयः कथमेष एव ।
चिन्ताऽथवा कात्र सदैव देवमेव प्रमाणं हि भवे भवेऽस्मिन् ॥ १७९ ॥
१ चन्द्रावतंसः। २ रिरिः-धातुविशेषः । ३ अलमर्थे ' लम्' इति ज्ञायते । ४ अत्र लोके राजधाम - मेरुपर्वतयोः साम्यम् । ५ सूर्यगतम् । ६ राजपर्षत्समीपम् । ७ विशेषणम्, क्रियाविशेषणं वा । ८ मम सकाशात् ।
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चरित्रम्.
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(स्वयंवरागतनृपाणां सत्कार:-) ततोऽपवाय स्वसभाजनेभ्यो वसन्तसेनस्य सभाजनाय।
स प्रेरयद् भूभ्रमसंभ्रमेण महीमहेन्द्रो मणिचूलवीरम् ॥ नरेशनिर्देशमथो विचिन्त्य तदा मुदा पाणितले विलम्ब्य ।
सर्गः-५ वसन्तसेनं मणिचूलवीरो गृहेऽर्घ्यदानाय निनाय शीघ्रम् ॥१८१॥ (वसन्तसेनमित्रप्राप्तिः-) ततः कुमारोऽमरशेख(ष)रोऽपि प्राणप्रियं लोचनगोचरस्थम ।
__ हसन्तमालोक्य वसन्तसेनं मुदोस्थितोऽयं सहसाऽऽलिलिङ्ग ॥१८२॥ [ तदा चकुमारचित्तेन वसन्तचित्ते वसन्तचित्तेन कुमारचित्ते ।
स्वयं त्वभुक्तं चिरचितं साक् संढौकितं शैत्यमपूर्व भोज्यम् ॥ १८३॥ ( मित्रयोः संभाषणम्-) मित्रेण पृष्टोऽथ वसन्तसेनो वृत्तं निजं ह्याविरहात् समग्रम् ।
मन्त्राप्ति-राजागाजजीवदानप्रभृत्यवादीत् प्रमदप्रदायि ॥१८४॥ ततो वसन्तेन युतं कुमारमसिस्नपद् मङ्गल-गानपूर्वम् ।
कोटीर-हारा-ऽङ्गन्द-हीरमुद्रादिभिः स वीरस्तमलंचकार ॥१८॥ (प्रतीहारो नृसिंहः-) ततः प्रतीहारवरो नृसिंहः पट्टाश्चमानीय जगाद वीरम् ।।
विधाय माङ्गल्यविधीन् समग्रानारोप्यतामत्र कुमारराजः ॥१८६॥ (विस्मितं चेत:-) वसन्तसेनादिभिरन्वितोऽयं तुरंगमारुह्य तदा चचाल ।
क्वाऽहं क्व वैतात्यनगः क्व चेदं विचिन्तयन् विस्मितचेतसैवम् ॥१८७॥ [ इतश्च१ सभाजन पूजनम् । २ स्नपयामास । ३ भूषयामास ।
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( स्वयंवरमष्टप:- ) चंद्रोदये शीततरं दिनेऽपि मुक्तातिं मोहकरं भवेऽपि
चित्रप्रेदं चातिविचित्ररूपं नेत्रातिथिं मण्डपमेष चक्रे ॥ १८७॥ ( विद्याधरेन्द्राः— ) यावत् कुमारः स तु मण्डपान्तर्बभूवंवीक्षां ललितोत्पलाक्षः । हृष्टान् निविष्टान् कनकासनेषु विद्याधरेन्द्रान् मुदितो ददर्श ॥ १८८ ॥
( वसन्तसेनमित्रम् ) पुरः परिक्रम्य स वेत्रिवाचा निर्दिष्टपूर्वे गुरुविष्टेंरेऽथ ।
स्पष्टप्रभो राजसुतो निविष्टः स्वकीयमित्रेण सशोभपृष्ठैः ॥ १९०॥
शृङ्गारपीयूषपयोमुचोऽस्य प्रभम्भसा श्रीरिपुमल्लहर्षः ।
कल्पद्रुवद् वृद्धिमगात् तथाऽन्यराज्ञां प्रतापोऽग्निरिवोपशान्तः ॥१९१॥ ( संगीतम् — ) इतो मृदङ्गध्वनिमन्द्रसान्द्रमुन्निद्र नीरन्ध्रपुरन्ध्रिगीतम् ।
आकर्ण्य कर्णप्रमदप्रदं द्रागुत्कर्णितैर्भूपतिभिर्बभूवे ॥१९२॥ [ तावच -
( धनुः - ) महोऽधिकं तत्र महोत्सवेन महाधनुः प्रौढविमानरूढम् ।
आनीय चोत्तार्य ततो भाग्यैस्तद् मण्डितं मण्डपमध्यभागे ॥ १९३॥ ( राजपुत्री लीलावती - ) ततो द्वितीयाद् महतो विमानात् सौख्यात् सखीभिर्विहिताऽवलम्बा । लीलालुलन्नीलपयोजनेत्रा लीलावती राजसुतोत्ततार ॥ १९४॥
१ दिनेऽपि चन्द्रोदयः, मुक्ताङ्कितत्वेऽपि भवे मोहकरत्वम् — एतदेव मण्डपस्य चित्रप्रदत्वम् । चन्द्रोदयः -- चन्द्रस्य उदय भाषायाम् - चंदवावा, मुक्ता:--मौक्तिकानि, मुक्तात्मानो वा । २ वीक्षांबभूष - कवेः स्वातन्त्र्यमेतत् । ३ प्रतीहारवाचा । ४ महति आसने । ५ शोभासहितं पृष्टं यस्य सः । ६ अम्भो ह्रिद्रुमं वृद्धिमुपनयति, अग्नि च उपशमयति-- अत्राऽपि प्रभाम्भसा एवमेव अनुकृतम् ।
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चरित्रम्
सर्ग: ५
।। १५९ ।।
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पुण्डरीक
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झल्लत्कृति निर्मलमौलिरत्नैः स्खलत्कृति हार-मणीगणैश्च ।
- झमत्कृति नूपुरसिञ्जितैः साग वितन्वती चापसमीपमाप ॥१९॥ तद् दिव्यचापं बहुभक्तियुक्ता संपूज्य पुष्पहरिचन्दनैश्च ।
संवर्ध्य साऽवाप्य मुदं च तस्थौ नीरनिकाच्छन्नमुखी सखीयुक। (प्रतीहारी कन्याग्रहणपणं प्रोवाच-) अस्यां सभायां प्रसरत्प्रभायां प्रौढप्रतीहारिकयैकयाऽथ ।
विस्तार्य हस्तं चतुरं प्रशस्तं प्रोचे वचः प्रोचमनुचताठ्यं ॥ तथाहि- हंहो ! भूमीमहेन्द्रा अतनुनिजतनुज्योतिषा निजितेन्द्रा
हंहो ! धीराश्च वीराः समधिगतरणाम्भोधितीरा भवत्सु। यः कोऽपि क्षत्रियोऽस्ति स्वभुजबलकलाखर्वगर्वस्थवित्तः
चापं प्रारोप्य कन्यां परिणयतु जेनि स्वां स धन्यां करोतु ॥१९८॥ (पणपूरणे नृपाणाम् असामर्थ्यम्-) श्रुत्वैवमुत्तस्थुर नेकवीराः स्वश्मश्रुमोहायितशस्तहस्ताः।
एकेऽवलोकेऽपि न तस्य धृष्टास्तत्स्पर्शतः के भुवि संनिघृष्टाः ॥१९९॥ ( उत्थितो रत्नध्वजः, विफलक्ष-) अथोत्तरश्रेणिपधूमकेतु-पुत्रोऽत्र रत्नध्वजसंज्ञकोऽस्ति
सूरेण पञन युतस्तु वीर-मानी स मानी बलवानुदस्थात् ॥ २०॥ यावत् समुत्पाटयति प्रसद्य ।
तावद् विचेताःश्लर्थसन्धिबन्धः पपात घाताहतवत् पृथिव्याम् ॥ २०१॥ १ भाषायाम्-झलकार-चळकाट । २ भा० खलकार-खणकर। ३ झमकार । ४ जन्म, जननी वा। ५ एके केचन नृपाः तस्य धनुषः अवलोके दर्शने अपि न पृष्टाः समाः । ६ शिथिलं ऋयम् ।
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४॥१६॥
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पुण्डरीक
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( रत्नध्वजमौलिपातः--) तदैव देवस्य विपाकतोऽस्य मौलेरिलायो विलुलन् स मौलिः।
लीलावतीपादतलान्तमेत्य तस्थौ मणीभिः प्रहसन्निवोचैः ॥२०२॥ कन्यां सखी प्रीतिमती बभाषे लीलावति ! त्वत्पदयोनिपत्य ।
कृत्वा प्रसादं घृणु मेऽधिपं त्वं वदन्निवेदं मुकुटः पुरोऽस्ति ॥२०॥ चातुर्यशालाऽथ विचार्य बाला पदेन चिक्षेप किरीटमेनम् ।
तदेव काक्षेण निरीक्ष्य पद्मश्चक्रे मनः स्वं दृढकोपर्सेन ॥२०४॥ रत्नध्वजं तं रिपुमल्लराजो दयामयश्चन्दनसेचनाद्यैः ।।
विधाप्य चैतन्ययुतं सुवाक्यैः संमान्य चाऽस्थापयदासने तम् ॥२०५॥ ( अमरशखरसाफल्यम्-- ) कुमारराजोऽमरशेखरोऽयमक्रौर्यत्तिर्दढशौर्यधृत्तिः ।
उत्थाय नीत्वा च धनुस्तदाऽनीनमत् तदानीमचलाबलाङ्गः ॥२०६॥ 8 ( बालया पुष्पमालाऽऽरोपणम्-) गुणांधिरोपं गुरुटकृतिं च कृत्वा स्थितस्याऽस्य मुकुटकम्बौ ।
बाला विशालामिह पुष्पमालामारोपयत् कामगजेन्द्रशाला ॥२०८॥ (कुमारी पपात-) यावत् कुमारी वरणस्य मालामारोप्य दरेऽजनि तावदेव ।
पपात चैतन्यविहीनदेहा कल्लोललोलाम्बुजवल्लरीव ॥२०९॥ आकस्मिकीं ग्लानिमवेक्ष्य राजा राजाङ्गजायाः प्रलुठभुजायाः ।
१ मस्तकात् । २ इला भूमिः। ३ वक्रदृष्ट्या । ४ दृढकोपगृहं स्वं मन:-चक्रे । ५ नतं चकार । ६ अचलावत् बलम् अरु यस्य । ७ गुणोऽत्र धनू-8 रज्जुः। 6 मुकुटचूदायाम् ।
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॥१६२॥
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अचीकरन म्लानमना नितान्तं शीतोपचारान् प्रचुरान् जवेन ॥२१॥ चरित्र ( सभाजनो भाविहीनः ) मुग्धैविदग्धैर्विहितैरुपायैर्न नाशमतिः समियति यावत्।।
सर्गः-५ तदा भृशं म्लानिमवाप भूपः सभाजनोऽभूच्च स भाविहीनः ॥२११ (वसन्तसेनदर्शितो मन्त्रप्रभाव:-) इतो वसन्तो मुनिदत्तमन्त्रं त्रिः सप्तकृत्वो मनसा विचिन्त्य ।
आनीनयन्नीरभरं तदङ्गाभिषेककृत्यै करसंज्ञयैव ॥२ पानीयमानीय तदीयहस्ते यावन्नरो निक्षिपतीह कोऽपि।
सौगन्ध्यसाराऽद्भुतकान्तिभारा तदाऽम्बुधारा गगनात् पपात ॥२१३॥ ( उत्थिता कुमारी- ) सा नीरधाराऽम्बरतो वसन्त-हस्ते ततो भूपसुता शरीरे।
संगं करोति स्म तदैव मूर्छा प्रक्षालितेव प्रययौ जवेन ॥२१४॥ वसन्तसेनश्च सभाजनश्च दिव्योदकस्पर्शत एव कन्याम् ।
मूच्र्छामपाकृत्य ससौष्ठवाङ्गीं वीक्ष्येत्यावित्रीयत चित्तमध्ये ॥२ अहेतुवैक्लव्यमिदं किमस्याः कः स स्मरन् मन्त्रमसौ वसन्तः ।
___करेऽम्यरस्थोऽस्य ददौ जलं को नैवं जनैनिश्चलताऽऽपि काऽपि ॥२१६॥ तदा पुनर्मङ्गलशब्दधुन्दं निमिष्य किंचिद् विगुणत्वमाप।।
पवित्रचारित्ररतस्य साधोरिवाऽपवादादनु शुद्धभावः ॥२१७॥ ( सत्कार:-) अथ प्रमोदाद् रिपुमल्लराजस्ताम्बूल-वस्त्रा-ऽऽभरणैः प्रधानः। १ अर्तिः नाशं न समियति । २ निष्प्रमः । ३ प्रापि ।
8॥१६२॥
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पुण्डरीक
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स्वयंवराऽऽयातमहीमहेन्द्रान सत्कर्ममारम्भयदुचचित्तः ॥२१८॥ (धमयजसुतस्य द्वेषः-) धूमध्वजस्याऽथ सुतोऽदभुतोजाः पराभवोद्भूतविषादनन्नः।
.. देहाऽपटुत्वं व्यपदिश्य वेगावगाम सक्रोधविरोधधाम ॥२१९॥ बुद्धिं विपर्यास्य निजेश्वरस्य पुनः पुनर्विग्रहमूलहेतू।
तौ द्वेष-रागाविव पद्म-सूरौ प्रचेलतुस्तेन समं ससैन्यौ ॥२२०।। अथोत्तरश्रेणिपतिः स धूमध्वजोऽङ्गजं वीक्ष्य निजं सचिन्तम् ।
पप्रच्छ पनं नृपमेष वत्सः किं स्वस्थचित्तो न तथाविधोऽद्य ॥२२॥ श्रीपमराजस्य मुखेन सर्व पुत्रापमानं स निशम्य सम्यक ।
उवाच धीमान् सुत! मा स्म कार्षीविषांऽदनोग्रं हि विषादमन्तः ॥२२२॥ यतः- यथा ते कोटीरप्रकटमणिकोटीरिततमाः परिक्षितः पादेन तु नृपकुमार्या मदवशात् ।
तथाऽहं खण्डाग्रत्रुटितरिपुमूर्धाधगलित-स्फुटद्दन्तश्रेणिं रणभुवि निधास्येऽश्वचरणः ॥२२३॥ इत्थं निस्त्रिंशवाचा सभयमिव भवत्कम्पनिस्त्रिंशदण्डं नीत्वा विद्याधरेन्द्रोऽतुलबलकलितो विद्ययोन्मेषमात्रा त्रिंशत्प्रोदामचक्रर्युततनुरतनुक्रोधतः षष्टिसंख्यै-रुद्दण्डैर्बाहु दण्डैरदिशरिपरित्रासनाय प्रयाणम् ॥२२४॥ (पुष्पावचूलः सचिव:-) पुष्पावचूलः सचिवस्तदैवाऽवद् ददन्नीतिमती मतिं च ।
समील्य भूपान् प्रथमं स्वसैन्ये दूतस्ततः प्रेष्यत एव राजन् ! ॥२२॥ मित्रापाहानम्-) तथा महाराज! निज वयस्यं लक्ष्मीपुरेशं हि सुरेन्द्रदत्तम । 1 अकारान्तोऽपि कर्मशब्दो ज्ञायते । २ मिषभक्षणादपि उनम् । ३ 'भवद'-शतृप्रत्ययान्तं भू-भातोः ।
8॥१६॥
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प्रहरी
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भूपं त्वमाकारय यत् स्वमित्र-वगै सुपृच्छय क्रियते हि कार्यम् वाक्यं प्रभो ! ते प्रहितेऽथ दृते दुर्नीतियुक्तं यदि वक्ति वैरी ।
___ स्वामिन् ! तदाऽमुं त्वभिषेणेयेस्त्वं तदूर्ध्वकिंपाकर्फलं हि तस्य ॥२२७॥ (दूतं विससर्ज-) नीतिप्रणीतं सचिवस्य वाक्यं श्रुत्वाऽऽजुहावाऽथ सुरेन्द्रदत्तम् ।
____ कन्या प्रयाच्येति निसृष्टवाचं दूतं प्राचं विससर्ज तस्मिन् ॥२२८॥ गत्वा स दूतो रिपुमल्लभूपं निवन्धतो बन्धुजनोपकृत्यै।
निदेशयन्तं च निजांस्तनूजान सिंहासनस्थं निजगाद गाढम् ॥२२९॥ तथाहि- (दृतवाणी- ) विद्याढ्यवैताख्यनरेन्द्रनाथः श्रीधूमकेतू रिपुधूमकेतुः।
वितन्य सौजन्यभरं स्वचित्ते त्वां वक्ति मद्वक्त्रवचोभिरेवम् ॥२३०॥ रत्नध्वजाय प्रथमाङ्गजाय निजाय वज्रार्येतसदभुजाय।
हर्षात् कुमारी स.तु याचते ते स्वाजन्यतः प्रीतिरुपैतु वृद्धिम् ॥२३१॥ धनुःप्रतिज्ञा ननु का वृथेयं भञ्जन्ति लोका हि वनेऽपि वर्शान् ।।
एतत्सुताय स्वसुतां प्रदाय सहायमेनं तु गृहाण धीमान् ॥२३२॥ तथेच्छसि त्वं यदि राज्यमार्य ! विचार्य तत् कार्यमिदं कुरुष्व ।।
यतो महभिः सह कोपरोप: सोपप्लवं जीवितमातनोति ॥२३३॥ सेनाम् अभिमुखं नय-आक्रमणं कुरु। २ पश्चातू-तस्य युद्धस्य किंपाकफलवत् फलम् । ३ बाचाटम्। ४ बजवत् रढी आयती च मुजी यस्य । ५ स्वजनभावतः । ६ भाषायाम-वांसडा।
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॥१६॥
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पुण्डरीक - 8 दूते गदित्वा विरतेऽथ राजा कालुष्ययुक्तोऽप्यवदत् प्रयत्नम् ।
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ताराधिराजोऽपि सुलक्ष्यलक्ष्मा चन्द्रातपं मुञ्चति निर्मलं हि ॥ २३४ ॥ ( राज्ञः प्रतिवच:-) हे दूत ! वाक्य शृणु यत् स धूम-ध्वजः पुरा मैत्र्येवशात् सुतां मे । प्रयाचते तद् घटते सतां हि याश्चाऽपि नो बन्धुषु लाघवाय ॥ २३५॥ दिव्यप्रभं चानवलोक्यमन्यैश्चापं समारोप्य मुदं ददौ यः ।
किन्तु, एवं स भूपः कपटस्य कूपः समीहते यत् तदसौ करोतु ।
वृतो वरोऽयं सुतयेति कीर्ति श्रुत्वाऽपि मामर्थयतीत्ययुक्तम् ॥२३६॥
इत्थं मृदुस्पष्ट गिराsतियुष्टा धैर्याद् विसृष्टः स ययौ च शिष्टः ।
अहं स्थितोऽस्मि प्रतिकर्तुमेनं रोगं दृढं वैद्य इव प्रविधः ||२३७ ||
ज्ञात्वा रिपुं तं रिपुमल्लराज आजूहवत् स्वंमणिचूलवीरम् ॥ २३८ ॥ ( सेनासंनाहः, अभिप्रयाणं च ) तत्राऽऽगतं प्राञ्जलिमग्रसंस्थं जगाद राजा मणिचूलवीरम् । अक्षौहिणीसप्तक संख्य सैन्ययुक्तोऽरिमार्गार्धमभिप्रयाहि ॥ २३९ ॥
दिने दिने त्वं कुशल ! स्वरूपं प्रस्थापयेथा इति राजवाक्यात् ।
प्रमाणमादेश इति णत्व जगाम सैन्यैः सहितैः स तत्र ॥ २४० ॥
( विवाहमहः -- ) प्रमोदपीयूषपयोधिमग्ने जने समग्रेऽवधम्म्मे ।
व्यवाद् भाग्यवरेरहीनः स तो कुमारेण समं महीनेः ॥ २४९ ॥
१ चन्द्रः । २ मित्रतावशात् । ३ न गम्यते । ४ इनः - स्वामी महीनः - महिपतिः ।
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चरित्रसर्गः -५
॥१६५॥
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पूण्डरीक
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उलूलुकल्लोलकलेषु तत्र चतुर्पु जातेषु च मङ्गलेषु ।
चरित्रम्. प्रयाच्य किञ्चित् मम पुत्रिकायाः करं विमुश्चेति नृपस्तमूचे ॥२४२॥ 8.
सर्गः-५ (धनुस्तूणस्य याचनम् - ) ऊचे विहस्याऽमरशेखरोऽपि धनुःसमं दिव्यशरप्रपूर्णम् ।
तूणं प्रतूर्ण वसुधाधिनाथ ! यच्छ प्रयच्छ त्वमतो मतं मे ॥२४॥ राजाऽवद् देव ! गुणैस्त्वदीयस्तनूभुवं स्वाङ्गसुवं ददामि।
पुच्यास्तु भाग्येन धनुर्मयाऽऽप्तं तुणं त्वसाध्यं कथमर्पयामि ॥२४४॥ (चिन्तामणि:-) तस्मादिहाऽऽस्माककुलेऽस्ति पूज्यश्चिन्तामणिश्चिन्तितवस्तुदाता।
एनं गृहाणेति निशम्य हर्षान्नीत्वा मुमोचाऽथ करं प्रियायाः ॥२४॥ ( प्रतिज्ञा-) इत्थं विवाहस्य महोत्सवेषु कृतेषु राजाऽथ कुमारराजः।
संस्थाप्य चापं कनकासनेऽसौ संपूज्य संयोज्य करौ जगाद ॥२४६॥ त्वां चाप ! यद्यामहं सुभाग्यान्न तत् कथं त्वत्सदृशं निषङ्गम् ।
पूर्णा यदैषोऽत्र मनोरथः स्याद् यास्यामि भोक्ष्यामि तदाऽन्यथा न ॥२४७॥ (नमस्कारो मन्त्रः-) इति प्रतिज्ञाय गिरं स्थिरं तं वीक्ष्य स्थितं भूपसुतं वसन्तः ।
अरं स्मरन् पश्चनमस्कृति सोऽप्यस्थाद् महास्थामनिकामधाम ॥२४८॥ इत्थं स्थिती तौ नृपतिश्च मत्वा परिच्छदेनाऽल्पतरेण गत्वा ।
प्रमोदतो विस्मयतोऽप्युपासामास त्रिरात्रं स विवेकपात्रम् ॥२४९॥ १वीजनकृतो विवाहगीतध्वनिः । २ प्रापम् ।
॥१६६॥
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पुण्डरीक
( वरुण:-) दिने चतुर्थेऽभ्युदिते दिनेशे-निघूमदीपप्रतिदीसदेहः ।
चरित्रम् फणीभिरोजस्विमणीगणाभिरुद्योतयन् सप्तभिरम्यरान्तः ॥२४९॥ ॥१६७॥
सर्गः-५ (वरं वृणु - ) महोज्ज्वलाभ्यां चलकुण्डलाभ्यां मेरुं जयन् निर्मलपुष्पदन्तम् ।
वरं वृणु त्वं नृपनन्दनेति वदन् पुरोऽभूद् वरुणोऽरुणेन्द्रः ॥२५॥ 18देवेश्वरं सोऽमरशेखरोऽथ निरीक्ष्य नत्वाऽऽह सह स्मितेन ।
ज्ञानेन जानन् अपि पन्नगेन्द्र ! मां पृच्छसि त्वं हृदयस्य तत्त्वम् ॥२५१॥ (दत्तो निषङ्ग:-) क्षणं स्थिरीभूय भुजंगमेन्द्रः प्रदर्शयामाम निषङ्गयुग्मम् ।
. एकस्तयोः कृष्णतः शरैस्तु पूर्णो द्वितीयश्च सुवर्णवर्णैः ॥२५२॥ त श्यामबाणं किल वामहस्ते द्वितीयमेतस्य करे द्वितीये ।
समय॑ हर्षाद् उपकर्णमेत्य प्रभावमाह स्म मुदे तदीयम् ॥ ( रिपुमल्लो देवं पप्रच्छ-) वतंसयित्वा स्वकरी सुरेन्द्र पप्रच्छ नत्वा रिपुमल्लराजः।
मूच्छा किमेषा मम पुत्रिकायाः केनाम्वु दत्तं च वसन्तहस्ते ! ॥२५४॥ कृत्वा प्रसादं सुरराज ! सर्व संदेहमुच्छिन्धि मदीयमेनम् ।
सूर्योदये यस्य विलोचनान्ध्यं नो याति तद् यातु कथं हि तस्य ॥२५॥ ( सुरः प्रतिवक्ति- ) स स्पष्टमाचष्ट सुरोऽथ तुष्टः राजन् ! समाकर्णय दत्तकर्णः।।
आनायितं चापमिदं यदाऽत्र तदागतः कौतुकतस्ततोऽहम् ॥२५६॥8 १ दिनेशः सूर्यः । २ पुष्पदन्तो दिग्गजविशेषः ।
४॥१६७॥
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पुण्डरीक
॥१६८॥
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अपेक्षमाणे मयि मण्डपं ते मालां यदा भूपतिपुत्रकण्ठे ।
तदा च
यतः-
चिक्षेप साक्षेपकटाक्षवीक्ष्या मन्दाक्षदक्षाक्षियुगा कुमारी ॥ २५७॥ स्वस्वामिकोटीरपदप्रहारात् साटोपकोपात् स तु पद्मभूषः ।
प्रायुङ्ग कन्यामरणाय विद्यां भूता विचित्ता नु तथाऽभिभूता ॥ २५८॥ क्रोधः प्रबोधतरणेरुरु राहुकल्पः कल्पद्रुमप्रतिमंधर्मविनाशवह्निः ।
स्नेहा मृतद्युतितनुक्षयपक्ष एष वर्ज्यः सतां हि महिमाम्बुरुहे हिमानी ॥ २५९ ॥ सर्वाचारविचारज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः ।
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वसन्तसेनस्य तु हस्तपद्मे तुष्टेन मन्त्रस्मरणाद् मयैव ।
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सर्वधर्मानुरक्तोऽपि कोपात् पापं करोत्यहो ! || २६०||
भाग्यात् कुमारस्य वसन्तसेनस्यैकाग्रमन्त्रस्मरणाच्च तुष्टः ।
न्यायि नीरं हि सुताङ्गपुष्टिविधायि बन्धुप्रमदप्रदायि ॥ २६९ ॥
(परमेष्ठिमन्त्रप्रभावमहिमा - )
पुराऽन्यपुण्यादमुतोऽथ मन्त्रात् सुखं भवेद भवेऽन्यथा न ॥ २६२॥ कल्याणसंततिवनीनवनीरवाहं सौभाग्यवल्लिघन पल्लवपुष्पकालम् । आलानमाश्रयकृते जलधेः सुतायाः भव्या भुवि स्मरत भोः ! परमेष्ठिमन्त्रम् ॥२३३॥
( सुरो गतः - ) एवं वचस्तस्य नरेश्वराद्याः श्रुत्वा मनोहँत्य पपुः प्रमोदम् ।
१ उरुराहुः—महाराहुः | २ कल्पद्रुमसमानधर्मविनाशने अग्निः । ३ अमृतद्युतिश्चन्द्रः । क्षयपक्षः कृष्णपक्षः । ४ कमलनाशने हिमरूपः क्रोधः । ५ वनी अरण्यम् । ६ जलधेः सुताया लक्ष्म्याः आलानस्तम्भरूपः । ७ आकण्ठम् ।
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चरित्रम्
सर्ग: ५
॥ १६८ ॥
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पुण्डरीक
॥ १६९॥
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यावत् प्रणेमुर्विनयात् ततोऽमुं तावत् तिरोऽभूदुरगाधिराजः ॥ २६४ ॥ ( एको नरः - ) एको नरोऽथो मणिचूलवीरसैन्यात् समभ्येत्य तदेव तत्र । कृत्वा प्रणामं नृपपादमूले कृताञ्जलिः प्राञ्जलिवागुवाच ।। २६५ ||
धूमध्वजोऽसौ शिवमन्दिरेशः संमील्य भूपान् भविताऽस्त्यऽमित्रः ।
एतत्स्वरूपं कथितं प्रवीर ! प्रस्थापितैर्गूढनरैर्नरेन्द्रैः ॥ २६६॥ ( युद्धाय त्वरा - ) तस्येति वाक्यात् स्मृतिमान् नृपेशः कोटीरथेन स भृकुटी ललाटे । हृत्क्रोध धूमध्वजंधूमवल्ली इवोवेरीन्द्रो द्रुतवाचमूचे ॥ २६७॥
पर्याण्यन्तां महाश्वा निजजवभरतः क्रान्तविश्वा क्षणेन
सज्यन्तां सद्गजेन्द्रा मिलदलिपटलैर्दानतैः सेव्यमानाः ।
योधाः ! संनह्यतां भो ! रणसलिलनिधेर्मन्धने मन्थशैलाः
भूपाः ! संभूयतां च प्रबलरिपुकुलप्रत्यनीकैरनीकैः ॥ २६८ ॥ उदित्वैवं राजा स तु निजसमाजाच्च तरसा रयादुत्थायाऽथ द्विरदनैवरं लक्षणधरम् । प्रसय प्रारुप प्रतिनृपेंगणा सह्यमहिमा - हिमांशुः पूर्वस्या नगमिव पुरा प्रोद्गत इतः ॥ २६९॥ (अमरशेखरकुमारोऽपि समित्रो युद्धे चचाल - ) ततः कुमारोऽमरशेखरोऽपि मित्रेण चापेन च चारुमूर्तिः ॥ चन्द्रावतंसः स्वसहोदराणां शतत्रयेणाऽनुगतोऽभ्युपेतः ॥ २७० ॥ ( अक्षौहिणीनवकम् — ) एवं तदा तस्थुषि तत्र राज्ञि भूपाः समीपं समुपेयुरन्ये । १ कोटीरं कुर्वन् । २ भ्रकुटीविशेषणम्। ३ मदभरतः । ४ प्रवरं हस्तिनम् । ५ प्रतिनृपः- शत्रुः ।
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चरित्रम्
सर्ग: ५
॥१६९॥
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चरित्रम्.
॥१७०॥
पुण्डरीक
अक्षौहिणीभिर्नवभिमितं तद् बभूव सैन्यं रिपुदैन्यदायि ॥२७१॥ भेरीभा कारभारैः सुरपतिसदने गायतस्तुम्बरोस्तु स्थानं यच्छन् हयानां स्थपुटखुरपुटस्फोटनस्तालदानम्।।
सर्गः-५ कुर्वन् पातालमूले भुजगपतिपुरो नाटके जायमाने सोऽचालीद् दिग्गजेन्द्रानपि हि बधिरयन् प्रौढढक्कादिनादैः॥४ ( रथावर्ती गिरि:-) ततो रथावत गिरौ ससैन्यं स्थितं नृपस्तं मणिचूलवीरम् ।
जगाद शीघ्रं चल भो! यथाऽथ च्छिनद्मि तं छद्मपरं स्वशत्रुम् ॥२७३॥ ( राजमृगाड़ो मन्त्री-) मन्त्री ततो राजमृगाङ्कनामा राजानमानम्य तदा जगाद।
स्वामिन् ! समाकर्णय नीतियुक्तां विज्ञप्तिमेकां सचिवैकचित्तः॥२७४॥ ( नीतिशास्त्रम्-) रागस्थितौ तीव्रतरं व्रतं यन्मार्गश्रमे यद् बहुनीरपानम् ।
___ यत्कोपतः प्रोद्धतशत्रुयुद्ध तन्नायतावायतसौख्यहेतुः॥२७५॥ तथाचरात्रौ स्वनेत्रे विनिमील्य यानं सिद्धान्तमप्रेक्ष्य तपोविधानम् ।
शत्रोरनालोक्य बलप्रयाण नैतत् प्रभो ! चारुविचारचारि ॥२७६॥ अन्यच्च(अभंगेहम्-) यथाऽभ्रगेहोगतः प्रदीपो वातोपघातैन विनाशमेति।।
तेजस्वितेजोऽपि तथा प्रशान्तेमध्यस्थितं कोऽपि विहन्ति नैव ॥२७७॥ प्रौढप्रवीरक्षयहेतुयुद्धं नीती निषिद्धं नृप ! सर्वथैव ।।
तच्चेत समानादिभिरेति सेवां रम्यं तदा नेत्थमतो रणं स्यात् ॥२७८॥ १ तुम्बरुः-देवगायको गन्धर्वः । २ आयतौ भविष्यति । ३ गमनम्। ४ अभ्रगेहम्-अत्रेण रचितं दीपरक्षागेहम्-भाषायाम्-' अबरखनुं फानस ' १५ सामादिभावैः ।
४ ॥१७॥
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पुण्डरीक॥ १७१ ॥
१२
( दूतस्य शिक्षा - ) श्रुत्वेत्यमात्यस्य वचः स्वसैन्यं संस्थाप्य दूतस्य ददौ स शिक्षाम् । भोः ! प्रोद्धतैरेव वचोभिरेनं युद्धोद्यतं त्वं कुरु न प्रशान्तैः ॥ २७९ ॥ (दृतवाणी - ) ततः स दूतो जवतोऽभ्युपेत्य धूमध्वजं वाचमुवाच वाग्मी ।
हितं सुनीत्या सहितं मितं मे वचः शृणु त्वं नृप ! सावधानः ॥ २८० ॥ यद् भूपविद्यालये त्वयाऽस्य सुतो हृतो यच विवाहमध्ये ।
पद्मः कुमार्यौ विचकार विघ्नं तेन प्रकोपाकुलितोऽरिमल्लः ॥ २८९ ॥
सर्वाभिसारेण रसाधिपस्त्वां सरेन्नरं सारभृतः प्रधानैः ।
क्रुद्धोऽपि रुद्धोऽस्ति तव प्रबोध- हेतोस्ततोऽस्मि प्रहितो हिताय ॥ २८२॥ ( राज' बभाषे ) विचार्य तत् त्वं निजसौख्यतत्त्वं संघानमाधाय समधिनैधि ।
श्रुत्वेति दूतस्य वचः स राजा भुजं निजं प्रेक्ष्य बलाद् बभाषे ॥ २८३ ॥ कण्डूलदोर्मूलभुजानुकूलं वाक्यं प्रवेक्तुः कनकस्य जिह्वा ।
एतस्य दूतस्य तु मन्त्रिराजः ! प्रदीयतां मत्प्रमदेन दानम् ॥ २८४॥ (दूतसंमुखं वश्य— ) बल्लाञ्च विद्यवलये यथाऽस्य सुतो गृहीतोऽद्य तथाऽरिशीर्षैः । स्वशौर्यदेवीपुरतस्तु नालिकेरीफैलस्फोटनिकां करिष्ये ॥ २८५ ॥
( कनकस्य जिद्दवा - )
१ अरं शीघ्रं सरन् । २ समाधिना समाहितो भव । ३ प्रवक्तुर्दूतस्य । ४ विद्यामण्डले । ५ देवीपुरतो हि नालिकेरस्फोटो विश्रुतः, अत्रापि स्वशौर्यदेवी पुरतःशत्रुशीर्षनालिकेरस्फोट: । ६ नालिकेरम् ।
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चरित्रम्
सर्गः - ५
॥ १७१ ॥
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४
पुण्डरीक-8 संधानसंधी न हि मेऽस्ति चित्ते चित् तेऽस्ति तन्मेऽहियुगं नम त्वम् ।
चरित्रम्रे दूत ! गत्वा कथयेति तस्य पुरः पुरं प्रेतवतेयियासोः ॥२८॥ ॥१७२॥
सर्गः-५ ( दूतविसर्जनम्- ) प्रसह्य दूतं स नृपोऽसह्य-शौर्यो विसृज्य स्वमहीमहेन्द्रः ।
युक्तोऽचलच्चारुचमूसमूह-श्चमूरवरतरं स शूरः ॥२८७॥ एवं भुवं कांचिदपि व्यतीत्य धूमध्वजेन क्षितिपेन सर्वा।
सेना रसेनाऽर्गलितेनं तेन चक्रेऽथ चक्रेण समानरूपा ॥२८८॥ तथाहि(सेनां चक्राकारी विधाय चचाल धूमकेतु:-) अष्टाभिरक्षोहिणिकाभिरष्टावरानरित्रासकृते चकार ।
मुखेषु तेषां परितस्तथाऽष्टौ स्पष्टौजसो भूमिपतीन् मुमोच ॥२८९।। अक्षौहिणीादश नेमिरूपा धूमध्वजस्तत् परितो न्यधत्त ।
अक्षौहिणीभिः स्वयमष्टभिश्च युक्तस्ततो नाभिमभिस्थितोऽसौ ॥२९०॥ ४ समप्रसैन्यस्य पुरः प्रयाणे न्यवीविशत् पद्मनृपं महेन्द्रम् ।
रत्नध्वजं स्वागजपञ्चशत्या वामेऽमुचद् दक्षिणतोऽथ शूरम् । सहोदरं स्वं शिबिरस्य पाणौँ भूपोऽमुचद् मेघरथाऽभिधानम् ।
इत्थं समग्रं स विधाय सैन्यं चचाल शत्रूनभि धूमकेतुः ॥२९२॥ १ संधिकरणप्रतिज्ञा। २ 'चेत्' अर्थे ' चित् । ३ प्रेतपतिपुरं-यमपुरम् । ४ अधृष्यशौर्यः । ५ चमूरवेण क्रूरतरम् (रवः शब्दः) ६ शत्रुरोधाय अर्गल इव जातेन-भाषायामू-आगळियो-अर्गलः । ७ चक्रेण समानरूपा-चक्राकारा । ८ अष्टौ अरान्-सैन्यस्य चक्रव्यूहरचने अराणामाकारेण 18 सैन्ययोजना जायते । ९ पाणि:-भाषायाम-पानी ( पगनी )
18॥१७२॥
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पुण्डरीक-8 इतश्च
॥१७३॥
४
८
१२
( सेनां गरुडाकारां विधाय अभिययौ रिपुमल्लराज : - ) दूतस्य वाक्येन किलाsष्टविंश- अक्षौहिणीभिः सहितं रिपुं स्वम् । धूमध्वजं तं रिपुमल्लराजोऽभ्यायान्तमाकर्ण्य बभूव सज्जः ॥ २९३ ॥ स्थानेऽथ वचोमणिचूलवीरं स्वकं सुतं कालमुखाभिधं च ।
चन्द्रावतंसं कि दक्षिणाङ्गे द्वितीयपक्षेऽमरशेखरं च । संवर्मितैः पञ्चसहस्रहस्तिस्थितैर्भटेर्विंशतिभूमिपैश्च ।
अक्षौहिणीभिस्तिसृभिः समेतं वज्रायुधाख्यं मणिचूलपुत्रम् |
अक्षौहिणीपञ्चकयुक्तमेष मुमोच संकोचकृते रिपूणाम् ॥ २९४ ॥
अक्षौहिणीनां सहितं चतुष्केणैकैकशोऽस्थापयदेष राजा ॥ २९५ ॥
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युक्तः स्वयं पक्षयुगान्तराले तस्थौ सुसज्जो विधृतातपत्रः ॥ २९६ ॥
"जिनाचनातुष्टसुरेन्द्रदत्त शक्त्यायुधं सोऽथ मुमोच पुच्छे ॥ २९७॥
विधिनीमेष रिपुप्रमाथी विधाय सर्वो गरुडस्यें मूर्त्या ।
अनीकयोर्योजनपञ्चकेन तयोस्ततः
चचाल मन्दं रिपुवंशकन्दं प्रोन्मूलनेच्छुद्विपवेन्नृपः सः ॥ २९८ ॥ संस्थितयोर्नृपौ तौ ।
संशोधयामासतुरुत्सुकौ तत् क्षेत्रं रणायोत्कटधैर्यधु ॥ ३९९ ॥ ( सुभटानां सत्कार:-) दिनत्रयं सैन्ययुगेऽपि सर्व- योधाऽऽयुधानां पुरतः प्रमोदात् । महोत्सवं भोजनिकां विधाय सचक्रतुस्तौ सुभटान्नरेन्द्रौ ॥ ३०० ॥
१ चञ्चुः-भाषायाम्-चांच | २ कवचितैः । ३ सेनाम् । ४ सैन्यं गरुडव्यूहे योजितम् - गुरुडाकारेण प्रथितम् । ५ द्विपो-हस्ती । ६ द्वयः सैन्ययोः । ७
युगं द्वयम् ।
चरित्र
सर्ग: ५
॥ १७३॥
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चरित्रम् सर्गः-५
पुण्डरीक-8 ते क्षत्रिया: श्रीजिनमर्चयित्वा ययाचिरे प्राञ्जलयः प्रणम्य ।
अत्र व्रतं क्षत्रमखण्डमस्तु परत्र भक्तिस्त्वयि वीतराग ! ॥३०१॥ ॥१७४॥ ( भार्या-भगिनी-जननीभिः कृतमाङ्गलिक्या भटा:-) भार्याभिरेके भगिनीभिरेके वृद्धाभिरेके जननीभिरेके।
वीराः प्रचेलुः कृतमाङ्गलिक्या हर्षप्रकर्षादति दुष्पवर्षात् ॥३०२॥ ( युद्धसमारम्भः-) षष्ठ्यां तिथौ मङ्गलवासरेऽथ रणार्थवाद्येषु घनं रणत्सु ।
त्रुटत्सु लोहेष्वपि कण्टकेषु नत्वा नृपं तेऽभिरिपु प्रचेलुः ॥३०३॥ रथी रथेशं हयिनं हयेशः पत्तिः पदाति संगजं गजस्थः।।
धन्वी धनुष्मन्तमथो जगाम स्पर्धाप्रवृद्धे प्रबलेऽत्र युद्धे ॥३०४॥ इत्थं रणेऽस्मिन् रिपुमल्लयोधैः क्रोधोडतैर्वैरिगणोऽगणोऽपि।
____ व्यावर्तितः शैवलिनीजलौघो वृद्धोपि वार्धेरिव दुस्तरङ्गैः ॥३०५॥ सैन्यं सदैन्यं स निजं निरीक्ष्य महेन्द्रराजोऽभिरिपूनियाय ।
मत्वा तमप्युत्थितमत्र कालवक्त्रस्तमागाद् रिपुमल्लपुत्रः॥३०६॥ शरैः शरान दक्षतया क्षिपन्तौ खड्गेन खड्गं परिखण्डयन्तौ ।
परस्परं युद्धमरं चिरं तौ प्रचक्रतुर्विश्वमनो हरन्तौ ॥३०७॥ ( हतो महेन्द्रराजः- ) स मल्लवत्फुल्लभुजोऽतिधैर्याद् महेन्द्रराजं च रणे गृहीत्वा।
कूष्माण्डवनिष्ठुरभूमिपीठे प्रास्फोटयत्कालमुखोऽतिकालः ॥३०८॥ १ रथारोही । २ अश्वारोहिणम् । ३ गजारोहिणम् । ४ धनुर्धरः । ५ गणनं गणः-संख्या-असंख्यः-अगणः । ६ इयाय । ७ कूष्माण्डम्-कोळु ।
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॥१७४॥
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चरित्रम् सर्गः-५
महेन्द्रराजं निहतं निशम्य स पद्मभूपोऽथ मुमोच बाणम् ।
काण्डेन विद्धः किल तेन कालोऽकाण्डेऽपि जातः सकलोऽपि नीलः ॥३०९॥ (कालं गतः कालमुख:-) विषेण विद्धं तमवेक्ष्य कॉलमुखं गतं कालमुखं जवेन ।
क्रुडो दधावे मणिचूलवीरः शस्त्रैस्तथाऽस्त्रैः सहितोऽहितं तम् ॥३१०॥ स पद्मभूपोऽथ मुमोच बाणं तमोभृतं विश्वमतो बभूव ।
शरं स वीरस्तु विमुच्य भानु-शतैररेः सैन्यमतापयच्च ॥३११॥ ( पद्मराजो हतः-) मुक्त्वा शरं पद्मनृपो हिमेन प्रकम्पयामास तनूं रिपूणाम् ।
वीरस्तदैवाऽग्निशरेण भस्मीचकार पद्मं सविकारचित्तम् ॥३१२॥ निहत्य पद्मं मणिचूलवीरश्चचाल यावद् विकरालमूर्तिः ।
रत्नध्वजेनाऽऽशु शरेण तावत् त्रिंशद्गजेन्द्रः सहितो हतोऽयम् ॥३१३॥ (हतो मणिचूलधीर:-) चन्द्रावतंसो मणिचूलवीरं हतं पिलोक्याऽनवलोक्यरूपः।
रत्नध्वजं तत्र महाभुजं तं योधः स्फुरत्क्रोधयुतो रुरोध ॥३१४॥ चन्द्रावतंसोऽथ शरद्वयेन चिच्छेद कौँ युगपत् तदीयो।
उवाच रत्नध्वजमेष गच्छ जीव स्वकीत्य हि मयाऽसि मुक्तः ॥३१५॥ सटोपकोपः स्फुटखेटकेन खड्गेन युक्तः स हयं विमुच्य ।
यावद् दधावेऽथ तदाऽसिमस्य चन्द्रावतंसः शकलीचकार ॥३१६॥ १ असमयेऽपि । २ नील:-रक्तराहितः-मृतः। ३ कालमुखं मरणम् । ४ अहितः शत्रुः । ५ किरणशतेः। एतत् शरं तापकरम् । ६ एतद अस्त्रं हिमकरम् । ७ एतत् शरं दाहकम-भूयन्ते हि महाभारते अग्न्यस्त्रादीनि शवाणि । ८ दुर्बुध्यत्वेन न द्रष्टुं शक्यं रूपं यस्य । ९ खण्डं चकार ।
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॥१७५॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
॥१७६॥
सर्ग:
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रत्नध्वजोऽसौ तरवारिहीन-हस्तोऽप्युपान्ते समुपेत्य तत्र ।
___ चन्द्रावतंसं गगनेऽतिदूरं चिक्षेप साक्षेपभुजो जवेन ॥३१७॥ रत्नध्वजभ्रातृभिरुन्निषक्तः क्षणं पृषक्तः स तु लेखितः खे ।।
आविष्टचित्तो मणिचूलपुत्रोऽधाविष्ट तं शत्रमथो निहन्तुम् ॥६१८॥ (निहतो रत्नध्वज:-) रत्नध्वजं तं च निहत्य शक्या सोऽघातयत् तत्सहजान् स्ववीरैः ।
रणं जगाहे रिपुमल्लपुत्रैर्वज्रायुधस्तैः सुभटैर्युतोऽयम् ॥३१९॥ ततः सुतं स्वाङ्गजपञ्चशत्या युतं हतं धूमनृपो निशम्य ।
सुरेन्द्रदत्तादिनरेन्द्रयुक्तश्चचाल कालप्रतिमो रिपूणाम् ॥३२०।। नतश्चचलत चलत सर्व सत्वरं भो नरेन्द्राः ! टलत ष्टलत मा मा भो भटाः! शुद्धवंशाः ।
हत हतमरिवृन्दं सर्वमेवाऽधुनेति प्रवदति चलितेऽस्मिन् चुक्षुभे शत्रुपक्षः ॥३२१।। गजै रथास्तैस्तुरगा अमीभिः पदातयो व्याकुलिता निपेतुः।
- अतश्च धूमध्वजपाचवर्ति-वीरैः शरान्धं तमसं वितेने ॥३२२॥ प्रभज्यमानं रिपुभिः स्वसैन्यं सर्व विलोक्याऽमरशेखरोऽसौ ।
उत्तालफालप्रवणाश्वसंस्थश्चचाल सुश्लाध्यभटान् समग्रान् ॥३२३॥ अनेकवीरैः सहित तमेक-चित्तं विलोक्याऽमरशेखरं ते ।
तस्थुन युध्धे रिपवो मनस्थे श्रीवीतरागे हि यथा तमांसि ॥३२४॥ १ बाणैः । २ भाषायाम्-न टळो न टळो।
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२
॥१७॥
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परिवरः
सर्गः-५
पुण्डरीक-8 धूमध्वजोऽथामरशेखरं तं गजस्थितो वीक्ष्य तुरंगमस्थम् ।
स्वयं स शिश्राय हयं यतोऽत्र क्षत्रव्रतान्नैव चलन्ति धीराः ॥३२५॥ ॥१७७॥ भटेषु तत्राऽमरशेखरस्य पुरोऽप्यऽतिष्ठत्सु स धूमकेतुः।
ससंगरः संगरहेतवेऽगान स्थातुमिष्टे हि तदा यलिष्ठः ॥३२६॥ अस्त्राणि शस्त्राणि समागतानि स्वहेलया ताववहेलयन्तौ।
न प्रापतुः पारमरं सतृष्णावभव्य-भव्याविव संभवस्य ॥३२७॥ ___(ममज्ज भूम्याम् अमरशेखरः-- ) उद्विग्नचित्तोऽथ स धूमकेतुर्मुक्त्वा हयं तं गदया जघान ।
तुरंगयुक्तोऽमरशेखरस्तद् ममज भूभ्यामिह जानुमानः ॥३२८॥ ततोऽनुभूय क्षणमेष मूर्छा पादौ समाकृष्य पुनः सचित्तः।।
तदा गदामात्मकरे गृहीत्वाऽवचूर्णयामास शिरांसि शत्रोः ॥३२९॥ ४ यावन्ति खण्डानि कुमारराजश्चकार शत्रोः शिरसां रयेण ।
तावन्ति वर्षन्ति शरावलीभिर्जातामि रूपाणि तु धूमकेतोः ॥३३०॥ ४ तदा कुमारोऽपि वसन्तसेनस्तूणं गृहीत्वा धरणेन्द्रदत्तम् ।
शत्रोः शरीराणि शरैविनीलविव्याध स व्याधवदेणवृन्दम् ॥३३१॥ अत्रान्तरे दूरगतः सुरेन्द्र-दत्तस्त्वजानंस्तनयं स्वकीयम् ।
१ संगरसहितः । २ युद्धहेतवे। ३ संसारस्य । ४ हरिणवृन्दम् ।
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पुण्डरीक
रित्रम्
॥१७
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__ धूमध्बजे प्रीतियुतोऽष्टषष्टि-बाणैर्जघानाऽमरशेखरं तम् ॥३३२॥ ( स एव च मुमूर्छ- ) अचिन्तितोऽऽयातशरमहारर्मुमूर्छ तत्रामरशेखरोऽथ ।
र्गः-५ कुमारमुक्तैर्धरणेन्द्रबाणघूमध्वजश्चैकतनुर्ममार ॥३३३॥8 संमूर्छितं वीक्ष्य निजं वयस्यं वसन्तसेनः परमेष्टिमन्त्रम् ।
__ स्मृत्वाऽष्टषष्टिप्रसृतिप्रमाण-नीरेण तत्राऽभिषिषेच शीघ्रम् ॥३३४॥ (गतमूर्छः-प्रसम्रोऽमरशेखर:- ) तेनाऽभिषेकेण कुमारदेहात्-शल्यानि निश्चक्रमुरक्रमेण ।
ततः प्रसन्नोऽमरशेखरोऽयं क्षेत्रं निरीक्ष्येति दयाद्रमूचे ॥३३५॥ 8 हाहास्तिकं तारतरोग्ररावं हह हया हुंकृतिकण्ठकण्ठाः ।
- हाहाहहा वीरवरा वरे( ही)ही नाथहीना विलपन्ति वध्वः ॥३३६॥ है है रणोऽयं सकलोऽपि निन्द्यो धिग धिग यतो जीवगणो हतोऽद्य ।
अहो महाद्वेषविशेष एष नरस्तु गच्छेन्नरकं हि येन ॥३३७|| यतःजं न लहइ संमत्तं लडूण वि (०) यन्न लभते सम्यक्त्वं लब्ध्वाऽपि नवि तं कुणइ अमित्तो।
नाऽपि तत् करोति अमित्रः। सु वि सुविराहिउ समत्थो वि (०) सुष्ठु अपि सुविराधयितुम् (2) समर्थोऽपि तो बहुगुणनासाणं (०)" ॥
ततो बहुगुणनाशानाम् ॥ १ प्रसूतिः-भाषायां पसली-खोबो । २ युगपत् शीघ्रम् । ३ रणे जायमानानां शब्दानां सूचनम् ।
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पुण्डरीकर
चरित्रम्:
वसन्तसेनोऽथ जगाद देव ! वाक्यैः सशोकैर्जनमानसानि।
भिनत्सि, किंचित् तव काऽपि शक्तिः ॥१७९॥
समस्ति तज्जीवय सर्वमेतत् ॥३३८॥ 8 साक्षेपमुक्त्वाऽन्यतुरंगम स्वं पीतेन बाणेन घनं जघान।
नीत्वा निषङ्गं सह पीतवाणं सजीवमेत नृप रुरोह ॥३३९॥ (धूमध्वज-पद्मवर्ज सर्वेऽपि मृता जीविता:-) सुवर्णवर्णैरमृताठ्यबाणैः प्रविध्य हस्त्य-श्व-पदातिसैन्यम् ।
तज्जीवयामास दयाचित्तः क्षेत्रेऽत्र धूमध्वज-पद्मवर्जम् ॥३४०॥ धूमध्वजाड़े सितबाणविडे न पीतयाणा विदधः प्रवेशम् ।
स पद्मदेहस्य तु भस्मपुञ्जः कण कणेनैव गतोऽग्रतोऽपि ॥३४१॥ ( शेषमृतजीविताय धरणेन्द्राराधना कृता अमरशेखरेण-) आश्चर्ययुक्ते स्तुवति प्रकाम नरेन्द्रवर्गऽमरशेखरोऽथ ।
आराधयामास धरे(रणे)न्द्रदेवं कृत्वोपवासत्रयमेकचित्तः ॥३४२॥ (आगतो धरणेन्द्रः- ) अथाऽम्बरे तं धरणेन्द्रदेवं विलोक्य भूमीशसतो बभाषे।
कृत्वा प्रसादं सुरराज ! धूमध्वजं तथोजीवय पद्मभूपम् ॥३४३॥ 8जगाद देवो ननु विस्मृतं किं मया तदाऽवादि तवाऽग्रतोऽपि।
यद् भस्मरूपं मम बाणविद्धं विमुच्य जीविष्यति सर्व एव ॥३४४॥ ४ तवोपवासादिकसत्त्वतोऽहं तथाऽपि हृष्टोऽस्मि कृमार ! गाढम् ।
जीवा गुणः-दोरी-भाषायाम् । २ नृपपुत्रः ।
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॥१८०॥
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धर्मेऽप्रकम्पोऽगिषु मानुकम्पो यः स्यात् स धन्यो हि नरो धरायाम् ॥३४॥ ( धूमध्वज-पद्मयोः उत्तरकृत्यम्-) एवं गदित्वा धरणेन्द्रदेवे स्वस्थानयातेऽमरशेखरोऽयम् ।
सगः-५ ततस्तयोरुत्तरकृत्यकृत्य प्रकारयामास विधेनिवासः ॥ ३॥ ( सुरेन्द्रदत्तस्य स्वपुत्रेण समागमः- ) स्फुरत्मभावं सविवेकभावं निशम्य धूमध्वजशत्रुमेनम् ।
आश्चर्यतोऽभ्येत्य सुरेन्द्रदत्तो यावच्च तावत् स्वसुतं ददर्श । सुरेन्द्रदत्तोऽपि सुतं समीक्ष्य विषादतः साश्रु जगाद पाणि ।
पूर्व त्वया यः परिलालितोऽसौ सुतो हतो हन्त हताश! हस्त ! ॥३४८॥ (सुरेन्द्रदत्तस्य मूळ-) यावत् कुमारो जनकं निरीक्ष्य सोत्कण्ठमुत्तिष्ठति तत्मणत्यै ।
सुरेन्द्रदत्तो नृपतिः स तावत् लुलोठ भूपीठमकुण्ठमूठः ॥३४९॥ कथं कथं मूर्छति मे पिताऽयमित्युच्चवाचं नृपजं निरीक्ष्य ।
हृष्टः सुरेन्द्र रिपुमल्लभूपोऽप्यचीकरत् सज्जमयोपचारैः ॥३५०॥ 8 शीतोपचारात् सुतदेहसंगान्निजापराधस्मरणात् सुरेन्द्रम् ।
___ यथाक्रमं स्वल्पगतोग्रमूर्छ दृष्ट्वा जनोऽस्थात् सकलः सदुःखः ॥३५१॥ मोहमरोहः कथमस्य राज्ञो निवार्यतां चेति (चैत ? ) मधो निगद्य ।
चिन्ताञ्चिताश्चेतसि यावदस्थुस्तावन्नृपाः खे ददृशुर्मुनीन्द्रम् ॥३५२॥ १ विधिनिवासः-विधिवद् अनुष्ठाता । २ अमरशेखरम् । ३ हस्तम् ।
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चरित्रम्
पुण्डरीक-8 ( श्रीकीर्तिचन्द्रः साधु:-) ऊर्ध्वं नरेन्द्रेषु विलोकयत्सु रत्नमजोऽत्युत्सुकवाचमूचे ।
___ अहो मदीयोऽत्र पितृव्य एष बीकीर्तिचन्द्रः समुपैति भाग्यात् ॥३५३॥ संयोज्य हस्तौ बहुहर्षतोऽथ सर्वेषु भूपेषु समुत्थितेषु ।
यतिश्चतुर्ज्ञानधरो धरायामवातरत् तत्र तपापवित्रः ॥३५४॥ क्षणात् कृते विस्तृतमण्डपेऽत्र सिंहासनेऽसौ निषसाद साधुः।
अथो यथोक्तेन गुरुक्रमेण नेमुनरेन्द्रा मुनिराजमेनम् ॥३५५॥ इतः कुमारो जनकं स्वकीयं सुरेन्द्रदत्तं नृपमाह हर्षात् ।
तात! त्वमुत्थाय जवेन साधु-पादाम्बुजे किं न नमस्करोषि ॥३५६॥ इदं वचस्तस्य सुवासंधर्म श्रुत्वा सधर्मः स सुरेन्द्रदत्तः।
हित्वा रयाद् दुःखविषं मुनीन्द्रं नत्वा नरेशः समुपाविवेश ॥३५७॥ एवं समग्रेऽपि नरेन्द्रवर्ग साम्यप्रविष्ट पुरतो निविष्टे ।
मृत्वोत्थिताः किं वयमत्र यूयं वेत्थं प्रवीरेषु मिथो वदत्सु (कीर्तिचन्द्रदत्ता देशना-) वैराग्यधोतेषु सभा-जनस्य साधुस्तदा मानस-भाजनेषु ।
परात्मनः पुष्टिकृतेऽथ ताप-शान्त्यै न्यधाच्छीतलगोरस सः ॥३५९॥ तथाहि 8. आयुः सदा वायुचल नराणां वातोद्धताम्भोजवदङ्गमङ्ग! ।
१ सुधासदृशम् । २ धर्मसहितः । ३ समतां प्राप्ते । ४ वाणीरसोऽपि गोरसः ।
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२
॥१८॥
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पुण्डरीक
॥१८२॥
४
V
१२
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पद्मस्थिताम्भःकणवत्त्वनित्या रामाभिषङ्गाश्चरमाः प्रसङ्गाः ॥ ३६० ॥
दुष्प्राप्य मानुष्यतंरीमवाप्य रजो भरैर्मूह जनस्तु दक्षः ।
सद्धर्मरत्नैर्भरतीह येभ्यो भङ्गेऽपि तस्या लभते महद्धिः ॥ ३६९ ॥
ऊर्ध्व गते पुंसि रजःसमूहो यथाम्बुपूरात् प्रलयं प्रयाति ।
अहसा सा (सं) हियते तथाशु स्थितेऽपि जीवे कणशः शरीरम् || ३६३ || विश्वं विचार्य त्वनिवार्यनाशं भोः ! पापकार्य न ततोsन कार्यम् ।
कृत्यं पुनर्निर्मलपुण्यकृत्यं यशो यतः स्याच वशोऽपि मोक्षः ॥ ३३३ ॥
चि धिग्भवं पत्र हि मान-लोभ-व्यामोहतो निर्मलबुडिलुमैः ।
सुतेन तातो जनकेन पुत्रः प्रहष्यतेऽन्योऽन्यविवेकनाशात् ॥ ३६४ ॥ अधर्म क्रोध - मदाश्वयुक्ते स्थितो जवाद् मोहरथेऽत्र यस्य ।
विशेत् पुरे तजसां भरेण सोऽन्धो हि पश्येन्न गुरून्न देवान् ॥ ३६५॥ तस्माद् "महापापमयं विहाय संसारवासं ननु भव्यजीवाः ! ।
श्रीजैन धर्म सततं यतध्वं यतः स्फुरत्केवलमङ्गलं स्यात् ॥ ३६६॥
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एवं मुनिर्ज्ञानघनः पवित्र - वाक्यामृतैर्भव्यसनः सरांसि ।
भृत्वा स यावद् विरराम तावदूचेऽथ तैस्तल्लहरीव वाणी ॥ ३६७॥
१ रामाळ स्त्री । २ तरी:-नाः। ३ रत्नभृतायास्तय भङ्गेऽपि महर्द्धिलभ्यते । ४ अवश्यं नाशो यस्य तत् । ५ शरीरे नगरे वा । ६ मोहरथरजसाम् ।
अन्यच
चरित्रम्
सर्गः - ५
।। १८२ ॥
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বসি, सर्गः-५
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साधोऽहे साऽधोगतिसंगतं यद् विधातुकामा वयमद्य सद्यः ।
बोधप्रदीपेन निर्वाततास्तद् विद्मो महन्थो हि भवेद् महत्वम् ॥३६ युद्धे प्रभो ! जीवनिकायकाय-व्यपायतो दुष्कृतपङ्कमग्नान् ।
समुद्धर त्वं चरणहीणान् परोपकाराय सतां हि शक्तिः सभावमुक्त्वेति सभाजनेऽस्मिन् मौनं श्रिते साधुरसौ बभाषे।
याचध्वमेवात्मसमाधिना भोः श्रीजैनधर्म विविधिप्रकारम् ॥३७०॥ ( सुरेन्द्रदत्तो दीक्षितः- ) मुञ्चन्नथाऽभूणि सुरेन्द्रदत्तो जगाद नत्वा मुनिपादपद्म।
दीक्षाप्रदानेन सुतप्रहारप्रदं विशुद्धं कुरु मा यतीन्द्र ! ॥३७॥ असारसंसारभवोनपाप-विपाकवरूप्यमिति प्रणिन्द्य ।।
श्रीजैनदीक्षां विनयावनम्रो जग्राह कुग्राहविमुक्तचित्तः ॥३७२।। ( धूमध्वजस्त्रियः प्रजिता:-) इतश्च-धूमध्वजराजदारा वैराग्यतः पश्चशतीमितास्ते।
वैधव्यवैधुर्यभरप्रणुन्ना विमुच्य गेहं जगृहुव्रतानि ॥३७३॥ वसन्तसेनेन युतः कुमारः सिषेविषुः स्वस्य पितुः पदाब्जे।
व्रतं ययाचे व्रतिनं प्रणम्य पुत्रा न कष्टं गणयन्ति भक्तेः ॥३७४। ( अमरशेखरः प्रेरितः कीर्तिचन्द्रेण आचाम्लचन्द्राचरणे तपसि, दत्तं च तद्विधियुत पुस्तकम्--)
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१ अंहः पापम् । २ व्यपायो नाशः । ३ भावसहितम् । ४ माम् । ५ सेवितुमिच्छुः ।
॥१८३॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
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॥१८४॥
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साधुर्वभाषेऽमरशेखरं तं त्वद्रोगकर्मास्त्यति भो! गरीयः।
यदा भवेऽस्मिंश्च भवेविरक्तः आचाम्लचन्द्रं तु तदाऽऽचरेस्त्वम् ।।३७५॥ 'आदिश्यतां तस्य विधिस्ततो मे' प्रोक्तेऽमुना साधुरवगं विचार्य ।
आचाम्लचन्द्राचरणेन युक्तानां गृहाणाद्य सुपुस्तिका तत् ॥३७३॥ तां पुस्तिका सोऽमरशेखरस्य समर्प्य पाणौ मुनिकीर्तिचन्द्रः।
जगाद भोस्तावदिमां मदीयां शिक्षा समाकर्णय सावधानः ॥३७७॥ तथाहि( कीर्तिचन्द्रदत्ता शिक्षा-) भक्तिं जिनेन्द्रे सुदृढां दधीयाः सदा दयां जन्तुषु संदधीथाः।
दीनेषु दानं दमवान् ददीथाः सद्भयो महद्भयो मतिमाददीथाः ॥३७८॥ किंबहुना-! यथा प्रसीदन्ति सुरः समग्राः यथा विषीदन्ति न बन्धुवर्गाः।
___यथा न सीदन्ति गुरूपदेशा यथा निषीदन्ति तनौ गुणोघाः ॥३७९॥ यथा च न म्लायति कीर्तिवल्ली वृद्धी यथा ग्लायति नैष धर्मः।
राज्यं प्रकुर्वन्नपि खैर्वगर्वस्तथाऽऽयतेथाः सततं कुमार ! ॥३८०॥ ततश्च- ( रिपुमाहराजादीन् श्रावकान् कृत्वा जगाम कीर्तिचन्द्रः- ) मुनौ समौने रिपुमल्लराजश्चन्द्रावतंसो मणिचूलवीरः ।
रत्नध्वजः कालमुखस्तथाऽन्ये ययाचिरे वीरवराः सुधर्मम् ॥३८१॥ (नगरी जयन्ती- ) गार्हस्थ्यधर्म स निधाय तेषु साधुजंगामाथ ततोऽन्योशे। १ त्वं भवे । २ उवाच । ३ खर्वम्-अल्पम् ।
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॥१८४॥
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॥१८५॥
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विद्याधरेन्द्रास्तु मिथः स्ववैरं विमुच्य जग्मुर्नगरी जयन्तीम् ॥३८२॥ चरित्रम्. विद्याधराणां समरोहतानां स्यात् प्राणविश्राणनतोऽधिपोऽयम् ।
सर्गः-५ इत्थं मिथः प्रोच्य नृपाः समग्र-विद्याधरेशं विदधुः कुमारम् ॥३८३॥ ( विद्याधरपतित्वेऽभिषिक्तः-अमरशेखरो लक्ष्मीपुरं प्रयाति-) विद्याधरेन्द्रा रिपुमल्लमुख्या रत्नध्वजाद्यास्तु सुभक्तचित्ताः।
चकुर्नमोऽस्मै हि परोपकारः समृद्धिदश्चात्र परत्र लोके ॥३८४॥ वैतात्यशैले सकले तदैव श्रेणिद्वयस्याऽपि पुरेषु वेगात् ।
____ आज्ञाऽथ राज्ञोऽमरशेखरस्य प्रघोषयामासुरिति क्षितीशाः ॥३८५॥3 स राजराजोऽमरशेखरोऽथ दिदेश तान् श्रीरिपुमल्लमुख्यान ।
रत्नध्वजं श्रीनृपधूमकेतोः पट्टेऽभिषिञ्चन्तु नरेश्वरा भोः ! ॥३८६॥ प्रमाणमादेश इतीरयित्वा रत्नध्वजस्याऽथ महोत्सवान्ते ।।
राज्याभिषेकं विदधुर्हि सन्तः कुर्वन्ति शत्रौ विर्नेते हितानि ॥३८७॥ स्मितोज्ज्वला सोऽमरशेखरोऽथ स्नेहप्लुतां वाचमुवाच वाग्मी।
_लक्ष्मीपुरं प्रत्यधुना प्रयाणं ममानुमन्यध्वमतो नरेन्द्राः ! ॥३८८॥ ततश्च- प्रयाणढक्कास्वथ वादितासु माङ्गल्यतौर्येषु घनं नदत्सु ।
विमानरूढेषु च खेचरेषु गायत्सु तारं वरकिन्नरेषु ॥३८९॥ १ समरे-युद्धे-आहतानाम् । २ विश्राणनं-दानम् । ३ अमरशेखरः। ४ नम्र । ५ वक्ता ।
॥१८५॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्
.
५
॥१८६॥
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चक्रेश्वरीदेवतया प्रदत्तं श्रीधूमकेतो रुचिरं विमानम् ।
पुष्पावतंसाभिधमानिनाय रत्नध्वजोऽस्य त्वधिरोहणाय ॥३९०॥ इतः प्रमोदाद् रिपुमल्लराजो रत्नावतंसाभिधमुत्पताकम् ।
__ वैरोठ्यया दत्तमतिप्रधान संढोकयामास निजं विमानम् ॥३९१॥ प्रभावुभौ यक्षनिभौ समान-प्रभौ स्फुरन्निर्मल भक्तियुक्तौ ।
कृताग्रही वीक्ष्य स निर्विवादमुवाद भूपोऽमरशेखरोऽथ ॥३९२॥ आकर्ण्यतां श्रीरिपुमल्लभूप ! रत्नध्वजं मत्पितृमित्रपुत्रम् ।
संमानयिष्यामि बुधा हि मैत्र्यं स्वाजन्यतः कोटिगुणं भणन्ति ॥३९३॥ यतः( प्रेम जयति-) पयोधेर्नो पुत्रं त्रिदिवतर-लक्ष्मी-सुरगजा-ऽमृतादीनां नो वा सहभवमिहेनं बुधजने ।
निशानाथं दूरस्थितजलभवानां हि कुमुव्रजानां यद् बन्धुं वदति तदिदं प्रेम जयति ॥३९४॥ इत्योचितीचारुतरं विचारमोच्चं वचः प्रोच्य स धूमकेतोः।
विमानमध्यास्त समस्तविद्या-धराधिराजेषु भृशं स्तुवत्सु ॥३९५ 8 युक्ता सखीनां किल सप्तशत्या वृता तथा कञ्चुकिभिः प्रधानैः।
लीलावती स्वस्य पितुर्विमानं तदाऽऽस्रोह प्रियवाक्यमाय ॥३९६॥ इतश्च- वसन्तसेनो मणिचूलवीरो विमानमङ्गन हृदा तु हर्षम् ।
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१ प्रभा-सप्तम्यन्तम् । २ सि.हे. “ अधेः शो-स्था-ऽऽस आधारः" इत्यनेन आधारेऽपि द्वितीया ।
॥१८६॥
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पुण्डरीक
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चरित्रम् सर्गः-५
॥९८७॥
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आरुह्य वेगेन विहायसा तो लक्ष्मीपुरं जग्मतुरग्रतोऽपि ॥३९७॥ ततश्च(विवेश लक्ष्मीपुरम् अमरशेखर:-) विस्मापयन्नेष पवित्रयंश्च जगन्त्युदात्तविमलैश्चरित्रैः।
खपुष्पंतां निश्चलयन् विमानरयान्नरेन्द्रः स रयात् पुरं स्वम् ॥३९८॥ समृद्धितः प्रोन्मुखयन् विमुग्धान् दक्षत्वतः संमदयन् विदग्धान् ।
समुत्कयन प्रीतिभराद् वयस्यानानन्दयन्नागमतः स्वबन्धून ॥३९९॥ सोपायनागभिगम्यमानः सुवन्दिवृन्दैरभिनन्द्यमानः।।
विलासिनीलास्यविलास्यमान-विलोचनो दानभरं ददानः॥४००॥ प्रवीज्यमानो वरचामराभ्यां संन्युञ्छयमानो विधिना वधूभिः ।
____ संसेव्यमानः सकलैनरेन्द्रवर्धाप्यमानश्च पुरोहितौः ॥४०१॥ ग्रामान प्रयच्छन् जिनमन्दिरेभ्यस्तदा त्यजन राजकरान जनेभ्यः ।
लक्ष्मीयुतः स्वर्गपुरं विवेश लक्ष्मीपुरं सोऽमरशेखरेशः ॥४०२॥ ( चतुर्भिः कलापकम् ) (पिनोः प्रणामा:-) पूर्वोदितस्तत्र वसन्तसेन-वाक्यैः प्रहृष्टां किल चन्द्रलेखाम् ।
ननाम गत्वा जननी जनेशो लीलावतीशोभितपृष्ठभागः ॥४०३॥ श्वश्रू स्वकीयामथ चन्द्रलेखां देवीं विवेकाद् रिपुमल्लपुत्री ।
१ खे उडायमानानि विमानानि खपुष्पसदृशानि भान्ति इति एषा कल्पना । २ उत्सुकयन् । ३ न्युञ्छनं भाषायाम्-ओकार-दुखणां लेवा । ४ भाषायाम्-वधावातो।
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४॥१८७॥
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पुण्डरीक
लीलावती सा सुवधूविधूत-मदा मुदा तत्र तदा ननाम ॥४०४॥ चरित्रम्.. mean पुत्रस्य नम्रस्य वधूयुतस्य तुष्टान्तराऽऽशीर्वचनं प्रदाय ।
२४ सर्गः-५ सा चन्द्रलेखा. गुरु राजगेहं ददौ तदौन्नत्यकृते स्नुषायै ॥४०॥४ १ सखेचरैः भूमिचरैः समग्रैर्नतांहिपद्मः सुकृतैकसन ।
चकार राज्यं सुचिरं सुनीतिम्राज्यं नरेन्द्रोऽमरशेखरोऽथ ॥४० अथाऽन्यदा पुत्रमुखेन पत्युश्चरित्रमाकर्ण्य तपःपवित्रम् ।।
सा चन्द्रलेखा वरपुस्तिकां तां संपूजयामास सुगन्धपुष्पैः (त्रिदशप्रभा गुरवः-) राज्ञी ततः श्रीत्रिदशप्रभाख्यान् गुरून् प्रणन्तुं सहिता सखीभिः।
तां पुस्तिकामात्मकरे गृहीत्वा तपोविधि ज्ञातुमना जगाम ॥४०८।। ( गुरुभिरमरशेखरजनन्यै चन्द्रलख ये आचाम्लचन्द्रस्य विधिदर्शित:-)प्रणम्य तस्यांपुरतःस्थितायांतो पुस्तिका ते गुरवो गृहीत्वा।
आचाम्लचन्द्रस्य विधिं समग्रां प्रवाचयांचQरवक्रचित्ताः ॥४०९। तथाहि"प्रकामं कार्तिके मासि शुक्लायां प्रतिपतिथौ। आचामाम्लं तपः कुर्यात स्मरस्मरविवर्जितः॥४१०॥ एवं चतुर्दशी यावदाचामाम्लानि नित्यशः । उपवासं पूर्णिमास्यां कुर्यात् पूजां त्रिधा सदा ॥४११॥ दिनेष्वेवं तपः कुर्यात् कायोत्सर्ग तु रात्रिषु । चन्द्रोदयास्तमानं हि चन्द्रसन्मुखलोचनः ॥४१२॥ कायोत्सर्ग प्रतिनिशं वर्धमाने घटीद्वये । स्मरन् पञ्चनमस्कारं जिनं चन्द्रे निवेशयेत् ॥४१३॥ १ स्नुषा-पुत्रवधूः । २ स्मरस्य स्मरणं स्मरस्मरः ।
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पुण्डरीक-8
द्वादशस्वपि पक्षेषु शुक्लेष्वेवं तपश्चरेत् । प्रतिपत्सु तु कृष्णासु विधिवत् पारणानि च ॥४१४॥ बरिषा
विधिश्वायम्- पारणे मुनये शुद्धमन्नं पात्रं विशुद्धिमत् । दत्त्वैकैकः यथाशक्त्या ततो भुञ्जीत भावनात्॥४ ॥१८९॥
सर्गः-५ 8 आवश्यकं च पूजां च कृष्णपक्षेषु नित्यशः । कुर्वन् सरसमश्नीयात् यथेष्टं दुष्टतोज्झितः ॥४१६॥ | अथाऽस्योद्यापनविधिः-श्रीवीतरागमूर्तीनां शतं सप्ततिसंयुतम् । विधाय विधिना रम्यं प्रतिष्ठाप्यं शुभे दिने । पुरस्तासां तु मूर्तीनां तत्संख्यैर्मोदकै तम् । स्थालं संढौकयेदेतत्संख्यानि तिलकानि च ॥४१८॥ उद्यापनविधिरेवमश्विनीपूणिमादिने । प्रतिपत्तिथौ च कृष्णे पारणं विधिना चरेत् ॥४१९॥ । विधिश्वाथ-श्रावकाः श्राविकाश्चैव जिनधर्मपरायणाः। भोजनीया महाभक्त्या सप्तविंशतिसंमिताः॥
ससतिशतसंख्याश्च जैनसिद्धान्तपुस्तिकाः । गुरुभ्यो हि प्रदातव्या ज्ञानस्याऽवाप्तिहेतवे ॥४२१॥ इदमाचाम्लचन्द्राख्यमित्युद्यापनभूषितम् । यः कुर्यात् स भवेद् मुक्तस्तृतीयेऽत्र भवेऽथवा ॥४२२॥ एवमाचाम्लचन्द्रस्य विधिस्तीर्थकरोदितः । उध्धृतः कीर्तिचन्द्रेण धर्मिणामुपकारकः" ॥४२३॥
।इत्याचाम्लचन्द्रतपोविधिः संपूर्णः । ते वाचयित्वेति सुपुस्तिका तां संमीलयामासुरथाऽऽशु राज्ञी।।
प्रोचे प्रभो! मेऽद्य कुरु प्रसादमाचाम्लचन्द्रस्य समर्पणेन ॥४२४॥81 ( चन्द्रलेखया आरब्धं तत् तप:-) विज्ञाय हर्ष त्रिद(दि)शप्रभाख्यैः सूरीश्वरैदिव्यसुगन्धचूर्णः ।
निचिक्षिपेऽस्याः शिरसि प्रहृष्टैराचाम्लचन्द्रस्य विधानहेतोः॥४२५॥ 18 सा चन्द्रलेखा स्वगुरून् प्रणम्य गत्वा निजं राजगृहं प्रमोदात् ।
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पुण्डरीक
॥१९॥
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निवेद्य पुत्रामरशेखराग्रे क्रमात् तपस्तद्विधिवञ्चकार ॥४२६॥ चरित्रम् - ( अमरशेखरो जिनेन्द्रगृहाणि प्रारम्भयामास-) स्वां मातरं वीक्ष्य तपश्चरन्नी भक्तो जनन्यां सुकृतकवीरः।
सर्ग:-५ प्रारम्भयामास नृपो जिनेन्द्र-गृहाणि सप्तत्यधिकं शतं सः ॥४२७॥ (वैशाखे प्रतिष्ठा, आश्विने च तपउद्यापनम्-) वैशाखमासे विधिना सुलग्ने ततः प्रतिष्ठाप्य जिनेन्द्रमूर्तीः ।
उद्यापनं चाश्विनपूर्णिमास्यामढौकयत् तत्तपसि प्रपूर्ण ॥४२८।। ( कार्तिचन्द्रगवेषणा-) तदा नरेन्द्रो मणिचूलवीरं पप्रच्छ किं क्वापिस कीर्तिचन्द्रः।
नमस्कृतोऽभूद् भवता मुनीन्द्रः प्रवृत्तिमेनां कथय द्रुतं मे ॥४२९॥ ? (चन्द्रप्रभायां पुरि कीर्तिचन्द्रः श्रीअभिनन्दनजिनपार्श्वे-) वीरोऽवद् देव ! मया नतोऽभूत् श्रीकीर्तिचन्द्रः स सुरेन्द्रदत्तः।
चन्द्रप्रभायां पुरि संस्थितस्य जिनस्य पाच ह्य भिनन्दनस्य ॥४३०॥ श्रुत्वेति राजा वरपुस्तकानि विलेखितानि स्वयमेव नीत्वा ।
विमानरूढः सहितो जनन्या चचाल विद्याधरनाथयुक्तः॥४३१॥ (दत्तानि यतिभ्यः श्रुरु, पुस्तकानि-) चन्द्रप्रभा सोऽथ पुरीमुपेत्य नरवा जिनं द्र.गु-अभिनन्दशम् ।
सुभक्तचित्तो विनयावनम्रो ददौ यांतभ्यः श्रुतपुरतकानि ॥४३२॥ पुत्रं निजं देव-नरेन्द्रवृन्द्रः संस्तूयमानं पुरतो निरीक्ष्य ।
सा चन्द्रलेखा जिनमेनमक्षि-युगेन पीत्वा नितरां निध्यौ ॥४३३॥ तथाहि- नमस्कृतः श्रीअभिनन्दनो यद् दत्तो यतिभ्योऽत्र च पुस्तकौघः।
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॥१९१॥
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उद्यापनं यद् रुचिरं प्रपूर्ण फलं तपःकल्पतरोस्तदेतत् ॥४३४॥ चरित्रम्. (चन्द्रलेखा केवलज्ञानं प्राप-) इत्यद्भुतं निर्मलधर्मभावाद् महासती प्रस्तसमस्तपापा।
आलोकलोकप्रविलोकदीप-दीपमं प्राप महो महोच्चम् ॥४३५॥ सर्गः-५ ततो गतां केवलिसंसदोऽन्तविलोक्य राजा जननी स्वकीयाम् ।
तीर्थकरं श्रीअभिनन्दनाख्यं पप्रच्छ माता किमिह स्थितेति ॥४३६॥ ततश्च- ( अमरशेखरो विरक्त:-) जिनस्य वाक्याभिनन्दनाय तां केवलज्ञानयुतामवेत्य ।
स राजराजोऽमरशेखरोऽथ भवे विरक्तः सचिवानुवाच ॥४३७॥ हहो! अमात्या ! मम राज्यमेतत् सोमस्य पुत्रस्य समर्पणीयम्।
अन्यस्य वा न्यायवतोऽपि कस्य, नेष्यामि यरमादथ जैनदीक्षाम् ॥४३८॥ (कीर्तिचन्द्रेण दीक्षितः-) आदेशतः श्रीअभिनन्दनस्य श्रीकीर्तिचन्द्रोऽथ गणाधिनाथः ।
वसन्तसेनेन युतं तदैव तं दीक्षयामास नराधिराजम् ॥४३९॥ राजर्षिरेषोऽच्युतधर्म एव विगाह्य सिद्धान्तपयोधिमध्यम्।
आचाम्लचन्द्रं व्रतरत्नमुच्चैश्चकार मोक्षश्रियिं संगमेच्छु: ॥४४० (वसन्तसेनोऽपि श्रमणः-) आचाम्लचन्द्रं चरतरततोऽस्य वसन्तसेनो विदधेऽथ सेवाम् ।
यतोऽन्तरङ्गं विनयाख्यमेव व्रतं हि सिद्धान्तविदो वदन्ति ॥४४१॥ ( अमरशेखरध्यानम् -- ) साधुस्ततोऽसौ निशि पूर्णिमायाम् ध्यायन् शशाङ्के जिनमर्वनेत्रः। 1 केवलज्ञानम्। २ सप्तम्यन्तमेतत् ।
४ ॥१९॥
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पुण्डरीक
॥१९२॥
सगः-५
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तस्थावतिस्वच्छमनाः स्वकायो-त्सर्गेण मायोज्झित एव रात्रौ ॥४४२॥ इतश्च- (अमरशेखरं नन्तुमाजगाम चन्द्रदेवः-) चन्द्रावतंसाख्यविमानसंस्थश्चन्द्राभिधानो ग्रहमण्डलेन्द्रः।
निजावधिज्ञानमयो पृथिव्यां प्रयोजयामास तदैव रात्रौ ॥४४॥ स चन्द्रदेवोऽमरशेखराख्यं ध्यानस्थित राजमुनि निरीक्ष्य ।।
विहाय वेगेन निजं विमान-मेनं नमस्कर्तुमिहाऽऽजगाम ॥४४४॥ जाते प्रभातेऽथ महामुनीन्द्रो ध्यानं स संपूर्य चचाल यावत् ।
चन्द्राख्यदेवो मुनिमेनमेन:-प्रणाशहेतोः प्रणनाम तावत् ॥४४५॥ नत्वा स चन्द्रो मुनिराजमूचे प्रभो ! कृतार्थोऽस्मि तवाऽद्य दृष्ट्या ।
ततः प्रसादं कुरु मे निजेन केनाऽपि धर्मण सुवाचिकेन ॥४४६॥ ऊचे मुनीन्द्रोऽमरशेखरोऽथ कार्येण केनापि मयान दृष्टिः।
क्षिप्ता सुरेन्द्र ! त्वयि किंतु कायोत्सर्गे विधियष जिनोपदिष्टः॥४४७॥ तथापि-जिनेश्वरं श्रीअभिनन्दनाख्यं नमस्कुरु स्वं कुरु भोः कृतार्थम् ।
एवं गदित्वा चलिते मुनीन्द्रे स चन्द्रदेवोऽप्यच तं वीतरागं स मुनिः प्रणम्य पप्रच्छ चन्द्रेऽत्र तदा निविष्ट।
भवत्प्रसादेन विभो! ममाद्य पभूव पूर्ण व्रतरत्नमेतत् ॥४४९॥ १ मालादिप्रहाः। २ एन:-पापम्
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॥१९२॥
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पुण्डरीक
॥१९३।।
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(भभिनन्दनं प्रति अमरशेखरस्य प्रश्नः-) ममायुरद्यापि कियत् समस्ति भव्योऽस्म्यऽभव्योऽप्यथ दरभव्यः
निगद्यतामद्य मयि प्रसद्य सद्यश्च संदेहगणं विभिन्द्धि ॥४५०॥ ( जिनस्य उत्तरम्-) जिनोऽवदत् भो ! दिवसान् दशैवा-ऽवशिष्यते ते खलु जीवितव्यम् ।
भवे द्वितीये भरतस्य मध्ये शत्रञ्जयाद्रौ भवितव मोक्षः ॥४५॥ ( अमरशेखरेण गृहीतमनशनम् - ) इत्थं निशम्याऽमरशेखरोऽयं जिनेन्द्रपादौ प्रणयात् प्रणम्य ।
जग्राह तत्राऽनशनं मुनीशोऽनीशो भवे स्थातुमघौघघोरे ॥४५२॥ विनश्वर विश्वमथो निरीक्ष्य विलोक्य मित्रं च तथा स्वभावम् ।
वसन्तसेनोऽपि जिनं प्रणम्य संन्यासविन्यासमसौ ययाचे ॥४५॥ स्वामी भाषेऽथ वसन्तसेनं महामुने! द्वादश वत्सराणि ।
व्रतं प्रपाल्य प्रथमे च कल्पे गन्तासि तद् माऽनशनं ग्रहीस्त्वम् ॥ ४५४॥ (श्रीअभिनन्दनजिनानुमत्या चन्द्रविमाने चन्द्रेण सह आरुह्य अमरशेखर-वसन्तसेनी श्रमणी तीर्थानि वन्दितुं जग्मतुः-) प्रभु प्रणम्याऽथ स चन्द्रदेवो व्यजिज्ञपन्नाथ ! मुनी इमो तत् ।
प्रस्थाप्यतां शाश्वततीर्थनाथमूर्तीः प्रणन्तुं हि मया सहाऽद्य ॥४५॥ चन्द्रोऽथ लब्ध्वाऽनुमतं जिनस्य विकृत्य शीघ्रं रुचिरं विमानम् ।
वसन्तसेना-ऽमरशेखराख्यौ विगृह्य स व्योम्नि ययौ जवेन ॥४५॥ 'मनशनम्' इति प्रकरणतो गम्यते ।
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
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( ज्योतष्क-चन्द्र-लोकगतजिनबिम्बयन्दनम्-) ज्योतिष्कलोके निखिले.ऽपि नित्य-मूनिमस्कार्य मुनीश्वरौ तौ। ततो विमाने स तु शाश्वते स्वे प्रवेशयामास शशाङ्कदेवः ॥४५७॥
सर्गः-५ निजे विमानेऽथ जिनेन्द्रमी संवन्दयामास सुरो मुनीशी।।
____ सिंहासने स्वे विनि विश्य चैतौ नत्वा पुरस्ताद् निषसाद हर्षात् ॥४५८।। पुरो निविष्टेऽथ सुरोत्तमेऽस्मिन् वाचंयमेन्द्रोऽमरशेखरोऽयम् ।
ददौ तदौचित्ययतं नितान्तं धर्मोपदेशं शुभभाववृद्धथै ॥४५९॥ तथाहि- ( मुनिभ्यां मत आभार: सुरराजस्य-) साहाय्यतस्ते सुरराज ! जैन-तीर्थानि नित्यानि नमस्कृतानि ।
ततोऽस्मदीये हृदये समाधिबभूव पुण्यैकनिधिर्भवांश्च ॥४६०॥8 यतः- सहाय्याद् यस्य सर्वो गुरुजनक-जनन्यादिवर्गोऽतिपूज्यो।
नत्वा तीर्थानि हर्षांदुरुसुकृतसुधास्वादतृप्तान्तरात्मा। प्रक्षीणानन्तपापः सविधशिवसुखो जायते विष्टपेऽस्मिन् ।
धन्योऽसौ पुण्यभागं बहमिह लभते सर्वसंघस्य तस्य ॥४६१॥ तथाच- अनया यात्रया जातः-संन्यासो निर्मलो मम ।
देहकष्टं यतः शुद्ध-भावतः स्यात् फलेग्रहि ॥४६२॥ अन्यच्च- (श्रमणयोचन्द्रेण सह सलाप:-) तथा कथय भो! देव! विमानं ते महाप्रभम् ।
उदिते च दिनाधीशे दृश्यते निष्प्रभ कथम् ? ॥४६३॥ जगाद देवो मुनिचक्रवर्तिन् ! स्यान्निष्प्रभ मे न विमानमेतत् ।
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॥१९४॥
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चरित्र
सर्ग:-५
पुण्डरीक
तेजोऽस्य शीतं रवितीव्र भासा विहन्यते हि प्रशमः क्रुधेव ॥४६४॥ यौष्माकमुनि स्थितमेतदस्ति छत्रं मदीयं सितशीतकान्ति। ॥१९५॥
___अस्य प्रभा सूर्यरुचाऽपि नैव प्रहन्यते साधुहृदि क्षमेव ॥४६५॥ छत्रं तदेतच ममाऽभियोगिदेवा भवन्मूनि विभो ! धरन्तु ।
सर्वेषु वस्तुष्वपि निस्पृहाणां युष्माकमेषा मम भक्तिरस्तु ॥४६६॥ 8 ऊचे मुनिर्देव ! मुनीश्वराणां सितातपत्रण भवेन्न कार्यम् ।
वाण्याऽनया त्वं गुरुभक्तिभाजा पुण्याधिकोऽभूरधुना सुरेन्द्रः ॥४६७॥8 ४ चन्द्रो बभाषे भगवन् ! द्वितीयभवेऽहमेतद् विमलातपत्रम् ।
प्रस्थापयिष्यामि भवच्छरीर-छायाकृते कौतुकहेतवे च ॥४६८॥ ( विमानेन वन्दित्वा तीर्थानि आगती मुनी-) इत्थं गदित्वाऽथ मुनी प्रणम्य विमानमारोप्य स चन्द्रदेवः।।
गत्वा मुदा श्रीअभिनन्दनस्य पाच विमुच्याशु पुनर्जगाम ॥४६९॥8 ( अमरशेखरजीवः अयं लक्ष्मीधरः- ) ततो निजायुः परिपाल्य शेषं समाधिना मृत्यूमवाप साधः।
बभूव चम्पेशमहेन्द्रपुत्रो लक्ष्मीधरोऽयं हि स एव जीवः ॥४७०॥ महेन्द्रभूपेऽथ दिवं प्रयाते लक्ष्मीधरःप्राप यदेष राज्यम् ।
पूर्वप्रपन्नं तु तदा स चन्द्र प्रस्थापयामास तदातपत्रम् ॥४७१॥ इतश्च- ( वसन्तसेनो देवो जातो मुचकुन्द-नाम्ना-) पवित्रचारित्ररतः क्रमेण संपूरितायुः स वसन्तसेनः ।
विपद्य सौधर्मसुरेन्द्रलोके बभूव देवो मुचकुन्दनामा ॥४७२॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
॥१९६
निगा
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(आगतो लक्ष्मीधरप्रबोधाय पूर्वमित्ररूपो मुचकुन्दः-)अथाऽन्यदाऽसौ मुचकुन्ददेवो ज्ञानादवेत्य स्वभवं पुरात्यम।
मित्रं निजं चामरशेखराख्यं बुबोध लक्ष्मीधरसंज्ञमेव ॥४७॥ स पूर्वमैत्रीवशतोऽतिमोहं बिभ्रंश्च लक्ष्मीधरभूमिनाथे ।
समेत्य चायं नृपवासमध्ये देवो निशान्ते प्रकटो बभूव ॥४७॥8 जाते निशान्ते परमेष्ठिमन्त्रं स्मरन् जजागार नृपः स यावत् ।
तावत् पुरस्थं मुचकुन्ददेवं विलोक्य नत्वाऽऽह विकस्वरास्यः ॥४७॥ ( लक्ष्मीधर-मुचकुन्दयोर्वार्तालाप:-) स्वर्गात् कुतस्त्वं ननु कोऽसि देवः कस्मादकस्मात् प्रकटो बभूव ।।
निगद्यतामद्य मयि प्रसद्य सद्यः प्रमोदाय समग्रमेतत् ॥४७६॥ देवः स ऊचेऽस्मि वसन्तसेनस्तवाऽभवं पूर्वभवे वयस्यः ।
ततो ममत्वेन पुरातनेन सौधर्मकल्पाद् जर्वतः समेतः ॥४७७॥ राजाऽवदद् देव ! वसन्तसेन-नाम्नैव हर्षाकुलितोऽस्मि गाढम् ।
_ अहो ! अहं मोहसमूहभूढ ऊहे भवं न स्वमपीह पूर्वम् ॥४७८॥ तथाऽपि कृत्वाऽद्य मयि प्रसादं निवेद्यतां पूर्वभवप्रवृत्तम् ।
भवादृशां दर्शनमत्र लोके मोघं नहि स्यादमरोत्तमानाम् ॥४७९॥ अथो बभाषे मुचकुन्ददेवो राजन् ! यदा श्रीमुनिपुण्डरीकः ।
१ पुरातनम्-पुराभवं वा । २ गृहे। ३ निशाया अन्ते-प्रभात । ४ वेगतः । ५ विचारयामासे।
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॥१९६॥
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पुण्डरीक
॥१९७||
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अष्टापदादेविमलाचलेन्द्रं गन्ता तदा ते नगरीमुपेता ॥४८०॥ ततश्च- श्रीपुण्डरीकं प्रणमस्यतस्ते नरेन्द्र ! बोधावरणीयमेतत् ।
क्षयं गमिष्यत्यखिलं समस्त-पापेन सार्धं हि भवोद्भवेन ॥४८१।। | ज्ञानान्तराये प्रलयं प्रयाते मुखेन तस्य स्वभवं नरेन्द्र ।।
लक्ष्मीधर ! त्वं शृणुया यतोऽत्र तिष्ठन्त्यपापे सुगुरूपदेशाः ॥४८२ इतीरयित्वा विरतेऽथ देवे जगाद लक्ष्मीधरभूप एषः ।
___ श्रीपुण्डरीकागमनं सुरेन्द्र ! कृत्वा प्रसादं कथयेममाग्रे ॥४८३॥ तथेति सद्यः प्रतिपद्य वाक्यं तिरोबभूवाऽथ तदा स देवः।।
लक्ष्मीधरो भावधरो नितान्तं श्रुत्वेति नित्यं यतते स्म धर्म ॥४८४॥ ततः सुरोऽयं मुचकुन्दनामा भवाद् वयस्यं निजमुद्दिधीर्षः।
विचिन्तयामास यदि प्रयामि स्वर्ग तदा विस्मरतीति कार्यम् ॥४८॥ श्रीपुण्डरीकस्तु दिने चतुर्थे भूमीमिमामेष्यति साधुयुक्तः ।
___स्थास्यामि तस्मान्नगरीवनान्तश्चारौ तरौ चम्पकनामनीह ॥४८६॥ इत्थं स्वचित्तेन विचिन्त्य देवस्तस्थावथो चम्पकशाखिशाखाम् ।
परोपकाराय यतो महान्तो दत्तावधानाः सततं भवन्ति ॥४८७॥ १ ज्ञानावरणीयम्। २ उद्वारं कर्तुमिच्छुः ।
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पुष्परीफ
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( लक्ष्मीधर-श्रीपुण्डरीकयोः समागमः-) अथो पथोऽनेन दिने चतुर्थे वयं समेता मृगवेष! देव!। चरित्रम् अस्मत्प्रणामं मुचकुन्ददेवश्चक्रे तदा संनतचम्पकेन ॥४८८॥
सर्ग:कृत्वाऽऽग्रहं गाढतरं ततोऽस्मानस्थापयद् मित्रविबोधहेतोः ।
स्थितेष्विहास्मासु स एव देवः संप्रेर्य लक्ष्मीधरमानिनाय ॥४८९॥ भो मृगवेष! तत्त्वं श्रृणु- आचाम्लचन्द्राद् मुदितः स चन्द्रश्चन्द्रातपत्रं प्रददौ तदाऽऽस्ये, किंबहुना ?
पृष्टं त्वया यद् मृगवेष! देव! सर्व तदस्माभिरिदं न्यवेदि ॥४९०॥ राजानं विलोक्य- भो! भूप! लक्ष्मीधर ! पूर्वजन्म विचिन्तय त्वं सकलं स्वकीयम् ।
इत्थं गदित्वा विरराम साधुः श्रीपुण्डरीकोऽत्यभिरामवाक्यः ॥४९१॥ ( लक्ष्मीधरस्य जातिस्मरणम-) लक्ष्मीधरः साधुवचः समग्रं विचिन्तयन्नेकमना बभूव ।
देहेऽथ म कलिते स्वजाति सस्मार स स्माररसेन हीनः ॥४९२॥ 81 इतश्च- शीघ्रं मुचकुन्ददेवो भूत्वाऽथ दृश्यः किल चम्पकः।
शीतोपचारैः प्रचुरैर्नरेन्द्रं चकार चैतन्ययुतं तदैव ॥४९३॥ अथो मुनीन्द्रं मृगवेषदेवो नत्वा बभाषे भगवन् ! जवेन ।
तं चन्द्रमाहातुमहं व्रजामि भूमीभुजे छत्रमिदं ददौ यः ॥४९४॥
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१ पुस्तके तु 'वोध' इति, स च पाठः अवस-वतंसवत् समुचितोऽपि भवेन् । २ स्मरस्य अयं स्मारो रसः-तेन हीन इति ।
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पुण्डरीक - 8 इत्थं गदित्वा मृगवेष एष तं चन्द्रमाकारयितुं जगाम ।
॥ १९९॥
४
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साधर्मिक धर्मरता महान्तः प्रवर्तयन्त्येव हि धर्ममार्गे ॥४९५ ॥ अथाऽनन्तरम् — ( लक्ष्मीधरप्रबोध: - ) मूर्छाप्रणाशात् सर्कलः स भूत्वा श्रीपुण्डरीकं यतिनं प्रणम्य । संसारवैराग्यतरङ्गितात्मा लक्ष्मीधरो भूमिपतिर्वभाषे ॥ ४९६ ॥
sarsarक्यैर्हि विभो ! पवित्रैज्ञनोज्ज्वलैर्मेऽद्य तमो निरस्तम् |
भवं ततोऽद्राक्षमहं च सम्यग् दृष्टित्वयुक्तो मुनिराज ! जातः ॥४९७॥ किं बहुना ? - श्रीजैनधर्मोच्चयशर्कराद्यं पीतं त्वदीयं वचनामृतं यत् ।
उन्मत्तभावं परिहाय विश्वं पश्यामि विश्वं च यथास्थितं तत् ॥ ४९८ ॥
वोपदेशामृत कुण्डमध्ये स्नात्वा मनो मे विमलं बभूव ।
भूयो रजःस्पर्शनिषेवणाय दीक्षाङ्गिकाङ्गीकरणात् प्रभो ! ते ॥ ४९९ ॥ एवं वचस्तस्य मुनिर्निशम्य ज्ञात्वाऽवबोधावरणस्य शान्तिम् ।
जगाद राजन् ! विनयस्थचित्तो दीक्षां नय त्वं विनेय स्वपापम् ॥ ५०० ॥ शत्रुंजयं सिद्धगिरिं युगादि - देवस्यवाक्यादधुना व्रजाम |
श्री केवलज्ञानमहोऽपि तत्र संभावनीयं शुभभावतस्ते ॥५०१ ॥
अनन्तसिद्धैः परिशुद्धमेनं गिरिं गिरा स्तोतुमलं न कोऽपि । तथापि सिद्धान्तवचोभिरेतत्-प्रभावमाकर्णय दत्तकर्णः ॥ ५०२ ॥
१ सचेतनः । २ दूरीकुरु । ३ अस्मत्पुरुष पञ्चमीबहुवचनम् ।
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चरित्रम्सर्ग: ५
॥ १९९॥
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॥२०॥
पुण्डरीक-8 तथाहि-( शत्रुजयमाहात्म्यम्-) जाइस्सं सित्तुंजे चउत्थं चिंतणाईए आसि। यास्यामि शत्रुजये चतुर्थ चिन्तनादिके आसीत् ।
संगः-५ पूओवगरणकरणुजमेण पावेइ छठफलं ॥५०३॥ पूजोपकरणकरणोद्यमेन प्राप्नोति षष्ठफलम् ॥५०३॥ पंथे वञ्चतो वि हतिगरणसुद्धो अ अटूटमं भत्तं। पथि व्रजन् अपि खलु त्रिकरणशुडिश्च अष्टम भक्तम्। मग्गे जिणबिंयाई वंदतो पावए दसमं ॥५०॥ मार्गे जिनबिम्बानि वन्दमानः प्राप्नोति दशर्मम्॥५०४॥ बंभव्वयं धरंतो एगासी बिविहभावणमईओ। ब्रह्मव्रतं धरन् एकाशी विविधभावनामयः । कमसो दुवालसं पक्खक्खमणमेगग्गचित्तोय ॥५०॥ क्रमशो द्वादशं पक्षक्षमणमेकाग्रचित्तश्च ॥५०५॥ पवयदंसणपूयणकरणे य मासियं हरिसवसओ। पर्वतदर्शनपूजनकरणे च मासिकं हर्षवशतः। तलजागरणे पामह छम्मासियं चाउजामेण ॥५०६॥ तलजागरणे प्राप्नोति षण्मासिकंचतुर्यामेन ॥५०६॥ जो वंदिज्जइ सत्तुंजं पन्नरसि-ऽट्ठमि-चउद्दसीसुं च । यो वन्दते शत्रुजयं पञ्चदशी अष्टमी-चतुर्दशीषु च।। दुन्नि वि पक्खाण फलं सो होइ परत्तसंसारी॥५०७॥ द्वयोरपि पक्षयोः फैलं स भवति परीत्तसंसारी ॥२०७४ दारिदं दोहग्गं कुमरणदासत्त-मरण-रोगाई। दारियं दौर्भाग्यं कुमरणदा-सत्व-मरण-रोगाः। सित्तंजरायस्स बिंबाण टूठावणेपूयणेन ह हवंति॥५०८॥ शत्रुजयराजस्य बिम्बानां स्थापने पूजने न खलु भवन्ति सट्ठाणे वि विदेसे सित्तुंजे वंदिए पसमरसमाए। खस्थानेऽपि विदेशे शत्रुजये वन्दिते प्रशमरसमये। 8
१ एकमुपवासम् । २ उपवासद्वयम् । ३ उपचासत्रयम् । ४ उपवासचतुष्टयम् । ५ एकवार भोजनकारकः । ६ उपवासपञ्चकम् । ७ पूर्णिमा-पुस्तके तु 10 पनर सिद्देमि' इंति पाठः ८ 'प्राप्नोति' इति शेषः ।
॥२०॥
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४
-8 सो विहु जत्ताइफलं दिठे य अदिठए लहइ ॥२०९॥ सोऽपि खलु यात्रादिफलं दृष्टे चादृष्टे लभते ॥५०९॥ चरित्रम्. संसारवासं परिहत्य तस्माद गृहाण दीक्षां कुरु मोक्षवीक्षाम् ।। निधेहि तत्त्वे हृदयं स्वकीयं भो ! दुर्गतिद्वारमथो पिधेहि ॥५१०॥
सर्गः-५ 8 माहात्म्यमित्थं विमलाचलस्य साधुर्गदित्वा विरराम यावत् ।
- तावत् स देवा मृगवेष एव चन्द्रेण तेनैव सहाऽऽजगाम ॥५११॥ (चन्द्रो देव:-) श्रीपुण्डरीकं यतिनं प्रणम्य चन्द्रो बभाषे बहुभक्तियुक्तः ।
तवां हियुग्मं प्रणतं मया यत् ततो मदीयं महदय भाग्यम् ॥५१२।। पतः- हृदा तदा चञ्चुरित सुमार्गे पुण्यद्रुमैः पम्फुलितं तदाऽऽयः।।
__ भवेत् तदाऽऽसार्सेदितैव मुक्तिर्यदा मुदा ननमितः सुसाघुः ॥५१३॥ तथाच- अद्य प्रभो! जागरितं हि भाग्यरद्यैव नृतं सकलैर्गुणौघैः ।
अद्यैव देहं समभूत् सवर्ग ममात्मनस्त्वीदृशपुण्यदानात् ॥१४॥ अत्र प्रस्तावे-(लक्ष्मीधरप्रवज्या-) लक्ष्मीधरः सोऽथ मुनिं बभाषे प्रभो ! व्यवस्थाप्य समग्रराज्यम् ।
दीक्षा ग्रहीतुं पुनरागमिष्ये विलम्ब्यतां तावदिहैव पूज्यः ॥१५॥ उक्त्वेति वाक्यं नृपतिः स चम्पां गतोऽप्रकम्पान्तरवृत्तिरेव ।
व्रतोत्सवं चाऽस्य विधातुकामौ सहेर्यतुस्तौ मुचकुन्द-चन्द्रौ ॥५१६॥ मोक्षदर्शिनीम् । २-३-४-५ चर-फल-सद-नमधातूनां यदन्तानां रूपाणि । ५ ईयतुः ।
18॥२०१॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
॥२०२॥
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लक्ष्मीधरोऽयनृपति : स्वराज्ये सहस्रमल्ल सुतमभ्यषिश्चत् । ततो व्रतस्नानकृतेऽधितष्ठौ स मण्डपान्तः शुचिहेमपट्टम् ॥५१७॥
सर्गःअशीतिलक्षाः प्रमिताः प्रवृडाः स्थानेषु संस्थाप्य निजेषु पुत्रान् ।
वैराग्यवन्तो वरमण्डलेशाः स्नानाय पट्टेष्वथ तत्र तस्थुः ॥१८॥ क्षीराम्बुधेर घुभिरात्मदेव-देवीयुतौ तौ मुचकुन्द-चन्द्रौ ।
लक्ष्मीधरस्याऽखिलमण्डपेशैः सहाऽभिषेकं विधिना व्यधत्ताम् ॥५१९॥ ततः स राजा गजराजरूढः प्रौढाश्वसंस्थैरितरैस्तु सर्वैः ।
___ वृतो व्रताय प्रचचाल दिव्यैर्वस्त्रः सुवर्णाभरणमनोज्ञः ॥२०॥ देवौ तदा तो मुचकुन्द-चन्द्रौ लक्ष्मीधरे प्रीतिभरं धरन्तौ ।
___दिव्यानि रूपाणि बहूनि कृत्वा विचक्रतुः प्रेक्षणकानि तत्र ॥२१॥ इतश्च- प्रभावनार्थ मृगवेषदेवश्चकार चारुं गुरुमण्डपं सः।
मध्येऽस्य च श्रीऋषभस्य मूर्ति- चतुष्टयं पुष्टमनाः सुवर्णैः ॥५२२॥ सिंहासनं पूर्वदिशो विभागे स्थालं प्रपूर्ण च सुगन्धचूर्णैः।
तदा प्रचक्रे मृगवेधदेवः श्रीपुण्डरीको निषसाद तत्र ॥२३॥ अथ- लक्ष्मीधरोऽशीतिसुलक्षसंख्यरतमण्डलेशैः सह मण्डपाग्रे । १ नाटकानि ।
४ ॥२०॥
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पुण्डरीक
॥२०३॥
४
८
१२
समेत्य हर्षादध चन्द्रदेवं जगाद भोः ! छत्रमिदं नय त्वम् ॥ ५२४ ॥
जातीस मण्डलेशैर्युतः प्रणम्य प्रणयेण सम्यक् ।
प्रयच्छ दीक्षां भगवन् ! ममेति व्यजिज्ञपत् तं मुनिपुण्डरीकम् ॥ ५२५॥ ततश्च - युगादितीर्थंकर नाममिश्रं गीतं भणन्तीषु वरामरीषु ।
श्रीजैनदीक्षां विधिना नृपस्य देहे सुमन्त्रैनिंदधे मुनीन्द्रः ॥ ५२६ ॥
लक्ष्मीधरे राजमुनौ पुरस्थे दृष्टे निविष्टे च सभाजनेऽस्मिन् । सद्देशनां धर्मनिवेशनाय प्रोवाच वाचंयमराजराजः ॥ ५२७॥ तथा हिजातस्तोत्रमिदं हि गोत्रमखिलं धन्या जनिस्तेऽजनि बुद्धिः शुद्धिमियाय पापपटलं प्र.प क्षयं तेऽखिलम् । संसारोऽपससार सारसुकृताऽऽसारेण संप्रेरितो हे साराधिक! यज्जिनेन्द्रदुहिता दीक्षा भवन्तं श्रिता ॥ २२८ ॥ यतः - ( प्रवज्या माहात्म्यम् - )
उक्ari दव्वत्थर्य आराहइ जाव अच्चुयं कप्पं । उत्कृष्टं द्रव्यरतवमाराधयति यावदच्युतं कल्पम् । भावत्थण पामइ अंतमुहुतेण निव्वाणं ॥ ५२९ भावरतवेन प्राप्नोति अन्तर्मुहूर्तेन निर्वाणम् ॥५२९॥ एगदिवसं पि जीवो पव्वज्जमुवागओ अनन्नमणो | एकदिवसमपि जीवः प्रव्रज्यामुपागतोऽनः यमनाः । जइ विन पामइ मोक्खं अवस्सवेमाणिओ होइ ॥ ५३० यद्यपि न प्राप्नोति मोक्षमवश्यवैमानिको भवति ॥ ५३० विशेषतोऽपि ते धन्याः भोगान् भूयोऽनुभूय ये । अन्तेऽपि तोषितात्मानस्त्यजन्ति क्रुद्ध भोगिवत् ॥ ५३१ ॥
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चरित्रम्
सर्गः - ५
॥२०३॥
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(किं पुनस्तेषां ये बाल्येऽपि त्यजन्ति इति भावः ) उक्त्वेति वाक्यं विरते मुनीन्द्रे स चन्द्रदेवो न्यगदत प्रणम्य । चरित्रम्.
प्रभो ! भवन्मूनि सितातपत्रं विधृत्य तापं पथि वारयामि ॥५३२॥ मुनिर्वभाषे शृणु चन्द्रदेव छन्त्रण कार्य नहि किश्चिदस्ति ।
यता यतीनां समतामतीनां छाया-ऽऽतपो नो सुख-दुखःहेतू ।।२३३॥ इत्थं प्रभुश्रीगुरुपुण्डरीकः श्रीचन्द्रदेवेन महार्ह भक्त्या।
छत्रंतदा मूर्धनि धार्यमाणं निषेधयामास विवेकविज्ञः ॥५३४॥8 (अन्यदेशे प्रविचचार पुण्डरीक:-) साधुज्ञानाम्बुसेकप्रसूतिमतिलतासूतिवाक्यप्रसूनैः संवास्याऽशेषवास्यानमर-नरवरान् प्रस्फुरद्बोधगन्धैः । वाञ्छन्नन्यत्र देशे प्रविचरणमसौ पुण्डरीको गणेशो भूमावालोक्य वामे-तरचरणमथो सिंहपीठान्यधत्त॥२३॥ गणाधीशं तत्र स्वगुरुमुरुबोधपदममुं विहाराय प्रोद्यन्मनसमवगम्य द्रुतमतः ।
बभूव श्रीशत्रुजयविमलयात्रोद्यतमना विनेयानां वर्गों विनय गुणकर्पूरकलशः ॥२३६४ (पञ्चमः सर्ग:-) श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुषङ्गं त्यजन् यो जाड्यस्थितिरप्य भूत् प्रतिदिन प्राप्ताद्भुतप्रातिभः। 8 तेन श्रीकमलप्रमेण रचिते श्रीपुण्डरीकाभोः श्रीशजयदीपकस्य चरिते सगोऽभवत् पञ्चमः॥२३७॥ ॥ इति श्रीरत्नप्रभसूरिशिष्याचार्यश्रीकमलप्रभविरचिते पुण्डरीकचरिते
श्रीलक्ष्मीधरमतियोघवर्णनो नाम पञ्चमः सर्गः॥
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१ उहर्विशाल: ।
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पुण्डरीक
॥२०५॥
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१२
षष्ठः सर्गः ।
( श्रीपुण्डरीको गजपुरं ययो— ) श्रीपुण्डरीको राजर्षिर्हर्षितैस्तैर्महर्षिभिः । समन्विन सुरैस्तैश्च विजहार विभुर्भुवम् ॥ १ ॥ श्रुतक्रमेण संक्रामन् क्रमाभ्यां क्रमतो मुनिः । ययोः गजपुरं देवैः सहितः सहितोऽङ्गिषु ॥२॥ इतश्च (सोमयशा नृपः — ) श्रीबाहुबलिनः पुत्रस्तत्र सोमयशा नृपः । ससैन्योऽत्र तदा राज-पाटीमाटीकते स्म सः ॥ पञ्चलक्षमितैर्देव - विमानैः व्योमनि स्थितैः । मुनिमायान्तमज्ञासीत् पुण्डरीकं स भूपतिः ॥ ४ ॥ ततः सोमयशा भूपश्चित्ते चिन्तितवानिति । अहो ! अंहोऽखिलं क्षीणमहो ! मेऽद्य महोदयः ॥ ५ ॥ यतः - पद्मिन्यो राजहंसाश्च जीताः सुतपस्विनः । यं देशमनुगच्छन्ति स देशः श्रियमश्नुते ॥६॥ पुत्रं श्रीभरतेशस्य गणेशमृषभेशितुः । यान्तं सिद्धगिरिं श्रीमत्पुण्डरीकं नमामि यत् ॥७॥
( प्रतीहारः सत्यसारः–) इत्थं सोमयशा राजा हृदा ध्यात्वा मुदा तदा । सत्यसारं प्रतिहारं प्रोचे प्रोत्सुकया गिरा । ( विजयसेनो मण्डलेशः, गुणारामः श्वा - )
हो विजयसेनाख्यं मण्डलेशं ममाऽधुना । गुणारामाभिधश्वान-युक्तमाकारय द्रुतम् ॥९॥ तथाऽयं सत्यसारोऽपि नीत्वा देशं नृपस्य तम् । गत्वा विजयसेनाख्यं मण्डलेश्वरमाहृत ॥ १०॥ ततो विजयसेनोऽयं स्वेन श्वानेन संयुतः । समागत्य ननामाऽऽशु श्रीसोमयशसं नृपम् ॥ ११ ॥ नृपो विजयसेनं तं प्रोचे भोः ! त्वरितं चल । यथा श्रीपुण्डरीकाग्रे स्वरूपं कथ्यते शुनः ॥ १२ ॥
१ अंहः पापम् । २ मेघाः । ३ गणधरम् ।
चरित्रम्
सर्गः - ६
॥२०५॥
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पुण्डरीक-8 इत्युक्त्वा स नृपः सर्व-सैन्ययुक्तोऽचलत् ततः । मार्गे यान्तं तदा श्रीमत्पुण्डरीकमथाऽनमत् ॥१३॥ तदाच - किङ्किणीकलकण्ठः सोऽकुण्ठनूपुरयुक्पदः । सारमेयो' गुणा रामोऽप्यमेयविनयोऽसतु ॥ १४॥ ततश्च - सुराश्च साधवः सर्वे तिर्यञ्च विनयाञ्चितम् । सारमेयं समालोक्य चमचक्रुश्चिरं हृदि ॥ १५ ॥ अहो विनयस्य महिमा -
॥२०६ ॥
नीरं निर्मलशीतलं कटुतरं स्यादेव निम्बादिषु दुग्धं सर्पमुखादिषु स्थितमहो जायेत तीव्रं विषम् । gratory संगतं श्रुतमपि प्राप्नोत्यकीर्ति परां धन्योऽयं विनयं कुपात्रमपि यः संभूषयेन्नित्यशः ॥१६॥ तथाच - विणओ आवहह सिरिं विनय आवहति श्रियम्
लभते विनीतो यशश्व कीर्ति च ।
लहर विणीओ जसं च कित्तिं च । न कयाह दुब्विणीओ
सकसिद्धिं समाणेह ॥ १७ ॥
४
८
१२
न कदाचिद् दुर्विनीतः स्वकार्यसिद्धिं समापयति ॥ १७ ॥
ततः सोमयशाः साधुं नत्वोवाच कृताञ्जलिः । सगुरो ! गुरुसंदेहभिदे तिष्ठ मुदेत्र मे || १८ || निर्बन्धोऽपि मुनिर्भर्निबन्ध प्रेक्ष्य भूपतेः । किञ्चिद् ज्ञानेन च ज्ञात्वा तत्र स्थातुं मनोऽकरोत् ॥ १९ ॥ मुनेर्मनोऽथ विज्ञाय भक्तिसंभृतमानसः । चक्रे हरिणवेवोऽयं रत्नशालां सविष्टराम् ॥२०॥ (अभाषिष्ट पुण्डरीकः) ततः श्रीपुण्डरीकोऽसौ निषसाद प्रसादद्वान् । ततोऽभाषिष्ट राजानं श्रीसोमयशसं मुनिः भोः ! श्रीसोमयशोराजन् ! संशयो यस्तवाऽऽशये । तं निवेदय वेगेन यथाऽऽशु कथयाम्यथ ॥ २२ ॥
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१ सारमेयः शुनकः । २ बन्धरहितः केनचिद् रोद्धुम् अशक्यः । ३ आग्रहम् । ४ आसनसहिताम् ।
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चरित्रम. सर्गः ६
॥२०६॥
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8 परित्रम् ४ सर्गः-६
पुण्डरीक- ततो विजयसेनं तं श्वानवृत्तविशारदम् । राजा संकेतयामास मुनिविज्ञप्तिकाकृते ॥२३॥
ह अथो विजयसेनोऽयं मुनिं नत्वाऽवद् वचः । प्रभो ! प्रथममस्यैव स्वरूपं श्रूयतां शुनः ॥२४॥ ताहि ॥२०७॥ 18 ( गुणारामशुनकवृत्तान्तम्-)
श्रीसोमयशसो राज्ञः सेवायै गच्छतः पथि । सारमेयममुं दृष्ट्वा मनो मोहमुवाह मे ॥२५॥ ततो मया ममत्वेन श्वानोऽयं जगृहे गृहे । भोजितो भोजनैः सारभूषितो भूषणैस्तथा ॥२६॥ किं बहना? क्षणं स्थातुं न शक्नोमि श्वानमेनं विना विभो ।तदाप्रभृत्यतोऽनेन सार्ध तिष्ठामि मामि अहं युगादिदेवस्य प्रासादेऽगममन्यदा । तदा स्वामिन् ! अयं श्वानोऽप्याजगाम समं मया ॥२८॥ अहं गर्भगृहे यावदादिदेवस्य पूजनम् । अकार्ष हर्षतस्तावत् श्वानोऽयं तस्थिवान् बहिः ॥२९॥ ततः पौषधशालायां गुरून यावन्नमाम्यहम् । तावत् प्रथममेव श्वा नमश्चक्रे तथाविधिः ॥३०॥ ईदृग्विनयतुष्टेन हर्षोत्कर्षवशाद् मया। गुणाराम इति ख्यातिः श्वानस्यास्य तदा ददे ॥३१॥
बहना?-सद्धर्मकर्ममर्माणि जानाति सकलान्यसौ। तिर्यग्योनिस्थितो ज्ञानी त्वयं मे विस्मयो.दि अतः- ( गुणारामशुनक विषये प्रदन:-- ) कथं मेऽस्योपरि स्नेहो ज्ञानी श्वानोऽप्यसौ कथम् । कारणं कथ्यतामेतत् संदेहाम्भोधितारणम ॥१३॥ ततो विजयसेनस्य पृच्छामाकर्ण्य सुनिर्मलाम् । प्रभुः श्रीपुण्डरीकोऽयं जगाद गर्दतां वरः ॥३४॥ हंहो विजयसेन ! त्वं स्वकीयाशयसंशयम् । पृष्टवानसि तद्युक्तं गुरूणां लाभ एष हि ॥३॥
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१ भाषायाम्-गभारो २ वक्तृणाम् ।
॥२०७॥
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पुण्डरीक
कुजातिं च मुजातिं च ज्ञाना-ऽज्ञाने सुखा-ऽसुखे। जन्तुर्लभेत भोः ! पूर्व-भवसंभवकर्मणा ॥३६॥ चरित्रम्.
(विजयसेन-गुणारामयोः पूर्वभवः-) ॥२०८॥
सर्गः-६ ततोऽद्य सर्वसंदेह-संमोहापोहहेतवे । आत्मीयं शौवनं चैव शृणु पूर्वममुं भवम् ॥३७॥ तथाहि- (काञ्चनपुरम्-) जम्बूद्वीपाभिधद्वीरे विदेहक्षेत्रमध्यतः । श्रीकाञ्चनपुरं.नाम विद्यते स्वःपुरोपमम् ॥ (भीमसिंहो नृपः-- ) भीमः सिंह इव प्रोद्यदरिवारेंणदारणे । भीमसिंहाभिवस्तत्र पाति भूमिपतिः प्रजाः॥३९॥ 21 (पद्मा राशी- ) सदा स्मितेन वक्त्रेण चरित्रेणाऽचलेन च। द्विधाऽपि जितनाऽस्ति पत्नी पद्माभिधाऽस्य तु॥ 8| , अन्यदा सा निशाशेषेऽपश्यत् पल्यङ्कसंगता । स्वप्नान्तःप्रसरद्भानु भानुं भुवन भासितम् ॥४१॥
शीघ्रं स्वप्नममुं लब्ध्वा वुड्वा बुद्धावथ स्थिरम् । संस्थाप्य पद्माराज्ञीयं राज्ञे तस्मै व्यजिज्ञपत् ॥४२॥ १ राजा देवीमथाऽयादीद् देवीकुस्वप्नतस्तव । सुतोऽद्भुतौजसा युक्तो भविता भूरिभाग्यभाक ॥४३॥
इति स्वप्नफलं श्रुत्वा निजभर्तृमुखादसौ। पद्मा प्रमोदसद्माऽथ ययौ राजगृहं रयात् ॥४४॥ ( असूत पद्मा सुतम्-- ) कतिचिद् दिवसान हर्षादतिवाह्य महासती । संपूर्णसमयेऽसूत तनुं साऽनूनतेजसम्॥ ४ ( भुवनभानु:-) पूर्वस्वप्नानुसारेण तस्य पुत्रस्य भूपतिः । भुवनभानुरिति ख्यातिमाख्याति स्म सविस्मयः ॥ इतश्च- यथा सुवाचिनि स्नेहः संतोषिणि यथा सुखम् । यथा स्वाचारिणि तेजस्तत्राऽसौ ववृधे तथा॥ ४ ( उपाध्यायो ज्ञानानन्दः-) सुतं भुवनभानु तं भीमसिंहोऽथ भूमिपः । ज्ञानानन्दाख्यविदुषः पार्श्वे पाठकृतेऽमुचत् ॥ ४
1 अपोहो-दूरीकरणम् । २ शुनः संबन्धि । ३ स्व:- स्वर्गः । ४ वारणो-हस्ती। ५ पद्मम्-पद्मा । ६ भानु:-किरणः । ७ हे देवि!। ८ भविष्य ते ।
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મુળ પાનું ૨૦૭
ભાષાંતર 'પાનું ૨૮૫
કિ
પુ ડરીકસ્વામી ગુરુજપુર નગરમાં પધાર્યા તે વખતે સામયશારા પાનાના મંડળીક રાજા વિજયસેન તથા ગુણારામસ્થાનની રાયે વદન કરવા આવ્યા.. વિજયસેન રાજા કુતરાનું વૃત્તાંત કહી તેના ધમાપણાને પ્રશ્ન કરે છે.
તા. દર
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पुण्डरीक
॥ २०९॥
४
१२.
1
ततश्च - साहित्येषु स सौहित्यं वैचक्षण्यं च लक्षणे । गेयेऽमेयमर्ति प्राप लोस्येनास्वतां क्रमात् । इतश्च - शृङ्गाररसभृङ्गारं कलालोकोकिलं वनम् । सुतं नृपः स तं प्रेक्ष्य ज्ञानानन्दमधाऽवदत् ॥ ९० ॥ भोः कलाचार्य ! पुत्रोऽयं सकलासु कलास्वपि । त्वया विशारदश्चक्रेऽधुना युद्धे कुरु द्रुतम् ॥ ५१ ॥ विनयो हि विनेयानां त्रपा स्त्रीणां शमो मुनेः । युद्धं क्षत्रियपुत्राणां विभूषणमसंभृतम् ॥५२॥ उक्त्वेति नृपतिर्ज्ञाना-नन्दाख्यं तं कलागुरुम् । वस्त्राऽलंकृतिदानेन संमान्याऽय विसृष्टवान् ॥ २३ ॥ ज्ञानानन्दकलाचार्यो नृपोक्तं मनसा स्मरन् । छात्रं भुवनभानुं तं शस्त्रश्रममचीकरत् ॥ ५४॥ शब्दवेधी सूक्ष्मवेधी शीघ्रसंवानवानसी । दृढमहारी धैर्यायो धनुर्युडे क्रमादभूत् ॥२२॥ ( खङ्गादियुद्वानि – ) खड्गयुद्ध - गदायुद्ध - मल्लयुद्धादिकान्यसौ । ज्ञात्वा भुवनभानुस्तं गुरुं नत्वा व्यजिज्ञपन् ॥ ( राघवेधाभ्यासः - ) भवत्प्रसादादासादि सादियुद्धादिकक्रमः । राघवेधभमज्ञाने संभ्रनो मे गुरो ! महान् ॥ ज्ञानानन्दस्ततः क्षत्र-पुत्रपश्चशतीवृतः । ययौ पुरबहिर्भूमिं युक्तो भुवनभानुना ॥ २८ ॥ क्षत्रपुत्रान् ततः सर्वान् श्रेण्या संस्थाप्य सोऽब्रवीत् । हो ! राजसुताः सर्वे शृग्वन्तु वचनं मम ॥६९ । अग्रतः - चारों चूततरी वामपक्षशाखामवस्थितः । चाषपक्षी दृशोर्लक्षी-क्रियतां भूपसुनवः ! ॥३०॥ तथा, पक्षिणोऽस्यैव भो ! दक्षा ! दक्षिणेतरचक्षुबि । समाश्रित्यैकतानत्वं लक्षं बध्नीत निश्चलम् ॥ ६१ ॥ इत्याकर्ण्य वचश्चारु ज्ञानानन्दकलागुरोः । प्रमाणं युष्मदादेश एव ते क्षत्रिया जगुः ॥६२॥ ज्ञानानन्दः पुनः प्रोचे भो ! भोः ! क्षत्रियसूनवः ! चूतं शाखां खगं चापं चक्षुरस्य च पश्यत ॥ ६३ ॥
१ लास्यं नान्यशास्त्रम् । २ आन्नस्यरहितताम् । ३ भृङ्गारः कलशः ४ आसादि प्राप्तः । ५ सादी अश्वारोही ।
चरित्रम्सर्गः ६
५२०९ ।।
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प्रष्टसी
॥२१०॥
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अथैते प्रोचिरे'स्वामिन् ! रुचिरेणाऽखिलं वयम् । पश्यामो व्यक्तिसंयुक्तमेतत् युष्मत्प्रभावतः॥३४॥
परिम अथो भुवनभानें सोऽपृच्छत् किं त्वं च पृच्छ (पश्य)सि। ऊचेऽयं चाषचक्षुः तत् पश्याम्यन्यन्न किंचन ॥६५॥)
५॥ सर्गःज्ञानानन्दः कुमारस्य पृष्ठौ दत्वा करं जगौ। सिद्धो भुवनभानो ! भो! राधावेधविधिस्तव ॥३६॥ वृक्षावालम्बनैरन्यैः स्खलितं नो मनो मनाक । सेधति स्म ततो राधावेधः सन्मेधसस्तव ॥३७॥ यतः- धर्मे दया दानविधौ च धैर्य सृष्टौ जलं लोभभरस्त्वपाये।
शारत्रेषु मूलं भुवि मातृका स्यादेकाग्रतैवाऽखिलकार्यसिद्धेः ॥६८॥ जानीत क्षत्रियास्तस्माद् भवेऽमुत्र परत्र वा । सर्वदा सर्वदामेनां स्थिरामेकमनरकताम् ॥१९॥ ज्ञानानन्दरततोऽशेषक्षत्रपुत्र युतस्तदा । श्रीभीमसिंहभूपस्य हर्षदः पर्षदं ययौ ॥७०।। तत्र च-सन्मान्याऽऽसनदानेन भूपः प्राह कलागुरुम् । हंहो ! प्रबुहवुष्टिः किं युद्धे जातः सुतो ममः ॥७॥? ज्ञानानन्दोऽथ सानन्दो जगाद जगतीपतिम् । राजन्नजनि दक्षस्ते तनयो विनयोच्चयात् ॥७२॥ किं बहना? सकलकलापरिकलितो लावण्यपुण्यलीलाभिः । गुणगणमणिनिधिरेष प्रसन्नवेषः मतो जातः॥ ( ज्ञानानन्द गुरुसत्कार:-) अथोचे पृथिवीनाथो ज्ञानानन्दं कलागुरुम् । दानं त्वदानन्दकरं मुदाऽनन्तं ददेऽय किम् । यतः- जन्मप्रदाने शरणप्रदात्रे कलाप्रदात्रेऽतिधनं वितीर्य ।
नरोऽनृणीयन्नुपयाति हास्यं तुषान् प्रदायव गृहीतरत्नः ॥७॥ तथापि, कृतोपकाराय नराय लोकैः स्वस्यानुमानेन सदोपकार्यम् । १ भाषायाम्-पीठ । २ सर्वदात्रीम् । ३ ऋणरहितो भवन
॥२१॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
॥२१॥
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संप्रीणतः किं वसुधां सुधाभिन मुच्यतेऽग्रे शशिनो दृशोऽन्तः ॥७॥ ततो मम हदानन्दकृते वद विदां वर!। मत्पुत्रशास्त्रदात्रे किं ददे तुभ्यं मनीषितम् ॥७७॥
सग:-६ अथ प्राह विहस्यैष गुरुहर्षात् कलागुरुः । भूमीश ! तव सन्मानमेव लब्धं मनीषितम् ॥७८॥ किन्तु, छात्रं भुवनभानु स्वं पात्रं सद्गुणसंपदः । प्रार्थयिष्येऽधुनाभीष्टं न तु त्वां पृथिवीपते ! ॥७९॥ रसनाथसुतो भक्तिरसेनाऽथ कलागुरुम् । प्रणभ्य प्राञ्जलि: प्रोचे हर्षोत्फुल्ल मुखाम्बुजः ॥८॥ अप्राप्यं स्वर्ण-रत्नाद्य-रर्थमर्पयतां भुवि । भवाशां पुरः किं किं दानं संढौकयेजनः ॥८॥
(ज्ञानानन्द-दत्ता शिक्षा-) तथापि प्रार्थ्यतां किञ्चिद मम जन्म कृतार्थ्यताम् । अथ प्रोचे कलाचार्यों राजपुत्र ! वचः शृणु ॥८२॥ नैपुण्यं पुण्यतः पाप्यं सकलासु कलास्वपि । अतः सुकृतिना भाव्यं कृतिनाऽपि सदा त्वया ॥८३॥ यतः- चन्दनं हि घनसारपरागात् स्यात् सुगन्धकलितं लशुनान्न ।
इत्थमत्र सुकृताभिनन्या पापतो न तु कला विमलाऽपि ॥८४॥ अन्यच्च- यः कलालिकलितः सकलोऽपि स्यात् कलङ्ककलुषः किल चित्ते ।
तस्य शीतलरुचेरपि तेजो हीयते हि शशिवद् भुवने ही ॥८५॥ यतः- धमिण जनक स्वीयं गुरुं संस्मरता च माम् । इच्छता चाऽऽत्मनः कीर्ति धर्म कार्यस्त्वयोद्यमः ॥ श्रीसर्वज्ञस्त्वया पूज्यः त्रिकालं च त्रिशुद्धितः। परोपकारे पुण्ये च यतितव्यमहर्निशम् ॥८७॥ स्वामेतत् प्रार्थये धीमन् ! नान्यत् किश्चित् पुनः पुनः । इत्थमेव भवेत् कीर्तिः कलायास्तव मेऽपि हि ॥१ १ षणयन्तम्-शशिविशेषणम् ।
॥२११॥
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चरित्रम्
पुण्डरीक- इत्थं कलाचार्यवचः शुचि श्रुत्वा नृपाङ्गजः। नत्वा जगाद सुगुरो ! करिव्येऽहमिदं ध्रुवम् ॥८९॥
6 अथ- अनुकुलो दुकूलानि भूपस्तम्मै कलाविदे। ददो तदौचित्ययुतो गुणिगौरवहेतुवित् ॥९॥ ॥२१२॥
एवं श्रीभीमसेनेन भूभुजा सत्कृतः कृती । ज्ञानानन्दः कलाचार्यो निजं धाम जग.म सः ॥९॥ अथाऽन्यदा कृतस्नानः संवीतशुचिचीवरः। गृहदेवगृहे देव-पूजायै नृपसूर्ययौ ॥ ९२॥ ( दिव्या पत्रिका- ) उत्तारयन् स निर्माल्यं कुमारो निजपाणिना। जिनेन्द्र मूर्तिहस्तस्थामपश्यद् दिव्धपत्रिकाम् ।। स्वर्णवर्णावलीरम्यां पत्रिका नृपनन्दनः । नीत्वेत्थं वाचयामास विस्मयावासमानसः ॥९४। तथाहि- योऽत्र दुःख-सुखपूरगतोऽपि स्वीयसत्वतरणी न विमुञ्चेत् ।
गर्व-दैन्यजलधिद्वयमध्ये नो पतेत् स गतपातकभारः ॥९५५ अन्यच्च- पूर्वकर्मयशतः सुखिनः स्युर्दुःखिनश्च भुवने भविनोऽमी।
पीधीभिरिति तत्वमवेत्य सत्वमेव सततं करणीयम ॥९॥ इत्थं दिव्यंमिदं पत्रं वाचं वाचं स भूपभूः। स स्वान्तं स्नपयामास प्रमोदक्षीरनीरधौ ॥९७॥
ततः श्रीवीतरागस्य पूजां कृत्वा नृपाङ्गजः | काव्यद्वयं स्मरन्नेष चक्र तद्दिननिर्गमम् ॥९८॥ 8 विधाय सायमप्येष कुमारो जिनपूजनम् । याते यामेऽङ्गसौख्येन शय्यायां स्वापमाप सः॥२९॥
( भुवनभानुर्विरूपां नारीमैक्षत-) ततो यावजजागार कुमार: म्फारसत्ववान् । तावत् पुरो विरूपाक्रीमेको नारीमक्षत ॥१०॥ १ परिहितम्। २ चित्तम् ।
॥२१२॥
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सर्गः-६
पुण्डरीक
वक्रतक्रां च वक्रास्यां रौद्राक्षीं भीषणोदरीम् । लम्बोष्ठी लम्बदन्तां तां स विलोक्य विसिष्मिये॥ ॥२१३।।
अथ प्रोचे कुमारं सा घोरघर्घरनिःस्वना । भो ! जातेऽपि निशाशेषे सखे ! जागर्षि वा कथम् ? ॥१०२॥8 कुमारः प्राह निद्रा नो विशेषात् तव दर्शने । किन्तु मे कथ्यतां का त्वं मूढेऽप्यत्र किमागमः ॥१०॥ सह सा प्राह हास्येन सहसा भूपतेः सुतम् । अलक्ष्मी नाम देवीं'मा विद्धि लक्ष्म्या हि वैरिणीम् ॥१०४॥ पुण्यं पापं च बन्धाय भवेऽस्मिन् भविनां भवेत् । अथो तबन्धविच्छित्त्यै लक्ष्म्य- लक्ष्म्यो विधिय॑धात् ॥१०॥ अहं पुनरधिका । यतःउपार्जयन्ति यत् पापं लक्ष्मीसंगेन ये नराः। तस्य प्रक्षालनायाऽहं तान् सेवे कृपयाऽन्विता ॥१०६॥ अधुना तु-तव देहेऽवताराय समायाताऽस्मि सांप्रतम् । यदि त्वं वद तद्यामि समेष्यामि तु बाधके । तस्यां जोषमुपेयुष्यामेवं प्राह नृपाङ्गजः। इदानीमेव हे देवि ! देहे मेऽवतर स्वर ॥१०८॥ उक्त्वा यावदिदं वाक्यं कुमारो विरराम सः। छायावत् तावदस्याने दृढावेशा विवेश सा ॥१०९।। (भुवनभानुर्दुःस्थः ) तदा विचिन्तयामास नृपजो निजचेतसा । वेदनीयोदयादय मामलक्ष्मीः समाश्रयत् ॥११०॥8 ४ (भुवनभानो: प्रवास:--) तस्या उपभोगाय यामि देशान्तरं ततः । कुटुम्ब मदभाग्येन दुःखं मा लभतां परम् ॥१११॥ 8 यतः- बन्धुभिः सह सुखं परिभोग्यं नैव दाखमिति सज्जनमार्गः।
स्यानिशि ग्रहपतिर्ग्रहयुक्तो नाऽतेजसि न रुद्रजटासु ॥११२॥ 8 8 चिन्तयित्वेति जैनेन्द्रमूर्ति नीत्वाऽऽत्मना समम् । सत्वरं सत्त्वरङ्गेण निस्ससार स सारवान् ॥११३॥ १ नक्र-नासा । २ जोष-मौनम् ।
॥२१३॥
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पुण्डरीक -2 (सरः -) गच्छन्नथ पथि प्रौढवृक्षश्रेणिविराजितम् । सरः सरसमम्भोधि-सदृशं स दृशा पपी ॥ ११४॥ ततश्च - प्रक्षाल्य चरणौ जैनमूर्तिं नीत्वा नृपाङ्गजः । पपावपापः पानीयं पूत्वा पूतेन वाससा ॥ ११५ ॥ ॥२१४॥ ( प्रादुर्बभूव राक्षसी - )
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पीत्वा नीरं सुतृप्तोऽन्तर्याविद् व्यावर्तते ततः । तावत् प्रादुर्बभूवाऽग्रे राक्षसी भीषणैक्षणा ॥ ११६ ॥ निजगाद कुमारं सा रौद्ररावाऽथ राक्षसी । भो ! युद्धं कुरु शीघ्रं वा मुञ्च शस्त्रं ममाग्रतः ॥११७॥ इति श्रुत्वा रणायैष यावदुत्तिष्ठते हठात् । तावत् तस्य करात् खड्गं हृत्वा खे राक्षसी ययो ॥ ११८ ॥ हस्तं वीक्ष्य विशस्त्रं स्वं विहस्तोतव्यचिन्तयत् । अहो ! अलक्ष्म्या देव्याऽयं प्रभावो दर्शितो निजः ॥ ११९ लक्ष्म्या वासो हि स्वङ्गः स्यात् गतः सोऽय कराद् मम । अथवा बाह्यभावैः किं यातैः सत्त्वं प्रयातु मा ।। निश्चित्येति कुमारोऽयं धीरधीरद्भुतप्रभः । अचलाया विलोकाय सहेलमचलत् ततः ॥१२१॥ ( वसन्तपुरम् - ) अथाऽसौ भूयसीं भूमिं भ्रान्तः श्रान्ततनुर्भृशम् । वसन्तपुर पार्श्वस्थमश्वत्थतरुमाश्रितः ॥ १२२ ॥ (दावानल:-) छायायां चलपत्रस्य स्थितो यावत् स निश्चलः । तावत् तत्र पुरे वहूह्निप्रदीपनमभूद् बहु || १२३|| दिवा तारकितं व्योम स्फुलिङ्गैः स्फुटितैस्तदा । त्रुटितैज्वलजालैश्च चक्रे सूर्यशतान्वितम् ॥ १२४॥
( श्यामाङझे नरः - )
८
१२
∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞
अस्मिन्नवसरे कोsपि स्थूलः श्यामाङ्गकुत्सितः । नरो नगरतोऽभ्येत्येत्यातुरः प्राह भूभुजम् ॥ १२५॥ Parse सत्पुरुषोऽसीति वेद्मि सुन्दरदेहतः । खर्णपञ्चशतीग्रन्थिममुं पार्श्वे गृहाण तत् ॥ १२६ ॥ कुमारो न्यगदद् भद्र ! स्यादर्थोऽनर्थदो ध्रुवम् । ममाऽधुना विशेषेण दैवं हि विमुखं यतः ॥ १२७॥ पुरुषः सोऽवदद् विश्व-बन्धो ! बन्धोऽयमस्ति मे । चेत् त्वं गृहाण तद् वहने रक्षामि स्वकुटुम्बकम् ॥
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चरित्रम् -
सर्गः ६
॥ २१४॥
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पुण्डरीका
चरित्रम्
सर्ग:-६
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हृदयान्तर्दयां धृत्वा दाक्षिण्यामृतवारिधिः । कुमारस्तस्य तं ग्रन्थि जग्राह निजपाणिना ॥१२९॥ ४ गतेऽथ पुरुषे तस्मिन् कुमारे च निषेदुषि । तरौ तत्र विरौति स्म काकः क्रूररवो रयात् ॥१३०॥
कुमारश्चिन्तयामास कुरुतं कुरुते ह्यसौ । कष्टं तिष्ठति मे पुष्टं कथमस्मादपीह किम् ? ॥१३१॥ ( काकहृतं स्वर्ण-) इत्थं गूढविचारेण गूढचित्तो नृपाङ्गजः। शीघ्रं वायसवित्रास-कृते तं ग्रन्थिमक्षिपत्॥१३२॥ तदैव स्मृतिभाग याव-दुत्थायाऽऽशु विलोकते। तावत् कुत्रापि न प्राप सम्यक्त्वं पापवानिव ॥१३३॥ अलब्ध्वा तदसौ स्वर्ण राजसूनुयं चिन्तयत् । सूचित काकशब्देन यत् कष्टं तदुपस्थितम् ॥१३४॥ कुमारे चिन्तयत्येवं पुरुषः स पुरात् पुरः। समागत्य प्रमोदेन व वदूकोऽवदद् वचः ॥१३०॥ देव ! त्वदीयसाहाय्यात् कुटुम्ब सकलं निजम् । गृहं च ज्वलनादरमादक्षतं रक्षितं मया ॥१३॥ (भुवनभानोश्चिन्ता-) विजयस्व चिरं तत् त्वं सर्वोपकृतिकारकः । समर्पय मदीयं च स्वर्ण स्थपंनिकाऽऽहितम् ॥ उक्ते व्यक्तेऽथ तेनेति चिन्ताभूर्भूपभूरभूत् । याचतोऽस्याऽधुना किं किं वचो वच्मि वचस्यपि ॥१३८॥ काकस्य संमुखो ग्रन्थिः क्षिप्तः प्रत्येति को वचः ? । यद्यपी थमसंभाव्यं सत्यं वक्ष्ये तथाऽपि तु ॥१३९॥ यतः- ऊचुषो वचनं सत्यं तस्थुषो धर्मिणां पथि । यद् भाव्यं तद् भवत्वेवं सुखं चाऽप्यसुखं मम ॥१४०
एवं सुचिन्त्य चित्तेन त्रपापूरप्लुताक्षरम् । स्वर्णवृत्तं यथावृत्तं जगाद स विवादभाक् ॥१४१॥ ४ अथ, रक्षाक्षरं बभाषेऽसौ पुरुषः परुषाकृतिः। भो! भोः! स्थपनिकामोषस्त्वयाऽपि विहितः कथम् ॥४
स्वादृशा अपि चेद् द्रव्यं मादृशानां हि गृहणते । ततो जगति कः कस्य विश्वेऽस्मिन विश्वसिध्यति ॥१४॥४
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१ अपशब्दम् । २ भाषायाम-थापण । ३ चिन्तास्थानम् ।
॥२१५४
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॥२१॥
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ततोऽयं यामि मे स्वर्ण दीथा अन्यजन्मनि । इत्युक्त्वा स नरः कोपाटोपाद् गन्तुं प्रचक्रमे ॥१४४॥ तं यान्तं नृपजो रुड़वा बभाषे व्याकुलाक्षरम् । मया प्रमादमुग्धेन स्वर्ण निर्गमितं तव ॥१४॥
सर्गः-६ तथापि कथमप्यस्मिन् भवे मामणीकुरु । ऋणरज्जुनिषद्धस्याऽन्यभवे न भवेद् गतिः ॥१४६॥ धर्मिणोऽपि कृतिनोऽपि कदाऽपि स्याद ऋणं किमपि कस्यचिदेव ।।
तस्य तत्र सकलेऽपि तु दत्ते संभवन्ति हि मुखानि परत्र ॥१४७॥ अन्यच्च- केऽप्युपाय॑ धनमात्मकलाभिर्जीवियन्ति जलदा इव जीवान् ।
छद्मनाऽन्यधनमन्त्र नयन्ति स्वोदराय वडवाग्निवदेके ॥१४८॥ किंबहुना? सतां मोक्षे वाञ्छा स तु सुकृततस्तच सुमते-गुरोरेवैषा स्यात् स्वयशमनुजत्वे च स गुरुः ॥ ऋणान्न स्वातन्त्र्यं परभवगतानामपि ततो-ऽधमर्णत्वं मा भूत-इति मतिमतां संमतमहो! ॥१४९॥ ऋणाद् महाभयं कुर्वन्ननेवाऽमुनाऽधुना। अनृणीभूयमिच्छामि भूत्वा कर्मकरोऽप्यहम् ॥१५०॥ बभाषे पुरुषः सोऽथ हो ! क्षत्रियपांसन । तव कर्मकरस्याऽपि योग्यं भोज्यं न मे गृहे ॥१५१॥ पुनः प्राह कुमारोऽसौ तव स्वर्णाधमर्णताम् । विहातुमीहेऽहमहो ! भोज्यं भुञ्ज ततः कथम् ॥१५२॥ किन्तु, सप्त प्रहरान यावत् कृत्वा कर्माऽखिलं तव । पाश्चात्ये दिनयामे तु बने भोक्ष्ये फलान्यहम् ॥१५३॥ स नरः प्राह किं कर्म समग्रं त्वं करिष्यसि। कुमारः प्रोचिवान् कस्त्वं कर्तव्यं किं किमस्ति ते ॥१५४॥8/
(स श्यामो नरः चण्डमुण्डश्चण्डाल:-) सगर्व स नरः प्राह विश्वे को नाम वेत्ति न । चण्डमुण्डाभिधं सर्वचण्डालाधिपतिं हि माम् ॥१५॥
॥२१६॥
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पुण्डरीक
परिक सर्गः-६
तथाच, श्मशानं रक्षणीयं हि नेतव्यं मृतकाऽम्बरम् । एतत् कर्म त्वया पञ्च मासान् कार्यमहनिशम् ॥
कुमारश्चिन्तयामास हूं मातङ्गगृहे मया। भाव्यं कर्मकरेणेति हीनं हा! पाप्मनः फलम् ॥१५७॥ ॥२१७॥ अथवा- हितेऽहिते वा विहिते हि देही देहेन चेत् स्यादमुनाऽनृणोऽयम् ।
लाभो महीयानिति रेणुमुष्टि-क्षेपादिवोन्निद्रमृगेन्द्रनाशे ॥१५८॥ ( चण्डालगृहे किंकरो भुवनभानुः-) एवमार्यों विचार्योचे जातोऽहं किंकरस्तव । इमा मूर्ति पवित्रे तु क्वाऽपि मुश्चामि चेद् भण ॥१५९॥ उवाच श्वपचः सोऽथ को देवोऽस्ति तवाऽपि रे! पावित्र्यं किं परद्रव्यचौरगौरवदरग! ॥१६॥ अथवा गच्छ कुत्रापि मुक्त्वा गच्छ श्मशानके । एवं प्राप्य वचो भूप-पुत्रोऽचालिद तक्रमम् ॥१६१॥ गच्छन्नग्रे ददर्शाथ वदं शाखाभिरुत्कटम् । एकं विलोकयामास विकटं तत्र कोटरम् ॥१६२॥
(भुवनभानुना निजपा स्था जिनमूर्तिवंटे मुक्ता-) ४ स्वर्णसमुद्गकाऽन्तस्थां जलकान्तमणीमयीम् । नृपजो जिनमूर्ति तो मुमोच घटकोटरे ॥१६३॥
श्रीवीतरागमुद्दिश्य भूरिभावनया भृतः । स्थूलस्थूलानि चाऽश्रूणि मुश्चन्नूचे नृपाङ्गजः ॥१६४॥ पुराभवांहसा तां कां सातङ्कां कुदशां गतः । ययाऽहं मोचितः स्वामिन् ! त्वा देहात् तु न चेतसः॥१६॥ इतः श्मशानभूमिस्थो रे कर्मकृदिति ब्रुवन् । शब्दायते स्म मातङ्गस्तं भूपतिसुतं प्रति ॥१६६॥ श्रुत्वा भुवनभानुश्च वेगादागात्तदन्तिकम् । उवाच श्वपचः किं रे! सत्वरं नागमिष्यसि ॥१६७॥ कुमारः प्राह मां स्वामिन् ! आदेशेन प्रसादय । तुङ्गगर्वः स मातङ्गस्ततो वक्तुं प्रचक्रमे ॥१६८॥ रात्रावत्र त्वया स्थेयं मृतकाऽम्बरनीतये । चितादग्धानि काष्ठानि मीलयाऽऽनीय सर्वतः ॥१६९॥
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चरित्रम्.
:
पुण्डरीक-8 नीत्वेति श्वपचवचस्तस्थौ स जगतीशजः। श्रीवीतरागं सर्वज्ञं मनसा संस्मरन्नरम् ॥१७०॥
(कश्चिद् योगी-) अथाऽस्मिन् समये कोऽपि योगी कम्प्रतनुभृशम् । कुमारपार्श्वमायासीद् रक्षेति वचनं वदन् ॥ कुमारः प्राह मा भैषीभों योगिन् ! वद किं भयम् । बभाषे प्रस्खलद्वर्ण वर्णी स पृथुवेपथुः ॥१७२॥ सुदुस्तपं तपस्तेपे षण्मासान् मन्त्रसिद्धये । किन्तु ब्रह्मव्रतं प्रान्ते मया खण्डितमेकदा ॥१७३॥ सिद्धिलोभादहं कृत्वा सत्त्वमत्र समागतः। आहतावाहितायां कोऽप्याविरासीच राक्षसः ॥१७४॥ पुष्टा गुरूपदिष्टाश्च मन्त्रास्तत्वासहेतवे । स्मृता अप्यफला जाताः खण्डितब्रह्मणो' हि मे ॥१७॥ यतः- (ब्रह्मचर्यवर्णना-) मन्त्र-तन्त्र-वरयन्त्रसमूहा औषधानि च यतः सुतपांसि ।
वाञ्छितानि ददतेऽत्र परत्र ब्रह्म तद् विजयतां व्रतराजः ॥१७६।। ४ तथाच, कीर्तिर्यतः स्फूर्तिमियति विश्वे यतः शुचिः स्यादिह देहमेतत् ।
यतश्च मोक्षः स भवेत् परत्र तद् ब्रह्म जीयादखिलव्रतेन्द्रः॥१७७॥ अथ, राक्षसो भुजमेकं मे बुभुजेऽहं च पीडितः। नंष्ट्रा त्वदीयं शरणं स्वरक्षायै समागमम् ॥१७८॥ 18 कुमारः प्रोचिवान् शीघ्र स्वां कन्यां मे समर्पय । यथा विधाय त्वद्रूपं राक्षसं प्रीणयामि तम् ॥१७९ 8 योगी प्रोचे कथं चारुवपुस्तस्मै प्रदास्यते। धर्मा-ऽर्थ-काम-मोक्षा हि संभवन्ति यतः स्फुटाः ॥१८०॥
ऊचे कुमारो भो योगिन् ! परार्थे प्राणदानतः। धर्मा-ऽर्थ-काम-मोक्षास्ते साधिता एव सर्वथा ॥१८१॥ किंच, नि:श्वासेन महोद्भूत-ज्वालया लक्षितो मया। पश्याऽयं राक्षसोऽभ्येति तद् योगीन्द्र ! तं द्रव ॥
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१ खण्डितब्रह्मचर्यस्य ।
॥२१८॥
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सर्गः-६
पुण्डरीक-8 कृत्वा प्रसादं कन्यां तु निजां मम समय । यथा विधाय त्वद्वेष राक्षसं प्रीणयामि तम् ॥ १८३ ॥ ॥२१९॥ योगी पोचे ममैकोऽस्ति हस्तो द्वैतीयिको न तु । तदुत्तारयितुं कन्यां न शक्तोऽस्मि शरीरतः ॥१८४॥
कुमारोऽथ स्वहस्तेन कन्थामुत्तार्य नत् तनोः । पर्यधा थ तस्यैकं भुजं भक्षितमैक्षत ॥१८॥ 8 याते योगिनि चित्तान्तश्चिन्तां चक्रे स भूपभूः । अहहाऽस्य वराकस्य हस्तहीनस्य का दशा ? ॥१८६॥
अथो कुमारमभ्येत्य राक्षसो रुक्षवीक्षणः। स रुष्टः स्पष्टमाचष्ट दष्टौष्ठो दौष्ट्यपुष्टितः ॥१८७॥ रे! रे ! योगीन्द्र ! मद्दन्त-मध्याचणकवजवात् । निर्गत्य नष्टः पापिष्ठः तत् किं जीवसि मेऽग्रतः ॥१८८
(भुवनभानु भक्षयति राक्षस:-) इत्युक्त्वा राक्षसो भूप-पुत्रदेहस्य भक्षणम् । पारेभे भूरिसंरंभाद् रभसादुष्ट्रदंष्ट्रया ॥ १८९ ॥ रक्षसा भक्ष्यमाणोऽयं कुमारः सारसारवान् । हर्षादचिन्तयञ्चित्ते कृतार्थ देहमय मे ॥१९०॥ यतः(भुवनभानोः सद्भावना-) यद् व्यधायि बहदुःखविधायि पापभङ्गानिचयेन मयाऽग्रे। चेत् तदेकतनुकव्ययतोऽत्र क्षीयते मम ततः किमअन्यच्च, रे शरीर ! तव नाथ ! इहात्मा दत्तवान् विविधभोगभरान् यः।
[ पूर्णम् ॥ स्वव्ययात् पतिममुं दुरितारेर्मोचयन्नसि कृतज्ञधुरीण! ॥१९२ ।। इत्थं कुमारो धर्मेण संवर्मितमना मनाक् । न वेद खेदमङ्गस्य भक्ष्यमाणस्य रक्षसा ॥१९३॥ राक्षसः प्राह भो ! योगिन् ! क्षत्रब्रह्मव्रतस्य ते । मन्त्रं साधयितुश्चैष दण्डो योग्योऽथवा न किम् ॥१९४॥ ४ कुमारः प्राह दण्डोऽयं योग्य एव कृतस्त्वया । ममोर्वोर्मासनद्यापि विद्यते तत् तु भक्षय ॥१९५॥
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॥२१९॥
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सगे:-1
पुण्डराक- इत्युक्ते भूपपुत्रेण निष्ठुरस्थाऽपि रक्षसः। अवबिभूवुलोमानि तं द्रष्टमिव सात्विकम् ॥१९६॥ ॥२२०॥
राक्षसो विस्मयाद् ध्यौ नाऽयं योगी भवेद् ध्रुवम् । व्रते वा चलिचित्तो यो दुःखे न स हि सासहिः।। निश्चित्येति समुत्थाय कुमारवदनाऽम्बुजम् । उन्नम्य निजहस्तेन राक्षसोऽथ व्यलोकयत् ॥१९८॥ पूर्णेन्दु हृच्चकोराणां राजाऽजं लोचनालीनाम् । तन्मुखं प्रेक्ष्य दुःखाश्रुपूर्णाख्यो राक्षसोऽवदत् ॥१९९॥ हा हा नरोत्तमस्याऽस्य जगत्कल्पतरोर्मया। सत्वपीयूषकुण्डस्य विहितं वहितं महत् ॥२०॥
(प्रसन्नो राक्षसो भुवनभानुं जीवितं ददौ ) योगिनं यः परित्राय निजं देहं ददौ मम । परोपकारिणं तं हा! मारयामि नरं कथम् ? ॥२०१॥
रक्षोराजो विचिन्त्यैवमौषधीं व्रणरोहिणीम् । सुकुमारे कुमारस्य मूछितेऽङ्गे व्यलेपयत् ॥२०२॥ 8 रूढवणस्तयोषध्या कुमारो लब्धचेतनः । उत्तस्थौ मम देहं भो! भक्षयेति पुनर्वदन् ॥२०३॥ ततश्च, सर्वसत्त्वहितं सत्वसहितं नृपनन्दनम् । पलंदो विपुलानन्दो नवा स्तुत्वा तिरोऽभवत् ॥२०४॥
( भुवनभानोः श्मशान काष्ठप्रहणम्-) 8 अथाऽत्राऽभ्येति मातङ्ग उच्चैर्वाचमुवाच सः। रेऽर्धदग्धानि दारूणि मीलितानि त्वया न किम् ? ॥२०॥
अधुना तानि वक्ष्यामीत्युदित्वा स नृपात्मजः । काष्ठानि मीलयामास चित्ते स्तुवति भाऽन्त्यजे? ॥२०६॥ इतश्च- अन्धकाररजापुञ्जमरुणो गगनाङ्गणात् । प्रमाटि स्म दिनाधीशे तत्राऽऽजिगमिरे
॥२०७॥ दोषाकरं कलङ्काख्यं सेवमाना निशाचर। गृहाद् द्वीपान्तरं जग्मुरागते चण्डरोचिंषि ॥२०८॥
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१ लोचनभ्रमराणाम। २ राक्षसः। ३ " वहीं प्रापणे " धातोः । ४ अगन्तुमिच्छी।
रोचीषि-किरणाः ।
४२२०॥
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चरित्रम्
सर्गः-६
पुण्डरीक
अस्मिन्नवसरे मन्दा-ऽऽनन्दकन्दनिकन्दनम् । शुश्राव दुःश्रवं क्वापि क्रन्दनं नृपनन्दनः ॥२०९॥
चण्डालश्चण्डतुण्डोऽथ जगादाऽऽनन्दतुन्दिलः। अहो ! अद्य महालामो रे ! रेऽस्माकं भविष्यति ॥२१० ॥२२१
(घनदत्तः श्रेष्ठी, तत्पुत्रो वसन्तो मृतः-) यतोऽत्र धनदत्तस्य श्रेष्ठिनस्तनयो नयी। विनयी सुभगस्त्यागी वसन्ताख्यो मृतोऽधुना ॥२१॥ चारूणि चीवराण्यस्य गत्वा याचस्व सत्वरम् । मत्पत्न्याः परिधानाय यथा तानि भवन्ति भोः ॥२१२॥8
(भुवनभानोश्चिन्तनम्-) 8 स्वीकृत्येति वचस्तस्य कुमारचलितस्ततः। चिन्तयामास संसार-वैराग्यकलितो भृशम् ॥२१३॥
यो नरः स्वजनहर्षतरूणां वृद्धयेऽभिनवनीरदतुल्यः । तस्य संहरणमा शु विधत्तेऽनित्यतोग्रपवनोत्कलिकेव॥ ४ तथा च;- संसारोद्यानमध्ये किल विविधकुलानोकुहालीप्रसूतान् ।
देवो ह्यारामिकोऽयं विकसितकुसुमानीव मान् विगृह्य । श्रेयःसौरभ्ययुक्तान् शुचिसुखवचनै छादयेत् स्वाकरण्डे ।
तेभ्यो जीवानथाऽन्यानवकरदहो ! निक्षिपेन्नारकान् वा ४ विश्वं विश्वं नश्वरं संनिरीक्ष्य कुर्याद्धर्म निर्मलं धीरधीर्यः ।
स्वीयां मूर्ति कीर्तिमेवाऽत्र मुक्त्वा सोऽयं सारं स्वर्गसौख्यं भुनक्ति ॥२१६॥ अतः सत्पुरुषस्याऽस्य मृतस्याऽपि तनो स्थितम् । सतां वस्त्रपदाताऽहं याचिष्ये चीवरं कथम् ॥२१७॥ अन्यच्च चौरैविगृह्यमाणानि रक्षामि वसनानि यः। वस्त्रं नेतुं कथं सोऽहं करोमि स्वकर पुनः ? ॥२१८॥
१ अनोकुहो दुमः ।
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॥२२१॥
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पुण्डरीक-8 इतोऽवदत् स मातङ्गः किं रे शीघ्रन यास्यसि। तस्मादप्यतिभीतोऽयं जगाम नृपजो जवात् ॥२१९॥
चरित्रम् ॥२२२॥
पुनविचिन्तयामास स गत्वा मृतकान्तिकम् । धर्मशास्त्ररसज्ञा मे रसज्ञा याचा कथम् ? ॥२२०॥ :-६ सत्पात्राणां करेभ्योऽपि यः शिश्रायोच्चतां पुरा । सोऽद्य मे दक्षिणः पाणिः किं याचेत मृताम्बरम् ॥२२१४ अथवा, येन हस्तेन मातङ्गेऽजिता स्वर्णाधमर्णता । अधमो याचतां घुग्रं फलत्यत्रैव पातकम् ॥२२२॥ यतः- स्वशरणस्य वधो गुरुतापनं पिशुनता शमिना पितृवचनम् ।
___ स्थपनिकाहरणं शिशुहिंसनं ध्रुवमिहाऽन्यभवेऽपि फलन्त्यहो ! ॥२२३॥ अतो हे हस्त! पापद्रोर्याश्चारूपं फलं स्फुटम् । आत्मनोपार्जितं भूक्ष्व मृतवस्त्रायाऽग्रतो भव ॥२२४॥ कुमारश्चिन्तयित्वैवं स्वकरं स पुरोऽकरोत । हर्षगौराऽथ गौराविरासीत पौराऽऽस्यतस्तदा ॥ अहो भाग्यं वसन्तस्य मृते यस्मिन्नसौ पुमान् । आचारसारस्वाकारः किश्चित् प्रार्थयतेऽद्य यत् ॥२२६॥ इत्युक्त्वा रोदनं मुक्त्वा नागरा रागसागराः । रत्नान्यारेभिरे दातुं उल्लोलनिजपाणिभिः॥२२७॥
(मृतस्य वसं याचितं भुवनभानुना--) राजसूनुः स दूनोऽन्तविधूयाऽऽत्मकरं रयात् । प्रोचे भोश्चण्डतुण्डस्य मातङ्गस्थाऽस्मि किंकरः ॥२२८॥ गृहणामि दानं नो कस्य किन्तु वस्त्रमिदं जवात् । इत्य?क्ते दृशावस्य पूर्ण हृदुःखवारिभिः ॥२२९॥ ईदृशोऽप्यन्तजस्यैष कर्मकृद् धिग् जगत्स्थितिः। इत्युक्त्वा मृतदेहस्थं वस्त्रं तेऽस्मै समापयन् ॥२३०॥ (भुवनभानुर्ममूर्च्छ-) मुक्तं तन्मृतवस्त्रं तैः स्वपाणी प्रेक्ष्य भूपभूः ।।
धिगू घिग में जन्म भूलोके वदन्निति मुमूर्छ सः ॥२३१॥8 १ गी:-वाणी । पोराणां-नागरिकाणाम्-आस्यत:-भुखात् ।
४॥२२२॥
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चरित्रम्. सर्गः-६
पुण्डरीक-४ देहं विहाय हंसोऽस्य यास्यत्युड्डीय दुःखतः । इतीव स्वपटीतुल्य-मूर्छया छन्नवान् विधिः ॥२३२॥ ॥२२३॥
8 अन्ते धाच्या घटीयुग्मं तस्थौ सुबहुमोहतः। बन्धुवच्छीतलैर्वातैरालिङ्गयोत्थापितस्ततः ॥२३३॥ ४(इन्द्रजालम् -) यावदुत्थाय नेत्रे स्वे निमृज्याऽग्रे विलोकते। तावत् कुमारो मृतकं वस्त्रं पौरांश्च नैक्षत ॥२३४
अथाऽयं चिन्तयामास किमिदं महदद्भुतम् । मातङ्गस्य निजेशस्य किं किं दास्यामि चोत्तरम् ॥२३॥ चिन्तयन्निति वेगेन व्यावृत्तस्तत्र चागतः। न च श्वपचमैक्षिष्ट सर्वत्रऽऽलोकयन्नपि ॥२३६॥ प्रहरत्रितयं तत्र निविष्टः पृष्टवान् जनम् । परं नाऽकथयत्-कोऽपि चण्डतुण्डं तमन्त्यजम् ॥२३७॥ इन्द्रजालमुत स्वप्न-मतमोहोऽथ मे कुतः। ध्यायं ध्यायमिदं तुर्येऽहो मेऽसौ समुत्थितः ॥२३८॥ (नदी-) नदी स चन्द्रशिशिरा शिशिराम्भोभरभृताम् । स्लानाय नृपजोऽहनाय शिश्राय श्रेयसायतिः॥ लात्वाऽथ वाटिका गत्वा दत्वा स्वां स्वर्ण मुद्रिकाम् । नीत्वा सुमनसः सारान् स आर सुमना वटे॥
(वटगता जिनमूर्तिहीता-) कोटरान्तः समुद्गत्वा समुद्गकमसौ नतः। नीत्वाऽथ चन्द्रशिशिरांसरितं त्वरितं ययौ ॥२४॥ नद्यास्तटेऽथ विकटे निर्मलं स शिलातलम् । हेलया क्षालयामास सनमस्कारं स्मरन्नरम् ॥२४२॥ पेटकां तां स्वर्णकान्तां संस्थाप्य स्थाप्यमन्त्रवत् । धीरः स नीरमानैषीत् पद्मपत्रपुटैः स्फुटः ॥२४३॥ ( जिनपूजा-)मन्त्रपात्रं मुदा स्नानं कृत्वा हित्वाऽन्यचित्तताम् । पूजां भूजानिश्चक्रे विधिवद विधिवत् ततः योजिताभ्यां स्वहस्ताभ्यां परमेष्ठयाख्यमुद्रया। संसारातिहरं चारा-त्रिकं चके जिनेशितः ॥२४॥
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पृथिव्याः । २ आर-जगाम । ३ भूजानिजः भूपतिपुत्रः ।
॥२२३॥
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|२२५॥
सर्गः-६
पुण्डरीक-8 स्नात्रे मेरुस्थितं बालं पूजा-रात्रिकयोर्नुपम् । ध्यात्वाऽथ स्तोतुमारेभे स्मरन् केवलिनं जिनम् ॥२४६॥ वीतराग! तव वीतरागता रागवन्ति नमयेत् त्रिजगन्ति ।
निस्पृहं स्फुटफलं सहकारं किं श्रयन्ति न नराः स्वसुखाय ॥२४७॥ श्रीजिनेन्द्र ! गुणिनोऽपि जनास्त्वां न क्षमाः स्तुतिविधौ कथमन्ये ।
यद् गुणत्रयमयं त्वमतीत्य वर्तसे किल जगत्त्रयमेतत् ॥२४॥ शक्रस्तवं भणित्वाऽथ कुमारः स कुमारराट् । मुक्ताशुक्त्यभिधां मुद्रा कृत्वाऽहन्तमथाऽवदत् ॥२४९॥8 (जिनस्तुतिः-) जय वीतराग! भगवन् ! भवतु मम त्वत्प्रभावतः स्वामिन् ।
भवनिर्वेदो मार्गानुसारता चेष्टफलसिद्धिः ॥२५०॥ लोकविरुद्धत्यागो गुरुजनपूजा परार्थकरणं च । शुभगुरुयोगस्त्ववचनसेवना स्वाभवमखण्डा ॥२५१।। अथ, कारं कारं नमस्कारं भूपभूभूरिभाग्यभाक । पुनर्दिदृक्षाव्यात्ताक्षो यावदने व्यलोकयत् ।।२५२॥
(केनचिद् जिनमूर्तिहृता-) १२४ तावत् समुद्गको नास्ति न च मूर्तिजिनेशितुः । अत उन्मनायमानो मानी मौनी तदोत्थितः ॥२३॥
नाभेरूज़ नराकारः सर्परूपतनुस्त्वधः । फणाभिः पञ्चभिर्दीप्रमणीभिर्दीपयन्नतः ॥२५४॥ 18 ( उरग:-) हस्ताभ्यां मस्तके जैनमूर्तियुक्तं समुद्कम् । दृढं धृत्वोरगो गच्छन् ददृशे भूपसूनुना ॥२५॥
वा मर्ति प्रसर्पन्तं सर्प तं वीक्ष्य सोऽग्रतः। दिनत्रयं लदिन्तोऽपि कुमारस्तमथाऽन्वगात् ॥२६॥ १ सहकार आम्रः । २ एतच्च संप्रत्यपि चैत्यवन्दनविधौ प्रसिद्धम्-' जय वीयराय ! जगगुरो ! इत्यादिस्तवनम् ।
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॥२२४॥
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पुण्डरीक
॥२२५॥
४
८
१२
( भुवनभानुना उरगो गृहीत: - )
सहसा साहसाश्लिष्टो रंहसा स महीयसा । धावित्वा स्वच्छ चित्तस्तं छेकः पुच्छे गृहीतवान् ॥ २५७ ॥ कुमारं पुच्छसंश्लिष्टमत्याविष्टः स सर्पराट् । प्रससर्प प्रवाहेऽथ नद्यास्तस्या हि संमुखे ॥२२८|| जलकान्तमणोमय्यास्तस्या मूर्तेः प्रभावतः । संमुखोऽप्यम्भसां भारो द्विधारूपो जवादभूत् ॥ २५९ ॥ सर्पस्य घृतदर्पस्य लालमवलम्ब्य सः । अस्पृष्टनीरो धीरोऽयमतीयायं रयान्नदीम् ॥ २६० ॥
यतः - सा चन्द्रशिशिरा नदी तिष्ठति निर्मला । तस्मिन् विवेश सावेशः प्रवरे विवरे विषी ॥२३१॥ ( तस भुवनभानुः पातालं प्रविवेश -- )
कुमरोऽपि समं तेन यावत् पातालमाविशत् । तावद् ददर्श रत्नौघ - रम्यहम् पुरं पुरः ॥२६२॥ कन्दर्पजव वारीभिरीभिः पूर्णवीथिकम् । स्फीतैर्गीतैः सशृङ्गारशृङ्गाटकमितस्ततः ॥२३३॥
( नागनगरम् - ) कर्णपीयूष कवलैर्धर्वलैः पूर्णमन्दिरम् । स नागनगरं प्रेक्ष्य यावज्जातोऽन्यमानसः ॥ २३४ ॥ तावत् स भुजगो दिव्यशक्त्याऽस्य भुजगोचरम् । प्रविहाय विहायस्थो भूत्वाऽदृश्यत्वमीयिर्वान् ॥ २३५॥ मूर्ति श्रीवीतरागस्य गते हत्वा भुजंगमे । मुद्गराहतवत् स्थित्वा क्षणं सोऽथ व्यचिन्तयत् ॥२६६ ।। अहो ! ममात्मना पूर्व की दुष्कर्म निर्ममे । येन श्रीवीतरागस्य मूर्त्यांऽप्यऽस्मि वियोजितः ॥ २३७॥ येsहिना हि मेsaiयि नायकः श्रीजिनेश्वरः । तेन बन्धुत्वमाश्रित्य कथं नीतं न जीवितम् १ ॥ २६८ ॥ देवतावसरं स्वं यो रक्षितुं न क्षमः क्षितौ । तस्य मे धिग् धीरत्वं क्षत्रव्रतकलङ्किनः ॥ २३९ ॥
१ पुच्छम् । २ जगाम । ३ सर्पः । ४ कन्दर्पस्य जवं धारयित्रीभिः । ५ भाषायाम् - घोळ | ६ जगाम । ७ नीतः ।
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चरित्र
सर्गः - ६
॥२२५॥
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॥२२६॥
४
पुण्डरीक-8 वीडितः पीडितश्चेत्थं स्वचित्ते स नृपाङ्गजः । तावदेको नागनारी पार्श्व यान्तीं व्यलोकत ॥२७०॥
चरित्रम्. (नागनगरे महोत्सव:-)
सर्गः-६ अथो वेगेन धावित्वा तत्पार्श्व पृष्टवानिति । अन्य ! किं नगरेऽनुदिनन् स्युः सदेग्महोत्सवाः ? ॥२७१॥3 मा प्राह स्वच्छ ! हे वत्स ! यन्महोत्सवकारणम । सकर्ण! दत्तकर्णस्तत सर्वमाकर्णय द्रतम् ॥ (वासुकि:-) अत्र पातालपाताऽस्ति शेषाख्यो धरणेश्वरः। तस्य राज्ये प्रधानश्च राजा श्रीवासुकिर्वरः॥ (महापद्मो नागः-) स वासुकिः पुरेऽमुग्मिन् पतिः पातितरां प्रजाः। तेन मित्रं महापद्मो नागोऽस्ति प्रेषितो भुवि।। कंचिद् भुवनभान्वाख्यं नरं केनाऽपि हेतुना। आनेष्यति तथा पमः प्रपञ्चेन गरीयसा ॥२७॥ वसुधावासिनस्तस्य पुरस्याऽस्य समागमे । सप्ताहमुत्सवान् कर्तुमाज्ञा राज्ञा मुदा ददे ॥२७॥ नरोत्तमस्य तस्याऽय समालोकाय कौतुकी। पौरलोकः समस्तोऽपि समस्त्युच्चप्रदेशगः ॥२७७।। अतो गत्वात्मनो गेहं श्रित्वोच्चां चन्द्रशालिकाम् । अहमालोकयिष्यामि तं कीालोकनिर्मलम् ॥२७८॥ इत्युक्त्वा सा ययौ नारी स्फारीकृतपदास्पदा । ध्यौ कुमारः केनाऽहं कार्येणाऽऽनायितो बलात् ॥२७९ इतश्च- कर्पूरपूरगौराज शशाकांशुसितांशुकम् । राजहंससमारूढं फणाभिर्दशभिर्युतम् ॥ २८० ॥ 8 सव्यहस्तसुविन्यस्त-पीयूषकलसं पुरः। श्रीवासुकि ददर्शाऽसावायान्तं बन्दिभिः स्तुतम् ॥२८॥ ४ तत्समीपे च-राजपप्रभ सप्त-फणं पीताम्बरावृतम् । जपमाला-शङ्क-कुम्भ-मुद्राख्यं चतुर्भुजम् ॥२८२॥४ है (नागराज:-) नागराजमनन्ताख्यं गरुत्पतिसमाश्रितम् । वीक्षामास समायान्तं कुमारो विस्मयाकुलः ॥ है ( तक्षकः-) दक्षिणांसे न्यस्तदण्डं वामे च स्थितकुम्भकम् । शोणाङ्गवस्त्रं सोऽपश्यत् तक्षकं वृषवाहनम् ॥ ॥२२६॥
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सर्गः-३
पुण्डरीक-8 ( कर्कोटक:-) कृष्णं कर्कोटक पीतवस्त्रं भुजयुगान्वितम् । सर्प-दण्ड-शङ्ख-कुम्भयुक्तं हस्तिस्थमैक्षत ॥२८५॥ ४ ॥२२७॥
एनं सप्तफणं श्वेतवस्त्राङ्गं हयवाहनम् । कुम्भाम्बुजयुतपाणिं स आयान्तमलोकयत् ॥२८॥ श्वेतवस्त्र-धनुःपञ्चफणः कलश-शङ्कयुक । महापद्मो मयूरस्थो नृपजेन तदैक्ष्यत ॥२८७॥ पुलिकः कृष्णवस्त्राङ्गः सप्तफणो हि दण्डवान् । पद्मारूढः प्रौढमना तदाऽनेन विलोकितः ॥२८८॥
चरित्रम्. 8 शशाख्यश्वेतवस्राङ्गः फणाभिर्दशभिर्युतः। रथस्थितः शङ्ख-कुम्भकरो दृष्टोऽथ तेन सः ॥२८९॥ इत्यं तस्य कुमारस्थ पश्यतो मूर्धनि द्रुतम् । नागेन्द्रास्ते स्वकुम्भेभ्यः क्षिप्रं पीयूषमक्षिपन् २९०॥
(नागलोककृता भुवनमानुस्तुति:-) ततश्च- जय त्वं सात्त्विकाधीश! जय त्वं करुणाकर ! जय त्वं दानिनां धुर्य ! जय त्वं क्षत्रियोत्तम! ॥ इत्थं वदन्तस्ले नागाः श्रित्वा व्योम प्रमोदतः। तस्योत्तमस्योत्तमाझे पुष्पवृष्टिं व्यधुस्तदा ॥२९२॥ अथाऽलंकृत्य नेपथ्यैर्नागेन्द्रास्तं नृपाङ्गाजम् । पुरं प्रवेशयांचक्रुनिमितानेकनाटकम् ॥२९३।। स्तूयमानं बन्दिवृन्दरन्वितं नागनागरैः। श्रीवासुकिः स्वयं धाम नीतवान् नीतिवानमुम् १२९४॥ रत्नस्तम्भः शुभा मध्यसभां प्रापय्य वासुकिः। प्रोचे भुवनभानो! भोः! सिंहासनमिदं श्रय ॥२९५॥ कुमारः प्राह नागेन्द्र ! यस्य मे पाणितो जिनः । गतोऽशक्तरभाग्याच तं मां गरसीह किम् ? ॥२९६॥ इत्युक्त्वा तं वसुधायामासमानं भुजंगराट् । भद्रासनं समानाय्य तमुपावीविशत् पुरः॥२९७॥ सुविष्टरनिविष्टेषु प्रधानेषु स वासुकिः। तुष्टदृष्टिः स आचष्ट नृपपुत्रं पवित्रवाक ॥२९८॥ भोः कुमार!- यो नरो जिनवरं वरभक्त्या पूजयेदपि समीपगतं नो।
४॥२२७॥
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चरित्रम.
॥२२८॥
पुण्डरीक
दर एव स तु तस्य विमोहात् रत्नपुञ्ज इव दृग्विकलस्य ॥२९९॥ 3 यो जिनं शिवपदस्थितमात्मोत्सङ्ग शुचिमनःकुसुमेन ।
पूजयेदिह स केवलतेजाः स्याद् रवेरिव कर रविकान्तः ॥३०॥ किं बहना? देवो गुरु भक्तस्य दरस्थावपि पार्श्वगौ। अभक्तस्य तमोऽन्धस्य दवीयांसौ सदाऽपि तौ ॥ ३०१॥
(भुवनभानोः पातालानयने कारणम् -) यतः- महता वदतां धर्म-महनीयोऽसि सात्त्विकः । ईदृग् क्षत्रव्रतं यस्मिन् जैनी भक्तिस्तथेशी ॥३०॥ हेतना येन पाताले त्वमानीतो भुवस्तलात् । तं सर्व शृणु वृत्तान्तं नितान्तं स्थिरमानसः ॥३०३॥ चतुश्चत्वारिंशत्संख्य-सहस्रभुवनप्रभुः । चतुर्विशत्यङ्गरक्ष-सहस्रैः कृतसेवनः ॥३०४॥ पद्मावत्यादिभिः षभिमहिषीभिनिषेवितः। प्रायस्त्रिंशैश्च त्रिंशद्भिः सप्तानीकाधिपर्यंतः॥३०॥ अन्यैरनेकै गैश्च शेखरितोहिनीरजः । सभानिविष्टो धरण इन्द्रः पृष्टो मयैकदा ॥३०३। (विशेषकम् ) 8 पाताल-स्वर्गयो ग-देवेन्द्रः परिपूर्णयोः। कुत्समाकुलो मर्त्य-लोको मध्ये कथं प्रभो? ॥३०७। अथ श्रीधरणः प्राह शृणु भो ! वासुके! सखे ! । मानुष्याजितपुण्येन जीवा इन्द्रत्वमाप्नुयुः ॥३०८॥४
भूलोके केऽपि विद्यन्ते सात्त्विका धर्मिणो नरः। सुरा-ऽसुरैः समग्रैर्ये चाल्यन्ते नैव सत्वतः ॥३०९॥ ४ तथाच; पृथिव्यामधुनाऽप्यस्ति भीमसिंहनृपाङ्गजः । नरो भुवनभान्वाख्यः क्षत्रियः सात्त्विकाग्रणीः ॥
अथाऽवोचमहं स्वामिन् ! मनुष्ये चर्मचक्षुषि । किमनकीटके सत्त्वं संभाव्यं स्वल्पमेधसि ॥३११॥
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१२
१ नीरज-कमलम् ।
४॥२२८॥
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॥२२९॥
पुण्डरीक-8 व्याख्यातो योऽद्य युष्माभिः सत्त्वं सत्वस्य स्वस्य हि । कषित्वेक्षामि दुःखाख्य - कषपट्टे सुवर्णवत् ॥३१२॥ इत्युक्त्वा धरणेन्द्रस्य सभाया अस्मि निर्गतः । अथो परीक्षा प्रारम्भि मया ते दुर्दशोदयात् ॥३१३॥ तथाहि - अलक्ष्मीरूपाद् भो ! रजनिचरवध्वायुधकृते ऋणार्ते मातङ्गे तनुवितरणाद् योगिकृपया । मृतस्याऽङ्गाद् वस्त्रार्थनजनितमूछऽपि च यतः परीक्ष्यान्ते वीक्ष्य द्रुतमहमिहाऽऽगां नृपसुत ! ||३१४॥ ततो नागो महापद्म मया पुण्यात्मनस्तव । आकारणाय प्रहितः स्वं कृतार्थयितुं पुरम् ॥३१५॥ आदितः स निवेद्येति तस्मै भुवनभानवे । मौनमुद्रामथाऽऽलव्य यावदस्थाच्च वासुकिः ॥ ३१६॥ ( धरण - इन्द्र: - ) प्रभुः श्रीधरणस्तावद् बन्दिवृन्दाभिनन्दितः । नृविमानं समारूढः प्रौढहर्षादुपागमत् ॥३१७॥ वासुकिप्रमुखाः सर्वे सम्मुखा विकेसन्मुखाः । विवेकिनोऽतिवेगेनो-त्थाय नेमुरमी अमुम् ||३१८ || तदा भुवनभानुश्वाभ्युत्थाय मणमन् जवात् । आलिङ्गन्ध धरणेनोचे वत्स ! तुष्टोऽस्मि सत्त्वतः ॥ ३१९ ॥
( भुवनभानु- धरणयो: संलाप :- )
४
१२
अथ, सिंहासनसमासीनं घरणेन्द्रं नृपाङ्गजः । प्रणम्य प्राञ्जलिः प्रोचे हरैकं संशयं मम ॥ ३२० ॥ यदा स्वनगरस्थेन नागराज ! मया पुरा । उत्तारिता जिनेन्द्रस्य मूर्तेः पूजा पुरातनी ॥३२१॥ पवित्रा पत्रिका तत्र सत्त्वतत्त्वविवेचिनी । सुवर्णवर्णश्रेणीभिर्दिव्यकाव्यद्वयान्विता ॥ ३२२ ॥ ददृशे स्वदृशे हर्ष ददती या तदा मया । किमर्थ केन सा मुक्ता तथ्यमेतत् प्रकथ्यताम् ॥ ३२३॥ ( युग्मम् ) ferrer atarraise वचस्वी वाचमूचिवान् । त्वबोधाय मया मुक्ता काव्ययुक्ता सुपत्रिका ॥ ३२४॥
१ विकस्वरमुखा: ।
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प्रतिकम्. सर्ग: - ६
॥२२९॥
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सर्गः-६
पुण्डरीक-8 यता- देवा यदि प्रचुरधर्मबुधान्धुतुल्यात् रक्षन्ति नो नरवरान बहुदानकुल्यान् । ॥२३०॥
तेषां प्रभावतरवोऽपि हि पापतापात् शुध्यन्त एव सकला जगतीतले तत् ॥३२॥ अतः, यो द्रव्यतश्चरिततः श्रुततस्तपस्तः श्रीजैनशासनविभासनमातनोति ।
सः सर्वदैवतगणोऽस्य हि सर्वदैव रक्षां करोति दुरितं च तिरस्करोति ॥३२६॥ 8 ( तुटो धरण:-) अतस्तुष्टोऽस्मि किं तुभ्यं ददामि पुरुषोत्तम ! । भूपभूरब्रवीजन-ध्यानमस्तु मयि स्थिरम् ॥
(भुवनभानोः सप्तनरकदिक्षा-) तथाऽपि यदि तुष्टोऽसि नागराज ! ततोऽधुना। दर्शय श्रुतिनिर्दिष्टान् नरकान् सप्त सांप्रतम् ॥३२८॥ धरणः प्राह हे वत्स! किमर्थ तान दिदृक्षसि । कमारो न्यगदत पाप-फलजिज्ञासया प्रभ पभाषे धरणस्तावद् वाक्यैस्तान् प्रथमं शृणु । दुःखितैर्जन्तुभिः पूर्णान् शक्नोषि हि न वीक्षितुम् ॥३३०॥ तथाहि- (नरकवर्णना-) रत्नप्रभाख्ये त्रिंशल्लक्षास्तिष्ठन्ति नरकावासाः ।
___पञ्चविंशतयो लक्षा नृपसूनो ! शर्करप्रभे नरके ॥३३१॥ पश्चदशलक्षयुक्तस्तार्तीयो वालुकप्रभो नरकः । पङ्कप्रभश्चतुर्थों दशभिलार्युतो नरकगेहैः ॥३३२॥ धूमप्रभस्त्रिलक्ष्या तमप्रभः पञ्चहीनलक्षेण । पञ्चभिरेव तु गेहैर्युक्तोऽस्ति महातमःप्रभो नरकः ॥३३३॥
एवं च चतुरशीतिषु संस्थिता नरकवासलक्षेषु । सततं विततं दुःखं दुष्कृतिनो जन्तवो ह्यनुभवन्ति ॥ ४ तथाहि-भार्या-पत्योरनुजीवि-स्वामिनोर्गुरु-शिष्ययोः। श्वश्रू-वध्वोर्मित्रयोश्च ये विभेदंदै चक्रिरे । तबियोगक्षणमितान् वारांस्तेषां नृणां तनुः । बड्वा शिरः कवर्वृक्षे क्रकचैः प्रविदार्यते ॥३३६॥
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॥२३०॥
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॥२३शा
पुण्डरीकयेऽलीकेन कलङ्कन साधु नरमदषयन् । सतां शून्यं च पैशुन्यं ये चक्रुर्वक्रचेतसः ॥३३७॥
चरित्रम् उपहासवचोभिर्यधभिणोऽधः कृता भुवि । यैर्दुर्वाग्भिः पिता माता गुरुर्नेताऽप्यतप्यत ॥३३८॥
सर्गः-६ तद्वचोऽक्षरसंख्यानि संवत्सरशतान्यहो!। तेषां जिह्वाः छिन्नरूढालिद्यन्ते वज्रतुण्डिकैः॥३३९॥ परस्त्री वीक्षिता दुष्टैर्वीक्ष्य यैर्भुजिता पुरः । यश्चालोक्य स्वयं सार्थश्चौराणामपितोऽधमैः ॥३४०१ तन्निमेषमितान् वर्षलक्षानेषां हि वीक्षणे । वज्रतुण्डाः खगा नित्यं खनन्ति खरचञ्चुभिः ॥३४१॥
एकावासस्थिते सर्व कुटुम्बे निर्दया भृशम् । द्रव्यं हृत्वा कलिं कृत्वा भुञ्जन्त्येकाकिनो हि ये ॥३४२॥ 8 एकसाथै समायान्तं बुभुक्षं परिहाय ये। भुञ्जते ये च धनिनो निस्वबन्धोमपेक्षकाः ॥३४३॥
यावन्तः कवला एक-भोज्ये स्युविहिताः पुरा । तत्संख्यलडन्नप्रान्ते विष्टा तेषां प्रदीयते ॥३४४॥ यावन्ति द्रोहभोज्यानि स्युः कृतानि पुराभवे । तावद्वारं कदर्थ्यन्ते जीवा एवं नरोत्तम ! ॥३४॥
जन्तूनमन्तून् यो हत्वा भुक्ततद्रोमसंमितान् । वर्षसहस्रान् स तप्त-ताम्रखण्डानि भोज्यते ॥३४॥ . रात्रौ सप्ते जने ग्रामा यः पूर्व परिदीपिताः । तेषां देहो लोहमूषः क्षिप्रं प्रक्षाल्यतेऽनिशम् ॥३४७॥
अन्यासक्तो निजां भायाँ त्यजेत् संतापयेच यः। तततैलेन तद्देहः सिच्यते भो नरोत्तम ! ॥३४८|| इत्याद्यनेकोत्पन्नाः कथिताः स्वल्पवेदनाः । अन्येषां बहुदुःखानि व्याहतु पारयामि न ॥३४९॥ यतःहै "नरएसुजाई अइकक्खडाइं दुक्खाइं परमतिकवाई। नरके यानि अतिकर्कशानि दुःखानि परबतोक्षणानि ।। 8 को वन्नेही ताई जीवन्तो वासकोडीहिं ॥३२० को वर्णयिष्यति तानि जीवन् वर्षकोटिभिः ॥३०॥ ४ नेरईआणुप्पाओ उक्कोसं पंचजोयणसयाई। नैरयिकाणामुत्पाद उत्कृष्टं पञ्चयाजनशतानि ।
॥२३१॥
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॥२३२॥
पुण्डराक- दुक्खे निवाडियाणं वेयणसयसंपगाढार्ण ॥३१॥ दुःखे निपतिताना वेदनाशतसंप्रगाढानाम् ॥३५१॥
बहुना ? अच्छिनिमीलणमित्तं नस्थि सुहं दक्खमेव अणवश्यं । अक्षिनिमीलनमात्रं नास्ति सुखं दुःखमेव अनवरतम्।। 8 नरए नेरईयाणं अहोनिसं पचमाणाणं ॥३५२॥ नरके नैरपिकाणाम् अहर्निशं पच्यमानानाम् ॥३५२॥४ इत्युक्त्वा धरणेन्द्रस्तं पाणी प्रारोप्य भूपजम् । व्यक्तितो नरकावासाम् दर्शयामास कत्यपि ॥३५३॥
(नरकदर्शनेन भुवनभानुर्मुमूर्छ-) धरणेन्द्रकराजस्थो जीवानां वीक्ष्य वेदनाम् । कुमारो दुःखपूरेण क्लान्तकायो मुमूर्छ सः ॥३५४॥ पुनस्तत्र समानीय दिव्यपानीयसेचनः । धरणेन्द्रः कुमारं तं चकार स्पष्टचेतनम् ॥३५५॥ . व्यचिन्तयत् कुमारोऽथ देहसौख्याय धिग् जनाः। देहं धर्मकल्पटुं प्रापुः किं पापपोषिणः॥३५६॥ ऊचेऽथ धरणो वत्स! जाताऽद्य ससलइन्नी । अङ्गं कृशं भृशं तेऽभूत् कुमार ! सुकमारवत् ॥३५७|| भो! जनाधिपपुत्राऽद्य भोजनाय मया समम् । पुण्यपुष्ट ! तदुत्तिष्ठ सत्वरत्नेकरोहण ! ॥३५८॥ कुमारः प्रोचिवन्नाग ! मयाऽद्य जिनपूजनम् । न कृतं तत् कृतं देव ! भोजनैलोल्ययोजनैः ॥३५९॥ श्रुत्वेति वासुकिः प्रौचे देवतावसरे मम । सा मूर्तिर्वीतरागस्य विद्यते सर्व विद्य! ते ॥३६०॥ . अभ्युत्थाय ततः शीघ्रमत्रैव जिनपूजनम् । विधेहि विधिना धीमन् ! निधेहि प्रमदं मयि ॥३६॥ इत्युक्त्वा बासुकिर्भूपपुत्रमाकृष्य बाहना । लपयित्वा सुधाकुण्हे कारयामास पूजनम् ॥३६२।।
(धरणेन सह भुवनभानोः भोजनम्-) धरणोऽत्यर्थमभ्यर्थ्य कुमारं दिव्यभोजनैः। अभोजयत् प्रीतिवल्ले: फलं पक्वं हि गौरवम् ॥३३३॥ .॥२२॥
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॥२३॥
सर्गः-६
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(धरणेन भुवनभानवे दत्तानि चमत्कारकवस्तूनि-) ततोऽशुकयुगं स्वर्ण-पादुकायुगलं तथा । धरणेन्द्र कुमाराय दत्वाऽवादीत् प्रमोदवान् ॥३६४॥ अनेन वस्त्रयुग्मेन संवीतेन तनौ तव । शीता-ऽऽतप-रजो-वातभवं दुःखं न भावि भोः ! ॥३६॥ पादुकायुगलस्याऽस्य प्रभावो व्योमगामिता । परोपकारे त्वं भूया धीरधीरनिशं भुवि ॥३६॥ इत्युक्त्वा पेटिका जैन-मृतियुक्तां स्वपाणिना । आर्पयन्नृपपुत्राय मणि चैकं महौजसम् ॥३६७॥ 8 भूत्वाऽथ निकषा कर्ण कुमारस्य मुदा तदा । महिमानं मणेस्तस्याऽऽचख्यो छन्नं स नागरात् ॥३६८॥
(भुवनभानुः पातालात् पृथ्व्यामागतः-) अथो मुमोच हुंकारं स्फारं स धरणेश्वरः। तदैवाऽथ कुमारोऽयं पृथ्न्यामात्मानमैक्षत ॥३६॥ (रङ्गशाला नगरी-) अहो! अहं भुवं प्राप्तश्चिन्तयन्निति विस्मयात्। जगाम रङ्गशालाख्यां नगरीं श्रीगरीयमीम् ॥ ४ तस्याः पुरप्रवेशेऽसौ चारप्राकारवेष्टितम् । प्रासादं विस्मितोऽपश्यत् पिशङ्गध्वजयाऽन्वितम् ॥३७॥ प्रासादोऽयं श्रियो देव्या अये! पीतध्वजान्वितः । विचिन्त्येति कुमारस्तत्प्राकारान्तविवेश सः॥३७२॥ ( लक्ष्मीमूर्तिः-)चारुचामीकरमयीमयं तत्र प्रमोददाम् । लक्ष्मीदेव्या ददर्शाऽथ मूर्ति चम्पकपूजिताम् ॥३७३॥ उपमृत्य कुमारोऽथ निजगाद श्रियं प्रति । देवि ! लक्ष्मि ! त्वमेवाऽसि सतां पुण्यनिबन्धनम् ॥३७४॥ यतः-नृपस्य मानं गुरु-देवपूजा सत्तीर्थयात्रा निजबन्धपोषः।
संसेव्यतां शेषकलाविदां च स्याल्लक्ष्मि! सर्व त्वयि तोषवत्याम् । ॥३७५।। सन्तः सुतीर्थ कृपणा रजोऽन्तस्त्वां स्थापयन्ति व्यसनेषु पापाः ।
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१ भयम् । २ धूल्याम् ।
॥२३॥
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पुण्डरीक
॥२३४॥
४
८
१२
मत्वेति हे धर्मसुते ! सुलक्ष्मि ! कथं सतामेव गृहेषु नैषि ? ॥ ३७६ ॥ स कुमारः सुकुमारमिति यावद् वचोऽब्रवीत् । श्रीदेवता तावदेव प्रोवाचाऽनाहतं वचः ॥ ३७७॥ तथाहिपुण्यरज्जुभिरहं दृढबद्धा निर्विवेकि- सुविवेकिगृहेषु ।
संस्थिताऽत्र कुवचः सुवचश्च वत्स ! हे ननु सहेऽधनिनां हि ॥ ३७८ ॥ श्रुत्वेत्यसौ श्रियो वाक्यं दध्यौ प्राग्जन्मधर्मतः । श्रीः स्यात् कृपण व्यसनिनराणां नान्यतो गुणात् ॥ ( द्वौ विप्र ) इतो गर्भगृहान्तस्थौ विप्रो श्रीदेवदताऽचकौ । हुं चिह्नमेकं संजातमित्युक्त्वा जग्मतुर्हुतम् एताभ्यां किमभिज्ञानं दृष्टं विप्राविमौ च को । चिन्तयन्निति बनाम प्रासादं परि भूपभूः ॥ ३८१॥ तत्र च - ( पञ्च आम्राः - ) स्फाटिकैर्निर्मलजल -कलितैरालवालकैः । विपुलान् पत्रलान् पञ्च कम्रानाऽऽम्रानुदैक्षत ॥ ३८२॥ | उपसृत्य कुमारोऽथ यावदालोकते स्थिरः । तावत् तान्निष्फलान् वीक्ष्य सव्यथं ध्यातवानिति ॥ ३८३ ॥ प्रसृतेऽपि वसन्तत ब्रुमाणां परमर्द्धिदे । आः ! आनन्दप्रदा अक्ष्णोरप्येते निष्फलाः किमु ? ॥३८४ किन्तु, दानेशा धनसंयुता भुवि सदाचारा परश्लाघिनो वैद्या लोभविवर्जिता यदि सुविद्वांसोऽप्यगर्वा हृदि । नित्यं स्वापि सरांसि मृत्युरहिता मर्त्याः फलाढ्या द्रुमाः । जायन्ते तदहो ! धरा वरतरा स्यात् स्वर्ग-पातालयोः। तथाऽपि धरणेन्द्रेण प्रदत्तस्य सुधामणेः । प्रभावेण करिष्यामि चूतानेतान् फलान्वितान् ॥ ३८६ ॥ ध्यात्वेति तं मणि नीव्या कृष्द्वैषां स्थानपाऽम्बुभिः । प्रक्षाल्याऽभिषिषेचैष चूतान् पञ्चाऽपि यावता ॥ ३८७ तावता स्वर्णवर्णानि कर्पूरसुरभीणि च । आविरासुः फलान्याशु सुधास्वादूनि तेष्वथ ॥ ३८८ ॥ इतश्च विप्रौ क्षिप्रौ तौ तत्राऽऽयातौ फलाकुलान् । तान् (तांश्च) वृक्षान् समालोक्य मुदितावूचतुर्मिथः ॥
१ सुजलानि ।
| ॥२३४॥
चरित्र
सर्ग: - ६
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पुण्डरीक
MOONAMOKAROOMOMOMOON
अहो ! कर्पूरमचर्या अपूरिष्ट मनोरथः। अवकेशिनोऽपि वृक्षा यजाताः सफला अमी ॥३९॥
चरित्रम्॥२३५॥ तयोरेको लघुविप्रोऽवचित्य सुफलोच्चयम् । शीघ्रं ययौ द्वितीयस्तु तत्राऽस्थान्नृपजान्तिके ॥३९१॥ ४ सर्गः-६
अथाऽवदत् कुमारस्तं हे विप्राविह को युवाम् ? । कारितं श्रीगृहं केन किं नीत्वाऽगात् फलान्यसौ?॥ अथो स विप्रः प्रोवाच गिरा प्रेमपवित्रया। जानीहि प्रथमं देव ! रङ्गशालां पुरीमिमाम् ॥३९३।। (विक्रमो नृपः-) विक्रमोऽत्र पतिः पाति पातितारिपतङ्गकः । भयान्धतमसाल्लोकं नीतिमार्गप्रदीपकः ॥३९४॥ (प्रीतिमती राज्ञी-) तस्य प्रीतिमती नाम पत्नी दृढपतिव्रता । सुप्ताऽन्यदा निश्यऽपश्यत् कर्पूरतरुमञ्जरीम् ॥8 ( कर्पूरमञ्जरी पुत्र-) संपूर्णसमये साऽथ समस्त सुतां सती। पिताऽपि तामतो नाम्ना चक्रे कर्पूरमञ्जरीम् ॥ ( सामदेवो देवज्ञ:-) सुतायां सप्तवार्षिक्यां तस्यां श्रीविक्रमो नृ । दैवज्ञं सामदेवाख्यं पप्रच्छे तद्वरं नरम् ॥ कन्याङ्गलक्षणान्येष वीक्ष्य मौहतिकोऽवदत् । वर्षऽस्याः षोडशे भावी राधावेधकरो वरः ॥३९८॥ राजा श्रीविक्रमोऽवोचत् राधावेधस्य योग्यता । केन चिनेन विज्ञेया पुंसस्तस्येति भो! वद ॥३९९॥ सोऽवादीद् देव ! वाग्देवीमुपोष्याऽऽराध्य सत्वरम् । सर्व निवेदयिष्यामि तृतीये दिवसे तव ॥४०॥ सोमदेवस्तृतीयेऽहनि सभामभ्येत्य भूपतेः । पाणौ चूतफलान्युच्चैस्तदा पञ्च समार्पयत् ॥४०१॥ राजोचे किं फलैरेतेः कर्तव्यमथ सोऽब्रवीत् । अर्पितानि सरस्वत्या ममैतानि प्रसन्नया ॥४०२॥ गदितं च सरस्वत्या महालक्ष्मीगृहं महत् । कारितं विद्यतेऽग्रे यत् स्वर्णमूर्ति विभूषितम् ॥४०३॥ 8 तत्र कर्पूरमञ्जर्या कन्यया निजपाणिना । प्रसादस्याऽस्य पाश्चात्य-भागे वाप्यान्यमून्यहो ! ॥४०४॥ है दिव्यस्वरूपा पञ्चाम्री ततस्तत्र प्ररोक्ष्यति । सानिशं निर्मलैर्नीरैः सिंचनीया च कन्यया ॥४०॥ 18॥२३५॥
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पुण्डरीक
॥२३६॥
४
१२
सा च हिरण्मयी लक्ष्मीः स्मेरचम्पकपुष्पकैः । कन्यया पूजनीया हि लातया शुचिवस्त्रगा ॥ ४०६ ॥ पुंसा संभाषिता येन लक्ष्मीमूर्तिर्वदिष्यति । वरः कर्पूरमञ्जर्यं नरः स भविता ध्रुवम् ॥ ४०७ ॥ सदाऽपि निष्फलान् दिव्यान् तानाम्रान् पञ्च यो नरः । करिष्यति फलैर्नवान् वरिष्यति स ते सुताम् ॥ राजन्! देव्या सरस्वत्या ममेति कथितं स्फुटम् । सोमदेवः स दैवज्ञ इत्युक्त्वाऽऽत्मगृहं ययौ ॥ ४०९॥ अमुं प्रासादमुर्वीशो हेमश्री मूर्तिसंयुतम् । अचीकरत् ततः सा च कन्याऽऽम्रानुप्तवत्यभूत् ॥४१०॥ ( दिवाकर - गुणाकरी विप्रो — )
तदा नियुक्तावावां च दिवाकर- गुणाकरौ । श्रीपूजायै तस्य पुंसः परीक्षायै च भूभुजा ॥ ४११ ॥ ( राधावेधस्तम्भ:-) कन्याषोडशवर्षेऽस्मिन् राज्ञा वीवाहमिच्छता। अष्टोत्तरशतहस्तः स्तम्भोऽस्त्युत्तम्भितो बहिः ॥ दक्षिणान्यष्ट चक्राणि चाष्टौ वामभ्रमीणि च । तत्राऽन्तरे चारुतरां नृपो राधामकारयत् ॥४१३॥ राधावेधकरो यः स्यात् स नरो मे सुतावरः । इत्युद्घोष्याऽशेषराज्ञो दृतैरामन्त्रयन्नृपः ॥ ४१४ ॥
( कर्पूरम जरी तप: - ) निमन्त्रणानि भूपानां स्वस्वयंव रहेतवे । कर्पूरमञ्जरी श्रुत्वोपवासं विदधे तदा ||४१५ || राजाऽपृच्छत् कथं वत्से ! विदधासि न भोजनम् । भासयन्त्याऽऽस्य भासाऽग्रे ऽसावभाषत भामिनी ॥ येषां बीजानि वाग्देव्याऽर्पितान्येते द्रुमा यदा । फलिष्यन्ति तदा तेषां फलैर्भीक्ष्येऽन्यथा तु न || ४१७॥ उपवास जाते क्लान्तकाया कुमारिका । बभूव राजवर्गोऽपि चित्ते दुःखाकुलो भृशम् ॥ ४१८|| चतुर्थेऽय दिने राजा नत्वा लक्ष्मीं व्यजिज्ञपत् । देवि ! यद्येकचित्ता मे पुत्री तल्लभतां वरम् ॥ ४१९ ॥ इत्युक्त्वाsa श्रियः कृत्वा यावद् राजा विनिर्ययौ । तावत् त्वया कुमारैत्य लक्ष्मीः संभाषिताऽवदत् ॥ पूर्णमेकमभिज्ञानमिति प्रमुदितौ भृशम् । गत्वा व्यजिज्ञपावाऽऽशु कन्यां कर्पूरमञ्जरीम् ॥ ४२१ ॥
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चरित्रम्
सर्गः ६
॥२३६॥
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चरित्रम्
CONANA
पुण्डरीक- सा पोचे प्रोच्चरोमाञ्चा सत्यं चेद् युवयोर्वचः । वृक्षाणां तदहो ! तेषां फलान्यानयत द्रुतम् ॥४२२॥ ॥२३७॥ ४
इति प्रोक्तो कन्ययाऽऽवां संशयानौ फलेष्वलम् । आगतौ फलितानेतान् वृक्षान् वीक्ष्याऽतिविस्मितौ॥ सर्गः-६
(कर्पूरमञ्जरीपारणम्-) एषां फलानि नीत्वाऽसौ मम भ्राता गुणाकरः । प्रयातोऽस्त्यधुना कन्या-पारणाकारणाय भोः ! ॥४२४॥ कन्यायाः पारणायां च कृतायां विक्रमो नृपः। अत्रैष्यति भवन्तं तु प्रविवेशयिषुः पुरीम् ॥४२५॥ यावदुक्त्वेति विप्रोऽयं विरराम दिवाकरः । तावच्छ्रीविक्रमो राजा तत्रागात् सपरिच्छदः ॥४२॥ गुणाकरेण विप्रेणाऽऽदिश्यमानपथो नृपः। आगत्याऽभ्युत्थितं हर्षात् कुमारं श्लिष्यति स्म सः ॥४२७॥ राजा दध्यावहो रूपं कुमारस्याऽस्य वीक्ष्य हि । स कन्दर्पः स्वकं दर्पमद्य तत्याज निश्चितम् ॥४२८॥
(भुवनभानोः पुरप्रवेशमहोत्सव:-) राजाऽऽरुह्य गजं स्वाथे प्रारोप्यैनं कुमारकम् । पुरेप्रावेशयत् प्रौढ-प्रमोदभरमेदुरः ॥४२९॥ नृपो भुवनभानुं तमुत्सवेन महीयसा । चित्रशाले विशालेऽथ सप्तभूमे मुदाऽमुचत् ॥४३०॥ कुमारपरिचर्यायै दिवाकर-गुणाकरौ । तत्राऽन्यांश्च नरान् मुक्त्वा राजा स्वावासमासदत् ॥४३॥ अथ, उहत्य सरभिद्रव्यः संस्लाप्य विमलैर्जलैः। विलेप्य यक्षपकैश्वाऽलंकृत्य स्वर्णभूषणैः॥४३२॥ विधाप्य जिनपूजां च भोज्यौनारसैस्तदा। तावभोजयतां विप्रो कुमारं भक्तिनिर्भरौ॥४३३॥ अत्रान्तरे सहस्रांशुम्ानोशुनिचयोऽजनि । वारुणीमीहमानस्य कस्य कान्तिन हीयते ? ॥४३४॥
Paradoxes xxxoso6oOoxing
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१ वारुणी-वरुणदिशा, सुरा च ।
॥२३७॥
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पुण्डरीक-8 कुमारः प्रोचिवान सूर्यः संपूर्य वसुभिर्भुवम् । व्रजत्यस्तं हहा दैवं सदसत्स्वपि दुःखदम् ॥४३५॥ चरित्रम्
अहो ! लब्ध्वा पूर्व किल विबुधनाथस्य ककुभं जगत्युच्चैर्भूतो दिशमभिलषन् यज्जडपतेः । १२३८॥
मरुन्मार्गात् सूरोऽप्यथ पतति तन्निर्मलकुलां स्त्रि
गाँत् सूरोऽप्यथ पतति तन्निर्मलकुलां स्त्रियं हातुः पातो ध्रव इति वदन् विश्वमिव भोः॥४३६॥ 18 विश्वे पश्यति विश्वेऽस्मिन् स सहस्रकरोऽपि हि । ममज्ज पश्चिमाऽम्भोधौ दिनान्ते केन किं भवेत् ॥४३७॥8
पाशपाणिदिशाऽम्भोधी पात्यमाने खगे खगाः। शब्दायन्ते स्म वृक्षेषु मिलित्वा दु:खिता इव ॥४३८॥ अस्तंगते दिवानाथे काष्टास्वन्धमुखीषु च । पक्षिणोऽमी अभुनाना धन्या अज्ञानिनोऽपि हि ॥४९॥ राक्षसाः प्रेत-भूताद्या म्लेच्छाश्चाऽश्नन्ति निश्यऽपि । स्वर्गिणः पितरश्चैव धर्मिणो मनुजास्तु न ॥४४०॥ दूरमेष यथा सूरस्तमःपूरस्तथा तथा। श्रियं हरति पद्मानां निर्नाथः स्यात् सुखी हि कः ? ॥४४१॥ रत्नः प्रदीप रविणेन्दुना च क्षतं तमः स्यात् पुनरक्षितं हि ।
यथा जिनेन्द्रमथिता मदाद्या अपि त्रिलोकी तु पराभवेयुः ॥४४२॥ ४ अथो दिवाकरोऽवोचद् विधायोडवा स्वतर्जनीम् । कुमार ! पुरतः पश्य प्राच्यां चन्द्रोऽभ्युदेत्यसौ ॥४४३॥ प्रभालोकं कुर्वन् रविरवनितापं यदतनोत् तमिस्रा शीताऽपि प्रचुरतिमिरं यच्च कुरुते ।
द्वयोर्दोषावेतावमृतरुचिरेषोऽप्यपहरत् कलङ्घ स्वं हतु प्रभवति न तत् क्षीयत इव ॥४४४॥४ अथो गुणाकरोऽवोचच्छयनीये नृपाङ्गाज!। सत्वरं कुरु विश्राम यथा याति तव श्रमः ॥४४॥ 8 तथाऽकरोत् कुमारोऽपि स्मृत्वा पञ्चनमस्कृतिम् । संवाहयांचक्रतुश्च नावथो तं यथासुखम् ॥४४६॥
कुठळ0000000000000000000000000000000000ccooRE
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काष्ठा दिक।
॥२३८॥
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॥२३९॥
पुण्डरीक - 8 इति विक्रमराजस्य निर्देशात् तलरक्षकाः । नगरी मण्डयामासुराशु चन्द्रोदयादिभिः ॥ ४४७|| विभातायां विभावय वर्याजितमन्मथाः । पृथ्वीनाथा अथाऽभ्येयुः सर्वे पूर्वनिमन्त्रिताः ॥ ४४८|| ततः श्रीविक्रमो राजा नृपानेतान् ससंभ्रमम् । सर्वान् संमानयामास रम्यावासप्रदानतः ॥ ४४९ ॥ इतो भुवनभानुं तमुपेत्य नृपनन्दिनः । इत्युपश्लोकयन्ति स्म प्रभाते सौप्रभातिकाः ॥४५० ॥ जय जय नृपपुत्र ! सवरित्रैः पवित्रः परिहर बहुनिद्रां मोहराजेन्द्रमुद्राम् ।
feng agaशुद्धिं निर्मलां स्वां च बुद्धिं स्मर जिनवरमन्तः पुण्यकृत्यैरनन्तः ॥४५१ ॥ इत्थं जागरितः प्रातःकृत्यं कृत्वा नृपाङ्गजः । राज्ञोऽमात्यैर्मुदा निन्ये स्वयंवरणमण्डपम् ॥ ४९२ ॥ गरिष्ठेषु निविष्टेषु तत्र भूपेषु भूरिषु । आसांचक्रे कुमारोऽपि चारुचामीकरासने ||४२३ ॥ ललनाभिः कृतोलूलूलालनाभिर्वृताऽथ सा । हंसीव कलकण्ठीभिरागात् कर्पूरमञ्जरी ||४९४ ॥ राधास्तम्भमथोपेत्य पूजयित्वा प्रमोदतः । तस्थौ सुस्थमनास्तत्र बालिका धृतमालिका ||४६५|| दिवाकराभिधो विप्रः प्राह भूमीपतीनथ । विधाय राधावेधं भोः ! कन्येयं परिणीयताम् ॥ ४५६ ॥ एवं दिवाकरेणोक्ते शक्तिमन्तोऽपि केचन । राधावेधाय नोत्तस्थुर्विलीनविषयस्पृहाः ॥४३७॥ तत्र केचिदनात्मज्ञा उत्थायोर्वी शसूनवः । अपरांद्धेषुतां प्राप्य जग्मुस्ते हास्यपात्रताम् ||४५८ ॥ श्रीविक्रमस्य संकेताद् विप्रः सोऽथ दिवाकरः । वीरं भुवनभान्वाख्यं तमुदस्थापयज्जवात् ॥ ४५९॥ मण्डलायितकोदण्ड-मण्डितायत सायकः । राधालीढमनाः प्रत्यालीढस्थानं स तस्थिवान् ॥ ४६०॥
४
१२
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temational
१ अपरानबाणताम् ।
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चरित्रम्
सर्गः ६
।।२३९॥
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पुण्डरीक
॥२४०॥
४
१२
( भुवनभानुना राधावेधः कृतः - )
युवचिन्तैश्च चक्रेश्च विभ्रमद्भिर्वृतामपि । कन्यां राधां च विव्याध सौभाग्येन शरेण च ॥ ४६१॥ वरमालां वरस्याऽस्य कण्ठे क्षिप्त्वा पतिंवरा । यावद दूरतरौ चक्रे करौ वेपथुमन्थरी ॥ ४३२ ॥ तावच्च, ( कश्चिद् देवः~~ ) विनापराधं मे पुत्रो वत्से ! बद्धः कथं त्वया । वदन्निति दिवः कोऽपि देवः प्रादुरभूत् पुरः ॥ देववाणीमिति श्रुत्वा पाणी संयोज्य विक्रमः । नृपः प्रोवाच गीर्वाण! किमेष तनयस्तव ||४६४॥ जगाद निर्जरः सोऽथ स्वरूपं मम भूपतेः । शृणु त्वं निश्चलीभूय भूयसः किल कौतुकात् ॥ ४६५ ॥ ( काञ्चनपुरम् ) अहं भीमनृपोऽभूवं श्रीकाञ्चनपुरे पुरा । अयं भुवनभान्वाख्यस्तनयः सनयो मम ॥४६६ ॥ कारणेनैष केनापि सुतो देशान्तरं ययौ । अहं तु हन्तुमारेभे दुःखादात्मानमुत्सुकः ॥४६७॥
( चित्राङ्गदः साधुः नृसिंहो नृपः - )
तदा चित्राङ्गदः साधुर्मामेत्य प्रत्यबोधयत् । नृसिंहं स्वं सुतं राज्येऽभिषिच्याऽग्रहिषं व्रतम् ॥ ४६८ ॥ भावना द्वादश श्रुत्वा व्याख्यानेऽहं गुरोर्मुखात् । मत्वाऽसारं च संसारं विगृह्याऽनशनं मृतः ॥४३९ ॥ सौर्या सौधर्मे कल्पेऽहमभवं सुरः । दृष्ट्वाऽमुं सात्त्विकं पुत्रं ज्ञानेनाऽत्र समागतः ॥ ४७० ॥ आगतोsa सुतं माला - यद्धं कन्यकयाऽनया । प्रेक्ष्याऽहं सहसा राजन्निषेधं कृतवानिह ॥ ४७१ ॥ यतःsasपि मानुष्ये संप्राप्ते पाप-पुण्य नैपुण्ये । यो यतते न यतित्वे तिर्यक्त्वादौ स किं कर्ता ॥ ४७२ ॥ अन्यच्च, दानं नाऽभयदानतस्त्रिभुवने शीलव्रतान्न व्रतं संतोषान्न सुखं न मर्मवचनादन्यच्च तीव्रं विषम् । तृष्णाया अपरं लघुत्त्वमपि नो धर्मान्निधिर्नापरः स्त्रीपाशान्न परोऽस्ति पाश इह भोः ! कारा भवान्नापरा ततो भो ! विक्रमोर्वीश ! पुत्रमेनं सुधार्मिकम् । चारित्रं ग्राहयिष्यामि त्याजयिष्यामि संसृतिम् ॥४७४॥
चरित्रम्सर्गः ६
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पराक
॥२४॥
सर्ग:-६
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8 इत्युक्त्वा विरतस्याऽस्य देवस्य स्वपितुः पदे । नत्वा भुवनभानुः स प्रोवाच स्वच्छ वीर्वचः ॥४७॥ महीयसाऽत्र मोहेन मुह्यमानं मनो मम । त्वया तात! परित्रातमहो! वात्सल्यमद्भुतम् ॥४७॥
(देव-विक्रमयोः संलाप:-) अथ श्रीविक्रमो राजाऽभ्युत्थाय निजविष्टरात् । शेखरीकृत्य हस्तौ च निजगाद सगद्गदम् ॥४७७॥ रति जयन्ती रूपेण वैजयन्ती कुलौकसः । सुतेयं मम सुतस्तेऽयं पुण्येन प्रवरो वरः ॥४७८॥ वरे वरवधूकेऽस्मिन् लावण्यामृतवारिधौ निश्चलीभूय देवेन्द्र निमिषत्वं कृतार्थय ॥४७९॥ मपंक्षिभिर्वाञ्छयमानः कन्योद्वाहमुरद्रमः। सुमनस्त्वयि दृष्टेऽपि फलत्यद्यापि किं न भोः!? ॥४८॥ इत्युदित्वा नृपं पाद-प्रणतं प्रेक्ष्य सोऽनरः। उत्थाप्य निजपाणिभ्यामालिङ्गय प्राह साञ्जसम् ॥४८॥ तव संश्लेषवाक्येन परितुष्टोऽस्मि भूपते ।। यत् त्वं कथय तच्छीघ्रं करोम्येव नरोत्तम ! ॥४८२॥ राजा प्रोवाच देवेन्द्र ! तव वाक्येन धर्मिणा । संसारमोहसुप्तोऽद्य ममाऽऽत्मा प्रतिबोधितः ॥४८३॥ किन्तु पुत्रस्तवैवाऽयं यदि राज्यमिदं मम । त्वद्वाक्येन वधूयुक्तः पाति द्वादशवत्सरीम् ॥४८४॥ तदादाय व्रतं पोतं निस्तरामि भवाम्बुधिम् । मध्येभूय विवाहं तत् कारयाऽऽशु सुरोत्तम ! ॥४८॥ इत्थमत्यर्थितो राज्ञा तयेति प्रतिपद्य सः। देवः कुमारीवीवाहं कारयामास हर्षितः ॥४८६॥ . अथो विवाहे निवृत्ते भीमदेवे च तस्थुषि । वरं कर्पूरमचर्या राजा राज्ये न्यवेशयत् ॥४८७॥ ततश्च, ( विक्रमो राजर्षिः-) गुरोधर्मप्रभाख्यस्य पादान्ते दान्तचेतसा । व्रतं जग्राह कुग्राहरहितोऽरिहितो नृपः ॥४८८॥ 8 अथो विक्रमराजर्षि नीत्वा भीमसुरोत्तमः । रङ्गशालापुरीमध्यमागाद् भुवनभानुना ॥४८९॥
हे देवेन्द्र ।। २ पक्षिण:-स्वजनाः, खगाश्च
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१२
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॥२४॥
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पुण्डरीक
8 देवो भुवनभानु तमथाऽऽह स्मेरलोचनः । वत्स ! द्वादशवर्षेभ्यस्त्याज्यं राज्यं त्वया ध्रुवम् ॥४९०॥ ॥२४२॥ तयेत्यथ कुमारेण प्रोक्ते भुवनभानुना । दिवं विद्योतयन् देवो महसा सहसाऽगमत् ४९१॥
सर्गः-६ ( भीमविहार.-) पितुः पुण्याय वैडूर्य-मयीं मूर्ति जिनेशितुः । नव्ये भीमविहारेऽसौ न्यधाद् भुवनभानुराद !
मित्रं दिवाकरविप्रमसौ भुवनभानुराट् । पूजाधिकारिणं तत्र चक्रे वक्रेतराशयः ॥४९३॥ ४ अथो वसुमती शासन्नसो वसुमतीपतिः । आत्मानं सुमतीकुर्वश्चक्रे वसुमतीः प्रजाः ॥४९४॥ ( कर्पूरमतरी गर्भधारणम्-) अथ स्वल्परजोभावा राजयोग्यमुपेयुषी । कर्पूरमञ्जरी गर्भ सत्त्वं प्रकृतिवद् दधौ । राज्ञी सैवायदा राज्ञा सौधमूनि निषेदुषी । दर्श दर्श रविविम्ब रुदन्ती ददृशे भृशम् ॥४९६॥
(कर्पूरमजा दोहदः-) पार्थिवोऽपि पुरोभूय प्रोचे प्रेमपरः प्रियाम् । अयि ! ते दयिते ! चित्ते विद्यते दुःखमद्य किम् ? ॥४९७॥ ४ अथाऽसौ प्राह मन्दाक्षं मन्दाक्षरमदो वचः । जिन भानुविमानस्थं नन्तुं मोहो हृदः प्रियः ॥४९८॥ राजा भुवन भानुः स स्पष्टमाचष्ट तुष्टहत् । रम्यामेनां स्पृहां देवि! पूरयिष्यामि ते ध्रुवम् ॥४९९॥ मा ताम्य भामिनि ! तत इत्युदित्वा धराधवः । स्वदकूलाचलेनैव निर्ममार्ज प्रियामुखम् ॥५००॥ प्रियां प्रेमामृतप्रीतामेवं क्रत्वा नरेश्वरः। धरणेन्द्रदत्ते पदयोः पादुके अथ पर्यघात् ॥२०॥ धरणेन्द्रप्रदत्तं च शीता-ऽऽतपनिवारणम् । परिधाय वस्त्रयुग्मं हुंकारमकरोन्नृपः ॥५०२॥
(भुवनभानुर्भानुविमानं प्रविवेश-) अक्लातरताप-वाताभ्यां सद्य आस्कन्ध रोदसीम् । पादुकाभावतो भानु-विमानद्वारमीयिवान् ॥२०३।। धनयुताः।
॥२४२
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आयान्तं दूरतो ष्टं भूपं भुवनभानुकम् । अभ्यत्तस्थौ रविवः कस्य मान्यो हि नाऽतिथिः ॥५०४॥ ॥२४३॥
(भानु-भुवनभान्वोः संलाप:-) पदप्रणनं पृथ्वीशमुत्थाप्याऽऽश्लिष्य हर्षतः । दिव्यासने निविश्याऽग्रे रविः कोमलमालपत् ॥५०५॥
४ सर्गः-६ आगमोपक्रमेणैवं सहसा साहसिन्नहो!। यथा त्वया मोदितोऽहं तथा कार्येण मोदय.॥५०६॥ राजा प्रोवाच देवेन्द्र! ज्ञानात् कार्य ममाऽखिलम् । जानन्नपि कथं मर्त्य-व्यवहाराय पृच्छति ॥५०७॥ सूर्यदेवः क्षणं मौनमालम्ब्य प्रोचिवान् पुनः । अत्र श्रीजैनमूर्ति किं विवन्दयिषसि प्रियाम् ॥५०८॥
(कर्पूरमञ्जरी अपि भानुविमाने गता-) आनेष्यामि ततोऽव वधूं कर्पूरमञ्जरीम् । इत्युदित्वा दिव्यशक्त्या तत्र तां रविरानयत् ॥५०९॥ 8 अकस्मादागतां प्रेक्ष्य प्रियां कर्पूरमञ्जरीम् । अहो ! शक्तिरहो ! शक्तिरिति भूपो विसिमिये ॥१०॥
इतो भर्तारमालोक्य हृष्टा कपरमञ्जरी। ततो विनयतः सूर्यमिन्द्रं यावन्ननाम सा ॥५११॥ ४ ( सूर्यपत्नी रत्ना-) सूर्याग्रमहिषी तावद् रत्ना देवी ससंभ्रमा। आलिलिङ्ग समागत्य राज्ञी कपूरम 8 भूपं भुवनभानु तमथो भूयः सुरेश्वरः। विधृत्य पाणी प्रासादे जैने प्रावेशयद् मुदा ॥५१३॥
देवीचतुःसहस्रः सा वृता रत्नाभिधाऽमरी। कपरमञ्जरी जैने मन्दिरेऽस्मिन् निनाय ताम् ।।५१४॥ द्वारे द्वारेऽथ चत्वारि मध्ये चाष्टोत्तरं शतम् । इत्यानाऽहतो मूर्तीः स विंशतिशतं नृपः ॥१५॥ अथो सभासु त्रिद्वारभूषितास्वपि पश्चसु । षष्टिसंख्याः स आनर्च जिनमूर्तीमणीमयीः ॥५१६॥ एवं जिनेन्द्रबिम्बानि विमाने शाश्वतान्यसौ। आनर्च सूर्यसौहार्दात् तत्राऽशीतिशतं नृपः ॥१७॥ इत्थं कर्पूरमअर्याः संपूर्ण दोहदे नृपः । नरवा स्तुत्वा रविं देवं नगरीमाययो निजाम् ॥५१८॥
॥२४३॥
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निरीक
चरित्रम्.
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॥२४॥
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(कपुरमञ्जरी मुरवल्लभ सुतमसूत ) 18 कपूरमञ्जरी साऽथ प्रमोदामृतपूरिता। संपूर्णसमयेऽसूत सुतमभुनतेजसम् ॥२१९ ॥ ४ सुरवल्लभ इत्याख्यां सत्यां तस्य ददौ नृपः । उपाध्यायादधीतश्च जज्ञे स दशवार्षिकः ॥९२०।।
४ सर्गः-६ निः-) देववल्लभनामानं निजे राज्येऽथ तं सुतम् । निधाय भूपतिः पन्या सहितो व्रतमग्रहीत् ॥२१॥ ४, तदा गुणाकरो विप्रः प्राब्राजीत् स्वामिना समम् । मुनिर्भुवनभानुश्च प्राप मृरिपदं क्रमात् ॥५२२॥
(मुक्ति गती कर्पूरमक्षरी- गुणाकरी-) गुरौ भुवनभान्वाख्ये भवव्याख्यां वितन्वति । ते गुणाकर-कपुरमा यौं ज्ञानमापतुः ॥२२३॥ तयोः संप्राप्तयोमोंक्षे सरिभवविरागतः । संलेख्याऽनशनं कृत्वा द्वादशस्वर्गमीयिवान् ॥२४॥ ( गजपुरं पुरम-) भोगान् भुक्त्वा ततश्चुत्वाऽमुधिमन् गजपुरे पुरे । महासेनस्थ पुत्रोऽभूदयं विजयसेनराद ।
।इति विजयसेनमण्डलेशस्य पूर्वभवः। 8 इतो दिवाकरो विप्रो भीमविहारसंस्थितः । अभुञ्जन् दैवतद्रव्यं चिरं चक्र जिनार्चनम् ॥२२॥
विवर्धमानभावोऽयं जिनपूजां दिने दिने । चारु चारुतरां चक्र तत्र विप्रो दिवाकरः ॥२७॥ 8 षण्मासशेषे संजाते तस्य विप्रस्य जीविते । प्रकृतेश्च विपर्यासाद् धर्मभावः क्षयं ययौ ॥५२८॥
(देवपूजाकारी दिवाकगे देवद्रव्यभोजी-) 8 ततो निर्द्धर्मभावत्वाद् देवद्रव्यं बुभोज सः। पूर्णे च जीविते मृत्वा बभ्रामाऽसंख्यशो भवान् ॥५२९॥
(स च दिवाकरो। मृत्वा गुणारामः श्वा जात:---) भ्रान्त्वेत्थं विप्रजीवोऽत्र श्वानो गजपुरेऽजनि । देवद्रव्योपभोगो हि दरन्तो निश्चितं भवेत ॥३०॥ तथाह्यागमः-( संबोधप्रकरणगत गाथाकदम्बकम्-)
8॥२४४॥
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चरित्रम्
:-६
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सात
पुण्डरीक-8"भक्खेह जो उविक्खेइ जिणव्वं च सावओ। भक्षयति य उपेक्षते जिनद्रव्यं च श्रावकः । ॥२४५||
8 पुण्णहीणो भवे जो उ लिप्पए पावकम्मणा ॥ पुण्यहीनो भवे (भवेद् ) यस्तु लिप्यते पापकर्मणा ॥
आयदाणं जो भंजइ पडिवन्नधणं न देइ देवस्स। आयदानं यो भनक्ति प्रतिपन्नधनं न ददाति देवस्य । नस्संतं समुविक्खइ सो वि हु परिभमइ संसारे ॥ नश्यत् समुपेक्षते सोऽपि खलु परिभ्रमति संसारे ॥ चेईयदव्वं साहारणं च जो दुहा मोहियमईओ। चैत्यद्रव्यं साधारणं च यो द्रुह्यति मोहितमतिकः। धम्मं च सो न याइ अहवा बद्धाओ नरए॥ धर्म च स न जानाति अथवा बद्धायुष्को नरके ॥ चेईयदबविणासे तद्दव्वविणासणे विहभेए । चैत्यद्रव्यविनाशे तद्रव्यविनाशने द्विविधभेदे। साहू उविक्खमाणो अणंतसंसारिओ होइ ॥ साधुमपेक्षमाणः-अनन्तसंसारिको भवति ॥ जिणप्पवयणवुद्धिकरं पभावगं नाण-दसणगुणाणं । जिनप्रवचनवृद्धिकरं प्रभावकं ज्ञान-दर्शनगुणानाम् । रक्खंतो जिणव्वं परित्तसंसारिओ होइ ॥५३५॥ रक्षन् जिनद्रव्यं परीतसंसारिको भवति ॥५३५॥ जिणप्पवयणबुद्रिकरं पभावगं नाण-दसणगुणाणं । जिनप्रवचनवृद्धिकरं प्रभावकं ज्ञान-दर्शनगुणानाम् । वड्दतो जिणदव्वं तित्थयरत्तं लहइ जीवो॥" वर्धयन् जिनद्रव्यं तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥५३६॥४ इत्थं ज्ञात्वा जिनेन्द्रस्य द्रव्यं धर्मधनजनैः। येन केनाऽप्युपायेन वर्धनीय सदैव हि ॥३७॥
(विजयसेन-गुणारामयोः स्नेहकारणम्-) देवद्रव्योपभोगोत्थ-कर्मणा श्वानजन्मनि । जीवो दिवाकरस्यैषोऽवततार नरेश्वर ! ॥२३८॥ तथा विजयसेनस्य चित्ते स्नेहभरो महान् । पूर्वजन्मनि संभूत-बहुसंगतितो ध्रुवम् ॥५३९॥ हहो! विजयसेन ! त्वं यदा जिनमपूपुजः । तदा पूर्वभवाऽभ्यस्तः श्वानोऽसौ भृशमैक्षत ॥५४०।।
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॥२४॥
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पुण्डरीक-भा ॥२४६॥
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भृशं ध्यायन्नसौ श्वानस्तदा श्रीजिनपूजनम् । पूर्वजन्म च सस्मार ध्रुवमासन्नसिद्धिभाग ॥५४१॥
चरित्रम् एवं विजयसेनस्य श्वानस्य च पुराभयो। हो! सोमयशोराजन् ! अस्माभिः कथिताविह ॥५४२॥
सर्गः-६ इत्युक्त्वा विरतस्थाऽस्य पुण्डरीकगणेशितुः। प्रणनाम पुरोभूय श्वानः संविग्नमानसः ॥५४३॥
(गुणारामः उत्पुच्छयते-) अत्युत्पुच्छयमानेऽस्मिन् नताऽऽस्ये शुनके चिरम् । ऊचे विजयसेनोऽथ प्रभो! किं कथयत्ययम् ॥४४॥ पुण्डरीकः प्रभुः प्राह भषणो ह्येष भूपते । देवस्वस्वादजं पापं निन्दन्नस्तीति मानसे ॥५४॥ । अन्योपायैरपि प्राप्ये हा! धने दुधिया मया । देवद्रव्यं समास्वाद्य स्वात्मा दुःखे निपातितः ॥९४६॥ प्राप्त नरत्वे दुष्पापे हा! प्रॉपे न मया शिवम् । दान-पूजाद्ययोग्योऽहं पशुरत्र करोमि किम् ? ॥५४७॥४/
( गृहीतमनशनं गुणारामेण शुना-) 8 भवे पूर्वत्र भावेन प्रथमं यजिनोऽर्चितः । तेन मे पुण्यभावेन गुरुयोग्योऽधुनाऽजनि ॥५४८॥
हीत्वाऽनशनं तस्मात संतोषामृतवारिधौ। आत्मानं स्नपयिष्यामि पूर्व तृष्णाऽऽतपादितम् ॥५४९॥ एवं विचिन्त्य श्वानोऽयं पार्थिवेष्वितिवादिषु (?)। श्रीपुण्डरीको राजर्षिर्ददावनशन शुनः ॥१५॥ मनसाऽनशनं नीत्वा सभायाः शुनकोत्तमः। दूर गत्वा स्मरन्नस्थाद् मन्त्रं श्रीपारमेष्ठिकम् ॥५५१॥ अथो विजयसेनोऽपि जातिं स्मृत्वा पुरातनीम् । पार्श्व श्रीपुण्डरीकस्य ययाचे व्रतमादरात् ॥५५२॥
भगवान् पुण्डरीकोऽथ प्रोचे विजसेन ! भोः!। गछन्ति(च्छामः) स्मो वयं सिद्ध-पर्वतं प्रति संप्रति ॥४ ४ (तीर्थानि-) "अठ्ठावय-संमेए पावा-चंपाए उज्जलि नगे य। अष्टापद-संमेतेऽपापा-चम्पायाम् उज्ज्वले नगे च । 8 1 आप धातोः कर्मणि रूपम् ।
॥२४६॥
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॥२४७॥
पुण्डरीक - 8 वंदित्ता पुन्नफलं सयगुणियं तं पि पुंडरीए ॥ ५५४॥ वन्दित्वा पुण्यफलं शतगुणितं तदाऽपि पुण्डरीके ॥ ५५४॥ |१| चरित्रम्. केवलनाणुपपत्ती निव्वाणं जत्थ आसि साहूणं । केवलज्ञानोत्पत्तिर्निर्वाणं यत्र आसीत् साधूनाम् । सर्गः ६ पुंडरियं वंदित्ता सव्वे ते वंदिया तित्था ॥ २६५ ॥ पुण्डरीकं वन्दित्वा सर्वाणि तानि वन्दितानि तोर्थानि ॥ पडिमं चेहयहरं वा सित्तुंजगिरिस्स मत्थए कुणइ । प्रतिमां चैत्यगृहं वा शत्रुंजय गिरे मस्तके करोति । मुत्तूण भरहवासं वसई सग्गे निरुवसग्गे || ६५६ || मुक्त्वा भरतवर्ष वसति स्वर्गे निरुपसर्गे ॥ ५६६ ।। पूयाकरणे पुनं एकगुणं सयगुणं च पडिमाए । पूजाकरणे पुण्यमेकगुणं शतगुणं च प्रतिमायाम् — | जिणभुवण सहस्सं अनंतगुणं पालणे होइ ॥ जिनभुवनेन सहस्रम् अनन्तगुणं पालने भवति ॥ किं बहुना ?
जं किंचि नाम तिरथं सग्गे पायाल - माणुसे लोए । यत् किञ्चिद् नाम तीर्थ स्वर्गे पाताल - मानुष्यके लोके । तं सव्वमेव दिलं पुंडरीए वंदिए संते ॥ ५५८ ॥ तत् सर्वमेव दृष्टं पुण्डरीके वन्दिते सति ॥ ५५८ ॥ अन्यच्च, पूर्व भुवनभानुस्त्वं मातङ्गप्रेष्यतादिभिः । दुःखात् क्षोणिपते ! क्षीणकलुषः खलु तिष्ठसि ॥ ५५९ ॥ मन्दिरं मोहमदिरा - पूरितं परिहाय तत् । सुमनः ! कुरु चारित्र - गङ्गायां स्नानमातरम् ॥५६०॥ ( विजयसेनो मुनिः— ) इत्यादेशं गुरोर्लब्ध्वाऽलुब्धबुद्धिर्भवे भृशम् । त्रिकोट्या सहितो निन्ये व्रतं विजय सेनराट् ॥ ( गुणारामस्य मरणम् - )
१२
अथैकतानः स श्वानः स्मरन् पश्ञ्चनमस्कृतिम् । प्रथमानयशाः पृथ्यां प्रथमं कल्पमीयिवान् ॥५६२ ॥ गुणारामस्य श्वानस्य देहं सोमयशा नृपः आशु संस्कारयामास चन्दनागुरुवहु निना ॥ ४६३ ॥
१ प्रती तु हे सुमनः ।
४
८
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॥२४७॥
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पुण्डरीकर
सर्ग:-६
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(गुणारामस्मृतये ससत्रो विहार:-) श्रीमान् सोमयशा नृपोऽस्य सुगुणस्तुष्टः शुनः श्रेयसे श्रीनाभेयजिनेशबिम्पसकलं श्रीपुण्डरीकस्य च। मूल् भूषितमुज्ज्वलं वरतरं प्रासादमुच्चैस्तरं सत्रागार चतुष्टयेन च वृतं हर्षेण सोऽचीकरत् ।।५६४॥ प्रासादे नुपतिविनिमितेऽथ तत्र संतोषात् किल मृगवेषः एष देवः ।।
जैनेन्द्रार्चनममरा-ऽमरीपरीतः संगीतप्रभृतिभिरुत्सवं च चक्रे ॥५६५॥ (सिवाचलं जिगमीषुः पुण्डरीक:-) अहो! अंहोहीनाश्चलत जवतः साधव इति स्वशिष्यानादिश्यामलधिमलशैलेश्वरमभि ।
युगादीशस्याऽऽद्यो गणधरवरोऽभूजिगमिषु-जगदृष्ट्युन्मेषोयतवचनकर्पूरकलसः ॥५६६॥ (षष्ठः सर्गः-) श्रीरत्नप्रभसूरिसरकरता दोषाभिषङ्गं त्यजन् यो जाड्यस्थितिरप्यभूत प्रतिदिन प्राप्तादभुतप्रातिभः.१ तेन श्रीकमलप्रमेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः श्रीशनंजयदीपकस्य चरिते षष्टोऽथ सगोंऽभवत् ॥५६७॥ ॥ इति श्रीपुण्डरीकपुराणे श्रीविजयसेन-गुणारामश्चानपूर्वभा
वर्णनः षष्टः सर्गः ॥
।सप्तमः सर्गः। ( श्रीपुण्डरीको मथुरा आगाम-) श्रीयुगादिजिनराजगुणेन्द्रः पुण्डरीकऋषिरेष महोजाः।
साधुसंघसहितोऽवहितोऽन्त-राजगाम मथुरापुरपाश्वम् ॥१॥
१ अन्तःसावधानः ।
॥२४८॥
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॥२४९
सर्गः-७
पुण्डरीक-8 ( धनः श्रेष्ठी-) तत्र तिष्ठति धनो व्यवहारी दानवान् दम-दयाऽव्यभिचारी।
चरित्रम्. ___ निर्ययो प्रवरपौरपरीतः साधुवन्दनकृते स पुरीतः ॥२॥ ( देवदत्तः पुत्रः- ) देवदत्तमथ स स्वतनूज रूप-यौवनकलाकलिताङ्गम् ।
पुण्डरीकपदयोनमनाय श्रेष्ठिराट् सह तदैव निनाय ॥ ३॥ स्वर्गि-साधसमवायसमेतं तं यति विमलशैलपथिस्थम् ।
भक्तितोऽथ स धनः प्रणिपत्य कुड्मलीकृतकरो निजगाद ॥ ४ ॥ सदगुरोऽत्र नगरेऽद्य गरेणोन्मूढमङ्गिनिचयं निजवाचा।
चेतनान्वितमहो! सुधयेव त्वं जवात् समवमृत्य विधेहि ॥५॥ इत्यसौ वचनमस्य निशम्य यावदेव मनसा मुनिरस्थात् । ताव व मणिपीठमकुण्ठो निर्ममौ हरिवेषसरोऽपि॥४
(धनः पुण्डरीके पृष्टवान्-) निर्मितेऽमरवरैर्मणिसौधे संस्थिते सकलसाधुसभूहे । तं प्रभुं विमलपीठनिविष्टं पृष्टवानिति धनो व्यवहारी॥ | (सु भूतिपुत्री विमला-- ) देवदत्त इति मे तनयोऽयं श्रेष्ठिनोऽत्र वसुभूत्यभिधस्य।
पुत्रिकामुदवहद् विमलाख्यां कोमलां लवणिमाऽमलमूनिम् ॥ ८ ॥ (विमलायाः दरभिगन्धत्वम-) सद्विवाहविधितोऽथ चतुर्थे वत्सरे मम वधरमलाभा।
सर्वरोगरहिताऽपि नितान्तं साऽभवद् दुरभिगन्धशरीरा॥९॥४ वेष्टितः । २ स्वर्गिणो देवाः । ३ समूहः। ४ मोहविषेण । ५ निर्मलकान्तिः ।
४॥२४॥
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॥२५॥
-७
पुण्डरीक- औषधेषु विविधेषु तदङ्गे लेपितेषु बहुशोऽपि सुवैद्यः । वृद्धिमेव तदगाद् दुरभित्वं पापिनीव नृपतावपकीतिः॥४ चरित्रम् .
विस्तृतेऽखिलपुरेऽथ कुगन्धे तां नरेन्द्र वचनेन वधूटीम् ।मुक्तवान् द्रुतमरण्यकृतेऽहं धामनि प्रचुररक्षक तदिनाद् मम सुतोऽद्भुतदुःखात् त्यक्तचारुशयना-ऽऽसन-भोज्यः।
वत्सराष्टकमसाविति यावन्म्लानघूर्णनयनोऽतिनिनाय ॥ १२ ॥ किं बहना? 8 सा कुगन्धतनुरस्ति वधूः किं स्नेहवान् मम सुतश्च किमस्याम् ।
त्वं प्रसथ मनसि स्थितमद्य संशयं हर तमोहरमत ! ( अवदत् पुण्डरीकः ) सोऽवदन्निजकृतश्रवणाय तामिहाऽऽनय वधू व्यवहारिन् ।
ऊचिवानयमधाऽतिकुगन्धामानयामि कथमत्र सभायाम् ॥१४॥ ४ श्रेष्ठिना निगदिते वच एतद्धषितो हरिणवेषसुरोऽसौ । पुण्डरीकचरणौ स्नपयित्वा दिव्यनीरभरमार्पयदाशु॥ स्वां स्नुषां मुनिपदस्नपनेनाऽनेन सिश्च दुरभित्वविभित्त्यै।
सोऽमरस्तमनुशिष्य मुदैवं श्रेष्ठिनं परिषदो विससर्ज ॥१६॥ १२
(दुरभिगन्धशरीरा विमला श्रीपुण्डरीकपदस्नपनेन सुगन्धशरीरा सती तत्सदसि आगता-) पुण्डरीकपदनीरनिषेकात् स्वां स्नुषां शुचिसुगन्धशरीराम् ।
आनयत् सदसि तत्र धनोऽसौ पूर्वजन्मकृतसंश्रवणाय ॥१७॥ ( आललाप पुण्डरीकः-) दु:खितां कृतनमस्कृतिमेतां कोरकीकतकरां विनिविष्टाम।
संनिरीक्ष्य विशेषदयालुराललाप कलंगीमुनिराजः ॥१८॥ १ सप्तम्यन्तम् । २ क्रियाविशेषणम् । ३ मधुरभाषायुतः ।
॥२५॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
॥२५॥
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पूर्वजन्म विमलाभिधवध्वा देवदत्ततनयस्य च सर्वम् । त्वं शृणु स्थिरमना व्यवहारिन् ! पाप-पुण्यफलनिश्चयनाय ॥१९॥
सर्गः-७ ( शङ्खपुरम्, महसेनः, वसुमित्रः, कीर्तिमती-) भो! विदेहभुवि शङ्खपुरे प्राग भूपतिः समभवद् महसेनः।
निर्धनो वणिगभूद् वसुमित्रः कीर्तिमत्यजनि तस्य कलत्रम् ॥२०॥ ( विमलबुद्धि-सुबुद्धी पुत्र-- तत्सुतौ विमलवुद्धि-सुवुद्धी तिष्ठतो निजवधूद्वययुक्तौ ।
निर्धनावतिधनाध्यवसायं सर्वदा विदधतावपि गाढम् ॥२१॥ (कीर्तिमतःस्वप्न:-) अन्यदाऽस्य वणिजोऽथ दरिद्रस्याऽपि धर्मनिरतस्य तु भार्या ।
हरितराजमधिरूपमपश्यद् वीतरागममलं निशि मुसा ॥२२॥ प्रातरुत्थितवती निजभर्तुः पार्श्वमेत्य किल कीर्तिमती सा।
वक्ति यावदतिफुल्लविनेत्रा तावदाश्वजनि तु क्षतम ( स्वप्नपाठकः-) तन्निशम्य पुरतः क्षुतमेषा स्वप्नमेनमनिगद्य तदने।
चारपुष्पफलपूरितपाणिः स्वप्नपाठकसमीपमियाय ॥२४॥ स्वप्नमेनमनया अभिहितं स स्वप्नविद् निगदति स्म विचार्य अङ्गजस्तव भविष्यति भूपःसर्वलोचनमदप्रदरूपः ४ स्वप्नपाठकममुं पुनरेषा श्रेष्ठिनी प्रमुदिताऽथ बभाषे ।
किं भियस्य पुरतो निगदन्त्या मे क्षुतं कथमभूत् कथयेति ॥ २६ ॥
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तम्-छीभ-लिंक।
४॥२५१॥
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पुण्डरीक
॥२५२॥
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सोऽप्युवाच शृणु सुन्दरि ! शीघ्रं यत् क्षुतं तव पुरो हि तदाऽभूत् ।
चरित्रम्. पुत्रराजसमये पितृमृत्युं सूचयत्यहह ! तद् दुरुदम् ॥२७॥ स्वप्नपाठकवचस्त्विति सर्व संनिशम्य धृतहर्ष-विषादा।
सर्गः-७ ___ मन्दिरं स्वमियमेत्य सुखेनाऽपूरयत् सकलगर्भदिनानि ॥ २८ ॥ । कीर्तिमती सपने मतम- साऽथ पूर्णसमये परिपूर्ण सोमसौम्यसुभगं सुभगाङ्गम् ।
नन्दनं प्रसुषुवे जननेत्राऽऽनन्दनं प्रमुदितोच्चमुहर्त ॥२९॥ बालनालमथ तत्र निधातुं धान्य उल्लिलिखुराशु सुधांत्रीम् |
स्वर्णपूर्णकलशः किल तूर्णमुन्ममज च तदा प्रमदाय ॥३०॥ (गज इति नाम पुत्रस्य-) हैमकुम्भमथ तं समवाप्य वर्धमानधन-धान्यसमूहः।
श्रेष्ठिराट स विदधे विधिनाऽस्य स्वाङ्गजस्य गज इत्यभिधानम् ॥३१॥ ४ पूर्वशैलशिखरस्थ इवार्कः कल्पवृक्ष इव मेरुशिरस्थः । ज्योतिषा च वपुषा निजवंशेऽनुक्षणं प्रववृधे शिशुरेषः ४ ( गजो युवा--) सर्वशास्त्रनिचये समधीती सत्कलासु विदिती सकलासु।
संगती सरलसाधुसमूहे यौवनं शुचिवयाः स समूहे ॥३३॥ ४ ( गजस्य प्रतापः-) दानतः सुकृततोऽथ यथाऽत्र तत्प्रताप उद्यं समवाप ।
भ्रातरौ सु (स्व) मनसः कुर्मुदत्वं चक्रतुर्ननु तथा अडतोत्थम् ॥३४॥ १ दुष्ट उदों यस्य तद् दुरुदर्कम-तत्। २ सुभूमिम् । ३ समुदवहत् । ४ कुत्सित मुदत्वमपि । ५ जलतोत्थमपि ।
॥२५२
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છે મૂળ પાનું ૨૫
ભાષાંતર પાનું ૨૫૬
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પંડરીકસ્વામી મથુરાપુરીમાં પધાર્યા તે વખતે ધનશેફ પોતાના પુત્ર દેવત્તને સાથે લઈને વંદન કરવા આવ્યા. ધનશેઠ પ્રશ્ન કરે છે કે- આ મારા પુત્રની વહુ વિમળા દુભિંગધી થયેલ છે. ગણુધર મહારાજ તેને લાવવાનું કહે છે એટલે હરિ ગગમેષીદેવ મુનિના ચરણ પ્રક્ષાલનનુ જળ દરભિપણું ન કરવા આપે છે. આ
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पुण्डरीक-8 ॥२५३॥
चारत्रम्. सर्गः-७
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सद्दशाढ्यममलं कुलदीपं सोदरौ हृदि यथा दधतुस्तम् । एतयो«दि महामलिनत्वं मन्दमन्दमुदियाय तथोग्रम्॥ (गजप्रतापमसहमानी तस्य ज्येष्ठी भ्रातरी-) अन्यदा रहसि तो पितरं स्वमित्थमाहतुरितीव सरोषो।
अर्जयाव इह सद्धनमावां दुर्व्ययं तु कुरुते लघुरेषः ॥३६॥ अर्णवोत्तरणमीश्वरसेवां दुर्गमार्गगमनं सुधियोऽपि।
यत्कृते विदधते हि धनं तत् दुर्धियो विगमयन्ति मुधा हि येन बन्धु-नृप-मन्त्रिषु मानं यच्च भोग-सुभगत्वनिधानम् ।
यच्च दुस्समय-दुःखविनाशि तद्धनं न निधनं नयनीयम्॥३८॥ बाल एष तु यथा धनहानि लीलया प्रतिदिनं विदधाति ।
आवयोमनसि तात ! तथैवाऽदीप्यऽतो यहुविषादहुताशः ॥३९॥ श्रेष्ठयुवाच तनयो लघुकोऽयं सोदरोऽपि युवयोः शुभदृष्टया।
दानतोऽतिमहितो नगरे यत् तद् यशो निजकुलस्य पवित्रम् ॥४०॥ (मजनको गजो ज्येष्ठधातृभ्यां पृथककृतः ) चेद् भवेन्न युवयोहदि सौख्यं तत् पृथकुरुत तं द्रुतमेतम् ।
___ इत्यवाप्य जनकस्य वचस्तौ चक्रतुः स्वधनपश्चविभागान् ॥४१॥ ऊचतुश्च जनकं ननु तात ! त्वं भविष्यसि तु कस्य गृहान्तः।
श्रेष्टिना निगदितं लघुपुत्रस्यौकसि स्थितमहं प्रविधास्ये ॥४२॥ , दीपे हि ते गवाक्षे मालिन्यमेव जायते-अतोन कुलदीप-दीपयोः साम्यम् । २ अदीपि। ३ गृहे ।
5000000000000000000000000000000000000000000000000000
४॥२५३४
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चरित्रम्
:
सो
तो गजाय जनकाय जनन्यै त्रीनिति प्रददतुर्धनभागान् ।
अत्र चाह गज एष कुमारो नात्मभागधनमस्मि नयामि ॥४३॥ ॥२५४॥ एवजन्मनि कृतं सुकृतं स्यात् यद् धनं बह भवेदधनस्य ।
अन्यथा निजजनैरपि दत्तं याति पाणितलतश्चपलत्वात् ॥४४॥ सोदरावपि युवां कुरुतश्चेद् दूरगं निरपराधमपीह ।
__ श्रीरियं सहजचापलयुक्ता दूरयिष्यति कथं न हि मां तत् ॥४५॥ . (गजेन न गृहीतः स्वधनविभाग:--) एवमेव स निगद्य वितीर्य स्वं धनं निजसहोदरयोस्तत् ।
संयुतोऽथ जनकेन जनन्या तस्थिवान्निजगृहे गज उच्चैः ॥४६॥ स्नाननिर्मलतनुः शुचिवासाः प्रातरेव परिपूज्य जिनेन्द्रम् ।।
नित्यशो नवनवैः शुचिकाव्यैः स्तौति शुद्धहृदयो हृदयालुः ॥४७॥ ( गजस्य मातापितृसेवा- ) भक्तितः समशृणोद् ममृणोऽन्तः साधुराजवदनाजिनधर्मम् ।
आरराध पितरौ च विनीतः सोऽनिशं सुभविको भवभीतः॥४८॥ (गजस्य धनार्जनाय प्रवासेच्छा--) अन्यदा खजनकं स जगाद मां धनार्जनविधी विसृजाऽऽश ।
बुद्धयते पितृधनस्य च भोगो मातुरङ्गशयनं च न यूना ॥४९॥ हूँ श्रेष्टयुवाच लघुरेव कुमारो देहि भुक्ष्व च धनं त्वमदोषः।
, भहमर्थे ! २ अन्तः कोमलः।
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॥२१॥
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पुण्डरीक
॥२५५॥
४
८
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गच्छतो मम कदापि समुद्रे दुर्गमे भवति चेदथ विघ्नम् ।
धर्मकृत्यमिह किं विदधामि त्वत्प्रियं तदधुना वद तात ! ॥५१॥ ( प्रवासमङ्गलाय जीर्णजिनगृहोद्धारः -- ) धर्मकृत्यमतुलं तव वाक्याच्चेद् विधाय जलधावपि यामि । ते सुखं मनसि मे व्रजतः स्याच्छम्बैलं परभवे च भवेत्ते ॥५२॥
इत्थमङ्गजवचः स निशम्य श्रेष्ठयुवाच मुदितः शृणु वत्स ! |
सोऽवदत् पितरहं धनहेतोर्याम्यवश्यमुदधौ वहनेनं ॥५०॥
मित्रमत्र मम स व्यवहारी श्रीधरः समजनिष्ट विशिष्टः ॥५३॥
दुस्समीरणसमीरणतस्तज्जर्जरं समभवत् समयेन ||५४ || यथाऽहमनृणोsस्य च सख्यात् त्वं सुपुत्र ! भव पुण्यनिधिश्च ॥ ५५ ॥
उद्दधार कनकस्य सुकुम्भैः सस्मिताऽऽननसहस्रमिवोच्चैः ||२३||
( गजजनकेन कृतं तपः- ) वासनाशुचिमना वसुमित्रश्रेष्टिराट् विहितवानुपवासान् । अष्ट चाष्ट दिवसान् स गजोऽपि निर्ममौ विततमुत्सवमत्र ॥५७॥
तेन पुत्ररहितेन सुभावात् कारितं जिनगृहं गुरु चारु ।
वत्स ! तन्मम वयस्ययशोवद् जैनगेहमिदमुडर पुण्यम् ।
temational
इत्यवाप्य वचनं स्वपितुस्तद् जैनमन्दिरमसौ गजराजः ।
१ प्रवहणेन २ पाथेयम् । ३ ते तव ।
चरित्रम्
सर्ग: ७
॥२५५॥
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पुण्डरीक
॥२५६॥
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( तपसः पारणे भोजनोत्सव:-) पारणस्य दिवसेऽथ गजोऽयं धर्मिणो नु विजनानभिमन्य ।
चरित्रम् न्धुवर्गमखिलं च गृहे स्वेऽभोजयद् विविधभक्तिभरेण ॥५८॥ 8
सर्ग:-७ (ज्येष्ठभ्रातभ्यां दस विषं गजस्य-) पारणेऽथ विहिते निजपित्री भोजनं विदधतोऽस्य गजस्य ।
भ्रातरौ गरलमिश्रितघोल भाजने निधतुदृढरोषौ ॥१९॥ गर्वतः श्रुतमहो ! कृपणत्वात् श्रीभरः सुमहिमाऽनृतवाक्यात्
दम्भतः सुकृतिता नृपसेवा दूष्यते ननु यथाऽतिजडत्वात् ॥३०॥ ( पीतविषमिश्रघोलो गजो विचेता:--) दृषितं गरलतः किल घोलं तत् तथैव निपपौ स च यावत् ।
म्लानघूर्णितमुखा-ऽक्षिपयोजस्तावदेव समभूद् गतचेताः ॥३१॥ सर्वसाधुहृदयानि गृहीत्वा गच्छति द्रुततरं परलोके ।
आकुलः कलकलः किल लोकस्याऽऽकुलस्य तदैव प्रससार ॥३२॥ तत्र जाङ्गुलिक-मान्त्रिकवैद्यान् यावदाह्वयति सज्जनवर्गः।
- तावदेष विनिमीलितनेत्रो नीलमूर्तिरपतद् वसुधायाम् ॥६२॥ बन्धुवर्गसहितो वसुमित्रः श्रेष्ठिराड् विपुलदुःखभृतोऽन्तः।
रोदिति स्म किल तद्गुणरत्नश्रेणिमेष गणयन्निव साराम् ॥६४॥ चारुता चतुरता प्रशान्तता धर्मिता प्रणयिता पवित्रता।
भोगिता सुभगता गुणज्ञता दानिता भवति याति याति ही ६५॥ १ निजपित्रा सह। २ अक्षिकमलम् । ३ सप्तम्यन्तम् ।
॥२५६॥
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रित्रम्
पुष्परीक- ( आगतः कश्चिद् दिव्यो मयूर:-) इत्यमत्र विखुरे वसुमित्रवेष्ठिनि प्रलपति स्वजने च ।
चित्तचित्रजननोऽतिविचित्रो व्योमतोऽवतरति स्म मयूरः॥१६॥ ॥२५७॥ विस्मयेन नयनानि जनानां निर्मितानि विनतानि तथोच्चैः।।
सर्गः-७ निस्ससार सहसैव स शोकः पीचरोऽपि च यथा हृदयेभ्यः॥३७॥ हेमभूषणविभूषितकण्ठो व्यात्तपक्षनिचयः स मयूरः। मूछितेऽथ गरलेन गमाने दिव्यनीरकणिकाः प्रववर्ष । (मयूरेण गजः सचेताः कृतः-) विस्मितस्तिमितदृष्टिभिरुच्चीक्षितः सपदि दिव्यमयूरः।
तं गजं समभिषिच्य पयोभिनिविषं विहितवान् हितबुद्धिः ॥६९॥8 जुम्भमाणवदने स्मितनेने प्रोत्थितेऽथ गजनाम्नि कुमारे ।
उत्सवो रविरिवाऽभ्रविमुक्तो बन्धुहर्षभरतः प्रदिदीपे ॥७॥ किं गजस्तरलितो गरलेन को मयूर इह किं समुपेतः।
किं जहार विषम विषमित्थं व्यापमाप हृदि संशयवल्ली ॥७॥ इतश्च- (राज्ञा महसेनेन श्रुता दिव्यवाणी-) भूपति सपदि जागरयन्ती निर्मलं नयपधं च दिशन्ती।
अन्तरिक्षतलतोऽतुलतोषा गीरभीरसुरभीरतैराऽभूत् ॥७२॥ 18/"शासति त्वयि भुवं महसेनक्षोणिपाल ! समभून्नयलोपः।
तद् व्रजामि नगरात् तव शीघ्रं नैव पातकमिहेक्षितुमीशे" ॥७३॥ १ प्रसारम् । २ अभी:-भयरहिता। ३ असुराणो भियं ईस्यति अतिशयेन सा असुरभीरतरा।
આશા
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चरित्रम्
सर्ग:-७
पुण्डरीक( राज्ञा सर्वे पीरमुख्या आहुता:-) तद्वचस्त्रिरुदितं स निशम्य क्षमापतिः पतितगर्वमलोऽन्तः ।
लानतः सुवसनानि बसानोऽजूहवत् सकलपत्तनमुख्यान् ॥७४॥ सर्वपौरसहितोऽथ गजोऽयं केकिनं च कलयन् करपमे।
द्वारपालविनिवेदितमार्गोऽभ्येत्य तं नरपति प्रणनाम ॥ ७५ ॥ ( तस्य दिव्यमयूरस्य वृत्तान्तम्-) 'को मयूरः' इति भूपतिपृष्ट तं जगाद स गजो नरराजम् ।
बन्धुरं गरहरं मम बन्धुरङ्गद ह्यमुमवैमि न चाऽन्यत् ॥७६॥ ( समहसेनाः सर्वे यक्षमन्दिरे गताः- ) इत्युदीरितमथाऽस्य निशम्य नागरान्नरपतिनिजगाद।
मत्पुराधिपमहेश्वरयक्षस्याऽर्चनाय चलत स्थिरभक्त्या ॥७७॥ 8 इत्युदीर्य वरपौरपरीतो वाजिनं समधिरुह्य नरेन्द्रः। आययावथ महेश्वरयक्षस्यालये सफलशीलपरीते॥ तं सुरं नरपतिः परिपूज्य कुड्मलीकृतकरोऽवददुच्चैः।
यक्षराज ! मम पत्तननाथ ! ब्रूहि दुर्नय इहाऽस्ति क एषः ? ॥७९॥ ततश्च- ( यक्षवाणी-) मौलिमूलविलसन्मणिमूलिश्चण्डकुण्डलविमण्डितगण्डः ।
हारहारिहृयोऽथ सुयक्षः प्रादुरास सुविहासविलासः ॥८॥8 यक्ष एष वसुधाधिपमूचे त्वं नरेन्द्र ! वचनं शृणु सर्वम् ।
प्राग् मया रजतशैलगतेन केवली ललितमूर्तिरवन्दि ॥८॥ १ विषहरम् । २ बन्धुहर्षदम् ।
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॥२५॥
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पुण्डरीक
चरित्रम्.
२५९॥
सर्गः-७
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४ (खेचरो रूपचन्द्रः - ) रूपचन्द्र इति खेचरराजोऽभ्येत्य तं यतिवरं प्रणिपत्य ।
पृष्टवान् मम यतो रजताद्रि-स्वामिताऽजनि कुतोऽद्भुतपुण्यात् ॥८२॥ ( रूपचन्द्रः श्रीधरजीवः-) साधुराह भवता जिनगेहं श्रीधराख्यभवमाश्रयताऽग्रे ।
कारितं सुगुरुशपुरे यत् तेन तेऽजनि विभुत्वमुदग्रम् ॥८३॥ तत् क्रमेण पतयालु च जीर्ण त्वद्वयस्यतनुजेन गजेन ।
उद्धतं निजधनव्ययमुग्रं संविधाय विधिना विविधेन ||८४॥ हा !! ह !! हाऽद्य सुकृती स गजोऽपि व्याहतोऽस्ति गुरुणा गरलेन ।
प्रायशो रुचिरवस्तुषु विघ्नं जायते न हि कुवस्तुषु विश्वे ॥८५।। साधुवाक्यमिति सोऽपि निशम्य क्षमापतिद्भुतमुवाच वचस्वी।।
बन्धुरेव मम स व्यवहारी बन्धुरेण सुक्रतोद्धरणेन ॥८६॥ D (विजयादेव दत्तो मयूर:-) तुष्टया विजयया मम देव्याऽस्त्यर्पितो गरहरः समयूरः ।
तं गजस्य विषविघ्नविनाशे प्रेषयामि मुनिराज ! जवेन ॥८॥ इत्युदीर्य स तु दिव्यमयूरः प्रेरितः खचरभूपतिनाऽत्र ।
आगतोऽतिजवतो ग(नि)जदेहात् संजहार विषमं विषमान्द्यम् ॥४८॥ पृष्टमत्र च मया मुनिपार्श्व केन तस्य गरलं ननु दत्तम् ।
साधुराह तदऽदायि गजस्य प्रौढवान्धवयुगेन तु कोपात् ॥८९ ॥
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१२
॥२५९॥
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पुण्डरीक- (विषदायकाः वध्या इति यक्षाचः- ) इत्यमत्र वचनं भुनिनोक्तं संनिशम्य गुरुरोषधरोऽहम् ।
चरित्रम्. पापयोविषयोः कदनार्थमागतोऽत्र गजरक्षणहेतोः ॥१०॥ ॥२६॥ भूमिनाथ ! तदिमावतिपापो सागसौ सुकृतिनि स्वकबन्धौ ।।
सर्गः-७ भासुराशय ! विनाशय भासुराशयः स्युरमलाश्च यथा ते ॥११॥ (गजस्य भादार्यम् - ) इत्युदीर्य विरते सुरराजे रोवरूक्षनयने नरनाथे।
साहसी स सहसाऽऽह हसित्वा धर्मवानथ गजो व्यवहारी ॥९२॥ यक्षराज ! भुवने भविनां या दुःखराजय इह स्युरुग्राः। पूर्वजन्मकृतदुष्कृतवृक्षस्यैताः फलमहो विजयन्ते । सर्वदायिनि जने सुखदेये सर्वदाऽप्यपुरुषाः पुरुषास्ते।।
येऽपि दुःखजनने कुजने स्युस्ते वहन्ति पुरुषोत्तमतां तु ॥९४॥ ४ चेत् प्रसन्नहृदयोऽसि मयि त्वं सांप्रतं स्वकृपयैव कृपालो ! ।
सोदरी सुकृतसादर ! मेऽद्य रक्ष रक्षणविचक्षण ! यक्ष! देवते त्वयि नृो महासेने भाग्यतो मम च संप्रति तुष्टे ।
चेत् करोमि न हि बान्धवरक्षां तत् कदा प्रविद्धामि सुरेन्द्र ! ॥९६॥ 8 इत्युदीर्य विरतेऽथ गजेऽस्मिन् भूपतिः प्रमुदितोऽन्तरुवाच।।
सर्वलोकपरितोषविधात्री निर्मला जयति सज्जनवृत्तिः ॥९७॥
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१ सापराधी। २ भा:-कान्तिः, तस्याः सुराशयः-समूहाः ।
॥२६॥
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300
॥२६॥
सर्गः-७
१००
अण्डरीक
(सजनस्वभावः-)हेमन्तेसलिलं वसन्तसमये दध्यादि दौष्टय भजेत् चश्चञ्चन्दन-प्सान्द्रचन्द्रकिरणस्पर्शी वियोगे पुनः॥४ चरित्रम्. शीतं स्नेहयुतं यशःसुरभितं माधुर्यधुर्य सुखं सन्तः संततमेव हन्त युगपद् यच्छन्ति संगानिजात् ॥९८॥ दक्ष ! चित्तकपिबन्धनदाम धर्मबुद्धिललनारतिधाम । सर्वदा सुवचनैरभिरामः सज्जनो जयति पूरितकामः ॥8 सज्जनस्य तव वागुपरोधाद् दुर्जनावपि भृशं नहि हन्मि।
किन्तु देशमखिलं मम हित्वा गच्छतां तमिमावतिपापी 6 (तयोर्विषदायकयोदेशाद् निर्वासनं कृतम् -) इत्यवाप्य वचनं वसुधेन्दोस्तो ततो नगरतस्तलरक्षः।
दुर्बलः शवलितौ जनल:निन्दितौ स निरसारयदाशु ॥१०११ इतश्च- (खेचररूपचन्द्र-महसेननृपयोः समागमः-) कर्णतर्णकमदाय सुदु( 4 )त्वं (2) चित्तषट्पदमुदं परपद्मम् ।
आविरास सरसं सुरमार्गात् किङ्किणीक्वणितमद्भुतमारात् ॥१०२॥ कुत्र किङ्किणिगणवण उच्चैर्यावदेवमवदन्नरदेवः । तावदेव गगनेऽत्र विमानान्याविरासुरमलप्रतिभानि ॥१०॥ एकतोऽतिगुरुतोऽथ विमानाद् रूपचन्द्र इति खेचरराजः ।
वेगतः क्षितितलं समुपेत्याऽऽलिङ्गति स्म नृपतिं महसेनम् ॥१०४॥ (खेचरेण स्वपुत्री प्रियमित्रा दत्ता गजाय-)जीर्णजैनभुवनीद्धरणेन भूपते! मदुपकारकरोऽयम्।
सोदरीमहमतः प्रियमित्रां दातुमागत इहाऽस्मि गजाय ॥१०५॥ मस्तु' नृपतेरिति वाक्यं प्राप्य खेचरपतिः प्रमदाख्यः ।
निर्ममौ किल तयोः सुविवाहं कान्तिभिः कलितयोललिताभिः ॥१०६॥ ॥२६॥
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पुण्डरीक-8 तद्विवाहन विधावथ पूर्णे तो निवेश्य च सुवर्णनिवासे ।
॥२६२॥
४
८
१२
खेचरोऽक्षयनिधिं च समर्थ्य पत्तनं निजमगाद् रजताद्रौ ॥ १०७ ॥
निर्मलाsतुलकलालिषु केलिं लीलयैव कलयन् गजराजः ।
कल्मषैरकलुषः कलमूर्तिः कालमाकलयति स्म कियन्तम् ॥१०८॥ ( गजपार्श्वे आगतः कश्चिद् मालाकार :-) पुष्पकालदिवसेष्वथ पुष्पजीवकः सुरभिपुष्पसमूहम् । नूतनं गजकुमारवराय प्रौढया निजमुंदोपनिनाय ॥ १०९ ॥
पुष्प संचयभवा गजराजः श्रेष्ठिनः स्वपितुरन्तिकभाजः ।
सोsssौकदमलाः किल मालाकारपाणितलतोऽखिलमालाः ॥ ११०॥
स्वाङ्गजेन विनयादथ दत्तां स्वां गजेन कुसुमस्रजमेषः ।
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श्रेष्ठिराद निजकरेण विगृह्य जिघ्रति स्म मुदितः किल यावत् ॥ १११ ॥
( मालाकारदत्तपुष्पात् सपार्नगमनेन गजपिता मृतः ) तावदेव कुसुमस्रजि लीनो राजिलो गरधरो गरलोयः । श्रेष्ठिनं झटिति तं स्थिरनाशादेश एवं दशति स्म सदैवात् ॥ ११२ ॥ तस्य दंशवशतः पितरं स्वं परोंशुमवगत्य गजोऽयम् ।
दुःखितो भृशमतकिं वज्राहतेरिव बभूव हृदन्तः ॥ ११३॥
( पितृमरणाद् आत्मानं जिघांसुर्गजो हठाद् जीवितः - ) हा ! मयैव कुसुमानि समर्प्य द्रोह एष विहितो जनकस्य |
१ माली २ मुदा । ३ मासाभागे ४ परासुम् गतप्राणम् ।
चरित्रम्.
सर्गः-७
॥२६२॥
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चरित्रम्.
पुण्डरीक
इत्युदीर्य तनुमेव जिघांसुं अंष्ठिनी तमवरुध्य जगाद ॥११४॥ ज्ञानिना मम पुरोऽपि पुरैतत् व्याहृतं तनय ! तिष्ठति भाव्यम् ।
सर्गः-७ । त्वत्पतेश्च मरणात् तव पुत्रस्योदयो ननु भविष्यति वत्स! ॥११॥ 8 (गजपितुरुत्तरकृत्यम्-) इत्यवाप्य जननीवचनानि चक्रिवान् स्वपितुरुत्तरकृत्यम् ।
स्यान्नरः सुवचसा हि विशोको वायुनेव शशभृद् विगताभ्रः ॥११॥ 18 ( स एव मालाकारः राज्ञे पुष्पाणि ढोकते-) अत्र चेव समये किल पुष्पाजीवकोऽभिनवपुष्पसमूहम् ।
आनिनाय महसेननृपाय ढोकते निजसमाजगताय ॥११७॥ यावदेव गुरुपुष्पकरण्डं भूपपादपुरतः स मुमोच।
__ श्रेष्ठिमृत्युदमहिं किल तावद् मन्त्रिणः कुसुमनिर्गतमूचुः ॥११८॥8 8 ( 'पुष्पनिर्गतसणे गजपिता मृतः' इति राज्ञे सभ्यैः कथितम्-) भूपतिस्तत उवाच कथं स श्रेष्ठिराट् गजपिता कुसुमोत्थात् । ।।
सर्पतो मृतिमवाप ततो ही मृत्युरेव सुलभः खलु लोके ॥११९॥ ४ (गजपितुर्मरणं प्रत्वा राजा विचिन्तयति- जन्मिनो जगति यत् किमपीह बिभ्रते सुखकृते स्वशरीरे ।
धिक तदेव कुरुतेऽकरुणोऽन्तजीवितव्यविधौ विधिरेषः ॥१२०॥ रक्षितुं क्षितिभृतोऽक्षतधैर्याः स्युः क्षमा क्षितिमिमामसुरक्षाम् ।
एकतोऽपि रिपुतोऽन्तकतस्तु कुर्वतेऽत्र न निजामसुरक्षाम् ॥१२॥
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१ प्राणरक्षाम् ।
॥२६३॥
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पुण्डरीक - 8 इत्यनेकविधविश्वविरागं चिन्तयन् मनसि तत्र दिनेऽसौ ।
॥२६४॥
४
१२
पूजनादि च जिनस्य विधाय सौख्यतो निशि नृपः स्वपिति स्म ॥ १२२॥ कोमले नरपतिः शयनीये सोऽनुभूय शयनोद्भवसौख्यम् ।
उत्थितो रजनितुर्यविभागे चिन्तितैरजनि संयुत एवम् ॥ १२३ ॥ ( अपुत्रो राजा गजमेव राज्येऽभिषिञ्चति -- ) नैव देववशतोऽस्ति सुतो मे मां च मज्जयति वार्धकवार्धिः । गोत्रिणोऽप्यजयिनो निखिलास्ते राज्यमर्हति न जन्तुरनहैः ॥ १२४॥
यतः - भूपतावसुकृताश्रितचित्ते मन्त्रितामनयिनि श्रुतहीने । यस्तपस्विगुरुतामनृताचे स्थापयेत् स लभते तुलदुःखम् ॥ १२५ ॥
यद्गुणो भवति राज्यधरोऽयं तद्गुणं विमलराज्यमपि स्यात् । यत्र तु स्फुटभिः स्फटिकः स्यात् तन्निभः किमु विभां न विभर्ति ॥ १२६ ॥ धर्मनिर्मलविभं नररत्नं रत्नसूकुलवधूमुकुटेऽस्मिन् ।
स्वे पदे ममय विधाय सत्कलाद इति कीर्तियुतः स्याम् ॥ १२७ ॥
आः स तिष्ठति गजोऽङ्गजवद् मे राज्यमेतदथ तत्र निधाय ।
स्वं भवं विमलयामि तमग्यं दीक्षया विमलयाऽमित पुण्यात् ॥१२८॥ चेतसीति सरसे स रसेशो निश्चिकाय शुचिकाय-मनस्कः ।
१ रत्नसू. - पृथ्वी २ रसाया- भूमेः ईशः ।
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चरित्रम्
सगः-७
॥२६४॥
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पुण्डरीक
॥२६५॥
सर्गः-७
४
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तावदेष तरणिनिजपादैः प्रेर्य रात्रिमुदियाय दिनाय ॥१२९॥ ( दीक्षा प्राप्तो राजा-)प्रातरेव नृपतिर्महसेनस्तं गज प्रमुदितं निजराज्ये ।
उत्सवेन स निधाय जिनोक्तं मुक्तिमार्गपथिकत्वमवाप ॥१३०॥ (मृता कीर्तिमती प्रेष्ठिनी ) सर्वदैव दृढदैव विभावं संविभाव्य भवमस्थिरभावम् ।
श्रेष्ठिनी च किल कीतिमती सा मुक्तिमाप तपसा गतपापा ॥१३॥ ( राज्य पालयति गजः- ) नीतिनिर्मलमना गजभूपो नित्यनूतनविवेचनपूतः।
प्राज्यपुण्यविधिपुण्यतरं तद् राज्यमेष परिपालयति स्म ॥१३२॥ (प्रीष्मे गजस्य जलकेलि:-) अन्यदा स तपतुदिनेषु तापनोत्तपनत.पितगात्रः ।
केलिपल्वलगतो जलकेलिं कामिनीजनयतो विततान ॥१३३॥ निर्मले सरसि कोकिलयुग्मं कौतुके स रसिको नरनाथः ।
पश्यति स्म च पुरः प्रियमित्रां स्वनियां प्रमुदितो निजगाद ॥१३४॥ वक्षसि स्थितवतोः कुचयोस्ते दृक्पुरःसुदृढयोरपि लक्ष्मीम् ।
___ हाऽपहृत्य वलितं स्वकराभ्यां धारयामि वद कोकिलयुग्मम् ॥१३॥ (विभक्तं कृतं कोकिलयुग्मं गजेन-) इत्युदीर्य जलमज्जननेत्राऽलक्ष्य एष नृपतिः प्लवदक्षः।
चक्रवाकयुगलं करयुग्मे सोऽग्रहीत् कमलकोमलमध्ये ॥१३६ प्लबमाननेत्रः।
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॥२६५५
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चरित्रम्
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चक्रवाकयुगलाद् नृपपत्नी पक्षिणीमधृत पाणिसरोजे । ॥२६६॥
हर्षतोऽतिसरसः सरसस्तु निर्ययौ सपतगः क्षितिपः सः ॥१३७॥ चक्रवाकमिथुनं पृथगेतद् विप्रयोगविधुरारवदीनम् । पार्थिवोऽथ पृथुपारयुग्मे दु:खितं स्वसुखतः क्षिपति स्म ॥8 इत्यमेष जलकेलिविलासं ग्रीष्मकालललितं कलथित्वा ।
चारपुष्पचयसंचयनाय नायकः स चलति स्म बनाय ॥१३९॥ 18 कोमलानि सुरभीणि समानि सोऽचिनोद नरपतिः शिखरिभ्यः।
पुण्यकीर्तिकलितानि वचांसि भव्यजीव इव जैनमुनिभ्यः ॥१४०॥ ( आरामे ददर्श मुनि गजः-) पाणिना सुमनसः सुमनोज्ञान् भूपतिः स सुमनाः परिचिन्वन् ।
पश्यति स्म मुनिमेकमुग्रं ज्ञानगाङ्गजलमुत्थितहसम् ॥१४१॥ स क्षमापतिरतिस्थिरभावस्तं क्षमापत्तिमनन्तविभावम् ।
भूतलपविलुलन्मणिमौलिः प्रोज्ज्वलप्रणयवान् प्रणनाम ॥१४२॥ भूपतियतिपतिं प्रणिपत्याऽचिन्तयत् स्वमनसीति निविष्टः ।
यो भवोदधिममुं प्रतितीर्घः सोऽयमेव सुकृती मुनिराजः ॥१४३॥ (गजपत्नी मलिनं मुनि दृष्ट्वा घृणिता-) भूपतिप्रियतमा प्रियमित्रा स्वेदमग्नरजसा शबलाङ्गम् ।
तं मुनीश्वरमथ प्रणमन्ती कुत्सहृद् झटिति शृत्कुरुते स्म ॥१४४॥
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। भूपतिः। १ मुनिः।
॥२६६॥
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॥२६७||
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४
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चक्रवाकमिथुनस्य वियोगाद् दूनदीनदयस्य विराः।
नष्टनिश्चलसमाधिरनाधिः साधुराह वसुधाधिपमेनम् ॥१४॥8 किं विहंगयुगमुच्चविरावैः रोदितीव नरनाथ ! विनाथम् ।
भाषया च निजया त्वयि कोपाटोपतः प्रकटयेत् कटुराटिम् ॥१४६॥ ( साधुबोधितेन गजेन तत् कोकिलयुग्मं संयुक्त कृतम् -) आह भूपतिरथो मुनिनाथं चक्रवाकमिथुनं पृथगेतत् ।
कोतुकात् करतलेऽस्ति गृहीतं तत् करोति विरसं स्वरमित्यम् ॥१४७॥ साधुराह नृप ! कौतुकतोऽपि प्राणिनामसुखमेव न कार्यम् ।
अय॑ते हि इरितं महसद्भि छुट्यते न परत्र रुदद्भिः ॥१४८॥ तद् विमुत्र विहगव्यमेतद् वाण्या व्रजतु पाञ्छितभूमिम् ।
याम एक इह दुस्तरतुःखादेतयोरजनि वर्षसहस्रम् ॥१४९॥ ( मुनिदेशाना-) तन्निशम्य नृपतिर्मुनिवाक्यं चक्रवाकयुगलं स मुमोच ।
देशनां तदनु तत्र निविष्टो निबलः समशृणोद मरणोऽन्तः ॥१५०॥ धर्मतत्वमवगत्य ततोऽयं भूपतिर्यतिपति प्रणिपत्य ।
उत्थितः स्वनगरं समुपेत्याऽपालयश्चिरमसो निजराज्यम् ॥१५॥ ( वीतरागगृहे मृत्यन्तं गतं ज्ञात्वा रजस्वलैब तत्पनी मन्दिरमागता-) वीतरागभुवने गजराजं कारयन्तमवगत्य सन्त्तम्। निरोगः । ३ प्रहर।
४॥२६७॥
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पुण्डरीक
३२६८॥ ४
८
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सा रजोऽशचिरपि प्रिय मित्राऽभ्याजगाम शुचिवस्त्रसुशोभा ॥१५२॥ चरित्रम् याममेकमपवित्रशरीरा तस्थुषी जिनगृहे नृपपत्नी।
सर्गः-७ सा पुनः प्रशमपूरितचित्ता पुण्यतः सपदि चिन्तयति स्म ॥१५३॥ ( सा रजस्वलया मन्दिरे नागन्तव्यम' इति पश्चात्तापेन प्रत्यागता-) हा ममेयमधिवेकविचेष्टा हीदृशी जिनगृहे यदपाऽगाम्।
इत्थमात्महदि सा प्रविचार्य प्रत्यगाद निजगृहे सविषादा ॥१५४॥ ( मपत्नी केन गजेन स्वपुत्रं ग येऽभिषिच्य गृहतिं व्रतम्-) श्रीपति स्वतनयं प्रियमित्रासंभवं निजपदे त्वभिषिच्य ।।
वर्धमानसुगुरोश्चरणान्ते सोऽग्रहीत् तु चरण सकलत्रः ॥१५॥ ( ययौ गजो ध्यानाय प्रेतवने-) अन्यदा निजगुरुं प्रणिपत्य प्रेतवेदमनि गतो यतिराजः।
सत्समाधिमधिकाधिकशुद्धध्यानधौतहृदयः सबभार ॥१६॥ इतश्च- (ती विषदायको गजभ्रातरौ गृधौ जाती-) भ्रातरौ विमलबुद्धि-सुवुद्धी यो पुराऽपि महसेननृपेण ।
त्याजितो निजपुरं सुरवाक्यात् तो मृतौ गुरुशुचा वनमध्ये ॥१५७॥ ( ताभ्यां गधाभ्यां इतो गजो जातो धनपुत्रो देवदत्त:-) गृध्रतामुपगतावतिपापो आगतो मुनिमिमं ससमाधिम् ।
वीक्ष्य पूर्वधृत वैरभरेण राक्षसाविव रुषाऽजनिषाताम् ॥१५८॥ चञ्चुपुटकोटिकठोरौ तहृदयं च (1) विपाटयतः स्म।
साहसाद् मुनिवरः परिषेहे सोऽनपेक्षहृदयो निजदेहे ॥१५९॥8 कलत्रेण सहितः, सकलान् श्रायते वा सकलत्रः । २ पुस्तके नैष पाठः सम्यक् पठितुं शक्यते- हृदनेनपटु'।
४॥२५८॥
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पुण्डरीक-8 तं परीषहमसौ परिषह्य मृत्युमाप गतपापविकारः ।
॥२६९॥
४
V
१२
तस्य जीव इह ते तनयोऽयं देवदत्त इति योऽस्ति पुरस्तात् ॥ १६०॥ ( गजपत्नी मृता जाता देवदत्तपत्नी) सा ततश्च यतिनी प्रियमित्रा साततास्रु मुनिमृत्युमवेक्ष्य । वेगतोsनशनमेव विधाय पञ्चतामुपगता मृदुचित्ता ॥ १६१ ।। ( मुनिच्घृणात: तस्या इह भवे विमलाभिधानायाः दुर्गन्धशरीरता - - ) साऽवधूतदुरिता खलु मृत्वा त्वद्गृहे सुतवधूरजनिष्ट । पूर्वजन्मनि कृताद् विचिकित्साकर्मतोऽजनि कुगन्धशरीरा ॥ १६२॥
( चक्रवाकवियोगकरणेन तस्यः एव पतिविरह: -- ) यावदष्टघटिकाविरहो यचक्रवाकयुगले विहितोऽग्रे । अष्टवार्षिकमभूदिति दुःखं त्वद्वधू- तनययोस्तु वियोगात् ॥ १६३ ॥
( अष्टौ घटिका सरजस्कतया जिनमन्दिरे स्थानेन अष्ट वर्षाणि तस्या दुरभित्वम् -- ) यावदष्टघटिका जिनगेहे पुष्पवत्यऽशुचिकुत्सशरीरा।
तस्थुषी तदियमत्र कुगन्धा वत्सराऽष्टकमभूदपवित्रा ॥ १६४॥ सर्वदेव सुपवित्रितगात्रैरङ्गिभिः सुकृतिभिर्जिन गेहे । चारुपुष्य- फलपूरित हस्तैः पूजनै कहृदयैर्गमनीयम् ॥ १६५ ॥ इत्यवाप्य शशिशीतमहांसि पुण्डरीकमुनिराजवचांसि ।
सर्वभ्यभविनां सुमनांसि जज्ञिरे गतविमोहतमांसि ॥ १३६ ॥
तैर्वचोभिरमलीकृतचित्तः पूर्वजन्म च निजं कलयित्वा ।
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श्रेष्ठिनोऽस्य तनुजोऽतनुतोषः प्रोचिवान् गणधर प्रणिपत्य ॥१३७॥
चरित्र
सर्गः -७
।।२३९ ।।
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पुण्डरीक
१२७०॥
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( स्वपूर्ववृत्तं श्रुत्वा देवदत्तस्य वैराग्यम्-- ) सांप्रतं कृतकृपैः कथयद्भिः पूर्वजन्म मम तत्रभवद्भिः ।
छेदितः सकल एव भवद्भिर्मोह एष सुकृतं प्रथयद्भिः ॥१६८॥ अद्य मातृ-पितृ-बन्धु-कलत्रायेषु नो मम मनो धृतमोहम् ।।
तत् प्रसद्य भगवन् ! जिनदीक्षां देहि देहिषु सदेहितकारिन् ॥१६९॥ पुण्डरीक! ऋषिराज ! सुधीमन् ! संप्रति प्रचलिता वयमग्रे।
सिद्धितीर्थमभि सिद्धिनिमित्तं श्रीयुगादिजिनराजनिदेशात् ॥१७०॥ तद् विहाय भवसंभवबन्धं दीक्षया सपदि निर्मलय स्वम् ।
सिद्ध पर्वतमुपेत्य च पूर्व पापमुग्रमपि भिन्द्वि समग्रम् ॥१७१॥ अग्रतो ननु वराणसिपुर्या सिद्धशैलशिखरस्य विलोकात् ।
भाविना प्रभविता प्रमदस्तत् त्वं समे हि समयेऽत्र समेहि ॥१७२॥ ४ यतः ( शत्रुजयवर्णकः--) मित्तुंजदसणमीओ पूयाकरणेण मासीयं लहइ । शत्रुञ्जयदर्शनमितः पूजा करणेन मासिकं लभते । तलजागरणे पामइ छम्मासियं वाऽत्र (वेत्थ) जामेण ॥१७३।। तलजागरणे प्रामोति षण्मासिकं वाऽत्र यामेन॥४ पञ्चक्खाणं काऊ वंदित्ता सग्गुरुं पडिकमि । प्रत्याख्यानं कृत्वा वन्दित्वा सद्गुरुं प्रतिक्रम्य । थुवंतो झायंतो वदंतो गुणगणकला च ॥१७४॥ स्तुवन् ध्यायन् वन्दमानो गुणगणकलाश्च ॥१७४॥ वीसामणं कुणंतो सबालबुद्धस्स समणसंघस्स। विश्रामणां कुर्वन् सबालबृद्धस्य श्रमणसंघस्य । ४॥२७॥
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पुण्डरीक
।।२७१ ।।
४
८
१२
अभयं वड्ढाविंतो बहुहरिसुभिन्न रोमंचो ॥ १७५ ॥ 'जय जय' रवं कुणंतो जिणमुत्तिं पासिऊण मग्गेवि पूतो भत्तीए खवेइ संसारमवि णंतं ॥ १७६॥ पंथे वतस्स वि अ वन्दिए जइ हविज पज्जंतो उक्कोस - जहनेणं वेमाणीय सन्नीय सुरतं ॥ १७७॥ अह वंदिऊण कहमवि कालसमत्ती हविल सिज्झेइ अट्टभवाणं मज्झे सुद्धं चित्तं जइ हविजा || १७८ || द सितुंज दंसित्ता मग्गे पावइ सम्ममचिरेण । गुरुकुलजम्मो जइ हुज चेयणा मच्चुकाले वि ॥ १७९ ॥ सितुंजं वंदेइ ति ३ पंच ५ वेला य सत्त ७ वाराओ । asara सिझे इइ कहिये जिणवरिंदेहिं ॥ १८० एक्कre वेory कालेणं अप्पएण बहुएणं । अहवा तिमुहुत्तेणं सिज्झे जहन्नमुक्किदंठ ॥ १८१ ॥ भारतक्षितितले गुरुतीर्थ सिद्धपर्वतममुं सुपवित्रम्
॥
।
।
।
अभयं वर्धापयन् बहुहर्षोद्भिन्नरोमाञ्चः ॥ १७५॥ 'जय जय' रवं कुर्वन् जिनमूर्तिं दृष्ट्वा मार्गेऽपि । पूजयन् भक्त्या क्षपयति संसारमपि अनन्तम् ॥ १७६ । पथि व्रजतौऽपि च वन्दिते यदि भवेत् पर्यन्तः । उत्कृष्ट - जघन्येन वैमानिक-संज्ञिक - सुरत्वम् ॥ १७७॥ अथ वन्दित्वा कथमपि कालसमाप्तिर्भवेत् सिध्यति । अष्टभवानां मध्ये शुद्धं चित्तं यदि भवेत् ॥ १७८ ॥ दृढं शत्रुंजयं दृष्ट्वा मार्गे प्राप्नोति सम्यगचिरेण । गुरुकुलजन्म यदि भवेत् चेतना मृत्युकालेsपि ।। १७९ शत्रुंजयं वन्दते त्रीन् पञ्च वेलाश्च सप्त वारांस्तु । तृतीयभवे सिध्यति इति कथितं जिनवरेन्द्रैः || १८० | एकया वेलया कालेन अल्पकेन बहुकेन । अथवा त्रिमुहूर्तेन सिध्यति जघन्यमुत्कृष्टम् ॥ १८१ ॥
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...
-
( देवदत्तो यतिः) इत्यवाप्य मुनिनाथनिदेशं श्रेष्ठिनुरतिहर्षितचित्तः ।
प्राप्य जन्म निखिलाघविमुक्तं स्वं विधेहि सुविधे ! हितमिच्छन् ॥ १८२ ॥
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चरित्रम्
सर्ग: ७
॥२७१॥
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पुण्डरीक
५२७२ ॥
४
१२
त्रिंशता सुवणिजा ससहस्रैः संयुतो यतिरजायत तत्र ॥ १८३॥
( देवदत्तवधूरपि विरक्ता-- ) तद्वधूरपि विधूय विमोहं साधुराजमवनस्य विनीता ।
प्राह भोगसुभगत्वविकल्पच्छेदनानि वचनानि विवेकात् ॥ ९८४ ॥
आत्मदेह परिपोषनिमित्तं हन्ति हन्त खलु जन्तुरनेकान् ।
निर्मलानि मलिनानि विधत्तेऽप्यात्मदेह विमलीकरणाय ॥ १८५ ॥
आत्मरूपभृशगर्वितश्चित्तोऽन्यान् गुरूनपि हसेत् कुशरीरान् ।
देह मोहितमहादुरितौघैबध्यते परभवेऽपि हि जीवः ॥ १८६॥
तत् प्रभो ! प्रतिभवं तनुबन्धादेव दुष्टदुरितानि भवेयुः ।
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तद् ममाऽनशनमेव भवन्तः संदिशन्तु वितनुत्वविधाने || १८७ ||
ऊचिवानथ मुनिर्ननु वत्से ! पूर्वलक्षमितमस्ति तवाऽऽयुः
नाधुनाऽनशनयोग्यशरीरा त्वं सुदुस्तपतपसुतपस्य ॥ १८८ ॥
( पुण्डरीकविहार:-- ) एवमेष गणभृत् प्रतिबोध्य सोऽभवज्जिगमिषुर्विमलाद्रिम् | तावदेष मृगवेषसुरोत्राऽभाषत प्रभुममुं प्रणिपत्य ॥ १८९ ॥
संप्रतीह भगवन् ! भरतेशेनाऽन्वितसकलसंघयुतेन ।
श्रीयुगादिजगदीश्वर एनां पावयिष्यति भुवं स्वविहारात् ॥ १९०॥ श्रुत्वेत्थं मुदितमना मुनीश्वरोऽयं तस्थौ तैर्यतिभिरभिश्रितः सुरैश्च ।
चरित्रम्सर्ग: ७
॥२७२॥
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पुण्डरीक
-८
मत्वा तं गणभृतमास्थितं नरेन्द्रास्तत्रेयुः सुकृतकृते समस्तदिग्भ्यः ॥१९१॥ सम्यक्त्वं परिगृह्य जैनभुवनान्यारीरचन् केचन नीत्वा द्वादशप्तव्रतानि भुवि केऽप्याऽऽघुषन् रक्षणम् । ॥२७३॥
त्यक्त्वा काममपीह केऽप्यऽचकमन् ब्रह्म त्वजिम्हप्रभं वाक्यात् तस्य मुनेस्तु केचन नृपाश्चारित्रमाशिश्रियन्॥ नृपाः सत्कर्माणः प्रगलद्घमर्माण इति ते गृहीतब्रह्माणः प्रकटितसुधर्माण इतरत् ।
परित्यज्य श्रीमद्गणधरवरं पावितधरं तदाऽऽसेवन्ते स्म स्फुटसुकृतकर्पूरकलसम् ॥१९३॥ ( सप्तमः सर्गः-) श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुषङ्गत्यजन् ।
यो जाड्यस्थितिरप्यभूत् प्रतिदिनं प्रासाद्भुतप्रातिभः। ४ तेन श्रीकमलप्रभेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः श्रीशत्रुजयदीपकस्य चरिते सोऽभवत् सप्तमः ॥१९४॥ ॥ इति रत्नप्रभसूरिशिष्यकमलप्रभसूरिविरचिते श्रीपुण्डरीकचरित्रे देवदत्तपूर्वभव
वसुधनदीक्षा ग्रहणोनाम सप्तमः सर्गः ॥
अष्टमः सर्गः ( आदिजिनं पृच्छति भरतः-) अथ पुण्यसोरभरतो भरतो नृपतिः सुभक्तिभरतो यतिनः।
प्रणमन्नवीक्ष्य गणभृत्-प्रथमं परिपृच्छति स्म स तमादिजिनम् ॥१॥ भगवन् ! भवद्गृणभृतां प्रवरः स्वविहारतः शुचिचरित्ररतः।
विमलीकरोति मिली परच्छिदुरो महीतलमहीनमहाः ॥२॥ १ अहीनमाहाः ।
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पुण्डरीक - 8 (अवदत् आदिजिन:-) अवदत् ततः प्रथमतीर्थपतिः शृणु चक्रनायक ! स साधुवरः ।
॥२७४॥
४
१२
विकल्यत्यनुकलं भविनो विमलाचलं प्रविचलन्नधुना ॥ ३ ॥
विमलाचलस्य तलमाध्य मुदा गणभृत् तदाऽस्मदुपदेशवशात् ।
कलयिष्यति स्फुटकलङ्ककला विकलः स केवलमहः सकलम् ॥ ४ ॥
अत एव संप्रति वयं विमलाचलयात्रया ऋषभ सेनमुनेः ।
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नवकेवलोत्सवविधिं गतिभिः सुदिक्षुभिर्भृशमहोत्सुकताः ॥ ५ ॥
इति पुण्यपोषदमिदं वचनं भरताधिपः प्रथमशम्भुमुखात् ।
परिपीय पीवरतरप्रमदो वदतां वरः प्रवदति स्म तदा ॥ ३ ॥
( भरतस्य विमलाचलयात्रा—) भगवन् ! प्रसघ सुकृतैकविधिः प्रविवीयतामथ विहारविधिः । विमलाद्रिमाप्य कुटुम्बयुतः स्ववपुः पुनाम्यहम्पीह यथा ॥ ७ ॥
इति चक्रवर्तिहृदयं वचनैः शुचि वीक्ष्य विघ्नहृदयं जिनपः ।
( यात्रायै पहघोषणा – ) स्वपुरे समेत्य दिवसेsfuse स बृहस्पतिना स्लपिताङ्गकोऽम्बरसरिद्वरया ।
१ भृशं मद्दे उत्सवे उत्सुकताः। २ विघ्नं हरति इति विघ्नहृत् । ३' वर्' धातोः क्रिया । ४ गङ्गादेव्या स्नपिताङ्गः ।
बहुपुण्यलाभ मवगत्य नृणां विमलादिसंगममियेष ततः ॥ ८ ॥ भरताधिपतिर्निजबान्धवांश्च पुरमुख्यजनान् ।
विमलाचलं जिगमिषुः सुकृती समतत्वंरत् पटहघोषणाया ॥ ९ ॥
चरित्रम्. सर्ग: -८
॥२७४॥
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॥२७
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इह रोहिणीप्रभृतिषोडशभिस्त्वमरीभिरेष कृतमाङ्गरिकः ॥१०॥ चरित्रम्. विनिर्मितशिरस्तिलको बहुशः सुरीगणसुगीतगुणः ।
सर्गः-८ मघवाऽपितं सुजिनबिम्बमथो तदपूपुजद् भरतचक्रपतिः ॥११॥ (इन्दादिभिः कृतं भरतसाहाय्यम्-) अथ तं मनोरथमवेत्य तद ऽप्यमरेश्वरः स्वरसतः सुकृती।
मणिदेवतालययुतं स्वरथं जिनमूर्तिसुस्थितिकृतेऽपितवान् ॥१२॥ ( यात्रामहः- ) जिनबिम्बमाशु परिपूज्य स तद् विधौ रथस्थमणिदेवगृहे ।
जयतादसौ प्रथमसंघपतिस्त्विति पुष्पवृष्टिरजनिष्ट तदा ॥ १३ ॥ अथ चन्द्रमा उडुगणाधिपतिः स्वतुरंगमान विततरङ्गभरात् ।
उपनीय योजितकरो न्यगदद् भरतेश्वरं सुकृतबन्धुतया ॥१४॥ जय चक्रभृत् ! प्रथमसंघपते ! तुरगानमून् मम जिनेन्द्ररथे ।
विनियोज्य तीर्थपथयुग्यतयाऽनुगृहाण मां प्रियसधर्मिजि(ज)नः ॥१५॥ ४॥ इति चन्द्रदेवविहिताग्रहतो भरतेश्वरो हरिहरीन हरितान् ।
__ परिहत्य तानथ रथोहहने निधे हयान् कुमुद-कुन्दरुचः ॥१६॥ यमुनासुरी च सुरसिन्धुसुरी कृतभूषणे विधृतचामरके ।
रथमेनमाप्य जिनगेहपुरो मुदिते सुतारुम्प्रतिभे ॥१७॥ है
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१ इन्द्राश्वान् । २ द्विवचनम् ।
॥२७॥
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॥२७६॥
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पुण्डरीक- गजगोऽथ गोमुखसुरो वरकृजपमालिकाभृदपसव्यकरः।
- पुरतः स्थितो विपुलसव्यकरद्वयबीजपूरफल-पाशधरः ॥ १८ ॥ 8. गरुडस्थितिः कनकपिङ्गतनुः शर-पाश-चक्रभृदिदंवरदा ।
इति वामकैरथ सुदक्षिणधनुरङ्कुशा-शनि-सुचक्रधरा ॥१९॥ सुकृतस्थभव्यजनविघ्नहरा जिनराजशासन विभावकरा ।
__पुरतो रथस्य भविषु प्रचुरीकृतसमदा स्थितसुचक्रसुरी अथ हस्तिमल्लमधिरूढवता त्रिदशेश्वरेण सुरलक्षयुजा।
सह चक्रभृन्नृपसहस्रवृतः गजगोऽगमज्जिनरथानुगतः अथ पञ्चशब्दमुखरे गगने जयराववादिनि सुवन्दिजने।
सुरगीतलास्यसुविलास्यजगजनताऽऽस्यहास्यमहसि प्रसृते ॥२२॥ धरणीभृतः पविभृतश्च तदा युगपद् महादविणदानभरैः ।
अदरिद्रतामुपगले ज िप्रचच.ल सोऽथ जिननाथरथः ॥२३॥ विनमः सुताप्रभृतयो दयिता भरतेश्वरस्य सुकृतेषु रताः ।
सहिता विमानचयमुच्चशचीप्रमुखाऽमरीभिरिह चारुरुहः ॥२४॥ भरतेशितुः प्रथमसंघपतेरमरीगणाः शुचिगुणानगणाः।
20000000000000000000000000000000000000000
२
१ प्र० स्थागत:। २ इन्द्रस्य ।
॥२७६॥
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॥२७७॥
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प्रमदाभिरत्र सह भूमिभुजा प्रमदाद् जगुर्जगति भूरिकरान् ॥२५॥ कनकोत्म दिव्यवसनात्म तदा सुरगीतिकात्म सुकृतात्म मुदा ।
जगतां हितात्म महितात्म भृशं तदयोध्यपत्तनमभूदनिशम् ॥२६॥ इति चत्वर-त्रिक-चतुष्क-महापथकेषु गीतनवनृत्यभरम् ।
प्रविलोकयन् प्रमदयन् भविकान् समचीचरद् निजरथं भरतः ॥ २७ ॥ (शकटाननम् उद्यानम्-) शकटानने निजपुरोपवनेऽवनिपालनः स रथमेनमथ ।
सुकृती कृती सपदितं जगतः प्रमदेन निश्चलयति स्म समम् ॥२८॥ ( यत्रायै नृपाणां निमन्त्रणम्-) विमलाचलं प्रति पियासुरसौ सुरसौहृदाद् भरतसंघपतिः।
भरतक्षितिस्थितिभृतः क्षितिपान् समजूहवत् सुकृतलाभकृते ॥२९॥ भरतेशितुः शुभरतेर्वचनं क्षितिपा अवाप्य मुदिताः स्वहृदि ।
इति भावनां विदधिरे रुचिरा परमात्मनः सरसभोज्यनिभाम् ॥३०॥ प्रभवो भवन्ति न भवेऽत्र कति प्रभवेन्न केषु च जयो जगति ।
नरमाप्य कंचन रमा श्रयति ननु केषु नो भवति दानमतिः॥३१॥ प्रभुता शमप्रणयिनी नयनी विजयोऽस्य विक्रमशुचिः क्रमवान् ।
___ कमला गलन्मदकलङ्कमला सुगतेनिदानमपि दानमिदम् ॥३२॥ २ सर्वाणि आत्माऽतपदानि अयोध्यापत्तनस्य विशेषणानि ।
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पण्डरीब
॥२७८॥
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वरमस्मदल्पबलताऽपि यया विजिता वयं भरतभूमिभुजा।
चस्मिा अनुजीविताऽपि वरमस्य विभोः सुकृतोद्यमो भवति यद्वशतः ॥३३॥ सर्गः-८ ( आगता नृपाः-) इति चेतसा नृपतयो निखिलाः परिभाव्य भूरितरभावभृतः।
भरतेशपार्श्वमुपजग्मुरमी विमलाचलं प्रति यियासुहृदः ॥३४॥ ( आदिजिनोऽपि स्फुटिकाचलाद् अचलतू-) तदनु व्यशीतिगणभृ प्रपरैः सहितस्तपोधनसहस्रवृतः ।"
कनकाऽम्बुजेषु चरणौ निधत् स्फुटिकाचलादचलदादिजिनः ॥३५॥ अतनोस्तनोः परिमलाद विदधत् सुरभि समग्रतरुपुष्पचयम् ।
____ अतिदीपयन्नमलदीप इवाऽखिलरोदसी स्वमहसा सहसा ॥३६॥ 8 मणिरत्नमौक्तिकमयप्रतताऽऽतपवारणत्रितयतो जगताम् ।
सुविकाशयन्नधिपतामरंधूतचामरैर्विहितभक्तिभरः ॥३७॥ ४ गगनस्थधर्मकरचक्र-महाध्वज-सिंहपीठ-पदपीठयुतः। नददुच्चदु दुभिरप्रिगनदिटपानुकृपशकुन-श्वेसनः ॥४ प्रसरत्सुगन्धजलसत्कुसुमोचयवृष्टिरीतिकृतभीतिहरः।
सकलेन्द्रियप्रमदद यिऋतु प्रवृतमं क्षिलित रचयन् ॥३९॥ ४ (आदिजिनेन सह नृपसमूहसाहतो भरतः यात्रायै प्रस्थितः-- ) सुरकोटिभिः प्रतिपदं प्रमदात् क्रियाणपुण्यविजयध्वनितः। ४
विमलाचलं प्रति महातिशयः एविताशयः स विजहार विसुः ॥४॥ १ श्वसनो वायुः। २ ईतिकृतां भीति हरति यः ।
४॥२५६५.
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प्रहरीक
सर्गः-८
४
भरतो युगादिजगदीशममुं समुपागतं समवनम्य मुदा ।।
___तमचीचलत् तदनुगस्तदनु पृथुनोत्सवेन जिननाथरथम् ॥४१॥ ॥२७९॥ अथ भूभुजो निजजिनेन्द्ररथान् द्विकरूपषोडशसहस्त्रमितान् ।
___ अनुचारयन्ति मुदिताः स्म ततो विनयोज्ज्वलं हि सुकृतिनां कृतिनाम् ॥४२॥ अनुकूलशीतलसुगन्धतरैविरजीकृते क्षितितले समीरैः।
शुभगन्धवारिधरवारिधरैः शिशिरीकृते च मृदुवर्षकरः ॥४३॥ द्विगुणोच षोडशसहस्रसरः सरसीकृतः सुबहुसत्रगृहः।।
सहितश्च दिव्यफल-पुष्पयुतोत्तमशाखिभिः परिवृतः सततम् ॥४४॥ 8 ( भरतसंघो मथुरामगमत्-) अदरिद्रयन्नमलयंश्च सदा भृशदानतः सुकृततश्च जगत् ।
अनघः स संघ इह संघपतेर्भरतेश्वरस्य मथुरामगमत् ॥४॥ ( पुण्डरीकसमागमः- ) मथुरापुरीपरिसरे प्रथमं जिननाथमागतमवेत्य तदा ।
अथ पुण्डरीकगणभृत् सगणः समुपेत्य चारु विनयादनमत् ॥४६॥ प्रथमप्रभुप्रणयमभया रुरुचे मुनिः स सविशेषरुचिः ।
दुरितोपशान्तिकृतये जगतः शशिनो रुचेव वचसामधिपः ॥४७॥ 8 अथ पुण्डरीकगणभृत्प्रवरं प्रविलोक्य शुद्धयतिकोटिवृतम् ।
१३२०००।२ बृहस्पतिः।
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मरीक
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प्रणनाम भूतलमिलन्मुकुटः प्रकटप्रमोदभरतो भरतः ॥४८॥ प्रथमार्हतः प्रणमनप्रमदात् दुरितव्ययो गणधरस्य यथा ।
भरताधिपस्य च तथैव गणाधिपतेः पदप्रणमनात् समभूत् ॥४९॥ सुकृतोत्तरोत्तरपवित्रतरः सुकृती त्रिलोकजनहर्षकरः ।
स चतुर्विधश्चतुरधर्मिनरः प्रचचाल संघ उदयत्प्रसरः॥५०॥ (स संघो वराणसिपुरीमगमत्-) अथ संघ एव पृथिवीमखिलामपि पावयन् प्रचुरपुण्यभरैः ।
__अगमद् वराणसिपुरीं तु यतो न गरीयसी दिविषदां नगरी ॥५१॥ (तेन संघेन अत्र विमलाचलो दृष्टः-) बहुकालतोऽभिलषितं हृदये लिखितं युगादिजिनवाक्यरसैः।
विमलाचलं प्रथितसिद्धगिरिं ददृशुभृशं शुचिदृशोऽत्र जनाः ॥५२॥ स वराणसीपरिसरं सरसं गतवान् समग्रसुरसंगतवान् ।
विमलाचलप्रथमवीक्षणतो मुदितोऽजनि प्रथमसंघपतिः ॥५३॥ मणि-हेम-रूप्यमयवप्रवरत्रययुग् युतं च मणिपीठिकया ।
समशिश्रियद् जिनगृहं जिनपः सुरराज-संघपतिभक्तिभरात् ॥५४॥ इह सर्वजीवहृदयप्रमदमदमेष योजनविसपि तदा ।
वचनामृतं विमलशैलमहामहिमान्वितं शुचि ववर्ष जिनः ॥५५॥8| प्रभुदेशनाभवणतो हि तदा हितदा भृशं विगतसर्वमलाः ।
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२
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पुण्डरीक
॥२८१ ॥
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८
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इह केवलप्रतिभया कलिता भविनोऽभवन् दशसहस्रमिताः ॥ ५६ ॥ ( विमला चलप्रथमवीक्षणमहः--) अथ केवलोत्सवम्मी त्रिदशा विविधं व्यधुर्विधिविवेकविदः ।
विमलाचलप्रथमवीक्षणजं विदधे महं च भरताधिपतिः ॥५७॥
विमलाद्रिमूर्तिमधिरोप्य पुरः परिपूज्य पूज्यजनपूजनकृत् । समितां घृतेन ( ? ) सितया ( १ ) प्रमितां निदधे मूढकसहस्रमिताम् ॥५८॥ स्वधर्मिणां त्रिदशनाथमथो सहितं समग्रविबुधैः स हितम् ।
प्रचुराग्रहेण सुनिमन्त्रितवान् निजभोजनाय जननाथवरः ॥ ५९ ॥
विगतनसा स्वमनसा सुमनः पतिरेष किश्चिदवगत्य महत् ।
निखिलानो सुकृतिनो नृपतीन्-अभिमन्त्रय चक्रधरसंघपतिः ।
अनुमन्यते स्म भरतस्य वचो महतां मतिः सुकृतवृद्धिकरी ॥ ६०॥
इह लक्ष्यसंख्यमणिरत्नगृहान् समचीकरत् स्थपतिरत्नकरात् ॥ ६१॥
अमरानसौ सुरपतिप्रमुखान् कनकासनेषु विनिवेश्य मुदा । मणिभाजनानि विविधानि पुरो बहुभक्तितः स्म किल मण्डयति ॥ ६२ ॥ मणि - हेम-रत्न-रजतान्युषंसि परिपाकपेशलरसानि भृशम् ।
समभोजयद् मधुसुहृत्समभोऽसमभोगतस्तदनु तोषितवान् ॥ ६३ ॥
१ प्रातः। २ अनप्रभः ।
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चरिष्य
सर्ग: ८.
॥२८१०
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चरित्रम्, सर्गः-८
॥२८२॥
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(मनुष्याणाम, देवानां च सह भोममम्-) अमरेश्वरः स्वपरिवारयुतो विधेऽशनं निजसर्मिगृहे।
इति लोकरङ्गकरणकबलैर्बुभुजे सुरैरपि तदा कवलैः ॥१४॥ सस्य मध्यसमयेऽथ नृपान् भरतेश्वरः स्वपरिवारवृतान् ।
स रसाधिपो रसवतीः सरसाः प्रविधाप्य तान् सपदि भोजितवान् ॥३५॥ इति धर्मकर्मनिरतान् भरताधिपतिः सभोज्यशचिभोज्यभरी।।
वसनैश्च रत्न-कनकाऽऽभरणः नृ-सुरेश्वरान् परिपूजितवान् (तत्र मुक्ति प्राप्ता मुनयः-) अथ तत्र तेऽभिनवकेवलिनोऽनशनं विगृह्य परिपाल्य शचि ।
अजरामरं पदमवापुरथो भरतस्तदुत्तरविधि विदधे ॥३७॥ ४। तत्र अतिमुक्तकं तीर्थ प्रथितम् - ) भवसंभवं सुपरिहत्य तमो भुवि यत्र मुक्तिमगमन् यतिनः।।
अतिमुक्तकाभिधसुतीर्थमिह प्रथितं बभूव शुचि तत्र महत् ॥३८॥ 'विश्वनाथ ' देवगृहं भरतेन कारितम्-) इह विश्वनाथ इति नाम मणीमयमूर्तिभूषितमद्धृतरम् ।।
रचयांचकार गुरु देवगृहं सुविवेकिन गुरुरयं नृपतिः ॥६९॥ ( दशसहस्रमितानि पौषधगृहाणि-) परितस्ततो भरतसंघपतिः सुगुरूणि पौषधगृहाणि तदा ।
समचीकरद् दशसहस्रमितान्यमितप्रभाणि सुकृताय कृती ॥७॥ अथ लक्षमेकमिह धर्मरतान् भविनो जनांस्तु विरताविरतान् ।
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१ प्र. मुक्ति गमयन् ।
॥२८.२॥
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पुण्डरीक
॥२८३॥
४
१२
समतिष्ठपत् प्रथितकाकणिकामणित त्रिरेखितहृदः सुहृदः ॥७१॥
गुरुचारुवप्रवलयेन वृतां धन-धान्यराशिभिरतीव भृताम् ।
विहितां विलोक्य भरतेन पुरीमितराममन्यत जनो भुवनात् ॥ ७२ ॥ ( संघो विमलशैलमारूढः – ) अथ पुण्डरीकगण भृद्विहिताग्रहतो हतोग्रदुरितो जगताम् । प्रथमप्रभुर्विमलशैलमभि प्रचचाल संघपतिनाऽनुगतः ॥७३॥ विमलाचलप्रथमवीक्षणतः क्षणतः प्रमोदभरपूर्णहृदौ । - सुरेश्वरौ स मृगवेषसुरः परिभाव्य भावसहितं न्यगदत् ॥७४॥
तथाहि - (सिद्धाचलनामपूर्वकं स्तुति:-) परागैरुड्डीनै विहिततिलकः स्वर्तुमभवैः स्वशृङ्गप्रोद्भूतान् विमलकरणानक्षतविभान् । क्षिपन्नुञ्चैरेष्यद्भविकजनशीर्षेषु पुरतः प्रभुः श्रीसिद्धाद्विवितरतु सितं मङ्गलशतम् ॥७२॥ (त्रिम ) महीमहीनप्रतिभो महाभृत् त्रिशृङ्गनामा गुरुनीलष्टङ्गः । शृङ्गारयत्यम्वरगप्रभाभिर्विलोभयन् सूर्यरथस्य रथ्यान् ॥ ७३ ॥
(भूमिगृहाभिधान:-) सिद्धाद्रिशृङ्गं सुगिरिर्गरीयानयं पुरो भूमिगृहाभिधारः । stars शृङ्गैrरुणस्य चित्तेऽरुणोदयाशङ्कनमादधाति ॥ ७७ ॥
( कदम्ब:-) किल सकलकलाभृतां निषेव्यः कनकरसाकर कूषिकौषधीभिः । सहित इह हितो महीतलस्य गुरुगिरिरेष विलोक्यतां कदम्बः ॥७८॥
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चरित्रम्सर्ग: ८
॥२८३४.
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( तलभ्वजनामा-) पुरत इतोऽस्ति तलध्वजनामा क्षितिधर एष निर्मलधामा । यस्य गुहासु समाधिसुधीराः सन्ति सदोषधसिद्धशरीराः ॥७९॥
सर्गः-८ 8 (रैवतकपर्वतः-) स रैवतिकपर्वतो विमलशैलराजस्य यः कुमार इव राजते क्षितिपराज! ते दृक्पुरतः। 8 सुवर्ण शिखरयुता कपिशितांशुभरो यतः सितांशुरपि पद्मिनी निशि धिनोति सिद्धिभ्रमम् (?) ॥८॥ 8 मणिपूतभूतलभूतनूतनचूतराजिविराजितं शुचिसरससरसीसारसरसिजसुरभिरजसा रञ्जितम् । 18 परिपाकपेशलहाररा(राजी)हारिहर्म्यकसंकुलं परिहरति गिरिवरमेन मनिशं नैव किन्नरवरकुलम् ॥८१॥
विमलस्मिता भृशविस्मिता गिरिशृङ्गसंगमरञ्जिताः। लसदङ्गरगाविवर्तनं रचयन्ति निर्मलनर्तनम् ॥८२॥ विमलस्मिता भृशविस्मितस्मितललितनयनसरोरुहाः गिरिशृङ्गसंगमरजितस्थितमनसि सकलकलावहाः । लसदगारङ्गविवर्तनालससरसकिन्नरसंगता रचयन्ति निर्मलनर्तनान्यतिमदनमदनरसं गताः ॥८३॥ शशिमण्डलाननमण्डलाः श्रवणावतंसितकुण्डलाः। जनयन्ति संततडम्बरं निबिडप्रभाभरमम्बरम् ॥८४॥ शशिमण्डलाननमण्डलद्युतिदलितकैरवजालिकाः श्रवणावतंसितकुण्डलक्षतगण्डदर्पणपालिकाः।
जनयन्ति संततडम्बरं धनवारिशीकरतालिकाः निविडप्रभाभरमम्बरं सुरसिडकिन्नरबालिकाः ॥८५॥ ४ निर्दम्भा रम्भा हर्षजुषः शृङ्गारागारालापपुषः । संसारं सारं रङ्गकृतं कुर्वन्त्योऽवन्त्यो दुःख भृतम् ॥८६॥8 ४ निर्दम्भा रम्भा हर्षजुषः सुखसखमणिभिः (१) सह हास्यश्रुताः
शृङ्गारागारालापपुषः कषमुखकषितोत्तमकनकनिभाः। ४ संसारं सारं रङ्गकृतं कृतकृतिजनताविततप्रमदाः कुर्वन्त्योऽवन्त्यो दुःख भृतं भृतधृतिमनसं सुमनःप्रमदम् ॥
8॥२८॥
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॥२८५॥
पुण्डरीक - 8 सा (ता) रम्भा रम्भागर्भरुचः स्वच्छन्दा मन्दामोदमुचः । सव्रीडं क्रीडन्त्यो गगने शोभन्ते ऽनन्ते सिद्धधने ॥ सा(ता) रम्भा रम्भागर्भरुचः कुचघटघटिताऽतनुहारगणाः स्वच्छन्दा मन्दा मोदमुचः शुचमपहर्तुं जगतः प्रगुणाः । सीडं क्रीडन्त्यो गगने गुरुगजगतिगमना लावणिकं शोभन्तेऽनन्ते सिद्धघने घनजनितातपवारणकम् ॥ उपशम्भुरयं गिरिः पुरः परिविभ्रत् सुरनिर्मिताः । पुर विविधैरमरद्रुमैर्नवैरमरीपरमरीरमत् सदा ॥ ९० ॥ | ( चतुरशीतिः शृङ्गाणि - ) इत्यादिभिश्चतुरशीतिभिरेष शृङ्गः शृङ्गारितः परित एवं भुवस्तलेऽस्मिन् । शत्रुञ्जय क्षितिधरोऽस्ति युगादिदेववचवाम्बुजमचरितोचतरप्रभावः॥९१॥ इति वर्णयत्यमकर्णसुधाश्रवया गिरा हरिणवेषसुरे ।
विमलाचलं प्रथमतीर्थमथाऽधिरुरोह स प्रथमतीर्थपतिः ॥ ९२ ॥ ( आदिजिनदेशना - ) मुदिताश्चतुर्विधसुरा जिनपस्थितये तदैव समवसरणम् | रचयांप्रचकुरमलप्रतिभं विबुधत्वमेव सुविवेकनिधिः ॥ ९३ ॥
८
४
१२
इह तीर्थ समवसृत्य चतुर्वदनो दिशन् सदुपदेशमसौ ।
परिपूर्य च प्रथमपौरुविकामभिरामरुक् स विरराम विभुः ॥ ९४ ॥
अथ पुण्डरीकणभृत् स विभोः पदपीठमाप्य निजदेशनया ।
भविनो व्यबोधयदसौ सकलान् स्वगुरुक्रमोन्नतिकृते हि शुभाः ॥ ९५ ॥ अपरां प्रपूर्य कि पौरुषिकाम् — उपदेशतः स्वयमपि व्यरमत् ।
भवभावभीरुहृदयोऽन्यदिने गणभुइरस्तु स चिन्तितवान् ॥९६॥
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चरित्रं
सर्गः-८
॥ २८५ ॥
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पुण्डरीक
परित्रम्
॥२८६॥
मगः-८
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( पुण्डरीकगणभृतः संलेखना-) प्रभुरूचिवान् यदनुभाववशाद् मम केवलोद्भवमयंस गिरिः।
__ मनसेत्यऽवेत्य यतिकोटिकृतः समलेखयत् स विधिवद् गणभृत् ॥१७॥ उक्तंच-( संलेखनास्वरूपम्-) "सर्वोन्मादमहारोग-निदानानां समन्ततः । शोषणं सर्वधातूनां द्रव्यसंलेखना मता ॥९८॥ यो राग-द्वेष-मोहानां कषायाणां तु सर्वथा। नैसर्गिकद्विषां छेदो भावसंलेखना तु सा " ॥१९॥ प्रतनूचकार स निजां च तनूमपि रोष-तोष-मदनप्रभृतीन् ।
___अथ साधुकोटिभिरसौ वृतो गणनायकः प्रविधेऽनशनम् ॥१०॥ अपरेचुरायजिनपः स्वगणेश्वरकेवलोदयकृते सदसि।
विमलाचलस्य महिमानमिति प्रततान मानवधियोऽप्यतिगम् ॥१.१॥8 ( अनशनं कृतवतः पुण्डरीकस्य कैवल्यम्-) भवमोहसंशयतमच्छिदुरात् भशशुद्धमुक्तिपद्वीविरोत् ।
प्रभुवाक्यतो गणभृतो निभृतः प्रससार केवलमही सुभृतम् ॥१०२।। किल केवलावरणहेतुचयं स जिनस्तथा किल विवेचितवान् ।
__ यतिपञ्चकोटिभिरयं प्रकटः प्रहतोऽवगत्य सकलोऽपि यथा ॥१०॥ यतिपञ्चकोटिभिरमुष्य विभोः शुचि सर्वथाऽप्यवगतं वचनम् ।
कथमन्यथाऽनघमघच्छिदुरं तदमीषु केवलमहोऽभ्युदितम् ॥१०४॥
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. वेदकं विदुरम् ।
॥२८६॥
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चरित्रम्.
॥२८७||
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४(चत्र पूर्णिमायाँपुण्डरीकः शिवं गतः--) अथ चैत्रमासि शुभभासि तदोत्तमपूर्णिमाख्यदिवसे स्ववशाम् ।
स्वशिवश्रियं प्रथममाश्रितवान् गणभृत् स ततो मुनयोऽनुययुः ॥१०५॥ गणनायके सुयतिवर्गयुतेऽप्यपवर्गमाश्रितवतीह सुराः।
भरताधिपमभतयश्च नृपा अभवन् सदाखिनहृदो निखिलाः ॥१०६॥ अनुलिप्य तं मुनितनुपचयं शुचिदुग्धनीरनिधित्तीरभुवि ।
परिलिप्य चन्दनभरैज्वलनादय संस्कृति दिविषदो विदधुः ॥१०७॥ भय दिव्यगन्धजलवृष्टिभराद् विमलाचलं विमलयन्त्यमराः ।
विततं महोत्सवमुदनमुदः प्रथयांबभूवुरचलप्रतिभम् ॥१०८॥ ( भरतेन मन्दिरं कारितम्--) कृतपीठकं मरकतर्मणिभिर्जलकान्तरत्नमयगर्भगृहम् ।
विविधेन्द्रनीलशिखरं विलसन्नवहीर-रूपकलसेन युतम् ॥१०॥ शचिषजनिर्मितसुदण्डमहाध्वजराजितं विविधतोरणकम् ।
द्विकयुक्तविंशतिसुदेवगृहैः परितो विशोभितमुरुप्रतिभम् ॥११०॥ ४ कनकात्मवप्रवलयेन वृतं जिनमन्दिरं सुगुरु चारुरुचा ।
रचयांचकार रचनाचतुरो भरताधिपो रुचिरवासनया ॥१११॥ (त्रिभिविशेषकम् ) 8 इह मूलमन्दिरसुगर्भगृहे प्रथमाऽर्हतो विमलमूर्तिमसौ।
१ प्र. विमलयममराः । २ प्र० लसमविहीर-1
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॥२८७॥
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पुण्डरीक
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प्रभुपुण्डरीकगणमत्प्रतिमा-सहितां न्यवीविशदिलाधिपतिः॥११२॥ अजितप्रभुप्रभतितीर्थकृतो जिननेमिना विरहितान् भरतः ।
___समतिष्ठपद् वृषभदेवगिरा परितो जिनेन्द्रगृह केषु तदा ॥११३॥ 8 रवि-चन्द्र-भौम-बुध-वाक्पतयो भृगुपुत्र-राहु-शनि-केतुयुताः।
___ भरतेश्वरं प्रथमसंघपतिं न्यगदन पुरोविरचिताञ्जलयः ॥११४॥ विजयख संघपतिषु प्रथमाऽखिलजैनमूर्तिपदपमतले ।
रचयाऽस्मदीयरुचिरप्रतिमा नव सैवं (2) जन्मफलमस्त्विति नः ॥११५॥ इदमीयमाग्रहमवेक्ष्य नृपः प्रणिपत्य स प्रभुमपृच्छदिति ।
क्रियते प्रभो! कथमिदं वचनं प्रभुरप्यवक शृणु संघपते ! ॥११॥ इह भस्मकग्रहमुखा उडुपा अपि धर्मकर्मविहितैकहृदः । .
__ बहुकालराशिपरिभोगकृतो न हि तुच्छजीविनि जने विदिताः ॥११७॥ 8 नव सर्वदा पुनरमी उड्डपा विदिता पुरातनजिनांहितले।।
___ अभवन् स्वमूर्तिभिरतस्त्वमपि कुरु पूर्वरीतिमुचितोपचितम् ॥११८॥ (प्रभुवाक्यतः जिनमूतैरधः नवग्रहमूर्तिः--) प्रभुवाक्यतः स्थितिमिमां जगतो भरतोऽवगत्य स तदाग्रहतः।
घटयां चकार च नव प्रतिमाः सकलाहतां पदसरोजतले ॥११९॥ १ अत्र मषीयाताद् न स्पष्ट गम्यते ।
।।२८८॥
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ચૈત્ર માસના શુકલ પક્ષની ઉત્તમ પૂર્ણિમા તે દિવસે પુડકિરવામી પાંચ ૧૪ ફ્રેડ મુનિઓની સાથે શત્રુ જયગિરિ ઉપર માસે ગયા, 张长长长并派现8%
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चरित्र.
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( कपर्दी-) अथ सार्धसागरमितायुरसाबमरो द्वितीयसुरलोकभवः ।
प्रथमप्रभुं स तु कपर्यभिधः प्रणिपत्य हर्षभरतो न्यगदत् ॥१२०॥ भगवनहं सपदि सिद्धगिरि प्रति भक्तयात्रिकजनस्य सदा ।
___अतिदुष्टदेवकृतविघ्नभरं निजजीवितावधि विहन्मि भृशम् ॥१२॥ प्रभुरूचिवानथ कपमर ! त्वदभिग्रहः सुकृतिनां सुखकृत् ।
चिरमेधितामिह पदे बहवो भवितार एव सुकपर्दिसुराः ॥१२२॥ अथ:खेचरा अपि सुवासनया जिनपं प्रणम्य दशलक्षमिताः ।
किल जैनपूजनमिहाऽनुदिनं प्रविदध्म आग्रहमिमं जगृहः ॥१२३॥ ४ (जाहनवी गिरिनामधेयकलिता नदीमुदमन्यत्-) अथ जाहुनबी भरतरराजकृतं प्रविलोक्य तीर्थभुवि जे गृहम ।
गिरिनामधेयकलितां सुनदीमुदमजयन्निजविभावभर ॥१२४॥ (सिगिरितः सर्वे उत्तीर्णा:-) इति भावतः सुर-नरैः खचरैः परिपूरिते सकलधर्मविधी।
भरतेन देवपतिनाऽनुगतः प्रथमो जिनोऽप्युदतर गिरितः ॥१२५॥ (चमचकारपुरम् -) क्षितिभृत्तले चमचकारपुरं निकषा स निष्करुचिरागरुचिः।।
समवासरद् गणभृतो विरहोद्भवचक्रवर्तिगुरुदुःखभिदे ॥१२६॥ अथ स प्रभुर्भरतसंघपतिं निजगाद संसदि सदुःखसुखम् ।
सुतशोकसंकुलतयाऽऽकुलता कुलतःपकृत् किमु धृता भवतो? ॥१२७॥
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॥२८९०
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गणभृद्वरस्य तनयस्य शिवाध्वनि जग्मुषः परमसौख्यजुषः।
चरित्रम् विरहाद् बिभर्षि हृदि दुःखमिदं किमु पुण्डरीकयतिनस्त्वमपि ॥१२८॥ ॥२९॥ विततोग्रपापनि कुरम्बयुतं सुकरम्वितं विविधदुःखभरैः ।
सर्गः-८ अपहाय संभवममी अपुनर्भवमाश्रयन्ति यतिनो हि यदा ॥१२९॥ परमं महः परम एव महः परमं सुखं च तदहः परमम् ।
यतिनां तदा भवति भव्यजनैः किमु घर्तुमतिरुचिता कृतिभिः ॥१३०॥ अपहाय तन्निजसुतस्य शुचं कुरु धर्मकर्म भव निर्मलहृत् ।
____ स्वजने निजं हृदयरङ्गमहो सुकृतैर्नवैः प्रकटयन्ति शुभाः ॥१३१॥ इति चक्रभृत् प्रथमतीर्थपतेर्वचनं निशम्य शमसौम्यमनाः।
इह पश्चकोटिमितरस्य गृहाण्यथ पत्तने व्यरचयन्नृपतिः ॥१३२॥ है ( माहना:-) धन-धान्यराशिनिभृतेषु भृशं सकलेषु सनसु स तेषु नृपः ।
शुचिमाहनान् परमधर्मरतान् समतिष्ठपत् परिहताथमतीन् ॥१३३॥ 8 इह पञ्चविंशतिसलक्षजिनेश्वरमन्दिराणि भरताधिपतिः ।
प्रतिधाम पोषधगृहं च पुरे स्थपतेः करादरचयद् मुदितः ॥१३४ रुचिरं स्वयं विरचितं नगरं भरतो विलोक्य भृशहर्षभृतः ।
अतनुमहोत्सवमसावतनोद् जिनमन्दिरेषु परिपूज्य जिनान् ॥१३५।। परिहता आदी. अमत्तियाँस्तान् अथवा 'पहिताश्यमतीन' इति सुघटम् ।
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पुण्डरीक
॥२९१ ॥
४
१२
(भंइदासनम्, आनम्दपुरम्, आदिपुरम्, बृहत्पुरम्, वमचकारपुरम् - ) इदमई दासनमथाऽऽदिपुरं सुबृहत्पुरं चमचकारपुरम् । इति नामभिः क्षितितले सकले विदितं सुपत्तनमभूदमलम् ॥ १३६ ॥ उक्तं चशत्रुंजयतलवी बावीसं जोयणाण वित्थरीयं । शत्रुंजयतलपीठे द्वाविंशतियजनानां विस्तृतम् । नयरं रयणागारं भरहेसरथप्पीयं आसि ॥ १३७॥ नगरं रत्नागारं भरतेश्वरस्थापितमासीत् ॥ १३७॥ पणवीस लक्ख जिणहर-पोस हसालाण कोडि पंचेव । पञ्चविंशतिर्लक्षाणि जिनगृह-पौषधशालानां कोट्यः महण-सावयकोडी पंच उ निवसन्ति तस्थ पुरे ॥ १३८ ब्राह्मण-आवककोव्यः पञ्च तु निवसन्ति तत्र पुरे [पश्चैव अरिहंतासण-आणंद-पुरं तह आदिपुरमेयं । अर्हदासन-आनन्द-पुरं तथा आदिपुरमेतत् । चौकारं गरुयर-नयरं एयस्स नामाई ॥ १३९ ॥ चमचकारं गुरुतरनगरमेतस्य नामानि ॥ १३९ ॥ (भरत: स्वपुरी समचरतु) पुरमत्र सत्रगृह - सारसरः प्रमुखैविभूष्य परितो भरतः । समनुव्रजन् प्रभुममुं स्वपुरीं प्रति सोऽचलत् सकलसंघघृतः ॥ १४०॥ गरयन् विवेकिनिवहं लघयन्नविवेकिनो भुवि स संघपतिः ।
अतिबृंहयश्च सुकृतानि भृशं इंसयन्नघानि सुधनव्ययतः ॥ १४१ ॥
जिनधामभिश्च नगरीनिवहं सुहिरण्मयैस्तिलकयंस्तु पथि ।
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भरतेशचक्रभृदयोध्यपुरं निकषाऽपहाय कलुषानि ययौ ॥ १४२ ॥
( भरतः स्वपुरीमाविशत् - ) शकटानने से जिनपोऽपि वैने समवाऽऽससार सुरसेव्यपदः ।
१ गुरुं कुर्वन् । २ लघून् कुर्वन् । ३ ड्रासं कुर्वन् । ४ प्र० जिनपो विपने।
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चरित्रम्सर्गः ८
॥२९१ ॥
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पुण्डरीक
॥२९२ ॥
४
गजराजरूढ इह संघपतिर्हरिणाऽभ्रमुप्रियजुषा च युतः ।
प्रणिपत्य च प्रभुमिमं प्रमदाद् भरतेश्वरोऽविशदयोध्यपुरम् ॥ १४३ ॥
' स्तनं घयन्तं ललितं स्तनंधयं विहाय वातायनजालकस्था ।
कुतूहलात् काश्चन काश्च
१२ आशीर्भिरुचैः स गुरुव्रजस्य
महापथमुखं स यदा प्रमदास्तदाऽऽपुरिति सोत्सुकताम् ॥ १४४॥
हारामुक्ताफलपूर्णमुष्टिर्गवाक्षमागत्य नृपं सखीभ्यः ।
संदर्शयन्ती विरलाङ्गुलीकाः संवर्धनं काऽपि चकार तरमैं ||१४६ ॥ कयाsपि सख्या जगदे विमुग्धा दूरं किमायस्यसि वीक्षणाय ।
त्वदीयहारस्थित नायकान्तर्भूनायकं पश्यसि किं न सौख्यात् ॥ १४७ ॥ सर्वसंघागमालोकनपुण्यलोभात् ।
सौभाग्यतः संघपतेश्च काश्चिद् विभूषयामासुरितो गवाक्षान् ॥ १४८ ॥ सन्माङ्गलिक्यैवरवर्णिनीनाम् ।
१ अत्रमुप्रियो - हस्ती ।
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वर्ष दुग्धं सुरसृष्टपुष्पवृष्ट्या समं काऽपि सुवासिनीह ॥ १४५ ॥
इन्द्रेनरेन्द्रश्च ततः समृद्धैः संघाधिपत्वस्य महाभिषेकः ।
जयारवैर्बन्दिजनस्य सार्धं विवेश सौ नृपचमावर्ती ॥१४९॥
संवत्सराण्यष्ट सुपुष्टहर्षात् चक्रेश्वरस्य प्रथितः प्रचक्रे ॥ १५० ॥
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चरित्र
सर्गः ८
॥२९२॥
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प्रहरीक
परित्रम्
सर्गः-८
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संघाधिपं श्रीभरतं समग्राः सुधाभुजस्ते वसुधाभुजश्च ।
स्नेहेन सुश्लाघ्य सुभूष्य हर्षाद् यथागतं पुण्यभृतोऽथ जग्मुः ॥१५१॥ ॥२९३॥ ( आदिजिनस्य परिवार:- ) युगादिदेवस्य भुवस्तलेऽस्मिन् यथाऽन्यतो बोधयतश्च भव्यान् ।
चतुर्युताऽशीतिमहस्रसंख्यास्तपोधना धर्मधना अभूवन् ॥१५२॥ श्रीब्रालिका-सुन्दरिकादयस्तु लक्षत्रयेण प्रमिताः सुसाध्व्यः।
श्राद्धास्त्रिलक्षाणि सहस्रपश्चाशताऽधिकानि प्रबभूवुरत्र ॥१५३॥ सुश्राविकाणामिह पञ्च लक्षाश्चतुष्कपश्चाशदथो सहस्राः।
चतुःसहस्री सह सप्तशत्या पञ्चाशताऽस्ति श्रुतधारिणां च ॥१५४॥ इहाऽवधिज्ञानियतीश्वराणां जाताः सहस्रा नव संयमा द्या:( ख्याः)
सुनिर्मलाः केवलिनो मुनीन्द्राः संजज्ञिरे विंशतयः सदस्राः ॥१५॥ एतन्मिता वै क्रियलन्धिमन्तः षडभिः शतैस्तेभ्य इहाऽधिकत्वम् ।
महस्रका द्वादश षट्शतानि पञ्चाशदासीदिति वादिवृन्दम् ॥१५६॥ १४ एतन्मिता एव यतीश्वरास्ते ज्ञानं मनःपर्ययकं वहन्तः ।
द्वाविंशतिः संयमिनां सहस्राः विमानकान्यापुरनुत्तराणि ॥१५७॥ है श्रीपुण्डरीकप्रमुखा गणेशाश्चतुर्युताऽशीतिमिता बभूवुः ।
आद्याहतोऽभूत् परिवार एष सुरा-ऽसुरवन्दितपादपद्मः ॥१५८॥
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॥२९॥
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( अष्टापदे आदिजिन:-) प्रतं प्रपाल्येति सुपूर्वलक्षं स्वामी ततोऽष्टापदशैलशृङ्गे ।
चरित्र____समं सहस्रर्दशभियतीनां सपादपस्योपगम प्रपेदे ॥१५९॥ सर्गः-८ अष्टापदं भरतो गतः-) इतः स चक्री गिरिपालमुख्यैविज्ञापितो यावदिदं स्वरूपम् ।
समाययो तावदिहाऽऽशु पाद-चारेण दुःखाजनकं दिक्षुः ॥१६०॥8 पर्यनामासनमाश्रित तं तथास्थित वीक्ष्य स वीक्षणाभ्याम् ।
स चक्रवर्ती समशोक-हर्षवर्ती क्षणादेव तदा बभूव ॥१३१॥ निजावधिज्ञानत एवं सर्वे सरेश्वराः स्वासनकम्पहेतुम् ।
जिनेन्द्रनिर्वाणदिनं विवुध्य समुत्सुकीभूय सयं समीयुः ॥१६२॥ कालेऽवसपिण्यभिधे तृतीया-ऽरकस्य पक्षेषु ततः स्थितेषु ।
नवाऽधिकाऽशीतियुतेषु माघाऽसितत्रयोदश्यभिधे तिथौ च ॥१६३॥ अभीचिनक्षत्रगते शशाङ्के पर्यङ्कनामासनसन्निविष्टः ।
स्थित्वाऽऽदरादु बादरकाययोगे वाक्-चित्तयोगी निरुरोध सम्यक् ॥१३४॥ सूक्ष्मेण योगेन शरीरकस्य निरुध्य तं चादरनामधेयम् ।
वाक्-चित्तयोगावपि सूक्ष्मरूपो निषेध्य सूक्षा क्रियमित्यऽवाप ॥१६५।। शिवं प्राप्तः श्रीआदिदेवः--) आसाधगत् सूक्ष्मशरीरयोग छिन्नक्रिय ध्यानमिदं तरीयम।
अदीर्घपञ्चाक्षरवाकूप्रमाणमशिश्रियत् श्रीजिनराज आद्यः ॥१६६॥ ॥२९श्री
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पुनरीक
चरित्रमा
सर्गः-८
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एरण्डिकाच गतबन्धनोऽयं शिवं यथाऽगाद् अजुना जिनेन्द्रः।
इत्थं सहस्रः दश स यतीनां निःश्रेयसं शीवमशिश्रिचंश्च ॥१६७॥ सुसंसदेव मससार सर्व-लोकस्य तेषामपि नारकाणाम् ।
सर्वास्ववस्थासु सुख य स तः स्युः सर्वविश्वस्य किमत्र चित्रम् ॥१६८॥ (इन्द्रेण भरतस्य रोदनं शिक्षितम्--) दुःखेन संपूर्णहृदन्तरालश्चक्रेश्वरः सोऽत्यनरालवुद्धिः (?) ।
गलावलग्नेन सुरेश्वरेण सुशिक्षितो रोदनमप्यापूर्वम् ॥१६९। यः सर्वदा निर्मलमाङ्गलिक्यशब्दैः परिप्रीतमना बभूव ।
विडम्ब्य शोकेन विरोद्यतेऽसावहो! भवोऽयं खलु कष्टरूपः ॥१७॥ सुरेन्चरेण प्रतियोषितोऽथ शुचं मुमोचाऽऽशु स चक्रवर्ती ।
गोशीर्षकाष्ठानि तदाऽऽभियोगिदेवाः समानिन्युरिहेन्द्रवाश्यत् ॥१७॥ वृत्तां चिता पूर्वदिशीह पाम्यां च्यसा तदेक्ष्वाकुमहर्षिहेतोः ।
__प्रातीच्यभागे चतुररूपामन्यर्षिहेतोविदधुश्च देवः ॥१७२॥ संलाप्य दुग्धान्धिजलैजिनेन्द्रदेह विभूष्योत्तमदेह(व)दृष्यैः ।
शृङ्गारयित्वा मणिभूषणेद्रोग ननाम सत्पादयुग सुरेन्द्रः ॥१७२ ॥ तदेव देहं स्वयमात्मशीर्षे संस्थाप्य शीघ्रं नृविमानमध्ये ।
इन्द्रो निचिक्षेप तथाऽन्यदेहानन्ये सुरा अन्यन्यानकेषु ॥१७४।
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प्रमोविमान स्वयमिन्द्र एवाऽन्येषां विमानान्यपरे च देवाः।
उत्पाटयामासुरिहाऽथ देव्यः संगीतकं चकुरुग्रमने ॥१७५।। सुतालरासान देदतीषु सर्व-देवीषु देवेषु च तत्पुरस्तात् ।
___ कुर्वत्सु वस्त्रैरहितोरणानि (?) निन्ये विमानान्युपचित्यमिन्द्रः ॥१७॥ सुरेश्वरादेशवशादथाऽग्निकुमारदेवैमुमुचेऽत्र वनिः।
... वायुं ततो वायुकुमारकाश्च समन्ततश्च रिहोचवेगम् ॥१७७॥ कर्पूरपूरं किल भारशोऽत्र मधूनि सौषि च कुम्भशस्ते।
चित्यासु देवा ववृषुस्ततोऽन्दाः क्षीराधिनीरैः शमविभूवुः ॥१७८॥ ऊर्ध्वस्थितां दक्षिणदंष्ट्रिको च जग्राह सौधर्मपतिः प्रमोदात्।
ईशाननाथस्तत ऊर्ध्वसंस्था वामां गृहीत्वा मुमुदे हृदन्तः ॥१७९॥ अधस्तनी दक्षिणदंष्ट्रिका च निनाय हर्षांचमरेन्द्र एषः ।
___ वामां बलीन्द्रोऽपरवासवास्तु दन्तान् सुरा अस्थिचयं विनिन्युः ॥१८॥ सुश्रावका अप्यथ याचमाना दत्ताग्निकुण्डत्रितयाः सुरेन्द्रः ।
तेनाऽग्निहोत्रेण युताः पृथिव्यां सब्राह्मणाः शुद्धतमा बभूवुः॥१८१॥ केचित्तु भक्त्या प्रभुदेहभम्म ववन्दिरे निर्मलचित्तरङ्गाः ।
ते तापसा भूमितले प्रसमुविहाय नीरं कृतभस्मशौचाः ॥१८२॥
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दहतीषु प्र.।
॥२९६॥
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મૂળ પાનું ૨૯૫
ભાષાંતર પાનું ર૯૧
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) ૧- ઇંચક
આદીશ્વર ભગવાન અષ્ટાપદ પર્વત ઉપર દશ હજાર મુનિએની સાથે મુકિત પદ પામ્યાં.
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पुण्डरीक
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सर्ग:-८
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चितात्रयस्थानमुवि प्रचाः स्तूपान् सुरा रत्नमयान् महोचान ।
अष्टाहिका सर्वसुरा विधाय नन्दीश्वरे स्वस्वदिवं समीयुः ॥१८॥ स्वमाणवस्तम्भगतां जिनेन्द्रदंष्ट्रां विधायाऽथ चतुःसुरेन्द्राः ।।
कल्पद्रुपुष्पैरनिशं सुभक्त्या संपूजयामासुरिहैकचित्ताः ॥१८४॥ (अष्टापदे जिनगेहमू-) अष्टापदेऽचीकरदेष चक्री सुविस्तृतं योजनमेकमत्र ।
उच्चैस्निगव्यूतिमितं जिनेन्द्रगेहं तदा वर्धकिरत्नहस्तात् ॥१८५॥ चैत्यं समं सिंहनिषद्ययाऽत्र मध्ये प्रधाना मणिपीठिकाश्च ।
परतवं पृथुलोऽस्ति देवच्छन्दाभिधानो मणिरत्नरूपः ॥१८॥ खस्वप्रमाणाऽऽकृतिवर्णयुक्ता युगादिदेवादिजिनेश्वराणाम् । ..
_ मूर्तीश्चतुर्विशतिसंमितास्तु सुरत्नरूपा रचयांचकार ॥१८७॥ पुरश्चतुर्विंशतिरत्नदीपास्तथा चतुर्विंशतिरत्नघण्टाः।
अग्रे चतुर्विंशतिमाङ्गलिक्या-ऽष्टकानि चक्रे मुमणीमयानि ॥१८॥ बाराणि चत्वारि समण्डपानि व्यधापयत् षोडश तोरणानि ।।
सस्वर्णकुम्भान्यथ माङ्गलिक्यान्यष्टौ चतुष्कं मुखमण्डपानाम् ॥१८९॥ पुरश्चतुर्णामपि मण्डपानां श्रीवल्लरीमण्डपकास्तदन्तः।
प्रेक्षाभिधामण्डपकास्तु तेषां मध्येचुवाटाः खलु बजरूपाः ॥१९॥
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पुण्डरीक
सर्ग:
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(स्तूपाः-) सिंहासनान्येष्वथ मण्डपाग्रे व्यरीर चत् संणिपीठिकाश्च ।
स्तूपास्तव शुचिरत्नरूपास्ततश्चतुष्कं मणिपीठिकानाम् ॥१९१॥ प्रत्येकमेतासु धनुश्शतोचाश्चैत्योन्मुखाः सत्प्रतिमाश्चतस्रः ।
श्रीवर्धमान-र्षभ-वारिषेण-चन्द्राननान्ताः शशिकान्तरूपाः ॥१९॥ तासां पुरश्चैत्यनगास्तदने इन्द्रध्वजाः पीठगताः पुरस्तात् ।
वाप्यस्त्रिसोपानयुता जलाया नन्दाभिधाना रचयांचकार ॥१९३॥ चैत्योxभागे कलशांस्तु पद्मरागात्मकान् स्वर्णमयांश्च दण्डान् ।
ध्वजान्वितांश्चन्दनहस्तकांश्च व्यधापयत् तत्परितश्च वमम् ॥१९४॥ नवाधिकाया नवतेनिजानां सहोदराणां प्रतिमाः प्रधानाः ।
__ अकारयद् रत्नमयीस्तदने मूर्ति निजां योजितपाणिपद्माम् ॥१९॥ चैत्याद् बहिस्तूपमथो जिनस्य स्ववान्धवानां नवयुग्नवानाम् ।
स्तूपैर्वृतं तं चतुरोऽग्रलोहारक्षान् सरक्षश्चतुरो व्यधत्त ॥१९६॥ गिरिं ततोऽसौ निजदण्डरत्नेनोत्कीर्य तं योजनसंमितानि ।
सोपानकान्यष्ट सुपुष्टवुद्धिर्नृणामलध्यानि चकार चक्रो ॥१९७।। चैत्यं विधाप्येति ततः प्रतिष्ठा विधाय मन्त्रविधिना जिनोक्तः ।
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प्र० नवयुग्नव।
॥२९८॥
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पुण्डरीक
चरित्र.
॥२९९॥
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श्वेतांशुकः स्नाततनुविधाऽथ परीय पूजां विघे विवेकी ॥१९८॥ र: स्नपयांचकार ममार्ज भक्त्योत्तमदेवदष्यैः।
सचन्दनस्ता विलिलिम्प दिव्यजुष्परिहाऽऽनर्च जिनेन्द्रमूर्तीः ॥१९९॥ विभूषणैश्वोपविभूष्य धूपमुद्ग्राहयामास स सुवासनोऽयम् ।
. आरात्रिकं माङ्गलिकप्रदीपं कर्पूरपूरैरुदतारयच्च ॥२०॥ ४ भूत्वा जिनाग्रे भरताधिपोऽयं तदा चतुर्विंशतितीर्थनाथान् ।
तुष्टावथाऽऽरोप्य मनः स्वकीयं तुष्टाव साक्षादिव संविभाव्य ॥२०॥ ( अष्टापदाद् अयोध्यायामागाद् भरतः-) प्रासादं प्रौढमेनं रुचिरमणिगणनिर्मितं पश्चवर्णैः कुर्वन्तं कान्तिभारैवियति विततरक संततं शकच्चापम् । स श्रीमांश्चक्रवर्ती भरत इह बलद्ग्रीवमालोकमानस्तस्मादष्टापदादरुदतरदहद्भक्तिसंपूर्णचित्तः ॥२०२॥ विवेकार्कोद्भूतद्युतिविकसिते बीततमसि धडैम हंसं स्थितमिव विभुं हृत्सरसिजे। अयोध्यायामागाद् भरतनृपतिः कीर्तिनिवहैर्वितन्वन् ब्रह्मा डोदरमतुलकपूरकलशम् ॥२०॥ श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुषङ्गं त्यजन् यो जाड्यस्थितिरप्यभूत् प्रतिदिनं प्रासादुद्भुतप्रातिभः ।। तेन श्रीकमलप्रमेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः श्रीशजयदीपकस्य चरिते सगोंऽजनिष्टाऽष्टमः ॥२०४॥
॥ इति श्रीभरतसंघपतिपदमाप्ति-शर्बुजयप्रकाशन-श्रीयुगादिनाथ
निर्वाण-अष्टापदप्रासादवर्णनो नाम अष्टमः सर्गः ॥
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॥२९९.
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१. चरित्रम्
पुण्डरीक
(काव्यसमाप्तिः) 18(मादिजिनविरहात् सशोको भरत:-) अथ भरतमहीशः श्रीयुगादीशदेवं त्रिभुवनपतिपूज्यं संस्मरन्नेव नित्यम् ।
४ समाप्तिः अंकृतन कृतिसंगं नाऽपि नाव्यादिरपंतृणमिव निजम मन्यते स्माऽप्यनङ्गम् ॥१॥ तलिनतलिनलीनोऽप्याप न स्वाप मेष सरसमशनमश्नन्नाऽपि सुस्वादसौख्यम् ।
अरमत न रमाया रामणीयेऽपि मायारहितहृदयसंस्थं स्वामिनं सेवमानः ॥२॥ विषमिव विषयौधं मन्यमानः समग्रं नरपतिरिह तातस्यादिदेवस्य दुःखात् ।
सुरपतिरुपगत्य यूतभूतप्रभूताभिनवकुतकतोऽमुं शोकहीनं चकार ॥३॥ सुरगुरुमुखपद्मात् श्रीयुगादीश्वरस्य प्रचुरचरितबन्धान भव्यकाव्यप्रसिद्धान् ।
सुकृतभररसाढ्यान् भारतेन्द्र महेन्द्रः परिषदि विनिषण्णः श्रावयामास नव्यान् ॥४॥ क्षणमपि सुविसूक्त दिव्यगीतैर्मुहूर्त प्रतिकलममरीणां नूतनैर्नृत्यकृत्यैः।
भरतमु निविनोद्यऽऽनन्ध वाऽनिन्धमाकू त्रिदिवमय जगाम स्वं स सौधर्मनाथः ॥५॥ ( गतशोको भरतः-) तदनु भरतनाथो मन्त्रिभिर्मन्दमन्दं विहितविमलचित्त शुद्धसौहार्दशाली।
भभुनगतुलसौल्य सारशृङ्गाररङ्गोऽखिलवलयमिलायाः पालयल्लीलयैव ॥३॥ अथ शिथिलितशोको मन्दमन्दं महीशः क्वचिदपि दिवसेऽसौ प्राकृतः प्रेयसीभिः । (भरतस्य जलक्रीडा:-) शुचिमुरभिजलान्तः क्रीडनं कर्तुकामोऽकलयदकलुषोऽयं दीधिका दीर्घकान्तिः ॥७॥ १ अकृति न प्र.। २ भरतम् उ।
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परित्रम.
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पुण्डरीक-8 अभिनवनलिनालीसनिलीनालिशन्दैः प्रियमिव सुवदन्ती संगम वा चिकीर्षः
सुललितसलिलौघोत्तुजरङ्गत्तरङ्गभरतनपतिनेयं वापिकाऽवापि कामात् ॥८॥ ३०१॥ 81
8 समाप्तिः उपमुखशशिकान्त्या चक्रवाकमियायाः प्रदुरितमयेनाऽऽलिङ्गनं सचकोराः ।
मुदमुपययुरुच्चैश्चश्वरीकाः स्वलोभात् कुवलयमुपजग्मुः संभ्रमात् त्यक्तपमाः ॥९॥ 18 सरसि विकचपुष्पाकल्पसंभूषिताङ्गं नृपतिमनुसरन्त्यः सुचवो विभ्रमान्याः।
कलितकनकशृङ्गा रम्यशृङ्गारभाजः प्रविविशुरनु धर्म संपदो धामनीव ॥१०॥ सुललितललनाना मजुमञ्जीरनादैः श्रुतिसुखमिह भूयश्चानुभूय प्रभूयः ।
अभि गगनमरालीभूतकण्ठैमरालैः कुतुकविकसिताक्षः शीघ्रमुडीनमुच्चैः ॥१ 18 विरहि विधुतचित्ताद् विप्रयोगाग्नितप्तादिह रति-रतिनाथौ किं शयाते प्रणश्य ।
कनककममलरेणुनीलपौनवीनोत्तरपट इव चित्रो विस्तृप्तो दृश्यते तत् ॥१२॥ त्रिनयननयनस्थाद् वनितो नित्यभीर्वसति मदनवीरो नीरदुर्गे निसर्गात् ।
तरणि-शशधराभ्यां दीपितं शस्त्रसंघ कमल-कुवलयाख्यं विद्यतेऽहनिशं तत् इति धृतधृतिरुचीरशृङ्गारिराजो भरतनृपतिरन्तःशुद्धधेमन्तकस्य (?)।
अरमत जलपूरे संप्रविश्य प्रशस्यप्रतिभ इह महेलाः खेलयन हे बुदितवनिताभिः प्रेरिता स्वर्णशः सरलसलिलधाराबकि पतन्न्यः।
१ मतभवेन।
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॥३०२॥
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सुकनकनलिकाभिः कामधानुष्कमुक्ता इव रजतशराणां राजयो रेजिरेऽत्र ॥१५॥
चरित्रम् युगपदभित उद्यद्बाणिनीबाहशृङ्गप्रसृतसलिलवेणिश्रेणिगुम्फान्तरस्थो।
समाप्तिः भरतपति-सुभद्रादम्पती रेजतुस्तौ किमु रति-रतिनायौ रूप्यसन्मण्डपाधः विविधकरविभूषाकान्तिजातेन्द्रचापान्तरसमुपगताभ्यः सत्कटाई
विपुलजलततिभ्यः कामबाणावलीभ्यः सभय इव पुरोऽधाद् वारणं प्रौढपनम् ॥१७॥ अथ भरतनृपोऽपि प्रेयसीचित्तभूमौ नवमनमिजवृक्षाङ्कुरराजिप्ररूढाम् ।
सपदि किल निनीधुद्धिमम्भोजपत्रप्रकटपटुपुटौघैर्वारिवाहोऽभ्यषिश्चत् ॥१८॥ भरतनृपतिमुक्ता निर्मला नीरधाराश्चकितवलितनारीकुन्तलालीनिलीनाः ।
किमु गगनगङ्गाः संमिलन्त्यो यमीभिः द्विजमनसिजपुण्यं स्नानतो वर्धयन्त्यः॥१९॥ क्षितिपतिकरनिर्यन्नीरपूरस्फुरन्त्योऽङ्कितनयनमाला नायिकानी विरेजुः ।
निजनिजहृदयोत्थस्येव मीनध्वजस्य ध्वजशफरगणः किं दृश्यते चश्चलोऽयम् ॥२०॥ प्रबलनृपकराग्रात् पेतुषो वारिराशेहूंढकुचतरघातात् शीकरैः प्रोच्छलद्भिः ।
नरपतिवनितानामास्यशीतांशवोऽमी उडुभिरिव समन्तादावृतास्तत्र रेजुः ॥२१॥ धरणिरमण एवं सर्वतः सर्वरामाश्चिरमिह रमयित्वाऽनङ्गरागाभिरामाः ।
सकलसलिलकेलो कोमलाऽङ्ग्यः कलाबानतिशिथिलितभावा भावयामास विज्ञः ॥२२॥ १ यमुनाभिः ।
18॥३०॥
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डुण्डरीक- स्व चिकुरनिकुरम्बं : काश्चनाऽम्भोजनालैर्निजकमिह नियम्य स्वर्णरुक् कीरसंस्थः । सुरगिरिरिति नीलं विद्युता वेष्टिताङ्गं दधदिव नवमेघं राजराजो रराज ॥ २३ ॥ ॥ ३०३|| तदनु सरसरूपाः निस्सरन्त्यः सरस्याः कलितजलजराज्यो राजनाय विरेजुः । मदनमवगणय्याऽनङ्गमस्त्राणि नीत्वा रतिरिव बहुरूपा चेलुषी जेतुमुर्वीम् ||२४|| मलयजघनसारैः स्मेरकाश्मीरपूरैः घनमृगमदसारैः श्वेतशोणासिताभम् ।
शशभृति पिहिता सैंहिकेयेन सायं गगनमिव सरोऽभाद् गोपतेर्निर्गमेण ||२५|| अथ: भरतनरेन्द्रः क्लिन्नवासांसि मुक्त्वा शुभवशतवुकूलैर्भूषितो भाभिराभात् ।
परिहृतभृशवर्षत्प्रावृषेण्याऽम्बुवाहः परिवृत इव सूर्यः शारदैर्वारिदौधैः ॥२६॥ तदनु : भरतनाथे चित्रशालां विशालामुपगतवति सर्वान्तःपुरीभिः परीते ।
नवनिधिपतिदेवैरर्पितं भूषणौघं तिलक इह सुवण्ठोऽभ्यानयत् सत्करण्डे ||२७|| भरतनृपतिभक्तैस्तैर्निधीनामधीशैः सुरभुवनमणीभिर्निर्मितां भूषणालीम् ।
प्रमुदितवनितानां देहसंभूषणार्थं द्रुततरमुपनिन्युः पेटिकाश्चेटिकाभिः ॥ २८ ॥ अविशद् भरत आदर्शगेहम्~~~ ) कृतमलयजलेपोऽलंकृत ङ्गो विशेषाद् अचिररुचिरशेषप्रेयसी प्रेमपूर्णः । अविकलनिजरूपं वीक्षितुं स क्षितीशोऽविशदमलतराभाऽऽदर्शगेहं स्वमनम् ॥ २९ ॥ ( भरतस्य विराक्तनिमित्तम् — ) विमलमुकुरभित्तौ स्वस्वरूपं सुssरूपं सकलमकलयंस्तत् प्रत्युपाङ्ग सरङ्गः । १ भूपतेः सूर्यस्य वा । २ काचगृहम् । ३ स्वपरिमितम् ।
४
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चरित्रसमाप्ति
॥३०३॥
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चरित्र
पुण्डरीक
सरलकरकनिष्ठां नष्टकान्ति समग्राङ्गुलिषु कलितदैन्यां तामिवेक्षांचकार ॥३०॥ .िमियमतिविशोभा दृश्यते मेऽङ्गुलीभिश्चकितविकसिताक्षो वीक्षते यावदेवः ।
समाप्तिः भुवि परिहतमुद्रां भूषणानास्थ एव क्षितिप इह कनिष्ठा लक्षयामास तावत् ॥३१॥ विविधविभविभूषाभूषिताङ्गेभ्य एषा यदित(?) विगतशोभा दृश्यते मे कनिष्ठा ।
अतनुरुचिरताऽसो सन्न नित्या नितान्तं न तनुरुचिरप्ता च प्रक्ष्यते चिन्त्यमाना इति मनसि विचार्याऽऽश्चर्यतो वयरत्नाभरणमणमहासीद् यद् यदङ्गात् क्रमेण ।
___ अजनि भृशकृशश्रि स्वीयकान्त्या वियुक्तं कनकनलिनवत् तद् भानुभासा विहीनम् ॥३३॥ 8| जगदधिपतिमोहः स्वीयसंसारगेहे दुरितसलिलपूर्ण राज्यकुम्भं निधातुम् ।
मम शिरसि किरीटं दासरूपस्य नित्यं स्थिरयति तदपातायैव तद् दूरयामि ॥३४॥ 18 तिलकपि किमेतत् पूज्यपादप्रणामात् क्षितितलभवरेणुस्पर्शपुण्यान्तरायम् ।
श्रवणयुगविभूषाकुण्डले तत् कुतो नो भवति भवतितीर्षा चेत् ततः शस्त्रमेव ॥३५॥ किल ललितललन्त्याऽलंकृतो नो गलः स्यात् सुकृतमधुरसत्यैर्भाषितैश्चद् विहीनः ।
मणिगणमयदेवच्छन्दसा नो सशोभं हृदयमदयमिन्द्रच्छन्दसाऽप्यत्र न स्यात् ॥३६॥ भवतिमिरहरं स्याद् निर्मलं ध्यानतेजो हृदि यदि विजयोख्यच्छन्दसा किं ततः स्यात् ।
यदि जिनपतिपूजालंकृतिः पाणिपन कनकवलयबन्धे कोऽस्तु निर्वन्धभावः ॥३७॥ ललन्ती गनालंकारः । २ निर्दयम् । ३ इन्द्रच्छन्दो हृदयभूषणम् । ४ विजयच्छन्दोऽपि तदेव ।
॥३०४॥
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મૂળ પાનું ૩૦
ભાષાંતર પ’નું ર૯૯
(114
ભરતચક્રવર્તી અરિસા ભુવનમાં રહેલા છે તે વખતે મુદ્રિકા પડી જવાથી કનિક અંગુલીને નિષ્ણુભ જોઈ ભાવનામાં લીન થયા છે..
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बरित्रम्.
इति सकलशरीरालोकरम्यत्वमेतत् निजमनसि विचार्योत्ताय चातुर्यवयंः । ॥३०५॥४
अघपुषि वपुषि स्वे धर्मनिःस्वे स विश्वेश्वर इह हदि भावं चिन्तयामास सत्यम् ॥३८॥ जलमलयजवस्त्र-स्वर्णरत्नादिवस्तून्यनिरुचिररुचीनि स्युहि मलाख्यानि यस्मात् ।
अहमहह!! निजायुमोक्षसौख्यस्य हेतुळगमयिषमनय॑ तस्य देहस्य दास्यात् ॥३९॥ यदशुचि यदरम्यं निर्मितं तेन देहं यदतिशुचि मनोज्ञं हाऽन्यथा तत् करोति ।।
लघयति निजधातुमित्रवर्ग महारीन् गरयति विपरीतः कायतोऽन्यत्र नास्ति ॥४०॥ ४ असुखदमपि पापं सेवते जन्म दत्त्वा सुस्वकृदपि न पुण्यं देहवन्धप्रणाशि ।
अयि शृणु परमात्मन् ! धूर्तमेतच्छरीरं त्वमसि भृशविमुग्धो यः स्वकार्यप्रमादी ॥४१॥ मृपतिभवभवेन स्वेन पापेन गाढं सपरिभवमवेक्ष्य त्वां सुदुःखोकुलेख ।
किल परिहरति माऽलंकृतियोऽत्र देहे तब बहृहितनिष्ठा जीव ! सेयं कनिष्ठा ॥४२॥ वसन-कनकभूषाः सत्कुविन्दाः कलादा मुहुरिह रचयित्वाऽमण्डयन् देह मेतत् ।
सकलमपि निमेषेणैव सामीप्यमात्रात् परिगलितमलत्वाद् निर्ममे दर्पणोऽयम् ॥४॥ अयमिव परमात्मन् ! निर्मलीभूय भूयः स्मर सुयतिवराणां त्वं तथा सच्चरित्रम् ।
अयतिरपि तथाऽऽशु स्वाजितं पापसंघं यतिरिव परिपेष्टुं यत्नमुच्चेविधेहि ॥४४॥ (युग्मम् विविधविषयसौख्यैः प्रीतमेतच्छरीरं तदुपचितमघौघं भोक्ष्यसे तु त्वमेव ।
पापपोषके ।
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॥३०५॥
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प्रहरीक-8
॥३०६॥
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रुचिरमिति विचिन्त्याऽनेन कायेन कार्य करू किमपि न येन स्यास्त्वमात्मन् ! शरीरी ॥४५॥ यदि जगदद्धिपत्वं सारसंसारसौख्यं यदि सुललितनार्यः कामतोऽनार्यभाषाः।
यदि विविधविभूषाभूषितं देहमेतत् कथय किमपि साध्यं स्वल्पमप्यत्र सिद्ध विषयविषयसौख्यं भगुरं येऽवगत्य भवभवभयभीताश्चक्रुरुग्रव्रतानि ।।
उपविभु सहजा ये बन्धुनिर्बन्धबन्धं निखिलमवगणय्यतेऽत्र धन्या यतीन्द्राः ॥४६॥ असुर-सुरशरण्यः श्रीयुगादीशदेवोऽप्यथ स ऋषभसेनः साधवो बान्धवास्ते ।
मम बलमदहन्ता बाहुवीरो मुनीन्द्रः सकल इति कुटुम्बे मोक्षगे हा! स्थितोऽहम् ॥४७॥ असुर-सुरनगेन्द्रा पन्नगेन्द्रा जिनेन्द्रा समयति समयेऽस्मिन् संभविष्यन्त्यभूवन् ।
इति विपुलभवाब्धी माशा बुबुदाभाः गगनकुसुमतुल्यां नित्यता मानयन्तु ॥४८॥ वचनमनृलसत्याय तथौदारिकाचं वपुरपि सुमनोऽत्राऽनन्तवारं सूजस्त्वम् ।
किल निखिलसुलोकाकाशगान पुद्गलौघान् इह हि परिचिकाय स्वं च पापंचिकाय ॥४९॥8 गरेभगरंभदुःखं भोगरोगप्रयोगं जरसमघरसं वा मृत्युतो नारकोत्थम् ।
सहसि सहसितो वा संरुदन वा त्वमेकस्तदिति वद कुदम्बे कोऽस्ति तत्रोपकारी॥५०॥ अमलपरमतेजाः केवलोऽसि त्वमात्मन् ! मलमयमलमेतत् सप्तधातुस्वरूपम् ।
इति विसदृशभावाद् देहमप्यन्यदेव स्वजन-धनभरादिष्वन्यता तन्न किं स्यात् ॥५१॥ १ गरभम्-रसरशम् । २ 'गर्भ' शब्दः भ-मथ्योऽपि भवेत् । ३ प्र• गरसमरभरस ।
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॥३०६॥
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पुण्डरीक-8 रस- रुधिर- सुमेदो-नांस-मजा-स्थि- वर्चोऽशुचिचयनिचिताग्यो विश्रवच्छोत्रवित्राः । विषयविषविमोहात् क्रीडयन् नार्य आर्य ! क्व पतसि नरकान्धावन्धचित्ते त्वमात्मन् ! || ५२॥ इति भरतनरेन्द्रो निर्मितात्मप्रबोधः स्मृतजिनपवचोभिस्त्यक्त संमोहरोधः ।
॥३०७॥
४
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१२
क्षपकविमलभावः श्रेणिमार्गे स्ववेगात् सकलदुरितसार्थं घातकं मुञ्चति स्म ॥५३॥ ( भरतस्य केवलज्ञानम् - ) प्रथम जिनवचोभिः संस्मृतैज्ञनिवन्तं स्थिरशिवपथि सम्यग्भावतो दर्शनाढ्यम् । अवगतमुनिकृत्यैः सचरित्रेण युक्तं नृपमभजदियं द्राक् केवलज्ञानलक्ष्मीः ॥५४॥ अथ धरणिधरेऽस्मिन् केवलज्ञानभासा समुदयमुदयन्तं वीक्ष्य तस्मिन् मुहूर्ते ।
समुदयममरेन्द्रोऽभ्यागमत् कः सुधम स्थित इह मुदितोऽन्तः स्यान्न साधर्मिकः १ ॥५५॥ त्रिजगदधिपवन्ध ! ज्ञानभानूदयावे ! जय जय वच उच्चैः प्रोच्चरन् देवराजः ।
अमरपरिवृतोऽसावेत्य संयोज्य पाणी भरतवसुमतीशं नीतिविज्ञो जगाद ॥ ५६ ॥ प्रकटितपरमौजा भावचारित्रतस्ते समजनि परमात्मा मोक्षसौख्यैकभूभिः ।
अपि वपुषि भज त्वं शुद्ध चारित्रवेषं सविधमन (नु) योग्यो व्याहृतोऽर्हद्भिरेषः ॥५७॥ यतः- प्रथम जिनविभावादेष चारित्रराजः किल भुवि विलसंस्त्वां तत्तनूजं निरीक्ष्य । मदन-मद- विमोहाद्यैर्निबद्धं विमुक्तं स्वसखि - भवविरागं प्राहिणोत् त्वत्समीपे ॥ ५८॥ अथ स भवविरागो भूषणैमौहबन्धैरिव पिहितशरीरे त्यक्तभूषां कनिष्ठाम् । श्रित इह तव दृष्टिद्वारतोऽन्तः प्रविश्य दृढ नृपमिव मोहं भावखड्गैर्जघान ॥५९॥
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श्रम्
॥३०७॥
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पुगहरीक
पि
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परिकरमवमोहस्याऽत्र मैत्री-प्रमोदप्रभतिसुभटराजैव्योहतं संनिशम्य ।
अविशदथ पुरं ते भावचारित्रराजः प्रथममिह मनस्तन्मत्रिणं भेदयित्वा ॥६॥ शमरजतघटस्थैाननीरैस्तु शुक्लैः सपदि समभिषिच्य ज्ञाननेपथ्यमाजम् ।
गुरुशिवपुरराज्ये त्वां स चारित्रराजो न्यधित तव पितुः किं तं स्मरंचोपकारम् ॥६॥ अथ तव परमात्मा केवलज्ञानराज्ये स्थितवति मन उच्चैरप्रधानं चकार ।
रिपुगणमिलितं प्राक सेवक स्वस्य पश्चाद् नहि बह गुणयेयु: प्रायशो नीतिविज्ञाः ॥३२॥ तव धृतगृहवेषस्याऽपि चारित्रराजो गुरुतरमुपकारं गुप्त मित्थं चकार ।
प्रकटममलरूपं धारयंस्तस्य वेषं त्वमसि खलु कृतज्ञश्चक्रवतिन् ! महात्मन् ! ॥३३॥ (धृता भरतेन जैनी मुद्रा-) इति सुरपतिवाक्यात् केवलज्ञानवानप्यधृत स कृतलोचो जैनमुद्रा सुवन्द्याम् ।
व्यवहरणविधिं चेद् ज्ञानवन्तो महान्तो न विद्धति पृथिव्यां कोऽपि किं क्वाऽपि वेत्ति ? ॥१४॥ सह दश च सहस्राश्चक्रिणा तेन भूपा जगृहुरगृहबन्धाश्चारुचारित्रमन्त्र।
भुवि निजविभुभक्तावेकचित्ता नरा ये विषयजसुखशक्तावप्रसक्तास्तु ते स्युः ॥६॥ (भरतपुत्र आदित्यकार्तिपः-) भरतनृपतिपुत्रं प्रोढमादित्यकीर्ति सुरपतिरिह रम्ये सिंहपीठे निवेश्य ।
कृततिलकविभूषं स्वेन हस्तेन हर्षात् स विविधविधिवेदी विश्वराज्ये व्यधत्त ॥६६॥ (भरतमुनिव्र्यहरत्-) स भरतमुनिराजः साधुभिजमानः त्रिभुवनभवभावान् भावयन् ज्ञानभावात् ।
व्यहरदिह विमोहं संहरन् भन्यवर्गात् सुकृतसदुपदेशैनिर्मलै नित्यमेव ॥६७॥ ४॥३०॥
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प्रहरीक
॥३०॥
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भरतमुनिवरांदिस्पर्शपावित्र्य पुण्यं सुकृतशतसुलभ्यं प्राप्य पूर्वाऽअवाप्तम् ।।
स्वपतिपरिहताभ्यस्तत्प्रियाभ्योऽखिलाभ्यः समधिकमिव मेने सा धरित्री तदा स्वम् ॥३ अमृतरुचिरसौ सतारकेशो विनिद्रं कु-बलयमपि कुर्वन् भग्न-चक्रममोदः।।
भविनयकोरान् मीणयन् पूर्वलक्षं महदिह मह उच्चनिर्मलं स्वं ततान ॥३९॥ (भारतमति:-) भरतमुनिरमीभिः संयुतोऽष्टापदाहिं सुयतिभिरधिरुष स्थानमाशासिडेः।
परिचरति सुरेन्द्र तत्र यासोपवासादजमजर-मृत्यु प्रापिवान् मोक्षसोख्यम् ॥७॥ इति भरतसुचक्री सप्तरित समयुक्त सति पितरि जिनेन्द्रे पूर्वलक्षान् कुमारः।
नृपतिरथ सहतं वत्सराणां तनाथ समजनि चक्री पूर्वलक्षान् षदेव ॥७१॥ घृतयतिजनवेषः पूर्वलक्षं तक व्यहरदथ पृथिव्यां केवलज्ञानयुक्तः ।
इति चतुरशीतिं पूर्वलक्षान निजायुः प्रथम जिनपपुत्रः पालयामास चक्री ॥७२॥ भरतमुनिवरेन्द्रस्योर्ध्वदेह क्रिया सह रवियशला तत्पौढपुत्रेण युक्तः ।
व्यरचयटमरेन्द्र मान चाष्टापदाको सुरभिमलिलदृष्टिं नीरदाश्चकुरुक्षः ॥७३॥ स भरतपतिपुत्रस्तत्र चादित्यकीतिः समस्यामर्थ्य आरयामास धाम ।
- प्रथमजिनपभूतैर्दक्षिणे पति व्यरचयस्य स तस्य पुण्यप्रशस्यः ॥७४॥ गतवति सुरराजे सोऽप्ययोध्यां समेतो गुरुभरतविहारं सत्र शत्रुजये च ।
१. भवतारकाणाम् ईशोऽपि। २ पृथ्वीवलयमपि । ३ चक्रवाकोऽपि । ४ इकारान्तोऽपि भवेदयं शब्दः ।
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पुण्डरीक
॥३१०॥
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व्यरचयदथ राज्यं भारतार्धस्य कुर्वन् कृतसुकृतसमूहः सूर्यवंशादिन्दः ॥७५॥ इत्येत जगतोऽद्भुतोदयकृतः श्रीमयुगादिप्रभोः हस्ताम्भोजभवत्रतेन सुरभीभूय देवेश्वरैः । मान्यस्य प्रभुण्डरीकगणभृन्मुख्यस्य सिद्धाचले सिद्धिं प्राप्तवतो
व चरितं पूर्ण सुमाङ्गल्॥७६॥ (पूर्ण श्रीपुण्डरीकचरितम् )
( ग्रन्थकारपरंपरावर्णना - ) - यो जातकर्म - वसना-शन- सद्विवाह - राज्योपभोगविधि-नीति-सुधर्ममुख्यम् । श्रीमयुगादिजिनपः प्रथयन् विवेकं जज्ञे पितेव सततं स जगन्निः पातु ॥७७॥ समग्र भरतक्षितौ प्रथमतीर्थ शत्रुंजयप्रभाव परिदर्शने प्रकटरत्नदीपप्रभः ।
तमो हरतु मोहजिद् वरसमस्तसंघस्य स प्रवर्धयतु च प्रथां सुगुरुपुण्डरीकः ॥७८॥ श्री बाहुबल्यादिरयं युगादिदेवस्य गंच्छः सुकृतैरतुच्छः । समग्रसंघस्य चतुर्विधस्य पुष्णातु पुण्यानि उन्मत्तानि भोगान् यः किल भुक्तवान्नर - सुरान् जित्वा युगादिप्रभोर्भक्ति निर्मितवान् सुभोजनभरैर्धर्मी च साधनिकान नित्यं पोषितवान् गृहं रचितवान् शत्रुं जये योऽहै तो धर्मा--ऽद्भुतकाम-मोक्षसुखदः सोऽस्त्वाचचक्रीश्वरः ( कोटिगण:-) ( वज्रशाखा - ) ( चन्द्रगच्छ:-) श्रीमन्महावीर जिनेन्द्र शासने जीयाच्चिरं कोटिगणो गुणोत्तमः । श्रीवज्रशाखा विपुलान्त्र विस्तृता श्रीचन्द्रगच्छो जयतीह निर्मलः ॥ ८१ ॥ श्रीजैनशासनतुरंगगतस्य धर्मभूषस्य वर्म चरितं समभूच येषाम् ।
( चन्द्रप्रभगुरुः - )
छत्रं यशः सदूपदेशवचा भलिश्चन्द्रप्रभाख्यगुरवो खुबि ते बभूवुः ॥८२॥
१ समूहः, नतु संप्रदायः ।
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।।३१.६ ॥
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पुण्डरीक
ये कीर्तिसौर-भयुजो न कदाऽपि को पेङ्गालेन संगतिकराः सुकलाभृतोऽपि । ॥३१॥
नित्यं कलकरहिता विजितदिचन्द्राश्चन्द्रप्रभाख्यगरवः किल ते जयन्त ॥८॥ ( घमघोषप्रभुः- जयसिंहदेवो नृपः -) तत्पलक्ष्मीकमलावतंसा श्रीधर्मघोषप्रभवो बभूवुः।
यत्पादपद्मे कलहंसलीलां दधौ नृपः श्रीजयसिंहदेवः 1८४॥ धर्मघोषगुम क्योच्चयो यस्य विराजते धर्मघोषगुरुर्भव्यानव्यादव्याहतोदयान् ।।८५॥ (चक्रेश्वरसूरि:-) श्रीचक्रेश्वरतां नित्यं ददातु भुवि भाविनाम् । श्रीमचक्रेश्वरः सूरिस्तत्पन भसः शशी ॥ 8 ये शुद्धव्रत पट्कनिश लहृदः षटूतर्कविद्याविदः कामाद्यान्तरशत्रुषदकजयिनः षड्जीवसंरक्षिणः । ४ ये कूर्चालसरस्वतीति विहिताः प्रौढैनॅपैर्वन्दिताः तुष्ट्यै स्थपितमूरिषदकमुदिताश्चक्रेश्वराः सूरयः ॥८॥ 18 (त्रिदशप्रभगुरुः-) ये चक्रेश्वरसूरिपकमलालंकारहारायित: ये भव्याम्बुजबोधनाय सुतपाकान्त्याच सूर्यायिता:
ये जैनेश्वरशासनोत्तमसरोमध्ये सुहंसयितास्ते श्रीमत्रिदशप्रभाख्यगुरवः पुण्यप्रभावाथताः ॥८८॥ ज्ञानादित्रिकसद्धर्मदशकाभ्यां कृताभः। त्रिदशश्रीषदो भूयात् श्रीत्रिदशप्रभो गुरुः ॥८९॥ ( तिलकसूरि:-) वाक्पीयूषैर्भवमरुतृषं तुच्छयन्नच्छचित्तः तेषां पट्टे सुमुनितिलकः सरिराजो इट।
यो रूपेण व्यथित सुदृढब्रह्मचारेण चाऽन्तस्तं कंदर्प त्रिभुवनपराभावुकं पहीनएं ॥९॥ ४ शीलाङ्गैरिह नखरैर्महाव्रतेस्तैः पञ्चास्यो जिनपतिशासने वने यः।
सूरीन्द्रं मुनितिलकं प्रणोमि भक्त्या पारीन्द्रं तमिह भवाविो स्वशक्त्या ॥११॥ ४ (धर्मप्रभसूरि:-) श्रीधर्मप्रभसूरयस्तदनु तत्पदृश्रियो मौलया सिद्धान्ताम्बुपयोधयः सुकृतकृवाणीतरङ्गाऽऽलयः।
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॥३१॥
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पुण्डरीक
परित्रम्.
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सम्यक्त्वं हृदि यस्य (हृदयस्य) भूषण नगिं चारित्र लक्ष्मी च यैः
दत्वा के न जनार्दना अपिकृता भव्यास्तमोजिष्णवः। क्रोधे दावति सद्गुणदुपु पोव हन्ति शान्नाद् रसात् संसारे गुरुशरिराशयेति स गोन्ति चारित्रतः ।
यामिनयत्यमी सवितरन्यन्तःप्रभभ सनात् ययाख्यानगुरो गुरुः स जयतु श्रीधर्मसूरीश्वरः (१)। ( अभयप्रभगुरा:-) श्रीअभयप्रभा गुरवो भवभयहरणैकवद्धयोऽभवन् ।
तत्पमानससरोऽलंकृतये राजहंसशुचिचरिताः ॥९४॥ न गम्भीरो वाधिः शशधर करा.नैव शिशिराः सुधा न स्वादिठा मलयजरसो नैव सुरभिः ।
प्रभा नो भानोः साऽप्यविकलविलोकाय भविनां सुकर्णाभ्यणे चेद् भवति वचनं तद्वदनतः ॥१५॥ (रत्नप्रभमरि:- निर्मलनिश्चलकोभलमहातेजा बभूप नत्रासः। श्रीरत्नप्रभसूरिस्तत्पश्रीशिरोरत्नम् ॥९॥ शाखाम्भोनिधिकुम्भसंभवमुनिः संदेहराने रविः शान्तत्वाऽमृतचन्द्रमा मधुहृद्दे भवानीमः। चारित्रद्विपशल्लकीनिभगुणमोदभूलविन्ध्याचल: श्रीरत्नप्रभसूरिसद्गुरुरहो! स्तोतुं शक्यते । (कमलप्रभसूरि:- ) श्रीरत्नप्रभशिष्येण कालपमरिणा । मन्त्राधिराजरूपश्रीपार्श्वनाथप्रसादतः ॥१८॥ श्रीशत्रुञ्जयसिद्धाद्रेः शारस्य रसास्पदम् । प्रभुश्रीपुण्डरीकस्य चरित्रं पुण्यपुष्टिदम् ॥९९।। (१३७२ वर्षे कृतमेतत्--.) श्रीविक्रमराज्येन्द्रात् त्रयोदशशतोन्मिते । त्यधिके वर्षे विहितं धवलकके ॥
१ कृष्णाः, जन्माईना अपि । २ सद्गुणधु दाब वाचरति क्रोपे । ३ पयोवाहा इव । ४ वारिराशा इस संसारे । ५ पाताः प्रवहणानि प । ४६ रात्राविच मोहे। ७ प्र०-यमू । ८ सूर्या व ।
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श्री रत्नप्रभसूरि-शिष्यआचार्यश्रीकमलप्रभ विरचितम् इति श्रीपुण्डरीक-चरित्रम्
समाप्तम. 00000000000000000000000000
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________________ पुंब्रोक परिवर 314 // अमारे त्यांथी अमारा तरफथी छपायेला नीचे प्रमाणेना पुस्तको मळी शकशे सचित्र श्री पुंडरीकस्वामी चरित्र पद्यबंधमूळ (13 चित्रोवालं ) किंमत रु. 10-0-0 उपसर्गहरस्तोत्र लघुवृत्तिः प्रियंकरनृपकथा सहित मूळ इष्टापामयकरपकथा साहत मूळ रु. 3-0-0 सचित्र श्री पुंडरीकस्वामी चरित्र भाषांतर ( 13 चित्रोवालं) , रु. 5-0-0 Ram00000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000boocodeodoc0000000000000OOK LGRIM // 31 // For Private & Personal use only FRhinelibrary.org