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________________ पुण्डरीक ॥१९२॥ सगः-५ OOOOOOOOOOOOooo ooOOOO तस्थावतिस्वच्छमनाः स्वकायो-त्सर्गेण मायोज्झित एव रात्रौ ॥४४२॥ इतश्च- (अमरशेखरं नन्तुमाजगाम चन्द्रदेवः-) चन्द्रावतंसाख्यविमानसंस्थश्चन्द्राभिधानो ग्रहमण्डलेन्द्रः। निजावधिज्ञानमयो पृथिव्यां प्रयोजयामास तदैव रात्रौ ॥४४॥ स चन्द्रदेवोऽमरशेखराख्यं ध्यानस्थित राजमुनि निरीक्ष्य ।। विहाय वेगेन निजं विमान-मेनं नमस्कर्तुमिहाऽऽजगाम ॥४४४॥ जाते प्रभातेऽथ महामुनीन्द्रो ध्यानं स संपूर्य चचाल यावत् । चन्द्राख्यदेवो मुनिमेनमेन:-प्रणाशहेतोः प्रणनाम तावत् ॥४४५॥ नत्वा स चन्द्रो मुनिराजमूचे प्रभो ! कृतार्थोऽस्मि तवाऽद्य दृष्ट्या । ततः प्रसादं कुरु मे निजेन केनाऽपि धर्मण सुवाचिकेन ॥४४६॥ ऊचे मुनीन्द्रोऽमरशेखरोऽथ कार्येण केनापि मयान दृष्टिः। क्षिप्ता सुरेन्द्र ! त्वयि किंतु कायोत्सर्गे विधियष जिनोपदिष्टः॥४४७॥ तथापि-जिनेश्वरं श्रीअभिनन्दनाख्यं नमस्कुरु स्वं कुरु भोः कृतार्थम् । एवं गदित्वा चलिते मुनीन्द्रे स चन्द्रदेवोऽप्यच तं वीतरागं स मुनिः प्रणम्य पप्रच्छ चन्द्रेऽत्र तदा निविष्ट। भवत्प्रसादेन विभो! ममाद्य पभूव पूर्ण व्रतरत्नमेतत् ॥४४९॥ १ मालादिप्रहाः। २ एन:-पापम् 5000000000oooooooooooooo00000000000000000Code ॥१९२॥ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.600147
Book TitlePundrik Charitram
Original Sutra AuthorKamalprabhsuri, Bechardas Doshi
Author
PublisherMohanlal Girdharlal Shah Bhavnagar
Publication Year1924
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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