Book Title: Jail me Mera Jainabhayasa
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली 9230 222 क्रम संख्या काल नं० खण्ड सुखला Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेलमें मेरा जैनाभ्यास - . . Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "एक ओरकी बात गडसे भी अधिक मीठी लगती है। अतएव दूसरे मताके तत्वोंका निष्पत्त-सहानुभूतिकी दृष्टि से वाचन और मनन करनेकी विवेकी पुरुषोंकी आदत होती है ।" Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ areer h सेना Meninės. 9230 प्रथम खण्ड - pyy Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदायः, सवृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे, संपद्यन्तां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्गः ॥" हे देव ! शास्त्रोंका पठन-पाठन, वीतरागकी भक्ति, सजनों की संगति, सच्चरित्रोंका गुणानुवाद, दोषोंके कहने में मौन, सबकेलिये प्रिय-हित वचन और आत्मोद्धारकी अभिलाषा, इतनी बातें मुझे तब तक प्राप्त होती रहें, जब तक कि मैं मोक्षको न पाऊँ। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवलोकन । न्यायाचार्य पं० सुखलाल जी, प्रो० हिन्दू यूनिवर्सिटी काशी द्वारा लिखित किसी प्रतिष्ठित और चिरपरिचित मित्रकी कृतिका 'अवलो. कन' करके उसके बारेमें कुछ प्रास्ताविक लिखनेका काम सरल नहीं है। क्योंकि उस कृतिके अवलोकनके समय जिन संदेशोंकी छाप हृदयपर अङ्कित होती है, उन्हें यथार्थ रूपमें लिखते समय यह शक्का वाचकोंकी ओरसे बनी रहती है कि शायद अवलो. कनकार पुस्तकके लेखकके प्रभाव या दृष्टिरागके वशीभूत होकर ही ऐसा लिखने लगा होगा। इसी तरह जिन त्रुटियोंकी छाप अवलोकनके समय हृदयपर पड़ी हो, उन्हें स्पष्टरूपसे लिखने में भी अवलोकनकारको अवलोक्य पुस्तकके लेखककी ओरसे यह शङ्का रहती है कि शायद वह अप्रसन्न हों। मुझे इस अवलो. कनको लिखते समय उक्त दोनों शङ्काओंका भय नहीं है। मैं अपनी न्याय वृत्ति और मर्यादापर ही अधिक भरोसा रखता हूँ। अतएव मुझे आशा है कि तटस्थ वोचकोंको इस 'अवलोकन'पर ऐसी शङ्का करनेका मौका न मिलेगा। पुस्तकके सत्य-प्रिय लेखककी ओरसे तो मैं सर्वथा निर्भय हूँ। जिसने जैन शास्त्रोंका तात्त्विक, साहित्यिक, ऐतिहासिक भौर जीवन के प्रत्येक क्षेत्रमें उपयोगिताको दृष्टिसे चिरकाल तक मनन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) और परिशीलन किया है, उसके दिलपर इस पुस्तकको पढ़कर ऐसी छाप अवश्य पड़ेगी कि इसमें जैन-परम्परा और शास्त्रकी बातें-वस्तुएँ तो बेहद हैं, पर उनकी योग्य व्यवस्था, उनकी पूर्णता और उनका स्वतन्त्रभावसे परीक्षण इस पुस्तकमें नहीं है। इस पुस्तकको पढ़ते समय मुझको भी यह प्रश्न हुश्रा । पर जब मेरी दृष्टि एक सत्यकी ओर गई, तब उसका समाधान ठीक-ठीक होकर पुस्तकके गुण-दोष जाननेकी कसौटी मिल गई। मुझे मालूम हुआ कि इसके लेखक न तो प्रोफेसर हैं, न किसी शास्त्रके पण्डित, वे न तो लॉजिशियन (Lungician: ) होनेका दावा करते हैं, और न साइन्टिस्ट { Scientist ; ही होनेका। पुस्तकके लेखक सेठ अचलसिंहजी कॉलिजमें तो पढ़ने गए ही नहीं, उन्होंने संस्कृत-प्राकृत बिल्कुल पढ़ी ही नहीं। वे छोटी उम्रसे कुश्तीबाज रहे और कुलपरम्परासे रहे व्यापारी। इस प्रकारकी परिस्थिति में पलने और जीवन बितानेपर भी उनका रस धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय विषयों की ओर छोटी उम्रसे ही था। जिसका मैं खुद चिरकालसे साक्षी रहा हूँ। वे व्यापार-धन्धा करते समय और अखाड़ेमें दंगलबाजी करते समय भी थोड़ा-बहुत अवकाश निकालकर उसमें अपना प्रिय साहित्य पढ़ा करते थे और मित्र-मण्डलीमें तथा सभा-सोसाय. टित्रों में सम्मिलित होकर चर्चा भी किया करते थे। इस जिज्ञासा बीजकी पुष्टि के साथ-साथ उनमें सक्रिय विचारके बीज पुष्ट होते थे। वे सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रोंमें स्थानिक रूपसे भाग Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) लेकर अपनी प्रवृत्तिका परिचय देते थे । महात्मा गांधीजी के आन्दोलनने उन्हें विशेष कार्य करनेको प्रेरित किया । क्रमशः डाँडी कूँचका और जेल यात्राका पुण्य प्रसङ्ग देशकेलिये आया । और सेठजी भी उसके यात्री हुए। अनेक योद्धा जेल यात्रा से देश सेवा के अलावा नाना फल प्राप्त करके घर लौटे हैं। अनेकोंने जेल में योगका, अनेकोंने संगीतका, अनेकों भाषाओंका और अनेकोंने विविध प्रकार के साहित्यका अभ्यास किया। इस राष्ट्रीय जेल यात्राने एक विशिष्ट वर्ग में देश के लिये आवश्यक ज्ञानकी पूर्ति अंशतः की है। इसके परिणाम स्वरूप पिछले तीन वर्षों में अनेक विषयोंपर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई, अनेक भावनाएँ प्रकाशमें आई और विचार-क्षेत्र में एक क्रान्तिसी मच गई। सेठजी भी दो बार जेल में हो आए। उन्होंने वहाँ जो कुछ पढ़ा, उसके फलस्वरूप यह दूसरी पुस्तक है। जेल के डेढ़ वर्ष जितने परिमित समय में अनेक बन्धनों के होते हुए और अपेक्षित साधनोंकी पूर्ण न्यूनता के होते हुए भी - उन्होंने प्राप्त साधनोंका अपनी समझ और शक्तिके अनुसार जो सदुपयोग किया, उसको - सत्यको सामने रखते हुए यह कहना पड़ता है कि उन्होंने जो कुछ किया, वह केवल सन्तोषप्रद ही नहीं, बल्कि व्यापारी समाजके नवयुवकों के लिये प्रेरक भी हैं । व्यापार-प्रधान जैनसमाजके पढ़े-लिखे कहलानेवाले हजारों गृहस्थ युवकों में इने-गिने ही ऐसे मिलेंगे, जिनका धार्मिक साहित्य Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) की ओर रस हो । रसवाले थोड़े-बहुतों में भी ऐसे कम मिलेंगे, जिन्होंने धार्मिक साहित्यकी सब शाखाओं पर सुलभ पुस्तकों को पढ़ा हो। इनमें भी फिरनेका मोह छोड़कर पढ़ने और विचारने वाले बहुत कम मिलेंगे। ऐसे पढ़नेवालों में भी अपने पठनका स्थूल सार निकालनेवाले, और उसे लेखबद्ध करनेवाले तो जैन समाज में नाममात्र के होंगे। जब हम इस पुस्तक में देखते हैं कि इसके लेखकने अनेक पुस्तकें पढ़कर उनको संक्षिप्त सार या संक्षिप्त व्योरा संग्रह किया है और सो भी एक वर्ष जितने परिमित समय में, तब हमें इस पुस्तकका मूल्य निर्धारित करने में कोई कठिनाई नहीं होती । यह पुस्तक इसके लेखककी शक्तियों का परिचय इस प्रकार से करा सकती है: -- (क) तत्व, साहित्य, इतिहास आदि अनेक विषयोंपर विविध पुस्तकें पढ़नेकी रुचि और प्रवृत्ति । (ख) पढ़ी हुई पुस्तकों में से अपने लेखानुकूल विषयोंका चुनाव तथा सामग्री-संचय | (ग) संचित सामग्रीका थोड़े समय में जैसा बन पड़ा, उपयोग कर लेनेका निश्वय तथा साहस । उक्त दृष्टिसे यह पुस्तक न केवल साधारण कोटिके गृहस्थ जिज्ञासुओं को ही कामको ओर प्रेरक है, बल्कि साधु समाजके लिये भी यह बोधप्रद है। जो साधुगण अपनी इच्छा से धामिक जेल में ज़िन्दगी भर के लिये पड़े हैं, जिन्हें ज्ञानार्जन के सब सुभीते Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, कोई बन्धन नहीं । जो दिन-रात पठन व्याख्यान आदिमें ही रत रहते हैं, वे यदि अपनी शक्तिका उपयोग कैसे करना-यह बात इस छोटीसी पुस्तकसे सीख लें, तो समाजका भावी उज्ज्वल होनमें कोई सन्देह नहीं है। साधारण जैन शास्त्रके व्यापक जिज्ञासुकेलिये यह पुस्तक पर्याप्त है । क्योंकि इसके द्वारा उसे अनेक विषयगामी जैन विचार एक ही पुस्तकसे मिल सकेंगे। इसमें यदि विशेषता है तो यही है कि जैन परम्परा तथा शाषकी अनेक विषयगत चर्चा इस एक ही पुस्तकमें आ गई है। निःसन्देह इसके तीन खण्डों मेंसे मुख्यतः दूसरा खण्ड ऐसा है-जिसमें न तो सब लोगोंकी गति ही हो सकती है, और न सब लोगोंकी रसवृत्ति ही पुष्ट हो सकती है। फिर भी इसके पहले और तीसरे खण्डके कुछ अधिकार सर्व साधारण केलिये भी रोचक और पढ़ने योग्य है । जैसे-'संस्कार', 'जैनधर्मकी प्राचीनता' और 'कुछ वाक्य-रत्न', इत्यादि। ___ जेलसे बाहर आनेके बाद सेठजीको यदि अवकाश मिलता, तो वे इसे फिरसे ध्यान पूर्वक पढ़कर प्रत्येक विषयका विशेष चिन्तन कर ऐसा सुधार करते कि जिससे न तो पुनरुक्तियाँ पाती, और न थोड़ी-बहुत दीखनेवाली विषय-विशृङ्खलता ही रहने पाती। अनेकविध प्रवृत्तिओंका भार सिरपर लेकर चलनेवाले सेठजीने यही उचित समझा कि अभी तक जो कुछ संगृहीत हुआ, और जिस रूपमें हुआ, वह चिरकालकेलिये यों ही पड़ा रहनेकी बजाय, प्रकाशित हो जाय, यही अच्छा है । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस विचारसे उन्होंने अपने अभ्यामका फल वाचकोंके समक्ष प्रकट करनेका प्रयत्न किया है, जो आदर-पात्र है। इस पुस्तकका जो नाम रक्खा गया है, वह सेठजीकी वृत्ति और प्रवृत्तिका द्योतक है। उनका दावा यह नहीं है कि मैंने प्रत्येक वस्तुपर आवश्यक चिन्तन या गहग मनन किया है, अथवा प्रत्येक मुद्दे का स्वतन्त्र परीक्षण किया है। उनका दावा यदि है, तो मेरी दृष्टिमे इतना ही जान पड़ता है कि मैंने जेलवामके ममय जैन-शास्त्रों को जो कुछ समझा, जो कुछ पढ़ पाया और उनमेंमें जो कुछ भार इस परिमित समयमें निकाल सका, वह इस पुस्तक में है। और यह दावा ठीक भी है। क्योंकि शास्त्रीय सम्भीर चिन्तन और स्वरन्त्र परीक्षण कभी अल्प परमय में सिद्ध हो नहीं सकते। इम पुस्तक के अवलोकनसे एक छाप यह पढ़ती है कि सेठजीको जेल में दिगम्बर-मादित्य और दिगम्बर-इतिहासकी पुस्तक पढ्नेको कम मिली. या उन्हें पढ़नका समय न रहा। यह भी मालूम होता है कि उन्हें अँगरेजी और गुजगतीकी दुछ महत्त्व पूर्ण पुस्तके प्राप्त नहीं हुई, अन्यथा जो दक्षिण हिन्दुस्तानके दिगम्बर गजा, मन्त्री और त्यागी वर्ग तथा उनके माहित्यके वर्णनकी कमी रह गई है, वह न रहती। परन्तु सम्भव है-वह . तथा अन्य सब कमियाँ दूसरे संस्करण में दूर हो जाएंगी। अन्त में मैं एक सूचना कर देना योग्य समझता हूँ। वह यह कि जिस-जिस लेखककी जिस-जिस पुस्तकको पढ़कर जो-जो Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) अंश उसके शब्दों में या अपने शब्दों में इस पुस्तकमें सेठजीने संग्रह किया है, उस उस अंशके नीचे मूल पुस्तक तथा मूल लेखकका नाम देकर पृष्ठ संख्या निर्दिष्ट की जाती तो शास्त्रीय तत्त्वोंकी व्याख्या के अधूरेपन पूरेपन की या गुण-दोष की या वर्णनशैलीको, जवाबदेही मूल लेखक के ऊपर रहती, और साथ ही वाचकोंमें उन मूल पुस्तकों के अवलोकनका थोड़ा-बहुत उत्साह भी जागृत होता । साथ ही साथ यह प्रस्तुत पुस्तक कितनी पुस्तकोंक अवलोकनका परिणाम है, यह भी ज्ञात हो जाता । यदि सेठजीके पास कोई जेल अभ्यासके समय की यादी हो, तो उसके आधार से परिशिष्ट द्वारा यह कमो दूर की जा सकती है । जैन युवकों का खास कर व्यापारी और साधन प्राप्त युवकों का सेठजी के धार्मिक और राष्ट्रीय उत्साहकी ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ । जिससे वे अपने समय, शक्ति और धनका सदुपयोग करें। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय २५-१-३४ } N सुखलाल Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा निवेदन - HM जब सन् १९३० में महात्मा गाँधी द्वारा सत्याग्रहसंग्राम छिड़ा था, उस समय मैंने अपनी तुच्छ सेवाएँ देशको अर्पित कर दी थीं। फलतः ता०.२० सितम्बर १६३० को मैं गिरफ्तार किया गया और मुझे ६ महीनेकी सख्त सजा और पाँच सौ रुपया जुर्माना किया गया, जिसको मैने सहर्ष स्वीकार किया। उस समय मुझे कुछ धार्मिक ग्रन्थ और पुस्तकें पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ, पर गाँधी-इरविन पेक्ट ( Gandhi Irwin Pacit. ) के अनुसार जलसे छूट जानके कारण मैं कुछ नहीं लिख सका। इसलिये मैंने यह निश्चय किया कि भविष्य में यदि की और अवकाश मिला तो अपने विचारोंको पूर्णतया लिखनेकी चेष्टा करूँगा। मुशकिलसे एक वर्ष भी नहीं निकल पाया था कि युद्धके बादल फिर मँडराने लगे और महात्माज के इंगलैंडस आनेके छह दिन बाद ही यानी ता० ४ जनवरी सन् १६३२ को फिर युद्ध प्रारम्भ हो गया। इस समय भी मैंने अपनी सेवाएँ देशको अर्पित की । फलस्वरूप ता० २२ फरवरीको मैं गिरफ्तार किया गया और धारा १७ ए० १७ बी० और चौथे आर्डीनसकी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] चौथी धारानुसार साढ़े तीन वर्षको सख्त सजा और पाँच सौ रुपया जुर्मानेका दण्ड मुझे दिया गया । पर चूँकि सारी सजाएँ साथ-साथ चलीं, इसलिए वह केवल अठारह महनिकी रहीं । यह अवसर मेरालये एक स्वर्ण अवसर था, किन्तु मनुष्यका कर्म उसके आगे चलता है अर्थात् मनुष्य सोचता कुछ है और होता कुछ है । अभाग्यवश जेलमं मेरे कूल्हे में निरन्तर दर्द रहने लगा | जिसके कारण के चलने फिरने, बैटने, सोने दिसे अधिक कष्ट होने लगा । इसके अलावा मेरे पूज्य भाई साहब बीमार हो गये: जिसके कारण मेरा चित्त सदा चिन्तायस्त रहने लगा और दुर्भाग्यवश ता० ११ जनवरी सन १६३३ को उनका स्वर्गवास हो गया । A इस दूसरी जेल-यात्रा के समय में जितना समय मुझे मिलता रहा, उसमें अनेक जैनधर्मके दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासी सम्प्रदायक ग्रन्थों व पुस्तकांक पढ़ने व मनन करनेका सुअवसर प्राप्त हुआ । अपने अनुभव और इन पुस्तकों के आधारपर मैंने मुख्य-मुख्य विषयोंपर कुछ लिखना शुरू कर दिया । फलस्वरूप यह पुस्तक, जो आपके हाथों में है, तैयार हो गई । इस पुस्तक लिखते समय यह मेरा अवश्य विचार था कि कोई छोटा-सा जैनधर्मके विषय में ऐसा ग्रन्थ तैयार किया जाय, जिसको पढ़कर जैन और जैन बन्धु जैनधर्म के मुख्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मु य सिद्धान्तों और विषयोंका अनुमान लगा सकें। मैंने इस नसके लिखते समय इस बातका पर्ण ध्यान रक्खा है कि किसी स प्रदाय-विशेषका खण्डन-मण्डन न किया जाय । यह मैं अपने बन्धुओंको अवश्य इतमीनान दिलाना चाहता है कि दुःख और विपत्तिकै समयमें धर्म जैसी सहायता करता है, बैसी संसार में कोई पदार्थ नहीं कर सकता । जब मुझे भाई साहबके स्वर्गवासकी मानसिक अपार वेदना थी और उसके साथ-साथ शारीरिक कष्ट भी था. उस समय अगर किसी वस्तुन मुझे संतोष और महायता पहचाई तो वह केवल धार्मिक ग्रन्थोंका आश्वासन ही था । अगर मुझे इस अवसरपर यह उत्तम सहारा न होता तो न मालम मेरी क्या दशा हुई होती । इन धार्मिक ग्रन्थॉन स्पष्ट कर दिया कि 'हे जीय ! तुम एक-नएक दिन अवश्य मरना है और संसारमें कोई किसीका नहीं है। केवल शुभ और अशुभ कर्म ही अपने हैं। इस कारण सदा इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जहाँतक मुमकिन हो वहाँतक अपने तन, मन और धनका सदा सदुपयोग करते रहना चाहिये ।' मैं आशा करता हूँ कि मेरे बन्धु इस पुस्तकको पढ़कर अवश्य लाभ उठावेंगे, और तभी मैं भी अपनेको कृतार्थ समझंगा। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभार । जिन ग्रन्थोंके साहाय्यसे यह पुस्तक लिखी गई है, उनके लेखक और प्रकाशकोंका आभार स्वीकार करते हुए, उनकी नामावलि मैं नीचे देता हूँ:१-श्रीउत्तराध्ययनजी। १५-श्रीप्रवचनसार । २-श्रीभगवतीजी। १६-सूरीश्वर और सम्राट ३-श्रीजीवाभिगमजी। अकबर । ४-कर्मग्रन्थ पहिला भाग। १७-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय । ५-कर्मग्रन्थ दूसरा भाग। १८-तत्त्वार्थसूत्र । ६-कर्मग्रन्थ तीसरा भाग। १६-मोक्षमार्गप्रकाश । ७-कर्मग्रन्थ चौथा भाग। ८-जैनतत्त्वप्रकाश। २१-बुद्धचर्या। १-श्रीमन्त्रराज-गुणकल्प- २२-महाबोधि । महोदधि। २३-पातञ्जल योगदर्शन । १०-नाटक समयसार । २४-कर्तव्यकौमुदी। ११-जैनसिद्धान्तप्रवेशिका। २५--ध्यानकल्पतरु । १२-चरचा शतक। २६-ज्ञानदीपिका । १३-पच्चीस बोलका थोकड़ा। २७-सत्यार्थचन्द्रोदय । १४-सामायिक प्रतिक्रमणसूत्र । २८-चिकागो-प्रश्नोत्तर । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] २१-अज्ञानतिमिरभास्कर। ४३-क्रियाकर्मवैराग्य३०-रत्नकरण्डश्रावकाचार । प्रश्नोत्तर । ३१-भगवान महावीर-चरित्र । ४४-गोम्मटसारजीवकाएड३२-श्रीनेमिनाथ-चरित्र। कर्मकाण्ड । भानामनाथ-चरित्र। ३३-जैनसंप्रदायशिक्षा। ४५-गोम्मटसार । ३४-प्राप्तमीमांसा। ४६-जैनाचार्यका शासनभेद । ३५-पुराण और जैन धर्म। ४७-सृष्टिकर्त्तत्वमीमांसा। ३६-दर्शन और अनेकान्तवाद। ४८-श्रात्मानुशासन । ३७-जैनतत्त्वसार। ४६--श्रीपार्श्वनाथ भगवान्का ३८-सप्रभङ्गीनय । जीवन-चरित्र। ३६-गऊकी वाणी। ५०-आत्मानुशासन। ४०-आत्मिक मनोविज्ञान । ५१- भूधरशतक । ४१-जैन रामायण। ५२-ज्ञानार्णव। ४२-भारतवर्षका इतिहास ... और जैन धर्म। -(सेठ) अचलसिंह। .. HERE : 16mmm.. N Page #22 --------------------------------------------------------------------------  Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रथम खातु विषय १-मेरी भावना २-संस्कार ३-जैनधर्मकी प्राचीनता ४-जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास ... ५-भगवान् महावीरके बादका जैन इतिहास ६-अहिंसाका स्वरूप ... (१) अहिंसाके भेद ... (२) हिंसाका विशेष स्वरूप - Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय १ - समभङ्गी २- श्रनेकान्तवाद ( १ ) अनेकान्तपर अन्य विद्वानोंकी सम्मतियाँ ( २ ) अनेकान्तवादका स्वरूप ३- द्रव्य-पर्याय अधिकार ४- नय अधिकार ५ - निक्षेप अधिकार द्वितीय खण्ड ६---प्रमाण -कर्म अधिकार ( १ ) श्राचापों का समाधान ( २ ) कर्मशब्दका अर्थ ( ३ ) कर्मका स्वरूप ( ४ ) कर्मशत्रु पर विजय waa ( ५ ) कर्म शत्रुकी प्रबलता (६) कर्मों से छूटने का मुख्य गुरु ( ७ ) कर्मों के विषयमें विशेष ज्ञान ( ८ ) बन्ध ( 4 ) निःकाडित कर्म *** ::: *** ... 2 :: ... * ... *#. ... ... ●黏 ... ... ... पृष्ठ ७७ ८३ ८३ ६४ ६६ १०७ १०६ १११ ११२ ११४ ११५. ११७ ११६ ११६ १२० १३८ १४१ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . . . १५२ १५५ . . . (१०) शुभाशुभ कर्मों की कसौटी (११) कर्मों का स्थिति-काल-प्रमाण (१२) श्रायुबन्धका नियम ((१३) कर्मबन्धके मुभ्य हेतु {২} ফাহানীর সুস্থ - (१५) गुणस्थानों में हमार बम्ध-देव (११) संयोष -नवतस्व अधिकार ... २५ १६२ १६॥ . . (५) जीवके शरीर (३) जीवकी गति (४) जीवोंके भेर ... (२) जीवके प्राण ... (६) जीवोंकी आयुःस्थिति (७) जीयों का अल्प-बहुम (८) संसारी जीवके गुण (.) भारमा और मेवान (१०) अजीय () মুন্সী আফয়া १८१ १५१ २०० Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड विषय १- मुमुत्तुकेलिये उपयोगी उपदेश (१) कुछ वाक्य-रन -जीवनकी सफलता २- मनुष्य-उ -ध्यानका स्वरूप ( १ ) प्रातध्यान ( २ ) रौद्रस्थान ) स्पष्टीकाय ( ४ ) शुभ ध्यान ( * ) धर्मध्यान ( ६ ) अध्यानके आ ( ७ ) धर्मध्यानकी विशुद्धिकेलिये भावनाएँ (८) धर्मध्यानके प्रकारान्तर ( * ) धर्मध्यानका फक्ष (१०) स्पष्टीकर या (११) शुक्रध्यान (१२) शुध्यानका श्रालम्बन (१३) शुक्रभ्यानके भेव (१४) शुक्रभ्यानकी योग्यता और उसकी प्राप्ति (१५) स्पष्टीकरण (१६) ध्यानके नाम (१०) विशेष *** : .. # # # : है है *** MTV 22 * 48 4 ... : 4. N : 20 D. .. ass ... aps ... २६ पृक्षा २०. अ २३६' २४१ २६६ २६६ २८६ ३०३ ३०७ ३०८ ३०८ ३१० ३११ ३११ ३१२ ३१३ ३१३ ३१६ ३१६ ३१८ ३१६ Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ४- मावनाएँ * --संयम ६--लेश्या अधिकार ( ६ ) योगोका वोश्याके साथ सम्बन्ध -गुणस्थान अधिकार ( १ ) गुणस्थानों का संक्षेपवन ( २ ) गुणस्थानका अर्थ ( ३ ) गुगारानीके नाम सम्यक्त्व अधिकार १ ) एकत्वका स्वरूप [ * ] श्री (३) सस्यक्लके चिह्न ( ४ ) सम्यकवके आठ गुण ( २ ) सम्यकवके पाँच भूषण ( ६ ) सम्यक्त्वके पच्चीस दोष ( ७ ) सम्यक्त्व- नाशके पाँच कारण ( ८) सम्यक्त्वके पाँच प्रतीचार E--नवतश्व अधिकारका शेषांश ( १ ) पुण्य ( २ ) पाप ( ३ ) पासव ... 44 4 ......... ... R दे मैं ... ... : ... . .* 20 4K D ... ... : 4: पृष्ठ ५२३ ૨૦ ३३३ ३३८. ३४१ ૩૫૫ ३५६ ays ३६३ ३६३ ३६३ ३६४ ३६४ ૨૦ ३६५ ३६६ ३६६ ૧૯ ३ २०१ Page #30 --------------------------------------------------------------------------  Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ३८४ . . . ३८६ a . ३१० ३६४ . . . . . A . विषय (४) बध .) संवर (4) निर्जरा (6) मोक्ष १०-परमेष्ठी अधिकार (१) णमो भरिहताण' ( २ ) गामो सिद्धा (३) मो श्राइरियाण (४) एमो उबझाया (५) गमो लोए सव्वसाहणं' ११-चक्रवर्ती-बलदेव-वासुदेव १२-लोक अधिकार ( १ ) प्रदाई द्वीप (२) जम्बू द्वीप ( ३ ) अवलोक (.) नवनवेयक (२) अनुत्तर विमान (६.) सर्वार्थसिद्धि (.) स्विचोत्र (८) सनाती ३६५ ४०२ ४०५ ४०७ ४०8 ४११ १२८ ४२८ 26. ४३५ . . . . . . ४३७ ४३८ . . . Page #32 --------------------------------------------------------------------------  Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रीवीतरागाय नम: * जेलमें मेरा जैनाभ्यास प्रथम खण्ड AJ forgee प जिसने राग द्वेष कामादिक जति, सब जग जान लिया, सब जीवोंको . मोक्ष मार्गका, निस्पृह हा उपदेश दिया । बुद्ध, वार, जिन, हरि, हर. ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कही, भाक्ति-भावसे प्ररित हो. यह चित्त उसीमें लीन रहा ।। विषयोंकी पाशा नहि जिनक, साम्य-भाव धन रखते हैं, निजपरक हित-साधनमें जो, निश दिन तत्पर रहते हैं । स्वार्थ-त्यागकी कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगतक, दुख समूहको हरते हैं । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जल में मरा जैनाभ्यास * प्रथम रह सदा सत्संग उन्हीका ध्यान उन्हीं का नित्य रहे, उन ही जैली चर्या में यह . चिन सदा अनुरक्त रहे । नहीं सताऊ किमी जायको . मठ कमी नाहे कहा करूं. परधन-बनिन पर न लुभाऊ, संतापामत पिया करू । अहंकारका भाव न रम्य नहीं किसीपर क्रोध करू. दन्न दसरोका बहताका, कभी नी -माय धौ । रह नाना सी मरी, सरल सत्य व्यवहार करू, बने जहा कि इस जीवन में . अंगका उपकार कर ।। मंत्री भाव जगतम मस. सब जाबो मे नित्य रहे. दीन-दुख जीवापर मरे. उन करणाः सात बह । दर्ज कर कमा रतापर. क्षाभ नहीं मसको आवे, साम्यमान कार में उनपर, मा एस हो जावे ।। गणी जनोंको दस्य दयम, मरे म उमर श्रावे, बने जहां तक उनका नवा. कर के, यह मान लख पावे । होऊ नहीं कनान कभी में, द्रोह न मरे उर श्रावे, गण-ग्रहणका भाव रहे नित. हाष्ट न दापोंपर जावे ॥ साई बुरा कहा या अच्छा, लक्ष्मी श्रावे या जावे, लाखों वर्षों तक जाऊ. या मत्यु अाज ही भाजावे । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर * मेरी भावना* and अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देन पावे, तो भी न्याय मार्ग, मेरा, कभी न पद डिगने पावे ॥ होकर मुख में मग्न न फले. दख में कभी न घबरावे, पर्वत नदी श्मशान भयानक, अटवास नाहे भय खावे । रहे अडोल अकम्प निरन्तर. यह मन दृढतर बन जावे, -वियोग प्राने योगमे, महनशीलता दिखलावे ॥ सखा रहे सब जाब जगतके, कोई कमी न घबरावे, और पाप आमा छोड जग, नित्य नये मंगल गाये । पार घर बचा रह धर्मका, मत दप्कर हो जावें, जान चार न जा कर प्रपना, मन ज-जन्म फल सब पावें ।। झाने-माने या ना हे जगले. बाट समयपर हुश्रा कर. धर्म-निष्ट होकर जा मी. न्याय प्रजाका किया कर । गंग-मरी-दर्भिक्ष न फलं. प्रजा शान्तिस जिया करे, परम अहिंसा पम जगत में, फल सब हित के.या कर ॥ फले प्रम परस्पर जगमें. माह दरपर रहा करे, पाप्रेय-बटुक-कटार शब्द नहि, काई मखसे कहा करे । बनकर सब 'युग-वीर हृदयम, देशोन्नति-स्त रहा करें, चस्तु-म्वरूप विचार खशीसे, सब दुख-संकट महा करें। --श्री जुगुल किशोर जी मुल्यार । anews Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कार चारशील विद्वान् यदि मनुष्य-प्रकृतिकी खोज करेंगे, * तो उन्हें पता लगेगा कि संसारमें जो मनुष्य जिस धर्मका अनुयायी है-कुल-परम्पगसे जिस धर्मके अनुकूल वह चल रहा है, उस उसी धर्मकी बातें सही प्रतीत होती हैं; दुसरे की ग़लत । अपने धर्मकी सभी बाते युक्तियुक्त, संगत और सम्भव दीखती हैं; दूसरेकी पक्षपात-पूर्ण, असंगत और असम्भव प्रतीत होती हैं। कुछ लोग उपरोक्त नियमके अपवाद-स्वरूप भी मिलेंगे। अर्थात् कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे कि जो पालन तो वे किसी कुल-परम्परागत धर्मका ही करते हैं, लेकिन दूसरे धर्मास भी सहानुभूति रखते हैं। दूसरे धर्मोको भी वे बुरा नहीं कहत लेकिन ऐसे महानुभाव हैं बहुत थोड़े-इने-गिने ही हैं। ___ कुछ लोगोंके मनकी आदत जो ऐसी पड़ जाती है कि जिससे उन्हें दूसरे धर्मोकी बातें नहीं सुहातीं और पक्षपात-पूर्ण प्रतीत होती हैं तथा अपने धर्म की बातें युक्ति-युक्त और भली प्रतीत होती हैं, उसका कारण क्या है ? Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संस्कार * - - उसका कारण संस्कार है। मनुष्य अधिकतर जिन बातोंको सुनता-सुनाता रहेगा, सोचता-विचारता रहेगा, उसी प्रकारके आदमियोंसे मेल-जोल रक्खेगा और तदनुकूल साहित्यका पठन-पाठन रक्खेगा, उसके विचार वैसे ही बन जायेंगे। जिसके श्रात्मा या मनमें बार-बार जैसे विचारोंका आवागमन रहता है, उसकी आत्मामें उसी प्रकारका एक “संस्कार” पड़ जाता है। वह संस्कार ही स्वमत-रुचि और परमत अरुचि पैदा करता है। लेकिन ऐसा करना है अनुचित । “एक तरफ़की बात गुड़ से भी अधिक मीठी मालूम होती है।" यह वाक्य बहुत कुछ तथ्य रखता है। विवेकी मनुष्यको इस भद्दी आदतको छोड़नकी कोशिश करनी चाहिये और अन्यान्य धाँकी बातें जाननकी रुचि अपने में उत्पन्न करनी चाहिये । दृसरेकी बाने सहिष्णुताके साथ जाननेकी अभिलापा रखना चाहिये । तदनुसार अन्य धर्मों के साहित्यको पढ़नेका अन्य धर्मोक विद्वानोंसे तत्तद धर्मोक जाननका साधन रखना चाहिये । दूसरे मजहबवालों की सभा-सोसाइटीमें जाने-आनेका समागम रखनसे उस मजहब की सभ्यताका ज्ञान होता है। इस प्रकारकी आदत डालनेसे मनुष्यका संस्कार एकमुखी न्न रह कर सर्वतोमुखी होजाता है। सर्वतोमुखी संस्कार मनुष्यको सहिष्णु और विवेकी बनाता है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जेनाभ्यास * सभ्य समाज में आज जो अन्ध परम्पराके दुर्गुण बतलाये जाते हैं, वह इस एकमुखी संस्कारका ही परिणाम है | परीक्षाप्रधानीकी विशिष्टता सभोंने स्वीकार की हैं। परीक्षाप्रधानी वही पुरुष हो सकता है, जिसका वास्तविक तत्व के जाननेको आन्त रिक अभिलाषा उत्पन्न होगई हो और धर्म-धर्मान्तिरोंके स्वरूपों को जाननेकी - समझने की जिसे वास्तविक रूचि होगई हो । पृथ्वीपर जितने भर भी दार्शनिक विद्वान हुए हैं, वे सब इसी तत्त्वजिज्ञासा के प्रभाव से - सर्वतोमुखी संस्कार वाली आत्माको बनाने से हुए हैं। ६ 17 हपका समय है कि आजकल ऐसे सर्वतोमुखी संस्कारवाले व्यक्तियोंकी संख्या संसार में बढ़ती हुई नजर आ रही है। आजकल हर एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति दूसरे धर्मों की बातें जाननेको उत्सुक दिखलाई पड़ रहा है। दूसरे मजहबों की सभ्यता जानने की अभिलाषा आज प्रायः सभी पढ़े-लिखे व्यक्तियोंमें देखी जा रही है । ऐसे ही बन्धुओंके लिये असल में यह पुस्तक लिखी गई है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मकी प्राचीनता छ समय पहले बहुत से विद्वानों का ख्याल था कि जैन. धर्म कोई स्वतन्त्रधर्म नहीं, वह बौद्ध धर्मसे निकला हुआ नसकी शाखा-मात्र है; परन्तु जबसे जर्मनीके प्रसिद्ध विद्वान प्रोफेसर हरमन जैकोबी ( ! Hart1:311 . Jat,) तथा कितने एक अन्य विद्वानोंने इस विषयकी पूरी शोध की और प्रबल प्रमाणों द्वारा इस बातको (कि जैनधर्म बौद्धधर्मकी शाखा है) मिथ्या सिद्ध कर जैनधर्मको बौद्धधर्मसे सर्वथा स्वतन्त्र और बहुत प्राचीन सिद्ध कर दिखाया; तबसे यह भ्रम बहुत अंशमें तो दर हो चुका है, मगर अभी तक बहुतसे सजन जिनको जैनधर्म के बारेमें बोध नहीं है, अपनी तरङ्ग में प्राकर अब भी जैनधर्म को बौद्धधर्मकी एक शाखा अथवा महावीर भगवानके समय म चला हुआ कह दिया करते हैं। औरोंक विषयमं तो कहना ही क्या, मगर वत्तमान समयके मुप्रसिद्ध हिन्दी कवि श्रीमान् बावू मैथिलीशरण जी गुप्तने भी अभी तक इस सन्देहको दूर नहीं किया है। आपने अपनी सुप्रख्यात पुस्तक 'भारत-भारती' में जैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा बतलाया है: प्रकटित हुई थी बुद्ध विभक चितमें जो भावना, पर रूपमें अन्यत्र भी प्रकटी वहीं प्रस्तावन! । फैली अहिंसा बुद्धिवर्धक जैन-पंथ समाज भी, जिसके विपुल साहित्यकी विस्तीर्णता है आज भी ॥" Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * प्रथम और तो कुछ नहीं, मगर गुप्र महोदय जैसे सत्यप्रेमी और निष्पक्ष सुलेखकोंकी लेखनी उनके अनुरूप प्रतीत नहीं होती। एक नये इतिहास-लेखक सज्जन श्रीरघुवीरशरण डवलिस ते. यहाँ तक आगे बढ़े हैं कि उन्होंने जैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा बतलाते हुए गौतमबुद्धको ही ( जैनोंके अन्तिम तीर्थक्कर , महावीर स्वामीके नामसे उल्लेख किया है “बौद्ध- धर्म भारतवर्षसे बिल्कुल ही निर्वाचित नहीं हो गया । वर्तमान पौराणिक धर्मपर , उसन जो प्रभाव डाला है, वह कुछ कम नहीं। अपने पीछे उसने एक विश सम्प्रदायको छोड़ा, जो जन' नामसं अब तक भारतवर्ष में प्रचलित है। लगभग पन्द्रह लाख जैन इस समय देशम्म पाये जाते हैं ।........... भारतवर्षकं जैन ग्रायः सौदागर वा साहूकार हैं। उनका सिद्धान्त है कि जन-धर्म बौद्ध-धर्म भी पुराना है और बुद्धकी शिक्षाका अाधार जैन-मत ही थ'. परन्तु भारतक प्रतिहासिक निरीक्षणसे यही पता चलता है कि बौद्ध और जैन धर्म वास्तव में एक ही हैं और गौतम बद्ध जैन-धर्ममें महावीर स्वामकि नामसे पारोचत है।" -भारलवर्षका मचा इतिहास, पृष्ठ २०८ , हमारे विचार में इस प्रकारकं संशय और भ्रमक प्रतीत होनेका कारण पुराण ग्रन्थोंमें जैनधर्म-विषयक किये गये Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - खण्ड] * जैनधर्मकी प्राचीनता * उल्लेख ही हैं । उदाहरणार्थं पुराणोंमेंसे कुछ लेख यहाँपर उद्धृत किये जाते हैं, वह इस प्रकार हैं। आज कल अठारह पुराणोंके नामसे जो-जो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, उनमें भागवत का नाम सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इस पुराणकेलिये वैष्णव जनताके हृदय में जितना अादर है, उतना अन्य पुराणों के विषयमें नहीं। लोग इसकी कथा बड़ी ही श्रद्धासे सुनते हैं। इसमें जैनोंके परमादरणीय भगवान् ऋषभदेवका चरित्र बड़ी ही सुन्दरता और विस्तारमे वर्णन किया है। चरित्र यद्यपि जैन ग्रन्थों में उल्लेख किये गये ऋषभ-चरित से भिन्न है। ( वस्तुतः होना भी चाहिये ) क्योंकि भागवतके रचयिताने उन्हें विष्णु का अवतार मान कर उनका चरित्र वणन किया है, परन्तु है वह बड़ा मनोहर और शिक्षा-प्रद। उसमें भगवान ऋषभदेव के सुन्दर उपदेश और अनुकरणीय वैराग्यमय जीवनका चित्र बड़ा बूचीसे खींचा है। उक्त ग्रन्थ के पाँचवें स्कन्धमें चरितवर्णनके अनन्तर कुछ जैनधर्मका भी जिक्र किया है। जिक्र क्या, उसकी उत्पत्तिका उल्लेख किया है। उल्लेख बड़ा विचित्र है । अतः पाटकों के अवलोकनार्थ हम उसे यहाँ उद्धृत करते हैं: 'यम्य किलानुचरितमुपाकराय कोङ्कवेङ्ककूटकानां राजा अहं नामोपशिक्ष्य कलावधर्म उत्कृष्यमाणो भवितव्येन विमोहितः स्वधर्मपथमकुतोभयमपहाय कुपथपाखण्डमसमञ्जसं Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जलमें मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम -- - निजमनीषयामन्दः सम्प्रवत्तीयष्य ॥६॥ यन सह वाब कलों मनुजापसदा देवमायामोहिताः स्वविधिनियोगशौचचरित्रविहीनदव हलनान्यपवतानि निजेच्छया गृहणाना अस्नानाचमनशौचके शोल्लम्चनादानि कलिनाधर्मबहुलेनापहतधियो ब्रह्मब्राह्मण यज्ञपुरुषलोकविदूषकाः प्रायेण भविष्यन्ति ॥१०॥ ते च स्वबह्यावलि नया निजलोकयात्रया उन्धपरम्परया श्वस्तास्त मस्यन्धे स्वयमेव प्रपतिष्यन्ति ॥११॥ अयमवतारो रजसोपप्ल. कैवल्योपशिक्षणार्थः ।" ___ भावार्थ-जिस ऋषभदेवके चरित्रको सुनकर काकवत और कुटकादि देशों का अहेन नामका राजा श्री ऋषभदेवकी शिक्षाको लेकर पूर्व कर्मोंक अनुसार जब कलियुगमें अधम्म अधिक हो जायगा तब अपने श्रेष्ट धर्मको छोड़ कर कुपथपाखण्ड मत को निज मतस चलावेगा, जो कि सबके विरुद्ध होगा | जिसके द्वारा कलियुगमें प्राय: ऐसे नीच मनुष्य हो जावेंगे जो कि देवमायासे मोहित होकर अपनी विधि शौचहीन और चारित्र्यहीन एवं जिनके देवताओंका निरादर हो ऐसे कुत्सित व्रतों-स्नान आचमन और शौच न रखना और केशलुचन करना इत्यादिको अपनी इच्छासे धारण करेंगे। जिसमें अधर्म अधिक है ऐसे कलियुगसे नष्टबुद्धिवाले वेद ब्राह्मण यज्ञ पुरुष (विष्णु ) और संसारकै निन्दक होंगे ।।१०।। जिनके मतका मूल वेद नहीं है, ऐसे वे पुरुष अपनी इच्छाके अनुसार Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * जैनधर्मकी प्राचीनता * ram चलने और अन्ध परम्परामें विश्वास रखनेसे आप ही आप घोर नरकम पड़ेगे ||१५|| भगवानका यह ऋषभावतार रजोगुण व्याप्त मनुष्योंको मोक्ष-मार्ग सिखलानेकेलिये हुआ। अग्निपुराणके ६ वें अध्यायमें लिखा है"अग्निरुवाचवक्ष्य बद्धावतार न. पठतः श्रृगु तोऽर्थदम। पुरा देवासुर युद्ध, दैत्यैः देवा: पराजिता: ॥१॥ रक्ष रक्षोतं शरणं, बदन्ती जग्मरीश्वरम । मायामोहस्वरूपासी, शुद्धोदनसुतोऽभवत् ॥ २॥ मोहयामास दैत्यास्तान , त्यजतो वेदधर्मकम् । ते च बौद्धा बभवाह, तभ्यो न्ये वंदजिता:॥३॥ आर्हतः सोऽभवत पश्चात. अर्हतानकरात्परान् । एवं पासरिडनो जाताः, वंदधर्मविवर्जिताः ।। ४॥" - इसका अर्थ इस भाँति है। अग्निदेव बोले- अब मैं बुद्ध के अवतारको कहता हूँ। यह पढ़ने वा सुननेसे मनोकामना पूर्ण करनेवाला है। पूर्व किसी समयमें दवों और दैत्योंका बड़ा भारी युद्ध हुआ, उसमें देवता लोग दैत्योंसे हार गये। वे सब मिल कर अपनी रक्षाकेलिये विष्णु भगवानकी शरणको प्राम हुए। तब भगवानने मोह और मायाके स्वरूप शुद्धोदन-सुत बुद्धके अवतारको धारण किया और दैत्योंको मोह कर उन से वेद-धर्म का परित्याग करा दिया। उनके उपदेशसे वे दैत्य Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * (থম - mom तथा देव-मार्गसे भ्रष्ट अन्य लोग बौद्ध मतानुयायी बने। तत्पश्चात् वह (बुद्ध) आहत (जैन) बना और उसने जैन बनाये । इस प्रकार वेद-धमसे भ्रष्ट पाखण्डी लोगों की उत्पत्ति हुई। पाठकोंन जैन-धर्मक विषयमें श्रीमद्भागवतके बाद अग्निपुराणाके कथनको भी पढ़ लिया। कथन एकसे एक बढ़ कर है ! भागवतमें तो लिखा है कि ऋषभदेवके चरित्रको सुन और उनकी शिक्षाको ग्रहण कर अहन नामक किसी राजाने जैन-मतका प्रचार किया और यहाँ अग्नि-पुराणका कथन है कि बुद्ध भगवान्ने ही पश्चात जैन बन कर उक्त मतको चलाया। अब हम दोनों से सत्य किसे कह, मिथ्या किसे ठहराये ? इस बात की पाठक खुद बालोचना करें। हमारे ख्याल में तो इस प्रकारके लेखों में परस्पर विरोधका होना ही इस बातका प्रमाण है कि उक्त बाताकी उत्पत्ति-भूमिका द्वपानल ही है, वस्तुस्थिति नहीं। परन्तु धन्य है उन लोगोंको जो इस प्रकारके आधारोंपर ही जैनधर्मका इतिहास लिखने बँट जाते हैं ! इसी प्रकारके कथन गरुड़-पुराण, विष्णु पुराण, शिवपुराण, मत्स्य-पुराण, कूर्म-पुराण आदिमें भी पाये जाते हैं। इस सम्बन्धमें अधिक वादविवाद करना हम व्यर्थ समझते हैं। जैन-धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाले जितने भी लेख उपरोक्त पुराणमें पाये जाते हैं, उन सबपर सम्यक्तया विचार करनेसे निम्नलिखित बातें प्रकट होती हैं। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * जैनधर्मकी प्राचीनता * - - १-पुराणों के जमाने में जैनधर्म विद्यमान था। क-जिस समय पुराणोंकी रचना हुई उस समय जैनधर्म अपनी यौवन-दशामें था । ख-उस समय आपसका विरोध कल्पनातीत दशाको पहुँच चुका था। २-पुराणों में जैनधर्मकी उत्पत्तिक जितने भी लेख हैं, वे एक दूसरेसे विचित्र और प्रतिकूल हैं। क-उनमें ऐतिहासिक सत्यता बहुत ही कम है। ३-जैनधर्मकी उत्पत्ति-विषयक अनेक प्रकारकी जो मिथ्या कल्पनायें प्रचलित हो रही हैं, उनका कारण भी पुराण-गत जैनधर्म-विषयक लख ही हैं । जैसे-- क-जैनधर्म बौद्धधर्मसे निकला है और उसकी शाखा-मात्र है। जैन और बौद्ध मत एक ही है। उनके चलाने वाला एक ही पुरुष है। वह प्रथम बुद्ध था, बादमें जैन हो गया, इत्यादि। ४-इसके सिवा पुराणों के उल्लेखसे एक बात यह भी प्रकट होती है कि उस समयकी वैध-पशु-हिंसाका बड़ा जोर था।जैन और उसके परवर्ती बुद्धधर्मने उसके रोकनेकेलिए बड़ा प्रयत्न किया और इस कार्य में उसे बड़ी भारी सफलता प्राप्त हुई। ___क्या रामायण और महाभारतमें जैनधर्मका जिक्र नहीं ? (यद्यपि जैनधर्म में भी रामायण और महाभारत हैं, पर वे बाल्मीकि रामायण और व्यास-महाभारत से कुछ भिन्न है।) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास [ प्रथम जैनधर्मके सिद्धान्तों तो जैनधर्म एक सनातनधर्म है, पर हम यहाँ बाल्मीकि रामायण और व्यास-महाभारत से सिद्ध करेंगे कि उनमें भी जैनधर्मका वर्णन है । बाल्मीकिरामायण एक स्थानपर इस भांति लिखा है:"वारा भजते नित्यं नाथवन्तश्च भजते । तापसा मञ्जते चापि श्रमणाश्चैव सजते ॥" " -बा० १२० १४, १२ । * हुआ अर्थात् राजा दशरथके यज्ञ में ब्राह्मण, शूद्र तापस और श्रम यादि नित्य भोजन करने लगे । यहाँपर कमें जो श्रमण शब्द आया है, वह अधिकांश जैन साधुओंके लिये ही उपयुक्त हुआ है। जैनधर्ममं साधुश्रीकेलिये श्रम-शब्दका अधिक प्रयोग है और टीकाकारने तो यहाँ श्रमण-शब्दका अर्थ बौद्ध-संन्यासी - बौद्ध साधु किया है। तथाहि - 'बौद्ध-श्रमणः बौद्ध-संन्यासिनः' | टीकाकार के कथनानुसार उस समय बौद्धधर्मक साधु मौजूद थे। इससे सिद्ध हुआ कि उस समय बौद्धधर्म था । बौद्धधमका आविर्भाव जैनधर्मके बाद हुआ है। यह बात आज निर्विवाद सिद्ध हो चुकी है । इसलिये बाल्मीकि रामायण के समय में भी जैनधर्मका अस्तित्व था । व्यास-महाभारत में जैनमतका जिस तरह जिक्र है, वह अन्य पुराणोंसे विलक्षण और बड़े महत्त्वका है। उसमें अन्य मतोंके साथ साथ जैनमतके मूल सिद्धान्त ( सप्तभङ्गीनय ) का वर्णन बड़ी सुन्दरतासे किया है। वह इस प्रकार है Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * जैनधर्मकी प्राचीनता * mam m eewammam 'पौरुपकरणं कचिदाहुः कर्मस मानवाः । देव के प्रशंसन्ति, स्वभावमपरे जनाः ॥४॥ पौरुपं कर्म देवं च, कालवा तस्वभावतः । त्रयमेतत् पृथकभूतमविवक त केचन ।। ५ ।। तदा व नवं च. न जाने नान तथा । बप्रस्तावपया वय . समस्था: समर्शिनः ॥ ६॥" शा०प० अ० २३८ ० २४४ इन भाकों में ग्रन्थकमान पुरुषार्थ, कर्म, स्वभावदाद आदिका उल्लेख कर छ रला कामे जैनधर्माभिमत स्याद्वादक मूलभूत सप्तमझानयका बसन किया है। छठे श्लोक जी (कमस्थाः) पद है, उनकार अर्थ जन होता है. ऐसा ही टीकाकारने किया है। हम अपने बन्धुपांक इतना और भी स्मरमा करा देना चाहते हैं कि जनमतकी प्राचीनता अथवा अर्वाचीनताके लिये हमें किली प्रकार का आग्रह नहीं। हमारे विचारानुसार प्रत्येक मतमें अपेक्षाकृत प्राचीनता और नवीनता बनी हुई है। अतः वह ( जैनमत) आज उत्पन्न हुआ हो या हजारों वपसे, इसपर हमें कुछ विवाद नहीं, किन्तु बाल्मीकि रामायण और व्यासमहाभारतके जमानम जैनधर्मका अस्तित्व नहीं था या उसके बाद निकला, यह बात हमें किसी प्रकार उचित नहीं प्रतीत होती । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास कब हम जैन ग्रन्थोंके अनुकूल जैनधर्मकी प्राचीनता G पर पाठकोंका ध्यान दिलाना चाहते हैं । जिस संसार में हम लोग रहते हैं उसके बनने तथा स्थापित होनेके समयसे और उसके नाश होनेके समय तकको एक 'कालचक्र' कहते हैं। इस कालचक्रके दो विभाग हैं-एक अपसर्पिणी दूसरा उत्सर्पिणी । हर सर्पिणीमें छह छह ारे होते हैं। अपसर्पिणीके छह आरे इस भाँति होते हैं-पहला सुषमा-सुषमा, दूसरा सुषमा, तीसरा सुषमा-दुष्षमा, चौथा दुष्षमा-सुषमा, पाँचवाँ दुष्षमा और छठा दुष्षमा-दुष्षमा। उत्सर्पिणीके छह आरे इस प्रकार होते हैं-पहला दुषमा-दुष्षमा, दूसरा दुष्षमा, तीसरा दुष्षमा-सुषमा, चौथा सुषमा दुष्षमा, पाँचवाँ सुषमा, छठा सुषमा-सुषमा। एक काल-चक्रमें अथवा अपसर्पिणी और उत्सर्पिणी के बारहों प्रारोंमें २० करोड़ाकरोड़ (२० करोड़से २० करोड़ का गुणा करके जो गुणनफल आवे उतने) सागरका समय लगता है। यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी मालूम होता है कि एक सागरमें कितना समय होता है ? जैसे दिन व रात यहाँ-तिरछे लोग Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * १७ अर्थात् भरत-क्षेत्रमें होते हैं, इस प्रकार नरक-स्वर्गादिमें नहीं होते। इसलिये समयका प्रमाण भरत-क्षेत्रसे लिया गया है । वह निम्न प्रकार है। आँखके एक दम मिचने अथवा टमकने में असंत्यात समय बीत जाते हैं। ऐसे असंख्यात समयकी १ आवलिका। ३७७३ श्रावलिकाका १ श्वासोच्छास ३७७३ नीरोगी मनुष्यके श्वासोलासका १ मुहूर्त अर्थात् ४८ मिनट ३० मुहूर्त्तका १ दिन रात १५ दिन-रातका १ पक्ष २ पक्षका १ महीना २ महीनेकी १ ऋतु ३ ऋतुका १ अयन २ अयनका १ वर्ष ५ वर्षका १ युग १ कुत्रा खाली होनेके समयका १ पल्योपम* १० क्रोडाकोड़ कुए खाली हों उतने वर्षों का १ सागरोपम * पल्योपमका विस्तार इस प्रकार है: एक योजनके लम्बे चौड़े गोंड़े कुएमें देव-कुरु उत्तरकुरु क्षेत्रके मनुष्यके एक दिनसे ७ दिन तकके बच्चेके वालाग्रके एकके दो विभाग तीक्ष्ण शस्त्रसे भी न होवे, ऐसे बारीक कर उक्त कुर्ये को हँस ढूंसकर ऐसा भरे कि उसपरसे चक्रवर्तीकी सेना भी चली जाय तो वह दबे नहीं । फिर उस कुयेंमेंसे सौ-सौ वर्षके बाद १-१ वालाग्र निकालते-निकालते वह कुत्रा जब साफ खाली हो जावेउसमें एक भी वालाग्र न रहे-उतने वर्षको एक पल्योपम कहते हैं। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [ प्रथम पहली पसर्पिणीके छह आरोंका संक्षेपमें वर्णन इस प्रकार है: १८ पहला आरा - इसका नाम सुषमा सुषमा आरा है । इसमें जो प्राणी उत्पन्न होते हैं, उनको किसी प्रकारका दुःख नहीं होता अर्थात् उन्हें सुख में सुख मिलते हैं। जिस वस्तुकी वे इच्छा करते हैं, फ़ौरन उन्हें कल्पवृक्षसे प्राप्त हो जाती है और किसी प्रकारकी तकलीफ़ पास तक नहीं आती । इसका समय-प्रमाण चार कोड़ाक्रोड़ सागरका होता है । इस समय के मनुष्यों को शास्त्रकारों ने 'युगलिये' कहा है। कारण, जन्म लेते समय दो प्राणीस्त्री-पुरुष उत्पन्न होते हैं । दूसरा आरा - इसका नाम सुषमा श्रारा है । इसमें पहले आरेसे सुख कम हो जाते हैं, पर दुःख किसी प्रकारका नहीं होता। इस समय भी इच्छानुसार कल्पवृक्षसे वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है, पर पहले आरेके मुकाबिले मनुष्योंकी अवगाहना ( क़द ) वा उम्र कुछ कम हो जाती है, सुन्दरता संगठनमें भी कुछ कमी हो जाती है और पदार्थोंकी ताकृत व गुणोंमें भी कुछ कमी हो जाती है । इसका समय-प्रमाण तीन क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपमका होता है। इस समय में भी युगलिये अर्थात् स्त्रीपुरुषका जोड़ा उत्पन्न होता है । तीसरा आरा - इसका नाम सुषमा-दुष्षमा श्रारा है । इसके पहिले दो भाग में दूसरे आरके समान स्थिति रहती है । पर Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * १६ - - तीसरे आरेके तीसरे हिस्से में जब चौरासी लाख पूर्वसे समय ज्यादा रह जाता है, उस समयसे पदार्थों की कमी होनेके कारण मनुष्य अर्थात् युगलिगे आपसमें झगड़ने लग जाते हैं। इनमें कोई-कोई मनुष्य समझदार होते हैं। वे समझ-बूझकर मामलेको शान्त कर देते हैं । इनको 'कुलकर' कहते हैं। एक कुलकर, जिनका नाम 'विमलवाहनजी' था, उनकी एक हाथीके साथ मित्रता होगई थी, वे उसपर चढ़कर भ्रमण किया करते थे और वह मनुष्योंके झगड़े तय करा दिये करते थे। उनकी सातवीं पीढ़ीमें 'श्रीनाम कुलकर हुए। उनकी स्त्रीका नाम 'श्रीमरुदेवीजी' था। श्रीमरुदेवीजीने एक श्रेष्ठ और अति उत्तम पुत्रको जन्म दिया, जिनका नाम 'श्रीऋषभदेवजी' रक्खा गया। जब ये बड़े हुए, तब इनके पिताने इनकी शादी दो सुन्दर कन्याओं के साथ की। एकका नाम 'सुमङ्गला' था, दूसरीका 'सुनन्दा' । श्रीसुमङ्गलाजीने एक पुत्र, जिनका नाम 'भरत' और कन्या जिनका नाम 'ब्राह्मी' था, जन्मा। दूसरी श्रीसुनन्दाजीने भी एक पुत्र को, जिनका नाम 'बाहुबलिजी' और कन्या जिनका नाम 'सुन्दरी' था, जन्म दिया। श्रीऋषभदेवने जनताको अनाज बोना, बर्तन बनाना, खाना पकाना, मकान बनाना, वस्त्र बनाना, और और-और जरूरी हुनर व दस्तकारीकी शिक्षा दी। इस तरह सब प्रकारके सुधारोंका प्रारम्भ श्रीऋषभदेवजी ने किया । अतः वह मानव जातिके सर्व प्रथम सुधारक माने Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास # [ प्रथम जाने लगे। सब लोगोंने मिलकर श्रीनाम कुलकरजीकी आज्ञा प्राप्त करके श्री ऋषभदेवजी को अपना राजा स्थापित किया । इस प्रकार वे सबसे पहले राजा स्थापित किये गये । अतः वे 'आदिनाथ' कहलाये | २० श्री आदिनाथ राज पाटका उपभोग तथा आनन्द करने लगे। इसी दशा में उन्हें ख्याल आया कि मनुष्यों को कला तो सिखा दी, पर धर्मकी शिक्षा नहीं दी । अतः उन्हें धर्म की शिक्षा देनी चाहिये । धर्मकी शुरूआत दानसे होती है । यह विचार कर उन्होंने राजमहल में एक दान-शाला खोल दी और एक वर्ष तक सोनेकी मोहरोंका दान करते रहे। बाद में अपने पुत्रोंको राज-पाट बाँटकर स्वयं साधु-वृत्ति धारण कर विचरने लगे । भ्रमण करते-करते श्रीऋषभदेवजी हस्तिनागपुर नगर में पधारे । वहाँके राजा श्रेयांसकुमार थे । वे श्रीऋषभदेवजीके पुत्र बाहुबलिजी के पुत्र अर्थात् पोते थे । उन्होंने यह मालूम करके कि भगवान् श्रीऋषभदेवजी पहले तीर्थङ्कर ( संसारके मेरे बाबा ) पधारे हैं, बड़े प्रेमसे भगवान्‌ के श्रविग्रहका ईख रस द्वारा पारणा कराया । श्री ऋषभदेव भगवान् बहुत समय तक भ्रमण करते रहे । उन्होंने केवलज्ञानको प्राप्त करके निर्वाण पदको बाद में प्राप्त किया । यह पहले तीर्थकर हुए। तीर्थङ्करके गुण, अतिशय आदि का वर्णन आगे किया गया है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * २१ ___ इसी समयमें श्रीऋषभदेवजीके पुत्र भरतजीने युवावस्था में राज-पद प्राप्त किया । उन्होंने भरत-क्षेत्रके छह खण्डोंकी विजय की और वे पहले चक्रवर्ती बने । इन्होंने बादमें राज्य छोड़ केवलज्ञानी हो मोक्ष-पद प्राप्त किया। चक्रवर्तीकी ऋद्धि, सिद्धि, वैभव तथा पुण्यका वर्णन भी अगाड़ी किया गया है। इस प्रकार तीसरे आरेमें सिर्फ एक तीर्थकर श्रीऋषभदेवजी और एक चक्रवर्ती श्रीभरतजी हुए। यह श्रारा दो सागरोपमका होता है। चौथा धारा-इस आरेको दुष्षमा-सुषमा आरा कहते हैं। इस समयमें दुःख बहुत होता है और सुख थोड़ा । इसका समय-प्रमाण एक क्रोडाकोड़ी सागरमें व्यालीस हजार वर्ष कम होता है। तीसरे आरेके मुक़ाबिले इस समयके पुरुषों के संगठन, बनाव, रूपमें बहुत बड़ी कमी हो जाती है और यही हालत तमाम प्रकारके पदार्थों की हो जाती है। इस बारे में २३ तीर्थकर, ११ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, . वासुदेव, और ६ प्रतिवासुदेव हुये। २३ तीर्थंकरोंके नाम, स्त्रीके नाम, आयुष्य, अवगाहना और गति निम्न प्रकार है Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० नाम ७ पिता का नाम श्री अजितनाथ जी जितशत्रु राजा अयोध्या ३ श्री सम्भवनाथ जी जितारी राजा सावश्री नगरी ४ श्री श्रभिनन्दन जी | संवर राजा विनता नगरी ५ श्री सुमतिनाथ जी मेघरथ राजा कंचनपुर नगर श्रीधर राजा कौशाम्बी नगरी श्री सुपार्श्वनाथ जी प्रतिष्ठ राजा वाणारसी नगरी श्री पद्मप्रभु जी माता का नाम श्रायुष योग समय विजयादेवी शरीर का वर्ण सेन्यादेवी ७२ लाख १ लाख सुवर्णवत् ४५० 1 पूर्व पूर्व धनुष लाख १ लाखा पूर्व सिद्धार्थ रानी ५० लाख १ लाख पूर्व पूर्व सुमंगला रानी ४० लाख ९ लाख 19 "" अव गाहन 35 ४०० धनुष ३५० धनुष ३०० धनुष : सुषमा रानी ३० लाख १ लाख लाल २५० धनुष पूर्व पूर्व पृथ्वीदेवी रानी २० लाख १ लाख सुवर्णवत् २०० मोक्ष १००० साधु के साथ मोक्ष $9 35 34 1:1 "" ५०० साधु धनुष के साथ मोक्ष २२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नाम शरीर का अव. पिता का नाम माता का नाम श्रायुष योग समय - वर्ण गाहन मोक्ष ८ श्री चन्द्रप्रभु जी महासेन राजालचमणादेवी १० लाख १ लाख श्वेत वर्ष १५० १००० साधु चन्द्रपुरी पूर्व पूर्व धनुष के साथ मोक्ष है श्री सुविधनाथ जी सुग्रीव राजा रामादेवी २ लाख १ लाख १०० । काकेद नगरी । पूर्व पूर्व १० श्री शीतलनाथ जी दृढरथ राजा नन्दादेवी १ लाख चौथाई सुवर्णवत् १० मंदिलपुर पूर्व लाख पूर्व ११ श्री श्रेयांसनाथ जी विष्णु राजा विष्णुदेवी ८४ लाख २१ लाख स्वर्णवत् ८० | सिंहपुर १२ श्री वासुपूज्य जी सुपूज्य राजा जयादेवो ७२ लाख ५४ लाख लाल ७०६०० साधु चंपापुरी वर्ष वर्ष धनुष के साथ मोक्ष १३ श्री विमलनाथ जी कृतवर्म राजा श्यामादेवी ६० लाख १५ लाख स्वर्णेवत् कपिलापुर वर्ष वर्ष १४ श्री अनन्तनाथ जी सिंहसेन राजा सुयशा रानी ३० लाख ७॥ लाख , अयोध्या नगरी वर्ष वर्ष धनुष के साथ मोक्ष खण्ड] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * २३ ____ वर्ष वर्ष m ... . . ... ७००साधु ....... win A Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पिता का नाम शरीर का अव. माता का नाम प्रायुष योग समय वर्ण गाहन मोच - १ श्री धर्मनाथ जी मालू राजा रावपुरी ६ श्री शान्तिनाथ जी विश्वसेन राजा हस्तिनागपुर ७ श्री कुन्थुनाथ जी सुर राजा गजपुरनगर ८ श्री अर्हनाथ जी सुदर्शन राजा हस्तिनागपुर है श्री मल्लीनाथ जी कुम्भ राजा मिथलानगरी • श्री मुनिसुव्रत जी सुमित्र राजा राजगृह १ श्री नमिनाथ जी विजय राजा मथुरा नगरी सुवृता रानी १० लाख १ लाख स्वर्णवत् ४५८०० साधु ___ वर्ष वर्ष धनुष के साथ मोध अचरादेवी १ लाख २५ हजार ४०। ६०० साधु वर्ष वर्ष धनुष के साथ मोक्ष श्रीदेवो ६५ हजार २३७५० ५ १००० साधु वर्ष वर्ष नुष के साथ मोक्ष देवी रानी ८४ हजार २१ हजार वर्ष वर्ष प्रभावती ५५ हजार ५४६०० २५/ ५०० साधु । वर्ष वर्ष धनुष के साथ मोक्ष पद्मावती ३० हजार ७५०० श्याम २०१००० साधु वर्ष वर्ष धनुष के साथ मोक्ष विप्रा रानी १० हजार १००० सुवर्णवत् १५ १००० साधु वर्ष वर्ष धनुष के साथ मोक्ष * जेल में मेरा जनाभ्यास * - प्रर [प्रथम Tim Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * २५ २२ वें तीर्थंकर श्रोनेमिनाथजीं हुये । ये राजा समुद्रपालजीके पुत्र थे । समुद्रपालजीकी पटरानीका नाम सिवादेवी था, जो नेमिनाथजीकी माता थीं। राजा समुद्रपालजीकी राजधानी सौरीपुर था, जहाँ नेमिनाथजीका जन्म हुआ था । श्रीकृष्णचन्द्रजीके पिता वसुदेवजी समुद्रपालजीके छोटे भाई थे अर्थात् नेमिनाथजी श्रीकृष्णचन्द्रजीके चचाजात भाई थे । श्रीकृष्णजीको वासुदेवकी पदवी थी । श्रीनेमिनाथजीका चित्त शुरू से ही संसार को त्यागने का हो रहा था, पर बहुत आग्रह करनेपर वह शादी करने के लिए तैयार हुए थे । उनकी सगाई मथुराके राजा उग्रसेनकी कन्या श्रीराजमतीजी के साथ निश्चित हुई थी । शादीका मुहूर्त्त जल्द से जल्द निश्चित किया गया और बड़े समारोह के साथ श्रीकृष्णचन्द्रजीने वसुदेवजी, समुद्रपालजी, पाँचों पाण्डव वा अनेक प्रसिद्ध यादव- वंशियोंके साथ बरात की तैयारी की और मथुरा नगरीको रवाना हुये । जब श्रीनेमिनाथजी के हाथीने शहर में प्रवेश किया तो उन्होंने एक स्थानपर एक बाड़ेसे अनेक जीवोंकी चिंघाड़ और चिल्लाहट श्राते सुनी, तब उन्होंने पीलवान् से पूछा कि यह किसका शब्द है ? तो उसने विनय-पूर्वक अर्ज किया कि बारात में बहुत से मांसाहारी भी आये हैं, उनके खानेकेलिये यहाँ जानवर इकट्ठे किये गये हैं, तो फ़ौरन उन्होंने ख्याल किया कि मेरी शादी के कारण ये सारे वध किये जायेंगे इस कारण शादी नहीं करना - यह सोचकर उन्होंने फौरन हाथी फैरनेको कहा, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम इतने में ही श्रीकृष्णचन्द्रजी और और-और लोग आये । उन्होंने बहुतेरा समझाया, पर उन्होंने किसीकी भी न मानी और साधुपना लेनपर आरूढ़ हो गये। यह हाल सुनकर राजमतीजी बेहोश हो गई और बड़ा पश्चात्ताप करने लगी। तब उन्होंने भी यह निश्चय किया कि जब मेरे स्वामी-प्राणनाथ अपनी आत्मा को सुधारना चाहते हैं तो मुझको भी वही कार्य करना योग्य है। तदनुसार उन्होंने भी साधुपना लेना ठान लिया। श्रीनेमिनाथजी का दीक्षा-महोत्सव बड़ो धूम-धामस किया गया । बादमें उन्होंने बड़ी तपस्या की और केवलज्ञानको प्राप्त किया। उनकी आयु एक हजार वर्षकी थी। उसमें तीन सौ वर्ष संसार में रहे और सात सौ वर्ष संयम पाल पांच सौ छत्तीस साधुओंके साथ गिरनार पर्वतसे मोक्षको पधारे अर्थात् सिद्ध-गतिको प्राप्त हुये। अबसे लगभग छियासी हजार वर्ष हुए जब श्रीनेमिनाथजीका जन्म हुआ था। ___ २३ वें तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजी हुये। गङ्गाजीके तट पर 'वाणारसी' नामका एक बड़ा नगर है। प्राचीन समयमें करीब तीन हजार वर्ष हुये, जब एक बड़े पराक्रमी और प्रतिभाशाली अश्वसेन नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सबसे बड़ी प्राणबल्लभा रानीका नाम वामादेवी था। ___ये दोनों अानन्द-पूर्वक बड़े प्रेमके साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे कि एक दिन रात्रिके समय श्रीवामादेवीने एक स्वप्न देखा कि एक काला सर्प उनके पास हो कर निकल गया है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * जैनधर्मानुसार जनधमका संक्षिप्त इतिहास * २७ रानीने दूसरे दिन यह बात राजासे कही। राजाने पण्डितोंसे इस स्वप्नका अर्थ पूछा। इसपर पण्डितोंने कहा कि आपके बड़ा पराक्रमी और प्रतिभाशाली पुत्र जन्म लेगा। समय आनेपर श्रीवामादेवीने एक पुत्र-रत्नको जन्म दिया। इस महान् आत्मा का जन्म, जिनका नाम 'पार्श्वनाथ' रक्खा गया और जो तेईसवें तीर्थकर हुये, आजसे करीब २६८१ वर्ष पूर्व हुआ था। इनके लालन-पालनकेलिये अनेक धाय रक्खी गई । जब यह समझदार हुये तो इन्हें संसार अच्छा न लगता था और ये साधुपनेकी ओर अपने विचार रखते थे। ___ उसी समय 'प्रसेनजित' नामका एक राजा था, जो कुशस्थल नामक राजधानीपर राज्य करता था। उसके 'प्रभावती' नामकी एक बड़ी सुन्दर और होनहार कन्या थी। श्रीप्रभावतीने पार्श्वनाथकी बड़ी महिमा और तारीफ सुनी। इस कारण उसने निश्चय किया कि मैं विवाह उनसे ही करूँगी। जब उसके मातापिताने सुना तो वे बड़े प्रसन्न हुए और निश्चय किया कि जब पुत्री स्वयं वर चुनती है तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है। देखते-देखते हवाके समान यह बात सारे देशमें फैल गई। इधर कलिङ्ग देशका राजा पहलेसे ही प्रभावतीपर अनुरक्त हो रहा था । जब उसने यह सुना तो वह बड़ी सेनाके साथ चढ़कर आया और कुश-स्थल नगरीपर घेरा डाल दिया। इस पर प्रसेनजितने गुप्त रीतिसे राजा अश्वसेनसे मददकी प्रार्थना की। उन्होंने सहायता करना स्वीकार किया और फौज तैयार Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम की। तब पावकुमारने तैयारीका कारण पूछा। इसपर राजा ने सारा हाल कहा । तब कुमारने कहा कि मुझे आज्ञा दीजिये, मैं सब ठीक कर आऊँगा । राजाने आज्ञा दे दी । वह बड़ी सेना के साथ वहाँ गया और कलिङ्ग देशके राजाको दूत द्वारा संदेश भेजा कि यदि तुम यहाँसे पीछे लौट कर चले जाओ तो मैं तुम्हारा अपराध क्षमा कर दूंगा, वरना तुम्हारा बुरा हाल किया जायगा। शुरूमें तो कलिङ्ग-राजा हवाके घोड़ेपर सवार था, पर जब उसे पार्श्वनाथकुमारके बलके बारेमें ज्ञात हुआ तो वह फौरन उपस्थित हुआ और क्षमाकेलिये प्रार्थना की। वह स्वीकार कर ली गई । इसके बाद वह वहाँसे चला गया। यह देखकर राजा प्रसेनजितकी हर्षकी सीमा न रही। उन्हें एक साथ दो खुशियाँ हुईं । एक तो शत्रुका भय दूर हुआ और दूसरे पार्श्वनाथकुमार, जिनकी आवश्यकताथी, घर बैठे आ गये। राजाने पार्श्वनाथको बड़ा धन्यवाद दिया और प्रार्थना की कि मेरी कन्या प्रभावतीको ग्रहण करो। इसपर कुमारजीने उत्तर दिया कि मैं जिस कार्यकेलिये आया था, पूरा हो गया । अब मैं वापस चला जाऊँगा । इसपर राजा प्रसेनजितने प्रार्थना की कि मैं आपके पिताके चरणोंको प्रणाम करने चलना चाहता हूँ। इसको पावकुमारने स्वीकार कर लिया। राजा प्रसेनजित प्रभावतीको लेकर काशीं आया। राजा प्रसेनजितने राजा अश्वसेनको राज-रीति के अनुसार नमस्कार करके सारा हाल सुनाया। राजा अश्वसेनने कहा कि कुमार प्रारम्भसे ही Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * २६ वैराग्य-प्रिय हैं । अतः हम अभी यह नहीं जान सके कि वे क्या करेंगे? हमारी भी बड़ी लालसा है कि पाश्वकुमार किसी योग्य कन्यासे विवाह करें। राजा अश्वसेन राजा प्रसेनजितको साथ लेकर पार्श्वकुमारके पास गये और उनसे शादी करनेको कहा। इसपर पार्श्वकुमारने उत्तर दिया कि पिताजी ! मुझे वैवाहिक जीवन पसन्द नहीं है। अन्तमें पिताजीका अधिक श्राग्रह देख विनीत पार्श्वकुमारने प्रभावतीके साथ अपना विवाह कर लिया। विवाह हो जानेपर प्रभावतीके आनन्दकी सीमा नहीं रही। एक दिन पावकुमारने लोगोंके झुण्डको एक दिशामें जाते देखा। दरयाफ्त करनेसे मालूम हुआ कि 'कमठ' नामका 'एक बड़ा तपस्वी जो पञ्चाग्नि तपता है, आया हुआ है। इस दृश्यको देखनेकी इच्छा पार्श्वकुमारको भी हुई। वह अपने कुछ नौकरोंके साथ उस स्थानपर आये, जहाँ कमठ चारों ओर मोटी-मोटी लकड़ियाँ जला कर धूनी ले रहा था। चतुर पार्श्वकुमारने अपने ज्ञानसे इन लकड़ियोंमें एक बड़े सर्पको जलते देखा ? यह देख कर उनका हृदय दयासे भर आया। वे बोल उठे कि यह कितनी भारी नासमझी है ? केवल शरीरको कष्ट देनेसे . कहीं तप हो सकता है ? तप इत्यादि धर्म अहिंसाके बिना + व्यर्थ हैं। पार्श्वकुमारकी यह बात सुन कर कमठ तपस्वीने कहा-'हे राजकुमार ! धर्मके विषयमें तुम क्या जानते Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * पास * [प्रथम हो ? तुम तो हाथी-घोड़ोंकी सवारी और उनका दौड़ाना जानने वाले हो। धर्म तो हमारे समान तपस्वी ही जानते हैं।' इसपर पार्श्वकुमारने अपने मनुष्योंसे कहा-'इस लकड़ी को धूनीमेंसे खींच लो और सावधानीसे उसे बीच से चीर कर उसके दो हिस्से करो।' मनुष्योंने वैसा ही किया तो उसमें से एक बड़ा साँप निकला । उसका शरीर भुलस चुका था ! यह देख कर कमठ बड़ा लज्जित हुआ और साथ ही क्रोधित भी हुआ। वह वहाँ तप करता रहा। बादको मृत्युको प्राप्त होकर एक प्रकारका देवता हुआ। ___एक समय पावकुमार प्रभावतीके साथ वनकी शोभा देखने निकले । वे घूमते-घूमते एक महलके सामने आये । पावकुमार और प्रभावती उस महलके अन्दर आराम करने गये । महलके अन्दर अनेक प्रकारके सुन्दर चित्र लगे हुए थे। उन्हें देखते-देखते वे नेमिनाथकी बरातका दृश्य, जो वहाँ बना हुआ था, देखने लगे। इसपर पार्श्वकुमारको अपने जीवन के विषयमें विचार हुआ। इस घटनासे पार्श्वनाथका चित्त सांसारिक सुख-भोगसे अलग हो गया। उनका वैराग्य बढ़ता गया। वैराग्यके बाहरी चिह्न स्वरूप उन्होंने एक वर्ष तक सोनेकी मोहरोंका दान दिया। बादमें संसारको असार जान कर साधुपना धारण किया। अब आप घूमते-फिरते एक दिन शहरके निकट एक तापस आश्रमके पास आये । संध्या हो चुकी थी और रात्रिके समय Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * जनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * उन्हें भ्रमण करना नहीं था । इसलिये वे एक बटके वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर खड़े हो गये । ३१ कमठका जीव जो 'मेघमाली' नामका देव हो गया था, उस का श्रीपार्श्वनाथजीसे बड़ा वैर था । इस कारण उस रात्रिमें उसने श्रीपार्श्वनाथजीको अनेक उपसर्ग पहुँचाये और सिंह, हाथी, रीछ तथा चीते आदिकें डर बतलाये, किन्तु श्रीपार्श्वनाथ जी अपने ध्यान में आरूढ़ बने रहे । जब उस मेघमाली देवने देखा कि मेरे सारे प्रयत्न व्यर्थ होगये, तब उसने भयङ्कर वर्षाका उपद्रव करना प्रारम्भ किया। इसके परिणाम स्वरूप पार्श्वनाथ के चारों ओर पानी ही पानी घूमने लगा और देखते-देखते पानी कमर, नाभि यहां तक कि छाती तक पहुँच गया, किन्तु श्रीपार्श्वनाथ जी अपने व्यान में मग्न बने रहे । 'धरणेन्द्र' * नामक नागराजने जब यह दशा देखी, तब उसने प्रभु द्वारा अपने ऊपर किये गये उपकारों का बदला चुकानेकी इच्छासे स्वयं वहाँ आकर इस उपद्रवको बन्द किया । इस समय भी श्रीपार्श्वनाथ जी ध्यानारूढ़ खड़े थे । उनके लिये तो धरणेन्द्र तथा मेघमाली एक समान थे, अर्थात् वे शत्रु तथा मित्रको समान दृष्टि से देखते थे । इस घटना के थोड़े ही दिन बाद श्रीपार्श्वनाथजीको केवल ज्ञान अर्थात् सच्चा और पूर्ण ज्ञान उत्पन्न हुआ । केवलज्ञान हो * यह वही सर्पका जीव है, जिसे श्रीपार्श्वनाथने जलती हुई लकड़ी में से निकलवा कर प्राण-दान दिये थे । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [ प्रथम जानेके बाद उन्होंने सब लोगों को पवित्र जीवन व्यतीत करनेका उपदेश दिया । आपके उपदेश से हजारों पुरषों तथा स्त्रियोंने पवित्र जीवन व्यतीत करना आरम्भ किया । दीर्घ काल तक विहार करनेके बाद जब श्रीपार्श्वनाथ भगवान् को अपना निर्वाण-काल समीप दिखाई दिया, तब वे संमेदशिखरपर चले गये । इस पर्वतको अजितनाथ - प्रभृति तीर्थंकरोंका सिद्धि-स्थान समझ कर भगवान्ने यहीं निवास कर अनशन प्रारम्भ किया । श्रावण शुक्ल ८ मी को आज ( वि० सं० १९८६ ) से २७८१ पूर्व विशाखा नक्षत्र में भगवान्ने पहले मन-वचन के योगका निरोध किया । क्रमशः भगवान्ने शुक्लध्यान करते हुये, पंच हस्वाक्षर प्रमाण-कालका आश्रय कर समस्त कर्मों को क्षीण करते हुये संसारके समस्त दुःखों और कर्मों से रहित हो अचल, अरुज, अक्षय, अनन्त, अव्याबाध मोक्ष पद प्राप्त किया। अन्तमें २४ वें तीर्थङ्कर भगवान् महावीर हुए। मगधदेश में, जिसकी कि राजधानी 'क्षत्रिय - कुण्ड' थी, श्रीसिद्धार्थ नामके राजा राज्य करते थे । वे बड़े ही धर्मात्मा और न्यायी राजा थे । उनकी 'श्रीत्रिशलादेवी' नामकी पट्टरानी थीं। वह बड़ी सुन्दर और योग्य महिला थीं। वे दोनों अपना जीवन आनन्द-पूर्वक बिता रहे थे । 1 एक रात्रिको उन्होंने कई बड़े-बड़े सुन्दर स्वप्न देखे । राजाने पण्डितोंसे उन स्वप्नोंका अर्थ पूछा । उसपर पण्डितोंने कहा कि महाराज ! आपके बड़ा पराक्रमी और महावीर पुत्र होगा। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * ३३ नव महीनेके बाद श्रीत्रिशला रानीने एक अतिसुन्दर और होनहार पुत्रको आज (वि० सं० १९८६) से २५३१ वर्ष पूर्व जन्म दिया। जिस दिनसे यह पुत्र हुआ, उसी दिनसे राजाके कुल, धन-धान्य तथा आनन्दकी दिन-दूनी रात चौगुनी वृद्धि होने लगी। इसको देख कर राजा ने पुत्र का नाम 'वर्धमान' रक्खा। __ये कुमार आनन्द पूर्वक पाले जाने लगे। जब वे ८ वर्षके हुये ता पढ़ानेका प्रबन्ध किया गया, पर पण्डितोंको मालूम हुआ कि उनकी समझ बहुत अधिक है और प्रत्येक बातको वे अपनी बुद्धिसे ही समझ लेते हैं। अतः उन्हें कुछ पढ़ाने-लिखानेकी विशेष आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। __ श्रीवर्धमान माता-पिताके बड़े भक्त थे । वे अपने मातापिताको सदा प्रसन्न रखना चाहते थे। वे कभी किसीपर क्रोध नहीं करते थे। चित्तमें कभी अभिमानका अंश भी न आने देते थे। सदा सत्य बोलते थे। उन्हें सांसारिक विषय-भोग और लालसा अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाती थी। वे सदा विरक्त भावसे रहते थे। __श्रीवर्धमानकुमार बड़ी अवस्थाके होगये, पर विवाह करनेकी उन्हें तनिक भी इच्छा नथी । तथापि माता-पिताके अधिक आग्रह । करनेपर उन्होंने शादी कर ली। जिस कन्याके साथ उनकी शादी की गई, वह बड़ी सुन्दर, सुशील और गम्भीर थी। उसका नाम 'श्रीयशोदा' था। कुछ समयके पश्चात् उनके एक कन्या-रत्नने जन्म लिया, जिसका नाम 'प्रियदर्शना' रक्खा गया। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जनाभ्यास * [प्रथम - -- एक समय उन्होंने अपने माता-पितासे साधुपना लेनेकी इच्छा प्रकट की। यह सुनकर उन्हें अत्यन्त दुःख हुआ और आग्रहपूर्वक पुत्रसे उन्होंने कहा कि जब तक हम जीवित हैं, तब तक आप ऐसा न करो। जिसको उन्होंने स्वीकार कर लिया। कुछ समयके बाद सिद्धार्थ राजा'का देहान्त हो गया। श्रीवर्धमानकुमारके बड़े भाई 'नन्दिवर्धनजी' श्रीवर्धमानकुमारको गद्दीपर बैठाना चाहते थे, पर उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया और श्रीनन्दिवर्धनजीको ही गद्दीपर बैठाया गया। ___ कुछ समय बाद श्रीवर्धमानकुमारने दीक्षा ग्रहण करनेका विचार प्रकट किया। इसपर श्रीनन्दिवर्धनके दुःखकी कोई सीमा न रही और अत्यन्त आग्रहपर उन्होंने कुछ समयके लिए अपने विचारोंको स्थगित कर दिया, परन्तु उन्होंने गृहस्थीमें रहते हुये साधु-जीवन व्यतीत करना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने एक वर्ष व्यतीत किया। दूसरे वर्ष उन्होंने स्वर्ण-मुद्रा का दान देना प्रारम्भ कर दिया। बादको बड़े समारोहके साथ लाखों स्त्री-पुरुषोंके समक्ष पञ्चमुष्टी लौंच किया और साधु-जीवन ग्रहण किया अर्थात् आजसे मैं किसी भी प्रकारका पाप कर्म, मन, वचन और कायसे नहीं करूंगा और सम्पूर्ण रूपसे अपनी श्रात्म-शुद्धि करूँगा । इस समय इनकी आयु ३० वर्षकी थी। महात्मा तो बहुत हो चुके हैं, पर श्रीवर्धमानस्वामीसे बढ़कर बहुत कम हुये हैं। उन्होंने साधुपना धारण करते ही बहुत कड़े Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * ३५ तप करना प्रारम्भ कर दिया अर्थात् किसी समय दो उपवास* किसी समय चार उपवास, कभी पन्द्रह, कभी बीस उपवास कर डालते थे । यहीं तक नहीं, उन्होंने छह-छह महीनेके कई उपवास किये । इन उपवासोंके समय श्रीवर्धमानस्वामी एकान्त स्थान जैसे-जंगल, गुफा आदिमें ध्यान लगाकर खड़े रहते थे। दंश, मंशक, बिच्छू, भ्रमर आदिके उपसर्गोको बड़ी शान्तिसे सहते थे। सर्पके काटनेके उपसर्गको, ग्वाले द्वारा कानमें ढूँसी हुई ठुइओंकी पीड़ाको, कुत्तों द्वारा काटी जाने और नाना प्रकारकी दूसरी बड़ी-बड़ी आपत्तियोंको बड़ी शान्ति और धैर्य के साथ सहन किया था। इसीसे उनका नाम 'महावीर' पड़ा। भगवान् महावीरने साढ़े बारह वर्षमें सिर्फ साढ़े तीन वर्ष आहार ग्रहण किया। शेष समयको तपस्यामें व्यतीत किया। बादमें उन्होंने शुक्ल ध्यान ध्याते हुये शुभ घड़ीमें केवलज्ञानकी प्राप्ति की। *लोग समझते हैं कि उपवास उसे कहते हैं कि जिसमें खाने-पीनेका कोई पदार्थ नहीं खाया जाता है, अगर ज़रूरत होती है तो सिर्फ गर्म पानी पी लिया जाता है। लेकिन उपवासका यह अर्थ नहीं है। उपवासका अर्थ है "कषायविषयाहार-त्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः,शेष लङ्घनकं विदुः ॥" अर्थात्-कषाय, विषय और अाहारका त्याग जिस व्रतमें किया जाय, उसे 'उपवास' समझना चाहिये, नहीं तो केवल आहार-पानीका त्याग तो 'लङ्घन' है, उपवास नहीं । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * प्रथम इसके बाद उन्होंने धर्म-उपदेश देना प्रारम्भ किया और चतुर्विध संघकी स्थापना की। इससे वे 'चौबीसवें तीर्थङ्कर' कहलाये। उन्होंने अपने उपदेशमें कहा कि हिंसासे भरे हुए होमहवन आदि क्रियाकाण्डसे सच्चा धर्म नहीं होता । धर्म तो केवल आत्म-शुद्धिसे ही होता है । जो सद्गुणी हैं, वे ब्राह्मण हैं । जो दुराचारी हैं, वे शूद्र हैं। धर्मका ठेका किसी मनुष्य-विशेषको नहीं है। प्रत्येक मनुष्यको धर्म करनेका अधिकार है। चाहे वह ब्राह्मण हो, चाहे चाण्डाल; स्त्री हो या पुरुष । अहिंसा ही परम धर्म है । जिसकी आत्माका पूर्ण विकास हो जाता है, वही परमात्मा बन जाता है। महावीर भगवान्के वैशाली-पति चेड़ा महाराज, राजगृह-पति श्रेणिक और उनके पुत्र कौणिक आदि राजा, आनन्द तथा कामदेव आदि बड़े सेठ साहूकार, शकडाल तथा ढक आदि कुम्हार आदि बहुतसे शिष्य थे। महावीर भगवान्ने अहिंसाका रहस्य समझाया और संसारको ज्ञान और सच्चे त्यागका भारतवर्ष में फिर प्रकाश दिखा दिया । भगवान महावीर विचरते-विचरते पावापुरीमें पधारे । वहाँ बहुतसे राजा लोग व गृहस्थ भगवान्के दर्शनोंको आये । उन्होंने अपनी अमृत वाणीसे उपदेश दिया । भगवान्का यह अन्तिम उपदेश था। बादमें वे कातिक बदी १५ वींकी रातको निर्वाणपदको प्राप्त हुए । इस प्रकार संसारका सूर्यास्त हुश्रा । इस समय भगवान्की उम्र ७२ वर्षकी थी। महावीर भगवान् ३० वर्ष गृहस्थ अवस्थामें रहे और ४२ साधु अवस्थामें । कुछ समय पूर्व अन्य Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * ३७ धर्मावलम्बी जैन-धर्मको एक कायरोंका धर्म समझा करते थे और उसके अनुयायियों को पोप अथवा भीरु कहा करते थे । पर हम जैनियोंको महात्मा गाँधीजीको कोटिशः धन्यवाद देना चाहिये कि उन्होंने अपनी समाजके मुखको उज्वल कर दिया और बता दिया कि अहिंसामय धर्म शूरवीरों अथवा बहादुरोंका है। आज उसने न सिर्फ भारतवर्ष में, बल्कि समस्त दुनियां में अहिंसाकी छाप डाल दी है और सिद्ध करके बता दिया कि अगर संसारका निस्तार अथवा उद्धार हो सकता है तो केवल एक अहिंसामय सिद्धान्त ही मार्ग है । हम जैनियोंको वत्तमान आन्दोलन से सबक सीखना चाहिये और आत्मविश्वास लाकर सत्यपर अरूढ़ रहना चाहिये । मेरा यह ख्याल है कि अब जनता अहिंसा के सिद्धान्तको अवश्य मान गई है, पर हम जैनियोंके कार्यों को देखकर उसके हृदय में अवश्य संदेह हो सकता है । मेरी अपने जैनी भाइयोंसे यही प्रार्थना है कि उन्हें महावीर भगवान् के जीवन से अहिंसाका सबक लेना चाहिये और अपने जीवनका उसीके अनुसार बनाना चाहिये । चौथा आरा एक सागरोपम में ४२००० वर्ष कम कालका होता है। इस चौथे आरेमें ११ चक्रवर्ती हुए । उनके नाम, पिताका नाम, माताका नाम, स्त्रीका नाम, आयुष्य, अवगाहना, और गति निम्न प्रकार हैं Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० नाम पिताका नाममाताका नाम स्त्रीका नाम आयुष्य अवगाहना गति सुमति राजा मघवान् विजय राजा सनत्कुमार समुद्र राजा शान्तिनाथ विन्दुसेन कुन्थुनाथ सुरण्य राजा अरहनाथ सुन्दखड़ राजा सुभूमि पामत राजा महापद्म । कीर्तिवीर्य राजा हरिषेण महाहरि राजा जयसेन पद्म राजा | जयवती श्रीभद्रा ७२ लाख पूर्व | भद्रारानी सुनन्दा ६ लाख वर्ष | शिवारानी श्रीरत्ना | ३ लाख वर्ष अचिरारानी श्रीविजया १ लाख वर्ष श्रीदेवीरानी । श्रीकन्हश्री । ६६००० वर्ष देवीरानी श्रीसुरश्री ८४००० वर्ष जालीरानी श्रीपद्मश्री । ६० हजार वर्ष तारारानी श्रीसुन्दरी ३० हजार वर्ष | श्रीदेवी १० हजार वर्ष वप्रारानी श्रीलक्ष्मी ३ हजार वर्ष चूलसीरानी श्रीकुरुमती ७०० वर्ष ४५ धनुप मोक्ष ४२ धनुष ४१ धनुष ४० धनुष ३५ धनुष ३० धनुष * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * नरक मेरारानी २० धनुष १६ धनुष १२ धनुष धनुष मोक्ष , ब्रह्मदत्त ब्रह्म राजा [प्रथम Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथे आरे में बलदेव हुये, उनके नाम, पिता-माता के नाम, आयु, राजधानी और गति निम्न प्रकार हैं नं० नाम ४ सुप्रभ ५ सुदर्शन १ श्रचल २ विजय ब्रह्म राजा ३ भद्र ( सुधर्म ) रुद्र राजा सोम राजा शिव राजा सहस्र राजा श्रानन्द (नन्दमित्र) पिता नन्दन (नन्द सेन) पद्मरथ (राम) बलभद्र प्रजापति प्रदेश राजा दशरथ राजा वसुदेव राजा माता भद्रा रानी सुभद्रा रानी सुप्रभा रानी सुदर्शना रानी विजया रानी विजयंती रानी जयन्ती रानी प्रव्रजिता रानी रोहिणी रानी श्रायु ८६ लाख वर्ष वर्ष ७६ लाख ६६ लाख वर्ष ५५ लाख वर्ष १७ लाख वर्ष ८५ हजार वर्ष ६५ हजार वर्ष १५ हजार वर्ष १२ सौ वर्ष राजधानी पोतानपुर द्वारावती "" "" अम्बपुर चक्रपुर वाणारसी राजगृह मथुरा गति मोक्ष " 39 19 "" "3 " 99 ब्रह्मदेव लोक खण्ड] जनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * ३६ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथे आरे में नव वासुदेव हुये । उनके नाम आदि निम्न प्रकार हैं नाम माता पिता आयु राजधानी गति - - ८४ लाख वर्ष पोतानपुर , सातवें नरक | छठे नरक वर्ष द्वारावती त्रिपृष्ट । प्रजापति राजा द्विपृष्ट ब्रह्म राजा स्वयम्भू | रुद्र राजा पुरुषोत्तम सोम राजा पुरुषसिंह शव राजा ६ । पुडरीक सहस्र राजा पुरुष दत्त । अग्नेश लक्ष्मण | दशरथ | वसुदेव राजा मृगावती रानी पद्मावती रानी पुढवी रानी सीता रानी अम्बा रानी लक्ष्मणा रानी सुखवती रानी सुमित्रा रानी । देवकी रानी ६० लाख वर्ष ३० लाख वर्ष १० लाख वर्ष १५ हजार वर्ष ५६ हजार वर्ष ११ हजार वर्ष १ हजार वर्ष * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * अम्बपुर चक्रपुर वाणारसी पांचवें नरक राजगृह | चौथे नरक | मथुरा तीसरे नरक [प्रथ - - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . खण्ड ] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * ४१ चौथे आरे - में नव प्रतिवासुदेव हुए उनके नाम इस प्रकार हैं१ - सुग्रीव (अश्वग्रीव), २ तारक, ३ मेरुक, ४ मधुकैटभ, ५ निशुम्भ, ६ बली, ७ प्रहरण, ८ रावण और ६ जरासंध | पाँचवाँ आरा—इस आरेका नाम दुष्षमा आरा है, अर्थात् इसमें केवल दुःख ही होता है । महावीर भगवान् के निर्वाणके तीन वर्ष साढ़े सात महीने पीछे पाँचवाँ आरा लगा है। इस आरेमें मनुष्योंके संगठन, आयु, बल, वीर्य्य, पुरुषार्थ और तमाम पदार्थों में चौथे आरके मुक़ाबिले में एक बहुत बड़ी न्यूनता हो गई है । यह आरा २१ हजार वर्षका होता है। इस आरेमें दस बातों का सर्वथा लोप हो जाता है -१ केवलज्ञान, २ मनः पय्येव ज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ परिहारविशुद्ध चरित्र, ५ सूक्ष्मसांप्राय चारित्र ६ यथाख्यातचारित्र, ७ पुलाक-लब्धि = आहारक शरीर, ६ क्षायिकसम्यक्त्व और २० जिनकल्पी साधु । श्राज वक्रम संवत् १९८६ तक इस आरेमें करीब २४६२ वर्षे व्यतीत हो चुके हैं। 5 ---- छठा आरा – इस आरेका नाम दुष्षमा- दुष्षमा आरा है। इसमें दुःख में दुःख उत्पन्न होते हैं। इस आरेमें पाँचवे आरेकी अपेक्षा बहुत छोटे कद वाले, कम उम्र, कुरूप, कमजोर और पुरुषार्थ हीन मनुष्य होंगे और ऐश-आराम के सारे सामान नष्ट हो जायँगे । लोग गुफ़ाओं और ज़मीन के नीचे घर बना कर रहेंगे । हर प्रकार के खाने-पीने व आरामका दुःख मिलेगा। इस आरेमें मनुष्यों के Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम .. .... . - - - - कर्म पशुओंके तुल्य होंगे। मर कर बुरी गतिको प्राप्त होंगे। यह पारा भी २१ हजार वर्षका ही होगा। इस प्रकार अपसर्पिणीके छह आरोंका वर्णन हुआ । इन छह आरोंमें १० क्रोडाकोड़का समय लगता है। अब उत्सर्पिणीके छह आरोंका वर्णन करते हैं । उत्सर्पिणी अर्थात् उल्टी सपिणी । इसका मतलब यह होता है कि इसका पहला श्रारा अपसर्पिणीके छठे आरके अनुसार होता है। दूसरा आरा पाँचवें आरेके, तीसरा पारा चौथे आरेके, चौथा आरा तीसरे आरेके, पाँचवाँ अारा दूसरे आरेके और छठा आरा पहले पारेके समान होता है। अपसर्पिणीके आरे उत्सर्पिणीके आरे १ सुखमें सुख ६ सुखमें सुख २ सुख ५ सुख ३ सुखमें दुःख ४ सुखमें दुःख ४ दुःख में सुख ३ दुःखमें सुख ५ दुःख २ दुःख ६ दुःखमें दुःख १ दुःखमें दुःख उत्सर्पिणीका संक्षेपमें वर्णन इस भांति हैपहला भाराः-इसमें दुःखमें दुःख होता है। इसमें मनुष्यों । और वस्तुओंकी वही न्यूनता होती है, जो अपसर्पिणीके छठे , बारेमें होती है। 0 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खएड] * जैनधर्मानुसार जैनधर्मका संक्षिप्त इतिहास * ४३ - - - - -- दूसरा आराः-इसमें दुःख होता है। इसमें पहले आरे की अपेक्षा कुछ अच्छी अवस्था होती है अर्थात् अपसर्पिणी के पांचवें आरेके सदृश अवस्था होती है। तीसरा आरा:-इसमें दुःखमें सुख होता है अर्थात् दुःखमें कभी कभी कोई सुख हो जाता है, नहीं तो अधिकतर दुःख ही होता है। इस आरेकी अवस्था अपसर्पिणीके चौथे आरेके समान होती है । इसमें तेईस तीर्थकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नव वासुदेव, नव बलदेव, नव प्रतिवासुदेव होते हैं। ___ चौथा आराः-इसमें सुखमें दुःख होता है। अर्थात् इस बारेमें अधिकतर सुख होता है और मामूली दुःख होता है । इस आरेकी व्यवस्था अपसर्पिणीके तीसरे आरेके समान होती है। इस बारेमें २४ वें तीर्थकर और १२ वें चक्रवर्ती होते हैं। पांचवाँ आराः-इस बारेमें सुख ही सुख होता है। इस आरेकी व्यवस्था अपसर्पिणी के दूसरे आरेके समान होती है। छठा आरा:-इस बारेमें सुखमें सुख होता है। इस आरेकी व्यवस्था अपसर्पिणीके पहले पारेके समान होती है। इस प्रकार उत्सर्पिणीमें भी १० क्रोडाकोड़ सागरका समय लगता है । इस प्रकार १० क्रोडाकोड़की अपसर्पिणी और १० क्रोडाकोड़की उत्सर्पिणीको मिला कर २० क्रोडाकोड़ सागरका एक कालचक्र होता है। यह काल-चक्र भरत-क्षेत्र में फिरता है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरके बादका जैन-इतिहास जसे करीब २५०० वर्ष पूर्व जब भगवान महावीर Satist भारतवर्ष में अपना कल्याणकारी उपदेश दे रहे थे, उस समय आजकी तरह प्रचारके इतने साधन न थे। उस समय लेखन-कला तो प्रचलित थी, पर उसका उपयोग अधिकतर व्यावहारिक कामों में ही किया जाता था । आत्मार्थी लोग भगवान् का उपदेश श्रवण करने जाते थे। वहाँ जो कुछ वे सुनते थे, उसमेंसे मुख्य-मुख्य बातें हृदयंगम कर लिया करते थे। इसके अतिरिक्त महावीर भगवानके समयमें और उनके सैकड़ों वर्ष बाद तक आचार्य अपने शिष्योंको सूत्रों के पाठ कण्ठ करा दिया करते थे। उसी प्रकारकी प्रथा अब तक जैन साधुओंमें पाई जाती है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि जैन समाजमें इतिहास लिखनेकी प्रथा बहुत कम थी। जो कुछ प्राचीन इतिहास पाया जाता है, वह साधुओंकी पट्टावलियोंसे मिलता है। इसके अतिरिक्त बौद्ध-ग्रन्थों, शिलालेखों और जिन-प्रतिमाओंपरसे ही बहुत सा इतिहास मिल सकता है। ___ महवीर भगवान के समयमें और उनके बाद अनेक राजाओं और अनेक राजाओंके मंत्रियोंने जैनधर्मकी प्रभावना, प्रचार आदि करने में कोई कसर नहीं रक्खी थी। राजा श्रेणिक, राजा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भगवान् महावीरके बादका जैन-इतिहास * ४५ कौणिक और चन्द्रप्रद्योत श्रादिने जैनधर्मकी बड़े उत्साह व समारोहके साथ प्रभावना की थी। इनको महावीर भगवानके परमभक्त होनेका सम्मान प्राप्त था । 'सम्प्रति' नामका राजा पक्का जैनी था। उसने अनार्य देश, जैसे-काबुल, बिलोचिस्तान आदि देशोंमें जैनधर्मका प्रचार करायाथा, जिसमें बहुत कुछ सफलता मिली थी। राजा आमशिलादित्यने सम्पूर्णतया जैनधर्मके गौरवकी रक्षा की थी। अन्तमें जैन राजा बन राज, सिद्धराज और कुमारपाल आदिने आम घोषणा कराकर अहिंसा धर्मका प्रचार कराया था। इनके अतिरिक्त अनेक प्रतापी राजमन्त्री, जैसे-शकडाल, विमल, उदयन, वाग्भट्ट, वस्तुपाल, तेजपाल आदिने अहिंसा धर्म फैलानेका प्रशंसनीय उद्योग किया था, जिनका वैभव समस्त भारतवर्षमें फैला हुआ था। इधर एक ओर वीर प्रभुके द्वारा प्रोत्साहित जैनधर्मने ऐसेऐसे वीर आर्य धर्मरक्षक राजाओं व मंत्रियोंको उत्पन्न किया था और दूसरी ओर उसने ऐसे-ऐसे सच्चरित्र और प्रतापी जैनाचार्योंको जन्म दिया कि जिन्होंने अपने अगाध पाण्डित्यका परिचय देकर जगतको आश्चर्य में डाल दिया है। उनके रचित ग्रन्थ आज भी संसारको आश्चर्यमें डाल रहे हैं। इतना ही क्यों, उन्होंने ऐसे-ऐसे असाधारण कार्य किये हैं कि जिनका करनासामान्य मनुष्यकी तो बात ही क्या है, अच्छे-च्छे शक्ति-सम्पन्न मनुष्यों केलिये भी दुःसाध्य है । जैसे मौर्यवंशीय सम्राट चन्द्रगुप्तको प्रति Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम बोध करने वाले चौदह पूर्वधारी श्रोभद्रबाहु स्वामी; चौदहसौ चवासील ग्रन्थोंकी रचना करने वाले हरिभद्रसूरि; पाँचसौ ग्रन्थोंकी रचना करने वाले उमास्वाति वाचक; राजपूतानेमें हजारों क्षत्रियों । को, जो वर्तमान समयमें ओसवाल जातिके नामसे प्रसिद्ध हैं, जैन बनाने वाले रत्नप्रभ सूरि; आमराजाके गुरु होनेका सम्मान प्राप्त करने वाले वप्प भट्टि, महान् चमत्कारिणी विद्याओंके श्रागार यशोभद्र सूरि और कुमारपालके समान राजाको उपदेश देकर अठारह देशोंमें जीव-दयाका एकछत्र राज्य स्थापन करने वाले कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यके समान महान् प्रतापी जैनाचार्य रूपी रत्नोंको भी इसी भारत वसुन्धराने प्रसव किया था। भगवान् महावीरके निर्वाणके चौंसठ वर्ष बाद तक भारतवर्ष में केवलज्ञानी श्रीजम्बू स्वामी उपस्थित थे। जैन शास्त्रोंमें ऐसा कथन है कि श्रीजम्बू स्वामीके निर्वाणके पश्चात् दस बातोंका विच्छेद-अभाव हो गया । जो इस प्रकार हैं-मनःपर्ययज्ञान, परमावधि, पुलाकलब्धि, आहारकशरीर, क्षायिकसम्यक्त्व, जिनकल्पी, केवलज्ञान, यथाख्यातचारित्र, सूक्ष्मसापरायचारित्र, परिहारविशुद्धिचारित्र। प्रकृतिके भयङ्कर प्रकोपसे हमारे साहित्यको बड़ा भारी नुकसान पहुंचा। श्रीहेमचन्द्राचार्य अपने परशिष्ट पर्वमें लिखते हैं कि भगवान महावीरके निर्वाणके बाद दूसरी शताब्दीमें; जब कि Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * भगवान् महावीरके बादका जैन-इतिहास * ४७ आर्य श्रीस्थूलभद्र विद्यमान थे, उस समय देशमें एक साथ महाभीषण बारह दुष्काल पड़े। उस समय साधुओंका संघ अपने निर्वाहकेलिये समुद्र के समीवर्ती प्रदेशोंमें चला गया। वहाँ साधु अपने निर्वाहकी पीड़ाके कारण कण्ठस्थ रहे हुए शास्त्रोंको गुन न सके, जिस कारण वे शास्त्रोंको भूलने लगे। जब यह भीषण अकाल मिट गया, तब पाटलीपुत्रमें सारे संघकी एक बड़ी सभा की गई। जिसमें जिस-जिसको जो-जो सूत्र व शास्त्र स्मरण थे, वे इकट्ठ किये गये। उसके अनुसार ग्यारह अङ्गोंका तो अनुसंधान हुआ, पर 'दृष्टिवाद' नामका बारहवाँ अङ्ग तो बिल्कुल विसर्जन हो गया। इनके बाद फिर वीर निर्वाणकी पाँचवीं और छठी शताब्दीमें अर्थात् श्रीस्कन्दिलाचार्य और बज्रबाहु स्वामीके समयमें उसी प्रकारके बारह भीषण दुष्काल इस देशमें फिर पड़े, जिसके कारण साधु अन्नकेलिये भिन्न-भिन्न स्थानोंपर बिखर गये, जिससे श्रतका ग्रहण, मनन और चिन्तन न हो सका । फल यह हुआ कि ज्ञानको बहुत हानि पहुँची । जब प्रकृतिका कोप शान्त हुआ, देशमें सुकाल और शान्तिका प्रार्दुभाव हुआ, तब मथुरामें श्रीस्कन्दिलाचार्यके सभापतित्वमें पुनः साधुओंकी एक महासभा हुई । उसमें जिन-जिनको जो-जो स्मरण था, वह संग्रह किया गया। इस दुष्कालने भी हमारे जैन साहित्यको अधिक धक्का पहुँचाया। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम इन दो भयङ्कर विपत्तियोंको पैदा करके ही प्रकृतिका कोप शान्त नहीं हुआ। उसने और भी अधिक निष्ठुरताके साथ वीर निर्वाणकी दसवीं शताब्दीमें इस जर्जरित देशके ऊपर अपना चक्र चलाया। फिर भयकर दुष्काल पड़ा। इस वार तो कई बहुश्रुतोंका अवसान होनेके साथ-साथ पहिलेके जीर्ण-शीर्ण रहे हुए शास्त्र भी छिन्न-भिन्न हो गये। उस स्थितिको बतलाते हुए 'समाचारिशतक' नामक ग्रन्थमें लिखा है कि वीर सम्बत् १८० में भयङ्कर दुष्कालके कारण बहुतसे साधुओं और बहुश्रुतोंका विच्छेद हो गया। तब श्रीदेवर्धिगणी क्षमाश्रमणने शास्त्र भक्तिसे प्रेरित होकर भावी जन-समाजके उपकारकेलिये सब साधुओं को वल्लभिपुरमें इकट्ठा किया, और उनके मुखसे स्मरण रहे हुए सूत्रों व शास्त्रोंके पाठोंको सङ्गठित कर पुस्तकारूढ़ किया। इस प्रकार सूत्र-ग्रन्थोंके कर्ता श्रीदेवर्धिगणी क्षमाश्रमण कहलाते हैं। अब हम अपने बन्धुआंका ध्यान इस ओर दिलाना चाहते हैं कि जैनधर्मावलम्बियोंकी आपसकी कलह अथवा फूटने किस कदर बड़ा धक्का जैनधर्मको पहुँचाया है। ___ महावीर भगवान्के समयमें कई व्यक्तियोंने अपने मान कषायवश अपनी-अपनी जुदी सम्प्रदायें चलाईं। जैसे-गोशाल आदि ने, पर भगवान्के अतिशय प्रभुतासे वे सारे सम्प्रदाय उन्हीं की मौजूदगीमें समाप्त हो चुके थे। भगवान् महावीरके निर्वाण Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * भगवान महावीरके बादका जैन-इतिहास * ४६ के समय जैनसमाज एक सुसंगठित, सुन्दर और उदार दल था। जिसमें लाखों श्रावक, श्राविकायें और हजारों साधु व साध्वियाँ थीं। इनके अलावा करोड़ों जनता सामान्य रीतिसे जैनधर्मको मानने वाली थी। ___ भगवान् महावीरके निर्वाणके तीसरी या चौथी शताब्दीके अनुमान अनुदार जैन समाजमें कुछ मतभेद पड़ना प्रारम्भ होगया, जो दिनोंदिन बजाय घटनेके कुछ बढ़ता ही गया। भगवान्के निर्वाणकी छठी शताब्दीमें मथुरामें एक सभा हुई। उस सभामें जब निर्ग्रन्थोंके वस्त्र पहनने या न पहननेका प्रश्न उपस्थित हुआ, उसी समय वहाँपर दो दल हो गये। एक ने तो समयकी परिस्थितिके अनुकूल वस्त्र पहननेकी व्यवस्था दी और दूसरेने नग्न रहनेकी। ऐसे विवादग्रस्त समयमें दीर्घदर्शी स्कन्दिलाचार्यने बड़ी ही बुद्धिमानीसे काम लिया। उन्होंने न तो नमताका और न वस्त्र-पात्र-वादिताका ही समर्थन किया । प्रत्युत दोनोंके बीचमें उचित न्याय दिया। उन्होंने कहीं भी सूत्रोंमें जिनकल्प, स्थविरकल्प, श्वेताम्बर तथा दिगम्बरका उल्लेख नहीं किया। फिर भी उस समय प्रत्यक्ष रूपसे उदार जैनसमाज दो दलोंमें विभक्त हो ही गया। इस प्रकार एक पिताके दो पुत्र अपना हिस्सा बॉटकर अलग-अलग हो गये। पिताके घरके बीच में दीवार बनाना प्रारम्भ कर दिया। दोनों सम्प्रदाय महावीरको अपनी-अपनी सम्पत्ति Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम - बनाकर झगड़ने लगे। यह उदार जैन समुदाय अनेकान्तवाद और अपेक्षावादके महान् सिद्धान्तको भूलकर दोनों आपसमें फाग खेलने लगे। एक दूसरेको परास्त करनेकेलिये दोनोंने वर्द्धमानका नाम दे-देकर कुछ जुदा-जुदा शास्त्रोंकी भी रचना कर ली। अब लोग जैन धर्मके उदार सिद्धान्तोंको भूलकर उन्हीं तत्त्वों को पकड़कर बैठ गये, जहाँपर दोनोंका मत-भेद होता था। एक साधु यदि नग्न रहकर अपनी तपश्चर्याको उग्र करने का प्रयत्न करता तो श्वेताम्बरियोंकी दृष्टिमें वह मुक्तिका पात्र ही नहीं हो सकता; क्योंकि वह तो जिनकल्पी है और जिनकल्पी को मोक्ष है ही नहीं। इसी प्रकार यदि एक साधु एक अधोवस्त्र पहनकर तपश्चर्या करता है तो दिगम्बरियोंकी दृष्टिसे वह मुक्ति का हक्न खो बैठता है; क्योंकि वह परिग्रही है और परिग्रहको छोड़े बिना मुक्ति हो ही नहीं सकती। इस प्रकार अनेकान्तवादका समर्थन करनेवाले ये लोग सब महान् तत्त्वोंको भूलकर स्वयम् एकान्तवादी होगये। पतन अपनी इतनी ही सीमापर जाकर न रह गया। स्वार्थका कीड़ा जब किसी छिद्रसे घुसा कि फिर वह अपना बहुत विस्तार कर लेता है। जैनसमाजके केवल यही दो टुकड़े होकर न रह गये, बल्कि आगे जाकर इन सम्प्रदायोंकी गिनती और भी बढ़ने लगी। स्वेताम्बरियोंमें भी परस्पर मतभेद होने लगा, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * भगवान् महावीरके बादका जैन- इतिहास * इधर दिगम्बरी भी इससे शून्य न रहे । कुछ ही समय बाद इसमें भी उपश्रेणियाँ दृष्टिगोचर होने लगीं, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है । ५१ wourt वी० संवत में श्वेताम्बरी लोगोमें 'चैत्यवासा' नामक दलकी उत्पत्ति हुई। वी० सं०६ में उनमें 'ब्रह्मद्वीपिक' नामके नवीन संप्रदायका आरम्भ हुआ । वी० सं० १४४६ में 'वट' गच्छ की स्थापना हुई। वी० सं० १६७६ में 'खरतर ' गच्छ की स्थापना हुई । वी० सं० १७५५ में 'तपा' गच्छकी स्थापना हुई । वी० सं० २०३२ में 'कटुक' मतकी स्थापना हुई । वी० सं० २०४० में 'वीजा' मतका आरम्भ हुआ । वी० सं० २०४२ में पार्श्वचन्द्रसूरिने अपने पक्षकी स्थापना की। वी० सं० १६७८ में 'लूका' गच्छ की स्थापना और २००३ में उसके साधुसंघकी स्थापना हुई । इस वृक्षमेंसे स्थानकवासी, तेरापंथी, भीखापंथी, तीन थोई वाले, आदि कई शाखाएँ तथा चौथ पंचमीका झगड़ा, अधिक HTET गड़ा, आदि कई मतभेद वाली शाखाउपशाखा निकल पड़ीं और आपस में पूरी तरह लड़ने लगीं । इधर दिगम्बरियों में भी मत-मतान्तरोंका बढ़ना आरम्भ हुआ। जैसे - द्राविड़ संघ, व्यापनीय संघ, काष्ठा संघ, मथुरा संघ, भिल्लक संघ, तेरा पन्थ, बीस पन्थ, तारण पन्थ, भट्टारक प्रथा आदि अनेक शाखा-उपशाखा इनमें भी प्रचलित होकर आपस में लड़ने लगीं । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम ___ घरके आपसके झगड़ोंके अलावा अन्य धर्म वालोंने भी जैनधर्मपर वार करना प्रारम्भ कर दिया था। कारण कि जब घरमें वैमनस्य होता है तो बाहर वालोंको सहज में एक अच्छा मौका हाथ लग जाता है। इसीके अनुसार विक्रम संवत् ७०० के लगभग श्रीशंकराचाय्य हुए, जिन्होंने जैनधमके साथ एक बड़ा भीषण वाद-विवाद प्रारम्भ कर दिया। इन्होंने अपने शिष्य राजा द्वारा जैनसाधु, गृहस्थ व साहित्यपर बड़ा दबाव गिरवाया। गो इसके द्वारा जैनधर्मको काफ़ी धक्का लगा, पर वह किसी सूरतमें दबा नहीं। बादमें कई शताब्दी तक जनधर्माचार्य और शंकराचार्य के मठधारियों में समय-समयपर वाद-विवाद चलता रहा। ___ यहाँ ये सब वाद-विवाद चल ही रहे थे कि इन्हीं दिनों अर्थात् विक्रम संवत् ११०० के लगभग भारतवर्षमें उत्तरकी ओरसे महमूद गज़नवी और मुहम्मद गौरी आदिके हमले होने भी प्रारम्भ हो गए। जिन्होंने अपनी क्रूरतासे भारतकी समस्त प्रजाको त्रसित करना प्रारम्भ कर दिया। इनके बाद अनेक तुर्कों व पठानोंने समय समयपर भारतवर्षपर हमले करना प्रारम्भ कर दिया। जिनका मुख्य सिद्धान्त हिन्दुओंको इस्लामधर्म स्वीकार करानेका था। इन हमला करने वालोंने न सिर्फ आदमियोंको कत्ल किया और उनका धन लूटा, बल्कि हिन्दुओं, जैनियों और बौद्धोंके मन्दिरों व स्तूपोंके टुकड़े-टुकड़े Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aeraturveda .. . खण्ड] * भगवान् महावीरके बादका जैन-इतिहास * ५३ कर डाले; उनकी मूर्तियोंका अङ्ग भग कर डाला; जैन साधुओं, बौद्ध भिक्षुकों और पुजारियोंको बुरी तरह कत्ल किया; मन्दिरोंके भंडारोंको लूटा और भण्डारोंमें आग लगाकर अन्थोंको स्वाहा कर दिया। इस प्रकारकी अवस्था सौ-पचास वर्ष नहीं रही, बल्कि सैकड़ों वर्षों तक यानी पन्द्रहसौके अन्तमें और सोलहसौ के प्रारम्भ तक चलती रही । इन तमाम हमले, मारकाट व आपत्तियोंसे जैनधर्मके साधुओं, गृहस्थों, मन्दिरों व साहित्यको बड़ा धक्का व नुकसान पहुँचा । इस मुसीबतके समयमें जो कुछ साधु व मुनि बचे, वे पंजाब, बंगाल, बिहार व मध्य भारतवर्षसे विहार करके गुजरात और राजपूतानेकी ओर पधार गए। ... सन् १०१६ से सन् १५५० तक भारतवर्षकी क्या राजनैतिक, क्या सामाजिक, क्या व्यापारिक, क्या धार्मिक, सभी व्यवस्थाएँ बहुत बुरी रहीं। इसका कारण सिर्फ यही था कि इस पाँचसौ वर्षके समयमें किसीका स्थायी राज्य नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त आये दिन उत्तरकी ओरसे हमले हुआ करते थे, और इन मुसलिम बादशाहोंमें भारतवर्षके तमाम धर्मोके खिलाफ बड़ा द्वेष था। इस कारण इन पाँचसौ वर्षमें सदा मारकाट, जोरजुल्म वगैरह ही हुआ करे । जब बादशाह अकबरने भारतवर्ष की हुकूमतको अपने हाथमें लिया, तब थोड़ी-सी शान्ति यहाँ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम SA -A . ......... .. - स्थापित हुई, और जनताको थोड़ी तसल्ली मिली । उस समय समाज, व्यापार और धर्मों की व्यवस्था भी कुछ ठीक हुई। अकबर बादशाहको धार्मिक वार्तालापकी बड़ी रुचि थी। वह एक ऐसा धर्म चलाना चाहता था, जिसमें कि हिन्दू, मुसलमान, जैनी, कृश्चियन आदि सब मिल जायँ । उसी के अनुसार उसने 'दीने-इलाही' नामके धर्मकी स्थापना की थी। पर वह उसीके जीवन तक कायम रहा, और बादमें नष्ट हो गया। जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं कि अकबर बादशाहको धार्मिक मामलोंसे बड़ी दिलचस्पी थी, उसीके अनुसार उसकी इच्छा हीरविजय सूरिसे मिलनेकी हुई। उसके अनुसार हीरविजय सूरि गुजरातसे विहार कर फ़तेहपुर सीकरीमें बादशाहसे मिले । उनका बादशाहपर बड़ा असर पड़ा । उन्होंने जीवदयाका काफी प्रचार कराया। तीर्थ स्थानोंपर जो कर लगाया, उसे माफ कराया। जो टैक्स हिन्दुओंसे जजियाके नामसे वसूल किया जाता था, उसे माफ कराया। इसके अलावा बादशाहको वर्षमें कई महीने माँस खानेके त्याग कराये। इसके अलावा उन्होंने जीवदया सम्बन्धी कई पट्टे निकलवाये। इस समयमें जैनधर्म अवश्य चमका और काफ़ी जनताने इस धर्मको अङ्गीकार किया। वीर निर्वाणकी दूसरी शताब्दीके अन्तमें जैनसमाजमें द्वेष और कलहकी भावनाएँ बढ़ने लगी और लोग ऐसे समयकी राह देखने लगे कि जब वे जाहिर रूपसे अलग हो जाय। वीर Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * भगवान् महावीरके बादका जन-इतिहास * ५५ - - anvar निर्वाणकी छठवीं शताब्दीमें मथुरामें दीर्घदर्शी स्कन्दिलाचार्यकी अध्यक्षतामें एक बड़ी सभा हुई, जिसमें उन्होंने तो अनेकान्तवादके अनुसार दोनों पक्षोंको ठीक बताया, पर उसी समयसे दोनों समाज अर्थात् श्वेताम्बर और दिगम्बर प्रत्यक्ष रूपमें विभक्त हो गई। दिगम्बर संप्रदायमें भी एकसे एक बड़े विद्वान् व त्यागी मुनि आदि हुये । जैसे-भद्रबाहु स्वामी निमित्तज्ञानके धारक हुए। उनके शिष्य धरसेन हुए, जिन्होंने कई ग्रन्थ लिखे । वि० सं० ७३५ के करीब द्राविड़ देशमें 'दक्षिण मथुरा' नामकी एक नगरी थी, जिसको आजकल 'मदुरा' कहते हैं, उसका राजा श्रीराजमल्ल था । उसका प्रधान मन्त्री श्रीचामुण्डराय भी एक पक्का जैन था। इनके समयमें श्रीनेमिचन्द्र स्वामी हुये, जिन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे। वे एक धुरंधर विद्वान् थे । आपके उपदेश से राजाने १५०००० दीनारोंके गाँव श्रीगोमट्टस्वामीके मन्दिर की सेवा आदिकेलिये प्रदान किये थे । श्रीनेमिचन्द्राचार्यने गोमट्टसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार आदि अनेक परमादरणीय सिद्धान्त ग्रन्थोंको रचा है। श्रीअभयनन्दिजी, श्रीवीरनन्दिजी श्रीइन्द्रनन्दिजी और कनकनन्दिजी आदि उस समय बड़े बड़े प्राचार्य हुए। श्रीअभयनन्दिजीके रचे हुए बृहज्जनेन्द्र व्याकरण, गोमट्टसार टीका, कर्मप्रकृतिरहस्य श्रादि अनेक ग्रन्थ इस समय उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त और भी अनेक विद्वान् हुये। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम HOM . . . जैसे-सिद्धसेन दिवाकर, विद्यानन्द, भट्टाकलक, माघनन्दि, गुणनन्दि, जिनसेन स्वामी, गुणभद्र भदन्त, स्वामी समन्तभद्राचार्य आदि। जैनधर्मपर और उसके साहित्यपर प्रकृतिने दुष्कालों द्वारा बड़ा धक्का पहुँचाया। विधर्मी द्वारा यानी शंकराचार्यजी तथा उनके शिष्यों द्वारा इस धर्मपर बड़े बड़े आघात किए गये । तुर्को-पठानों के हमलों और लूट-मारने जैनधर्मको बड़ा आघात पहुँचाया। इन सब बातोंका उदार जैनधर्मने बड़ी सहनशीलता और बड़ी वीरतासे मुकाबिला किया। पर जैनधर्मावलम्बियोंकी आपसकी फूटने इसे बड़ा जबरदस्त नुकसान पहुंचाया। क्योंकि यह कहावत प्रसिद्ध है कि खेतमें उपजे सब कोई खाय, घरमें उपजे घर बह जाय ।' उसीका यह परिणाम आज दृष्टिगोचर होता है कि महावीर भगवान् और उनके निर्वाणके सैकड़ों वर्ष बाद तक भारतवर्ष में जैनियों की करोड़ों संख्या थी और बड़े बड़े राजा और रईस इस धर्मके मानने वाले थे। पर आपसकी फूट, जिसने जैनधर्मके साहित्य व ज्ञान और उसके समुदायको बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाया है, उसने अाज बीसवीं शताब्दी तक भी इस समाजका पीछा नहीं छोड़ा है। जब कि समस्त भारतवर्षके धर्मावलम्बी, जैसे-हिन्दू, सिक्ख, आर्यसमाजी, कृश्चियन, मुसलमान आदि भरसक मिलनेका प्रयत्न कर रहे हैं। वर्तमान समयमें भारतवर्षके तमाम विद्वानों और अगुआओं Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * भगवान महावीरके बादका जैन-इतिहास * ५७ का यह कथन व मन्तव्य है कि इस समय भारतवर्षके तमाम धर्मावलम्बियोंको बजाय आपसमें द्वेष और झगड़ा करनेके दूध और शक्करके समान मिल जाना चाहिये। इससे इनका यह मतलब नहीं कि सबको अपने धर्मको छोड़ देना चाहिये । सबोंको अपने धर्मकी मान्यता करते हुए एक दूसरेके साथ प्रेम-पूर्वक रहना चाहिये। उसी अवस्थामें मनुष्य मात्रकी और मुख्यतया भारतवर्षकी हर प्रकारकी उन्नति हो सकती है। लेकिन क्या कारण है कि आज महावीर भगवान्के श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरहपंथी आदि अनेक पुत्र आपसमें प्रेम-पूर्वक मिलकर नहीं रह सकते ? बजाय प्रेम-पूर्वक मिलकर रहने और जैनधर्मकी उन्नति करनेके हम यह देखते हैं कि आज हमारे श्वेताम्बर और दिगम्बर मन्दिर और मूर्तियोंके पीछे; स्थानकवासी और श्वेताम्बर स्थानक, मुखवत्रिका, मूर्तिपूजा आदिके पीछे; तेरहपंथी और स्थानकवासी जीवहिंसा रोकने या न रोकनेके सिद्धान्तपर; तथा दिगम्बर दिगम्बर; श्वेताम्बर श्वेताम्बर; स्थानकवासी स्थानकवासी आदि भी परस्परमें जितना कलह बढ़ा रही हैं, जितनी सम्पत्ति धूलमें मिला रही हैं, जितनी शक्तियाँ खर्च कर रही हैं, उनका कोई हिसाब नहीं है। एक दूसरेके खिलाफ पुस्तकें निकलवाना, पेम्फलेटें व नोटिसें छपवाना, पेपरोंमें एक दूसरेके खण्डन सम्बन्धी और द्वेषयुक्त लेख निकलवाना व कोर्टोंमें एक दूसरेके खिलाफ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रथम creraracohnnAAAAAAAAAAD * जेलमें मेरा जैनाभ्यास मुकदमेबाजी करके हजारों नहीं, बल्कि लाखों रुपये पानीकी तरह बहा रहे हैं । इन सब प्रकारकी कलहोंका क्या कारण है ? जो मनुष्य समाज-शास्त्रके ज्ञाता हैं, वे उन तत्त्वोंको भली प्रकार जानते हैं, जिनके कारण जातियों और धर्मोंका पतन हाता है। किसी भी धर्म व समाजके पतनका आरम्भ उसी दिनसे प्रारम्भ हो जाता है, जिस दिनसे किसी न किसी छिद्र से उसके अन्तर्गत स्वार्थका कीड़ा घुस जाता है । जिस दिनसे लोगोंकी मनोवृत्तियोंके अन्दर विकार उत्पन्न हो जाता है, जिस दिनसे लोग व्यक्तिगत स्वार्थ के या मान-बड़ाईके फेर में पड़कर अपने जीवनकी नैतिकताको नष्ट करना प्रारम्भ कर देते हैं या दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिए कि जब अमुक धर्म या सम्प्रदायके अनुयायियोंके दिल और दिमागमें किसी प्रकारका विचार उत्पन्न हो जाता है, तभी वह धर्म या सम्प्रदाय गढ़ेकी यानी अवनतिकी ओर जाने लगता है। संसारमें धर्मकी सृष्टि ही इसीलिये हुई है कि वह मनुष्य प्रकृतिके कारण उत्पन्न हुई अकल्याणकर भावनाओंसे मनुष्य जातिकी रक्षा करे और सदा मनुष्यको न्याय मार्गको सफल बनाना सिखावे । बन्धुश्रो ! अगर यह हम लोगोंकी हार्दिक इच्छा है कि महावीर भगवान्के सिद्धान्तोंका घर घर प्रचार हो, . हम सच्चे जैनधर्म के अनुयायी बनकर अपनी आत्माका उद्धार करें, ... संसारमें जीवित जातियोंमें गिने जायँ, संसारमें हमारा मान हो, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - खण्ड] * भगवान् महावीरके बादका जैन-इतिहास * ५६ और हमें ऐहलौकिक शान्ति के साथ पारलौकिक सुखकी प्राप्ति हो, तो हमें चाहिये कि हम हठवादिताको छोड़कर महावीर भगवान् के सच्चे अनुयायी बनें। जब तक हमारे हृदयमें स्वार्थ, घृणा, राग-द्वेष और बन्धु-विद्रोहके स्थानपर परमार्थ, प्रेम, वन्धुत्व और सहानुभूतिकी भावनाएँ आदि न होंगी; जबतक हम जड़ केलिये चेतनका और छिलकेकेलिये मिंगीका अपमान करते रहेंगे; तबतक जैनधर्मका, जैनसमाजका और अपना लौकिक या पारलौकिक हित न कर सकेंगे। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि आज जब हम भगवान् महावीरके अनुयायी जैनसमाजकी स्थितिको देखते हैं और उनके द्वारा होने वाले कर्मोंका अवलोकन करते हैं तो उसमें एक भयङ्कर विपरीतता मालूम होती है। अफसोस ! कहाँ तो भगवान् महावीरका उदार, महान और दिव्य उपदेश और कहाँ वर्तमान जैनसमाज ! जिन महावीरका उपदेश आकाश से भी अधिक उदार और सागरसे भी अधिक गम्भीर था, उन्हींका अनुयायी जैनसमाज आज कितनी संकीर्णताके दलदल में फंसा हुआ है ! जिन वीर प्रभुने प्राणीमात्रसे मैत्रीभाव, उदार हृदय व प्रेम रखनेका उदार सन्देश दिया था; उन्हींकी सन्तान आज आपस में इस बुरी प्रकार राग-द्वेष व लड़-झगड़कर दुनियाँके परदेसे अपने अस्तित्वको समेटनेकी तैयारियाँ कर रही है। जिस प्रकार Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * .... .... nonIAAAY कि एक लकड़हारा जिस डालपर बैठा हुआ हो, उसीको काट रहा हो, इस प्रकार आज हमारी समाज संसारकी निगाहमें अपनेको हास्यास्पद बना रही है। ___ मुझे पूर्ण विश्वास है कि हमारे समस्त जैन बान्धव वर्तमान भारतकी सामाजिक व राजनैतिक अवस्थाको ध्यानमें रखते हुए और अपने अटल और महान् अनेकान्तवादके सिद्धान्तको स्मरण करते हुए प्रेम-पूर्वक मिलकर रहेंगे और राग-द्वेष व वैमनस्य रूपी वृक्षको जड़-मूलसे नष्ट कर देंगे। उसी अवस्था में हमारी विभाजित जैनसमाज संगठित होकर भगवान् महावीर के दिव्य और महान् सिद्धान्तोंको संसारको बता सकेगी यानी जैनधर्मका प्रचार व अपनी आत्माका सुधार कर सकेगी और यही मनुष्य-जन्म पानेका सार है। - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाका स्वरूप सा" शब्द हननार्थक “हिंसी" धातुसे बना है। र इससे हिंसाका अर्थ "किसी प्राणीको मारना या सताना" होता है। प्राणीको प्राणसे रहित करनेके निमित्त अथवा प्राणीको किसी प्रकारका दुःख देनेके निमित्त जो प्रयत्न किया जाता है, उसे "हिंसा" कहते हैं। इसके विपरीत किसी जीवको दुःख या कष्ट नहीं पहुँचाना, इसको "अहिंसा" कहते हैं। पतञ्जलि-कृत योगशास्त्रके भाष्यकार अहिंसाका लक्षण • लिखते हुए कहते हैं: "सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनर्थद्रोह अहिंसा" अर्थात् सब प्रकारसे, सब समयमें, सब प्राणियोंके साथ मत्री भावसे व्यवहार करना-उनसे प्रेम भाव रखना, इसीको "अहिंसा" कहते हैं। कृष्ण भगवान्ने भी गीतामें कहा है:"कर्मणा मनसा वाचा, सर्वभूतेषु सर्वदा । अक्लेशजननं प्रोक्ता, अहिंसा परमर्षिभिः ॥" Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम - अर्थात् मन, वचन तथा कर्मसे सर्वदा किसी भी प्राणीको किसी भी प्रकारका कष्ट नहीं पहुंचाना, इसीको महर्षियोंने अहिंसा' कहा है । इसी विषयको लेकर स्वयं भगवान महावीर कहते हैं:___ 'सब प्राणियों को आयु प्रिय है। सब सुखके अभिलापी हैं; दुःख सबके प्रतिकूल है: वध सबको अप्रिय है; सब जीनेकी इच्छा रखते हैं। इससे किसीको मारना अथवा कष्ट पहुँचाना न चाहिये।' जैनधर्मके तमाम आचार-विचार अहिंसाकी नीवपर रचे गये हैं। वैसे तो भारनवर्पके ब्राह्मण, बौद्ध आदि सभी प्रसिद्ध धर्म अहिमाको सर्वश्रेष्ट धर्म मानते हैं। इन धर्मों के प्रायः सभी महापुरुषोंने अहिंसाकं महत्त्व तथा उसकी उच्चताका बतलाया है, पर इस तत्वकी जितनी विस्तृत, जितनी सूक्ष्म और जितनी गहन मीमांसा जैनधर्म में की गई है, उतनी शायद दूसरे किसी भी धर्ममें नहीं की गई है। जैनधर्मके प्रवर्तकोंने अहिंसा तत्व को उसकी चरम सीमापर पहुँचा दिया है। ___ वे केवल अहिंसाकी इतनी विस्तृत मीमांसा करके ही चुप नहीं हो गये हैं, बल्कि उसको आचरण करके उसे व्यावहारिक रूप देकर भी उन्होंने बतला दिया है। दूसरे धर्मोमें अहिंसाका तत्त्व केवल कायिक रूप बनकर ही समाप्त होगया है, पर जैनधर्म का अहिंसा तत्त्व उससे बहुत आगे वाचिक और मानसिक होकर आत्मिक रूप तक चला गया है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * अहिंसाका स्वरूप * कुछ धर्मों में अहिंसाकी मर्यादा मनुष्य जाति तक ही, अथवा बहुत आगे गई तो पशु और पक्षियोंके जगत्में जाकर समाप्त होगई है, पर जैन-अहिंसाकी मर्यादामें तमाम चराचर जीवोंका समावेश होनेपर भी वह अपरिमित ही रहती है । दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि जैनकी अहिंसा विश्वकी तरह अमर्यादित और आकाशकी तरह अनन्त है। लकिन जैनधमक इस महान तत्त्वके यथार्थ रहस्यको समझने का प्रयास बहुत ही कम लोगोंने किया है। जैनियोंकी इस अहिंसाके विषयमं जनताके अन्तर्गत बहुत अज्ञान और भ्रम फैला हुआ है। ___बहुतसे बड़े बड़े अजैन विद्वान इसको अव्यवहाय्य, अनाचरणीय, आत्मघातक एवं कायरताकी जननी समझकर इसको राष्ट्र-नाशक बतलाते हैं। उन लोगोंके दिल और दिमाग़में यह बात जारों से ठसी हुई है कि जैनियोंकी इस अहिंसाने देशको कायर और निर्वीय बना दिया है । इसका प्रधान कारण यह है कि आधुनिक जैन-समाजमें अहिंसाका जो अर्थ किया जाता है, वह वास्तव में ही ऐसा है। जैनधमकी असली अहिंसाकं तत्त्व ने आधुनिक जैन-समाजमें अवश्य कायरताका रूप धारण कर लिया है। इसी परिणामको देखकर यदि अजैन विद्वान् लोग उसको कायरता-प्रधान धर्म मानने लग जाय तो आश्चर्य नहीं। परन्तु जैन-अहिंसाका वास्तविक रूप वह नहीं है, जो Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * प्रथम . .. - - आधुनिक जैन-समाजमें प्रचलित है। यह तो उसका विकृत (बिगड़ा हुआ ) रूप है। यह एक सैद्धान्तिक नियम है कि जब कोई धर्म या ताकत गिरती हुई अवस्थामें होती है, उस समय उसका ढाँचा व अनुयायियोंका जीवन बड़ा शिथिल व अनियमित हो जाता है। ठीक यही अवस्था इस समय जैनधर्म व उसके अनुयायियोंकी होरही है। जैन-अहिंसाके इस विकृत रूरको छोड़ कर यदि हम उसके शुद्ध और असली रूपको देखें तो ऊपरके सब आक्षेपोंका निराकरण हो जाता है। इस स्थानपर हम उन चन्द आक्षेपोंके निराकरण करनेकी चेष्टा करते हैं, जो आधुनिक विद्वानोंके द्वारा जैन अहिंसापर लगाये जाते हैं। ___ पहिला आक्षेप यह किया जाता है कि जैनधर्मके प्रवर्तकों ने अहिंसाकी मर्यादाको इतनी सूक्ष्म कोटिपर पहुँचा दिया है कि जहाँपर जाकर वह करीब-करीब अव्यवहार्य हो गई है। जैनअहिंसाको जो कोई पूर्ण रूपसे पालन करना चाहे, उसको जीवन की तमाम क्रियाओंको बन्द कर देना पड़ेगा और निश्चेष्ट होकर देहको त्यागना पड़ेगा। ___ इसमें सन्देह नहीं कि जैन-अहिंसाकी मर्यादा बहुत ही विस्तृत है और उसका पालन करना सर्वसाधारणकलिये बहुत ही कठिन है। इसी कारण जैनधर्मके अन्तर्गत पूर्ण अहिंसाके अधिकारी केवल मुनि ही माने गये हैं, साधारण Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * अहिंसाका स्वरूप * ६५ गृहस्थ नहीं । पर इसकेलिये यह कहना कि यह सर्वथा अव्यवहार्य है अथवा आत्मघातक है, बिलकुल भ्रममूलक है। इस बातको प्रायः सब लोग मानते तथा जानते हैं कि अहिंसा तत्त्वके प्रवर्तकोंने अपने जीवनमें इस तत्त्वका पूर्ण अमल किया था। उनके उपदेशसे प्रेरित होकर लाखों श्रादमी उनके अनुयायी हुए थे, जो कि आजतक उनके उपदेशका पालन करते चले आते हैं। पर किसीको आत्मघात करनेकी श्रावश्यकता नहीं हुई। इस बातसे स्वयं सिद्ध होजाता है कि जैन. अहिंसा अव्यवहार्य नहीं है। इतना अवश्य है कि जो लोग अपने जीवनका सद्व्यय करनेको तैयार नहीं हैं, जो अपने स्वार्थों का भोग देने में हिचकते हैं, उन लोगोंकेलिये यह तत्त्व अवश्य अव्यवहार्य है । क्योंकि अहिंसाका तत्त्व आत्माके उद्धारसे बहुत सम्बन्ध रखता है। इस कारण जो लोग मुमुक्षु हैं-अपनी आत्माका उद्धार करने के इच्छुक हैं, उनको तो जैन-अहिंसा कभी आत्म-नाशक या अव्यवहार्य मालूम नहीं होती। पर स्वार्थ-लोलुप और विलासी आदमियों की तो बात ही दूमरी है। जैन-अहिंसापर दूसरा सबसे बड़ा आक्षेप यह किया जाता है कि उस अहिंसाके प्रचारने भारतवर्षको कायर और गुलाम बना दिया है । इस श्राक्षेपके करनेवालों का कथन है कि अहिंसाजन्य पापोंसे डरकर भारतीय लोगोंने मांस खाना छोड़ दिया Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम - एवं यह निश्चय है कि मांस-भक्षणके विना शरीरमें बल और मनमें शौर्य नहीं रह सकता। बहादुरी और बलकी कमी हो जाने के कारण यहाँकी प्रजाके हृदयसे युद्धकी भावना बिलकुल नष्ट होगई, जिससे विदेशी लोगोंने लगातार इस देशपर आक्रमण करके उसे अपने आधीन कर लिया। इस प्रकार अहिंसाके प्रचारसे भारतवर्ष गुलाम होगया और यहाँकी प्रजा पराक्रम-रहित होगई। अहिंसापर किया गया यह आक्षेप बिलकुल प्रमाण-रहित और युक्ति-शून्य है। इस कल्पनाकी जड़में बहुत बड़ा अज्ञान भरा हुआ है । सबसे पहिले हम ऐतिहासिक दृष्टिसे इस प्रश्नपर विचार करेंगे। भारतका प्राचीन इतिहास डकेकी चोट इस बातको बतला रहा है कि जबतक इस देशपर अहिंसाप्रधान जातियोंका राज्य रहा, तबतक यहाँकी प्रजामें शान्ति, शौर्य, सुख और सन्तोप यथेष्ट रूपसे व्याप्त थे । सम्राट चन्द्रगुप्त और अशोक अहिंसाधर्मके बड़े उपासक और प्रचारक थे । पर उनके काल में भारत कभी पराधीन नहीं हुआ। उस समय यहाँकी प्रजामें जो वीर्य, शान्ति और साहस था, वह आजकलकी दुनियामें कहीं नसीब नहीं हो सकता। अहिंसाधर्मके श्रेष्ठ उपासक नृपतियोंने अहिंसा धर्मका पालन करते हुये भी अनेक युद्ध किये और अनेक शत्रुओंको पराजित किया था। जिस धर्मके अनुयायी इतने पराक्रमशील और Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * हिंसाका स्वरूप * ६७ शूरवीर थे और जिन्होंने अपने पराक्रमसे देशको तथा अपने राज्यको इतना समृद्ध और सत्त्वशील बनाया था, उस धर्मके प्रचारसे देश और प्रजाकी अधोगति किस प्रकार हो सकती है ? कायरता या गुलामीका मूल कारण अहिंसा कदापि नहीं हो सकती । जिन देशों में हिंसा खूब जोर-शोर से प्रचलित है, जिस देश के निवासी अहिंसाका नामतक नहीं जानते, केवल मांस ही जिनका प्रधान आहार है और जिनकी वृत्तियाँ हिंसक पशुओं से भी अधिक क्रूर हैं, क्या वे देश हमेशा आजाद रहते हैं ? रोमन साम्राज्यने किस दिन अहिंसाका नाम सुना था ? उसने कब मांस भक्षणका त्याग किया था ? फिर वह कौनसा कारण था, जिससे उसका नाम दुनिया के परदेसे बिलकुल मिट गया । तुर्क प्रजाने कब अपनी हिंसक और क्रूर वृत्तियों को छोड़ा था ? फिर क्या कारण है कि आज वह इतनी मरणोन्मुख दशा में अपने दिन बिता रही है ? स्वयम् भारतवर्षका ही उदाहरण लीजिये | मुग़ल सम्राटोंने किस दिन अहिंसाकी आराधना की थी ? उन्होंने कब पशुबधको छोड़ा था ? फिर क्या कारण है कि उनका अस्तित्व नष्ट हो गया ? इन उदाहरणोंसे स्पष्ट जाहिर होता है कि देशकी राजनैतिक उन्नति और अवनति में हिंसा अथवा अहिंसा कोई कारणभूत नहीं है । देश क्यों गुलाम होते हैं ? जातियाँ क्यों नष्ट हो जाती हैं ? साम्राज्य क्यों बिखर Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास [ प्रथम जाते हैं ? इन घटनाओंके मूल कारण हिंसा और हिंसा में ढूँढ़ने से नहीं मिल सकते। जितनी भी जातियाँ अथवा देश. गुलाम होते हैं, वे सब नैतिक कमजोरीके कारण अथवा यों कहिये कि आसुरी सम्पदाके आधिक्यके कारण होते हैं। अहिंसा भेद जैन आचार्थ्यांने हिंसाको कई भेदोंमें विभक्त कर दिया है। अहिंसा के मुख्य चार भेद किये हैं, वे इस प्रकार हैं: १ - संकल्पी हिंसा, २ - आरम्भी - हिंसा, ३ – व्यवहारी - हिंसा, और ४-विरोधी हिंसा | १- किसी भी प्राणीको संकल्प अर्थात् इरादा करके बुरे परणामोंसे मारना, उसे 'संकल्पी - हिंसा' कहते हैं । जैसे कोई चींटी जा रही हो, उसे केवल हिंसक भावनासे जान बूझकर मार डालना । २ – गृहकार्य में, स्नानमें, भोजन बनाने में, झाडू देने में, जल पीने आदिमें जो-जो अप्रत्यक्ष जीव-हिंसा होजाती है, उसे 'आरम्भी - हिंसा' कहते हैं । 4 ३ – व्यापार में, व्यवहार में चलनेमें, फिरने में जो हिंसा • - होती है, उसे 'व्यवहारी-हिंसा' कहते हैं 1 ४ - विरोधी से अपनी आत्म-रक्षा करने के निमित्त अथवा किसी आततायी अथवा हमला करनेवाले से अपने राज्य, देश C Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * अहिंसाका स्वरूप * ६६ अथवा कुटुम्बकी रक्षा करनेके निमित्त जो हिंसा करनी पड़ती है, उसे 'विरोधी-हिंसा' कहते हैं। इनके पश्चात् स्थूल अहिंसा और सूक्ष्म-अहिंसा, द्रव्यअहिंसा और भाव-अहिंसा, देश-अहिंसा और सर्व-अहिंसा इत्यादि और भी कई भेद किये गये हैं । १-भूलसे, अज्ञानतासे, अनजानपनेसे अगर किसी चलते फिरत जीवकी हिंसा होजाती है, यह ख्याल करते हुये कि कोई जीव मर न जाय, उसे 'स्थूल-अहिंसा' कहते हैं। २-जान करके या अनजान करके किसी भी प्रकारके प्राणीको कष्टतक न पहुँचानेको 'सूक्ष्म-अहिंसा' कहते हैं । ३-किसी भी प्रकारके जोवको अपने शरीरसे कष्ट न पहुँचानेको 'द्रव्य-अहिंसा' कहते हैं। ४-किसी भी प्रकारके जीवको भावों तकसे कष्ट देनेका भाव न रखनेको 'भाव-अहिंसा' कहते हैं। ५-किसी भी प्रकारकी आंशिक अहिंसाकी प्रतिज्ञाको 'देशअहिंसा' कहते हैं। ६-सार्वदेशिक अहिंसाकी प्रतिज्ञाको 'सर्व-अहिंसा' कहते हैं। अब हम यह बतानेका प्रयत्न करेंगे कि गृहस्थ और मुनि कहाँतक अहिंसाव्रतका पालन करते हैं । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास # [ प्रथम यद्यपि आत्माके अमरत्वकी प्राप्तिकेलिये और संसार के सर्व बन्धनों से मुक्त होनेकेलिये अहिंसाका पूर्ण रूपसे पालन करना आवश्यक है, तथापि संसारनिवासी तमाम मनुष्यों को इतनी योग्यता और इतनी शक्ति नहीं कि वे अहिंसाका पूर्ण रूप से पालन कर सकें, इस कारण शास्त्रकारों अथवा तत्त्वज्ञोंने गृहस्थों के लिये न्यूनाधिक हिंसा के मार्ग बता दिये हैं । ७० अहिंसा के भेदोंकी तरह उनके अधिकारियों के भी जुदे-जुदे भेद कर दिये हैं । जो गृहस्थ अथवा संसारी मनुष्य पूर्ण रीति से अहिंसाका पालन नहीं कर सकते, उन्हें श्रावक, उपासक, अणुव्रती, देशव्रती इत्यादि नामोंसे सम्बोधित किया गया है । उपरोक्त चार प्रकारकी हिंसाओं में गृहस्थ केवल संकल्पो-हिंसा का त्यागी होता है। इसके अलावा वह भाव हिंसा और स्थूल-हिंसा का भी त्यागी हो सकता है। शेष हिंसाएँ गृहस्थको क्षम्य होती हैं । गृह कार्य में होनेवाली आरम्भी-हिंसा, व्यापार में होने वाली व्यावहारिक हिंसा तथा आत्म-रक्षा के निमित्त होनेवाली विरोधी हिंसा अगर एक श्रावक त्यागपूर्वक, ध्यानपूर्वक और अपनी मनोभावनाओं को शुद्ध रखता हुआ करता है तो वह बहुत सूक्ष्म रूप में दोषका भागी होता है । जो प्राणी अहिंसाका पूर्ण अर्थात् सूक्ष्म रीति से पालन करता है, उसको जैनशास्त्रों में मुनि, भिक्षु, श्रमण अथवा संयमी शब्दोंसे सम्बोधित किया गया है। ऐसे लोग संसारके सब कामों Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहिंसाका स्वरूप * - से दूर और अलिप्त रहते हैं। उनका कर्तव्य केवल आत्मकल्याण करना तथा मुमुक्षुजनोंको आत्म-कल्याणका मार्ग बताना रहता है। उनकी आत्मा विषय-विकार तथा कषाय-भावसे बिलकुल परे रहती है; उनकी दृष्टि में जगत्के तमाम प्राणी आत्मवत् गोचर होते हैं; अपने और परायेका द्वेषभाव उनके हृदयमेंसे नष्ट हो जाता है; उनके मन, वचन, और काय, तीनों एक रूप हो जाते हैं; जो पुरुप इस प्रकारको अवस्थाको प्राप्त कर लेते हैं, वे 'महाव्रती' कहलाते हैं। वे पूर्ण-अहिंसाको पालन करने में समर्थ होते हैं। ऐसे महाव्रतियोंकेलिये स्वार्थ हिंसा और परार्थ-हिमा, दोनों वर्जनीय हैं । वे सूक्ष्म तथा स्थूल, दोनों प्रकार की अहिंसासे मुक्त रहते हैं। यहाँ एक प्रश्न यह हो सकता है कि इस प्रकारके महाव्रतियोसे खाने-पीने, उठने-बैठने, चलने-फिरने व सोने आदिमें कभी-कभी हिंसा अवश्य हो जाती होगी। फिर वे हिंसाजन्य पापोंसे बच कैसे सकते हैं ? ___ उत्तर-ये महाव्रती सदा ध्यानपूर्वक, देखभालकर अपनी सारी क्रिया किया करते हैं। इससे स्थूल-हिंसाकी कोई सम्भावना नहीं रहती। ___ हाँ, यद्यपि अनिवार्य सूक्ष्म-जोव-हिंसा उक्त क्रियाओं में हुआ करती है, तथापि उनकी मन, वचन और कायकी कतई कोई भावना नहीं रहती। इस कारण वह दोषो नहीं होते हैं। इसके Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम अलावा अगर कोई हिंसा भूल-चूक या अज्ञानतामें होजाती है तो उसकेलिये मुनि सुबह-शाम प्रतिदिन प्रतिक्रमण, क्षमा और पश्चात्ताप करते हैं। इस प्रकार वे सदा हर प्रकारकी हिंसासे मुक्त रहते हैं। हिंसाका विशेष विवेचन प्रमत्त भावसे प्राणियोंके प्राणों का जो नाश किया जाता है, उसीको 'हिंसा' कहते हैं । जो प्राणी विषय अथवा कषायके वशीभूत होकर किसी प्राणीको कष्ट पहुँचाता है, वही हिंसाजनक पापका भागी होता है। इस हिंसाकी व्याप्ति केवल शरीरजन्य कष्टतक ही नहीं, पर मन और वचनजन्य कष्टतक भी है । जो विषय तथा कषायके वशीभूत होकर दूसरों के प्रति अनिष्ट चिन्तन या अनिष्ट भापण करता है, वह भी भावहिंसाका दोपी माना जाता है। इसके विपरीत विषय और कषायसे विरक्त मनुष्य के द्वारा किसी प्रकारकी हिंसा भी हो जाय तो उसकी वह परमार्थहिंसा हिंसा नहीं कहलाती । मान लीजिये कि एक बालक है, उसमें किसी प्रकारकी खराब प्रवृत्ति है। उस प्रवृत्तिको दूर करनेकी नातिर उसके पिता अथवा गुरु केवल मात्र उसकी कल्याण-कामनासे प्रेरित होकर कठोर वचनोंसे उसका ताड़न करते हैं अथवा उसे शारीरिक दण्ड भी देते हैं तो उसके लिये कोई भी उस गुरु अथवा पिताको दण्डनीय अथवा निन्दनीय नहीं मान सकता, क्योंकि दण्ड देते समय उनकी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * अहिंसाका स्वरूप * HOGG वृत्तियों में किसी प्रकारकी मलीनताके भाव न थे। उनके हृदयमें उस समय भी उज्ज्वल, अहिंसक और कल्याणकारक भाव कार्य कर रहे थे। इसके विपरीत यदि कोई मनुष्य द्वेषभावके वश होकर किसी दूसरे व्यक्तिको मारता है अथवा गालियाँ देता है, तो समाज में निन्दनीय और राज्यसे दण्डनीय होता है; क्योंकि उस व्यवहारमें उसकी भावनाएँ कलुषित रहती हैं, उसका आशय दुष्ट रहता है । यद्यपि उपरोक्त दोनों प्रकारके व्यवहारोंका बाह्य स्वरूप एक ही प्रकारका है, तथापि भावनाओंके भेदसे उनका अन्तर्रूप बिलकुल एक दूसरेसे विपरीत है। इसी प्रकारका भेद द्रव्य और भाव हिंसाके स्वरूपमें होता है। वास्तवमें यदि देखा जाय तो हिंसा और अहिंसाका रहस्य मनुष्यकी मनोभावनाओंपर अवलम्बित है । किसी भी कर्मके शुभाशुभ बन्धका आधार कतॊके मनोभावोंपर अवलम्बित है। जिस भावसे प्रेरित होकर मनुष्य जो कर्म करता है, उसीके अनुसार उसे उसका फल भोगना पड़ता है। कर्मकी शुभाशुभता उसके स्वरूपपर नहीं, प्रत्युत कर्त्ताकी मनोभावनाओंपर निर्भर है। जिस कर्मके करनेमें कर्ताका विचार शुभ है, वह 'शुभ कर्म' कहलाता है। जिस कर्मके करनेमें उसका विचार अशुभ है, वह 'अशुभ कर्म' कहलाता है । ___ किसी जीवको कष्ट पहुँचानेमें जो अशुभ परिणाम निमित्तभूत होते हैं, उसीको हिंसा कहते हैं और बाह्य दृष्टिसे हिंसा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [प्रथम मालूम होनेपर भी जिसके प्रान्तयं परिणाम शुद्ध रहते हैं, वह हिंसा नहीं कहलाती । इसके विपरीत जिसका मन शुद्ध अथवा संयमित नहीं है, जो विषय तथा कषायसे लिप्त है, वह बाह्य स्वरूपमें अहिंसक दिखाई देनेपर भी हिंसक है। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि जिसका मन दुष्ट भावोंसे भरा हुआ है, वह यदि कायिक रूपसे हिंसा नहीं करता है, तो भी हिंसक ही है। अनकरीब प्रत्येक समझदार मनुष्य यह जानता है कि अहिंसा और क्षमा दोनों वस्तुएँ बहुत ही उज्ज्वल एवं मनुष्य जातिको उन्नतिक पथपर ले जानेवाली हैं। यदि इन दोनों का आदर्श रूप संसारमें प्रचलित हो जाय तो संसारसं आज ही युद्ध, रक्तपात और जीवन-कलहके दृश्य मिट जॉय और शान्तिका राज्य हो जाय । पर यदि कोई व्यक्ति इस अाशासे प्रयत्न करे कि समस्त संसारमें क्षमा और शान्तिका साम्राज्य होजाय तो यह असम्भव है; क्योकि समस्त समाज इन तत्त्वोंको एकान्तरूपसे स्वीकार नहीं कर सकती । प्रकृतिने मनुष्य-स्वभावकी रचना ही कुछ ऐसे ढङ्गसे की है कि जिससे वह शुद्ध श्रादर्शको ग्रहण करनेमें असमर्थ रहता है। मनुप्य प्रकृतिकी बनावट ही पाप और पुण्य, गुण और दोष एवं प्रकाश और अन्धकारके मिश्रण से की गई है। चाहे आप इसे प्रकृति कहें, चाहे कर्म, पर एक तत्त्व ऐसा मनुष्य-स्वभावमें मिश्रित है कि जिससे उसके अन्तर्गत उत्साह के साथ प्रमादका, क्षमाके साथ क्रोधका, बन्धुत्वके साथ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * अहिंसाका स्वरूप करका हिंसाके साथ हिंसक प्रवृत्तिका समावेश अनिवार्य रूप से पाया जाता है । कोई भी मनस्तत्त्वका वेत्ता मनुष्यहृदयकी इस प्रकृति या विकृति या कर्मकी उपेक्षा नहीं कर सकता । ७५ आधुनिक संसार में दो विरुद्ध मार्ग एक साथ प्रचलित होरहे हैं। एक मार्ग तो अहिंसा, क्षमा, दया आदिका दूसरा हिंसा, युद्ध, बन्धु-विद्रोह आदिका । पहिले मार्गका आदर्श मनुष्य जातिको उच्च व शुद्ध अवस्था में ले जाता है, जब कि दूसरे मार्गका आदर्श मनुष्यको दुःखित और नीच अवस्था में ले जाता है 1 इसलिये यह हर मनुष्य ( गृहस्थ ) के लिये अत्यन्त आव श्यक है कि जहाँतक मुमकिन हो सके, वहाँतक वह हिंसाकृत कार्यों की कमी करता रहे। कारण कि अहिंसा इस भव और परभव, दोनों में अपार आनन्द देनेवाला तत्त्व है । यहाँ तक कि यह मनुष्यको मोक्ष प्राप्त करा सकती है। यही जैनधर्मकी अहिंसाका संक्षिप्त स्वरूप है । Page #108 --------------------------------------------------------------------------  Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : द्वितीय खण्ड Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "रस-परित और अलंकार-भूषित काव्य मनुष्य-चरित्र के भव्य भवन का निर्माण करते हैं, तो ठोस दार्शनिक तत्व उसकी नींवको श्रापाताल सुदृढ़ करते हैं।" -तत्त्व-बुभुन्सु। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड सप्तभङ्गी बास्तुत्व के स्वरूपका सम्पूर्ण विचार प्रदर्शित करनेके " लिये जैनाचार्यों ने सात प्रकारके वाक्योंकी योजना की है। वह इस भाँति है:१-स्यादस्ति कदाचित् है। २-स्यानास्ति कदाचित् नहीं है। ३-स्यादस्ति नास्त कदाचित् है और नहीं है। ४-स्यादवक्तव्यम् कदाचित् अवाच्य है। ५-स्यादस्ति अवक्तव्यम् कदाचित् है बार अवाच्य है। ६-स्यान्नास्ति श्रवक्तव्यम् कदाचित् नहीं है और अवाच्य है। ७-स्यादस्तिनास्ति श्रवक्तव्यम् कदाचित् है, नहीं है और अवाच्य है। उपरोक्त सात नयोंको घटपर उतारते हैं १-यह निश्चय है कि घट सत् है, मगर अमुक अपेक्षासे; इस वाक्यसे अमुक दृष्टिसे घटमें मुख्यतया अस्तित्व-धर्मका विधान होता है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय .................................................................................. २-यह निश्चय है कि घट असत् है, मगर अमुक अपेक्षासे; इस वाक्य द्वारा घटमें अमुक अपेक्षासे मुख्यतया नास्तित्व-धर्मका विधान होता है। __३-किसीने पूछा कि-घट क्या अनित्य और नित्य, दोनों धर्मवाला है ? उसके उत्तरमें कहना कि "हाँ, घट अमुक अपेक्षासे अवश्यमेव नित्य और अनित्य है"; इस वाक्यसे मुख्यतया अनित्य धर्मका विधान और उसका निषेध क्रमशः किया जाता है। ४-घट किसी अपेक्षासे प्रवक्तव्य है। घट अनित्य और नित्य दोनों तरहसे क्रमशः बताया जा सकता है। जैसा कि तीसरे शब्द-प्रयोगमें कहा गया है। मगर यदि क्रम विना, युगपत् ( एक ही साथ ) घटको नित्य और अनित्य बताना हो तो उसके लिये जैन-शास्त्रकारोंने नित्यानित्य या दूसरा कोई शब्द उपयोगी न समझकर इस 'श्रवक्तव्य' शब्दका व्यवहार किया है। यह भी ठीक है । घट जैसे अनित्य रूपसे अनुभवमें आता है, उसी तरह नित्य रूपसे भी अनुभवमें आता है। इससे घट, जैसे केवल अनित्य रूपमें नहीं ठहरता, वैसे ही केवल नित्य रूपमें भी घटित नहीं होता है। बल्कि वह नित्यानित्य रूप विलक्षण जातिवाला ठहरता है। ऐसी हालतमें घटके यदि यथार्थ रूपमें नित्य और अनित्य, दोनों तरहसे, क्रमशः नहीं, किन्तु एकही साथ बताना हो तो शास्त्रकार कहते हैं कि इस तरह बतानेकेलिये कोई शब्द नहीं है । अतः घट अवक्तव्य है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * सप्तभङ्गी * यो चार जो वचन-प्रकार बनाये गये, उनमेंसे मूल तो आरम्भके दो ही हैं। पिछले दो वचन - प्रकार प्रारम्भके संयोग से उत्पन्न हुए हैं। कदाचित् अमुक अपेक्षासे घट अनित्य ही है, कदाचित् अमुक अपेक्षा घट नित्य ही है, ये प्रारम्भके दो वाक्य जो अर्थ बताते हैं, वही अर्थ तीसरा वचन-प्रकार क्रमशः बताता है और उसी अर्थको चौथा वाक्य युगपत् - एक साथ बताता है । इस चौथे वाक्यपर विचार करनेसे यह समझ में आ सकता है कि घट में अवक्तव्य धर्म भी है परन्तु घटको कभी एकान्त वक्तव्य नहीं मानना चाहिये । यदि ऐसा मानेंगे तो घट जो अमुक अपेक्षासे नित्य रूप और अमुक अपेक्षा से अनित्य रूपसे अनुभव में आता है, उसमें बाधा आ जायगी । अतएव ऊपर के चारों वचन-प्रयोगों को 'स्यात्' शब्द से युक्त अर्थात् कदाचित् अमुक अपेक्षासे समझना चाहिये । इन चार वचन-प्रकारोंसे अन्य तीन वचन-प्रयोग भी उत्पन्न किये जा सकते हैं। ७६ ५ - अमुक अपेक्षासे घट नित्य होने के साथ ही अवक्तव्य भी है । ६ - अमुक अपेक्षासे घट अनित्य होने के साथ ही अवक्तव्य भी है । 19 - अमुक अपेक्षासे घट नित्यानित्य होने के साथ ही अवक्तव्य भी है । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय . - सामान्यतया घटका तीन तरहसे-नित्य, अनित्य और अवक्तव्य रूपसे विचार किया गया है । इन तीन वचन-प्रकारोंको उक्त चार वचन-प्रकारोंके साथ मिला देनेसे सात वचनप्रकार होते हैं । इन सात वचन-प्रकारोंको जैन-शास्त्रों में 'सप्तभङ्गीन्याय' कहते हैं । सप्त यानी सात और भङ्ग यानी वचन अर्थात् सात वचन-प्रकारके समूहको सप्तभङ्गी-न्याय कहते हैं । इन सातों वचनप्रयोगोंको भिन्न-भिन्न अपेक्षासे भिन्न-भिन्न दृष्टि से समझना चाहिये। किसी भी वचन-प्रकारको एकान्त दृष्टिसे नहीं मानना चाहिये । यह बात तो सरलतासे समझमें आसकती है कि यदि एक वचन-प्रकारको एकान्त दृष्टिसे मानोगे तो दूसरे वचन-प्रकार असत्य होजायेंगे। यह सप्तभङ्गी ( सात प्रयोग-वचन ) दो भागों में विभक्त की जाती है । एकको कहते हैं सकलादेश और दूसरेको विकलादेश । अमुक अपेक्षासे यह घट अनित्य ही है, इस वाक्यसे अनित्यधर्मके साथ रहते हुये घटके दूसरे धर्मों को बोधन करनेका कार्य सकलादेश करता है। सकल यानी तमाम धर्मों का आदेश यानी कहनेवाला। यह प्रमाण-वाक्य भी कहा जाता है; क्योंकि प्रमाण वस्तुके तमाम धर्मोको स्पष्ट करनेवाला माना जाता है। अमुक अपेक्षासे घट अनित्य ही है, इस वाक्यसे घटके केवल अनित्यधर्मको बतानेका कार्य विकलादेशका है। विकल यानी अपूर्ण अर्थात् अमुक वस्तु-धर्मको आदेश यानी कहनेवाला विकलादेश Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * सप्तभङ्गी * - है। विकलादेश नय-वाक्य माना गया है । नय प्रमाणका अंश है। प्रमाण सम्पूर्ण वस्तुको ग्रहण करता है और नय उसके अंशको । इस बातको प्रत्येक व्यक्ति समझता है कि शब्द या वाक्यका कार्य अर्थ-बोध करानेका होता है। वस्तु के सम्पूर्ण ज्ञानको प्रमाण कहते हैं, और उस ज्ञानको प्रकाशित करनेवाला वाक्य प्रमाण-वाक्य कहलाता है। वस्तुके किसी एक अंशके ज्ञानको नय कहते हैं, और उस एक अंशके ज्ञानको प्रकाशित करनेवाला नय-वाक्य कहलाता है। इन प्रमाण वाक्यों और नय-वाक्योंको सात विभागोंमें बाँटनेहीका नाम "सप्तभङ्गी" है *। * यह विषय अत्यन्त गहन और विस्तृत है। "सप्त नङ्गीतरङ्गिणी" नामक जैन-तर्क-ग्रन्थमें इस विषयका प्रतिपादन किया गया है । "सम्मति. तर्क-प्रकरण" आदि जैन-न्याय शास्त्रों में इस विषयका बहुत गम्भीरतासे विचार किया गया है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद (स्याबाद-दर्शन) भारतीय प्राचीन तथा अर्वाचीन कतिपय दार्शनिक विद्वानों 13 2 ने जैनदर्शनके अनेकान्तवादका जो स्वरूप सभ्य संसारके सामने रक्खा है, वह उसका यथार्थ स्वरूप नहीं है। उन्होंने अनेकान्तवादका स्वरूप-प्रदर्शन और उसके प्रतिवादात्मक आलोचना करते समय, बहुधा साम्प्रदायिक विचारोंसे ही काम लिया है अर्थात् साम्प्रदायिकत्व मोहके कारण ही कितनेक विद्वानोंने अनेकान्तवादको संदिग्ध तथा अनिश्चितवाद कहकर उसे पदार्थ-निर्णयमें सर्वथा अनुपयोगी और उन्मत्त पुरुषोंका प्रलापमात्र बतला दिया है । पर वास्तवमें बात यह है कि अनेकान्तवादका सिद्धान्त बड़ा ही सुव्यवस्थित और परिमार्जित सिद्धान्त है। इसका स्वीकार मात्रजैनदर्शनने ही नहीं किया है, बल्कि अन्यान्य दर्शन-शास्त्रोंमें भी इसका बड़ी प्रौढ़तासे समर्थन किया गया है कि अनेकान्तवाद वस्तुतः अनिश्चित एवं संदिग्धवाद नहीं, किन्तु वस्तुस्वरूपके अनुरूप सर्वाङ्गपूर्ण एक सुनिश्चित सिद्धान्त है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अनेकान्तवाद * matmanenanciation अन्य विद्वानोंकी अनेकान्तवादपर सम्मतियाँ अंग्रेजीके प्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर "थामस"का कथन है कि न्याय-शास्त्रमें जैन-न्यायका स्थान बहुत ऊँचा है । इसके कितने ही तर्क पाश्चात्य तर्क-शास्त्रके नियमोंसे बिलकुल मिलते हुए हैं। स्याद्वादका सिद्धान्त बड़ा ही गम्भीर है। यह वस्तुकी भिन्न-भिन्न स्थितियोंपर अच्छा प्रकाश डालता है। जैन-तत्त्वज्ञान की प्रधान नीव स्याद्वाद-दर्शनपर स्थित है। डाक्टर हर्मन जेकोबीका कथन है कि इसी स्याद्वादके ही प्रतापसे महावीरने अपने प्रतिद्वन्द्वियोंको परास्त करनेमें अपूर्व सफलता प्राप्त की थी। "अज्ञेयवाद"के बिलकुल प्रतिकूल इसकी रचना की गई है। अनेकान्तवादका स्वरूप अनेकान्तवाद जैनदर्शनका मुख्य विषय है। जैनतत्त्वज्ञान की सारी इमारत अनेकान्तवादके सिद्धान्तपर अवलम्बित है। वास्तवमें इसे जैनदर्शनका मूल सिद्धान्त समझना चाहिये । 'अनेकान्त' शब्द एकान्तत्व-सर्वथात्व-सर्वथा-एकमेव, इस एकान्त निश्चयका निषेधक और विविधताका विधायक है। सर्वथा एक ही दृष्टिसे पदार्थके अवलोकन करनेकी पद्धतिको अपूर्ण समझकर ही जैनदर्शनमें अनेकान्तवादको मुख्य स्थान दिया गया है । अनेकान्तवादका अर्थ है-वस्तुका भिन्न-भिन्न दृष्टि-विन्दुओंसे Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय विचार करना, देखना या कहना । अनेकान्तवादका एक ही शब्दमें हम अर्थ करना चाहें तो उसे 'अपेक्षावाद' कह सकते हैं । एक ही वस्तुमें अमुक-अमुक अपेक्षासे भिन्न-भिन्न धर्मों को स्वीकार करने हीका नाम अनेकान्तवाद यानी स्याद्वाद है। जैसे एक ही पुरुष भिन्न-भिन्न लोगोंकी अपेक्षासे पिता, पुत्र, चाचा, भतीजा, पति, मामा, भानेज आदि माना जाता है । इसी प्रकार एक ही वस्तुमें भिन्न-भिन्न अपेक्षासे भिन्न-भिन्न धर्म माने जाते हैं। एक ही घटमें नित्यत्व और अनित्यत्व आदि विरुद्ध रूपमें दिखाई देनेवाले धर्मको तद्र पमें ही स्वीकार करनेका नाम एकान्तवाद-दर्शन है। स्याद्वाद, अपेक्षावाद और कथंचिद्वाद अनेकान्तवादके ही पर्याय -समानार्थवाची शब्द हैं। जैनदर्शन किसी भी पदार्थको एकान्त नहीं मानता। उसके मतसे पदार्थमात्र ही अनेकान्त है। केवल एक ही दृष्टि से किये गये पदार्थ-निश्चयको जैनदर्शन अपूर्ण समझता है। उसका कथन है कि वस्तुका स्वरूप ही कुछ ऐसे ढङ्गका है कि वह एक ही समयमें एक ही शब्दके द्वारा पूर्णतया नहीं कहा जा सकता। एक ही पुरुप अपने पुत्रकी अपेक्षासे पिता, अपने भतीजे की अपेक्षासे चचा और अपने चचाकी अपेक्षासे भतीजा होता है। इस प्रकार परस्पर दिखाई देनेवाली बातें भी भिन्नभिन्न अपेक्षाओंसे एक ही मनुष्यमें स्थित रहती हैं । यही हालत प्रायः सभी वस्तुओंकी है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * अनेकान्तवाद * सभी वस्तुओंमें सत्, असत्, नित्य और अनित्य आदि गुण पाये जाते हैं। ८५ मान लीजिये एक घड़ा है। हम देखते हैं कि जिस मिट्टी से घड़ा बना है, उसीसे और भी कई प्रकारके बर्तन बनते हैं । पर यदि उस घड़ेको फोड़कर हम उसी मिट्टीका बनाया हुआ कोई दूसरा पदार्थ किसीको दिखलावें तो वह कदापि उसको घड़ा नहीं कहूंगा। उसी मिट्टी और द्रव्यके होते हुए भी उसको घड़ा न कहनेका कारण यह है कि उसका आकार घड़ेका-सा नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि घड़ा मिट्टीका एक आकार - विशेष है । मगर यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि आकार - विशेष मिट्टी से सर्वथा भिन्न नहीं हो सकता। आकार परिवर्तित की हुई मिट्टी ही जब घड़ा, सिकोरा, मटका आदि नामोंसे सम्बोधित होती है तो उसी स्थिति में आकार मिट्टी से सर्वथा भिन्न नहीं कहे जा सकते। इससे साफ जाहिर है कि घड़ेका आकार और मिट्टी, ये दोनों घड़ेके स्वरूप हैं । अब देखना यह है कि इन दोनों स्वरूपों में विनाशी रूप कौनसा है और ध्रुव कौनसा है ? यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है कि घड़ेका आकार स्वरूप विनाशी है; क्योंकि उसके कई रूप बनते और बिगड़ते रहते हैं । और घड़ेका जो दूसरा स्वरूप मिट्टी है, वह अविनाशी है; क्योंकि उसका नाश होता ही नहीं । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय ...... ........aaivanandinior इतने विवेचनसे हम इस बातको स्पष्ट समझ सकते हैं कि घड़ेका एक स्वरूप विनाशी है और दूसरा ध्रुव । इसी बातको यदि हम यों कहें कि विनाशी रूपसे घड़ा अनित्य है और ध्र व रूपसे नित्य है तो कोई अनुचित न होगा। इसी तरह एक ही वस्तुमें नित्यता और अनित्यता सिद्ध करनेवाले सिद्धान्त ही को अनेकान्तवाद कहते हैं। ____ अनेकान्तवादकी सीमा केवल नित्य और अनित्य, इन्हीं दो बातों में समाप्त नहीं हो जाती; सत् और असत् आदि दूसरे विरुद्ध रूपमें दिखलाई देनेवाली बातें भी इस तत्त्वज्ञान के अन्दर सम्मिलित हो जाती हैं। घड़ा आँखोंसे स्पष्ट दिखलाई देता है। इससे हर कोई सहज ही कह सकता है कि "वह सत् है", मगर न्याय कहता है कि अमुक दृष्टिसे वह असत् भी है। यह बात बड़ी गम्भीरताके साथ मनन करने योग्य है कि प्रत्येक पदार्थ किन बातोंके कारण सत् कहलाते हैं । रूप, रस, गन्ध, आकारादि अपने ही गुणों और अपने ही धर्मोंसे, प्रत्येक पदार्थ सत होता है। दूसरेके गुणोंसे कोई पदार्थ सत नहीं कहलाता। एक स्कूलका मास्टर अपने विद्यार्थीकी दृष्टिसे मास्टर कहलाता है, एक पिता अपने पुत्रकी दृष्टिसे पिता कहलाता है, पर वही मास्टर और वही पिता दूसरोंकी दृष्टि से मास्टर या पिता नहीं कहला सकते। जैसे स्वपुत्रकी अपेक्षासे जो पिता होता है, वही परपुत्रकी अपेक्षासे पिता नहीं होता है। उसी तरह अपने Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड *अनेकान्तवाद * गुणोंसे, अपने धर्मसे, अपने स्वरूपसे जो पदार्थ सत् है, वही दूसरे पदार्थके धर्मसे, और गुणसे और स्वरूपसे 'सत्' नहीं हो सकता । जो वस्तु सत् नहीं है, उसे असत् कहने में कोई दोष उत्पन्न नहीं हो सकता। ___ इस प्रकार भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे वस्तुको सत् और असत् कहने में विचारशील विद्वानोंको कोई वाधा उपस्थित नहीं हो सकती। एक कुम्हार है । वह यदि कहे कि मैं सुनार महीं हूँ तो इस बातमें वह कुछ भी अनुचित नहीं कह रहा है। मनुष्यकी दृष्टिसे यद्यपि वह सत् है तथापि सुनारकी दृष्टिसे वह असत् है । इस प्रकार अनुसन्धान करनेसे एक ही व्यक्तिमें सत् और असत्का अनेकान्तवाद बराबर सिद्ध होजाता है। किसी वस्तुको असत् कहनेसे मतलब यह नहीं है कि हम उसके सत्-धर्मके विरुद्ध कुछ बोल रहे हैं। ___ जगत्के सब पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश, इन तीन धर्मों से युक्त हैं। उदाहरणकेलिए-एक लोहेकी तलवार ले लीजिये, उसको गलाकर उसकी कटारी बना लो । इससे यह स्पष्ट होगया कि तलवारका विनाश होकर कटारीकी उत्पत्ति होगई; लेकिन इससे यह नहीं कहा जासकता कि तलवार बिलकुल ही नष्ट होगई अथवा कटारी बिलकुल नई बन गई । क्योंकि तलवार और कटारीमें जो मूल तत्त्व है,वह तो अपनी उसी स्थितिमें मौजूद है। विनाश और उत्पत्ति तो केवल आकारकी ही हुई है। इस उदा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय हरणसे, तलवारको तोड़कर कटारी बनानेमें, तलवारके श्राकारका नाश, कटारीके आकार की उत्पत्ति और लोहेकी स्थिति, ये तीनों बातें भलीभाँति सिद्ध होजाती हैं। वस्तुमें उत्पत्ति, स्थिति और विनाश, ये तीन गुण स्वभावतया ही रहते हैं । कोई भी वस्तु जब नष्ट होजाती है तो इससे यह न समझना चाहिये कि उसके मूल तत्त्व ही नष्ट होगये । उत्पत्ति और विनाश तो उसके स्थूल रूपके होते हैं । सूक्ष्म परमाणु तो हमेशा स्थित रहते हैं । वे सूक्ष्म परमाणु, दूसरी वस्तु के साथ मिलकर नवीन रूपोंका प्रादुर्भाव करते रहते हैं। जैसे सूर्य की किरणोंसे पानी सूख जाता है, पर इससे यह समझ लेना भूल है कि पानीका अभाव हो गया है । पानी चाहे किसी रूप में क्यों न हो, बराबर स्थित है। यह हो सकता है कि उसका वह सूक्ष्म रूप हमें दिखाई न दे, पर यह तो कभी सम्भव नहीं कि उसका अभाव होजाय । यह सिद्धान्त अटल है कि न तो कोई मूल वस्तु नष्ट ही होती है और न नवीन उत्पन्न ही होती है । इन मूल तत्त्वोंसे जो अनेक प्रकारके परिवर्तन होते रहते हैं, वह विनाश और उत्पाद हैं। इससे सारे पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश, इन तीन गुणोंवाले सिद्ध होते हैं । ८८ आधुनिक पदार्थ विज्ञानका भी यही मत है। वह कहता है कि " मूल प्रकृति ध्रुव - स्थिर है और उससे उत्पन्न होनेवाले पदार्थ उसके रूपान्तर - परिणामान्तर मात्र हैं"। इस प्रकार उत्पत्ति, स्थिति और विनाशके जैन सिद्धान्तका विज्ञान भी पूर्ण समर्थन करता है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ears ] * अनेकान्तवाद * इन तीनों गुणों में से जो मूल वस्तु सदा स्थित रहती है, उसे जैन शास्त्रमें 'द्रव्य' कहा है, एवं जिसकी उत्पत्ति और नाश होता है, उसको 'पर्याय' कहते हैं। द्रव्यकी अपेक्षासे हर एक वस्तु नित्य है और पर्यायसे नित्य है । इस प्रकार प्रत्येक पदार्थको न एकान्तनित्य और न एकान्त-अनित्य, बल्कि नित्यानित्य रूपसे मानना ही अनेकान्तवाद है । τε इसके सिवाय एक वस्तु के प्रति सत् और असत् का सम्बन्ध भी ध्यान में रखना चाहिये । ऊपर लिखा जा चुका है कि एक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे सत् है और दूसरी वस्तुके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे वही असत् है | जसे वर्षा ऋतु में इन्दौर के अन्तर्गत मिट्टीका बना हुआ लाल घड़ा है । यह द्रव्यसे मिट्टीका है - मृत्तिका रूप है, जल रूप नहीं | क्षेत्र से इन्दौरका है, दूसरे क्षेत्रोंका नहीं । कालसे वर्षा ऋतुका है, दूसरे समयका नहीं। और भावसे लालवर्ण वाला है, दूसरे वर्णका नहीं। संक्षेप में प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप ही से 'आस्ति' कही जा सकती है। दूसरेके स्वरूपसे वह नास्ति ही कहलायगी । कोई कहता है कि संसार में जीव है, कोई कहता है कि जीव नहीं है कोई जीवको एक रूप और कोई अनेक रूप कहता है; कोई जीवको नित्य और कोई नित्य कहता है । इस प्रकार अनेक नय हैं। कोई किसीसे नहीं मिलते, परस्पर विरुद्ध हैं और जो सब नयों को साधता है, वह 'स्याद्वाद' है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. * जेल में मेरा जैनाभ्यास [द्वितीय ANWAAAAAAAA ....... ............ ....Anas कोई जीव पदार्थको अस्ति स्वरूप और कोई जीव पदार्थको नास्ति रूप कहते हैं। अद्वैतवादी जीवको एक ब्रह्म रूप कहते हैं, नैयायिक जीवको अनेक रूप कहते हैं, बौद्ध मतवाले जीवको अनित्य कहते हैं, सांख्य मतवाले शास्वत अर्थात् नित्य कहते हैं। पर ये सब परस्पर-विरुद्ध हैं, कोई किसीसे नहीं मिलते, पर स्याद्वादी सब नयोंको अविरुद्ध साधता है। प्रश्न-जगत्में जीव स्वाधीन है कि पराधीन ? जीव एक है अथवा अनेक ? जीव सदा काल है अथवा कभी जगत्में नहीं रहता है ? जीव अविनाशी है अथवा नाशवान है ? उत्तर-द्रव्य-दृष्टिसे देखो तो जीव स्वाधीन है, एक है, सदा काल है और अविनाशी है । पर्याय-दृष्टि से पराधीन, अनेक रूप, क्षणभङ्गुर और नाशवान् है । अतः जहाँ जिस अपेक्षासे कहा गया है, उसे प्रमाण करना चाहिये । जब जीवकी कर्म-रहित शुद्ध अवस्थापर दृष्टि डाली जाती है, तब वह स्वाधीन है; जब उसकी कर्माधोन दशापर ध्यान दिया जाता है, तब वह पराधीन है । लक्षणकी दृष्टिसे सब जीव द्रव्य एक है; संख्याकी दृष्टि से अनेक हैं। जीव था, जीव है, जीव रहेगा, इस दृष्टिसे जीव सदा काल है; जीव गतिसे गत्यन्तरमें जाता है, इसलिये एक गतिमें सदा काल नहीं है । जीव पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता, इसलिये वह अविनाशी है; क्षण-क्षणमें परिणमन करता है, इसलिये वह भनित्य है। जैनदर्शन एक ही Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · खण्ड ] * अनेकान्तवाद * रूपसे वस्तुको सत् और असत् नहीं मानता किन्तु सत् वस्तुको वह उसके स्वभावकी अपेक्षा कहता है और असत् (अस्वभाव रूप ) अन्य वस्तुकी अपेक्षास कथन करता है । इस तत्त्वके स्पष्टीकरणार्थ ही जैनदर्शन में स्वरूप और पररूप, इन दो शब्दोंका विधान किया है। स्वरूपकी अपेक्षा वस्तुमें सत् और पररूपकी अपेक्षा असत् । इनके अलावा भाव, अभाव, नित्य, अनित्य स्वरूप ही जैनदर्शनको अभिमत है । इस विषयको चर्चा करते हुए कुछ जैन विद्वानोंने जो सिद्धान्त स्थिर किया है उसका सारांश इस प्रकार है: १ १ - हम एक ही रूप में वस्तु सत् और असत् का अंगीकार नहीं करते, जिससे विरोधकी सम्भावना हो सके, किन्तु सत् उसमें स्वरूपकी अपेक्षा और अनंत परम्पकी अपेक्षासे है; इसलिये विरोधकी कोई आशंका नहीं । - मल्लिपेण सूरि । २ - नित्यानित्य होने से वस्तु जैसे अनेकान्त है, वैसे ही सद सत रूप होने से भी अनेकान्त है। तात्पर्य यह कि वस्तु नित्यानित्य की तरह सन् असत् रूप भी हैं। शंका- यह कथन विरुद्ध है, एक ही वस्तु सत् और असत् नहीं हो सकती, सत् असत्का विनाशक है और असत् सन्का विरोधी है। यदि ऐसा न हो तो सत् और असत् दोनों एक ही हो जावेंगे। अतः जो सत् है वह असत् कैसे और जो असत् है वह सत् कैसे Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय कहा जा सकता है। इसलिये एक ही वस्तुको सत् भी मानना और असत् भी स्वीकार करना अनुचित है ? (समाधान-) यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि यदि हम एक ही रूपसे वस्तुमें सत् और असत्को अंगीकार करें तब तो विरोध हो सकता है, परन्तु हम ऐसा नहीं मानते । तात्पर्य यह कि जिस रूपसे वस्तुमें सत् है उसी रूपसे यदि उसमें असत् मानें तथा जिस रूपसे असत् है उसी रूपसे सत्को स्वीकार करें तब तो विरोध हो सकता है। परन्तु हम तो वस्तुमें जिस रूपसे सत् मानते हैं उसके भिन्न रूपसे उसमें असत्का अंगीकार करते हैं अर्थात् स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा उसमें सत् और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा असत् है । इसलिये अपेक्षा भेदसे सत् असत् दोनों ही वस्तुमें अविरुद्धतया रहते हैं, इसमें विरोधकी कोई आशंका नहीं है। -रत्नप्रभाचार्य । वस्तुमात्रमें सामान्य और विशेष ये दो धर्म पाये जाते हैं। सामान्य धर्म उसके सत्गुणका सूचक है, और विशेष धर्म उसके असतगुणका सूचक । जैसे सौ घड़े हैं, सामान्य दृष्टिसे वे सब घड़े हैं; इसलिये सत् हैं। मगर लोग उनमेंसे भिन्न-भिन्न घड़ोंको पहिचानकर जब उठा लेते हैं तब यह मालूम होता है कि प्रत्येक घड़े में कुछ-न-कुछ विशेषता या भिन्नता है। यही. विशेषता या भिन्नता ही उनका विशेष गुण है। जब कोई । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * अनेकान्तवाद * १३ मनुष्य अकस्मात् दूसरे घड़ेको उठा लेता है और यह कहकर कि यह मेरा नहीं है, वापस रख देता है । उस समय उस घड़ेका नास्तित्व प्रमाणित होता है, 'मेरा'के आगे जो 'नहीं' शब्द है वहीं नास्तित्वका सूचक है। यह घड़ा है, इस सामान्य धर्मसे घड़ेका अस्तित्व साबित होता है। मगर यह घड़ा मेरा नहीं है, इस विशेष धर्मसे उसका नास्तित्व भी साबित होता है । अतः सामान्य और विशेष धर्मके अनुसार प्रत्येक वस्तु को सत् और असत् समझना ही अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद है। ® यह विषय बहुत ही गहन है। इसकी विशेष जानकारीकेलिये । हरिभद्रसूरिजीका 'अनेकान्तजयपताका' और कुन्दकुन्दाचार्यजीका 'प्रवचन सार', 'समयसार' भादि प्रन्थ पढ़ने चाहिये । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य-पर्याय अधिकार न वस्तुयें अनादि कालसे चली आती हैं, जिनकी न कभी 3 उत्पत्ति हुई, न कभी जिनका नाश हुआ और न होगा, उनको "द्रव्य” कहते हैं । ये अनादिकालसे अकृत्रिम और अनेक हैं। कोई भी नवीन द्रव्य, जिसका कि पहिलं अस्तित्व न था, कभी अस्तित्वमें नहीं आ सकता। जो वस्तु, गुण और पर्यायसे युक्त होती है, उसे द्रव्य कहते हैं । द्रव्य कभी नाश नहीं होता पर उसकी पर्याय ( हालत) परिवर्तन होती रहती है। जैनशास्त्रों में मुख्य द्रव्य दो प्रकारके बतलाय हैं:१-चेतन-जीव-आत्मा। २-जड़-अजीव-पुद्गल । १-जीव द्रव्यका हम आगे अलग अधिकारमें वणन करेंगे। २-अजीव द्रव्य मुख्य पाँच प्रकारक हैं, जो निम्न प्रकार हैं: (१) पुद्गल (Matter ), (२) धर्मास्तिकाय (Modium of Motion), (३) अधर्मास्तिकाय ( Medium of rest ), (४) काल (Time) और (५) आकाश (Shace)। इन पाँचोंमें सिर्फ पुद्गल मूर्तीक है और शेष अमूर्तीक हैं। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * द्रव्य-पर्याय अधिकार * Sanam . ..........ranAAAAAAADIAADILLIALA - १-संसारमें जितना पुद्गल है अर्थात् Matter है वह न कभी बढ़ता है और न कभी घटता है। वह किसी न किसी रूपमें संसारमें ही रहता है और इतना ही रहता है। शास्त्रकारोंने पुद्गलको मुख्य चार भागोंमें विभाजित किया है । वह इस प्रकार है:(१) वर्ण-रंग, (२) रस, (३) गन्ध और (४) स्पर्श । (१) वर्ण यानी रंगके पाँच प्रकारके पुद्गल होते हैं: ___ कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत । (२) रसके पाँच प्रकारके पुद्गल होते हैं: खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चिरपरा । . (३) गन्धके दो प्रकारके पुद्गल होते हैं: ___ मुगन्ध और दुर्गन्ध । (४) स्पर्शके आठ प्रकारके पुद्गल होते हैं: कोमल, कठोर, हलका, भारी, शीत, उष्ण, चिकना और रूखा। २-धर्मास्तिकाय वह अरूपी ताक़त (Eorce) है, जो जीवको चलने फिरनेमें मदद देती है। जैसे-पानी मछलीको तैरने में सहायक होता है। ३-अधर्मास्तिकाय वह अरूपी ताकत (Ic.ree) है, जो चलते हुए जीवको रुक जानेपर रोकती है। जैसे-गरमी व धूपमें Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय चलता हुआ पथिक पेड़की छायामें रुक जाता है और बादमें चलने में हिचकिचाता है । उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय चलते हुए जीवको रोकती है। ४ – कालका नयेको पुराना बनानेका स्वभाव है । दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि जो द्रव्यों के परिवर्तनरूप - परिणामरूप में देखा जाता है, वह तो व्यवहार काल है और वर्त्तनालक्षण का धारक जो काल है, वह निश्चय काल है । ५ - जो जीव आदि द्रव्योंको अवकाश देनेवाला है, उसको आकाश कहते हैं। वह लोकाकाश और अलोकाकाश, इन दो भेदोंसे दो प्रकारका है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गल और जीव ये पाँचों द्रव्य जितने आकाशमें हैं, वह तो लोकाकाश है और उस लोकाकाशके आगे यानी परे अलोकाकाश है। नोट- उपरोक्त जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाश - ये पाँचों द्रव्य विद्यमान हैं, इसलिये शास्त्रकारोंने इनको 'अति' ऐसा कहा है । और यह कायके समान बहु प्रदेशों को धारण करते हैं; इसलिये इनको 'काय' कहते हैं । अस्ति तथा काय रूप होनेसे इन पाँचों को “पञ्चास्तिकाय " कहते हैं । जीव, धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय द्रव्यमें असंख्यात प्रदेश हैं और आकाश में अनन्त हैं। मूर्त्त ( पुद्गल ) में संख्यात, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ► खण्ड ] * द्रव्य पर्याय अधिकार # असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश हैं और कालका एक ही प्रदेश है, इसलिये काल काय नहीं है । ६७ समस्त लोक में जीव, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गल ( ऊपर बताये हुए गन्ध, वर्ण, रस, स्पर्श के अलावा कर्मों के पुद्गल आदि ) ठसाठस भरे हुए हैं। अमुक व्यक्ति प्रश्न करता है कि क्या ये आपस में मिल नहीं जाते ? उत्तर - हर द्रव्यके रूपी अथवा अरूपी परमाणु एक दूसरे से मिले हुये भी हैं और साथ-साथ अलहदा भी हैं। उदाहरणार्थ, किसी कमरे में अनेक दीये बला दो, हरएककी रोशनी एक दूसरे के साथ मिल जायगी और अगर एक दीयेको अलग उठा लाओ तो उसकी रोशनी भी अलग हो जायगी। इसी प्रकार जो तमाम द्रव्य आपस में मिले हुये हैं, पर जहाँ जिसकी आवश्यकता होती है, वहाँ वह एक दीयेकी रोशनी के समान जुदा होजाता है । शास्त्रकारोंने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, इस प्रकार अस्तिकाय तीन बतलाई हैं । धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, तीनों लोकों में व्याप्त हैं । इनके प्रत्येकके कुछ विभागको 'देश' कहते हैं; और जो सिर्फ एक प्रदेशावलम्बन करता है, उसे 'प्रदेश' कहते हैं । कालका कोई हिस्सा नहीं होता है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शके पुद्गलोंका समस्त पिण्ड जो लोक में भरा है, उसे 'स्कन्ध' कहते हैं। उसके विभागको 'देश' Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 ** जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय - कहते हैं, जो प्रदेशावलम्बन करता है अर्थात् दो आदि परिमाणु मिल रहे हैं, उसे 'प्रदेश' कहते हैं, और जो छोटेसे छोटा हिस्सा, जिसका भाग न हो सके, उसे 'परिमाणु' कहते हैं। पुद्गलके परिणमन दो प्रकारके हैं-एक सूक्ष्म परिणमन और दूसरा स्थूल परिणमन। उसके अनन्त सूक्ष्म परिणमन श्राकाशके एक ही प्रदेशमें आसकते हैं। ___ काल-द्रव्य लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशमें है और वह एक-एक अणु रूप है तथा भिन्न-भिन्न रहता है। पुद्गल परिमागुकी अवगाहनाके बराबर ही इसकी अवगाहना है । इसके अणु लोकाकाशके प्रदेशोंकी बराबर ही असंख्यात हैं और रत्नोंकी राशिके समान भिन्न-भिन्न हैं, तथा निष्क्रिय हैं । काल-द्रव्य अनन्त समय वाला है । यद्यपि वर्तमानकाल एक समय मात्र है परन्तु भूत, भविष्य और वर्तमानकी अपेक्षा अनन्त समय वाला है। 'समय' कालकी पर्यायका सबसे छोटा अंश है। इसके समूहस आवलो, घटिका इत्यादि निश्चयकाल द्रव्य की पर्याय हैं। व्यवहारकाल-दिन, रात यावत् सागरोपमादि काल का परिमाण सूर्यके गमनागमनसे होता है। यह सव ज्योतिषियोंका गमनागमन अढाई द्वीप ( मनुष्य लोक)के अन्दर ही है। यहाँके कालसे ही सब स्थानोंका काल-प्रमाण किया है। यह व्यवहारकाल है। मृत्युकाल सिद्ध भगवानके सिवाय सबके लगा हुआ है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय अधिकार शाक ही वस्तुके विषयमें भिन्न-भिन्न दृष्टि-विन्दुओंसे उत्पन्न * होने वाले भिन्न-भिन्न यथार्थ अभिप्रायको 'नय' कहते हैं । एक ही मनुष्य भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे काका, भतीजा, मामा, भानेज, पुत्र, पिता, ससुर, जमाई आदि समझा जाता है; यह नयके सिना और कुछ नहीं है । हम यह बता चुके हैं कि वस्तुमें एक ही धर्म नहीं है। अनेक धर्मवाली वस्तुमें अमुक धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाला जो अभिप्राय बंधता है, उसको जैन-शास्त्रोंमें 'नय' संज्ञा दी है। वस्तुमें जितने धर्म हैं, उनसे सम्बन्ध रखनेवाले जितने अभिप्राय हैं, वे सब 'नय' कहलाते हैं। इस बातको सब मानते हैं कि आत्मा नित्य है और यह बात भी ठीक है, क्योंकि इसका नाश नहीं होता है। मगर इस बातका सबको अनुभव हो सकता है कि उसका परिवर्तन विचित्र तरहसे होता है। कारण, आत्मा किसी समय पशु अवस्थामें होती है, किसी समय मनुष्य-स्थिति प्राप्त करती है, कभी देवगतिकी भोक्ता बनती है, यह कितना परिवर्तन है ? एक ही आत्माकी यह कैसी विलक्षण अवस्था है ? यह क्या बताती है ? Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय - - आत्माकी परिवर्तनशीलता। एक शरीरके परिवर्तनसे भी यह समझमें आसकता है कि आत्मा परिवर्तनकी घटमालामें फिरती रहती है; ऐसी स्थितिमें यह नहीं माना जासकता है कि आत्मा सर्वथा एकान्त नित्य है। अतएव यह माना जासकता है कि आत्मा न एकान्त नित्य है और न एकान्त अनित्य है, बल्कि नित्यानित्य है। इस दशामें जिस दृष्टिसे आत्मा नित्य है वह, और जिस दृष्टिसे अनित्य है वह, दोनों ही दृष्टियाँ 'नय' कहलाती हैं। यह बात सुस्पष्ट और निस्सन्देह है कि आत्मा शरीरसे जुदी है, तो भी यह ध्यानमें रखना चाहिये कि आत्मा शरीरमें ऐसे हो व्याप्त हो रही है, जैसे कि मक्खनमें घृत । इसीसे शरीरके किसी भी भागमें जब चोट लगती है, तब तत्काल ही आत्माको वेदना होने लगती है। शरीर और आत्माकं ऐसे प्रगाढ़ सम्बन्ध को लेकर जैनशास्त्रकार कहते हैं कि यद्यपि अात्मा शरीरसे वस्तुतः भिन्न है तथापि सर्वथा भिन्न नहीं । यदि सर्वथा भिन्न मानें तो आत्माको शरीरपर आघात लगनेसे कुछ कष्ट न होता, जैसा कि एक आदमी को आघात पहुँचनेसे दूसरे आदमीको कष्ट नहीं होता है। परन्तु अनुभव यह सिद्ध करता है कि शरीरपर आघात होनेसे आत्माको उसकी वेदना होती है; इसलिये इसी अंशमें श्रात्मा और शरीरको अभिन्न भी मानना होगा अर्थात् शरीर और आत्मा भिन्न होनेके साथ ही कदाचित् अभिन्न भी हैं। इस Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नय अधिकार * १०१ स्थितिमें जिस दृष्टिसे आत्मा और शरीर भिन्न हैं वह, और जिस दृष्टिसे आत्मा और शरीर अभिन्न हैं वह, दोनों दृष्टियाँ 'नय' कहलाती हैं। ___ जो अभिप्राय ज्ञानसे मोक्ष होना बतलाता है, वह ज्ञाननय है और जो अभिप्राय क्रियासे मोक्ष सिद्ध बतलाता है, वह क्रियानय है, ये दोनों ही अभिप्राय नय हैं। ___ जो दृष्टि, वस्तुकी तात्त्विक स्थितिको अर्थात् वस्तुके मूल स्वरूपको स्पर्श करनेवाली है, वह निश्चयनय है और जो दृष्टि वस्तुकी बाह्य अवस्थाकी ओर लक्ष्य खींचती है, वह व्यवहारनय है। निश्चयनय बताता है कि आत्मा (संसारी जीव) शुद्धबुद्ध-निरञ्जन-सच्चिदानन्दमय है और व्यवहारनय बताता है कि आत्मा, कर्मवद्ध अवस्थामें मोहवान-अविद्यावान् है । इस प्रकारके निश्चय और व्यवहारके अनेक उदाहरण हैं। अभिप्राय बनाने वाले शब्द, वाक्य, शास्त्र या सिद्धान्त सब नय कहलाते हैं । उक्त नय अपनी मर्यादामें माननीय हैं । परन्तु यदि वे एक दूसरेको असत्य ठहरानेकेलिये तत्पर होते हैं तो अमान्य हो जाते हैं। जैसे ज्ञानसे मुक्ति बतानेवाला सिद्धान्त और क्रियासे मुक्ति बतानेवाला सिद्धान्त, ये दोनों सिद्धान्त स्वपक्षका मण्डन करते हुए यदि वे एक दूसरेका खण्डन करने लगें तो तिरस्कारके पात्र हैं। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय यह समझ रखना चाहिये कि नय आंशिक सत्य है, आंशिक सत्य सम्पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता है। आत्माको नित्य या अनित्य मानना साशमें सत्य नहीं हो सकता है । जो सत्य जितने अंशोंमें हो, उसको उतने ही अंशोंमें मानना युक्त है। इसकी गिनती नहीं हो सकती है कि वस्तुतः नय कितने हैं। अभिप्राय या वचन-प्रयोग जब गणनासे बाहर हैं, तब नय जो उनसे जुदा नहीं हैं, कैसे गणनाके अन्दर हो सकते हैं-नयों की भी गिनती नहीं हो सकती है। ऐसा होनेपर भी नयोंक मुख्यतया दो भेद बताये गये हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । मूल पदार्थको द्रव्य कहते हैं, जैसे घड़ेकी मिट्टी । मूल द्रव्यके परिणामको पर्याय कहते हैं । मिट्टी अथवा अन्य किसी द्रव्यमें जो परिवर्तन होता है, वे सब पर्याय हैं। द्रव्यार्थिकका मतलब है-मूल पदार्थोंपर लक्ष्य देनेवाला अभिप्राय और पर्यायार्थिक नय का मतलब है-पर्यायोंपर लक्ष रखनेवाला अभिप्राय । द्रव्यार्थिक नय सब पदार्थों को नित्य मानता है। जैसे-घड़ा, मूल द्रव्य मृत्तिका रूपसे नित्य है । पर्यायार्थिक नय सब पदार्थों को अनित्य मानता है। जैसे-स्वर्णकी माला, जंजीर, कड़े, अंगूठी आदि पदार्थों में परिवर्तन होता रहता है । इस अनित्यत्वको परिवर्तनजितना ही समझना चाहिये, क्योंकि सर्वथा नाश या सर्वथा अपूर्व उत्पाद किसी वस्तुका कभी नहीं होता है। प्रकारान्तरसे नयके सात भेद बताये गये हैं: Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * नय अधिकार * १०३ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूतनय । नैगम-इसका अर्थ है संकल्प-कल्पना। कल्पनासे जो वस्तु व्यवहार में आती है, वह 'नैगमनय' कहलाता है। यह नय तीन प्रकारका होता है-भूत नैगम, भविष्य नैगम और वर्तमान नेगम । जो वस्तु हो चुकी है उसका वर्तमान रूपमें व्यवहार करना भूत नैगम है। जैसे-आज वही दिवालीका दिन है कि जिस दिन महावीर भगवान् मोक्ष गये थे। यह भूतकालका वर्तमान में उपचार है। महावीरके निर्वाणका दिन आज (दिवालीका दिन ) मान लिया जाता है। इस तरह भूतकालके वर्तमानमें उपचारकं अनेक उदाहरण हैं। होनेवाली वस्तुको हुई कहना भविष्य नंगम है । जैस-चावल पूरे पके न हों, पक जानेमें थोड़ी ही देर रही हो तो उस समय कहा जाता है कि चावल पक गये हैं। ऐसे वाक्य व्यवहारमें प्रचलित हैं। अथवा अहंतदेवको मुक्त होनेके पहिले ही कहा जाता है कि मुक्त होगये, यह भविष्य नैगमनय है। ईंधन, पानी आदि चावल पकानेका सामान इकट्ठा करते हुये मनुष्यको कोई पूछे कि तुम क्या करते हो ? वह उत्तर दे कि मैं चावल पकाता हूँ--यह उत्तर वर्तमान नैगमनय है, क्योंकि चावल पकाने की क्रिया यद्यपि वर्तमान में प्रारम्भ नहीं हुई है तो भी वह वर्तमान रूपमें बताई गई है। ___ संग्रह - सामान्यतया वस्तुओं का समुच्चय करके कथन करना संग्रहनय है। जैसे-सारे शरीरों में आत्मा एक है। इस कथनसे Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय .......... . ARAA. वस्तुतः सब शरीरमें एक आत्मा सिद्ध नहीं होती है, प्रत्येक शरीरमें आत्मा भिन्न-भिन्न ही.है तथापि सब आत्माओंमें रही हुई समान जातिकी अपेक्षासे कहा जाता है कि सब शरीरोंमें आत्मा एक है। व्यवहार-यह नय वस्तुओंमें रही हुई समानताकी उपेक्षा करके, विशेषताकी ओर लक्ष्य खींचती है। इस नयकी प्रवृत्ति लोक-व्यवहारकी तरफ़ है । पाँच वर्णवाले भवरेको काला भँवरा बताना इस नयकी पद्धति है। रास्ता आता है, कूडा झरता है, इन सब उपचारोंका इस नयमें समावेश हो जाता है। ऋजुसूत्र-यह नय वस्तुमें होते हुए नवीन-नवीन रूपान्तरोंकी ओर लक्ष्य आकर्षित करता है। स्वर्णका मुकट, कुण्डल आदि जो पर्यायें हैं, उन पर्यायोंको यह नय देखता है। पर्यायके अलावा स्थायी द्रव्यकी ओर यह नय द्रगपात नहीं करता है । इसीलिये पर्यायें विनश्वर होनेसे सदा स्थायी द्रव्य इस नयकी दृष्टि में कोई चीज़ नहीं है। शब्द-इस नयका काम है, अनेक पर्याय शब्दोंका एक अर्थ मानना । यह नय बताता है कि कपड़ा, वस्त्र, वसन आदि शब्दों का अर्थ एक ही है। ___ समभिरूढ़-इस नयकी पद्धति है कि पर्याय शब्दोंके भेद से अर्थका भेद मानना । यह नय कहता है कि कुम्म, कलश, घट आदि शब्द मिन्न अर्थवाले हैं, क्योंकि कुम्भ, कलश, घट आदि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नय अधिकार * १०५ RAMraamratamnnamanner name.... .. शब्द यदि भिन्न अर्थवाले न हों तो घट, पट, अम्ब आदि शब्द भी भिन्न अर्थवाले न होने चाहिये । इसलिये शब्दके भेदसे अर्थका भेद है। ___ एवंभूत-इस नयकी दृष्टिसे शब्द, अपने अर्थका वाचक ( कहनेवाला) उस समय होता है जिस समय वह अर्थपदार्थ उस शब्दकी व्युत्पत्तिमेंसे क्रियाका जो भाव निकलता है, उस क्रियामें प्रवृत्त हुआ हो। जैसे-"गो” शब्दकी व्युत्पत्ति है"गच्छतीति गौः” अर्थात् जो गमन करता है उसे गौ कहते हैं, मगर वह 'गो' शब्द इस नयके अभिप्रायसे प्रत्येक गऊका वाचक नहीं हो सकता है किन्तु केवल गमन क्रियामें प्रवृत्त चलती हुई गायका ही वाचक हो सकता है। इस नयका कथन है कि शब्दकी व्युत्पत्तिके अनुसार ही यदि उसका अर्थ होता है तो उस अर्थको वह शब्द कह सकता है। ___यह बात ऊपर स्पष्ट की जा चुकी है कि यह सातों नय एक प्रकारके दृष्टि-विन्दु हैं। अपनी-अपनी मर्यादामें स्थित रहकर अन्य दृष्टि-विन्दुओंका खण्डन न करनेहीमें नयोंकी साधुता है। मध्यस्थ पुरुष सब नयोंको भिन्न-भिन्न दृष्टिसे मान देकर तत्त्वक्षेत्रकी विशाल सीमाका अवलोकन करते हैं। इसलिये वे राग-द्वेषकी बाधा न होनेसे, आत्माकी निर्मल दशाको प्राप्त कर सकते हैं। सात नयोंके घटानेके वास्ते एक दृष्टान्त दिया जाता है:--- Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय __ कोई बढ़ई पायली (अनाज तोलनेका फर्मा) बनानेके ख्यालसे जंगलसे काष्ठ लेने जा रहा था। किसीने प्रश्न किया कि तुम कहाँ जाते हो ? तो बढ़ईने उत्तर दिया कि पायली बनानेको काष्ठ लेने जंगल जारहा हूँ। लकड़ी काटते समय, लकड़ी घर लाते समय, लकड़ोसे पायली बनाते समय, इत्यादि जिस समय उससे पूछा तो उसने उत्तर दिया कि पायली बनाता हूँ, यह नैगमनय है । इसपर व्यवहारनयवाला तो चुप रहा पर संग्रहनयवाला बोला कि जब इस पायलीसे नाजका संग्रह करो तब इसे पायली कहना । इसपर व्यवहारनयवाला बोला कि अभी तो तुम पायलो बना रहे हो, जब पायली बन जाय और व्यवहार-योग्य होजाय, तब उसे पायली कहना । इसपर ऋजुमूत्रनयवाला बोला कि पायली बन जानेसे पायली नहीं कही जाती, परन्तु नाजका नाप करोगे तब पायली कही जायगी। तब शब्दनयवाला बोला कि नाजका नाप करते समय एक दो ऐसे गिनी जब पायली कहना । तब समभिरूढनय वालाबोला कि किसी कायसे माप होगा, जब यह पायली कही जायगी। तब एवम्भूतनयवाला बोला कि नापते समय जब नापमें उपयोग होगा, तभी पायलो कही जायगी। इन सात नयों में नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय, ये चार नय व्यवहारमें हैं और शब्दनय, समभिरुढ़ नय और एवम्भूतनय, ये तीन नय निश्चयमें हैं। किसी-किसी समय ऋजुसूत्रनयको भी निश्चयनयमें शामिल कर लेते हैं। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप अधिकार म सी भी वस्तुमें गुणावगुणका आरोप निक्षेपों * द्वारा होता है। जैनदर्शनमें चार निक्षेप हैं। वे इस भाँति हैं : १-नाम, २-स्थापना, ३-द्रव्य और ४-भाव । १-गुण, जाति, द्रव्य और क्रियाकी अपेक्षा बिना ही अपनी इच्छानुसार लोक-व्यवहारकेलिये किसी पदार्थकी संज्ञा करनेको 'नामनिक्षेप' कहते हैं। जैसे-किसी पुरुपका नाम इन्द्रराज है, परन्तु उसमें इन्द्रकं समान गुण, जाति, द्रव्य, क्रिया कुछ भी नहीं है; उसके माता-पिताने केवल व्यवहारार्थ नाम रख लिया है या दूसरे शब्दों में यह कहना चाहिये कि गुण, जाति, द्रव्य, क्रियाकी अपेक्षासे जो नाम नहीं रक्खे जाते हैं, उन्हींको नामनिक्षेप कहते हैं। ____२-धातु, काष्ट, पाषाण, मिट्टीके खिलौने, चित्रादि, शतरंजके हाथी, घोड़ा, बादशाह इत्यादिमें श्राकार-रूप व बिना आकार-रूप कल्पना कर लेनेको 'स्थापनानिक्षेप' कहते हैं। (१) फोटो या मूर्ति जिससे उस वस्तुका भान होवे, उसे 'सद्भावस्थापना' या 'तदाकारस्थापना' कहते हैं। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * (२) जिन वस्तुओंसे उनका भान न होवे; जैसे-शतरंजके मोहरों में बादशाह, हाथी, घोड़ा, आदि होते हैं, उन्हें 'असद्भावस्थापना' या 'अतदाकारस्थापना' कहते हैं। ___३-जिस मनुष्य या वस्तुमें वर्तमान समय में गुण न होनेपर भूत-भविष्यकालकी पर्यायकी मुख्यता लेकर वर्तमानमें कहना, वह 'द्रव्यनिक्षेप' है। जैसे-भविष्यमें होनेवाले राजाके पुत्रको (युवराजको) वर्तमानमें राजा कहना अथवा जो भूतकाल में फौजदार था उसका ओहदा चला जानेपर भी उसे फौजदार कहना, यह द्रव्यनिक्षेप है। ___४-जिस पदाथकी वर्तमान में जो पर्याय हो, उसको उसी रूपमें कहना, उसे 'भावनिक्षेप' कहते हैं। जैसे काष्ठको काष्ट अवस्थामें काष्ठ कहना, कोयला होनेपर कोयला और राख होनेपर राख कहना। उक्त चारों निक्षेपोंमेंस प्रथम तीन निक्षेप गुण बिना होनेसे 'श्रवत्थुक' कहे हैं और चौथाभाव निक्षेप सगुण होनेसे 'उपयोगी' कहा है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण हरि पदार्थक सर्वदेशको कहे और जनावे, उसे 'प्रमाण' । कहते हैं। जो पदार्थके एक देशको कहे और जनावे, उसे 'नय' कहते हैं। आत्मा जिस ज्ञान के द्वारा बिना अन्य पदार्थकी सहायताके पदार्थको अत्यन्त निर्मल स्पष्टतया जाने, उसको 'प्रत्यक्ष प्रमाण' कहते हैं। - जो पर्यायको उदासीन रूपसे देखता हुआ द्रव्यको ही मुख्य तयासे कहै, उसे 'द्रव्यार्थिकनय' कहते हैं। • जो द्रव्यको मुख्य न करके एक पर्यायको ही कहै, उसे 'पर्यायार्थिकनय' कहते हैं। शास्त्रकारोंने वस्तुका वस्तुत्व सिद्ध करनेकेलिये चार प्रमाण कहे हैं । वे इस भाँति हैं : १-प्रत्यक्ष, २-अनुमान, ३-आगम और ४-उपमाप्रमाण। १-आत्मा बिना अन्य पदार्थकी सहायताके ही पदार्थोंको अत्यन्त निर्मल स्पष्टतया जाने, उसे 'प्रत्यक्ष प्रमाण' कहते हैं। शास्त्रकारोंने प्रत्यक्ष प्रमाणके अनेक भेदानुभेद किये हैं। जैसे Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * - - इन्द्रियप्रत्यक्ष, नोइन्द्रियप्रत्यक्ष, द्रव्य-इन्द्रियप्रत्यक्ष, भाव-इन्द्रियप्रत्यक्ष, निवृत्ति और उपकरण आदि । ___२-जिस अनुमानसे वस्तुका ज्ञान हो, उसे 'अनुमान प्रमाण' कहते हैं । जैसे-किसीका पुत्र बाल्यावस्थामें विदेश गया हो और युवा होकर पीछे आवे, तब उसके घरवाले शरीराकृति, वर्ण, तिल आदिसे पहिचानें; मयूरको उसके शब्दसे; रथको झझन शब्दसे पहिचानें आदि। इसके भी शास्त्रकारोंने कई भेदानुभेद किये हैं । जैसे-पुव्वं, मव्वं, दिट्टी आदि । ३-ज्ञानी पुरुषोंद्वारा कथित शास्त्रांसे वस्तुका जो ज्ञान होता है, उसे 'आगम प्रमाण' कहते हैं। इसके भी शास्त्रकारोंने कई भेद किये हैं। जैसे-सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम आदि । ४-किसी अन्य वस्तुकी सदृशता बतलाकर किसी मुख्य वस्तुका ज्ञान कराना, उस 'उपमा प्रमाण' कहते हैं । जैसे भविष्यकाल में प्रथम तीर्थकर श्रीपद्मनाथजी कैसे होंगे ? तो कहा कि वर्तमानके अन्तिम तीर्थङ्कर श्रीमहावीर भगवान् जैसे । पल्योपम व सागरोपमका समय बतानेकेलिये कुएँ का दृष्टान्त देते हैं, इत्यादि। - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म अधिकार नदर्शनमें कर्मवाद एक मुख्य सिद्धान्त है । जिस के प्रकार वेदान्तदर्शन, न्यायदर्शन, वैशेषिकदर्शन इत्यादि ईश्वरको सृष्टि का अधिष्ठाता और कर्ता-उसकी प्रेरणासे अच्छे-बुरे कर्मों का फल मिलता है, यह मानते हैं; उस प्रकार जैनदर्शन नहीं मानता । जैनदर्शन न तो ईश्वरको सृष्टिको रचनेवाला अथवा अधिष्ठाता मानता है, और न उसकी प्रेरणासे कर्मों का फल मिलता है, यह मानता है। कर्मवादका मन्तव्य है कि जिस प्रकार जीव, कर्म करनेको स्वतन्त्र है; उसी प्रकार उसके कर्म भोगनेको भी वह आजाद है। जैनदर्शन सृष्टिको अनादि-अनन्त मानता है अर्थात् न तो वह कभी पैदा हुई और न कभी उसका विनाश होगा। ईश्वरको कर्त्ता या प्रेरक माननेवाले कर्मवादपर नीचे लिखे आक्षेप किया करते हैं : १-छोटी-मोटी चीज जैसे घड़ी, मकान, महल इत्यादि, यदि किसी व्यक्तिके द्वारा निर्मित होती हैं तो फिर सम्पूर्ण जगत, जो कार्य रूप दिखाई देता है, उसका भी कोई उत्पादक अवश्य होना चाहिये। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय २- सभी प्राणी अच्छे बुरे कर्म करते हैं, पर कोई बुरे कर्मोंका फल नहीं चाहता और कर्म स्वयं जड़ होनेसे किसी चेतनकी प्रेरणा बिना फल देने में असमर्थ हैं। इसलिये ईश्वर ही प्राणियोंको कर्मफल भोगवाता है। ११२ ३ - ईश्वर एक ऐसी सत्ता अर्थात् आत्मा है, जो सदासे मुक्त है और मुक्त जीवोंकी अपेक्षा उसमें कुछ विशेषता है। इस कारण जैनदर्शन जो यह मानता है कि कर्मोंसे छूट जानेपर सब जीव मुक्त अर्थात् ईश्वर हो जाते हैं, सो ठीक नहीं है । आक्षेपोंका समाधान १ - यह जगत् किसी समय नहीं बना है - वह सदासे हो है। हाँ, इसमें परिवर्तन हुआ करते हैं। अनेक परिवर्तन ऐसे हैं कि जिनके होने में मनुष्य आदि प्राणी वर्गके प्रयत्नकी अपेक्षा देखी जाती है, तथा ऐसे परिवर्तन भी होते हैं कि जिनमें किसीके प्रयत्नकी अपेक्षा नहीं रहती; वे जड़-तत्त्व के तरह-तरह के संयोग से उष्णता, वेग, क्रिया आदि शक्तियोंसे बनते रहते हैं । उदाहरणार्थ - मिट्टी, पत्थर आदि चीजों के इकट्ठ े होने से छोटे-मोटे टीले या पहाड़का बन जाना; इधर-उधर से पानीका प्रवाह मिल जाने से उनका नदी रूपमें बहना, भापका पानी रूप में बरसना, और फिरसे पानीका भाप-रूप बन जाना इत्यादि । इसलिये ईश्वरको सृष्टिका कर्त्ता मानने की कोई आवश्यकता नहीं । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * ११३ २-प्राणी जैसा कर्म करते हैं, वैसा फल उनको कर्मके द्वारा ही मिल जाता है। कर्म जड़ है और प्राणी अपने किये हुए बुरे कर्मका फल नहीं चाहते--यह ठीक है, पर ध्यानमें रखना चाहिये कि जीवके चेतनके संगसे कममें ऐसी शक्ति पैदा हो जाती है कि जिससे वह अपने अच्छे बुरे विपाकोंको नियत समयपर जीवपर प्रकट करता है। कमवाद यह नहीं मानता कि चेतनके सम्बन्धके बिना ही जड़ कम भोग देने में समर्थ है । वह इतना ही कहता है कि फल देनकलिये ईश्वर रूप चेतनकी प्रेरणा माननेकी कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सभी जीव चेतन हैं-वे जैसे कर्म करते हैं उनके अनुसार उनकी बुद्धि वैसी ही बन जाती है, जिससे दुरे कमक फल की इच्छा न रहनेपर भी वे ऐसा कृत्य कर बैठते है कि जिससे उनको अपने कर्मानुसार फल मिल जाता है। कम करना एक बात है और फलको न चाहना दूसरी बात है। कंवल चाहना न होनहीसे किये कर्मका फल मिलनसे रुक नहीं सकता। उदाहरणाथ-एक मनुप्य धूपमें खड़ा है, गर्म चीज खाता है और चाहता है कि प्यास न लगे सो क्या प्यास रुक सकती है। ३-ईश्वर चेतन है और जीव भी चेतन है; फिर उनमें अन्तर ही क्या ? हाँ, अन्तर इतना हो सकता है कि जीवकी सभी शक्तियाँ आवरणों ( कर्म पुद्गलों ) से घिरी हुई हैं और ईश्वर की नहीं। पर जिस समय जीव अपने आवरणोंको हटा देता है, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय .. .. .. . - उस समय तो उसकी सभी शक्तियाँ परिपूर्ण रूपमें प्रकाशित हो जाती हैं, फिर जीव और ईश्वरमें विषमता किस बातकी ? इस कारण कर्मवादके अनुसार यह माननेमें कोई आपत्ति नहीं कि सभी मुक्त जीव ईश्वर ही हैं। _ 'कर्म' शब्दका अर्थ कर्मशास्त्र जाननेकी चाह रखनेवालों को आवश्यक है कि वे 'कर्म' शब्दका अर्थ, भिन्न-भिन्न शास्त्रों में प्रयोग किये गये उसके पर्याय शब्द, कर्मका स्वरूप, आदिसे परिचित हो जाय । 'कर्म' शब्द लोक-व्यवहार और शास्त्र दोनों में प्रसिद्ध है। उसके अनेक अर्थ होते हैं। साधारण लोग अपने व्यवहारमें काम, धन्धे या व्यवसायके मतलबमें कर्म शब्दका प्रयोग करते हैं। शास्त्रमें उसकी एक गति नहीं है । खाना, पोना, चलना, कॉपना आदि किसी भी हलचलके लिये, चाहे वह जीव की हो या जड़की-कर्म शब्दका प्रयोग किया जाता है। कर्मकाण्डी मीमांसक यज्ञ, योग आदि क्रिया-कलाप अर्थम; पौराणिक लोग व्रत, नियम आदि धार्मिक क्रियाओंके अर्थमें; नैय्यायिक लोग उत्क्षेपण आदि पाँच सांकातक कर्मों में कर्म शब्दका व्यवहार करते हैं। परन्तु जैन-शास्त्र में कर्म शब्दसे दो अर्थ लिये जाते हैं। पहला राग-द्वेषात्मक परिणाम, जिसे कषाय'भावकर्म' कहते हैं और दूसरा कार्मण जातिके पुद्गल Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * कर्म अधिकार # ११५ विशेष, जो कषायके निमित्तसे आत्माके साथ चिपके हुए होते हैं, वह 'द्रव्यकर्म' कहलाता है। जैनदर्शन में जिस धर्मकेलिये कर्म शब्द इस्तेमाल होता है, उस अर्थके अथवा उससे कुछ मिलते-जुलते अर्थकेलिये जैनेतर दर्शनोंमें ये शब्द मिलते हैं- माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, संस्कार, देव. भाग्य आदि । जितने दर्शन आत्मवादी हैं और पुनर्जन्म मानते हैं, उनको पुनर्जन्म की सिद्धि-- उपपत्तिकेलिये कर्म मानना ही पड़ता है । कर्मका स्वरूप मिथ्यात्व कषाय आदि कारणोंसे जीवके द्वारा जो किया जाता है, वही 'कर्म' कहलाता है। कर्मका पहिला लक्षण उपर्युक्त भावकर्म और द्रव्यकर्म दोनोंमें घटित होता है। क्योंकि भावकर्म आत्माका - जीवका - वैभाविक परिणाम है । इससे उसका उपादान रूप कर्त्ता जीव ही है, और द्रव्यकर्म जो कि कार्मण जातिके सूक्ष्म पुद्गलों का विकार है, उसका भी कर्त्ता निमित्त रूपसे जीव ही है । भावकर्मके होनेमें द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त है। इस प्रकार उन दोनों में आपस में बीज अङ्कुर की तरह कार्य कारण भाव सम्बन्ध है । - " कर्म स्वयं जड़ पदार्थ है । 'कर्मपुद्गल' उसको कहते हैं, जिनमें रूप, रस, गंध और स्पर्श हों और पृथ्वी, पानी, अमि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय और वायुके पुद्गलसे बने हों। जो पुद्गल कर्म बनते हैं, वे एक प्रकारकी अत्यन्त सूक्ष्म रज हैं अथवा धूलि हैं, जिसको इन्द्रियाँ यंत्रकी मददसे भी नहीं जान सकतीं या देख सकतीं। सर्वज्ञ परमात्मा अथवा परम अवधिज्ञानवाले योगी ही इस रजको देख सकते हैं। जीवके द्वारा जब वह रज ग्रहण की जाती है, तब उसे 'कर्म' कहते हैं। जिस प्रकार चिकने घड़ेपर वायु चलनेसे धूलिके छोटे छोटे अणु लग जाते हैं, उसी प्रकार जब कोई भी जीव किसी प्रकारकी क्रिया, चाहे वह मनसे हो या वचनसे हो या कायसे हो, करता है, तब जिस श्राकाशमें आत्माकं प्रदेश हैं, वहींके अनन्त-अनन्त कर्मयोग्य पुद्गल परमाणु, जीवके एक-एक प्रदेशके साथ बंध जाते हैं। जिस प्रकार दूध और पानीका, तथा आगका और लोहेके गोलेका सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार जीव और कर्मपुद्गलोंका सम्बन्ध होता है। ____ कर्म और जीवका अनादिकालसे सम्बन्ध चला रहा है। पुराने कर्म अपना फल देकर श्रात्म-प्रदेशोंसे जुदा होजाते हैं और नये कर्म प्रतिसमय बँधते हैं। ___ कर्म और जीवका अनादि-सान्त तथा अनादि-अनन्त दो प्रकार का सम्बन्ध है । जो जीव मोक्ष पा चुके या पावेंगे उनका कर्मके साथ अनादि-सान्त सम्बन्ध है और जिन जीवोंको कभी मोक्ष न होगी उनका कर्मके साथ अनादि-अनन्त सम्बन्ध है। जिन जीवों Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * ११७ में मोक्ष पानेकी योग्यता है उन्हें 'भव्य' और जिनमें योग्यता नहीं है उन्हें 'अभव्य' कहते हैं। जीवका कर्मके साथ अनादि कालसे सम्बन्ध होनेपर भी जब जन्म-मरणरूप संसारसे छूटनेका समय पाता है तब जीवको विवेक उत्पन्न होता है अर्थात् आत्मा और जड़की बुराई मालूम होजाती है। तप-ज्ञान-रूप अग्निके बलसे वह सम्पूर्ण कम मलको जलाकर शुद्ध सुवर्णके समान निर्मल होजाता है। यही शुद्ध आत्मा ईश्वर है, परमात्मा है अथवा ब्रह्म है। कर्म-शत्रुपर विजय अनादिकालसे कर्म-शत्रु आत्माके साथ लगा हुआ है। जब तक आत्माका छुटकारा इससे नहीं होगा, उस समय तक यह आत्मा आवागमन अर्थात् चौरासी लाख जीवयोनिके चक्करसे कभी मुक्ति नहीं पा सकता। अगर कोई पुरुषार्थी और चतुर राजा अपने शत्रुपर विजय करना चाहता है तो पेश्तर इसके कि वह उसपर चढ़ाई करे, यह निहायत ज़रूरी है कि वह उसकी तमाम शक्तियों का अर्थात् फौज, पलटन, अस्त्र, शस्त्र, मोर्चे, गढ़ आदि और तमाम रास्ते तथा उसकी स्थितिका पूरा-पूरा अध्ययन कर ले और उसके बाद उसका मुक़ाबिला करनेकेलिये जब सारे जरूरी सामान इकट्ठ होजाय, उस समय पराक्रम और हिम्मतके साथ चढ़ाई करे। परिणाम यह होगा कि वह अवश्य कामयाब अर्थात् विजयी होगा । ठीक इसी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय an.... AA प्रकार अगर एक पुरुषार्थी और ज्ञानी आत्मा कर्मरूपी शत्रुको विजय करना चाहता है तो उसको अपने कर्मरूपी शत्रुके बारेमें पूरा-पूरा अध्ययन कर लेना चाहिये ताकि वह आसानीसे जीता जा सके और मुक्तिरूपी राज्य विजय किया जा सके। प्रश्न यह उठता है कि कर्म दो प्रकारके होते हैं-एक शुभ कर्म और दूसरा अशुभ कर्म । शुभ कर्म करनेसे आत्माको अानन्द व सुखकी प्राप्ति होती है और अशुभ कर्म करनेसे आत्माको दुःख व तकलीफ मिलती है। तब किस प्रकार शास्त्रकार शुभ और अशुभ, दोनो प्रकारके कर्मोंको छोड़नेको कहते हैं, जब कि शुभ कर्मसे सुख व आनन्दकी प्राप्ति होती है। इसका मतलब यह है कि शुभ कमों द्वारा जो आनन्द व सुख मिलते हैं, वे असार व क्षणिक हैं। कोई यह कहेगा कि वे क्षणिक कैसे हैं, जब कि शुभ कर्म करनेवाली आत्मा देवगतिको प्राप्तकर सागरोंकी आयु व अनेक आनन्द व सुखकारी ऋिद्धि व सिद्धि भोगती है ? यह बात बिलकुल यथार्थ है, पर इस न्यायसं विचारना चाहिये कि एक समय नहीं, दस समय नहीं, हजार समय नहीं, बल्कि असंख्यात समय यह आत्मा देवगतिके आनन्द व सुखोंको भोग आया है, पर आज तक इसकी गरज नहीं सरी है अर्थात् परम आनन्द पदको प्राप्त नहीं हुआ है । इस ख्यालसे यह सारे सुख व आनन्द क्षणिक हैं । संसारके सारे आनन्द व सुख किम्पाक फलके समान हैं, जो देखने और खानेमें बड़ा सुन्दर Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * ११६ और स्वादिष्ट लगता है, पर खानेके बाद प्राणी कालको प्राप्त होजाता है; इसी प्रकार यह शुभ कर्म अानन्द और सुख देनेवाला है, पर इसका परिणाम बुरा होता है। इस कारण यह शुभ कर्म भी त्यागने योग्य है। ___कर्म-शत्रुको प्रबलता कर्म बड़े-बड़े और महान-महान् आत्माको, जैसे-ऋषि, मुनि और त्यागियोंको, यहाँ तक कि जो आत्मा अरिहन्त होनेको जा रही है उनको और सांसारिक बड़े-बड़े पुरुष जैसे चक्रवर्ती, बलदेव वा वासुदेवको कष्ट, दुःख व सन्ताप देने में नहीं चूकता है तो हम साधारण पुरुषोंकी तो क्या चलाई। कर्म किसीकी रियायत नहीं करता, चाहे वह महान् पुरुष हो या कोई छोटा जीव हो । हाँ, यह बात अवश्य है कि कर्मों का चूर्ण अथवा नाश किया जा सकता है। जिस प्रकार कर्म अपने कर्तव्यमें नहीं चूकते, उसी प्रकार त्यागी, पुरुषार्थी और महान् आत्मा इसको चूर-चूर अथवा नष्ट करने में नहीं चूकते। ___ काँसे छूटनेका मुख्य गुरु १-पहिले बुरे, नीच और त्याज्य कर्मोंका करना छोड़ दो ताकि अशुभ यानी पाप कर्मका बन्ध न हो। ___२-बँधे हुये कर्मोंका नाश ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपस्या आदि विधियोंसे कर दो अर्थात् जला दो। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय ३-प्रारब्ध अर्थात् निःकाङ्कित कर्मों को भोगकर क्षीण कर दो। ऐसा करनेसे श्रात्मा कर्मोसे अवश्य मुक्त हो जायगी अर्थात् सिद्धगतिको प्राप्त कर लेगी। जैनदर्शनमें कर्म-बन्धके मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये चार कारण बतलाये हैं और कहीं कहीं संक्षेप में कषाय योग भी मिलते हैं, अगर और अधिक संक्षेप करके कहा जाय तो यह कह सकते हैं कि कषाय ही कर्मबन्धका कारण है, पर उन सबको संक्षेप में वर्गीकरण करके श्राध्या त्मक विद्वानोंने उसके राग-द्वेष सिर्फ दो ही भेद किये हैं। जिस प्रकार मकड़ी अपनी ही प्रबृत्तिसे अपने किये हुए जालेमें फँसती है, उसी प्रकार जीव भी अपनी बेसमझी आदि चतुराईसे अपने पैदा किये हुये कर्मजाल में फंसता है। कम के विषयमें विशेष ज्ञान वैसे तो कर्मको मूल प्रकृतियाँ, उत्तर प्रकृतियाँ और उनकी वर्गणाओंके पचास नहीं, सौ नहीं, हजार नहीं. लाख नहीं, बल्कि असंख्याते भेदानुभेद हैं । पर ज्ञानी पुरुषोंने साधारण जनसमुदाय को समझानेके हेतु कर्मको पाठ मूल प्रकृतियों और १५८ उत्तर प्रकृतियोंमें बाँट दिया है यानी यों कहना चाहिये कि अपने ज्ञानबलद्वारा समुद्र के समान ज्ञानको एक लोटेके रूप में समावेश कर दिया है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कर्म अधिकार * १२१ . जीवका ज्ञानवान् होना, मूर्ख होना, नेत्र सहित होना, अन्धा होना, धनी होना, निर्धन होना, पुत्रवान् होना, पुत्रहीन होना, क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी होना, शान्ति-स्वभावी, सरलस्वभावी, अहंकार रहित होना और निर्लोभी होना, स्त्री होना, पुरुष होना, या नपुंसक होना, पशु होना या मनुष्य होना, नेरिया या देवता होना, कम आयु पाना या ज्यादा आयु पाना या होते ही मर जाना, सुरूप या कुरूप होना, कमजोर या बलवान् होना, निरोगी या रोगी होना, सुखी या दुःखी होना, सुडौल या बेडौल शरीरी होना, मुख्तलिफ रंगका होना, मुख्तलिफ रसका होना, हलका होना, भारी होना, ठंढा या गरम होना, सूक्ष्म या बादर शरीरी होना, सम्यक्त्वी या मिध्यात्वी होना, दानी होना, या लोभी होना, भोग उपभोग होते हुए न भोग सकना, इत्यादि-इत्यादि बातें जो जीव मात्र में पाई जाती हैं, वे सब उसके शुभ व अशुभ कर्मोंका फत्तरूप हैं। जैसे-जैसे जीवकर्मका बन्ध करता है, वैसे-ही-वैसे उसके फल मिलते हैं अर्थात् जैसा बीज मनुष्य बोवेगा, वैसा ही फल प्राप्त करेगा । खण्ड] अब कर्मकी मूल प्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियों के बारेमें वर्णन किया जाता है । कर्मकी मूल प्रकृतियाँ आठ हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं: (क) – ज्ञानावरणीय, (ख) – दर्शनावरणीय, ( ग ) - वेदनीय, (घ) - मोहनीय, (ङ) - श्रायु, (च) - नाम, (छ) - गोत्र और ( ज ) - अन्तराय | - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय . ___ क-ज्ञानावरणीय-ज्ञान+आवरण = जो कर्म ज्ञान गुण पर पर्दा गेरे अर्थात् आत्माके ज्ञानगुणोंको आच्छादित करेढके, उसे 'ज्ञानावरणीय कर्म' कहते हैं। ___ ख-दर्शनावरणीय-दर्शन + आवरण = जो कर्म देखनेपर पर्दा गेरे अर्थात् जो कर्म दर्शन गुणको आच्छादित करे-ढके, उसे 'दर्शनावरणीय कर्म' कहते हैं । ग-वेदनीय-जो कर्म आत्माको सुख-दुःख पहुँचावे, वह 'वेदनीय कर्म' कहा जाता है। ___घ-मोहनीय-जो कर्म स्व-पर-विवेकमें तथा स्वरूप-रमण में बाधा पहुँचाता है, वह 'मोहनीय कर्म' कहा जाता है । हु-आयु-जिस कर्मके अस्तित्वमें ( रहनेसे ) प्राणी जीता है तथा खतम होनेसे मरता है, उसे 'श्रायुः कर्म' कहते हैं। च-नाम-जिस कमके उदयसे जीव नरक, तिर्यञ्च आदि नामोंसे सम्बोधित होता है, जैसे-अमुक मनुष्य है, अमुक देवता है, उसे 'नाम कर्म' कहते हैं। छ-गोत्र-जो कर्म आत्माको उच्च तथा नीच कुलमें जन्मावे, उसे 'गोत्र कर्म' कहते हैं। ज-अन्तराय-जो कर्म श्रात्माके वीर्य, दान, लाभ, भोग और उपभोग रूप शक्तियोंका घात करता है, उसे 'अन्तराय कर्म' कहते हैं। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कर्म अधिकार * १२३ उक्त आठ कर्मोंकी उत्तर- प्रकृतियों का वर्णन किया जाता है: ] ज्ञानावरणीयकी ५ दर्शनावरणीयकी ६, वेदनीय की २, मोहनीयकी २८, आयुकी ४, नामकी १०३, गोत्रकी २ और अन्तरायकी ५—इस प्रकार कुल उत्तर - प्रकृतियाँ १५८ होती हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित है: क - ज्ञानावरणीयः ज्ञानावरणीय की उत्तर - प्रकृतियों को समझने के लिये ज्ञान के भेद समझने से उनके आवरण सरलतासे समझ में आजायँगे । ज्ञानके मुख्य भेद पाँच हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान । इन पाँचोंके अवान्तर भेद अर्थात् र-भेद हैं: उत्तर -- मतिज्ञान के २८, श्रुतज्ञानके १४ अथवा २०, अवधिज्ञान के ६, मनःपर्यायज्ञानके २ और केवलज्ञान सिर्फ १ प्रकारका है। इन सबके भेदोंको मिलानेसे पाँच ज्ञानके ५१ भेद होते हैं और ५७ भेद भी होते हैं । मतिज्ञान - इन्द्रिय और मनके द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे 'मतिज्ञान' कहते हैं । श्रुतज्ञान - शास्त्रोंके बाँचने तथा सुननेसे जो अर्थज्ञान होता है, उसे 'श्रुतज्ञान' कहते हैं । ६ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय अवधिज्ञान-इन्द्रिय तथा मनकी सहायताके बिना मर्यादाकोलिये हुये रूपवाले द्रव्यका जो ज्ञान होता है, उसे 'अवधिज्ञान' कहते हैं। मनःपर्यायज्ञान-इन्द्रिय और मनकी मददके बिना मर्यादाको लिये हुये संज्ञी (जिनके मन होता है)के मनोगत भावों अर्थात् मनकी बातोंको जाननेको 'मनःपर्यायज्ञान' कहते हैं । केवलज्ञान-संसारके भूत, भविष्य और वर्तमान कालके सम्पूर्ण पदार्थोका युगपत् ( एक साथ) जानना 'केवलज्ञान' कहलाता है। पहिले दो ज्ञानोंमें इन्द्रियों और मनकी सहायता लेनी पड़ती है। किन्तु अन्तके तीन ज्ञानोंमें इन्द्रिय और मनकी सहायताकी आवश्यकता नहीं है। ज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मको 'ज्ञानावरण' अथवा 'ज्ञानावरणीय' कहते हैं । जिस प्रकार आँखपर पतले या मोटे कपड़े की पट्टी लपेटनेसे वस्तुओंके देखने में कम और ज्यादा रुकावट होती है, उसी प्रकार ज्ञानावरण-कर्मके प्रभावसे आत्माको पदार्थोके जाननेमें रुकावट पहुँचती है, किन्तु ऐसी रुकावट नहीं होती, जिससे आत्माको किसी प्रकारका ज्ञान ही न हो । जैसे सूर्य चाहे-जैसे घने बादलोंसे क्यों न घिर जाय तो भी उसका कुछ-न- . कुछ प्रकाश अवश्य ही रहता है । जिससे दिन-रातमें भेद सममा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * १२५ जाता है। इसी प्रकार कर्मोका चाहे-जैसा गाढ़ आवरण क्यों न हो, आत्माको कुछ-न-कुछ ज्ञान होता ही रहता है। ___ मतिज्ञानावरणीय-भिन्न २ प्रकारके मतिज्ञानोंको आवरण करनेवाले, भिन्न २ कर्मोको 'मतिज्ञानावरणीय' कहते हैं। मतिज्ञानके २८ भेद कहे हैं, पर दूसरी अपेक्षासे ३४० भेद होते हैं। उन सबोंके आवरण करनेवाले कर्म जुदा २ होते हैं। उन सब आव. रण करनेवालोंको 'मतिज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं। श्रुतज्ञानावरणीय-श्रुतज्ञानके १४ अथवा २० भेद कहे गये हैं, उनके आवरण करनेवाले कर्मोको 'श्रुतज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं। अवधिज्ञानावरणीय-अवधिज्ञानके ६ भेद कहे गये हैं, उनके आवरण करनेवाले कर्मोको अवधिज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं। मनःपर्यायज्ञानावरणीय-मनःपर्यायज्ञानके २ भेद कहे हैं, उनके आवरण करनेवाले कर्मोको 'मनःपर्यायज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं। केवलज्ञानावरणीय-केवलज्ञानके आवरण करनेवाले कर्मों को 'केवलज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं। ख-दर्शनावरणीय कर्मः चक्षुर्दर्शनावरणीय-आँखके द्वारा जो पदार्थोंका सामान्य धर्म-ग्रहण होता है, उसे 'चक्षुर्दर्शन' कहते हैं; उस सामान्य ग्रहणको रोकनेवाले कर्मको 'चक्षुर्दर्शनावरणीय' कर्म कहते हैं। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय श्रचक्षुर्दर्शनावरणीय -- आँखको छोड़कर त्वचा, जीभ, नाक, कान और मनसे जो पदार्थोंके सामान्य-धर्मका प्रतिभास होता है, उसे 'अचतुर्दर्शन' कहते हैं, उसके आवरणको 'चतुर्दर्शनावरणीय' कर्म कहते हैं । १२६ अवधिदर्शनावरणीय - इन्द्रियों और मनकी सहायता के बिना ही आत्माको रूपीद्रव्य के सामान्य धर्मका जो बोध होता है, उसे 'अवधिदर्शन' कहते हैं; उसका आवरण 'अवधिदर्शनावरणीय' कर्म कहता है । केवलदर्शन - संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का जो सामान्य अव बोध होता है, उसे 'केवलदर्शन' कहते हैं; उसका आवरण केवलदर्शनावरणीय कर्म' कहाता है। निद्रा - कोई-कोई सोया हुआ जीव थोड़ी-सी आवाज या पैछरसे जाग जाता है। जिस कर्मके उदयसे ऐसी नींद आती है, उस कर्मको 'निद्रा कर्म' कहते हैं । निद्रा-निद्रा - कोई-कोई सोया हुआ जीव बड़े जोरसे चिल्लाने या हाथसे जोर-जोर से हिलानेपर उठता है। जिस कर्मके उदयसे ऐसी नींद आती हैं, उसे 'निद्रा निद्रा कर्म' कहते हैं । - प्रचला — खड़े-खड़े या बैठे-बैठे किसी-किसी जीवको नींद श्राती है, उसको 'प्रचला' कहते हैं; जिस कर्मके उदयसे ऐसी नींद आती है, उस कर्मको 'प्रचला कर्म' कहते हैं । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कर्म अधिकार * १२७ प्रचलाप्रचला - चलते-फिरते जिस जीवको नींद आती है, उसकी नींदको प्रचलाप्रचला कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे ऐसी नींद आती है, उस कर्मको 'प्रचलाप्रचला कर्म' कहते हैं । खण्ड ] स्त्यानगृद्धि - जो जीव दिनमें अथवा रातमें सोचे हुए कामको नींद अवस्थामें कर डालता है, उसकी इस नींदको स्त्यानगृद्धि कहते हैं । जिस कर्मके उदयसे ऐसी नींद आती है, उस कर्मको 'सत्यानगृद्धि' कर्म कहते हैं। ऋषभ नाराचसंहननवाले जीवको जब इस स्त्यानगृद्धि कर्मका उदय होता है, तब उसे वासुदेवका आधा बल हो जाता है। यह जीव मरनेपर अवश्य नरक जाता है । ग - वेदनीय कर्म: इस कर्मका स्वभाव तलवारकी शहद लगी हुई धाराको चाटने के समान है | वेदनीय कर्मके दो भेद हैं : १ - सातावेदनीय और २ - असातावेदनीय | १ - तलवार की धारपर लगे हुए शहदको चाटने के समान सातावेदनीय है । २ - तलवारकी धारसे जीवके कटने के समान असातावेदनीय है । १ - जिस कर्म के उदयसे आत्माको विषय सम्बन्धी सुखका अनुभव होता है, उसे 'सातावेदनीय कर्म' कहते हैं । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय .......... ... Movie २-जिस कर्मके उदयसे आत्माको अनुकूल विषयोंकी अप्राप्तिसे अथवा प्रतिकूल विषयोंकी प्राप्तिसे दुःखका अनुभव होता है, उसे 'असातावेदनीय कर्म' कहते हैं । आत्माको जो अपने स्वरूपके सुखका अनुभव होता है, वह किसी भी कर्मके उदयसे नहीं होता है। घ-मोहनीय कर्म : चौथा कम मोहनीय है। इसका स्वभाव मद्यके समान है। जिस प्रकार मद्यके नशेमें मनुष्यको अपने हित-अहितकी पहिचान नहीं रहती, उसी प्रकार मोहनीय कर्मके उदयसे अात्माको अपने हित-अहितके पहिचाननेकी बुद्धि नहीं रहती। ___ मोहनीय कर्मके दो भेद हैं:-(१) दर्शनमोहनीय और (२) चारित्रमोहनीय । १-जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही समझना, यह दर्शन है अर्थात् तत्त्वार्थकी श्रद्धाको 'दर्शन' कहते हैं। यह आत्माका गुण है । इसके घात करनेवाले कर्मको 'दर्शनमोहनीय कर्म' कहते हैं। दर्शनमोहनीय के तीन भेद है: (१) सम्यक्त्वमोहनीय, (२) मिश्रमोहनीय और (३) मिथ्यात्वमोहनीय । १-जिस कर्मके उदयसे जीवको जीव आदि नव तत्त्वोंपर श्रद्धा होती है, उसे 'सम्यमोहनीय' कहते हैं। पा९माया Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * फर्म अधिकार * १२६ २-जिस कर्मके उदयसे अर्द्ध शुद्ध और अर्द्ध अशुद्ध सम्यक्त्व होता है, उसे 'मिश्रमोहनीय कर्म' कहते हैं। ३-जिस कमके उदयसे जीवकी हितमें अहित बुद्धि और अहितमें हित बुद्धि होती है अर्थात् अहितको हित और हितको अहित समझता है, उसे 'मिथ्यात्वमोहनीय कर्म' कहते हैं। २-जिस कर्मके उदयसे आत्मा अपने असली स्वरूपको पाता है, उसे 'चारित्रमोहनीय कर्म' कहते हैं। चारित्रमोहनीय कर्मके दो भेद होते हैं। १-कषायमोहनीय, २-नोकषायमोहनीय । कषायमोहनीयके १६ भेद हैं और नोकषायमोहनीयके । भेद हैं। कषायका अर्थ है-जन्म-मरणरूप संसार, उसकी प्राप्ति जिससे हो, उसे 'कषाय' कहते हैं । - कषायमोहनीयके १६ भेद निम्न प्रकार होते हैं: १-जिस कषायसे जीव अनन्तकाल संसारमें भ्रमण करता है, उस कषायको 'अनन्तानुबन्धी कषाय' कहते हैं। जिस प्रकार पर्वत फटनेपर नहीं मिलता, उसी प्रकारसे यह कषाय किसी भी उपायसे शान्त नहीं होती। २-जिस कषायके उदयसे श्रावक-धर्मकी प्राप्ति नहीं होती है, उसे 'अप्रत्याख्यानावरण कषाय' कहते हैं । जिस प्रकार सूखे तालाबमें मिट्टीके फट जानेपर दरारें हो जाती हैं। वे वर्षा होनेसे मिलती हैं, उसी प्रकार यह कषाय विशेष परिभ्रमणसे शान्त होती है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय ३-जिस कषायके उदयसे मुनि-धर्मकी प्राप्ति नहीं होती, उसे 'प्रत्याख्यानावरण कषाय' कहते हैं। जिस प्रकारसे धूलमें लकीर खींचनेपर कुछ समयमें हवा चलनेपर मिट जाती है, उसी प्रकार यह कषाय कुछ उपायसे शान्त हो जाती है। ___४-जो कषाय परिषह तथा उपसर्गों के आ जानेपर मुनियों को भी थोड़ासा चलायमान कर देती है अर्थात् उनपर भी थोड़ासा असर जमाती है, उसे 'संज्वलन कपाय' कहते हैं। जिस प्रकारसे पानीमें लकीर खींचनेसे वह फौरन मिट जाती है, उसी प्रकार यह कषाय शीघ्र ही शान्त हो जाती है। कषाय चार प्रकारके हैं:-क्रोध, मान, माया और लोभ । प्रत्येक कषाय ऊपर वर्णन किये चार-चार प्रकारके होते हैं। इस प्रकार चारको चारसे गुणा करनेसे कषायके १६भेद होते हैं। (२) नोकपाय मोहनीयकं नौ भेद इस प्रकार होते हैं: १-जिस कर्मके उदयसे कारणवश अर्थात् भाँड़ आदिकी चेष्टाको देखकर अथवा बिना कारण हमी आती है, वह 'हाम्यमोहनीय कर्म' कहलाता है। २-जिस कर्मके उदयसे कारणवश अथवा बिना कारण पदार्थोमें अनुरागहो-प्रेम हो, वह 'रतिमोहनीय कर्म' कहलाता है । ३-जिस कर्मके उदयसे कारणवश अथवा बिना कारण पदार्थोंसे अप्रीति हो, वह 'अरतिमोहनीय कर्म' कहलाता है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * कर्म अधिकार * १३१ ४-जिस कमेके उदयसे कारणवश अथवा बिना कारण शोक हो, वह 'शोकमोहनीय' कहलाता है। ___ ५-जिस कर्मके उदयसे कारणवश अथवा बिना कारण भय हो, वह 'भय मोहनीय कर्म' कहलाता है। भय सात प्रकारका होता है:इहलोक-भय, परलोक-भय, आदान-भय, अकस्मात्-भय, आजीविका भय, मृत्यु-भय और अपयश-भय । ६-जिस कर्मके उदयसे कारण अथवा बिना कारण मांस, शराब श्रादि बुरे पदार्थों को देखकर घृणा पैदा होती है, वह 'जुगुप्सामोहनीय कर्म' कहलाता है। ____-जिस कर्मके उदयसे स्त्रीको पुरुष के साथ भोग करनेकी इच्छा होती है, वह 'स्त्रीवेद कम' कहलाता है। ____-जिस कर्मके उदयसे पुरुषको स्त्रीके साथ भोग करनेकी इच्छा होती है, वह 'पुरुषवेद कर्म' कहलाता है। ___E-जिस कर्मके उदयसे स्त्री-पुरुष दोनोंके साथ भोग करने की इच्छा होती है, वह 'नपुंसक कर्म' कहलाता है। ङ-आयुकर्म:जिस कर्मके अस्तित्वसे प्राणी जीता है और क्षयसे मृत्युको प्राप्त होता है, उसे 'आयुकर्म' कहते हैं। आयुकर्म दो प्रकार का होता है। १-अपवर्तनीय,२-अनपवर्तनीय । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास # [द्वितीय १ – बाह्य निमित्तों से जो आयु कम हो जाती हैं, उस आयुको 'अपवर्त्तनीय' अथवा 'अपवर्त्य' आय कहते हैं । जैसे जलमें · डूबकर मरना, आग में जलकर मरना, ज़हर खाकर मरना या शस्त्रकी चोटसे मरना आदि । २ - जो आयु किसी भी कारण से कम न हो सके अर्थात् जितने काल तककी पहिले बँध गई है उतने काल तक भोगी जावे, उस आयुको 'अनपवर्त्य आयु' कहते हैं । च - नामकर्म: नामकर्म चित्रकार के समान है। जैसे चित्रकार नाना भाँतिके मनुष्य, हाथी, घोड़े आदिको चित्रित करता है, ऐसे ही नामकर्म नाना भाँति के देव, मनुष्य, नारकोंकी रचना करता है । नामकर्मकी संख्या कई अपेक्षासे है - किसीसे ४२, किसीसे ६३, किसीसे १०३ और किसीसे ६३ भेद होते हैं । नामकर्मको पिण्डप्रकृतियोंके मुख्य चौदह भेद हैं । वे निम्न प्रकार हैं: १ - गतिनाम, २ - जातिनाम, ३- तनुनाम, ४ - अङ्गोपाङ्गनाम, ५- बन्धनाम, ६- सङ्घातनाम, ७ - संहनननाम, ८-संस्थाननाम, ६ - वर्णनाम, १० - गन्धनाम, ११ - रसनाम, १२ - स्पर्शनाम, १३- आनुपूर्वीनाम और १४ - विहायोगति नाम । १ - जिस कर्म के उदय से जीव नरक, देव आदि अवस्थाओं को प्राप्त करता है, उसे 'गतिनाम कर्म' कहते हैं। इसके चार भेद हैं Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * कर्म अधिकार * १३३ - randurancornsex मनुष्यगति नाम, तिर्यश्चगति नाम, नरकगति नाम और देवगति नाम। २-जिस कर्मके उदयसे जीव एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि कहा जाता है, उसे 'जातिनाम कर्म' कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं:एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जाति नाम कर्म। ____३-जिस कर्मके उदयसे जीवको औदारिक, वैक्रिय आदि शरीरकी प्राप्ति होती है, उसे 'तननाम कर्म' कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं:-औदारिकशरीर नाम, वैक्रियशरीर नाम, आहारिक शरीर नाम, तैजसशरीर नाम और कार्मणशरीर नाम । ____४-जिस कर्मके उदयसे जीवके अङ्ग (सिर, पैर आदि) और उपाङ्ग (अँगुली, कपाल आदि) के आकारमें पुद्गलोंका परिणमन होता है, उसे 'अङ्गोपाङ्गनाम कर्म' कहते हैं । इस कर्मके लीन भेद हैं:-औदारिक अङ्गोपाङ्ग, वैक्रिय अङ्गोपाङ्ग, और आहारिक अङ्गोपाङ्ग नामकर्म । ____५-जिस कर्मके उदयसे प्रथम ग्रहण किये हुये औदारिक आदि शरीर पुद्गलोंके साथ गृह्यमाण औदारिक आदि पुद्गलोंका अापसमें सम्बन्ध हो, उसे 'बन्धन नामकर्म' कहते हैं। इसके १५ भेद होते हैं:-औदारिक-औदारिक बन्धन, औदारिक-तैजस बन्धन, औदारिक-कार्मण बन्धन, औदारिक-तैजस-कार्मण बन्धन, वैक्रिय-वैक्रिय बन्धन, वैक्रिय-तैजस बन्धन, वैक्रिय-कार्मण Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय बन्धन, वैक्रिय-तैजस-कार्मण बन्धन, आहारिक-श्राहारिक बन्धन, आहारिक-तैजस-बन्धन, आहारिक-कार्मण बन्धन, श्राहारिक-तैजस-कार्मण बन्धन, तैजस-तैजस बन्धन, तैजसकार्मण बन्धन, और कार्मण कार्मण बन्धन नामकर्म । ६-जिस कर्मके उदयसे शरीर योग्य पुद्गल प्रथम ग्रहण किये हुये शरीर पुद्गलोंपर व्यवस्थित रूपसे स्थापित किये जाते हैं। उसे 'सङ्घातनाम कर्म' कहते हैं, इसके पाँच भेद होते हैं: औदारिक संघातनाम, वैक्रिय संघातनाम, आहारिक संघातनाम, तैजस संघातनाम और कार्मण संघातनाम कर्म । ७-जिस कर्मके उदयसे शरीरमें हाड़ों की सन्धियाँ-जोड़ जुड़े होते हैं (जैसे लोहेकी पट्टियोंसे किवाड़ मजबूत किये जाते हैं) उसे 'संहनननाम कर्म' कहते हैं। इसके छह भेद होते हैं:-वनऋषभनाराच संहनन, ऋषभनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलक संहनन और सेवा संहनन नाम कर्म। ____-जिस कर्मके उदयसे शरीरके जुदे-जुदे शुभ या अशुभ आकार होते है, उसे 'स्थाननाम कर्म' कहते हैं । इसके ६ भेद होते हैं:-समचतुरस्त्र संस्थान, न्यग्रोध संस्थान, सादि संस्थान, वामन. संस्थान, कुन्ज संस्थान और हुण्ड संस्थान नाम कर्म । है-जिस कर्मके उदयसे शरीरमें कृष्ण, गौर आदि रङ्ग होते हैं, उसे 'वर्णनाम कर्म' कहते हैं। इसके पाँच भेद होते हैं: Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * १३५ - - कृष्णवर्ण नाम, नीलवर्ण नाम, लोहितवर्ण नाम, हरिद्रवर्ण नाम और श्वेतवर्णनाम कम। १०-जिस कर्मके उदयसे शरीरमें अच्छी या बुरी गन्ध हो, उसे 'गन्धनाम कर्म' कहते हैं। इसके दो भेद होते हैं:-सुरभिगन्ध नाम और दुरभिगन्धनाम कर्म । __ ५१-जिस कर्मके उदयसे शरीरमें खट्टा-मीठा आदि रसोंकी उत्पत्ति होती है, उसे 'रसनाम कर्म' कहते हैं। इसके पाँच भेद होते हैं:-तिक्तरस, कटुरस, कषायरस, अम्लरस और मधुररस नाम कर्म । १२-जिस कर्मके उदयसे शरीरमें कोमल, रूक्ष आदि स्पर्श हो, उसे 'स्पर्शनाम कर्म' कहते हैं इसके पाठ भेद होते हैं:ककशस्पर्श, मृदुस्पर्श, गुरुस्पर्श, लघुस्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, स्निग्घस्पर्श और रूक्षस्पर्श नाम कम । __१३-जिस कर्मके उदयसे जीव विग्रहगतिमें अपने उत्पत्ति स्थानपर पहुँचता है, उसे 'अानुपूर्वीनाम कर्म' कहते हैं। इसके चार भेद होते हैं:- नरकानुपूर्वी, तिर्यश्चानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वी नाम कर्म । १४-जिस कर्म के उदयसे जीवकी चाल (चलना) शुभ अथवा अशुभ होती है, उसे 'विहायोगति नामकर्म' कहते हैं । इसके दो भेद होते हैं:-शुभविहायोगति और अशुभ विहायोगति नाम कर्म। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय - इनके अलावा इस कमकी २८ प्रकृतियाँ और भी हैं । वे इस प्रकार हैं: परघातनाम कर्म, उच्छासनाम कर्म, आतापनाम कर्म, उद्योतनाम कर्म, अगुरुलघुनाम कर्म, तीर्थकरनाम कर्म, निर्माणनाम कर्म, उपघातनाम कर्म, सदशककी जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनकी विरोधनी स्थावर-दशककी दस प्रकृतियाँ हैं। उनके नाम इस भाँति हैं:-सनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकनाम, स्थिरनाम, शुभनाम, सुभगनाम, सुस्वरनाम, श्रादेयनाम और यशःकीर्तिनाम; स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणनाम, अस्थिरनाम; अशुभनाम, दुर्भगनाम, दुःस्वरनाम, अनादेयनाम, अयशःकीर्तिनाम इस प्रकार नामकी १०३ प्रकृतियाँ होती हैं । छ-गोत्र कर्म। यह कर्म कुंभारके सदृश है। कुंभार अनेक प्रकारके घड़े बर्तन आदि बनाता है । जिनमेंसे कुछ तो ऐसे होते हैं जिनको लोग कलश बनाकर अक्षत चन्दनसे पूजते हैं और कुछ घड़े ऐसे होते हैं जो मद्य रखनेके काममें आते हैं । अतएव वे निन्द्य समझे जाते हैं। इसी प्रकार यह गोत्र कर्म है। जिसके उदयसे जीव नीच अथवा ऊँच कुलमें जन्म लेते हैं। ____ इस कर्मके दो भेद होते हैं। वे निम्न प्रकार हैं:-१-उच्चगोत्र और २-नीचगोत्र । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * कर्म अधिकार # १३७ १ - जिस कर्म के उदयसे जीव उत्तम कुल में जन्म लेता है, उसे 'उच्चगोत्र कर्म' कहते हैं । २ - जिस कर्मके उदयसे जीव नीच कुलमें जन्म लेता है, उसे 'नीचगोत्र कर्म' कहते हैं । यहाँ प्रश्न यह उठता है कि उच्च और नीच कुल किसको कहना चाहिये । कुल जो धर्म और नीति की रक्षा से सम्बन्ध रखता है, वह. 'उच्चकुल' है । जो कुल अधर्म और अनीति से सम्बन्ध रखता है,. वह 'नीचकुल' है । ज - अन्तराय कर्म । इसका दूसरा नाम विघ्न कर्म है। इसके पाँच भेद हैं। जिस कर्मके उदयसे जीव धन, भोग, उपभोगका सामान होते हुए भी उन्हें नहीं भोग सकता है अर्थात् फायदा नहीं उठा सकता है; जैसे किसी व्यापार में लाभ होते-होते नहीं होता है, शक्ति होते हुए किसी कार्यको नहीं कर सकता है; इस प्रकार के कर्मको 'अन्तराय कर्म' कहते हैं । इसके पाँच भेद होते हैं: - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । १ - जिसके उदयसे दानकी चीजें मौजूद हों, गुणवान्. पात्र आया हो, दानका फल भी जानता हो तो भी दान करनेका उत्साह नहीं होता, उसे 'दानान्तराय कर्म' कहते हैं। यह दानीके वास्ते है । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय २-दाता उदार हो, दानकी चीजें मौजूद हों, याचनामें कुशलता हो तो भी जिस कर्मके उदयसे लाभ न हो सके, वह 'लाभान्तराय कर्म' कहलाता है। यह याचना करनेवालेके वास्ते हैं। ३-भोगके सामान मौजूद हों, वैराग्य न हो, तो भी जिस कर्मके उदयसे जीव भोग्य चीजोंको नभोगसके, वह 'भोगान्तराय कर्म' कहलाता है। ४-उपभोगकी सामग्री मौजूद हो, विरति-रहित हो, तथापि जिस कर्मके उदयसे जीव उपभोग्य पदार्थोका उपभोग न ले सके, वह 'उपभोगान्तराय कर्म' कहलाता है। ५-वीर्यका अर्थ है सामर्थ्य । बलवान हो, रोग-रहित हो, युवा हो तथापि जिस कर्मके उदयसे जीव एक तृणको भी टेढ़ा न कर सके, उसे 'वीर्यान्तराय कर्म' कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्मके अवान्तर तीन भेद हैं: बाल-वीर्यान्तराय, पण्डित-वीर्यान्तराय और बाल-पण्डित -वीर्यान्तराय। बन्ध बन्ध किसे कहते हैं ? जीव कषायवश होकर कर्म-पुद्गलोंको ग्रहण करे तथा आत्माके प्रदेश और कर्म के पुद्गल एक साथ मिलें, जैसे-दूध और पानी तथा लोहेका गोला अग्निके पुद्गलोंके साथ सारभूत . हो जाता है, उसे 'बन्ध' कहते हैं। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * १३६ - _____ इन कर्म-वर्गों में बन्धके चार विशेषण होते हैं। वे निम्न प्रकार हैं: एक प्रकृतिबन्ध, जिसके अनुसार कर्म-वर्गामें भिन्न-भिन्न प्रकारकी शक्तियाँ होती हैं । दूसरा प्रदेशबन्ध, जिसके अनुसार आत्म-प्रदेशोंमें कम-प्रदेशों का सम्बन्ध होता है। तीसरा स्थितिबन्ध, जिसके अनुसार कर्म-वर्गों की सत्ता या उदयकालका प्रमाण होता है। चौथा अनुभागबन्ध, जिसके अनुसार कर्मवर्गों में फलदायक शक्ति उत्पन्न होती है। प्रकृति और प्रदेश-बन्ध योगोंके अनुसार होते हैं और स्थिति और अनुभाग-बन्ध कषायोंके अनुसार होते हैं । जीवके भावों की हालत, योग और कपायोंका जैसा फल होता है, वैसी होती है। दृष्टान्त और दार्शन्तिकमें प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेशबन्धका स्वरूप यों समझना चाहिये: वात-नाशक पदार्थोंसे-सोंठ, मिर्च, पीपल आदिसे बने हुये लड्डुओंका स्वभाव जिस प्रकार वायुके नाश करनेका है; पित्तनाशक पदार्थासे बने हुये लड्डुओंका स्वभाव जिस प्रकार पित्तके दूर करनेका है; कफनाशक पदार्थोसे बने हुये लड्डुओंका स्वभाव जिस प्रकार कफके नष्ट करनेका है, उसी प्रकार आत्माके द्वारा ग्रहण किये हुए कुछ कर्म-पुद्गलोंमें प्रात्माके ज्ञान-गुणके घात करनेकी शक्ति उत्पन्न होती है; कुछ कर्म-पुद्गलों में आत्माके Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय दर्शन-गुणको ढक देनेकी शक्ति पैदा होती है। कुछ कर्म-पुद्गलों में श्रात्माके आनन्द-गुणको छिपा देनेकी शक्ति पैदा होती है; कुछ कर्म-पुद्गलोंमें आत्माकी अनन्त सामर्थ्यको दबा देनेकी शक्ति पैदा होती है । इस तरह भिन्न-भिन्न कर्म-पुद्गलों में, भिन्न-भिन्न प्रकारकी प्रकृतियोंके अर्थात् शक्तियोंके बन्धको अर्थात् उत्पन्न होनेको 'प्रकृतिबन्ध' कहते हैं। कुछ लड्डू एक सप्ताह तक रहते हैं, कुछ लड्डू एक मास तक, कुछ लड्डू एक महीने तक, इस तरह लड्डुओंकी जुदी-जुदी काल-मर्यादा होती है। काल-मर्यादाको स्थिति कहते हैं। स्थितिके पूर्ण होनेपर, लड्डू अपने स्वभावको छोड़ देते हैं अर्थात् बिगड़ जाते हैं । इसी प्रकार कर्म-दल आत्माके साथ सत्तर क्रोडाक्रोडी सागरोपम तक; कोई कर्म-दल बीस क्रोडाक्रोडी सागरोपम तक; कोई कर्म-दल अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । इस तरह जुदे-जुदे कर्मदलोंमें जुदी-जुदी स्थितियोंका अर्थात् अपने स्वभावको त्याग न कर आत्माके साथ बने रहनेकी काल-मर्यादाओंका बन्ध अर्थात् उत्पन्न होना 'स्थितिबन्ध' कहलाता है। स्थितिके पूर्ण होनेपर कर्म-दल अपने स्वभावको छोड़ देते हैं अर्थात् आत्मासे जुदा हो जाते हैं। कुछ लड्डुओंमें मधुर रस अधिक, कुछ लड्डुओंमें कम; कुछ लड्डुओंमें कटु रस अधिक, कुछ लड्डुओं में कम; इस . तरह मधुर-कटु आदि रसोंकी न्यूनाधिकता देखी जाती है। उसी Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * १४१ AAAAAAAA-naaaaana - ......-10-naanaana anaann .....nannamannar.n.....nnnnnnnn. nnnNA00- - प्रकार कुछ कर्म-दलोंमें शुभरस अधिक, कुछ कर्म-दलोंमें कम; कुछ कर्म-दलोंमें अशुभरस अधिक, कुछ कर्म-दलोंमें कम; इस तरह विविध प्रकारके अर्थात् तीब-तीव्रतर-तीव्रतम, मन्द-मन्दतरमन्दतम शुभ-अशुभ रसोंका कर्म-पुद्गलोंमें बन्धन अर्थात् उत्पन्न होना 'रसबन्ध' कहलाता है । शुभ कर्मों का रस ईख-द्राक्षादिके रसके सदृश मधुर हाता है, जिसके अनुभवसे जीव खुश होता है । अशुभ कर्मोंका रस नीव आदिके रसके सदृश कड़वा होता है, जिसके अनुभवसे जीव बुरी तरह घबड़ा उठता है । तीव्र-तीव्रतर आदिको समझनेकेलिये दृष्टान्तकी तौरपर ईख या नीवका चार-चार सेर रस लिया जाय । इस रसको स्वाभाविक रस कहना चाहिये । आँचके द्वारा औटा कर चार सेरकी जगह तीन सेर रस बच जाय तो उसे तीव्र कहना चाहिये, और प्रौटानेसे दो सेर रस बच जाय तो तीव्रतर कहना चाहिये और और औटा कर एक सेर रस बच जाय तो तीव्रतम कहना चाहिये । ईख या नीवका एक सेर स्वाभाविक रस लिया जाय । उसमें एक सेर पानीके मिलानेसे मन्द-रस बन जायगा, दो सेर पानीके मिलानेसे मन्दतर-रस बन जायगा और तीन सेर पानीके मिलानेसे मन्दतम-रस बन जायगा । निकाक्षित कर्म साधारणतया-एक न्यायसे कर्म दो प्रकारके होते हैं । एक •तो वे जो तपस्याके बलसे अथवा संयमकी शक्तिसे जल जाते हैं। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय इसके अतिरिक्त दूसरे प्रकारके कर्म वे जिन्हें निःकाक्षित कर्म कहते हैं । वे ऐसे होते हैं जिनका फल आत्माको भोगना ही पड़ता है; वे तपस्या वगैरहसे निवृत्त नहीं हो सकते। ___ कुछ लड्डुओंका परिमाण दो तोलेका, कुछ लड्डुओंका छटॉकका और कुछ लड्डुओंका परिमाण पावभरका होता है । उसी प्रकार कुछ कर्म-दलोंमें परमाणुओं की संख्या अधिक और कुछ कर्म-दलोंमें कम; इस तरह भिन्न-भिन्न प्रकारकी परमाणुसंख्याओंसे युक्त कर्म-दलोंका आत्मासे सम्बन्ध होना 'प्रदेशबन्ध' कहलाता है। संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त परमाणुओंसे बने हुए स्कन्धको जीव ग्रहण नहीं करता, किन्तु अनन्तानन्त परमाणुओंसे बने हुए स्कन्धों को ग्रहण करता है। निम्नलिखित कर्म करनेसे अमुक कर्मका बन्ध होता है:१-ज्ञानावरणीयकर्म-बन्धके कारण:मुनि, साधु अथवा ज्ञानियोंकी असातना करना-अपने गुरु श्रादि महान् पुरुषोंका उपकार न मानना-पुस्तकों व शास्त्रोंका अपमान तथा नाश करना-विद्यार्थियोंके विद्याभ्यास में विघ्न पहुँचाना अथवा बाधा गेरना-मुनिओं, साधुओं अथवा उच्च अात्माओंको कष्ट पहुँचाना; इत्यादि । २-दर्शनावरणीयकर्म-बन्धके कारण:___ जो कुदेव, कुगुरु और कुधर्मकी प्रशंसा करे-धर्म-निमित्त . हिंसा करे-अन्यायका पक्षपाती हो-कुशास्त्रकी प्रशंसा करे और Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * १४३ झूठे जाल रचे-साधु आदि तथा दर्शनके साधन इन्द्रियों को नष्ट करे-चिन्ता अधिक करे; इत्यादि । ३-वेदनीयकर्म-बन्धके कारण:( १ ) सातावेदनीय कर्म बन्धके कारणः माता, पिता, धर्माचार्य, वृद्ध आदिकी सेवा करमा-अपने साथ हित करनेवाले के साथ उपकार करना-दीन, दुखियों के दुःखको दूर करना-कषायोंपर विजय प्राप्त करना अर्थात् क्रोध, लोभ, मान और मायासे अपनी आत्माको बचानासुपात्रको आहार देना-रोगियोंकी औषधि तथा देख-भाल का प्रबन्ध करना-जीवोंको अभयदान देना-विद्यार्थियों के वास्ते पढ़ने व खानेका प्रबन्ध करना-धर्म में अपनी आत्माको स्थिर रखना-दान देना; आदि । इन कर्मोंका उलटा करनेसे जीव असातावेदनीय कर्म बाँधता है। (२) इनके अलावा असातावेदनीय-कर्म-बन्धके कारण: जीवका घात करे--छेदन-भेदन आदि क्रिया करे-चुगली करे-जीवोंको दुःख व तकलीफ़ दे-असत्य बोले-वैर विरोध करे-क्रोध-मान पैदा करे तथा झगड़े करे-परनिन्दा करे; इत्यादि। ४-मोहनीय-कर्म-बन्धके कारण:(१) दर्शनमोहनीयः Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय मोक्षके मार्गका खण्डन करे-मिथ्यात्वके मार्गका समर्थन करे-नास्तिक धर्मका समर्थन करे-धर्मादेके द्रव्यका गवन करे-साधु मुनियोंकी निन्दा करे; इत्यादि । (२) चारित्रमोहनीयः जिसका हास्य आदि क्रिया करनेका स्वभाव पड़ गया हैजो व्यभिचारी है-जो ईर्ष्या करता है जो प्रारम्भ करता हैजिसके सदा बुरे परिणाम रहते हैं जो शिकार खेलता है-मांस खाता तथा शराब पीता है जिसका दिल सदा हिंसामें . रहता है; इत्यादि। ५-आयु-कर्म-बन्धके कारण:(१) नरक-आयु-बन्धके कारण: जो षट् काय (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवों )की महाहिंसा करता है-पञ्चेन्द्रिय प्राणियोंका बध करता है-मांस खाता है-बराबर मैथुन सेवता हैविश्वासघात करता है-दूसरोंके धनको मारता है-जो रौद्रपरिणामी है; इत्यादि। (२) तिर्यञ्च-आयु-बन्धके कारण: जो दूसरोंके साथ कपटका व्यवहार करता है जो मुंहसे मीठी-मीठी बात करता है,पर दिलमें विष रखता है-झूठ जिसको जन्मसे ही प्यारा है-किसीको धोखा देना अथवा ठगना अपना Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * १४५ कर्तव्य समझता है-सदा बुरे विचार किया करता है; इत्यादि। (३) मनुष्य-श्रायु-बन्धके कारण: जो विनयशील है-सदा कपटसे दूर रहता है-जो विचार व भाव उच्च रखता है-सादा जीवन व्यतीत करता है जिसके रग-रगमें दयाका संचार है-जिसने ईर्ष्या और मानको त्याग दिया है-दान देनेमें जिसकी रुचि है जो अल्य कषायवाला है; इत्यादि। (४) देव-आयुके बन्धके कारण: जो अविरतसम्यगदृष्टि मनुष्य या तिर्यञ्च देशविरती अर्थात् श्रावकपना और सरागसंयमी साधुपना पालता हैबालतप अर्थात् आत्मस्वरूपको न जानकर अज्ञानपूर्वक तप श्रादि करता है-अकामनिर्जरा अर्थात् इच्छा न होते हुए जिसके कर्मकी निर्जरा होती है-भूख, प्यास, गर्मी आदिको सहन करता है; इत्यादि। ६-नामकर्म-बन्धके कारण(१) शुभनामकर्मके कारण: जो सरल अर्थात् मायारहित है-मन, वचन और काय का व्यापार जिसका एक-सा है-गौरवरहित अर्थात् धन-सम्पत्ति, महत्त्व, शील, सुन्दरता, नीरोगी कायका अभिमानरहित होता Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय ... .. ... . है-सदा पाप कमोंसे डरता है-क्षमावन्त है-मार्दव आदि गुणोंसे युक्त है; इत्यादि। (२) अशुभनामकर्मके कारण:जिसके मनमें कुछ है और ऊपर कुछ है-दूसरोंको ठगता है-धोखा देता है-झूठी गवाही देता है-घीमें चर्बी आदि वस्तु मिलाता है-दूधमें पानी या अच्छी वस्तुमें निबल वस्तु मिलाता है-अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करता है जो वेश्याओंको वस्त्र, अलंकार देनेवाला हो-धर्मादेके पैसेको खाने वाला या उसका दुरुपयोग करनेवाला हो। उक्त कार्य करनेवाला जीव नरक व एकेन्द्रिय जाति पाता है और अपयश व अकीर्तिको प्राप्त करता है। ७-गोत्रकर्म-बन्धके कारणः(१) उच्चगोत्र-बन्धके कारणः जो किसी व्यक्तिमें दोषके रहते हुए भी उनके विषयमें उदासीन-सिर्फ गुणोंको ही देखनेवाला है-आठ प्रकारके मदोंसे रहित अर्थात् जातिमद, कुलमद, रूपमद, बलमद, श्रुतमद, ऐश्वर्यमद, लाभमद और तपोमद, इनसे रहित है-हमेशा पढ़ने-पढ़ाने में जिसका अनुराग है-जिनेन्द्र भगवान्, सिद्ध, आचाय, उपाध्याय, साधु, माता-पिता तथा गुणवानोंकी भक्ति करता है; इत्यादि। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ - खण्ड] * कर्म अधिकार * (२) नीचगोत्र-बन्धके कारण:उपरोक्त कार्योंसे उलटा करना। ८-अन्तरायकर्म-बन्धके कारण: जो जीव न्याय-पूर्वक धर्मको बुरा बताता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, रात्रि-भोजन करता है, सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र रूप मोक्ष-मार्गमें दोष दिखा कर भव्य जीवोंको मार्गसे च्युत करता है, दूसरोंके दान, लाभ, भोग, उपभोगमें अन्तराय पहुँचाता है, मन्त्र-तन्त्र आदि द्वारा दूसरोंको कष्ट पहुँचोता है। जन साधारणकी जानकारीके वास्ते कर्म-सम्बन्धी कुछ प्रश्नोंका उत्तर दिया जाता है:- १-मनुष्य किन कर्मोके फलसे पुत्रकीप्राप्ति नहीं कर पाता ? उत्तर-पशु, पक्षी और मनुष्योंके अनाथ बच्चोंका घात करे-ज्यूँ , खटमल, मच्छर आदि को मारे-गाय, भैंस, आदिके बच्चों को दूध न देकर खुद पूरा दूध पीले-अनाथ बच्चोंका माता व पोषकोंसे बिछोप्रा करे; इत्यादि । २-मनुष्य किन कर्मोके उदयसे निर्धन होता है ? उत्तर-चोरीसे, धोखेबाजीसे, ठगईसे, जुल्मसे, हिंसाकारी कुव्यवहारों द्वारा धन उपार्जन करनेसे, धनियोंसे द्वेष करनेसे, उनको निर्धन बनानेसे, साधु होकर धन रखनेसे, धरोहर Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जनाभ्यास * [द्वितीय धन-वस्तुको दबानेसे, किसीके माल व धनको जलमें डुबाने व अग्निमें जलानेसे; इत्यादि। ३-मनुष्य किन कर्मों के कारण रोगी होता है ? उत्तर-रोगियोंको सन्ताप पहुँचानेसे, रोगियोंकी निन्दा व हँसी करनेसे, औषधि-दानका अन्तराय करनेसे, रोग तथा तकलोक बढ़ाने का प्रयत्न करनेसे, साधुओं व मुनियोंके वस्त्रको मलीन देखकर घृणा करनेसे; इत्यादि । __४-मनुष्य किन कर्मों के कारण पराधीन होता है ? उत्तर-जीवोंको बन्दीखाने में डालनेसे, बहुत मेहनत कराकर थोड़ी मजदूरी देनेसे, कर्जदारोंको धोखा देकर उनसे धन वसूल करनेसे और उनकी बेइज्जती करनेसे, नौकरोंको या घरके श्रादमियों को आहारमें अन्तराय देनेसे, जबरदस्ती काम व मेहनत लेने से, पशु-पक्षियोंको बाड़े में या पिंजरेमें रखनेसे, दूसरोंको पराधीन देखकर खुशी होनेसे, दूसरोंकी स्वाधीनता नष्ट करने श्रादिसे । ५-मनुष्य निर्बल किन कर्मों के कारण होता है ? उत्तर-दीन-गरीबोंको सतानेसे, अन्न वस्त्रका अन्तराय डालनेसे, निर्बलोंको दबानेसे, अपने बलका अभिमान करने आदिसे। कर्मोंका सिद्धान्त बड़ा सरल व सीधा है कि जैसा कर्म आप करेंगे, उसीके अनुसार श्रापको फलकी प्राप्ति होगी। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * कर्म अधिकार * १४६ ठीक उसी प्रकार कि जिस प्रकारका आप बीजारोपण करेंगे, उसीके अनुसार आपको उसके फलकी प्राप्ति होगी । शुभाशुभ कर्मोंकी कसौटी साधारण लोग यह कहा करते हैं कि दान, सामायिक, सेवा आदि क्रियाओंके करनेमें शुभ कर्मका बन्ध होता है और किसीको कष्ट पहुँचाने, इच्छा-विरुद्ध काम करने आदि में अशुभ कर्मों का बन्ध होता है, परन्तु अशुभ और शुभ कर्मोंका निर्णय करनेकी मुख्य कसौटी यह नहीं है, क्योंकि किसीको कष्ट पहुँचाता हुआ या इच्छा - विरुद्ध काम करता हुआ भी मनुष्य शुभ कर्मका बन्ध कर सकता है। इसी तरह दान, प्रौषध, सामायिक आदि करता हुआ पुरुष कभी-कभी अशुभ बन्ध अर्थात् पाप भी बाँध लेता है। एक परोपकारी चिकित्सक जब किसीपर शस्त्रक्रिया करता है, तब उस मरीजको कष्ट अवश्य होता है । हितैषी माता-पिता नासमझ लड़केको जब उसकी इच्छा के विरुद्ध पढ़ाने के लिये प्रयत्न करते हैं, तब उस बालकको दुःख सा मालूम होता है; पर इतनेसे न तो वह चिकित्सक अनुचित काम करनेवाला माना जाता है और न हितैषी माता-पिता दोषी समझे जाते हैं। इसके विपरीत कोई जीव भोले लोगोंको ठगने के इरादे से या किसी तुच्छ श्राशय से दान-धर्म करके उसके बदले में Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० * जेल में मेरा जनाभ्यास * [ द्वितीय अशुभ अशुभ कर्म बाँधता है । अतएव शुभ और कर्म - बन्धकी सच्ची कसौटी केवल ऊपर की क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्त्ताका आशय है, अर्थात् अच्छे आशय से जो काम किया जाता है, उससे शुभ कर्मका बन्ध होता है और जो बुरे आशय से किया जाता है, उससे अशुभ कर्मका बन्ध होता है। अशुभ कर्मोंका बन्ध साधारण लोग यह समझते हैं कि अमुक काम करनेसे अशुभ कर्मका बन्ध न होगा। इससे वे उस कामको तो छोड़ देते हैं, पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती । इससे साधारण रूपमें क्रिया न करते हुए भी वे करते रहते हैं । अतएव विचारना चाहिये कि सच्ची निर्लेपता क्या है ? लेप (बन्ध ) मानसिक क्षोभको अर्थात् कषायको कहते हैं । यदि कषाय नहीं है तो ऊपरकी कोई भी क्रिया श्रात्माको बन्धमें रखनेकेलिये समर्थ नहीं है । इससे उलटा यदि कषायका वेग भीतर वर्त्तमान है तो ऊपर हजार प्रयत्न करनेपर भी कोई जीव अपनी आत्माको कर्म-बन्धसे छुड़ा नहीं सकता । कर्म से सम्बन्ध रखनेवाली विशेष बातें: १ -- बन्ध, २ – उदय, ३ - उदीरणा, ४ – सत्ता, ५ - अपवर्तना-करण, ६ – उदयकाल, ७- अबाधाकाल, ८ --संक्रमण, और ६- निर्जरा । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * कर्म अधिकार * १५१ १ - मिध्यात्व, अविरति, कषाय और योग आदि निमित्तों से ज्ञानावरण आदि रूप में परिणत होकर कर्म- पुद्गलोंका श्रात्मा के साथ दूध-पानी के समान मिल जाना 'बन्ध' कहलाता है । २ -- उदयकाल आनेपर कर्मोंके शुभाशुभ फलका भोगना 'उदय' कहलाता है । ३ - अबाधाकाल व्यतीत हो चुकनेपर भी जो कर्म दलिक पीछे से उदय में आनेवाले होते हैं, उनको प्रयत्न - विशेष से खींचकर उदय प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना, उसे 'उदीरण' कहते हैं । ४ - बँधे हुए कर्मोंका अपने स्वरूपको छोड़ कर आत्मा के साथ लगा रहना 'सत्ता' कहलाता है । ५ - जिस वीर्यं विशेष से पहले बँधे हुए कर्मकी स्थिति तथा रस घट जाता है, उसको 'अपवर्तनाकरण' समझना चाहिये । ६ - अबाधाकाल व्यतीत हो चुकनेपर जिस समय कर्मके फलका अनुभव होता है, उस समयको 'उदयकाल' समझना चाहिये । ७ – बँधे हुए कर्म से जितने समय तक आत्माको बाधा नहीं होती अर्थात् शुभाशुभ फलकी वेदना नहीं होती उतने समय को 'अबाधा-काल' समझना चाहिये ! ८ - जिस वीर्य विशेष से कर्म एक स्वरूपको छोड़कर दूसरे सजातीय स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, उस वीर्य विशेषका नाम Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास # [द्वितीय 'संक्रमण' है । इस प्रकार एक कर्म प्रकृतिका दूसरी सजातीय कर्म-प्रकृति रूप बन जाना भी संक्रमण कहाता है । जैसे मतिज्ञानावरणीय कर्मका श्रुतज्ञानावरणीय कर्म रूपमें बदल जाना या श्रुतज्ञानावरणीय कर्मका मतिज्ञानावरणीय कर्म रूपमें बदल जाना । क्योंकि यह दोनों प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय कर्मका भेद होने से आपस में सजातीय हैं । ६ - बँधे हुये कर्मका तप ध्यान आदि साधनों के द्वारा आत्मा से अलग हो जाना 'निर्जरा' कहलाती है । कर्मोंका स्थितिकाल-प्रमाण १ - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन कर्मों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीस क्रोड़ाक्रोड़ सागरकी और अबाधकाल तीन हजार वर्षका । २ - वेदनीय कर्म: - ( १ ) सातावेदनीय जघन्य दो मास ( 'इरियावद्दी' क्रियाश्रित ), उत्कृष्ट पन्द्रह क्रोड़ाक्रोड़ सागरकी और अबाधाकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट डेढ़ हजार वर्षका । (२) असातावेदनीय कर्म: असातावेदनीय जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीस क्रोड़ाक्रोड़ सागर और बाधाकाल तीन हजार वर्षका । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * १५३. - ___३-मोहनीय कर्म जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सत्तर क्रोड़ाक्रोड़ सागर और अबाधाकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सात हजार वर्षका। ४-श्रायु कर्मका स्थिति-प्रमाण अर्थात् जबतक जीव जीवे तबतक। ५-नाम और गोत्र कर्म-जघन्य आठ मुहूर्त, उत्कृष्ट बीस कोडाक्रोड सागर और अबाधाकाल दो हजार वर्षका । मुख्य कर्मोके दूर होनेका क्या परिणाम होता है ? कर्म दो प्रकारके होते हैं-एक घातिक दूसरे अघातिक । घातिक कर्म चार हैं: १-ज्ञानावरणीय, २-दर्शनावरणीय, ३-अन्तराय और ४-मोहनीय। अघातिक कर्म भी चार होते हैं:१-वेदनीय,२ -गोत्र, ३-नाम और ४-आयु । ज्ञानावरण कर्मके अभावसे अनन्त ज्ञान । २-दर्शनावरण कर्मके अभावसे अनन्त दर्शन । ३-अन्तराय कर्मके अभावसे अनन्तवीर्य । ४-दर्शनमोहनीय कर्मके अभावसे शुद्ध सम्यक्त्व और चारित्रमोहनीय कर्मके अभावसे शुद्ध चारित्र होता है अर्थात् इन समस्त कर्मों के अभावसे अनन्त सुख होता है । मगर शेष चार कमोंके बाकी रहनेसे जीव ऐसी ही जीवन्मुक्त अवस्थामें संसारमें रहता है और इसी अवस्था Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय वाले सर्वज्ञ, वीतराग, तीर्थकर भगवानसे सांसारिक जीवोंको सच्चे धर्मका उपदेश मिलता है-यही सर्वज्ञोपदेश संसारमें प्राणीमात्र केलिये हितकारी व उपयोगी होता है। ऊपरके चार अघातीय अर्थात् वेदनीय, गोत्र, नाम और आयु कर्मकी स्थिति पूरी होनेपर जीव अपने ऊर्ध्व-गमन स्वभावसे जिस स्थानपर कर्मोंसे मुक्त होता है उस स्थानसे सीधा पवनके झकोरोंसे रहित अग्निकी तरह ऊर्ध्वगमन करता है और जहाँ तक ऊपर बताये हुए गमनसहचरी धर्मद्रव्यका सद्भाव है वहाँ तक गमन करता है। आगे धर्मद्रव्य अर्थात् धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे अलोकाकाशमें उसका गमन नहीं होता। इस कारण समस्त मुक्त जीव लोकके शिखर पर विराजमान रहते हैं। यहाँ जिस शरीरसे जीव मुक्ति प्राप्त करता है उस शरीरसे जीव-आकार (: होजाता है ) अर्थात् पोलका भाग नहीं रहनेसे श्रात्म-प्रदेश ठोस हो जाते हैं-किंचित् न्यून हो जाते हैं। __ यदि यहाँ कोई यह शङ्का करे कि जब जीव मोक्षसे लौटकर श्राते नहीं तथा नवीन जीव उत्पन्न होते नहीं और मुक्ति होनेका सिलसिला हमेशा जारी रहता है तो एक दिन संसारके सब जीव मीक्षको प्राप्त कर लेंगे और संसार शून्य हो जायगा । पर इसका उत्तर अथवा समाधान यह है कि जीव-राशि अक्षय अनन्त है, जिस तरह आकाश द्रव्य सर्वव्यापी अनन्त है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * कर्म अधिकार * आयुर्वन्धका नियम आयुका बन्ध एक भवमें एक ही बार होता है। आयु कर्मकेलिये यह नियम है कि वर्तमान आयुका तीसरा, नवाँ या सत्ताईसों आदि भाग बाकी रहनेपर ही परभवके आयुका बन्ध होता है। ____ इस नियमके अनुसार यदि बन्ध न हो तो अन्तमें जब वर्तमान प्रायु, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाकी रहती है, तब अगले भवकी आयुका बन्ध अवश्य होता है। संसारमें प्रत्येक प्राणी हर समय अर्थात् सोते-जागते, चलते-फिरते, खाते-पीते इत्यादि कार्य करते समय कर्म-बन्ध किया करता है, चाहे वह शुभ हो या अशुभ हो । जैसे-जैसे वचन, काय और मनकी भावनाएं हुआ करती हैं, उसीके अनुसार कम-बन्ध हुआ करता है। अगर हमारे अनजानपनेमें हमारी कायसे कोई क्रिया हो जाती है तो कम-बन्ध अवश्य होता है। अगर हम कोई बाहियात क्रिया नहीं करते हैं, सिर्फ मनसे ही विचार करते हैं तो भी कर्म-बन्ध अवश्य होता है। इसी प्रकार वचनसे भी कर्मबन्ध हुआ करता है। ज्यादातर कर्मबन्धको कारण हमारा मन है। मन हर समय कुछ-न-कुछ सोचा-विचारा ही करता है और जैसी-जैसी मनो-वृत्ति होती रहती है, उसीके अनुसार शुभ अथवा अशुभ कर्मोका बन्ध हुआ करता है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास - [द्वितीय कम-बन्धके मुख्य हेतु कर्म-बन्धके मुख्य हेतु चार हैं । वे निम्न प्रकार हैं:१-मिथ्यात्व, २-अविरति, ३-कषाय और ४-योग। (१) मिथ्यात्व-आत्माका वह परिणाम है, जो मिथ्यामोहनीय-कर्मके उदयसे होता है और जिससे चित्तमें कदाग्रह, संशय आदि दोष पैदा होते हैं। (२) अविरति-वह परिणाम है, जो अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होता है और जो चारित्रको रोकता है। (३) कषाय-वह परिणाम है. जो चारित्रमोहनीयके उदयसे होता है और जिससे क्षमा, विनय, सरलता, संतोष, गम्भीरता आदि गुण प्रकट नहीं हो पाते या बहुत कम प्रमाणमें प्रकट होते हैं। (४) योग-आत्म-प्रदेशोंके परिस्पन्द (चाञ्चल्य ) को कहते हैं, जो मन, वचन या शरीरके योग्य पुद्गलोंके आलम्बनसे होता है। (क) मिथ्यात्वके पाँच भेद होते हैं । वे निम्न प्रकार हैं: १-श्राभिग्रहिक, २-अनाभिग्रहिक, ३-श्राभिनिवेशिक, ४-सांशयिक और ५-अनाभोग । ® इन पाँचोंमेंसे आभिग्रहिक और अनाभिग्रहिक, ये दो मिथ्यात्व गुरु हैं और शेष तीन लघु; क्योंकि ये दोनों विपर्यासरूप होनेसे तीव्र क्लेशके कारण हैं और शेष तीन विपर्यासरूप न होनेसे तीव्र क्लेश के कारण नहीं हैं। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * कर्म अधिकार * svA.IMAINirvivorn १-तत्त्वकी परीक्षा किये बिना ही किसी एक सिद्धान्तका पक्षपात करके अन्य पक्षका खण्डन करना 'आभिग्रहिक मिथ्यात्व है। ___२-गुण-दोषकी परीक्षा किये बिना ही सब पक्षोंको बराबर समझना 'अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व' है। ____३-अपने पक्षको असत्य जानकर भी उसको स्थापना करनेके लिये दुरभिनिवेश (दुराग्रह) करना आभिनिवेशिक मिथ्यात्व' है। ४-ऐसा देव होगा या अन्य प्रकारका, इसी तरह गुरु और धर्मके विषयमें संदेह-शील बने रहना 'सांशयिक मिथ्यात्व' है। ५-विचार व विशेष ज्ञानका अभाव अर्थात मोहकी प्रगाढ़तम अवस्था 'अनाभोग मिथ्यात्व' है। (ख) अविरतिके बारह भेद होते हैं । वे निम्न प्रकार हैं: मनको अपने विषयमें स्वच्छन्दतापूर्वक प्रवृत्ति करने देना 'मन अविरति' है। इसी प्रकार त्वचा, जिह्वा श्रादि पाँच इन्द्रियों की अविरतिको भी समझ लेना चाहिये । पृथ्वीकायिक जीवोंकी हिंसा करना 'पृथ्वीकाय-अविरति' है। शेष पाँच कायोंकी अविरतिको इसी प्रकार समझ लेना चाहिये। ये बारह अविरतियाँ मुख्य हैं । मृषावाद-अविरति, अदत्तादानअविरति श्रादि सब अविरतियोंका समावेश इन बारहमें ही हो जाता है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय ....... ...mannrnmowinnnnanorma - (ग) कषायके पञ्चीस भेद हैं। वे निम्न प्रकार हैं: क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार भेद हैं। इनमेंसे हर एकके चार-चार भेद होते हैं। वे इस प्रकार हैं:-१-संज्वलन, २-प्रत्याख्यानावरण, ३-अप्रत्याख्यानावरण और ४-अनन्तानुबन्धी। इस प्रकार चार कषायोंके ४४४ सोलह भेद होते हैं। इनके अलावा नोकपायमोहनीयके नौ भेद और होते हैं। वे इस प्रकार हैं: १-हास्य, २-रति, ३-अरति, ४-शोक, ५-भय, ६-जुगुप्सा, ७-खीवेद, ८-पुरुषवेद और ई-नपुंसकवेद । (घ) योगके पन्द्रह भेद होते हैं। वे निम्न प्रकार हैं:१- सत्यमनोयोग, २-असत्यमनोयोग, ३-मिश्रमनोयोग और ४-व्यवहारमनोयोग, ये चार भेद मनोयोगके हैं। -सत्यवचनयोग, २-असत्यवचनयोग, ३ -मिश्रवचनयोग और ४-व्यवहार वचन योग-य चार भेद वचनयोगके हैं। १-वैक्रियशरीरकाययोग, २-श्राहारिकशरीरकाययोग, ३-औदारिकशरीरकाययोग, ४-वैक्रियकमिश्रकाययोग, ५-आहारिकमिश्रकाययोग, ६-औदारिकमिश्रकाययोग और ७--कार्मणशरीरकाययोग, इस प्रकार काययोगके सात भेद होते हैं। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * कर्म अधिकार # १५६ चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग, इन तीनोंको मिलाकर कुल पन्द्रह भेद योगके होते हैं । बन्धु-हेतुके कुल निम्न प्रकार ५७ भेद हुए: मिध्यात्व के ५, अविरतिके १२, कषायके २५ और योग के १५ । गुणस्थानोंमें मूलबन्ध-हेतु पहिले गुणस्थान में मिथ्यात्व आदि चारों बन्धु-हेतु पाये जाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें गुणस्थान में मिध्यात्वोदयके सिवाय अन्य सब बन्ध हेतु पाये जाते हैं । छठे, सातवें, आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में मिथ्यात्वकी तरह अविरति भी नहीं पाया जाता है । ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें कषाय भी नहीं पाई जाती है। चौदहवें गुणस्थानमें योगका भी अभाव हो जाता है । गुणस्थानोंमें उत्तरबन्ध-हेतु १ - पहिले गुणस्थान में आहारिक-द्विकको छोड़कर पचपन बन्ध हेतु हैं । अर्थात् आहारिक और आहारिक मिश्र नहीं होते हैं । २ - दूसरे गुणस्थान में पाँचों मिध्यात्व भी नहीं होते हैं। इसीसे उनको छोड़कर शेष पचास हेतु कहे गये हैं । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय ३ – तीसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धि चतुष्क नहीं हैं; क्योंकि उसका उदय दूसरे गुणस्थान तक ही है तथा इस गुणस्थानके समय मृत्यु न होनेके कारण अपर्याप्त अवस्था भावीकार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग भी नहीं होते। इस प्रकार तीसरे गुणस्थान में सात बन्ध- हेतु घट जाने से उक्त पचास में से शेष तेतालीस बन्ध हेतु हैं । १६० ४ - चौथा गुणस्थान अपर्याप्त अवस्था में भी पाया जाता है; इसलिये इसमें अपर्याप्त अवस्था भावी कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, इन तीन योगोंका होना सम्भव है । तीसरे गुणस्थान-सम्बम्बी तेतालीस और ये तीन योग, कुल छयालीस बन्धहेतु चौथे गुणस्थान में समझने चाहिये । · ५–अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क चौथे गुणस्थान तक ही उदय में रहता है, आगे नहीं । इस कारण वह पाँचवें गुणस्थान में नहीं पाया जाता । पाँचवाँ गुणस्थान देशविरतिरूप होनेसे उसमें त्रसहिंसारूप स अविरति नहीं है तथा यह गुणस्थान केवल पर्याप्त अवस्था भावी है; इस कारण इसमें अपर्याप्त अवस्था भावी कार्मर और औदारिक मिश्र, ये दो योग भी नहीं होते । इस तरह चौथे गुणस्थानसम्बन्धी छयालीस हेतुश्रोंमेंसे उक्त सातके सिवाय शेष उन्तालीस बन्धहेतु पाँचवें गुणस्थान में होते हैं । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * कर्म अधिकार * १६१ ६ - छठा गुणस्थान सर्वविरतिरूप है। इसलिये इसमें शेष ग्यारह अविरतियाँ नहीं होतीं। इसमें प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, जिसका उदय पाँचवें गुणस्थान पर्यन्त ही रहता है, नहीं होता। इस तरह पाँचवें गुणस्थान-सम्बन्धी उन्तालीस हेतुमेंसे पन्द्रह घटा देनेपर शेष चौबीस रहते हैं। ये चौबीस तथा आहारिक द्विक कुल छब्बीस बन्ध-हेतु छठे गुणस्थान में है । ७- सातवें गुणस्थानमें वैक्रियशरीर के श्रारम्भ और परित्यागके समय वैक्रियमिश्र तथा आहारिक शरीर के आरम्भ और परित्याग के समय आहारिकमिश्र योग होता है । पर उस समय प्रमत्त-भाव होनेके कारण सातवाँ गुणस्थान नहीं होता । इस कारण इस गुणस्थानके बन्ध हेतुओं में ये दो योग नहीं गिने गये हैं! इस प्रकार इसमें चौबीस हेतु हैं । ८ - वैयि शरीरवालेको वैक्रियककाययोग और आहारिक शरीरवारको आहारिक काययोग होता है। ये दो शरीरवाले अधिक से अधिक सातवें गुणस्थानके ही अधिकारी हैं, आगे नहीं । इस कारण आठवें गुणस्थानके बन्ध-हेतुओं में इन दो योगों को नहीं ना है । इस प्रकार सिर्फ बाईस बन्धहेतु इस गुणस्थान में हैं । ६ - हास्य- पट्क अर्थात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय -- और जुगुप्सा आठवो आगेके गुणस्थान में नहीं होते। इसलिये Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय उन्हें छोड़कर आठवें गुणस्थानके बाईस हेतुओंमेंसे शेष सोलह बन्ध-हेतु नौवें गुणस्थानमें समझने चाहिये। १०-तीन वेद तथा संज्वलन क्रोध, मान और माया, इन छहका उदय नौवें गुणस्थान तक ही होता है। इस कारण इन्हें छोड़कर शेष दस बन्ध-हेतु दसवें गुणस्थानमें कहे गये हैं। ११-१२-संचलन लोभका उदय दसवें गुणस्थन तक ही रहता है। इसलिये इसके सिवाय उक्त दसमेंसे शेष नौ हेतु ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थानमें पाये जाते हैं । नौ हेतु ये हैं:चार मनोयोग, चार वचनयोग और एक औदारिकाययोग । १३-तेरहवें गुणस्थानमें सात हेतु हैं:-सत्य और असत्यामृषामनोयोग, सत्य और असत्यामृषावचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग तथा कार्मणकारयोग । १४-चौदहवें गुणस्थानमें योगका अभाव है। इसलिये इसमें बन्ध-हेतु सर्वथा नहीं है। संक्षेप १-पहिले गुणस्थानमें पचपन बन्ध-हेतुई। २-दूसरे गुणस्थानमें पचास बन्ध-हेतु।। ३-तीसरे गुणस्थानमें तेतालीस बन्धातु हैं। ४-चौथे गुणस्थानमें छयालीस बन्धहेतु हैं। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * कर्म अधिकार * १६३ ५-पाँचवें गुणस्थानमें उन्तालीस बन्ध-हेतु हैं। ६-छठे गुणस्थानमें छब्बीस बन्ध-हेतु हैं । ७-सातवें गुणस्थानमें चौबीस बन्ध-हेतु हैं। ८-आठवें गुणस्थानमें बाईस बन्ध-हेतु हैं। ६-नौवें गुणस्थानमें सोलह बन्ध-हेतु हैं। १०-दसवें गुणस्थान में दस बन्ध हेतु हैं। ११-१२-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें नौ बन्धहेतु हैं। १३-तेरहवें गुणस्थानमें सात बन्ध-हेतु हैं । १४-चौदहवें गुणस्थानमें बन्ध-हेतु नहीं होते। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व अधिकार मित्व, पुद्गल, पुण्य, पाप आदि तत्त्वों ( पदार्थों ) का जो यथार्थ ज्ञान है अर्थात् श्रद्धान अथवा तथ्यतादृश स्वरूपकी जो जानकारी है, उसे 'सम्यक्त्व' कहते हैं । श्रीजिनेन्द्रदेव ने कहा है कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र, इन तीनों की प्राप्तिसे सिद्धपद अथवा मोक्षका उपार्जन किया जाता है ।* * दिगम्बर सम्प्रदायमें मोक्षके कारण तो यही तीन माने गये हैं । किन्तु उनके क्रममें थोडासा अन्तर है और वह यह है कि वे सम्यग्दर्शन को सम्यग्ज्ञानसे पहले मानते हैं। यथा-"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः"-मोक्षशास्त्र । उनका कहना है कि जबतक जीवको श्रात्माकी रुचि पैदा नहीं होती, तबतक वह तत्सम्बन्धी विशेष ज्ञान उपार्जनके लिये प्रयत्नशील नहीं हो सकता और जबतक उसका विशिष्ट ज्ञान न हो, तबतक तदनुकूल प्राचरण करना घटित नहीं होता। सामान्य ज्ञान तो सभी संसारी जीवोंको स्वतः होता ही है । रोगीको रोग-मुक्त होनेकेलिये प्रथम वैद्यपर श्रद्धा करनेकी अावश्यकता है। बादमें वह जो औषधोपचार बतलावे, उसका ज्ञान-स्मरण . रहना भी आवश्यक है। तत्पश्चात् तदनुकूल श्रौषधि-निर्माण-सेवन भी अति-यावश्यक है। तभी वह रोगी रोग-मुक्त हो सकता है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नवतत्त्व अधिकार # १६५ १ - संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरहित अर्थात् शुद्ध और यथार्थ तत्त्वों - पदार्थों के जाननेको 'सम्यग्ज्ञान' कहते हैं । २ - सम्यक् ज्ञानके द्वारा जाने हुए पदार्थों का जो श्रद्धानविश्वास करना है, उसे 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं । ३ - मिध्यात्व कषायादिक संसारकी कारणरूप क्रियाओं से विरक्त होने को 'सम्यक्चारित्र' कहते हैं । जिस प्रकार व्याधियुक्त रोगी औषधिका ज्ञान, श्रद्धान और उपचारका ठीक-ठीक पालन करे तभी वह रोगसे मुक्त होता है । एक बात की भी कमी होनेसे रोग नहीं जा सकता है । इसी प्रकार सम्यक ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र से मोक्षकी माप्ति होती है। अगर इनमें से एक बात की भी कमी हो तो मोक्ष पाना दुर्लभ है । बिना ज्ञानके सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, ज्ञानकी प्राप्ति बिना चारित्रकी प्राप्ति नहीं होती और चारित्रकी प्राप्ति बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । इस कारण प्रथम ज्ञान उपार्जन करने की परम आवश्यकता हैं । भव्य प्राणियोंको ज्ञानका आराधन करना चाहिये । क्योंकि ज्ञान पाप-रूपी तिमिरको नष्ट करनेके लिये सूर्य के समान है; मोक्ष-रूपी लक्ष्मीके निवास करनेके लिये कमलके समान है; कामरूपी सर्पको कीलने के लिये इस्ती के लिये सिंहके समान है; मन्त्र के समान है: माया रूपी व्यसन – आपदा - कष्ट-रूपी Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय - - मेघोंको उड़ानेकेलिये पवनके समान है और समस्त तत्त्वोंको प्रकाशित करनेकेलिये दीपकके समान है। ___ ज्ञानके बिना मुमुक्षु मनुष्य किस प्रकार मोक्षको प्राप्त कर सकते हैं ? इस कारण ज्ञानी पुरुषोंने मोक्षकी इच्छा रखनेवालोंके लिये नवतत्त्वरूपी ज्ञान फरमाया है, जो निम्न प्रकार है: १--जीव, २-अजीव, ३-पुण्य, ४-पाप, ५-पासव, ६-बन्ध, ७-संवर, ८-निर्जरा और :--मोक्ष । जीव जीव सदासे है और सदा रहेगा। इसको न कभी किसीने बनाया और न कभी इसका नाश होगा । सदा काल यह जीवितजिन्दा रहता है। इसी कारण यह 'जीव' कहलाता है। जो सुखदुःखको भोगता है-अनुभव करता है, उसे 'जीव' कहते हैं ! जीवका लक्षण चेतना है, जो सदा इसके साथ रहती है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश बादलों से ढका रहता है, उसी प्रकार इस जीवका ज्ञान-दर्शन-गुण ज्ञानावरणीय प्रादि कर्म-पुद्गलोंसे ढका रहता है। ___ संसारमें जीव अनन्तानन्त हैं-बेशुमार हैं। लेकिन फिर भी सर्वज्ञाज्ञानुसार शास्त्रकारोंने उनका अनेक रूपसे वर्गीकरण किया है। यथा-- १--संसारके समस्त जीवोंमें चैतन्य होनेसे वे सब एक प्रकारके हैं। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार १६७ ROORananatanaaunee २-जीव दो प्रकारके होते हैं। एक तो वे जीव हैं जो कर्मसहित हैं-कर्मके वशीभूत हैं; नाना प्रकारके जन्म-मरण करते हुए संसारमें संसरण-भ्रमण करते रहते हैं, इसलिये उनको 'संसारी जीव' कहते हैं। दूसरे वे हैं जो समस्त कर्मोको क्षयकर अर्थात् काटकर मुक्त हो गये हैं, उन्हें 'मुक्त जीव' अथवा 'सिद्ध जीव' कहते हैं। __३--मोक्ष प्राप्त हुये जीव सब एक प्रकारके होते हैं, परन्तु संसारी जीव अनेक प्रकारके होते हैं। इस कारण केवल संसारी जीवोंके ही भेद बताये जाते हैं : १--सूक्ष्म एकेन्द्रिय, २-बादर एकेन्द्रिय, ३--द्वीन्द्रिय, ४-त्रीन्द्रिय, ५--चतुरिन्द्रिय, ६-असैनी (असंज्ञी) पञ्चेन्द्रिय और ७-सैनी (संज्ञी) पञ्चेन्द्रिय । ___ संसारमें पञ्चेन्द्रिय जीव दो प्रकारके होते हैं। एक तो वे जिनके मन नहीं होता, उन्हें 'असैनी' कहते हैं। ये जीव मातापिताके संयोगके बिना ही पैदा होते हैं अर्थात् पानी, पृथ्वी, वायु आदिके संयोग-विशेषसे पैदा होते हैं। दूसरे वे जो माताकी रज और पिताके वीर्य के संसर्गसे पैदा होते हैं। इनके मन होता है। इसलिये ये 'सैनी' (संज्ञी) कहलाते हैं। १-सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे किसी यन्त्र द्वारा भी नहीं देखे जा सकते । इस प्रकारके पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिके अनन्तानन्त-जीव समस्त लोकमें Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय भरे हुये हैं। ये केवल ज्ञान द्वारा ही अवलोकन किए जा सकते हैं। ___-बादर एकेन्द्रिय जीव भी नेत्रोंद्वारा कठिनतासे दीख पड़ते हैं, पर यन्त्रद्वारा आसानीसे दीख जाते हैं। इस प्रकारके पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पतिके अतन्तानन्त जीव हैं । सूक्ष्म और बादर जीवोंके केवल स्पर्श इन्द्रिय ही होती है। अर्थात् केवल शरीर ही होता है । ३-द्वीन्द्रिय-जीव वे होते हैं, जिनके केवल दो ही इन्द्रियाँ होती हैं। एक स्पर्श और दूसरी रसना अर्थात् जिह्वा । जैसेकेचुआ, लट श्रादि। ४-त्रीन्द्रिय-जीव वे होते हैं, जिनके केवल तीन इन्द्रियाँ होती हैं। एक स्पर्श, दूसरी रसना और तीसरी ब्राण अर्थात् नासिका । जैसे-चींटी, खटमल आदि । ५-चतुरिन्द्रिय-जीव वे होते हैं, जिनके केवल चार ही इन्द्रियाँ होती हैं। एक स्पर्श, दूसरी रसना, तीसरी घ्राण और चौथी नेत्र । जैसे-मकड़ी, भौंरा आदि। ६-असैनी पञ्चेन्द्रिय-जीव वे होते हैं, जिनके पाँच इन्द्रियाँ होती हैं। एक स्पर्श, दूसरी रसना, तीसरी घ्राण, चौथी नेत्र और पाँचवीं श्रोत्र अर्थात् कान। इन जीवोंके मन नहीं होता है। जैसे-मेंढक आदि। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार * - 200000 ७-सैनी पञ्चेन्द्रिय-जीव वे होते हैं, जिनके उपरोक्त पाँच इन्द्रियाँ और मन होता है । जैसे-मनुष्य, पशु आदि । जीवके शरीर प्रश्न-शरीर किसको कहते हैं ? उत्तर-जिसमें प्रतिक्षण बढ़ने घटनेका धर्म हो अथवा जो शरीरनाम-कर्मके उदयसे उत्पन्न होता हो, उसे 'शरीर' कहते हैं। शास्त्रकारोंने शरीर पाँच प्रकारके बताये हैं। १-औदारिक, २-वैक्रियक, ३-पाहारिक, ४-तैजस और ५-कार्मण । १-मनुष्य, पशु आदिके स्थूल शरीरको, जिसमें हाड़, मांस, लोहू आदि हो, उसको 'औदारिक-शरीर' कहते हैं। ___ २-जिसमें छोटे-बड़े एक-अनेक श्रादि नाना प्रकारके रूप बनानेकी शक्ति हो, उसको 'वैक्रयिक-शरीर' कहते हैं । वैक्रयिकशरीर देव और नारकीके होते हैं। इनमें लोहू, हाड़, मांस आदि नहीं होते। जब ये मरते हैं तो इनके शरीर कपूरकी तरह बिखर जाते हैं। ३-कुछ पहुँचे हुए मुनियों (छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों) को जब तत्त्वोंमें कोई ऐसी पपृच्छा हो जाती है, जिसका समाधान तीर्थक्कर या श्रुतकेवली बिना अन्य किसी ज्ञानीसे नहीं हो सकता हो तब वे तीर्थकर महाराज या केवली महाराजके निकट जानेके लिये अपने शरीरमेंसे एक हाथका पुतला निकालते है, वह Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय उनके पास जाकर प्रश्नका उत्तर लाकर मुनिराजोंको समाहितचित्त करता है। इस प्रकारके पुतले रूपी शरीरको 'श्राहारिकशरीर' कहते हैं। ४-ग्रहण किये हुए श्राहारको जो पचावे, उसको 'तेजस शरीर' कहते हैं। ५-ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके समूहको 'कार्मण शरीर' कहते हैं। यह शरीर संसारी जीवके हर हालतमें रहता है और उसके परिभ्रमणका यही कारण होता है। ___ औदारिक शरीरसे वैक्रयिक शरीर सूक्ष्म होता है, वैक्रयिकसे आहारिक सूक्ष्म होता है, आहारिकसे तैजस सूक्ष्म होता है और तैजससे कार्मण शरीर सूक्ष्म होता है। औदारिक शरीरमें जितने परमाणु हैं, उनसे असंख्यगुणे परमाणु वैक्रयिक शरीरमें हैं। वैक्रयिक शरीरसे असंख्यगुणे परमाणु आहारिक शरीरमें हैं। तेजस और कार्मण शरीर अनन्तगुणे परमाणुवाले होते हैं अर्थात् श्राहारिकसे अनन्त गुणे परमाणु तैजस शरीरमें हैं. और तेजससे अनन्तगुणे परमाणु कार्मण शरीरमें होते हैं। तैजस और कार्मण शरीर आत्मासे अनादि कालसे सम्बन्ध रखते हैं अर्थात् ये दोनों शरीर संसारके समस्त जीवोंके साथ अनादिसे लगे हुए हैं और तब तक जीवके साथ लगे भी रहेंगे जब तक उसकी मुक्ति नहीं हो जाती है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] नवतत्त्व अधिकार #* १७१ जीवके साथ सदा दो शरीर तैजस और कामेण तो रहते ही हैं; अगर तीन हों तो श्रदारिक, तैजस और कार्मण होते हैं अथवा वैक्रयिक, तैजस और कार्मण, ये तीन भी होते हैं । परन्तु ये देव तथा नरक गतिमें ही होते हैं। यदि किसीके एक साथ चार शरीर हों तो औदारिक, आहारिक, तैजस और कार्मण होते हैं । बस, एक साथ एक जीवके एक समय में चार से अधिक शरीर नहीं हो सकते । जीवकी गति एक शरीरको छोड़ कर नया शरीर धारण करने के लिये जीव जो गति अर्थात् गमन करता है, वह कार्मण शरीरके योगके द्वारा ही करता है। जीवकी इस गतिको 'विग्रह गति' कहते हैं और वह आकाशके प्रदेशानुसार ही होती है, अन्य प्रकार नहीं । एक शरीरको छोड़ कर जीव जब नया शरीर धारण करता है तो उसको अधिक-से-अधिक तीन समय लगते हैं। चौथे समय में अवश्य वह नवीन शरीरके योग्य पुद्गल ग्रहण कर लेता है। जो जीव मोड़ा बिना गमन अर्थात् सीधा गमन करता है, वह एक समय मात्र में ही नवीन शरीरके योग्य पुद्गल ग्रहरण कर लेता है। मुक्त जीवकी गति वक्रता रहित ( मोड़ा रहित ) सीधी होती है, अर्थात् मुक्त जीव एक समय में सीधा सात राजू ऊँचा १२ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय गमन करता हुआ सिद्ध क्षेत्रमें चला जाता है--इधर-उधर नहीं मुड़ता। एक शरीरको छोड़कर कर्म-परवश जीव दूसरी जगह जहाँ जाता है, वहाँ वह सबसे पहले पुद्गल वर्गणाएं ग्रहण करता है। उस वर्णना-पिण्डमेंसे वह अपना शरीर रचना प्रारम्भ करता है। ऊपर हम सात प्रकारके जीव बता पाये हैं। उनमेंस जीव जब अाहारवर्गणा, शरीरवर्गणा, इन्द्रियवर्गणा, स्वासोच्छवासवर्गणा, भाषावर्गणा और मनोवर्गणाके पूर्ण पुद्गलोंको प्राप्त कर लेता है, तब वह 'पर्याप्त' कहलाता है। और जब इनके पूर्ण करनेके पहले ही मृत्युको प्राप्त कर लेता है, तब वह 'अपर्याप्त' कहलाता है। इस प्रकार जीवोंके सात अपर्याप्त और सात पर्याप्त मिलाकर चौदह भेद होते हैं। जब जीव एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरमें जाता है, तब वह प्रथम उस 'पिण्ड' को ग्रहण करता है जिससे कि वह अपना शरीर आदि बनावेगा। उसके इस पिण्डको 'आहार' कहते हैं। फिर उससे वह अपना शरीर बनाता है । उसके बाद इन्द्रियाँ बनाता है। इसके बाद उसके श्वासोच्छ्रास चलते हैं। फिर भाषा प्राप्त करता है और सबके अन्त में मन प्राप्त करता है। जब तक जीव एक शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण नहीं करता है, तब तक वह 'अनाहारक' रहता है । जीव कम-से-कम एक समय Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * नवतत्त्व अधिकार * १७३ तक और अधिक-से-अधिक तीन समय तक अनाहारक रहता है। पाँच इन्द्रिय और मनके निम्नलिखित पृथक्-पृथक् विषय हैं: १-स्पर्श इन्द्रियका विषय स्पर्श करना अर्थात् छूना है, २-रसना इन्द्रियका विषय रस चखना अर्थात् स्वाद लेना है, ३-घ्राण इन्द्रियका विषय सुगन्ध लेना अर्थात् संघना है, ४नेत्र इन्द्रियका विषय वर्ण-ग्रहण अर्थात् देखना है और ५श्रोत्र इन्द्रियका विषय शब्द-ग्रहण अर्थात् सुनना है। मनका विषय श्रुतज्ञानगोचर पदार्थ है। जीव एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको तीन प्रकारसे धारण करता है अर्थात् जन्म लेता है । १-सम्मूर्छन, २-गर्भ और ३-उपपाद। . १-अपने योग्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी विशेषतासे तीन लोकमें भरे हुए अपने चारों ओरके पुद्गल परमाणुओंसे (माता-पिताके रजोवीर्यके मिलने के बिना ही) देहकी रचना होने को 'सम्मूर्छनजन्म' कहते हैं। इनके शास्त्र में चौदह स्थान बताये हैं। २-स्त्रीके गर्भाशयमें माताके रज और पिताके वीर्यके संयोगसे जो जन्म होता है. उसे 'गर्भजन्म' कहते हैं। ____३-माता-पिताके रज-वीर्यके बिना देवयोनिके स्थान-विशेषमें जो जन्म होता है, उसे 'उपपादजन्म' कहते हैं। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय जरायुज, अण्डज और पोत जीवोंका गर्भजन्म होता है; देव और नारकियोंका उपपादजन्म होता है और शेष समस्त जीवों का-बिच्छू, काँतर, मेढ़क आदिका सम्मूर्छनजन्म होता है । जीवोंके भेद शास्त्रकारोंने संसारी समस्त जीवोंको चार हिस्सों में विभाजित किया है:-- १-नारकीय, २-तिर्यञ्च, ३-मनुष्य और ४-देव । (१) शास्त्रकारोंने सात नरक फरमाये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं: १-धम्मा, २-बंसा, ३-मवा-सीला, ४-अंजना, ५-अरिष्टा-निष्ठा, ६-मघा और 5-माधवी । इन सातो नरकों में रहनेवाले नारकीय जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त करके कुल चौदह भेद होते हैं। (२) तिर्यन्त्र के भेद इस प्रकार हैं: १-पृथ्वीकायके दो भेद-सूक्ष्म और बादर। इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, इस तरह चार भेद होते हैं। • 'जरायुजाएडजपोतानां गर्मः', 'देवनारकाणामुपपादा', 'शेषाणां सम्मूईनम्। -उमास्वाति । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * नवतत्त्व अधिकार * १७५ - २-अप (पानी) कायके भी दो भेद-सूक्ष्म और बादर । इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, इस प्रकार चार भेद होते हैं। ३-तेऊ (अग्नि ) कायके भी दो भेद-सूक्ष्म और बादर । इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, इस प्रकार चार भेद होते हैं। ४-वायुकायके भी दो भेद-सूक्ष्म और बादर । इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, इस प्रकार चार भेद होते हैं। ____५-वनस्पतिकायके भी सूक्ष्म और बादर, इस तरह दो भेद होते हैं। वनस्पतिके प्रत्येक और साधारणके भेदसे दो भेद और होते हैं। एक शरीरका जो एक जीव अधिष्ठाता हो, उसे 'प्रत्येक वनस्पति और एक शरीरके अनन्तानन्त जीव अधिष्ठाता हो, उसे 'साधारण वनस्पति' कहते हैं। इन तीनों प्रकारके वनस्पति जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद होनेसे वनस्पति के छह भेद होते हैं। ६-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय, इन तीनोंके पर्याय और अपर्याप, इस प्रकार छह भेद होते हैं। ७- पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके भेद बताये जाते हैं: १-मगर-मच्छ आदि जलचर जीवोंके चार भेद-सैनी, असैनी, पर्याम और अपर्याम । २-गाय-बैल आदि स्थलचर जीवोंके चार भेद-सैनी, असैनी, पर्याप्त और अपर्याप्त । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय _____३-मैना-तोता आदि खेचर जीवोंके चार भेद-सैनी, असैनी, पर्याप्त और अपर्याप्त । ४--साँप आदि उरःपरिसर्पके चार भेद-सैनी, असैनी, पर्याप्त और अपर्याप्त। ५-नौला-चूहा आदि भुजपरिसर्पके चार भेद-सनी, असैनी, पर्याप्त और अपर्याप्त । इस प्रकार तिर्यश्च पञ्चन्द्रियके २२+६+२० = कुल ४८ भेद हुये। (३) मनुष्यके भेद इस प्रकार हैं: शास्त्रकारोंने दो प्रकारकी भूमि फरमाई है--एक वह, जहाँ व्यापार, कृषि आदि कार्य होते हैं; उसे 'कर्मभूमि' कहते हैं। और दूसरी वह, जिसमें मनुष्योंको कोई कार्य नहीं करना पड़ता है। उनकी इच्छायें कल्पवृक्षांसे पूर्ण हो जाती हैं; उसे 'अकर्मभूमि' या 'भोगभूमि' कहते हैं। जहाँ मनुष्य पाये जाते हैं, ऐसे केवल तीन बड़े बड़े द्वीप है: १-जम्बूद्वीप, २-धातकीखण्ड और ३-पुष्करार्धद्वीप । १--जम्बूद्वीपमें तीन क्षेत्र हैं। १-मरत, १-ऐरावत, और १-महाविदेड । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार * २-धातकीखण्डमें छह क्षेत्र हैं। २-भरत, २-ऐरावत और २-महाविदेह । ३-पुष्कराद्वीपमें भी छह क्षेत्र हैं। २-भरत, २-ऐरावत और २-महाविदेह। इस प्रकार कर्मभूमिज मनुष्योंके १५ क्षेत्र हैं। अकर्मभूमिके क्षेत्र इस प्रकार हैं-जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, और पुष्कराधद्वीप। १- जम्बूद्वीपमें छह क्षेत्र हैं:-१-देवकुरु, १-उत्तरकुरु, १हरिवास, १-रम्यक वाम, १-हेमवास और १-एरण्यवास । २-धातकीखण्डमें बारह क्षेत्र है:-२-देवकुरु, २-उत्तरकुरु, २-हरिवास, २-रम्यकवास, २-हेमवाम और २-एरण्यवास । ३-पुष्कराधद्वीपमें भी बारह क्षेत्र हैं:-२-देवकुरु, २- उत्तरकुरु, २-हरिवास, २-रम्यकवास, २-हेमवास और २-एरण्यवास। ____इस प्रकार तीस क्षेत्र अकर्मभूमिज-भोगभूमिज मनुष्यों के हैं। अकर्मभूमि इस प्रकार और हैं:____ जम्बूद्वीप में भारत क्षेत्रकी हद्द करनेवाला 'चूलहेमवन्त' नामक पवत है और ऐरावत क्षेत्रकी हद्द करनेवाला 'शिखरी' नामक पर्वत है । इन दोनों पर्वतोंके दोनों कोनोंसे दो-दो शाखायें निकली हैं। इन चारों शाखाओं से दो-दो अर्थात् पाठ उप Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय शाखाएँ और निकली हैं। प्रत्येक उप-शाखापर सात-सात द्वीप हैं। इस प्रकार ८४७=५६ 'अन्तीप' हैं। इन सब अन्तीपोंमें जो 'युगलिये' मनुष्य रहते हैं, वे भी कोई कर्म नहीं करते हैं। कल्प-वृक्ष इन मनुष्योंकी इच्छाओंको पूरा किया करते हैं। इस प्रकार कर्मभूमि और अकर्मभूमिके कुल क्षेत्र १५+३०+५६=१०१ होते हैं। इनमें रहनेवाले मनुष्य परस्परम विशेष स्वभावके रखनेवाले हैं। इस प्रकार एक-सौ एक भेद मनुष्योंके हुए । इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्रके भेद करनेसे कुल दो-सौ दो भेद होते हैं। इन उक्त एक-सी एक क्षेत्रोत्पन्न मनुष्योंक विष्टा, पेशाव, खकार, नाकका मैल, वमन, पित्त, पीप, रक्त, वीय, वीय के सूके पुद्गल, मृतक शरीर, स्त्री-पुरुपकं संयोग, नगरके नालेनालियों आदि अशुचि स्थानों में अन्तमुहर्त में असंख्य समृद्रिम (सूक्ष्म मनुष्य ) उत्पन्न होते हैं। चूंकि एक-सी एक प्रकार के मनुष्य होते हैं। इस कारगा ये संमृच्छिम जीव भी एक-सौ एक प्रकारके होते हैं । ये अपर्याप्त अवस्थाहीमें कालको प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार मनुष्य के कुल तीन-सौ तीन भेद हैं। (४) देवताओंके भेद इस प्रकार हैं: १-भवनपतिदेव दस जातिके, २-परमाधामीदेव पन्द्रह जातिक, ३-वाणव्यन्तरदेव सोलह जातिके, ४-ज्योतिषीदेव दस जातिके, ५-किल्विपीदेव तीन जातिके, ६-बारह Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार * १७६ - देवलोकके देव बारह जातिके, ७-लौकान्तिकदेव नव प्रकारके, ८-अवेयकदेव नव प्रकारके और अनुत्तरदेव पाँच प्रकारके हाते हैं । इस प्रकार कुल देव निन्यानवे जातिके होते हैं। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद होनेसे देवताओंके कुल भेद एक-सौ अदानवे होते हैं। ___ इस प्रकारसे नरकके १४, तिर्यञ्चके ४८, मनुष्य के ३०३ और देवक १६८ कुल मिलकर सब ५६३ भेद जीवके हुए । ___ लोगोंके मनमें प्रायः यह शङ्का उत्पन्न होती रहती है कि यहाँ जो जीव एक छोटेसे शरीरमें होता है, वही बड़े शरीरमें कैसे व्याप्त हो जाता है ? इसका उत्तर यह है कि एक जीवके प्रदेश लोकाकाशके समान है अर्थात् जीव असंख्य-प्रदेशी हैं। जीवके असंख्यात प्रदेश दीपककी रोशनीक समान संकोच-विस्तार-शील होते हैं। उन्हें जैसा आधार-प्राश्रय-शरीर प्राप्त हो जाता है, वे वैसे ही संकोच-विस्ताररूप हो जाते हैं। दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि जिस प्रकार दीपककी रोशनी एक छोटी-सी कोठरीमें होती है और वही दीपक अगर किसी बड़े कमरे में रख दिया जाय तो रोशनी तमाम कमरेमें फैल जाती है। इसी प्रकार श्रात्मा अर्थात जीवका स्वभाव है। जीवके प्राण १-जिस शक्तिके निमित्तसे प्रात्मा प्राण धारण करे, उसको 'जीवत्वगुण' कहते हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास [द्वितीय २-जिसके संयोगसे यह जीव जीवन अवस्थाको प्राप्त हो और वियोगसे मरण अवस्थाको प्राप्त हो, उसको 'प्राण' कहते हैं। ३-प्राण दो प्रकारके होते हैं:-एक द्रव्य प्राण और दूसरा भाव प्राण । (१) द्रव्य प्राण दस हैं:-मनोबल प्राण, वचनबल प्राण, कायबल प्राण, स्पर्शेन्द्रियबल प्राण, रसनेन्द्रियबल प्राण, घ्राणेन्द्रियबल प्राण, चक्षुरिन्द्रियबल प्राण, श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण, श्वासोच्छ्वास और आयु। (२) प्रात्माकी जिस शक्तिके निमित्तसे इन्द्रियादिक अपने कार्यमें प्रवृत्त हों, उसे 'भाव प्राण' कहते हैं। (क) एकेन्द्रिय जीवके चार प्राण होते हैं:-स्पर्शेन्द्रिय, कायबल, श्वासोच्छ्वास और आयु । (ख) द्वीन्द्रियके छहः-स्पर्शेन्द्रिय, कायबल, श्वासोच्छवास, आयु, रसनेन्द्रिय और वचनबल । (ग) त्रीन्द्रियके सात प्राण:-उपरोक्त छह और घ्राणेन्द्रिय । (घ) चतुरिन्द्रिय के पाठः-उपरोक्त सात और एक चक्षुरिन्द्रियबल प्राण। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * नवतत्त्व अधिकार * १८१ - (ङ) पञ्चेन्द्रिय असंझीके नौ प्राणः-उपरोक्त आठ और और एक श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण । (च) सैनी पञ्चेन्द्रियके दस प्राण:-उपरोक्त नौ और एक मनोबल। जीवोंकी आयु और स्थिति १-एकेन्द्रिय जीवकी कम-से-कम आयु एक अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक बाईस हजार वर्षकी होती है। ____२-द्वीन्द्रिय जीवकी कम-से-कम अन्तमहूर्त और अधिकसे अधिक बारह वर्षकी होती है। ___३-त्रीन्द्रिय जीवकी कम-से-कम एक अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक उनचास रात्रि-दिनकी होती है। ४-चतुरिन्द्रिय जीवकी कम-से-कम एक अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक छह महीनेकी होती है। ५-पञ्चेन्द्रिय जीवकी कम-से-कम एक अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक तेतीस सागरकी होती है। १-एकेन्द्रिय एकेन्द्रिय अवस्थामें कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक अनन्त काल तक । २-द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रिय अवस्थामें कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक असंख्यात काल तक | Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय ३-त्रीन्द्रिय त्रीन्द्रिय अवस्थामें कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक असंख्यात काल तक। __४-चतुरिन्द्रिय चतुरिन्द्रिय अवस्थामें कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक असंख्यात काल तक । ५-पञ्चेन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय अवस्थामें कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक एक हजार सागर तक। ___ अपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवसे लेकर पञ्चेन्द्रिय जीव तककी कम-से-कम और अधिक-से-अधिक एक अन्तर्मुहूर्तकी आयु है। १-एकेन्द्रिय जीव पर्याप्त अवस्थामें कम-से-कम अन्तर्मुहृत और अधिक-से-अधिक संख्यात हजार वर्ष तक रहै। २-द्वीन्द्रिय जीव पर्याप्त अवस्था में कम से कम अन्तर्मुहर्त । और अधिक से अधिक संख्यात वर्ष तक रहै। ३-त्रीन्द्रिय जीव पर्याप्त अवस्थामें कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक संख्यात रात्रि-दिन रहै। ४-चतुरिन्द्रिय जीव पान अवस्थामं कम-से-कम अन्तमहत और अधिक-से-अधिक संख्यात मास तक रहे। ___५-पञ्चेन्द्रिय जीव पर्याप्त अवस्थामें कम-से-कम अन्तर्मुहूते और अधिक-से-अधिक तेतीस सागरसे कुछ अधिक रहै। . १-एकेन्द्रियका अन्तरकाल कम-से-कम एक अन्तर्मुहर्त । और अधिक-से-अधिक दो हजार सागर और संख्यात हजार वर्ष है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार * १८३ २-द्वीन्द्रियका अन्तरकाल कम-से-कम एक अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक अनन्तकाल है। ३-त्रीन्द्रियका अन्तरकाल कम-से-कम एक अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक अनन्तकाल है। ४-चतुरिन्द्रियका अन्तरकाल कम-से-कम एक अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक अनन्तकाल है। ५-पञ्चेन्द्रियका अन्तरकाल कम-से-कम एक अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक अनन्तकाल है। जीवोंका अल्प-बहुत्व लोकमें सबसे कम जीव संझी पञ्चेन्द्रिय हैं। इनसे विशेषाधिक असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव हैं । इनसे विशेषाधिक चतुरिन्द्रिय जीव है। इनसे विशेषाधिक त्रीन्द्रिय जीव हैं। इनसे विशेषाधिक द्वीन्द्रिय जीव हैं । एकेन्द्रिय जीव उनसे अनन्त गुणे हैं। ___ सबसे कम संख्यामं चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीव हैं। इनसे पञ्चन्द्रिय पर्याप्त जीव विशेषाधिक संख्यामें हैं। इनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीव विशेषाधिक संख्यामें हैं। इनसे त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीव विशेषाधिक संख्यामें हैं। इनसे पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीव असंख्यातगुण हैं । इनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेषाधिक हैं। इनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेषाधिक हैं। इनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेषाधिक है। 'इनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव अनन्तगुणे हैं। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय १ - संसार में सबसे थोड़े पुरुषवेदी; इनसे स्त्रीवेदी संख्यातवेदी अनन्तगुणे और इनसे नपुंसकवेदी अनन्त गुणे; इनसे गुणे जीव हैं। २ – संसार में सबसे थोड़े संयति हैं; इनसे असंख्यातगुणे संयतासंयति हैं; इनसे नो-संयति, नो- असंयति और नो-संयतासंयति अनन्तगुणे हैं और असंयति अनन्तगुणे जीव हैं। ३ - संसार में सबसे थोड़े सम्यग्दृष्टि हैं; इनसे मिश्रदृष्टि अनन्तगुणे हैं और मिध्यादृष्टि जीव भी अनन्त हैं । १८४ ४ - संसार में सबसे थोड़े संज्ञी जीव है; इनसे नो-संज्ञी नाअसंज्ञी अनन्तगुणे हैं और असंज्ञी जीव भी अनन्तगुण हैं । 1 ५ – संसार में सबसे थोड़े जीव अभव्य हैं, इनसे नो भव्य और नो- अभव्य अनन्तगुणे हैं और भव्य जीव अनन्तगुणे हैं। ६ – संसार में सबसे थोड़े अवधिदर्शनी हैं। इनसे असंख्यात - गुणे चतुर्दर्शनी है: केवलदर्शनी अनन्तगुणं हैं और श्रचतु दर्शनी भी अनन्तगुणे हैं । : ७ - संसार में सबसे थोड़े पर्यात जीव हैं। इनसे अनन्तगुणे नो-पर्याप्त और नो- अपर्याप्त हैं और अपर्याप्त जीव अनन्तगुणे हैं। ८- संसार में सबसे थोड़े जीव भाषक हैं और इनसे अनन्तगुणे जीव प्रभाषक हैं। ६- संसार में सबसे थोड़े परित हैं; इनसे नो-परित और तो अपरित अनन्तगुणे हैं और अपरित जीव अनन्तगुणे हैं। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार * - १०-संसारमें सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञानी जीव है; इनसे असंख्यातगुणे अवधिज्ञानी जीव हैं; मति और श्रतज्ञानी इनसे असंख्यातगुणे हैं, पर अापसमें तुल्य विशेषाधिक हैं और केवल. ज्ञानी जीव अनन्तगुणे हैं। ११-संसारमें सबसे थोड़े विभङ्गज्ञानी; इनसे मति-श्रुत अज्ञानी अनन्तगुण हैं, पर परस्पर तुल्य विशेषाधिक हैं। १२-संसारमें सबसे थोड़े मनोयोगी जीव हैं: इनसे असंख्यातगुणे वचनयोगी जीव हैं; अयोगी जीव अनन्तगुण हैं और काययोगी जीव भी अनन्तगण हैं। १३--संसारमें सबसे थोड़े जीव साकारोपयुक्त हैं; इनसे विशेषाधिक अनाकारोपयुक्त हैं। १४-संसारमें सबसे थोड़े पाहारिक जीव हैं। इनसे असंख्यात. गणे अनाहारिक जीव हैं। १५-संसार में सबसे थोड़े नो सूक्ष्म, नो-बादर जीव हैं। इनसे अनन्तगरणे बादर जीव हैं। सूक्ष्म जीव संख्यातगुणे हैं। १६-संमारमें सबसे थोड़े जीव अचरमी जीव हैं; इनसे अनन्तगुणं चरमी जीव हैं। संसारी जीवके गुण १-शरीर, २-अवगाहना, ३-संहनन, ४-संस्थान, ५-कषाय, ६-संज्ञा, लेश्या, 5-इन्द्रिय, ६-समुद्घात, १०-संज्ञा, ११-वेद, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वतीय १२- पर्याप्ति, १३ - दृष्टि, १४ - दर्शन, १५ - ज्ञान, १६ - योग, १७-उप२० - स्थिति, २१ - समोहाय योग, १८ - आहार, १६ - उपपात २२ - च्यवन और २३ - गति - श्रगति । १ - जीव जिसके द्वारा भोगोपभोग भोगता है तथा कर्मोंका क्षय करता है, उसे 'शरीर' कहते हैं। वह शरीरनामकर्मके उदयसे जीवको प्राप्त होता है। जिसका वर्णन 'कर्म अधिकार' में कर आये हैं । वह शरीर पाँच प्रकारका होता है - (१) श्रदारिक शरीर, (२) वैक्रिय शरीर, (३) आहारिक शरीर, (४) तैजस शरीर और (५) कार्मण शरीर । २ -- शरीर के क़द अथवा लम्बाईको 'अवगाहना' कहते हैं। अवगाहना कम-से-कम श्रङ्गुलके असंख्यातवें भाग-प्रमाण और अधिक-से-अधिक एक लक्ष योजनसे कुछ अधिक तक होती है। 1 ३- शरीर के हाड़ों के बन्धन विशेषको 'संहनन' कहते हैं । 'संहनन' नामक नाम-कर्म के उदयसे जीव को यह प्राप्त होता है । वह छह प्रकारका होता है: - वज्रऋषभनाराच संहनन, ऋषभनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलक संहन और सेवार्त (असंप्राप्ता पाटिका ) संहनन । ४ - शरीरकी आकृति अथवा शक्ल को 'संस्थान' कहते हैं । यह भी जीवको 'संस्थान' नाम कर्मके उदयसे प्राप्त होता है। यह छह प्रकारका होता है: -- समचतुस्र संस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, सादि संस्थान, वामन संस्थान, कुब्जक संस्थान और इंडक संस्थान | Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * नवतत्त्व अधिकार * ५-आत्माके बुरे परिणामोंको 'कपाय' कहते हैं । जीवको यह 'चारित्र मोहनीय कम'के उदयसे प्राप्त होती है। वह चार प्रकारकी है। १-क्रोध, २-मान, ३-माया और ४-लोभ । ६-अभिलाषाको-वालाको संज्ञा' कहते हैं। संज्ञाके चार भेद हैं:-१-आहार संज्ञा, २-भय संज्ञा, ३-मैथुन संत्रा और ४-परिग्रह संज्ञा। ____-जिस परिणाम-विशेष द्वारा आत्मा काँसे लिप्त होता है तथा योग और कपायकी तरंगसे जो उत्पन्न होती हो, ऐसे मन के शुभाशुभ परिणामको लश्या' कहते हैं। लेश्याके छह भेद हैं। १-कृष्ण लेश्या, २-नील लेश्या, ३-कापोत लेश्या, ४-तेजी लेश्या, ५-पद्म लेश्या और ६-शुक्ल लेश्या। -आत्माक लिङ्गको-चिह्नको 'इन्द्रिय' कहते हैं। इन्द्रियाँ पाँच प्रकारकी होती हैं । १-श्रीन्द्रिय, २-चक्षरिन्द्रिय, ३-घ्राणेन्द्रिय, ५-रसनेन्द्रिय और ५-स्पर्शन्द्रिय । ___-मूल शरीरको बिना छोड़े जीवके प्रदेशोंके बाहर निकलने को 'समुद्घात' कहते हैं। समुद्घातके सात भेद हैं। १-वंदनीय, २-कपाय, ३-मारणान्तिक, ४-वैक्रिय, ५-श्राहारिक, ६-तैजस और ७-कंवलि समुद्घात । १०-जिसमें संज्ञा हो-मन हो, उसे 'संज्ञी' कहते हैं और जिस जीवके मन नहीं होता है, उसे 'असंज्ञी' कहते हैं। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [ द्वितीय ११ – नोकषायके उदयसे उत्पन्न हुई जीवके मैथुन करनेकी अभिलाषाको 'भाववेद' कहते हैं । नाम-कर्मके उदयसे आविर्भूत जीवके चिह्न विशेषको 'द्रव्यवेद' कहते हैं । वेदके तीन भेद होते हैं: - १ - पुरुषवेद, २ - स्त्रीवेद और ३- नपुंसकवेद । · १८८ १२ - वर्गणाओं को आहार, भाषा आदि रूप परिणामावनेकी शक्तिकी पूर्णताको पर्याप्ति' कहते हैं। उसके छह भेद हैं: - १- आहार, २ - शरीर, ३ - इन्द्रिय, ४- श्वासोच्छ्वास, ५-भाषा और ३ - मनः पर्याप्ति । १३ - जीवकी मान्यता अथवा विचारोंको 'दृष्टि' कहते हैं । दृष्टि तीन प्रकारकी होती है: -- १- सम्यकदृष्टि, २- मिध्यादृष्टि और ३- मिश्रष्टि । १४- देखने को 'दर्शन' कहते हैं। ज्ञानके पहिले दर्शन होता है। बिना दर्शनके अल्पज्ञ जनोंको ज्ञान नहीं होता है परन्तु सर्वज्ञ देवको ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं । दर्शनके चार भेद होते हैं: - १ - चतुर्दर्शन, २- भचतुर्दर्शन, ३ - अवधिदर्शन और ४ - केवलदर्शन | १५ - किसी वस्तुकी जानकारीको 'ज्ञान' कहते हैं । ज्ञान के आठ भेद हैं: - १ - मतिज्ञान, २- श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४- मनः पर्यवज्ञान, ५- केवलज्ञान, ६-मनि श्रज्ञान, ७-श्रत श्रज्ञान - और = विभङ्गज्ञान | Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड # नवतत्त्व अधिकार * १८४ - - - -- १६-मन, वचन और कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंके चञ्चल होनेको 'योग' कहते हैं। योगके तीन भेद हैं:-१-मनोयोग, २-वचनयोग और ३-काययोग। १५-जीवके लक्षण रूप चैतन्यानुविधायी परिणामको 'उपयोग' कहते हैं। उपयोगके दो भेद हैं:-१-साकारोपयुक्त और २-अनाकारोपयुक्त। १८-औदारिक आदि शरीर और भाषा आदि पर्याप्रिक योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को 'आहार' कहते हैं। १६-गतिमें उत्पन्न होनेको 'उपपात' कहते हैं। उपपात पाँच प्रकारका होता है:-१-नरक, २-तिर्यन्च, ३-मनुष्य, ४देव और ५-सिद्ध। २०-जीवके एक शरीरमें रहनको स्थिति' कहते हैं। जीव की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागर है । २१-प्रदेशों की श्रेणीबद्ध व विना श्रेणीस जीवकी मृत्यु हानेको 'समोहाय' कहते हैं। २२-आयु पूर्ण होनेपर एक गतिसे छूटनेको 'च्यवन कहते हैं। २३-एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जानेको 'गमनागमन' कहते हैं। ये तीईस गुण प्रत्येक संसारी जीवमें होते हैं। इनके अवान्तर भेद भी ऊपर कहे गये हैं। वे किसी जीवके कितने ही होते हैं Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय और किसी जीवके कितने ही। उदाहरणकेलिये, 'सूक्ष्म पृथ्वीकाय'के जीवको लीजिए। उसमें: १--शरीर-औदारिक, तैजस और कार्मण । २-अवगाहना-जघन्य उत्कृष्ट अंगुलके असंख्यातवें भाग। ३-संहनन-सेवार्त। ४-संस्थान-मसूर की दाल व अर्धचन्द्रमाके आकारका । ५-कषाय-क्रोधादि चारों कपाय । ६-संज्ञा-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह । 5-लेश्या-कृष्ण, नील और कापोत । ८-इन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय । -समुद्घात-वंदनीय, कपाय और मारगान्तिक । १०-संज्ञी या असंज्ञो-असंजी। ११-वेद-नपुंसक वेद। १२-पर्याप्रि-आहारपर्यानि, शरीरपयामि, इन्द्रियपयामि और श्वासोच्छासपर्याप्ति । १३-दृष्टि-मिथ्या दृष्टि। १४-दर्शन-अचक्षुर्दशन। १५-ज्ञान-मति-अज्ञान और अत-अम्मान । १६-योग-काययोग। १७-उपयोग-साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * नवतत्त्व अधिकार * १६१ १८-आहार-द्रव्यसे अनन्तप्रदेशी स्कन्धका आहार करता है। क्षेत्रसे असंख्यातप्रदेश-अवगाही पुद्गलों का आहार करता है। कालस अन्यतर समय स्थितिवाले अर्थात् जघन्यस्थितिवाले, मध्यमस्थितिवाल व उत्कृष्टस्थितिवाल पुद्गलोंका थाहार करता है और मावसे वर्णमय, गन्धमय, रसमय और स्पर्शमय पुद्गलोंका आहार करता है । और आत्म-प्रदेशके साथ अवगाहे हुए पुद्गलों का आहार करता है। १६-उपपात-तियञ्च और मनुष्योमसे उत्पन्न होता है। तियञ्च में भी असंख्यात वपक आयुष्यवाले पर्याप्त व अपर्याप्त जीव उत्पन्न नहीं होते। वैसे ही असंख्यातवर्षक आयुष्यवाले अकर्मभूमिकं मनुष्य भी उत्पन्न नहीं होते। २०-स्थिति-जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त । २१-समाहाय-समोहता और असमाहता दोनों प्रकारका मरण करता है। २२-च्यवन-यह जीव नारकी व देवसे उत्पन्न नहीं होता है। सिर्फ तिर्यञ्च और मनुष्य से उत्पन्न होता है। २३-ति-प्रागति-तिर्यञ्च और मनुष्य इन दो गतिओं में जाता है। __ आत्मा और केवलज्ञान सांसारिक सुख या दुःखके होने में राग-द्वपकी तीव्रता कारण है। जब राग अतितीन हो जाता है, तब सांसारिक सुख और Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [ द्वितीय जब द्वेष अतितीव्र हो जाता है, तब सांसारिक दु:ख अनुभव में आता है । जब किसी इष्ट विषयके मिलने में असफलता होती हैं, तब उस वियोगसे द्वेषभाव होता है कि यह वियोग हटे । जिससे परिणाम बहुत ही संक्लेश रूप हो जाते हैं। उसी समय अरति तथा शोक नोकपायका तीव्र उदय हो आता है । बस, यह प्राणी दुःखका अनुभव करता है । कभी किसी अनिष्ट पदार्थसे द्वेष भाव होता है, तब उसका संयोग न हो, यह भाव होता है । तब भय तथा जुगुप्सा नोकपायका तीव्र उदय हो आता है । इसी समय यह कपाययुक्त जीव दुःखका अनुभव करता है । कपायोंमें माया, लोभ, हास्य, रति और तीनों वेद 'राग' तथा क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा 'द्वेष' कहलाते हैं। ये कपाय रूप राग या द्वेष प्रकट रूपसे एक समय में एक झलकते हैं, परन्तु एक दूसरे के कारण होकर शीघ्र बदला बदली कर लेते हैं। जैसे- किसी स्त्रीकी तृष्णासे राग हुआ, उसके वियोग होने पर दूसरे समय में द्वेष हो गया। फिर यदि उसका संयोग हुआ तब फिर राग हो गया, इत्यादि । परिणामों में संक्लेशता द्वेषसे होती है तथा उन्मत्तता आसक्ति रागसे होती है। बाहरी पदार्थ तो निमित्त कारण मात्र है । प्रयोजन यह है कि यही अशुद्ध आत्मा कपाय द्वारा सुखी तथा दुःखी होता रहता है। शरीर सुख या दुःख रूप नहीं होता Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लण्ड * नवतत्त्व अधिकार * १६३ - - - है । ऐसा जानकर सांसारिक सुखको कपाय-जनित विकार मानकर तथा निजाधीन निर्विकार आत्मिक सुखका उपाय ठीक-ठीक करना कर्तव्य समझकर उस मुखकेलिये निज शुद्धात्मामें उपयोग रखकर साम्य भावका मनन करना चाहिये । इन्द्रियोंका सुख बिजली के चमत्कारके समान अस्थिर है। अपना चमत्कार दिखाकर वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । तथा इस मुखसे तृष्णारूपी रोग मिटने की अपेक्षा और अधिक बढ़ जाता है । तृष्णाकी वृद्धि निरन्तर प्राणीको संतापित करती रहती है। यह इच्छाओंका दाहरूपी ताप जगत् के प्राणियोंको निरन्तर क्लेशित किया करता है। ये प्राणी उस पीड़ाके सहने में असमर्थ होकर नाना प्रकारके उद्यम करके धनका संग्रह करते हैं । फिर धन द्वारा विषयों की सामग्री लानेकी चेष्टा करते हैं और भोगते हैं। फिर भी शान्ति नहीं पाते और तृष्णा दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है । इस कारण इन्द्रियों के सुख का भोग अधिक अाकुलताका कारण है। इस रोगकी शान्तिका उपाय अपना प्रात्मानुभव ही है। श्रीसुपार्श्वनाथ भगवान्ने अच्छी तरह बता दिया है कि जीवोंका प्रयोजन क्षणभङ्गुर भोगोंसे सिद्ध नहीं होगा, किन्तु अविनाशी रूपसे अपने प्रात्मामें स्थिर होनेसे ही होगा। क्योंकि भोगोंसे तृष्णाकी वृद्धि होती जाती है, इस कारण ताप भी मिटता नहीं है । मतलब यह कि इन्द्रियों का सुख उलटा दुःखरूप ही है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ * जेलमें मेरा जनाभ्यास * [द्वितीय जैसे-खाज खुजानेसे खाजका रोग बढ़ता ही है, वैसे ही इन्द्रियों के भोगसे इच्छाओंका रोग बढ़ता ही जाता है। इन्द्रियों द्वारा होनेवाला सुख अशुद्ध है, पराधीन है, मोह व रागको बढ़ानेवाला है, अतृप्तिकारी है तथा कर्म-बन्धका बीज है, इसलिये त्यागनेयोग्य है। शास्त्रकारोंने यह भी बताया है कि सुख या दुःख अपने भावों में ही होता है । शरीरादि कोई बाहरी पदार्थ सुख या दुःखदायी नहीं है। जैसे-एक मनुष्य, जो कङ्कड़ोंपर सोता है, वह परम आनन्द मानता है और एक मनुष्य, जो तकिये-गद्दोपर सोता है, पर तब भी वह कष्ट महसूस करता है। इस कारण हमको अपनी मिथ्या बुद्धिको त्याग देना चाहिये कि यह शरीर, पुत्र, मित्र, स्त्री, धन, भोजन, वस्त्र आदि सुखदायी हैं । हमारी कल्पनासे ही ये सुखदायी तथा दुःखदायी भासते हैं । जैसे-जब स्त्री हमारी इच्छानुसार बनती है, तब वह सुखदायी भासती है; पर जब इच्छा-विरुद्ध कार्य करती है, तब वह दुःखदायी भासती है, इत्यादि। सच्चा आत्मिक श्रानन्द चार घाती कर्मके क्षय होनेपर स्वयं प्रकट हो जाता है । परमसुख आत्माका स्वभाव है । झानावरणीयादि चारों घाती कम शुद्ध अनन्त सुखक बाधक है। उनका जब नाश होजाता है, तब उस अात्मिक आनन्दकं प्रादुर्भावको कोई नहीं रोक सकता। यह आत्मिक सुख सब सुखोंसे श्रेष्ठ इसी Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार - - कारण है कि यह निज स्वभावसे पैदा हुआ है। इसमें किसी तरहकी पराधीनता नहीं है। इस सुखके भोगसे आत्मा संतुष्ट होजाता है तथा अपूर्व शान्तिका अनुभव करता है। इस सुखके मुताबिल में विषय भोगजन्य-इन्द्रियजन्य सुख हेच है, नाचीज है, अशान्तिका कारण है, तृष्णाका वर्द्धक है और कर्मबन्धका बीज है। घाती कौक नाश होजानेपर केवलज्ञानियों की जो सर्वोत्कृष्ट और निर्मल सुख प्राप्त होता है, वह विषय-भोगियोंकी तो बात ही क्या, गृहस्थ सम्यग्दृष्टियों तथा परिग्रह-त्यागी मुनियों तकको नसीब नहीं है। यद्यपि दोनोंकी जाति समान है, परन्तु उनकी उज्ज्वलता तथा बलमें अन्तर है। ज्यों-ज्यों कपाय घटता जाता है, त्यों-त्यों उज्ज्वलता बढ़ती जाती है। ज्यों-ज्यों अज्ञान घटता जाता है, त्या-त्यों स्पष्टता बढ़ती जाती है। ज्यों-ज्यों अन्तराय क्षय होता जाता है, त्यों-त्यों बल बढ़ता जाता है। बस, जब शुद्धता, स्पष्टता तथा पुष्टताके घातक सब आवरण हट जाते हैं, तब यह अतीन्द्रिय सुख अपने पूर्ण स्वभावसे प्रकट होजाता है और फिर अनन्तकालकेलिये वैसा ही रहता है अर्थात् एक समयकेलिये वह उससे अलग नहीं होगा और कम भी नहीं होगा। मोहनीय कमकं नाशसं अनन्त सुख. अन्तरायके नाशसे अनन्त बल, ज्ञानावरणीयक नाशसं अनन्त ज्ञान और दर्शनावरणीय कर्मक नाशसे अनन्त दर्शन प्रात्मामें उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रात्मिक ज्ञान-दर्शनको 'केवलज्ञान' और 'केवल Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय दर्शन' कहते हैं। इनके द्वारा आत्मा सर्वलोक और अलोक को प्रत्यक्ष देखता तथा जानता है । इस कारण उसको किसी प्रकारका अज्ञान नहीं रहता है। राग-द्वेपादि कषाय परिणाम आत्मामें विकार पैदा करके श्राकुलता तथा निर्बलता पैदा करते हैं। निर्बलता होनेसे खेद होता है। अतः मोहनीय और अन्तराय कर्मों के सर्वथा अभाव होनेसे किसी प्रकारका राग-द्वेष व निवलता-जनित खेद भाव भी नहीं रहता। आत्माके स्वभावके घातक सब विकार हट गए तथा स्वभावको प्रफुल्लित करनेवाले अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि गुण प्रकट होगये। इस ज्ञानके ( केवलज्ञान ) के प्रकट होते ही आत्माका यथार्थ स्वमात्र आत्माको प्राप्त हो जाता है। केवलज्ञान के साथ पूर्ण निराकुलता रहती है । इसलिये केवल ज्ञानको सुख स्वरूप कहा गया है। एक-एक इन्द्रिय एक-एक विषयको जानती है, परन्तु केवलज्ञानीकी आत्मा में सर्वज्ञानावरणीय कर्मके नाश होनसे ऐमी शक्ति पैदा हो जाती है कि आत्माकं असंळ्यात प्रदेशाम से प्रत्येक प्रदेश में सर्व ही विपयोंको एक साथ जानने की सामय है। यहाँ तक कि तीन लोककी सर्व पर्यायों को और अलोकाकाशको एक आत्माका प्रदेश जान सकता है । इस प्रकारका ज्ञान प्रात्माके असंख्यात प्रदेशोंमेंसे प्रत्येकको होता है। इस ज्ञानकेलिये इन्द्रियोंकी सहायताकी कोई आवश्यकता नहीं है। यह ज्ञान पराधीन नहीं है, किन्तु स्वाधीन है। इस ज्ञानको कोई देता नहीं Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * नवतत्व अधिकार * १६७ है और न आत्मा अन्य पदार्थों की शक्तिसे प्राप्त करता है, बल्कि यह केवलज्ञान आत्माका ही स्वभाव है। यह इस श्रात्मामें ही था, पर कर्मों के आवरणों से ढका हुआ था । ज्यों ही कर्मों के आवरण हट जाते हैं, त्यों ही यह ज्ञान प्रकट होजाता है । ऐसे केवल ज्ञानमें सर्व ही ज्ञेय सदा काल प्रत्यक्ष रहते हैं । कहीं भी कभी भी कोई भी पदार्थ, गुण या पर्याय ऐसा नहीं है, जो केवलज्ञान से परे हो. इसीको 'सर्वज्ञता' या 'केवलज्ञान' कहते हैं। जितने प्रदेश द्रव्यके होते हैं, उतने ही प्रदेश गुणों के होते हैं। ऐसा होनेपर भी गुण स्वतन्त्रता से अपना-अपना कार्य करता है । यहाँ आत्मा द्रव्य है और ज्ञान उसका मुख्य गुण हैं। ज्ञान आत्मा के प्रमाण है और आत्मा ज्ञानके प्रमाण है । आत्मा श्रसंख्यातप्रदेशी है । इस कारण उसका ज्ञान गुण भी असंख्यात प्रदेशी है। दोनोंका तादात्म्य सम्बन्ध है। जो कभी भी उससे अलग न था और न अलग हो सकता है। यद्यपि ज्ञान गुणकी सत्ता आत्मामें ही है तथापि कार्य वह सर्वत्र करता है अर्थात् सर्व जानने योग्य पदार्थों को जानता है। कोई ज्ञेय उससे बाहर नहीं रह जाता। इससे विपयकी अपेक्षा ज्ञान ज्ञेयोंके बराबर है । ज्ञेयोंका विस्तार देखा जाय तो सर्व लोक और अलोक है। जितने द्रव्य, गुण व तीन कालवर्ती पर्याय हैं, वे सब जानने के विषय हैं और ज्ञान उन सबको जानता है । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय - कोई-कोई आत्माको सर्वव्यापक भी मानते हैं। उनके लिये यह कहा गया है कि जब ज्ञान विषयकी अपेक्षा सर्वव्यापक है तब ज्ञानकी धनी आत्मा भी विषयकी अपेक्षा सर्वव्यापक है। जिस प्रकार आँखकी पुतली अपने स्थानपर रहती हुई भी बिना स्पर्श किये बहुत दूरसे भी पदार्थोंको जान लेती है, ऐसे ही ज्ञान आत्माके प्रदेशोंमें ही रहता है, तथापि विपयोंकी अपेक्षा सर्व लोकालोकको जानता है। यद्यपि आत्मा निश्चयसे असंख्यात-प्रदेशी है, तथापि किसी भी शरीरमें रहा हुआ संकोचरूप शरीर-प्रमाण रहता है । मोन अवस्थामें भी अन्तिम शरीरस किंचित् कम आकार रखता है, सदा स्थिर रहता है। जब जीव समुद्घात करता है अर्थात् शरीर में रहते हुए भी फैलकर शरीरके बाहर उसके प्रदेश जाते हैं तब भी जैसा प्रात्मा फैलता-सिकुड़ता है, वैसे ही उसके ज्ञानादि गुण रहते हैं। आत्माके प्रदेश अन्य छह समुद्घातोंमें थोड़ी-थोड़ी *"मन सरिमळडिय, उत्तरदहस्त जोयपिंडम्म । णिग्गमणं दहादा, हदि समुग्धादयो णाम ॥" अर्थात् मृत शरीरको न छोड़ने हुए दूसरे शरीरको स्पर्श करने के लिये जो श्रान्म-प्रदेश शरीरसे बाहर जाते हैं और फिर मूल शरीर में पुनः पा जाते हैं, उसे 'समुद्धात' कहते हैं । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार - १६६ - Nana दूर जाते हैं, परन्तु केवलि-समुद्घातमें समस्त लोकमें व्याप्त हो जाते हैं और फिर वे शरीर-प्रमाण हो जाते हैं। जिस प्रकार आँख अग्निको देखकर जलती नहीं, समुद्रको देखकर डूबती नहीं, दुःखको देखकर दुःखी व सुखको देखकर सुखी होती नहीं। ऐसी ही केवलज्ञानकी महिमा है । वह सर्व शुभअशुम पदार्थ और उनकी अनेक दुःखित व सुखित अवस्थाको जानते हुए भी मोहके संसर्ग न होनेसे किसी भी प्रकारके विकार से विकृत नहीं होता । वह सदा निराकुल रहता है। जैसे दर्पण इस बातकी आकांक्षा नहीं करता है कि मैं पदार्थों को झलकाऊँ, परन्तु दर्पणकी चमकका ऐसा ही स्वभाव है कि उसके विषय में अासकने वाले सर्व पदार्थ अपने-आप उसमें झलकते हैं। वैसे ही निर्मल केवलज्ञानमें सर्व ज्ञेय स्वयं ही झलकते हैं। जैसे दर्पण अपने स्थानपर रहता और पदार्थ अपने म्थानपर रहते हैं तो भी दर्पण में प्रवेश हो गए या दर्पण उनमें प्रवंश हो गया, ऐमा झलकता है। वैसे ही आत्मा और उसका कंवलज्ञान अपने स्थानपर रहता है और ज्ञेय पदार्थ अपने स्थानपर रहते हुए कोई किसीमें प्रवेश नहीं करता, तो भी ज्ञेयज्ञायक सम्बन्धसे जब सर्व ज्ञेय ज्ञानमें झलकते हैं तब ऐसा मालूम होता है कि मानो आत्माके ज्ञानमें सर्व विश्व समा गया या यह आत्मा सर्व विश्वमें व्यापक हो गया। निश्चयसे ज्ञाता ज्ञेयोंमें प्रवेश नहीं करता। असली बात यही है। इसकेलिये आँख या दर्पणका दृष्टान्त भी यहाँ दिया जा सकता है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * अजीव अजीव द्रव्य पाँच प्रकार के हैं: - १ - पुद्गल, २-धर्मास्तिकाय, ३ - अधर्मास्तिकाय, ४ - काल और ५- आकाश । २०० [द्वितीय पुद्गल भी एक द्रव्य है । यह सदासे है और सदा रहेगा । इसको न कोई कम कर सकता है और न अधिक । जितना है उतना ही रहता है । वह अपनी पर्याय पलट लिया करता है अर्थात किसी-न-किसी शक्ल में विद्यमान रहता है। पुद्गल तत्त्वका दूसरा नाम अजीव है । अँगरेजीमें इसको matter कहते हैं । यह जीवका प्रतिपक्षी होने से इसका गुण अचैतन्य, अकर्ता, जड़ रूप है। इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म हिस्सेको, जिसका कि दूसरा भाग न हो सके, 'परमाणु' कहते हैं। दो परमाणुओं के मिलने से द्विप्रदेशी स्कन्ध, तीन परमाणुओं के मिलनेसे तीन प्रदेशी स्कन्ध होता है और इसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध तक इसके हो सकते हैं 1 १ - संसार में जितने जड़ पदार्थ दिखलाई पड़ते हैं, वे सब 'पुद्गल' हैं । २ - 'धर्मास्तिकाय' वह अरूपी शक्ति है, जो जीवको चलने में सहायता करती है। जैसे पानी मछलीको तैरने में सहायता करता है। ३- 'अधर्मास्तिकाय' वह शक्ति है, जो ठहरते हुये जीवको ठहरने में सहायता करता है। जैसे कड़ी धूपमें चलते हुये किसी पथिकके ठहराने में किसी पेड़की छाया सहायक होती है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार * २०१ ४-'आकाश' संसारके समस्त पदार्थोंको अवकाश देता है। ५-'काल' नयेको पुराना बनाता है। पुद्गल द्रव्य रूपी है। शेष धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और आकाश अरूपी हैं। यद्यपि रूपी शब्दके अनेक अर्थ हैं परन्तु यहाँपर परमागमके अनुसार मूर्तीका अर्थ ही समझना चाहिये। धान्तिकाय द्रव्य, अधर्मास्तिकाय द्रव्य और आकाश, ये तीन द्रव्ये एक-एक हैं । जीव, पुद्गल और काल, ये तीनों अनेक हैं। आगमानुसार जीव द्रव्य अनन्तानन्त हैं। पुद्गल परमाणु जीवों से अनन्तगुणे हैं और काल द्रव्यके अणु असंख्यात हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश, ये तीनों द्रव्ये हलन चलन रूप क्रियासे रहित हैं। 'लोक' उसको कहते हैं जहाँ जीव आदि ममस्त पदार्थ हो, जहाँ एक आकाश ही है उसे 'अलोक' कहते हैं। वहाँ सिवाय पाल अर्थात् आकाशके कोई वस्तु नहीं होती है। जिस प्रकार कुप्पमें घी भरा रहता है, उसी प्रकार समस्त लोकमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गल और जीव द्रव्यं ठसाठस भरी हुई हैं। __ जितने क्षेत्रको एक परमाणु रोकता है, उतने क्षेत्रको एक 'प्रदेश' कहते हैं। ___धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं। आकाश द्रव्यके अनन्त प्रदेश हैं। लोकाकाशके Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय असंख्यात प्रदेश हैं । पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं । यद्यपि पुद् गलका शुद्ध अविभागी एक परमाणु एक ही प्रदेशवाला है परन्तु पुद्गल परमाणुओं में मिलने-बिल्लुरनेकी शक्ति है, इस कारण अनेक स्कन्ध दो-दो परमाणुओंके और अनेक तीन-तीन, चार-चार परमाणुओंके हैं। इसी प्रकार संख्यात परमाणुओं के तथा असंख्यात और अनन्त परमाणुओं के भी स्कन्ध हैं । २०२ यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि लोकाकाश तो असंख्यात प्रदेशी है और पुद्गल के अनन्तानन्त परमाणु हैं तथा स्कन्ध अनन्त परमाणुओं के हैं तो फिर वे लोकाकाशमें कैसे समाते होंगे ? इसका उत्तर यह है कि पुद्गल के परिणमन दो प्रकार के हैं: - एक सूक्ष्म परिणमन और दूसरा स्थूल परिणमन । सो जब इनका सूक्ष्म परिणमन होता है, तब आकाश के एक ही प्रदेश में अनन्त परमाणु आ सकते हैं। इसके अतिरिक्त आकाश में अवकाश देने की भी शक्ति है। इस कारण यह दोष नहीं आता है। शुभ-अशुभ कर्मों के भी पुद्गल होते हैं। इस प्रकार सुख-दुःख, जीना मरना आदि बातें केवल पुद्गलों के परिणाम हैं। जब तक पुद्गल स्वतन्त्र है, उस समय तक वह कोई फल नहीं दे सकता । लेकिन जब वह आत्माके साथ हो जाता है, तब वह अपने गुणानुसार जीवको फल देता है । पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले होते हैं । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार * २०३ _____ कोमल, कठोर, हलका, भारी, शीत, उष्ण, चिकना और सूखा, ये आठ प्रकारके स्पर्श हैं। खट्टा, मीठा, कड़वा, कपायला और चिरपरा, ये पाँच प्रकारके रस हैं। सुगन्ध और दुर्गन्ध, ये दो प्रकारकी गन्ध हैं। कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत, ये पाँच प्रकारके वर्ण हैं। शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, तम, छाया, आताप, उद्योत आदि पुद्गलोंकी एक प्रकारको अवस्थाएँ हैं। शब्दादिकोंको अन्य दार्शनिक म्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं, पर बाम्तवमें ऐसा नहीं है। शब्दादिक अनेक पुद्गलोंके मिलनेसे पैदा होते हैं। द्रव्यकी व्याख्या द्रव्यका लक्षण 'सत्' है अर्थात् जो सत् रूप है, वही द्रव्य है और सत्का लक्षण है-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-सहितत्व । तब दूसरे शब्दों में यह कहना चाहिये कि जो उत्पत्ति, विनाश और मोजदगी सहित है वही द्रव्य है। चेतन व अचेतन द्रव्यका बाह्याभ्यन्तर निमित्तके वशसे अपनी जातिको न छोड़ते हुए एक अवस्थासे दूसरी अवस्था - - - - ॐ"सद् द्रव्यलक्षणम्", "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सन"-उमास्वाति । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय रूप होना, उत्पत्ति वा 'उत्पाद' है। जैसे सोनेके कुण्डलोंका कड़े रूप होना, उत्पाद है और कुण्डल आकारका नष्ट होना, विनाश व 'व्यय' है । और पोलापन, भारीपन श्रादिका अपनी जातिको लिये हुए दोनों अवस्थामें मौजूद रहना, 'ध्रौव्य है। इसी प्रकार द्रव्य में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, ये तीनों गुण एक साथ निरन्तर रहते हैं । जिसमें ये तीनों गुण रहे, वही सत् अर्थात् द्रव्य है। ___ पदार्थके भाव वा गुणके नाश नहीं होनेको नित्यत्व कहते हैं। अग्निकी उष्णता गुणका बना रहना अग्निका नित्यत्व है। सवथा नित्य अर्थात् कूटस्थ कोई वस्तु नहीं है । सत्ताकी व द्रव्यत्वकी अपेक्षा नित्यत्व है और पर्यायकी अपेक्षा अनित्यत्व है। वस्तुओं में अनेक धर्म होते हैं। उनमेंस वक्ता जिस धर्मको प्रयोजनके वशसे प्रधान करके कहे, वह 'अर्पित' और जी प्रयोजन के बिना जिस धर्मको कहनेकी इच्छा नहीं करें, वह 'अनर्पित' है। इससे यह न समझ लेना चाहिये कि जो धर्म कहा नहीं गया, वह वस्तुमें है ही नहीं। नहीं, वह है जरूर, परन्तु उस समय उसके कहनेकी मुख्यता नहीं है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनेक गुणवाली है। जिस प्रकार एक ही पुरुषमें पिता, पुत्र, माई, मामा आदिके जो अनेक सम्बन्ध हैं, वे सब अपेक्षासे ही सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तुमें अनेक गुण अथवा धर्म मिन्न-भिन्न अपेक्षासे सिद्ध होते हैं। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * नवतत्त्व अधिकार * २०५] द्रव्यका एक और लक्षण भी प्राचार्यों ने फरमाया है। वह एक भिन्न शैलीसे पदार्थको समझानेके उद्देश्यसे कहा गया है। तात्पर्य दोनोंका एक ही है । वह लक्षण है 'गुण-पर्यायवाला द्रव्य होता है' । द्रव्यकी अनेक परणति होनेपर भी जो द्रव्यसे भिन्न न हो-द्रव्यके साथ नित्य रहै, वह तो 'गुण' है, और जो पलटन रूप हो वह 'पर्याय' है। द्रव्यके जितने गुण हैं, वे द्रव्यसे कभी भिन्न नहीं होते। समस्त गुणोंका समूह ही द्रव्य है । द्रव्यकी अनेक पर्याय (अवस्थायें ) पलटते हुए भी गुण कदापि नहीं पलटते । द्रव्यके नित्य साथ रहते हैं। जैसे सोना द्रव्य है, उसका गण भारीपन और पीलापन है। उसको कुण्डल रूप या कड़े रूप बनाना परिवर्तन है, वह पर्याय है। पर्याय एक रूपसे दूसरे रूप हो सकती है अर्थात पर्याय पलटी जा सकती है। पर उसका गण उन सब रूपोंके साथ रहेगा। ५-काल भी द्रव्य है। काल-द्रव्य लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशमें एक-एक अणु-रूप भिन्न-भिन्न रहता है। पुद्गल परमाणुकी अवगाहनाके बराबर ही इसकी अवगाहना है । यह अमूर्तीक है। इसके अणु लोकाकाशके प्रदेशोंकी बराबर असंख्यात हैं और रत्नोंकी राशिके * "गुणपर्ययवद् दम्यम्"-उमास्वाति । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * समान भिन्न-भिन्न तथा निष्क्रिय हैं । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और गुणपर्याय सहित होनेसे ये भी द्रव्य हैं। इसको 'निश्चय कालद्रव्य' कहते हैं। __ यह काल द्रव्य अनन्त समयवाला है। यद्यपि वर्तमान काल एक समय मात्र है, परन्तु भूत-भविष्य-वर्तमानकी अपेक्षा अनन्त समयवाला है। समय कालकी पर्यायका सबसे छोटा अंश है। इसके समूहसे आवली ( श्रावलिका ), घटिका इत्यादि व्यवहार-काल होता है। यह व्यवहार काल निश्चय-काल द्रव्यकी पर्याय है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुणको धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और कालास्तिकायमें घटाया जाता है: १--धर्मास्तिकाय-द्रव्यसे एक है; क्षेत्रसे समस्त लोकमें है; कालसे आदि-अन्त-रहित है; भावसे वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रहित अर्थात् अम्पी है और गुणसे गमन-सहायक है। २--अधर्मास्तिकाय--द्रव्यसे एक है; क्षेत्रसे समस्त लोकमें है; कालसे श्रादि-अन्त-रहित है; भावसे वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रहित अर्थात् अम्पी है और गुणसे स्थिति-सहायक है। ___ ३--आकाशास्ति काय-द्रव्यसे एक है। क्षेत्रसे लोकालोक प्रमाण है; कालसे आदि-अन्त-रहित है; भावसे वर्णादिरहित अर्थात् अरूपी है और गणसे अवकाशदाता है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A mbai _ उत्तीच चण्ड तृतीय खण्ड - - - Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया, तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान्पुनर्जन्मजराजिहासया, त्रयी प्रवृत्तिं शमधीरवारुणत् ॥" -स्वामी समन्तभद्राचार्य । किसीने सन्तानकेलिये, किसीने धनके लिये, किसीने म्वर्गके लिये तपतप, कर्म किया लेकिन आपने प्रभो ! जन्म जगके नाशके लिये अपने मन-वचन-कायको लगाया । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड ARIDEftw मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश ८४००००० योनियोंमेंसे अब्बल तो मनुष्य जन्म पाना ही दुर्लभ है । यदि किसी प्रकार मनुष्य जन्म मिल भी गया तो पूर्ण योग-साधनोंका मिलना तो महा दुर्लभ है। इन सबके मिल जानेपर भी जिस मनुष्यने धर्म-सेवन नहीं किया तो उसका मनुष्य जन्म पाना और सारे साधनोंका प्राप्त होना निष्फल है। अर्थान जो मनुष्य आय देश, उत्तम कुल, नीरोग शरीर, पूर्ण आयु , बल, लक्ष्मी और विद्या श्रादि बातें प्राप्त कर धर्म-सेवन नहीं करता, वास्तवमें वह मानों बीच समुद्र में रहकर नावका त्याग करता है। (२) संसाररूपी समुद्र में गोते लगाते-लगाते इस जीवने • बड़ी कठिनाईसे और एक लम्बे समयके बाद यह मनुष्य जन्म रूपी जहाज प्राप्त किया है। इससे धर्म-साधन न करना-केवल भोगोपभोगों में ही इसे लगाये रखना, जहाजको छोड़कर लहरोंको पकड़ना है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *#* जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय (३) उत्तराध्ययनजी सूत्रमें कहा गया है कि एक कौड़ी के पीछे हजार रत्नोंके पिटारेको खोदेनेवाला व्यक्ति जैसा मूर्ख हैं, विषय-भोगों के पीछे इस मनुष्य जन्मरूपी रत्नपिटारेको खोदनेवाला व्यक्ति भी वैसा ही मूर्ख है । २०८ ( ४ ) एक कौड़ीके पीछे जीवनभर की कमाईको नष्ट कर देनेवाले 'धनदत्त' नामक सेठकी भाँति हमें सांसारिक भोगों के पीछे मोक्ष सुखको नष्ट न कर डालना चाहिये । किन्तु मोक्षके लिये प्रमादको छोड़कर उद्यम - प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि प्रमाद परम द्वेषी हैं, प्रमाद ( आत्म-विस्मरण ) परम शत्रु है, प्रमाद मुक्ति मार्गका डाकू है और प्रमाद ही नरक ले जानेवाला है । इस कारण चतुर मनुष्योंको प्रसादको त्यागकर धर्म-संवन करना चाहिये । (५) मोहरूपी रात्रिसे व्याकुल प्राणियों के लिये धर्म दिनोदयसूर्य के समान और सूखती हुई खेतीकेलिये वर्षाकं समान है । सम्यक् प्रकारसे आराधना करनेसे वह भव्यजनों को सुख सम्पत्ति देता है, दुर्गति में फँसे हुए प्राणियोंको बचाकर अनेक दुःखों से मुक्त करता है, बन्धुरहित मनुष्योंके लिये बन्धुसमान है, मित्र रहित केलिये मित्रसमान है, अनाथोंका नाथ है और संसार के लिये एक वत्सल रूप हैं । (६) जब तक शरीर नीरोग और स्वस्थ है, जब तक बुढ़ापा नहीं आता, जब तक इन्द्रियोंमें शक्ति है और जब तक आयुष्य Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * मुमुक्षुओं केलिये उपयोगी उपदेश * २०६ क्षीण नहीं होता; तब तक समझदार मनुष्यों को आत्म-कल्याणका उपाय कर लेना चाहिये । नहीं तो घर में आग लगजानेपर कुंवा खोदने की तरह अन्तमें फिर क्या हो सकता है ? ( ७ ) किसीने सच कहा है कि मनुष्यका जीवन परिमित है अर्थात अधिक-से-अधिक सौ वर्षका है। इसमें आधा तो रात्रि के ही रूपमें बेकार चला जाता है। शेष श्राधका आधा बचपन और बुढ़ापे में बीत जाता है और बाकी जो रहता है, वह व्याधि, वियोग और दुःखमें पूरा हो जाता है। (८) पहिले तो मनुष्यको संसारमें सुखोंकी प्राप्ति ही नहीं होती है अगर कोई सुखों को प्राप्त करता है तो वे सुख, सुखाभास (सत्यमुख ) है अर्थात् कल्पित सुख हैं। जिस व्यक्तिने थूहड़के पीछे कल्पवृक्षको खोदिया, कांचके पीछे चिन्तामणिको खोदिया, उसको 'भुवनसारी राजाके समान पछताना पड़ेगा। इस कारण मनुष्य को अपनेको नाशमान समझकर जल्दी से जल्दी अपने जीवनको सफल बनानेकेलिये अर्थात् धर्म सेवन के लिये उद्यमी करना चाहिये । ( ६ ) सब सुखोंका प्रधान हेतु होनेके कारण धर्म ही इस संसारमें सार वस्तु है; किन्तु उसकी उत्पत्ति-स्थान मनुष्य भूमिका है, इसलिये मनुष्यत्व ही सार वस्तु हैं। इस कारण हे भव्यजनो ! मोह - निद्राका त्याग करो। ज्ञान-जागृतिसे जाग्रत होथो, प्राणघातादिका त्याग करो, कठोर वचन मत बोलो। सदा सत्य प्रिय Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय ........ ... ..... .. ... ..... .............AnnumaAMRADIODIAXaRA H LAAAAAAAAAILA - और हितरूप बोलो, ब्रह्मचर्यका पालन करो, सदा सद्भावना करते रहो; इत्योदि। (१०) हे भव्य प्राणियो ! संसाररूपी जेलखानेमें कपायरूपी चार चौकीदार हैं। जबतक ये चारों जाप्रत हों, तबतक मनुष्य उनसे छूटकर मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकता है ? (११) हे भव्यात्माश्रो ! वे चार कषायें इस प्रकार हैं:-१क्रोध, २-मान, ३-माया और ४-लोभ । ये चारों कषाय संज्वलन, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान और अनन्तानुबन्धी भेदोंसे चार-चार प्रकारके हैं। संज्वलन कपाय एक पक्ष तक, प्रत्याख्यान चार मास तक, अप्रत्याख्यान एक वर्ष तक और अनन्तानुबन्धी जन्मपर्यन्त रहता है। इन कषायोंके रूपको समझकर इनका त्याग करना चाहिये ! इन चारों कपायोंमें क्रोध बहुत भयंकर है। कहा भी है कि क्रोध विशेष सन्तापकारक है, क्रोध वैरका कारण है, क्रोध ही मनुष्यको दुर्गतिमें फँमा रग्बता है और क्रोध ही श्रात्मचिन्तनमें बाधा डालता है। इसलिये क्रोधका त्यागकर शिवमुख देनेवाले अात्माका चिन्तन करो। यही मोक्षका देनेवाला है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार ईख, क्षीर, चीनी आदि बलिष्ठ रस भी सन्निपातमें दोषकी वृद्धि करते हैं, उसी प्रकार उपरोक्त कपायों से भी संसारकी वृद्धि होती है। (१२) सिद्धान्तमें कहा गया है कि मर्म वचनसे एक दिनका तप नष्ट होता है। प्राक्षेप करनेसे एक मासका तप नष्ट होता है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] ● मुमुक्षुओंके लिये उपयोगी उपदेश * श्राप देने से एक वर्षका तप नष्ट होता है और हिंसाकी ओर अप्रसर होनेसे समस्त तप नष्ट होजाता है । २११ (१३) जो मनुष्य क्षमारूपी खड्गसे क्रोधरूपी शत्रुका नाश करता है, उसीको सात्त्विक, विद्वान्, तपस्वी और जितेन्द्रिय समझना चाहिये । ( १४ ) इस संसार में जीव कर्मके ही कारण सुख-दुःख भोगा करता है । इसलिये सुखार्थी जीवोंको शुभ कर्मका संचय करना चाहिये। साथ ही चेतन स्वरूप आत्माको सुज्ञानके साथ जोड़कर अज्ञानसे उसको बचाना चाहिये । (१५) मनुष्य बुद्धि, गुण, विद्या, लक्ष्मी, बल, पराक्रम, भक्ति किंवा किसी भी उपाय से अपनी आत्माको मृत्यु से बचा नहीं सकता । कहा भी है कि जिस प्रकार अपने पतिकी पुत्र-वत्सलता देखकर दुराचारिणी स्त्री हॅमती है; उसी तरह शरीर की रक्षा करते देखकर मृत्यु और धनकी रक्षा करते देखकर वसुन्धरा मनुष्य को हँसती है। देव असम्भव को संभव और संभवको असम्भव बनाता है । कभी-कभी वह ऐसी बातें कर दिखाता है, जिसकी मनुष्य कल्पना भी नहीं कर सकता । भवितव्यता प्राणियों के साथ उसी तरह लगी रहती है, जिस प्रकार शरीरके साथ छाया । उसे पृथक् करना - उसके प्रभाव से बचना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव है । यह जीव अशरण है । प्राणियोंपर बार-बार जन्म-मरणकी जो विपत्ति पड़ती है, उसे दूर करना किसीके Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय सामर्थ्यकी बात नहीं है । यह प्राण पाँच दिनका अतिथि है, यह समझकर किसीपर गग-द्वेष न करना चाहिये । स्व और परअपने और परायेका तो प्रश्न ही बेकार है-अरण्य-रोदनकी भाँति है। दैवको उपालम्भ देनेसे भी क्या लाभ ? समुद्रके श्रवगाहनकी कल्पनाकी भाँति बेकार है। मनुष्यको स्व और परका रूप जानना चाहिये। (१६) ऐ अभिमानी प्राणी ! जराको जर्जरीभूत करनेमें और मृत्युपर विजय प्राप्त करने में जब आजतक किसीको सफलता नहीं मिली, तब तुझे अब कैसे मिल सकती है ? (१७) हे जीव ! तू , मैं कर्ता, मैं हर्ता, मैं धनी, मैं गुणी इत्यादि प्रकारके मिथ्याभिमान मत कर । वास्तवमें मनुष्य न तो कर्ता है और न हर्ता । जो कुछ है सो कर्म है। जीव तो अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मोके फलको भोगनेवाला है। इसलिये इस संसारम यदि तुझे सुख भोगनेकी अभिलापा है तो तुझे एक शुभ कर्म ही करना चाहिये। ___ (१८) शास्त्रकारोंने सच कहा है कि जब बुरे दिन प्राते हैं अर्थान् अशुभ कर्मका उदय होता है तब सुधा विपकी तरह, रम्सी सर्पके समान, बिल पातालके समान, प्रकाश अन्धकारके समान, गोष्पद सागरके समान, सत्य असत्यके समान और मित्र शत्रुके समान हो जाते हैं। इस प्रकार विचारकर विचारशील पुरुपोंको धैर्यसे काम लेना चाहिये। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * मुमुक्षुओं के लिये उपयोगी उपदेश * २१३ (१६) शास्त्रकारों ने सच कहा है कि धन-हीन मनुष्य सौ रुपये चाहता है, सौवाला हजार चाहता है, हज्जारवाला लाख चाहता है, लाखवाला करोड़की इच्छा करता है, करोड़पति राज्य चाहता हैं, राजा चक्रवर्तित्व चाहता है, चक्रवर्ती देवत्वकी इच्छा करता है और देव इन्द्रत्व चाहता है। इस तरह लोभी मनुष्यको कभी भी सुख या सन्तोषकी प्राप्ति नहीं होती । किसीने सच कहा है कि जिस प्रकार इन्धनसे अग्नि और जलसे समुद्र कभी भी तृप्म नहीं होता, उसी प्रकार धनसे लोभी भी कभी तुम नहीं होता | उसे यह भी विचार नहीं होता कि आत्मा जब समस्त ऐश्वर्यको त्यागकर पर भव में चला जाता है, तब व्यर्थ ही पापकी गठरी मैं क्यों बाधू ? (२०) कलुपताको उत्पन्न करनेवाली, जड़ता को बढ़ानेवाली, वृक्षको निर्मूल करनेवाली, नांतिसे शत्रुता रखने वाली, दया और क्षमा वीकमलिनीको निर्मूल करने वाली, लोभ समुद्रको बढ़ानेवाली, मर्यादा तटको तोड़ गिरानेवाली और शुभ भावना रूपी हंसों को खदेड़ देनेवाली परिग्रह रूपी नदीमें जब बाढ़ आती है, तब ऐसा कौन दुःख है, जिसकी मनुष्यको प्राप्ति नहीं होती हो ? कहने का मतलब यह है कि परिग्रह-परिमाण बढ़ने पर लोभ-दशा बढ़ जाती है और उससे मनुष्यपर नाना प्रकार के संकट आ पड़ते हैं। इसलिये लोभवृत्तिका सर्वथा त्याग करना चाहिये । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय (२१) शास्रकारोंने सच कहा है कि धनका सदुपयोग करनेसे इस जन्ममें सुख मिलता है और दान देनेसे परभव सुधरता है। किन्तु हे बन्धुओ! धनका यदि सदुपयोग न किया जाय, न दान ही दिया जाय तो धन प्राप्त होनेसे क्या लाभ ? ___(२२) लक्ष्मीको शास्त्रकारोंने अनित्य-अस्थिर-चञ्चल आदि विशेषण दिये हैं। वे ठीक ही हैं। इतिहास-पुराण इस बातक दृष्टान्तोंसे भरे पड़े हैं और विचारशील पुरुपोंके प्रत्यक्ष अनुभवोंकी भी इसी प्रकारकी प्रतीति होती है। लेकिन इसको सफल करनेका भी उपाय शास्त्रकारोंने बतलाया है। और वह उपाय है एक दान । दान शास्त्रकारोंने पाँच प्रकारका बताया है:(१) अभय दान, (२) सुपात्र दान, (३) अनुकम्पा दान, (४) उचित दान और (५) कीर्तिदान । इनमें प्रथम दो दान मोक्षके निमित्त और अन्तिम तीन दान इस लोकमें भोगादिकके निमित्त हैं। जो पुरुप अपनी लक्ष्मीको पुण्य कार्य में व्यय करता है, उसे वह बहुत चाहती है। दानी पुरुषोंको बुद्धि खोजती है, कीर्ति देखती है, प्रीति चुम्बन करती है, सौभाग्य सेवा करता है, आरोग्य आलिङ्गन करता है, कल्याण उसके सम्मुख आता है, स्वर्ग-सुख उसे वरण करता है और मुक्ति उसकी वाछा करती है। दान चाहे जिसको दिया जा सकता है, किन्तु सुपात्रको दान देनसे सदा अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश # २१५ ( २३ ) जिस प्रकार निघर्षण, छेदन, ताप और ताड़नसे सोनेकी परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया इन चारोंसे धर्मकी परीक्षा होती है। ( २४ ) इसके अतिरिक्त धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, ये चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से प्रधान पुरुषार्थ धर्म है । धर्म स्वाधीन होनेपर शेष तीन पुरुषार्थ भी शीघ्र ही स्वाधीन हो जाते हैं। शास्त्रकारोंने सत्य कहा है कि संसार में मनुष्यजन्म सारभूत है; इसमें भी तीन वर्ग सारभूत हैं; तीन वर्ग में भी धर्म सारभूत है; धर्ममें भी दान धर्म और दानमें भी विद्या और अभय दान श्रेष्ठ है। क्योंकि वही परमार्थ सिद्धिका मूल कारण हैं। इस कारण दुर्लभ मनुष्य जन्म मिलने पर धर्म में प्रवृत्ति करनी चाहिये और मनुष्य जन्मको वृथा न गँवाना चाहिये । इस सम्बन्ध में तीन वणिक-पुत्रोंका उदाहरण प्रसिद्ध है। ते तीन वणिक् - पुत्र घरसे समान धन लेकर व्यापार करने निकले। इनमें से एकको लाभ हुआ, दूसरेने अपने मूल धनको ज्योंका त्यों सुरक्षित रक्खा और तीसरेने मूल धन भी खो दिया । धर्मकी भी ऐसी ही अवस्था है। कोई मनुष्यजन्म मिलने पर उसे बढ़ाता है, कोई ज्योंका त्यों रखता है और कोई जो होता है उसे भी खो बैठता है। इस दृष्टान्त में बहुत ही गूढ़ सिद्धान्त छिपे हुए हैं: तीनों पुत्रोंका पिता गुरुके समान है। तीनों पुत्रोंका तात्पर्य विरति देशविरति और अविरतिसे है । मूल धन रूपी तीन " Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय रत्नोंको जगह ज्ञान, दर्शन और चारित्रको समझना चाहिये । तीनों प्रकारके जीव इन रत्नोंसे व्यापार करनेकेलिये मनुष्यजन्म रूपी नगरमें आते हैं। इनमें प्रमाद न कर ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि करनेवाले सर्वविरत जीव देवगतिको प्राप्त करते हैं। दूसरे प्रकारके जीव जो अप्रमादसे व्यापार कर मूल धनको सुरक्षित रखते हैं, उन्हें पुनः मनुष्य जन्म मिलता है और वे सुखभोग करते हैं। तीसरे प्रकारके जीव प्रमादके कारण-निद्रा और विकथा आदिके फेरमें पड़कर अपना मूल धन भी खो बैठते हैं। अतएव उन्हें रौरव नरककी प्राप्ति होती है। (२५) मद्य, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा, इन पाँच प्रमादोंके कारण मनुष्यको संसारमें बार-बार भटकना पड़ता है। इसलिये मनुष्यजन्म मिलनेपर धर्म-सेवनमें प्रमाद नहीं करना चाहिये। (२६) अधिक प्रारम्भ और अधिक परिग्रहसे तथा मांसाहार और पञ्चेन्द्रिय जीवके वधसे प्राणी नरकमें जाते हैं। जो लोग निःशील, निव्रत, निर्गुण, दयारहित और पञ्चक्खाणरहित होते हैं; वे मृत्यु होनेपर मातवे नरकमें नारकीके रूपमें उत्पन्न होते हैं। (२७) अहिंसाके समान कोई धर्म नहीं है, सन्तोषके समान कोई व्रत नहीं है, सत्यके समान कोई शौच नहीं है और शीलके समान कोई भूषण नहीं है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २१७ (२८) सत्य प्रथम शौच है, तप दूसरा शौच है, इन्द्रिय-निग्रह तीसरा शौच है और प्राणीमात्रपर दया करना चौथा शौच है। (२६) अभय दान ही सच्चा दान है, तत्त्वार्थ-बोध ही सच्चा ज्ञान है, विकाररहित मन ही सच्चा ध्यान है। (३०) शास्त्रकारोंने कहा है कि मन ही मनुष्यके बन्धन और मोक्षका कारण है । पुरुष जिस तरह स्त्रीको आलिङ्गन करता है, उसी तरह पुत्री को भी प्रालिङ्गन करता है, किन्तु दोनों अवस्थाओं में उसकी मनः-स्थिति में जमीन-आसमान-जितना अन्तर होता है । समताका अवलम्बन कर पुरुष अनेक कर्मों के दलोंको थाई समयमें क्षय कर सकता है। (३१) धर्मका मूल विनय और विवेक है। तप और संयम विनयपर ही निर्भर हैं। जिसमें विनय नहीं, उसकेलिये तप कैसा और धर्म कैसा ? विनयी और विवेकी पुरुप लक्ष्मी, यश और कीतिको प्राप्त करता है। पर्वतोंमें जिस तरह मेरु, ग्रहोमें जिस प्रकार सूर्य और रत्नोंमें जिस प्रकार चिन्तामणि श्रेष्ठ है, उसी प्रकार गुणोंमें विनय और विवेक श्रेष्ठ हैं। विवेक और विनय बिना अन्य सभी गुण निगुणसे हो जाते हैं। किसीने सत्य कहा है कि जिस प्रकार नेत्रोंके बिना रूप शोभा नहीं देता, उसी प्रकार विवेक और विनय बिना लक्ष्मी शोमा नहीं देती। इस कारण प्रत्येक हितार्थी मनुष्य को विनयवान व विवेकवान् होना अत्यन्त आवश्यक है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय (३२) विनय और विवेक प्राप्त करनेकेलिये सत्संगकी आवश्यकता पड़ती है । संगति करनेके पहले यह अच्छी तरह देख लेना चाहिये कि जिस मनुष्यकी मैं संगति करना चाहता हूँ वह सज्जन । है या नहीं। जो सजन हो उसीकी संगति करनी चाहिये । सजनोंकी संगतिसे सिवाय लाभके हानि नहीं होती। शास्त्रमें संगति करने योग्य सज्जनोंके लक्षण इस प्रकार बतलाये हैं: जो दूसरोंके दोषोंको द्वेष-बुद्धिसे प्रगट न करते हों; दूसरोंमें गुण थोड़े भी हों तो भी उनकी प्रशंसा करते हों; दूसरोंकी संपत्ति देखकर जलते न हों, प्रत्युत संतुष्ट होते हों; दूसरोंकी विपत्तिम सहानुभूति प्रगट करते हो और हो सकती हो तो सहायता भी । करते हों; आत्म-प्रशंसा न करते हों; न्याय-नीतिक मार्गका उल्लछन न करते हों; अपनेलिये अप्रिय व्यवहार करनेवाले के साथ भी प्रियकर और हितकर व्यवहार करते हों और क्रोध, मान, माया तथा लोभसे दूर रहते हों। इस प्रकारके सज्जनोंकी संगति करनेसे अनेक लाभ होते हैं: मोह नष्ट होता है; विवेक उत्पन्न होता है; प्रेमकी वृद्धि होती है; नीति-मार्गपर चलनेकी इच्छा होती है। विनयकी प्राप्ति होती है; यशका प्रसार होता है; धर्मानुकूल चलनेका अभ्यास पड़ता है; अनेक मनोरथोंकी सिद्धि होती है; कोई संकट आ पड़ा हो तो उससे सुगमतासे निकलनेका मार्ग सूझता है और किसी भी प्रकारके व्यसनमें फंसनेसे मनुष्य बचा रहता है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २१६ इसलिये हे मुमुक्षो! यदि तू उपरोक्त प्रकारका सुखी और गुणी बनना चाहता हो तो तुझे उक्त प्रकारके साधुजनोंसत्पुरुषोंकी संगति अनुरागपूर्वक और प्रयत्नपूर्वक कर । __ (३३ ) सुदेवमें देव बुद्धि, सुगुरुमें गुरु-बुद्धि और सुधर्ममें शुद्ध धर्म-बुद्धि रखनेको 'सम्यक्त्व' कहते हैं और कुदेवमें देवबुद्धि, कुगुरुमें गुरु-बुद्धि और कुधर्ममें धर्म-बुद्धि रखनेको 'मिथ्यात्व' कहते हैं। __ प्रश्न उठता है कि सुदेव, सुगुरु और सुधर्म किसको कहना चाहिये ? उत्तर इस प्रकार है: सुदेव-रागद्वेषसे रहित, मोह महामलका नाश करनेवाले, केवलज्ञान केवलदर्शन-युक्त, देव और दानवोंके पूज्य, सद्भूतार्थके उपदेशक और समस्त कर्मो का क्षयकर परम पदको प्राप्त करनेवाले वीतराग भगवानको 'देव' कहते हैं। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त तप, अनन्त बल-वीर्य, अनन्त क्षायिक सम्यक्त्व, वनवृषभनाराच संहनन, समचतुरमा संस्थान, चौंतीस अतिशय, पैंतीस वाणी गुण और एक हजार आठ उत्तम लक्षण युक्त हों; चासठ इन्द्रोंके पूजनीय होः कषायरहित, रागद्वेषरहित, शोकचिन्तारहित, भयरहित और ममत्वरहित हों; अहिंसा व्रतके पालनेवाले तथा महादयालु हों और जो समस्त कर्मोका क्षय कर परम पदको प्राप्त कर चुके हों, ऐसे वीतरागको “देव" कहते हैं। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय सुगुरु-जो सर्व प्रकारकी हिंसाका त्याग कर चुके हैं; जब बोलते हैं, तब सत्य ही बोलते हैं; किसी प्रकारका परिग्रह अर्थात् धन आदि नहीं रखते हैं। किसीकी बिना दी हुई वस्तु ग्रहण नहीं करते हैं; नौ बाढ़ों सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य पालते हैं; क्रोध, मान, माया और लोभका त्याग करते हैं; पाँच इन्द्रियसम्बन्धी कोई विपय. सेवन नहीं करते; सदा ज्ञान, ध्यान और तपस्यामें मग्न रहते हैं; न किसीसे राग और न किसीसे द्वेष करते हैं: सदा सरल-परिणामी हैं तथा जो अन्य अनेक गुणयुक्त हैं. ऐसे मुनियोंको 'गुरु' कहते हैं +। सुधर्म-अनादिकालमे आत्माके साथ लगे हुए कर्माको नष्ट कर जो जीवोंको सांसारिक दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख में पहुँचाता है, उसे 'धर्म'-'मुधर्म'* कहते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग रूप बन्धहेतुओंके के कारण जीव कोका बन्ध किया करता है । इस बन्धक + विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥" -स्वामी समन्तभद्राचार्य । * "देशयामि समीचीनं, धर्म कर्मनिवर्हणम् । संबरदुःखतः सत्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे ॥" -स्वामी समन्तभद्राचार्य । + अगाड़ी इनका विस्तृत वर्णन किया गया है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २२१ - कारण यह जीव-आत्मा चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है और नाना प्रकारके दुःख उठाता है। इस संसार-परिभ्रमण और दुःख-सहनसे जीव छुटकारा तभी पा सकता है, जब वह इसके पूर्वोक्त मिथ्यात्व-अविरति श्रादि कारणोंको छोड़ दें। क्योंकि संसार-परिभ्रमण और दुःख-सहन के ये ही तो कारण हैं । कारण के प्रभाव होजानेपर ही कार्यका अभाव हो सकता है। इसलिये मिथ्यात्व-अविरति आदि बन्ध-हेतुओंके छोइनेका जिसमें उपदेश हो वही सुधर्म है और वही जीवका कल्याणकारी है । (३४) मिथ्यात्व मर्वथा और सर्वदा त्याज्य है। मिथ्यात्वसे जीव अनन्त काल तक संसारमें भ्रमण करता है। मिथ्यात्व नाना प्रकारके दुःख दिया करता है । यह जीवका बड़ा शत्र है। इस कारण इसको त्याग कर सम्यकत्वको अङ्गीकार करना चाहिये। शास्त्रकाराने तो यहाँ तक कहा है कि जो जीव केवल एक अन्त. मुहूर्त सम्बकत्व धारण कर ले तो उसके लिये संसार अर्धपुद्गल. परावर्तन मात्र रह जाता है । करोड़ों जन्म-जन्मातरोंके बाद कहीं मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है । इस कारण इसे व्यर्थ न गवा कर ...................................... ........--------- ___ * मोक्ष जानेवाले जीवका अधिक-से-अधिक अर्धपुद्गलपरावर्तन काल (समयकी एक संख्या-विशेष) जब बाकी रह जाता है, तब उसे सम्यक्त्व (प्रात्मश्रद्धान-प्रात्मरुचि) अवश्य उत्पन्न होता है। यह नियम है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय धर्मकी आराधनामें सदा तत्पर रखना चाहिये । धर्माराधनाका अवसर मिलनेपर विवेकी पुरुषको उसमें किसी भी कारणसे प्रमाद न करना चाहिये । हे बन्धुओ ! इस असार संसारमें केवल एक धर्म ही सार है। इसलिये धर्मकी ही आराधना करनी चाहिये। (३५) हे भव्य प्राणियो ! अगर यथार्थमें इस संसारमें देखा जाय तो सिवाय दुःखके सुखका लेश मात्र भी नहीं है । प्राणियों के लिये जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, व्याधि भी दुःख है, मरण भी दुःख है, अप्रियांका संयोग भी दुःख है, प्रियांका वियोग भी दुःख है, इच्छा करनेपर स्त्री-सन्तान-धन आदि वस्तुओंके न मिलनेपर भी दुःख है । संक्षेपमें यों कहना चाहिये कि जिधर देखो उधर दुःख-ही-दुःख दिखाई पड़ता है । इस कारण अगर बन्धुओ ! दुःखोंसे बचना है और मुखकी चाह है तो इस अपार संसार-सागरमें मूल्यवान् महारत्नकी भांति मनुष्य-जन्मको शुभ कर्मा अर्थात् धर्म द्वारा सफल बनाना परम श्रावश्यक है । हे महानुभावो ! तत्त्वज्ञान अर्थात् धार्मिक ज्ञानके बिना सांसारिक विद्याओंका ज्ञान भी व्यर्थ है। जिस प्रकार शील-रहित सुन्दर स्त्री प्रशंसा-योग्य नहीं होती। (३६) शास्त्रकागेंने कहा है कि अनेक जन्मों तक तप करनेसे भी जो कम क्षीण नहीं होते, वे समता भावक अवलम्बन करनेसे गीत नीया मरने । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २२३ (३७) अन्तरङ्गमें वीतरागका ध्यान करनेसे ध्याता वीतराग हो जाता है। इस कारण समस्त अपध्यानोंको दूर कर शुम ध्यानका प्राश्रय ग्रहण करना चाहिये । स्थान, यान, अरण्य, जन, सुख या दुःख में मनको वीतरागपनेमें जोड़ रखना चाहिये, ताकि वह सदा उसीमें लीन रहे । (३८) इन्द्रियों का मालिक मन है । मनका मालिक तप है और तपका मालिक निरञ्जन है। मनुष्य के पास तीन शक्तियाँ हैंमन, वचन और काय ! या यों कहना चाहिये कि मन, वचन और कायका जो पुञ्ज है, वही मनुष्य है। हैं तो ये तीन शक्तियाँ अलग अलग, किन्तु काम करती हैं मिल कर । कहने को तो ये तीनों समान अधिकार रखती हैं, पर वास्तवमें परस्परमें इनका स्वामीसेवकका संबन्ध है। मन स्वामी है और वचन और काय सेवक । मनमें जैसे कुछ भी-अच्छे या बुरे विचार आते हैं, वचन और कायकी प्रवृत्ति वैसी ही होती है। मनुप्यके भले-बुरे बननेका कारण ही मन है--मनके विचार हैं। मनुष्य यदि सत्साहित्यका अवलोकन करंगा, साधु-सज्जन पुरुपोंके संसर्गमें आयेगा अर्थात् मनमें अच्छे विचार करेगा, तो वह अवश्य ही अच्छा बन जायगा। इसीलिये शास्त्रकारोंने एक जगह मनके विषयमें लिखा है "मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः" Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय अर्थात मनुष्योंका मन ही बन्धका कारण है और मन ही मोक्षका कारण है। इस कारण सुज्ञ जनोंको रस्सीसे बँधे हुए बैलकी तरह मनको अवश्य वशमें रखना चाहिये । (३६) जिस प्रकार पुष्पमें सुगन्ध, दूध में घी, तिलमें तेल और कायमें आत्मा स्थिर रहती है, उसी प्रकार अात्मामें ज्ञान रहता है। वह उद्यम व उपाय करनेसे प्रकट हो सकता है । आवश्यकता है पुरुषार्थ करनेकी। (४०) शास्त्रकारोंने कहा है कि पवित्रतामें परम पवित्र शील है, गुणोंमें परम गुण शील है और तीनों लोकों में प्रभाव तथा महिमाका धाम यदि कोई वस्तु है तो वह केवल शील है। अश्वका उत्तम भूषण वेग है, स्त्रीका उत्तम भूपण पति है, तपस्वीका उत्तम भूषण कृशता है, ब्राह्मणका उत्तम भूपण विद्या है और मुनिका उत्तम भूषण क्षमा है, किन्तु शील तो सभी प्राणियोंका उत्तम भूषण है। इसलिये ब्रह्मचर्यका पालन सभीको अवश्य करना चाहिये। ब्रह्मचर्य पालन करनेकेलिय उसकी निम्नलिखित नौ वाढ़े अवश्य पालन करना चाहिये: १--जिस स्थानमें स्त्री रहती हो या जिस स्थानके पास स्त्रीका वास हो, उस उपाश्रयका मुनिको त्याग करना चाहिये । २-स्त्रीसे एकान्तमें या बिना प्रयोजन बात नहीं करनी चाहिये। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * मुमुक्षुओंके लिये उपयोगी उपदेश * २२५ ३ – जिस आसनपर स्त्री बैठी हो या सोई हो उस श्रासनका दो घड़ी के लिये त्याग करना चाहिये । ४ – स्त्रियों के श्रङ्गोपाङ्गोंको ध्यानपूर्वक न देखना चाहिये । इसके अलावा स्त्रीके स्वरूपको ध्यान तकमें न लाना चाहिये । ५ - जिस घर में स्त्री-पुरुष सोते हों या जिस जगहसे हावभाव-विलास हास्यादिकी आवाज सुनाई देती हो, वहाँ दोबारका अन्तर न होनेपर ब्रह्मचारीको नहीं रहना चाहिये । ६ - पूर्व काल में स्त्रीके साथ जो क्रीड़ा आदि की हो, उसका स्मरणमात्र भी नहीं करना चाहिये । ७- अत्यन्त स्निग्ध आहार - जिस पदार्थ के सेवन से कामीद्दीपन होने की सम्भावना हो, का त्याग करना चाहिये । - ज्यादा आहार न करना चाहिये । ६-- आभूषण, सुन्दर वस्त्र, स्नान, मञ्जन और अङ्ग- शोभा आदिका भी ब्रह्मचारीको त्याग करना चाहिये । जो व्यक्ति इन नौ मर्यादाओंका ध्यानपूर्वक पालन करेगा, वही ब्रह्मचर्यको पाल सकता है। गृहस्थ में पुरुषको स्वदार - सन्तोष व्रत और स्त्रीको स्वपुरुषसन्तोष व्रत धारण करना चाहिये। जो लोग विषयाकुल हों, मनसे भी शीलका खण्डन करते हों, वे 'मणिरथ' राजाकी तरह घोर नरक Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय के अधिकारी होते हैं और जो सती 'मदनरेखा'की भांति निर्मल शीलका पालन करते हैं. वे भाग्यवान् जीवोंमें सम्मानित होकर सुगतिका उपार्जन करते हैं। (४१) हे भव्यप्राणियो ! मनुष्य को अपने वैभव, सम्पत्ति,रूप, बल, बड़प्पन गादि बातोंपर कभी अभिमान नहीं करना चाहिये क्योंकि इस असार संमारमें एक वस्तु भी ऐसी दृष्टि नहीं पाती जो सदैव ही एक स्थितिमें रहती हो। जैसे जिस बालकको हम सांसारिक वासनारहित पालनमें झलता देखते हैं. वहीं कुछ काल बाद, जवानीक मदसे मस्त, सांसारिक मोहक पदार्थामे परिवप्टिन हमें दिखाई देता है । जो अपने शरीर-बलसे-मदसे उन्मन होकर पृथ्वीपर पैर रखना भी लज्जास्पद समझना है, वहीं बुढ़ापेमें लकड़ी के सहारे टकटक करता चलता है । जिस मूर्य को हम सबर ही अपनी प्रखर प्रतापी किरणों फैलाते हुये उदयाचल के सिंहासनपर आरूढ़ होता हुआ देखते हैं, वही मंध्याकं ममय विस्तेज हो, क्रोधमे लाल बन अस्ताचल की गहन गुफामें छिपना हुआ दिखाई देता है। जिसके घर ऋद्धि-समृद्धि छल की पड़ती थी, वही आज दर-दरका भिम्बारी बन रहा है। जिम मनुष्य के रूपलावण्यपर जो लोग मुन्ध हो जाते थे, आज वही उसको देख कर घृणासे मुंह फेर लेते हैं । लाखों-करोड़ों मनुष्य जिनकी आँखके इशारेपर चलते थे, उन्हीं चक्रवतियों को निर्जन वनोंमें निवास करना पड़ा है; इत्यादि । इस कारण विचारशील मनुष्य को Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - खण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश* २२७ प्रत्येक अवसरसे लाभ उठाना चाहिये और अपने मनुष्य-जन्मको सफल बनाना चाहिये । (४२) धर्म एक विज्ञान या विद्या है, जिसका अभिप्राय मनुष्य को संसारके दुःखां, आतापों और आवागमनके चक्रसे छुड़ाकर उत्तम सुख अर्थात परमानन्द अवस्थामें सदाकेलिये स्थिर करना है। (४३) धर्मकार्य करनेसे मनुष्य का केवल यही अभिप्राय होना चाहिये कि उसको अनन्त अविनाशी अक्षय सुख की प्राप्ति हो, जो कि संसारी अवस्था नहीं मिल सकता है। (४४) अधिकतर मनुष्योंक संमार में धन-दौलत, मान-मर्यादा, स्त्री-पुत्र, भोग विलास इत्यादि उद्देश्य हुआ करते हैं, परन्तु ये सब-के-सब केवल इन्द्रिय-सुम्ब हैं, जो वास्तव में सुम्ब नहीं हैं। किन्तु मुम्बाभास हैं, जोकि स्थूल दृष्टि से देखनेवालों को मुखसमान मालूम होते हैं। इसका कारगा यह है कि यह सुख क्षणिक है। इनसे आत्माकी तृप्ति आजतक नहीं हुई है. हालांकि यह जीव इस प्रकार के सुखोंको अनन्न कालसे भागता आता है। (४५) विद्वानाने इन्द्रियों को दहकती हुई अग्निकी भांति कहा है,क्योंकि जितना जितना सुख और भोगविषयम्प ईधन इन अग्निरूप इन्द्रियोंपर डाला जाता है, उतनी उतनी उनकी इच्छारूपी , बाला प्रचण्ड होनी जाती है । * "न जानु कामः कामानिरुपभोगेन शाम्पति । हविधा कृष्णावरमेव भूप एवाभिवर्धते ॥" Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय (४६) अज्ञानी पुरुष संसारकी चमक-दमक और वेष-भूषाको देखकर प्रसन्न होते हैं । परन्तु मृत्यु किसी क्षण भी इस बातको जताने याद दिलाने में त्रुटि नहीं करती है कि यह दुनियाँ केवल एक प्रकारकी सराय अथवा धोकेकी टट्टी है, जहाँपर कि सदैवके लिये ठहरना सर्वथा असम्भव है। (४७) संसारमें मनुष्यका जीवन बहुत अल्प है। इस तुच्छ जीवनकेलिये यह अज्ञानी जीव नाना प्रकार के प्रपश्च, जंजाल व झूठे ढोंग रचता है। पर यह अज्ञानी इस घातको नहीं जानता है कि बजाय दूसरोंक फंसान के मैं स्वयं ही इन जालों में फंस जाऊंगा। जिस प्रकार एक मकड़ी अपने बनाये हुए जालम स्वयं फंस जातो है। एक समय इन संसारी जालौस मुक्त होना तो सम्भव है. पर कर्मरूपी जालोंसे बचना सर्वथा असम्भव है। इस कारण मनुष्य को संसार में अपने जीवनको शुभकार्यों द्वारा सफल बनाना चाहिये । (४८) यह संसार बड़ा विचित्र है तथा गहन है कयोंकि इसमें दुःखरूपी अग्निकी ज्याला धधक रही है। इसमें जो इन्द्रियाधीन सुख हैं, वे अन्तमें विग्स है अर्थात दु:ख के कारण हैं और जो काम और अर्थ हैं, वे अनित्य हैं अर्थात् सदा नहीं रहने । इसलिये भव्य जनोंको अमूल्य मनुष्य-जन्मको नष्ट न करके उसे सार्थक बनाना । चाहिये। (४६) हे आत्मन ! शरीरको तू रोगोंसे छिदा हुआ समझकर, यौवनको बुढ़ापेसे घिरा हुआ जानकर, ऐश्वयं तथा सम्पदाओंको Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २२६ विनाशीक और जीवनको मारणान्तिक जानकर अपने अमूल्य मनुष्य-जन्मको व्यर्थ न गॅवा । (५०) इस जगत्में समय पुकार २ कर कह रहा है कि हे भव्य प्राणियो ! जो कुछ अपना कल्याण करना चाहते हो, उसे शीघ्र कर डाली। नहीं तो बादमें पछताना पड़ेगा। क्योंकि जो समय अथवा घड़ी निकल जाती है, हजार यत्र करने पर भी वह वापिस नहीं लाई जा सकती। इस कारण चतुर मनुष्योंको समयका सदा मद् उपयोग करनेकेलिये तत्पर रहना चाहिये । (५१) हमारे देखन-देखने पुत्र, बन्धु, स्त्री, मित्र आदि चले जाते हैं अर्थात कालको प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार एक दिन यह हमारा आत्मा इस नाशवान शरीरको छोड़कर रवाना होजायगा । इस कारण हमको सबसे पहले विनाशीक शरीरद्वारा अपने जन्मको उत्तम व रच कार्याने सफल बनाना अत्यन्त आवश्यक है। (५२) देखो ! मनुष्यों का प्रवतन कैसा आश्चर्यकारक है कि शरीर तो प्रातदिन छीजता जाता है और पाशा पीछा नहीं छोड़ती है, किन्तु बढ़ती जाती है। तथा आयु तो दिन-दिन घटती जाती है और अशुभ कर्मा ने बुद्धि बढ़ती ही जाती है। मोह तो नित्य स्फुरायमान होता है और यह प्राणी अपने हित व कल्याण-मार्गमें नहीं लगता है। यह सब अज्ञान का माहात्म्य है। । (५३) जिस प्रकार पक्षी नाना दिशाओंसे श्रा-आकर सन्ध्या के समय वृत्तोंपर घसते हैं और मुबह होते ही उड़-उड़ कर चले Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [मृतीय जाते हैं, उसी प्रकार प्राणी भी इस संसाररूपी वृक्ष में प्रा-श्रा कर बसते हैं और रात्रिके समान कुछ समय यहाँ रह-रह कर चल बसते हैं । इस कारण इस अल्प समयको विचारशील पुरुपोंको नष्ट न करके सदा उपयोगमें लाना चाहिये। (५४) इस जगन्में जितने भी राजा, महाराजा, चक्रवर्ती, देवता, इन्द्र आदिके सुख, वैभव व ऐश्वर्य हैं, वे सब क्षणिक अर्थात् शामके चमकीले बादलों के समान हैं। जो देखने में अतिसुन्दर दीख पड़ते हैं, परन्तु देखते-देखते ही बिलाय जाते हैं। (५५) यह काल बड़ा बलवान है। जैसे यह बालकको प्रसता है, वैसे ही वृद्धको प्रसता है. जैसे धनादय पुरुपको प्रसता है, उसी प्रकार यह दरिद्रको प्रसता है और जिस प्रकार यह शरवीरको प्रसता है, उसी प्रकार कायरको प्रसता है। इसी प्रकार यह जगतके समस्त जीवों को प्रसता है। यों कहना चाहिये कि किसीको इसका विचार नहीं है। इस कारण विचारवान पुरुपोंका यही कर्तव्य है कि पूर्व-से-पूर्व ही इसके स्वागत करनेकेलिये उन्हें तय्यार रहना चाहिये । ताकि अन्त समय पछताना न पड़े। (५६ ) जिस समय प्राणीका अन्त पा जाता है, उस समय उसको उसके सगे-सम्बन्धी, मित्र-दोस्त, डाक्टर-वैद्य, धनवैभव आदि कोई भी नहीं बचा सकते । इस कारण विचारवान पुरुषोका यही कर्तव्य है कि वे शान्ति के साथ समाधिमरण करें.. जिसको 'पण्डितमरण' भी कहते हैं। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - खण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २३१ (५७) प्राणीपर जो दुःख अथवा वेदना पड़ती है, उसको कोई भी बटाने में समर्थ नहीं है । वह स्वयं उसे ही भोगनी पड़ती है। अब यह उसकी बुद्धिपर निर्भर है कि उसे चाहे वह रो-पीटकर या चिल्ला कर भोग या शान्ति भावसे वरदाश्त करे। शास्त्रकारोंने तो ऐसे अवसरकेलिये यह फरमाया है कि जीवके उपर जब दुःख या मुसीवत पाये तो उसे वह शान्ति भावसे वरदाश्त करे। (५८) यह जीव जो अशुभ कर्म अपने पुत्र, स्त्री, कुटुम्बियों, मित्र श्रादिकेलियं करता है, उनका बुरा फल वह नरक श्रादि गतियों में स्वयं भोगता है। वहाँ उसके पुत्र, स्त्री आदि कोई भी नरकके दुःखोंको भोगनेकेलिये सार्थी या सहायक नहीं होते हैं। (५६) यह प्राणी बुरे-भले कार्य करके जो धनोपार्जन करता है, उस धनको भोगनेको तो पुत्र-मित्र आदि अनेक साथी होजाते हैं, परन्तु अपने कर्मासे उपार्जन किये हुए निर्दयरूप दुःखों के समूहको महनके लिये कोई भी साथी नहीं होता है। हे जीव ! तुझको अकेले ही सब दुःखों को भोगना पड़ेगा। यह विचारकर भव्यप्राग्मियों को उचित है कि वे अशुभ कर्मोसे सदा बचते रहे। (६०) मनुष्य को सदा मैत्रीभावना भाते रहना चाहिये । जैसे कि संसारके प्राणीमात्र सदा आपदाओं व दुःखोंसे वर्जित हो तथा वर, पाप, अज्ञान आदिको छोड़कर सुखको प्राप्त हों। (६१) मनुष्यका सदा करुणाभावना भाते रहना चाहिये। जैसे कि जो जीव दीनतासे तथा शोक,भय और रोगादिकी पीड़ासे Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास [तृतीय दुःखित हों, पीड़ित हों तथा वध-बन्धन सहित रोके हुए हों अथवा अपने जीवनकी वाञ्छा करते हों कि कोई हमारी रक्षा करे, ऐसी दीन प्रार्थना करनेवाले हों तथा क्षुधा, तृषा, खेद आदिकसे पीड़ित हों तथा शीत उष्णतादिकसे पीड़ित हों तथा निर्दय पुरुषोंकी निर्दयता से रोके हुए मरणके दुःखको प्राप्त हों तो इस प्रकारके दीन, दुःखी जीवोंके कष्ट व दुःखों को दूर करनेका उपाय करते रहना चाहिये और मुक्त करा देना चाहिये ।। (६२) मनुप्यको सदा प्रमोदभावना भाते रहना चाहिये । जैसे कि पुरुष तप,शास्त्राध्ययन और यम-नियमादिकके पालनेमें संलग्न हों: ज्ञान ही जिनके नत्र हो: इन्द्रियाँ, मन और कषायों को जीतने वाले हों; स्वतन्वाभ्यास करने में चतुर हो; जगतको चमत्कृत करनेवाले चारित्रसे जिनकी आत्माएँ श्राश्रित हों: ऐसे पुम्पों के गुणोंमें मेरा चित्त अनुरक्त रहे। (६३) मनुष्यको सदा माध्यस्थ्य भावना भाते रहना चाहिये । जैसे कि कोई अज्ञानी जीव अपने ऊपर मिथ्या आक्षेप लगावे; कटु वचन बोले; अनुचित व्यवहार करे या अपने अहित के लिये प्रयत्न करे तो उसकेलिये भी मेरे चित्तमें क्रोध न उपजे-उससे मैं शत्रुताका व्यवहार न करूं-उससे उदासीन-माध्यस्थ्य भाव रक्खू । (६४) जिस प्रकार रेशमका कीड़ा अपने ही मुखसे तारोंको निकालकर अपनेको उसमें लपेट लेता है और मन्तमें नाना प्रकार के Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] *मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २३३ दुःख भोगता हुआ कालको प्राप्त होता है । ठीक इसी प्रकार हम अज्ञानी प्राणी मी अपने हित-अहितको न देखते हुए अपने अशुभ कर्मों में अपने को इस बुरी प्रकार बाँध लेते हैं कि जिससे हमें भारी रोदना व दुःख भोगना पड़ता है। यहाँ तक कि भोगते हुए पीछा नहीं छूटता है और अन्त में मृत्युको प्राप्त करना पड़ता है। (६५) जिन्होंने इन्द्रियों के विषय भोगनेकी तृप्तिको नहीं रोका, उम्र परिपहें नहीं जीती और मनको चपलता नहीं छोड़ी, वे मुनि आत्माक निश्चयस निश्चयसे न्युन हो जाते हैं। (६६) मनुष्यता पाकर उसमें भी फिर जगत्पूज्य मुनिदीक्षा को ग्रहण कर विद्वानों को अपना हित विचार कर अशुभ कर्म अवश्य ही छोड़ना चाहिये। (६७) जिन नियोंने अपने अन्तःकरणकी शुद्धताकेलिये उत्कट मिथ्यात्वरूपी विष वमन नहीं किया, तत्त्वोंको प्रमाणरूप नहीं जान सकते हैं; क्योंकि मिथ्यात्वरूपी विष ऐसा प्रबल है कि इसका लेशमात्र भी यदि हृदय में रहे तो तत्त्वार्थका ज्ञान-श्रद्धान प्रमाण रूप नहीं होता। (६८) मुनिपना संसारमें सर्वोत्कृष्ट वस्तु है। चक्रवर्ती और इन्द्र भी इस पदको अपना मस्तक झुकाते हैं। प्रात्म-हितका यह •माक्षान् साधन है और इसीलिये यह पद स्वीकार किया जाता हैं। लेकिन कितने ही निर्दय और निर्लज्ञ प्राणो इस पदको स्वीकार Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ * जेलमें मेरा जेनाभ्यास * [तृतीय कर धनोपार्जन करते हैं-इस पदको अपनी आजीविकाका साधन बना लेते हैं। वे लोग ऐसे ही हैं जैसे कि जो लोग अपनी पूजनीया मातासे वेश्यावृत्ति कराकर अपना ऐश-आराम भोगत हों। एक वे भी लोग हैं जो करोड़ोंकी सम्पत्ति छोड़कर, चक्रवर्तित्व छोड़कर इस पदको अपनाते हैं और एक ये भी हैं जो उससे धनोपार्जनकी अाशा रखते हैं ! भाई ! धनोपार्जनका तो मार्ग ही दूसरा है । यह पद तो उसे छोड़ देने के बाद प्राप्त होता है। (६६) मनको गन्दे विचारोंसे अलग रखनेका उपायः १- नवकार मन्त्रका जाप करना, २-श्रालस्यमे वचना ३-कुसंगसे सदा दूर रहना. ४-धुरी किताबों व उपन्यासीको नहीं पढ़ना. ५-नाच-तमाशा. नाटक चेटक आदिमें नहीं जाना. ६-अपने खान-पान. रहन-सहन और जीवनपर विचार करते रहना. ७-इन्द्रियों को विषयोंकी ओरसे रोकना, ८-जब-जब बुरे विचार उठे. उसी समय उनको चित्तसे निकाल देना. - एकान्त स्थानमें बैठकर मन और इन्द्रियोंकी वृत्तिको रोककर ध्यान करना. १०-परमार्थी शिक्षाको सदा याद रखन! ११-सदा मृत्यु और नरकों के कष्टों को याद करते रहना। (७०) अनन्त ज्ञान, अनन्त मुख, अनन्त बल, दया, क्षमा, सन्तोष, परोपकार आदि आत्मा म्वामाविक गुण है । लेकिन कर्मके संयोगसे इनका अनुभव इस संसाती जीवको नहीं होता। इसके कारण यह सदैव क्लेशित रहता है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ● मुमुक्षुत्रों के लिये उपयोगी उपदेश * २३५ (७१) कर्मोंके अभाव में आत्माका स्वाभाविक गुण प्रगट हो जाता है और स्वाभाविक दशाको प्राप्त कर यह जीव अतिप्रसन्न हो जाता है। इसकी यह स्वाभाविक दशा ही मुक्ति है- मां है - परमधाम है । खण्ड] ( ७२ ) बद्ध दशा किसीको भी प्रिय नहीं है। सबको स्वाधीन होकर ही रहना पसन्द है । इसीलिये यह जीव मुक्त हो जानेपर अतिमुखी हो जाता है। (७३) मुक्तिका सुख - स्वाधीन हो जानेका सुख इन्द्रके सुख से भी अधिक है। कितना अधिक है ? सौ इन्द्रोंके सुखोंका एकत्रीकरण कर लिया जाय तो भी उसकी समानता नहीं हो सकती। नहीं, यह भी गलत है। सच तो यह है कि वह ऐसा सुख है कि किसीकी तुलना करके उसे नहीं बनाया जा सकता । इसीलिये ज्ञानियोंने उसे 'अनुपमेय' कहा है। ( ७२ ) अनुपमेय भी इसलिये हूँ कि वह इन्द्रिय- भांग जन्य सुखसे विजातीय है। इसके अतिरिक्त एक विशेषता उसमें और भी हैं, और वह विशेषता है स्थायित्वकी - निराबाधकी। इन्द्रियभोग-जन्य सुख अस्थायी है-संबाध है— सान्तराय है और आत्मिक सुख अनन्त - स्थायी - निराबाध - निरन्तराय है । ( ७५ ) तभी तो चक्रवर्ती तक भी अपना छह खण्डों का राज्य छोड़कर उस सुखकी प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करते हैं । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय और नाना प्रकारकी परीषहें सहते हैं, उपसर्ग सहते हैं और महान तप तपते हैं। कुछ वाक्य-रत "दया ज्ञानकी ध्वजा है और क्रोध मूर्खताकी ध्वजा है।" "धन्य हैं वे जो दया-शील हैं. क्योंकि वे ही परम पिताकी निज दयाके भागो हैं।" -ईसा। "जहाँ दया तहँ धर्म है, जहाँ लोभ तह पाप । जहाँ क्रोध तहँ काल है, जहां क्षमा तहं पाप ॥" -कबीर। 'क्रोधको जीतनेका शम्न क्षमा है, बुराईको जीतनका शम्न भलाई है, सूमताको जीतनका शस्त्र उदारता है. और झटका जीतनका शस्त्र सच है।" -महामारत । हपके साथ शोक और भय ऐसे लगे हैं, जैसे प्रकाशके संग छाया। सच्चा सुखी वही है. जिसकी दोनों एक समान है।" -धम्मपद। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताए * मुमुलुओंकेलिये उपयोगी उपदेश- २३७ - "हर एकका उपकार करना अपना कर्त्तव्य है। बदले में यदि वह बुराई करे तो तुम्हें अपने मनको मैला न करना चाहिये तुम्हें हमेशा अपना फर्ज अदा करते रहना चाहिये। अगर दूमग अपने फर्जमें भूले तो उसकी समझपर ग़स्सा लाने के बदले तरस खाओ।" -धम्मपद। "सुकर्म-पुण्यकर्म-भलाईसे लोक और परलोक दोनोंका सुख प्राप्त होता है। परन्तु उससे आवागमन सदाकेलिये नहीं छूट सकता। वह तो तभी छूटेगा. जब आदमी निष्कर्म हो जायगा ।" -एक जैनाचार्य। "भाग करनेसे मोगकी इच्छा बुझती नहीं. वरना ऐसी भड़. कती है जैसे घी पड़नसे आग धधकती है।" -मनुस्मृति । "परस्त्रीको जो कुदृष्टि से देखता है, वह अपने सिरपर व्यभिचारका मानसिक पाप चढ़ाता है।" -इसा । "तावा-पछतावा छह बातोंसे पूरा होता है। १-पिछले पापोंपर लजित होनेसे २-फिर पाप न करनेके प्रयन करनेसे, ३-मालिककी जो सेवा छूट गई हो उसे पूरा करनेसे. ४-अपने से किसीकी यदि कुछ हानि हो गई हो तो उसका घाटा भर देनेसे. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [ तृतीय ५- लोहू और चरबी जो हरामके खाने से शरीरमें बढ़ी हो उसे धुला डालनेसे और ६-शरीरने पापोंसे जितना सुख उठाया है, मालिककी सेवामें उसे उतना ही दुःख देनेसे |" -महात्मा अबूबकर 1 $ "जिसने अपना बुरा स्वभाव नहीं छोड़ा, जिसने अपनी इन्द्रियों को नहीं रोका. जिसका मन अति चञ्चल है, वह केवल पढ़ने-लिखने से आत्मज्ञानको नहीं पा सकता ।" - कठोपनिषद् | उ "भोजन शरीर के पोषण के लिये और शरीर भगवन भजन के लिये रचा गया है, शरीर भोजन के लिये नहीं रचा गया ।" - साकी जीवन के लिये भोजन है भोजन के लिये जीवन नहीं है ।" - एक अज्ञात कवि | - जिसके भोजनका श्राशय केवल जीवके वचनका आशय केवल सत्यके प्रकाशका है, परलोक दोनोंका मार्ग सीधा है।" 23 हैं और उपकार लेना पशुका काम है ।" निर्वाहका और उसका लोक और - हितोपदेश | उपकारका रूप स्वामित्व है, उसका करना नर-बालेका धर्म -एक अज्ञात कवि | Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बण्ड * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २३६ ___जो पहले मीठा लगे और फिर कड़वा और जो पाते हँसावे और जाते रुलाये । यह संसारका सुख है।" -एक गुजराती कवि । 'अचेत आदमी केलिये मंसार खेल-तमाशेकी जगह है, परन्तु मचेन आदमी के लिये संसार युद्धस्थल है. जहाँ जीवनपर्यन्त मन और इन्द्रियों में मनुष्यको जूझना पड़ता है।" -सहजी। 'मनुष्यको देह भवमागर पार हानेकी नाव है. क्षमा उसके बनेका डंडा है, सन्य उसके स्थिर रखने के लिय लंगड़ है, मुकर्म अगम धारामें बीच नेकी रम्सी है और दान और उपकार पातमें भरकर आगे ढकलनेवाली हवा है।" -महाभारत । दया बगवर कोई धर्म नहीं. नमाके वरावर कोई शरता नहीं प्रान्मज्ञानके बराबर के ई जान नहीं और सत्यके समान कोई गुराग नहीं।" __-महाभारत । दान पछतावा. सन्ताप संयम. दीनता. सचाई और दया, य सात बातें बैकुण्ठ के द्वार हैं।" -महाभारत । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * ___“दरिद्री कौन है ? जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है। धनी कौन है ? जिसके पास सन्तोषरूपी धन है।" -शंकराचार्य । १-विश्वास-घात या छल सबसे बड़ा पाप है। २-लालच भारी अवगुण है। ३-सत्य तपसे श्रेष्ठ है। ४-पवित्रता और निदोषता यज्ञसे उत्तम है। ५-प्यार सहित उपकार सब गणों में शिरोमणि है। ६-गौरव या गम्भीरता सबसे बड़ी शोभा है। ७-बिना किसी सहायकके भी ज्ञानकी मदा जय है। -मरना लोक-अपमानसे अच्छा है।" -महाराज भर्तृहरि । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य-जीवनकी सफलता के महानुभावो ! क्या कभी आपने इस बातको ध्यान पूर्वक विचार करनेकी चेष्टा की है कि मनुष्य जन्म मिलना कितना दुर्लभ है और इस अमूल्य जन्म पानेका क्या उद्देश्य है ? ET क्या मनुष्य जन्म पानेका यही मतलब है कि हम भूठ बोलें, चोरी करें, शराब पिये, व्यभिचार करें, शिकार खेल, अवलोंको सतावें, लोगोंके साथ विश्वासघात करें और अन्त में यमपुरीको प्रस्थान करें। क्या मनुष्य जन्म पानेका यही सार है कि अन्यायपूर्वक पैसा पैदा किया जाय, जनताको धोखा दिया जाय, कम ताला जाय. कम नापा जाय. नकलीको असली बताया जाय, अच्छी वस्तुमें निबल वस्तु मिलाई जाय, बात-बातमें कसम खाई जाय और इस प्रकार ठगई-जाल करते हुए शरीर छोड़ा जाय ? क्या मनुष्य जन्म पानेका यही उद्देश्य है कि लोगोंको भलाबुरा कहा जाय. क्रोध किया जाय, घमंडमें चूर रहा जाय, बाप Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय - दादोंकी कमाईको अपने ऐश-आराममें फंक दिया जाय और अन्तमें हाथ मलते-मलते जीवन-लीला समाप्त की जाय ? क्या मनुष्य-जन्म पानेका सिर्फ यही मन्तव्य है कि धनदौलत हो. स्त्री-सन्तान हो, भोग-उपभोग हों, इन्द्रिय-मनका मुख प्राप्त हो, मान-बड़ाई हासिल हो और अन्तमें जीवन-लीला समाप्त हो जाय ? नहीं, नहीं, मनुष्य-जन्म पानेका यह उदृश्य कदापि नहीं है। उसके पानेका बड़ा ऊँचा उद्देश्य है। क्योंकि यह जीव मांसारिक अनेक सुख, यहाँ तक कि राजा महाराजा, बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती तककी, नहीं-नहीं. देवताओं व इन्द्र श्रादि तककी ऋद्धियाँ, वैभव, ऐश्वर्य श्रादि, एक बार नहीं, दस बार नहीं. बल्कि अनेक बार भाग चुका है। पर तो भी इस जीवका मन्तव्य आज तक सिद्ध नहीं हुआ है। दूसरे यह जीव अनादि कालसे चौरामी लाग्य जीवयोनि और करोड़ों कुलों में घूम चुका है और घुम रहा है पर आज तक इसका उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है। तो अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य-जीवनका मुख्य उद्देश्य क्या है ? भिन्न-भिन्न शास्त्रकारों, ऋषियों, के वलियों और जिनेन्द्र. भगवानने इस बातको एकमत होकर स्वीकार किया है कि मनुष्य जीवनका उद्दश्य चौरासी लाख जीवयोनि और करोड़ों Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वराड * मनुष्य-जीवनको सफलता * २४३ - कुलोंसे निकल कर कर्माका अन्त कर परमपद अथवा सिद्ध गतिको प्राप्त करना है। तो अब प्रश्न उठता है कि वह परमपद अथवा सिद्धगति क्या है ? सिद्धगति वह पद है, जहां पर अनादि कालसे भ्रमण करनेवाली यह संसारी आत्मा आवागवनके चक्रसे छूट कर हमेशाकेलिये अतीन्द्रिय सुम्बका भोग करता है । इस अवस्थामें अनन्त ज्ञान. अनन्त मुम्ब, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्यका भाग कर आत्मा सब प्रकार की व्याधा-पीड़ासे रहित हो जाती @ क्यों कि इस समय-सामारिक अवस्थामें यह जीव कर्म-लिप्त है-बद्ध है । इस कर्म-लिप्तना-बदनाके कारण ही यह जीव नाना गतियोंमें भ्रमण करता है, नाना प्रकार के क्लेश उठाता है और निज म्वरूपसे-ज्ञान-मुम्बके खजाने मे अपरिचित रहता है। अामाके अनन्त गुण हैं या यों कहना चाहिये कि भारमा अनन्त गुणोंका पुस्ज है। अनन्तगुण भण्डारी प्रामाके ज्ञान और सुख, ये दो गुण ऐसे हैं कि जिनकी पारमाका अनुमव यह जीव कर्म-लिप्त अवस्थामें भी कर सकता है । यही कारण है कि सभी संसारी जीवोंको ज्ञान और मुम्बकी अभिलाषा स्वाभाविक रूपमें उत्पन्न होती है। उसे वे मनोनुकूल जितना-चाहे उनना प्राप्त कर न सकें, यह दूसरी बात है। यह एक प्रसमर्थता है । पर ज्ञान और सुख के प्राप्त करनेकी अभिलाषा संसारी जीवके होती म्वतः है। क्यो कि वे उपके स्वाभाविक गुण है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय है और अजरामर, निराकार, निरञ्जन, निर्लेप, कृतकृत्य, परमेष्ठी. परंज्योति. विराग, विमल, कृती आदि हो जाती है और इस प्रकारकी अवस्था उसकी सदा काल बनी रहती है अर्थात् सिद्ध पद प्राप्त करनेके बाद जीवका सारे दुःखोंसे अन्त हो जाता है और वह परमानन्द दशाको सदाकेलिये प्राप्त कर लेता है। ___ मनुष्य, तिर्यञ्च. देव और नरक, इन चारों गतिओं और चौरासी लाख जीव योनियों मेंसे मनुष्य गति ही एक ऐसी गति है जिसके द्वारा यह जीव अपने पूर्वोक्त उद्देश्यको प्राप्त कर सकता है। और अगर कहीं इस मनुष्य-जन्मको, जिसका कि मिलना महा दुर्लभ है, यों ही गंवा दिया तो वही हाल होगा, जो चिड़ियों द्वारा खेत चुग लिये जानेपर एक किसानका होता है। अब विवेकी बन्धुओंको इस बात का भी दिग्दर्शन कर लेना चाहिये कि मनुष्य-लन्म पाना दुर्लभ कितना है ?- समस्त लोकमें * समस्त प्राकाशके दो विभाग है। प्राकारा वास्तवमें है तो एक ही द्रव्य, परन्तु देशभेदापेक्ष्या कल्पनया उसके दो विभाग कर लिये जाते हैं । जिनमें से एक को लोकाकाश और दूसरे को मनोकाकाश कहते है। जीव, मजीद, धर्म, अधर्म और काल, ये पाँच महादम्ये जिसमें देखी जाय-पाई जायँ, यह बोकाकाश है और जिममें ये न पाई जायें, वह अल्लोकाकाश है। अल्लोकाकाशमें जीवका गमनागमन नहीं होता। ३१ घनाकार रज्जु-प्रमाण (एक नाप-विशेष) बोकाकाशमें ही जीव प्रज्यका गमनागमन होता है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * मनुष्य जीवनकी सफलता * अनन्त जीव हैं या यों कहना चाहिये कि सारा ब्रह्माण्ड जीवोंसे ठसाठस भरा हुआ है । २४५ समस्त लोक अथवा समस्त संसारमें जितने जीव हैं, वे दो प्रकार के हैं। एक भव्य और दूसरे अभव्य । भव्य जीव वे हैं, जिनमें सिद्धपद प्राप्त करनेकी शक्ति है और भव्य जीव वे हैं जो सिद्धगति प्राप्त नहीं कर सकते । भव्य जीव भी दो प्रकारके होते हैं। एक वे जो सिद्धगति प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे वे जिनमें सिद्धगति प्राप्त करनेकी सत्ता तो है, पर वे सिद्ध गति प्राप्त करने के साधन नहीं पाते । अब आप अनुभव कर सकते हैं कि बहुतसे जीव तो सिद्ध गतिका प्राप्त ही नहीं कर सकते। इनके अतिरिक्त बहुतसे जीव ऐसे हैं, जो कि साधनों के अभाव से सिद्धगति नहीं पा सकते । सिर्फ कम जीव ऐसे हैं जो यदि पुरुषार्थ - पराक्रम करें तो उस अमर पदको प्राप्त कर सकते हैं 1 इसके अतिरिक्ति एक दूसरी दृष्टिसे भी विचार करनेपर मनुष्य गतिका प्राप्त करना आपको अति कठिन प्रतीत होगा । यथा - नित्येतर निगोदमें अनन्त जीव पड़े हुए हैं। जिनमेंसे अनन्त जीव ऐसे हैं जिनको अनन्त कालसे आज तक उसमेंसे निकलने का अवसर ही नहीं मिला है अर्थात् उनका इतना पुण्यका उदय नहीं हुआ कि वे उस अवस्थासे निकल सकें। जब जीव Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास [तृतीय मेंढ़क आदि। इस जातिमें भी यह जीव संख्यातकाल तक रह पाया है। जब कहीं जीवके विशिष्ट पुण्यका उदय फिर प्राप्त होता है, तब कहीं इसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय योनि प्राप्त होती है। संज्ञी पञ्चेन्द्रियके भी कई भेद हैं। जलचर-जलमें चलनेवाले; जैसे-मछली, मगर आदि । स्थलचर-पृथ्वीपर विचरनेवाले; जैसे-गाय, घोड़ा इत्यादि । खेचर-आकाशमें उड़नेवाले; जैसे-तोता, कबूतर आदि। उरःपरिसर्प-पेटके बल चलनेवाले; जैसेसाँप, कांतर श्रादि । भुजपरिसर्प-भुजाओंके बलसे चलनेवाले; जैसे-चूहा, नेउला आदि । __ इन सब जातिवाले जीवोंके भी लाखों प्रकारकी जातियों व करोड़ों कुल होते हैं। और उत्कृष्ट आयु करोड़ों पूर्व की होती है। इन सब जातियों में यह जीव असंख्यात वर्ष अनेक बार रह आया है। ___ जब जीवके अधिक पुण्यकी प्राप्ति होती है, तब कहीं यह जीव मनुष्य-योनिको प्राप्त करता है। ___ मनुष्य-योनिमें भी बहुतसे जीव गर्भ में ही मर जाते हैं और यदि पैदा हुए तो बहुतसे जीव पैदा होते-होंने कालको प्राप्त करते हैं और यदि जन्म भी ठीक प्रकारसे हो गया तो बहुतसे जीव लड़कपनमें ही मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं । यदि कहीं लड़कपनसे मी निकल गये तो बहुतसे जीव युवा अवस्था में इस संसारको Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरार] * मनुष्य-जीवनकी सफलता * २४६ छोड़कर चल बसते हैं । बहुत थोड़े जीव ऐसे होते हैं जो पूर्ण आयुको प्राप्त करते हैं । यदि पूर्ण आयु भी प्राप्त हुई तो इससे भी मतलब हल नहीं होता। क्योंकि कोई मनुष्य अन्धा है, बहरा है, लँगड़ा है, लूला है अर्थात पृग इन्द्रियाँ मिलना भी अत्यन्त आवश्यक है। यदि पूगा आयु और पूर्ण इन्द्रियों भी प्राप्त हो गई तो इनसे भी मनुष्य-जन्मका मन्तव्य सिद्ध नहीं होता। क्योंकि यदि आदमी किसी प्रकार बीमार हो, जैसा कि प्रायः देवा जाना है के ननुष्य प्रायः बीमार रहा करते हैं, तो भी वह आत्म-कल्यागा नहीं कर सकता। इस कारमानीगंग शरीर का होना भी अत्यन्त पावण्यक है। यदि पृण इन्द्रियाँ, पर यात्रु और नीगंग शरीर भी मिल । राया तो भी मनुष्य-जन्म पाने का मतलब सिद्ध नहीं हो सकता। क्योकि यदि उक्त नीनों बाने प्राप्त होगई और कही जंगली जानियों में, नीच कोममें हवाशयों में या अफरीका अादि क्षेत्र में पैदा होगये तो वहाँ मनुष्य अपना जन्म कैसे मफल बना सकता है ? इस कारण उनम जाति तथा क्षेत्रका मिलना भी बहुत आवश्यक है। यदि मनुष्य-जन्म भी मिला, पूर्ण इन्द्रियाँ भी मिली, पूर्ण आयु भी मिली, उत्तम क्षेत्र व उत्तम कुल भी मिल गया तब भी • मनुष्य जन्म सफल बनाना बड़ा कठिन है। क्योंकि यदि कहीं Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास - [तृतीय मनुष्य कुपढ़ रह गया या पासमें पैसा न हुश्रा तो भी वह मनुष्य अपने जीवनको सफल नहीं बना सकता । इस कारण विद्या और लक्ष्मीका होना भी परम आवश्यक है । __ यदि उपरोक्त सारी बातें भी मिल गई और कदाचित सत्संग और उत्तमधर्मका सहवास नहीं मिला तो भी मनुष्य-जन्मका सफल होना असम्भव है। क्योंकि सत्संग और उत्तमधर्म के बिना एक मनुष्य कुपथमें आसानीस पड़ सकता है और अपने अमूल्य मनुष्य-जन्मको धूल में मिला सकता है। यदि उत्तम धर्म और मत्संग भी मिल गया तो भी मनुष्य जन्म पाने का मन्तव्य सिद्ध नहीं हो सकना । कयोकि यदि मारी बातें मिल गई और हम उत्तमधमका काय में नहीं ला सके अर्थात् अपने चरित्रको शुद्ध नहीं बना सके तो उपरोक्त मार्ग बातोंका समागम होना निरर्थक है। इस कारमा उपरोक्त कारा. कलापकं माध श्रद्धा और पराक्रमका होना भी उतना ही आवश्यक है। अब मेरे बन्धु भली भांति समझ गये होंगे कि उपरोक समन्त श्रावश्यक बातों सहित मनुष्य जन्मका मिलना कितना दुष्कर व दुर्लभ है। अब एक दृम दृष्टम भी मनुष्य जन्म की दुष्प्राप्यतापर ध्यान दीजिये Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * मनुष्य जीवनको सफलता * २५१ समस्त लोकमें सबसे अधिक संख्या एकेन्द्रिय जीवों की है। उससे कम द्वीन्द्रिय जीवोंकी है। उससे कहीं कम संख्या त्रीन्द्रिय जीवों की है। उससे कहीं कम संख्या चतुरिन्द्रिय जीवों की है। उससे कहीं कम संख्या असंज्ञी जीवोंकी है। उसमें कहीं कम संख्या संज्ञी तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी है और उससे बहुत कम संख्या मनुष्योंकी होती है। अर्थात् मनुष्योंको संख्या संसार में एक बड़े पर्वतके मुक़ाबिल राईके समान या समुद्र के मुताबिले एक बिन्दुके बराबर भी नहीं है। इसपर भी संसारमं पूर्ण साधना सहित मनुष्य बहुत अल्प संख्या में हैं। ___ संसारमें मनुष्य-जन्मका कुछ भरोसा नहीं है। हमारे देखते देखने अनेक मनुष्य मृत्युको प्राप्त होते चले जाते हैं। मनुष्य जीवन पानीके बुलबुले के समान है। मनुष्य-जीवन बालू की भीतके समान है। मनुष्य-जीवन संध्याके रंगीले बादलों के तुल्य है। मनुष्य के मिरपर काल हर समय खड़ा रहता है। यह उसका केवल पुगय ही है, जो सदा उसकी रक्षा कर रहा है। इस कारण मनुष्य को अपने जीवनको एक अमूल्य जीवन जानकर उसको शुरूसे ही सभाग-सदुपयोगमें लगाना चाहिये। ___ यह तो मानी हुई बात है कि संसारमें किसी भी कार्य, हुनर, विद्या व ज्ञान आदिमें एक दिन में या अल्प समयमें निपुणता प्राम नहीं की जा सकती। सारे कार्यों में क्रम-क्रमसे अर्थात सीढ़ी. दर-सीढ़ी ही उन्नति व निपुणता प्राप्त की जा सकती है। इसी Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * नृतीय प्रकार वर्तमान समयमें कोई चाहे कि मैं एक दिनमें अपने जीवनको सफल बना लूँ , यह असम्भव है। हाँ यदि मनुष्य इस बातको अपना उद्देश्य बना ले और लगातार उस ओर परिश्रम अथवा प्रयत्न करता रहे तो एक दिन अपने जीवनको अवश्य वह सफल बना सकता है । यह कहावत आपने सुनी होगी कि रोम एक दिनमें नहीं बनाया ..!!.6) 11a. !! It it it in t?lt s". निरन्तर, कोशिश और मेहनत करते रहनपर एक दिन रोमका नगर मंमार में सब शहरोसे प्रशस्त व बड़ा समझे जानेके योग्य मनुष्य का जीवन मानिन्द एक जहाजक है। यदि जहाजका अमान नमान. चट्टान, पानीके बड़े जानवगं, बर्फ के नेग्ने हुये पहाड़ इत्यादि से बचाता हुया और अपने बल, वाय. गुरुपाथ और पराक्रमको उपयोग में लाना हुआ ठीक मागपर चला जाता है तो एक दिन वह अवश्य शान्तिपूर्वक अपने निश्चित स्थानपर अयान बन्दरगाहपर पहुँच जाता है। इसी प्रकार मनुष्य का मन की कमान इन्द्रियों के विषयमपी प्रलोभन. दुष्कर्मा और कपायोम बचाता हुआ और अपना बल, वीर्य, पुरुषाय और पराक्रमको उपयोगमें लाता हुआ चला जाय तो निश्चित स्थानमोक्ष स्थानपर अवश्य पहुँच सकता है। ___ इन्द्रियों और मनका सदुपयोग या दुरुपयोग करना मनुष्य के ऊपर निर्भर है और इन्हींके मदुपयोगद्वारा एक मनुष्य अपने Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * मनुष्य-जीवनकी सफलता * २५३ जीवनको सफल बना सकता है और इन्हींके दुरुपयोगद्वारा एक मनुष्य अपने जीवनका सत्यानाश कर सकता है। एक-एक इन्द्रियक विषयमें पड़ कर जीव संसारमें अपने जीवनको गंवा देते हैं। जैसे हिरण श्रोत्रन्द्रियद्वारा वाणाके स्वरसे मोहित होकर, भोरा घ्राणेन्द्रियद्वारा कमलकी मुगन्धक वशीभूत होकर, पतङ्ग चक्षुरिन्द्रियद्वारा दीपककी ज्योतिपर मुग्ध होकर, मदली जिहेन्दियद्वारा कोटपर लगे हुये आटे के स्वादमें पड़ कर अपनी जान गंवा देते हैं। ये प्राणी केवल एकएक इन्द्रियके वशवर्ती हो जाने के कारण मृत्यु नककी दुर्दशाका भोग करते हैं। यह बात शास्त्र और अनुभव द्वारा सिद्ध है तो फिर मनुष्यकी तो पाँचों ही इन्द्रियाँ प्रबल हैं। उसे तो इनसे हर समय सावधान रहनेकी आवश्यकता है-मनुष्यको तो उन पर हर समय काबू रखनकी ज़रत है। मनुष्य यदि अपने विचार-शक्तिसे काम न ले और इन्द्रियों के विषयों में पड़ जाय तो उसकी क्या बुरी अवस्था इस संसारमें और मृत्युके बाद हो, यह पाठक स्वयं समझ सकते हैं। ऐसा समझ कर प्रत्येक विचारशील पुरुपको अपनी विचारशक्ति, मन तथा इन्द्रियों को वशमें रखना चाहिये और पराक्रमद्वारा अपने मनुष्य-जीवन को सफल बनाने में सदा तत्पर रहना चाहिये । अब यहाँ प्रश्न उठता है कि वह कौनसा मार्ग है जिससे एक मनुष्य अपने जीवनको सफल बना सकता है ? Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [नृतीय - - इसका उत्तर यह है कि जीवनको सफल बनानेके शास्त्रकारोंने दो मार्ग बताये हैं। एक गृहस्थधर्म, दूसरा यतिधर्म । पहिला मार्ग सरल है और दूसरा मार्ग कठिन । यदि हम पहिले मार्गको क्रम-क्रमसे तय करना प्रारम्भ कर दें तो एक दिन हम दूसरा मार्ग भी अवश्य तय कर सकेंगे। गृहस्थधर्मके दो भाग हैं। एक तो वह जिसके अनुसार प्रत्येक गृहन्थ को चलना अनिवार्य है। दूसरा वह, जो गृहस्थ पुरुषार्थ व पराक्रम करके अपने जीवनको सफल बनाना चाहते हैं, उनको ग्रहण करने योग्य है। गृहस्थ धर्मका प्रथम भाग जो प्रत्येक मनुष्य को अनिवाय है, वह निम्न प्रकार है: १-मांस नहीं खाना, २-शिकार नहीं खेलना, ३-शराब नहीं पीना, ४-जुया नहीं खेलना, ५-चारी नहीं करना, ६वेश्यागमन नहीं करना और ७-परदारा-संवन नहीं करना। उपरोक्त मानी कुव्यसन मनुष्यको बुद्धि बिगड़नेवाले, धर्म की ओर चिनको श्राकर्पित न होने देनेवाले और मनुष्यको भयंकर दुगति अर्थात नरकमें ले जानेवाले हैं। इस कारण इनका प्रत्येक प्राणीको न्याग करना चाहिये। "जुमा-ग्वेखन, मांस, मदः वेश्या व्यसन, शिकार । चोरी, पररमणी-रमणा ; मानों व्यसन निधार ॥" -एक प्राचीन दोहा। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्बगड * मनुष्य-जीवनकी सफलता * ___जो गृहस्थ अपने विशेष पुरुपार्थ व पराक्रम द्वारा अपने मनुप्य-जीवनको सफल बनाना चाहते हैं, उनको निम्नलिखित बारह व्रत ग्रहण करने चाहिये। गृहस्थधर्म ग्रहण करनेसे पहले ननुष्यको मम्यक्त्वी होना चाहिये । सम्यक्त्रीका लक्षण पहले कहा जा चुका है। मम्यक्त्वक पाँच अतीचार भी हैं, जो निम्न प्रकार हैं: (१) शङ्का-देव, गुरु. और धममें शङ्का रखना अर्थात् यह नत्य है या श्रमत्य है श्रादि सोचना । (.) काउन्ना-दारे, हर और सूर्य प्रभृति देवताओंका अभाव देखकर उनसे तथा जिनधर्मसे भी मुखादिक प्राप्त करने की इच्छा रग्बना या भोग और नुम्ब प्रान करने के लिये शंग्वेश्वरादि देवताओंकी मान्यता करना । (३) विचिकित्मा-धमविपयक फलके सम्बन्धमें सन्देह करना या देव, गम और गुरुकी निन्दा करना। (४) अन्यदृष्टिप्रशंमा-मियादृष्टियों के नियादशन, मियाज्ञान और मियाचरित्रकी प्रशंसा करना। (५) अन्यदृष्टिमंस्तव-मियादृष्टियोंके मियादर्शन, मियाजान और मि याचरित्रको मनमें अच्छा-आत्महितकारक समझना। *"शका नाविचिकिमान्यष्टिप्रशंपासंस्नवाः सम्यहप्टेरतीचाराः"। -उमास्वानि Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय श्रावकों (गृहस्थों ) को इन पाँच अतिचारोंसे रहित सम्यक्त्व का पालन करना चाहिये । २५६ इसके अतिरिक्त गृहस्थको अहिंसागुव्रत, सत्यात्रत, ब्रह्म चर्यागुव्रत, अचौर्यागुत्रत और परिग्रहपरिमाणागुत्रत, ये पाँच अणुव्रत दिखत, देशावकाशिकान और अनर्थदण्डव्रत, ये तीन गुणव्रत तथा सामायिक, प्राषधोपवास, उपभोग-परिभोग परिमाणत और अतिथिसंविभाग, ये चार शिक्षाव्रत, इस तरह कुल बारह* व्रत भी निरतिचार रूपसे पालन करना चाहिये | बारह व्रत और उनके अतिचारोंका वर्णन निम्न प्रकार है । आवक के बारह व्रत में प्रथम व्रत अहिंसागुव्रत - प्राणानि पातविरमणत्रत है। इसका अर्थ है-जीवकी हिंसा नहीं करनी । सिर्फ जीवको शरीर से पृथक करना ही हिंसा नहीं है, बल्कि किसीको छेदना, भेदना, मारना पीटना, आदि सभी हिंसामे गर्भित हैं । शास्त्रकाराने पहिले व्रतके निम्नांत पाँच अतिचार अर्थात दृपण बतलाये हैं जो कि त्यागने योग्य है * "गृहिणां ग्रंथा तिष्ठत्य गुगुण शिक्षायतात्मकं चरणम् । पञ्चत्रिचतुर्भेदं वयं यथासंख्यमाख्यातम् ॥ " -स्वामी समन्तभद्राचार्य | - उमास्वाति । "बन्धवदेशतिभारारोपणानपाननिरोधाः" । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * मनुष्य जीवनकी सफलता * (१) वध - मनुष्य, पशु, जलचर आदि जीवोंको अस्त्र-शस्त्र या लकड़ी श्रादिसे मारना - प्रहार करना | २५७ (२) बन्ध - मनुष्य या किसी प्रकारके जीवको कड़ाईसे बाँधना या पिंजरे, जाल इत्यादिमें बन्द कर देना । (३) विच्छेद - मनुष्य पशुओं आदिके कान, नाक आदि taraiको छेदना, काटना, खम्सी बनाना आदि । (४) श्रतिभारारोपण - मनुष्य व पशुश्रपर उनकी शक्तिसे अधिक बोझ - भार लादना उनसे अधिक समय तक मेहनत लेना, उन्हें अधिक चलाना आदि । (५) अन्न-पान-निरोध- पशुओं या मनुष्यों को उचित समय पर भोजन नहीं देना, कम देना, खराव देना आदि । जो प्राणी उपरोक्त दूषरणोंको टालते हैं अर्थात दयाका पालन करते हैं, उनको दीर्घायु प्राप्त होती है, श्रेष्ठ शरीर मिलता है. उच्चगोत्र प्राप्त होता है, विपुलधन मिलता है, बाहुबलके के धनी होते हैं, इसके अतिरिक्त उन्हें उच्च कोटिका स्वामित्व अखण्ड आरोग्य और सुयश मिलता है, और संसार सागरका पार करना उनके लिये सहज हो जाता है। संसार में धन, धन और धरा (पृथ्वी) के देनेवाले लोग तो सहज मिल जाते हैं, किन्तु प्राणियोंको अभय देनेवाले लोगों का मिलना कठिन है । मनुष्यों को कृमि, कीट पतंग और तृण (वृक्ष) आदिपर भी दया Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ * जलमें मरा जैनाभ्यास * हनीय करनी चाहिये और अपनी आत्माकं समान दूसरे सब प्राणियों को समझना चाहिये। दूसरा व्रत गृहस्थका-'सत्यागुत्रत-मृपावादविग्मण' है। इसका अर्थ है-भूठ नहीं बोलना। इस व्रतकं भी निम्नलिखित पाँच अतीचार है। (१) मिथ्योपदेश-सिद्धान्त-विरुद्ध कुगति लेजानेवाना उपदेश देना, किसीको झटा कलंक लगाना श्रादि । ___(२) रहोभ्याख्यान-एकान्त में किमीके साथ किये हर किसी गुन कार्यको प्रकट कर देना। (३) कूटलेखक्रिया-मॅट नमम्मुक लिम्बना, यह बात भैठा जमा-खर्च करना, भैठे तार-चिट्टी देना आदि । (४) न्यासापहार-किसीकी धरोहर आदिको मुकरजाना आदि। (५) साकारमन्त्रभेद-किसीकी गत वातको किमी तरह जानकर उमे प्रगट कर दना आदि। इनके अतिरिक्त मुन्न पुरुषों को निम्नलिग्विन प्रधान पञ्चकूट का भी त्याग करना चाहिये १-कन्या विपयकृट, २--पशु विषयकूट, ३--भूमि विषय कूट, ४ - मँठी गवाही देना और ५--किसीकी धरोहरको न ६) "मिथ्योपदेशरहोभ्याम्यानकटले क्रियान्यासापहारमाकारमन्त्रभेदाः" -उमास्वाति Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * मनुष्य-जीवन की सफलता * २५६ - देकर हजम कर जाना। इनके अतिरिक्त बहुतसे मनुष्य हँसीमजाकमें और बात-बातमें झूठ बोला करते हैं. यह भी सवथा त्यागने योग्य है। आज-कल झूठका प्रचार बहुत बढ़ गया है। क्या जैन, क्या अजन, प्रायः सभी लोग अकसर झूट बोला करते हैं। उसीका यह कारण है कि आये दिन उन्हें नई-नई तक लोकों का सामना करना पड़ रहा है। क्या दुकानदार, क्या ग्राहक, क्या वकील, क्या मुवक्किल, क्या डाक्टर, क्या गेगी, क्या म्वामी, क्या मवक, क्या स्त्री. क्या पुरुष इत्यादि विशेप कर मठका ज्यादा प्रयोग किया करते हैं। जिम जमाने में लोग मठका प्रयोग बहुत कम करते थे, प्रायः सत्य ही बोला करने थे, उस समय मन्यके प्रभावसे बड़े-बड़े चमत्कार नजर पाया करते थे। नदियाँ जलपूर्ण होकर बहती थी; देवता नोकरके समान कार्य करने थे: मप पुरमालाके ममान हो जाया करता था; विप अमृत के समान, शत्र मित्र के समान और जल थल के ममान हो जाया करता था। मनुष्य यदि अच्छा और उमतिका समय चाहते हैं तो उनको झटका त्याग और सत्यका ग्रहण करना चाहिये। तीसरा त 'प्रचौयागात्रत' है। इसका अर्थ है-बिना दी दुई वस्तु नहीं लेनी। इस बनके भी निम्न लिखित पांच अतीचार है: * "म्तेनप्रयोगतवाहनादानविरुवराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोम्मानप्रतिरूपकम्यवहाराः।" -उमास्वाति । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय (१) स्तेनप्रयोग-चोरी करनेकी युक्ति बतलाना, चोरी करनेकी चोरको अनुमति देना। (२) तदाइतादान-चोरीका माल लेना। (३) विरुद्धराज्यातिक्रम-राजाकी उचित आज्ञाका उल्लछन करना। (४) हीनाधिकमानोन्मान-कम वजनके बॉटोंसे या छोटे गजस सामान देना और अधिक वजनके बाँटोंसे या बड़े नापर्क मात्रासे, बड़े गजसे सामान लेना आदि । (५) प्रतिपकव्यवहार-अच्छी या असली वस्तुन बुरी या नकली वस्तु मिलाना । ___ पड़ा हुश्रा, भूला हुआ, खोया हुआ, छूटा हुआ और रखा हुआ परधन 'अदत्त' कहलाता है। मुज्ञ पुरुषों को यह कदापि नहीं लेना चाहिये । जो प्राणी अदत्त अर्थात बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण नहीं करते, वे सिद्धि प्राप्त करते हैं: कीर्नि उनकी चिरसंगिनी बनती है: गंग व दोप उनसे दूर रहते हैं। सुगति उनकी पृहा करती है। दुर्गति उनकी ओर देख भी नहीं सकती और विपत्ति तो उनका सर्वथा त्याग ही कर देती है। अधिकतर हमारे गृहस्थ और भाई सिर्फ ऐसे माल लाना या किसीको जबरदस्ती लूटना इत्यादिको ही चोरी समझते हैं। पर वास्तव में किसी ग्राहकको नापमें कपड़ा कम देना, सामान Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * मनुष्य जीवनकी सफलता * २६१ वजनमें कम देना, असली कह कर नकली चीज देना, आदि भी चोरी में ही गर्भित हैं । जो दूकानदार या साहूकार घर में धन रखकर काम फेल या दिवाला निकाल देते हैं, वे भी एक प्रकारकी चोरी करते है। इसके अतिरिक्त जो मनुष्य काम फेल करने वालोको काम फेल करनेमें सलाह व सहायता देते हैं, वे भी एक प्रकारके चोर हैं। जो व्यक्ति चुंगीवाले मालको बिना चुंगी चुकायें ले आते हैं, राज्यका महसूल नहीं भरकर नालको अन्दर ले आते हैं, वे भी एक प्रकार के चोर हैं। जो साहूकार कम देकर ज्यादाका दस्तावेज लिखा लेते हैं या जो मुनासिबसे ज्यादा ब्याज लेते हैं, वे भी एक प्रकारके चोर हैं । जो दुकानदार धीमें तेल, कोकोजस या चत्र मिलाकर बेचते हैं, या अन्य खाद्य पदार्थो में दूसरे क़िस्सकी कम कीमती वस्तु मिलाकर बेचते हैं, वे भी एक प्रकारके चोर हैं। जो वकील मुकदमे लड़ते हैं या जो दर या मामूली रोगको पैसे उगने हेतु बढ़ा चढ़कर बताते हैं वे भी एक प्रकार के चोर हैं 1 चोर तो प्रत्यक्ष अर्थात खुल्लमखुल्ला चोरी करने आते हैं, अन्य पेशेवाले दुकानदार जो ग्राहकोंको कम तोलते हैं या हम देते हैं या अच्छी और असली वस्तुके बजाय नकली और रानी चीज देते है वे तो दिन दहाड़े खुल्लमखुल्ला डाका रते हैं। यों कहना चाहिये कि साधुके भेपमें लुटेरोंका काम Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय करते हैं । इस प्रकारके कुकर्मोसे ये लोग नीच और अशुभ कर्मोंका बन्ध करते हैं। जिनको भोगते-भोगते उनका पीछा नहीं छूटेगा। दूसरे अशुभ कर्मोका नाश तो तपद्वारा किया जा सकता है, पर चोरीका पाप बिना भोगे नहीं छूटता है। ___ जो ज्ञानी हैं, सजन हैं, जिन्हें अपना मनुष्य जन्म सफल बनाना है, वे एक तिनका भी बिना किसीके दिये ( अदत्तका ) ग्रहण नहीं करते । जिस प्रकार किसी रोगीका कुपथ्य देनसे वह बुरी अवधाको प्राप्त करता है, उसी प्रकार किञ्चित् मात्र भी अदत्त ग्रहण करनेसे जीव दोपके भागी बन जाते हैं। जिसके कारण अात्माको एक बुरी अवस्था में जाना पड़ता है। इस कारण जो भव्य प्राणी अपनेको अदत्तादान अर्थान चोरीसे बचाना चाहते हैं, उनको उपरोक्त अशुभ कर्मोम सदा मन, वचन और कायसे बचे रहना चाहिये । चौथा वन ब्रह्मचर्यागुत्रन है। इसका अर्थ है-यथाशनि ब्रह्मचयका पालन करना। ___इस व्रतके भी निम्नलिखित पाँच अती चार अथवा दुपण हैं, जो कि त्यागने योग्य हैं। (१) परविवादकरा-दूसरोका विवाह कराना । * “परविवाहकरणत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीनागमनानङ्गक्रीडाकामतीवाभिनिवेशाः" । -मास्वानि। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूण्ड] * मनुष्य जीवनकी सफलता - २६३ - (२) इत्वरिका-परिगृहीतागमन-दृसरंकी {श्चली स्त्रीके पास जाना। (३) इत्वरिका-अपरिगृहीतागमन-वेश्याके पास जाना । (४) अनङ्गक्रीडा---काम भागक अवयवोंको छोड़ कर अन्य अवयवोंसे काम क्रीड़ा करना । (५) कामर्न वाभिनिवेश-काम-भागकी तंत्र अभिलाषा करना। ___ गृहस्थों अथवा मनुष्य मात्रको सिवाय अपनी पत्नी के और स्त्रीको मिवाय अपने पति के दुसरंका चिन्तन नहीं करना चाहिये ! पुरुषको अपनी स्त्रीके सिवाय अन्य तमाम स्त्रियों को और स्त्रीको मिवाय अपने पनि अन्य तमाम पुरुषांको भाइ-बहिन. पुत्र-पुत्री और माता-पिता के तुल्य समझना चाहिये। ___प्रथम ता बहनसे मनुष्य इस व्रतका धारण ही नहीं करने और जो धारण करते हैं, उनमें भी बहुतसे मनुष्य नाना प्रकारको तर्क-वितक निकाल कर अन्य स्त्रियांस विपयसे बन करते हैं। ऐसे पुरुषांसे प्रश्न करनेपर वे यह दलीलदिया करते हैं कि हम किसी वश्याको मासिकपर रख ल तो हमारे व्रतमें दृषण नहीं लगता है या हमारा जिस कन्याके साथ सम्बन्ध हो गया है, अगर हम उसके साथ रमण करते हैं तो दृषण नहीं लगना, इत्यादि । इस प्रकारकी बातें सर्वथा वर्जनीय है। मनुष्य न्दर-सुन्दर स्त्रियों को या उनके चित्रों को देखते हैं तो तुरन्त Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय - - उनका मन चलायमान हो जाता है। यह भी सर्वथा वर्जनीय है। बहुतसे युवक या विद्यार्थी या मनुष्य दूसरे युवकों, विद्यार्थियों और मनुष्य या स्त्रियों के साथ कामचेष्टा या अनङ्गक्रीड़ा या कुचेष्टा, हन्तकम, नपुंसक-संभोग आदि अनेक प्रकारको क्रीड़ा करते हैं, वे भी सर्वथा वजनीय हैं । जो प्राणी बजाय कायसे भोग-सबनेके सिफ मनसे ही कामकी इच्छा करते हैं, वे भी मर कर नरक दुर्गतिको प्राप्त करते हैं। ____ इम्र कारण जो प्रागी अपने मनुष्य जन्मको सार्थक बनाना चाहते हैं, उन्हें अपनी स्त्रीके मिवाय पुर्ण ब्रह्मचर्य पालना चाहिये और अपनी स्त्रीस भी परिमित भोग करना चाहिये । जी न्त्री या परुप पूगा ब्रह्मचर्य पालते हैं, उन्हें कोई किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचा सकता । उनका सर्वत्र कल्यागा ही होता है। उनकी कार्ति बढ़ती है. धर्म की वृद्धि होती है, पाप नष्ट होता है और वग एवं मोक्षके मुम्बों की प्राप्ति होती है । यमशास्त्र की दृष्टिम नो ब्रह्मचर्य का पालन करना गलौकिक और पारलौकिक सुखोंका माधन है ही। इसके अतिरिक्त वैद्यक दृष्टिसे भी ब्रह्मचर्य का पालन करना जीवोंको मर्वथा हितकारक है। आयुर्वेदका एक वाक्य है: "अग्निमलं बलं पुंसां, रेताम्लं च जीवितम् । तस्माद्वाहनं च शुक्रं च, योन परिरक्षयेत् ॥" (hor Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ars ] * मनुष्य जीवनकी सफलता * २६५ अर्थात अमिके आधारसे प्राणियोंका बल है और वीर्यके आधारसे प्राणियों का जीवन है। इसलिये अग्नि और वीर्यको बड़ी सावधानी से मनुष्योंको रक्षा करते रहना चाहिये । ब्रह्मचयेसे मनुष्यका शरीर नोरोग और स्फूर्तिमान रहता है; इन्द्रियाँ शक्तिहीन नहीं होती: दिमाग्र काम दुरुस्त करता है। स्मरण शक्ति श्राश्रयंजनक होती है; शरीर कान्तिमान और आकृति देदीप्यमान होती है; कलाओं में निपुणता प्राप्त होती है; ब्रह्मचर्य से मनुष्य प्राप वैभवका पूर्ण भोग कर सकता है, जीवन-संग्राम में विजयी होता है. संसार सागर से पार उतर सकता है और संसार वह एक प्रसिद्ध पुरुष हो सकता है। संसार में जितने प्रसिद्ध प्रसिद्ध दार्शनिक कवि, पहलवान, कलावान धनवान आदि हो गये हैं. वे सब एक इसी ब्रह्मचर्य के प्रतापसे । यदि ये लोग ब्रह्मचर्य को नहीं अपनाते तो आज हमें उनका नाम तक सुनाई नहीं देता । संसार में जितने साधु-सन्यासी ऋषि महर्षि हो गये हैं, जिन्होंने कि तप तप हैं, ग्रन्थ लिखे हैं, नाना प्रकारकी सिद्धियाँ ग्राम की हैं, गिरि-कन्दराओं या वनों रहकर अनेक प्रकारकी परिप सही हैं, वह सब एक इसी ब्रह्मचर्यकी अतुल महिमा के प्रतापसे । 2. जो लोग इस व्रत का पालन नहीं करते, वे अपने जीवन में कुछ भी सुख नहीं भोग सकते, न कोई संसार में अपने जीवनकी Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय विशेषता दिखा सकते हैं। ऐसे लोग यों ही आते हैं और यों ही चले जाते हैं— कुत्ते की मौत मर जाते हैं । शरीर के बलसे । सारांश यह कि मनुष्य संसार में जो काम करता है - अपनी कीर्त्ति बढ़ाता है. परका हित साधन करता है, इस लोक और परलोकको बनाता है, वह सब दिमाग और ये दोनों जिसके ठीक और बलवान होते हैं, वही पुरुष उपरोक्त कार्य सम्पन्न कर सकता है और ये दोनों शक्तियाँ केवल ब्रह्मचर्य के बलपर निर्भर हैं। जिसके पास ब्रह्मचर्य रूपी रत्न मौजूद है, उसका दिमाग और शरीर नीरोग और तन्दुरुस्त रह सकता हैं । इसलिये मनुष्य संसार में यदि कुछ काम करना चाहता और और अपने दोनों भव सुधारना चाहता है तो उसे ब्रह्मचर्यव्रत अवश्य पालना चाहिये । पाँचवाँ व्रत 'परिग्रहपरिमाणात है। इसका अर्थ है यथाशक्ति धन-धान्य आदि दस प्रकारकी बाह्य परिग्रहोंका परिमारण कर लेना अर्थात् कमसे कम जितनी वस्तुओं से अपना काम निकल सके उतनी वस्तुओं की संख्या निश्चित कर ली जाय और शेप वस्तुओं के भोगनेकी अभिलाषा छोड़ दी जाय। इसके भी पाँच प्रतीचार हैं । यथा: * "क्षेत्रवास्तुहिण्यसुवर्णधनधान्यदासीदास कृप्यप्रमाणातिक्रमः ।" - उमास्वाति । ་ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * मनुष्य-जीवनकी सफलता * २६७ - - - (१) क्षेत्र-वास्तु प्रमाणातिक्रम-जमीदारी, मकान श्रादिके परिमाणका उलङ्घन करना। (२) हिरण्य-सुवर्ण प्रमाणातिक्रम-सौने, चाँदी, जवाहरातके गहने आदिके परिमाणका अतिक्रम करना। (३) धन-धान्य प्रमाणातिक्रम-धन-धान्यक प्रमाणका अतिक्रम करना। (४) दासो-दास प्रमाणातिक्रम-नौकर-चाकरके प्रमाणका अतिक्रम करना। ___(५) कुप्य प्रमाणातिक्रम-कपड़े-लत्तोंके प्रमाणका अतिक्रम करना। इस व्रतमें गृहस्थ ( श्रावक ) को बहुत परिग्रह अर्थात धनधान्य आदिकी कमी करनी चाहिये । एक गृहस्थसे सर्वथा परिग्रह का त्याग होना तो कठिन है। क्योंकि बिना धनके गृहस्थका कार्य नहीं चल सकता। यह कहावत भी है कि "साधु कौड़ी रक्खे तो दो कौड़ीका और गृहस्थ बिना कौड़ीके दो कौड़ीका" इस कारण गृहस्थ को द्रव्य रखना अत्यावश्यक है, परन्तु ऐसा भी नहीं होना चाहिये कि द्रव्यकेलिये मनुष्य मर्यादा भङ्ग करे, अतिप्राशा करे, सदा असन्तापी बना रहे, दिन-रात कोल्हू के बैलके समान परिश्रम करता रहे आदि । क्योंकि संसारी मनुष्यका स्वभाव है कि उसे कितनी भी लक्ष्मी प्राप्त हो जाय, पर उसे सन्तोष नहीं होता । ज्यों-ज्यों Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय उसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती जाती है, त्यों-त्यों वह अधिक असन्तुष्ट होता जाता है। कहा भी है कि धनहीन मनुष्य सौ रुपये चाहता है; सौवाला हजार चाहता है। हजारवाला लाख चाहता है; लाखवाला करोड़ चाहता है; करोड़पति राज्यकी इच्छा रखता है; राजा चक्रवर्ती होना चाहता है: चक्रवर्ती देवता होनेकी इच्छा रखता है और देवता इन्द्रत्वकी अभिलाषा रखता है। इस कारण जिस प्रकार हो उस प्रकार लोभ अर्थान विशाल इन्छायोको कम करना चाहिये । लोभी मनुष्यको कभी सुख या सन्तापकी प्रानि नहीं होती। किमीन मच कहा है कि जिस प्रकार इंधनसे अग्नि और जलसे समुद्र तुम नहीं होने, उसी प्रकार धनसे लोभीकी तृमि नहीं होती। उसे यह भी विचार नहीं आता कि जब आत्मा समम्न ऐश्वर्यको त्यागकर परभवमें चला जाता है. नव व्यर्थ ही पापकी गटड़ी क्यों बाँधी जाय ? कहनेका मागंश यह है कि परिग्रह का परिमागा बढ़नपर लाभ भी बढ़ जाना है। जिमके कारण उस मनुष्यपर नाना प्रकार के संकट श्रा पड़ने हैं। इस कारण जो प्राणी अपना मनुष्य-जन्म सफल अथवा शान्तिमय बनाना चाहते हैं, उनकी प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि वह अमुक संख्या तक धन, धान्य इत्यादि रकाबगे। उनको व्यवहारमें आनेवाली वस्तुओं की इस प्रकार मर्यादा करनी चाहिये: भूमि अर्थात् खेत. चारागाह, यंजर, बाग-बगीचा आदि इतने बड़े और इतनी संख्या नक। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * मनुष्य-जीवनकी सफलता * २६६ सोना-चाँदी अर्थात इतना वजनमें, इतनी कीमतका । धन अर्थात् रुपया, मुद्रा. जवाहरात जैसे हीरा. मोती, पन्ना श्रादि अमुक क्रीमतके। ___धान अर्थान नाज जैसे गेहूँ, चावल. जुबार इत्यादि अमुक रुपयोंका या अमुक मन तक रखना या व्यापार थादि करना। द्विपद अर्थात दाम, दामी नौकर, चाकर. मुनीम, गुमान्त इत्यादिकी गिनती तथा अमुक रुपये माहवारके रम्बने । ____चौपद अर्थात गाय, बैल, भैस, घोड़ा इत्यादि अाजकल माटर, र. वाई जहाज. पानी के जहाज आदि वाहन अमुक संख्या में और श्रमक रुपनाकी नादाद के रखने । ___ कुष्य अर्थात अनेक धातु, जैसे ---पीनल. लोहा. संग, तांबा इत्यादि अथवा वस्त्र प्रादि अमुक तादाद नक रम्बना या व्यापार करना। इनके अतिरिक्त अाजकल बहुतसी वस्तुप्रांका व्यापार किया जाता है या व घर में रकम्बी जाती है । इस कारण जहाँतक बन सके, उन सभी वस्तुओकी मर्यादा कर लेना चाहिये। क्योंकि मनुप्यकी इच्छाएं अनन्त हैं। और वे उत्तरोत्तर हमेशा बढ़ती भी एक प्राचार्यन तो लिखा है कि"श्राशागतः प्रतिप्राण. यस्मिविश्वमरापमम् । कस्य किं कियदायाति, वृथा वो विषयपिता ।" -गुणभद्र भदन्त । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय रहती हैं। उन सबका पूर्ण करना अत्यन्त कठिन है, कठिन ही नहीं सम्भव भी है। मनुष्य यदि उन इच्छाओं को पूर्ण करने में लग जाय तो वह सारी उम्र इसी में व्यतीत कर दे। फिर भी यह संभव नहीं कि उन्हें वह पूर्ण कर ले। जबतक मनुष्य को इच्छाएँ सताती रहती हैं, तबतक वह व्याकुल -- दुःखित रहता है । इच्छा के अभाव में जीवको निराकुलता मुत्र प्राप्त होता है । असल में निराकुलता ही सुख है। एक कविका वाक्य है 'तमको हित है सुख, सोनख कता बिनु कहिये । कविवर सुरदासजी । मनुष्यकी इच्छाएँ अनन्त - अपरिमित हैं। उन सबका पूर्ण होना अशक्य है। और जबतक वे पूर्ण न हो जायें तबतक मनुष्यको चैन नहीं | ऐसी हालत में यही होना चाहिये - मनुष्य को सुखी होने का - चैनसे जीवन व्यतीत करने का एक ही मार्ग है। और वह मार्ग यही है कि मनुष्य अपनी इच्छाओं को परि मिन कर ले। कितना परिमित कर ले ? जितनेसे आसानीसे काम निकल जाय उतना परिमित कर ले अर्थात अपनी अर्थात etre artis प्राशारूपी गड्डा इतना बड़ा है कि उसमें समस्त संसार एक परमाणुके बराबर है तो फिर बनलाचो कि किसके हिस्से में कितना थाना चाहिये ? इसलिये जीवकी विषयाभिलाषा व्यर्थ है । ( क्योंकि वह किसी भी हालत में पूरी नहीं हो सकती ।) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घराड * मनप्य-जीवन की सफलता * आवश्यकताओं की पूर्तिमात्र कर लें। इसलिये यों कहना चाहिये कि इच्छाओंका निरोध करना-कम करना संसारको घटाना ई-सांसारिक बन्धनको कम करना है-पापांका काटना है और मनुष्य जन्मको सफल बनाना है। ठा व्रत जिसको पहिला गुणावत भी कहते हैं 'दिग्बन है। इसका अर्थ है दिशाओंकी मयादा करना ! इस व्रतद्वारा दिशा अर्थात नेत्रकी मर्यादा की जाती है। जो मनुष्य इस व्रतको ग्रहमा नहीं करते हैं, उनको मंमार के तमाम क्षेत्र व दिशाओंका दूपणा आया करता है। __ पूर्व पश्चिम. उत्तर दक्षिगा. इशान, आग्नेय. नैऋत्य, वायव्य. ऊव और अधः दम तरद दश दिशाग हैं। इनका चितार हजार कोल नहीं लास्व काम नहीं, बल्कि करोड़ों कोस में भी कहीं अधिक है। वनमान समय में मनुष्यको अधिक-मेंअधिक एक स्थानमें दुमरे म्यान नक मिक हजागे कोसको मयादा के अन्दर ही प्रायः जाना-पाना पड़ता है। इस कारण प्रत्येक प्राणीको जहांतक कम दिशाओंकी मर्यादा कर सकता है, में उतना रखकर बात का त्याग कर देना चाहिये । लेकिन जो प्रतिज्ञा की जाय, उसका पालन करना परम आवश्यक है। अगर कोई प्रतिज्ञा करके उसका भङ्ग करता है तो वह विशेष मंमार बढ़ाता है अर्थात मनुष्य-जीवनको नष्ट करता है। मनुष्य को अपने कारबार या व्यापारका पूरी तौरसे ध्यान रखते हुए Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जेलमें मेरा जैनाभ्यास ** तृतीय दिशाकी मर्यादा करनी चाहिये। जितनी मर्यादा वह कम रक्खेगा, उतना ही वह कम दृषणका भागी होगा। सातवाँ व्रत भीगोपभोगपरिमाण व्रत' है। इसको दृमग गुणव्रत भी कहते हैं। इसका अर्थ है भोगोपभोगको मर्यादा करना । भोग उन वस्तुओं को कहते हैं, जो सिर्फ एक समय काम में श्रावें । जैसे भोजन-पान, फल, ताम्बृज इत्यादि । उपभोग उन वस्तुओं को कहते हैं, जो बार-बार भागने में आय-एक बार काम में लेने के बाद फिर दुवारा भी भागनम सावें। जैसे कपड़ा, टापा, बक्स, पाल की. गाड़ी आदि। अगर एक मनुष्य भागीय भागों की मर्यादा नहीं करता है तो मारे संसार में जितनी भीगोपभोगकी वस्नुा है. उन सबका पता श्राता है। फिर भले ही वह मनुष्य संसार की बहुत थोड़ी चीज ही अपने व्यवहारने क्यों न लाना हो । इम कारमा प्रत्येक प्राणीको जितनी वस्तु अपने व्यवहारमा मक, उनको छोड़ कर शेष ममन्न वन्नुयोका न्याग कर देना चाहिय-मयादा कर लेना चाहिये । मांस. मा श्रादि अभक्ष्य पदार्थों का सर्व त्याग करना चाहिये । इनके अतिरिक्त राष्ट्रद. मक्खन, जिमीकन्द ( जो मूल या जड़ जमीनके अन्दर पैदा होती है। ) जैसे बालू . प्याज, अदरक, मकर कन्दी श्रादि भी त्यागने योग्य है । तथा गमे फलोंका भी त्याग करना चाहिय जिसमें ज्यादा हिम्सा फका जाय और कम हिम्मा उपयोगमें श्रावे । गृहस्थ के लिये अच्छा Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * मनुष्य-जीवनकी सफलता * २७३ - - तरीका यह है कि भोगकी जिन वस्तुओंका इस्तेमाल उसे करना हो, उन सबको लिख कर रख लेना चाहिये, ताकि हेर-फेर न पड़े। उपभोगकी भी ऐसी वस्तुएं इस्तेमालमें नहीं लानी चाहिये, जिनमें विशप हिंसा हो । जैसे-शम, चमड़का सामान, मील का कपड़ा आदि । इसके अलावा जिस कदर सामान बनना हो या इस्तेमाल के वास्त रखना हो, उमकी भी लिम्बित फेहरिस्त रख लेनी चाहिये, ताकि प्रतिज्ञाका उलइन न हो सके। जरूरता और इच्छाकी जितनी कमी की जाय, उतना ही अच्छा है। इसके अतिरिक्त संमार में कुछ ऐसे भी व्यापार व धन्द है. जिनमें महा हिमा होती है । जो मनुष्य अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हैं, उन्हें ऐसे महा हिंसक व्यापार-धन्ध भी नहीं करने चाहिये। शाम्मे से व्यापार-धन्धे कर्मादानक नामसे प्रसिद्ध है। और उनकी संख्या पन्द्रह है। यथा--- -- अंगार कम--- भट्टा लगवाकर कोयलं. मिट्टी के बर्तन, इंट, चूना इत्यादि पकवाना । २-वन कम -- जगलाम वृक्ष, घास, बॉस इत्यादि कटवाना और फलों व पुष्पाका व्यापार करना । ३-शकट कर्म-गाड़ी, ताँगा आदि सवारी अथवा उनके साधन बनाना। ४-भाट कम-गाड़ी. बैल. ऊँट स्वञ्चर इत्यादिपर माल लादना या इनको भाईपर चलाना । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय - -- ५-स्फोट कर्म-आटा, दाल. चावल आदि मील द्वारा तैयार करवाना; कुँा. सरोवर. मिट्टी, पत्थर इत्यादि खुदवाना । ६-दन्त वाणिज्य-हाथीदान, हड्डी, चमड़ा. मोरछल, सीप, मोती, कस्तूरी आदिका व्यापार करना । ७-लक्षवाणिज्य-लाम्व. नील, हरताल महागा, सायन, आदिको बनवाना या व्यापार करना । -रसवाणिज्य-मायन, चरवी मॉम. मधु, मदिरा, घी, तेल, आदिका व्यापार करना । -कंशवाणिज्य-दान. दासी बल, गाय, घोड़ा श्रादिका व्यापार करना। -विषवाणिज्य-विष, शम्नान, इल श्रादि पदार्थों का क्रय-विक्रय करना। ११-यन्त्रपीड़न कम-निन्त, मरनों प्रादि पदायों को घागी में परना या पिरवाना। १२-नलच्छिन्नकर्म-गाय, बैल श्रादिक कान, मांग, पंछ, आदि काटना या उनको अकता कगना, दागना आदि । १३-असतीपोपण---मुआ, मंना, बिल्ली, कुना, मुगा, मयुर आदि जानवरोको पालना या रनका व्यापार करना । २५-दवदान-क्रोधके वश या उपज अच्छी करने के लिये जंगल में आग लगाना। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मनप्य-जीवन की सफलता * १५-सरशोषण-सिंचाईकलिये नदी, नालाब या सरोबरमे जल इकट्ठा करना। उपगेन तमाम भोगापभोग और कमादानों का त्याग करानेका शास्त्रकागेका केवल यही मन्तव्य है कि उन पदार्था-वस्तुओं का उपयोग व उन व्यापारों या धन्धों को नहीं करना चाहिये, जिनमें विशेष हिंमा होती हो। हिंसा करना मानो संसारको बढ़ाना है। इस कारगा मनुष्य का जिम प्रकार हो सके, उस प्रकार अल्प-सं-अल्प हिंमा करते हुये मनुष्य-जीवनको साथक बनाना चाहिय। हमें कोई मारे. पोटे. पेले. गेंद, पीसे, दवावे तो उसमें जैसे द में कष्ट अनुभव होता है, वैसे ही सभी जीवों का होता है। प्रत्येक प्रागाका अपने महश ही दुमरे व्यक्तियों के प्राण समझने चाहिये। इसीलिय शास्त्र में कहा गया है कि 'आत्मवत सर्वभूतेषु, यः पश्यनि स पण्डितः ।' अर्थात विद्वान वही है जो अपने सम्ब-दुःख के समान दृसगक सुख-दुःम्बका ध्यान रखता हो । ___ मनुष्यको जब इस बात का ख्याल हो जायगा, तब वह अपनेही-आप अपने सब काम ऐसे करंगा या करना चाहेगा कि जिसमें दृमराको तकलीफ न हो। ऐसे विचारशील दयाद्रपरिणामी मनुष्य को विशेष पुण्य-बन्ध होता है और उसके दिल में क्रोधमान-माया-लोभ श्रादि आत्म-शत्रु अपना वाम नहीं करते । वह जीव जगन हितेषी और अकारण जगढन्धु होता है। ऐसे Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय - सर्वदयालु मनुष्य का चित्त एक ऐसी शान्तिका अनुभव करता है. जो अन्यत्र दुष्प्राप्य है। ___ साधु लोग जहाँ तक हो सकता है, नहीं ही बालते हैं। यदि बोलनेकी अति आवश्यकता ही प्रान पड़े तो बोलत है, लेकिन बहुत थोड़ा । उतना ही, जितनेस कि मतलब हल हो जायअल्पाक्षर बह्वर्थ + फिर भी बोलने समय महपर कपड़ा लगा लेने हैं । क्यों ? इसीलिये कि महकी भाफमे सूक्ष्म जीव उसी तरह भस्म हो जाते हैं. जिस तरह कि किमी विशालकाय अजगर के साँस छोड़ने स-पुकार मारने-मुंहकी विपाक भाफसे हम लोग भस्म हो जाते हैं। श्रावकका आठवाँ वन 'अनर्थदण्ड वन है। इसकी तीमग गुणवत भी कहते है। इसका अर्थ है-बेमतलब पापकी क्रियाएं न करना । संमार में प्रागी प्रारम्भ, परिग्रह, मोह, माया इत्यादिमे फैस रहा है। गृहस्थकालय इन सब का मवथा त्यागना बड़ा मुशकिल है। कांकि मनुष्य मंमारमें रहता है। उसे अपने शरीर. कुटुम्ब श्राश्रितीकी रक्षा व पालन-पापगमें छह कायक जीवोंकी हिंसा अर्थान प्रारम्भ करना अनिवाय है तो भी प्रारम्भ * साधुओंके इस गुणका नाम 'वाग्गुप्त' है। + साधुओंके इस गुणका नाम 'भाषाममिति' है। * साधुओंके इस कपड़े का नाम 'मुँहपत्ति है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वण्ड] * मनुष्य-जीवनकी सफलता * २७७ जिस कदर कम हो सके, उतना कम करना चाहिये और सदा यह अभिलाषा रखनी चाहिये कि वह कौन सा दिन होगा कि मैं सर्व प्रकारकं प्रारम्भ-परिग्रहसे अलहदा हुँगा और सदा हृदयसे पश्चानाप करते रहना चाहिये । इस प्रकार जो ज़रूरी आरम्भ अर्थात पाप किया जाता है. वह अर्थदण्ड है। पर जा बिना कारण अर्थात जिसमे किसीका स्वार्थ तो सर नहीं और फिजूलमें प्रारम्भ अर्थान पाप हो, उसे 'अनर्थदण्ड' कहते हैं। यह अनर्थ दण्ड अनेक प्रकार का होता है. पर शास्त्रका ने इसका निम्न लिखित पाँच * भागोंमें बाँट दिया है। ( १ ) पापोपदेश--हिंसाकारी वचन बोलना, जिसमें जीवोंका वध एमी नरकीय बताना, जिमम जीवों का महा अनर्थ हो । म---शगाव एम बननी है, जत्रा ने बला जाना है, विष से तैयार किया जाता है. खटमल या मच्छर इस प्रकार मारे जाने हैं। इत्यादि बात आत्महितार्थी मनुष्यकलिए सर्वथा वजनीय है। * • पावसाहेमा दानार याजदु:श्रताः पञ्च । माहः प्रमादचामन दगडानदग इधराः।।" --स्वामी समन्तभद्राचार्य । अर्थात् १-पादेश, २-हिंसादान, ३-अपभ्यान, ४-दुःश्रुति और ५-प्रमादचर्या, ये पोच अनर्थदण्ड अनर्थदण्ड के त्यागी महात्माोंने बनाये हैं। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय (२) हिंसादान-अस्त्र-शस्त्र या और प्रकारके हथियारोंका बनाना, दान देना जिससे जीवोंका घात हो। ऐसा करना भी मनुष्यकेलिये वर्जनीय है। (३) अपध्यान-बुरा ध्यान, बुरे विचार करना । जैसे अमुक आदमीने मुझे गालियाँ दी थीं सो अच्छा हो, उसका लड़का मर जाय, उसके घरमें आग लग जाय, उसका दिवाला निकल जाय, उसे जेलखाना हो जाय, वह मुकद्दमा हार जाय, उसका माल-असबाब, मकान बाढ़ में डब जाय, इत्यादि । ऐसा विचारनेसे प्राणीको कुछ मिलता तो है नहीं, पर वह अशुभ कर्मोंका बन्ध उससे अवश्य करता है । इस कारण ऐसे विचार व ख्यालात कदापि मनमें नहीं आने देने चाहिये । (४) दु:श्रुति-चित्तको बिगाड़नेवाले विचारोंको खराब करनेवाले शास्त्रोंको-उपदेशोंको पढ़ना-सुनना। जैस-गन्दे उपन्यासोंका पढ़ना-सुनना या ऐसे ही बेमतलबकी बातें जिनमें भरी हों, ऐसे व्याख्यानोंका सुनना-सुनाना । (५) प्रमादचा-असावधानीसे ऐसे कार्य करना, जिससे लाभ तो कुछ हो नहीं, और दूसरोंको तकलीफ पहुँचे हो। जैसे-मार्गमें चले जा रहे हैं और अकौश्रा आदि वनस्पतिको वेत मारते जा रहे हैं, जिससे वे कट-कट कर नीचे गिरते जा Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * मनष्य-जीवनकी सफलता* २७६ अनर्थदण्ड ब्रतके अतिचार* भी ध्यानमें रखने योग्य हैं। प्रायः लोग उनका ध्यान नहीं रखते और बेमतलब ही अपने मन, वचन और कायकी शक्तिका दुरुपयोग करते हैं। जिससे कुछ भी नतीजा नहीं निकलता । बल्कि कभी-कभी तो उल्टा नुकसान हो जाता है । वे अतिचार इस भाँति हैं: १-कन्दर्प-रागसे हास्य-मिश्रित भण्ड-अश्लील वचन बोलना। २-कौत्कुच्य-शरीरकी बेमतलब ही बुरी-बुरी अश्लील आकृतियाँ बनाना। ___३-मौखय-बमतलब अधिक बोलना । एक बातको अनेकानेक वार कहना । निष्प्रयोजन बोलना । ४-अतिप्रसाधन-बिना आवश्यकताके भोग-उपभोगकी सामग्रीको बढ़ाते चले जाना । ५-असमीक्ष्य अधिकरण-बिना प्रयोजन सोचे मन, वचन कायकी क्रियाएँ करना। श्रावकका नवाँ व्रत 'सामायिक' है। जिसको पहिला शिक्षा व्रत भी कहते हैं। इसका अर्थ है-मनको एकाग्र करना । • "कन्दर्प कौत्कुच्यं, मौखर्यमतिप्रसाधनं पञ्च । असमीक्ष्य चाधिकरणं, व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरतेः ॥ -स्वामी समन्तभद्राचार्य । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय - - जब मनुष्य अपने दिन-रातके चौबीस घण्टे दुनियादारीके कामों में लगाता है, तो कुछ समय उसको शुभ विचार, शुभ ध्यान और ईश्वर-चिन्तनमें अवश्य देना चाहिये । जो मनुष्य अपना थोड़ा बहुत समय परभवकेलिये नहीं देता है, उसको अन्त समयमें बड़ा पश्चात्ताप करना पड़ता है। ___ इस सामायिक व्रतका मन्तव्य यह है कि प्रत्येक मनुष्यको कम-से-कम एक और ज्यादा हो तो और भी अच्छा है, सामायिक करनी चाहिये । एक सामायिकका काल एक मुहूर्त अथवा अड़तालीस मिनटका होता है। उतने समयकेलिये सांसारिक सारे कार्योंको छोड़ देना पड़ता है। सामायिक करनेवाले व्यक्ति को उस समयमें शुभ विचार अर्थात् धर्मध्यान करते रहना चाहिये या शास्त्रों का पठन-पाठन करते रहना चाहिये । सामायिक करनेवाले व्यक्तिको मन, वचन और कायसे सर्व प्रकार की हिंसा, इन्द्रियविषय, बुरे विचार, हँसी-मसखरी, सावद्य क्रिया आदि सभी प्रकारके सांसारिक कार्यका त्याग करना पड़ता है। और व्रतोंकी भाँति सामायिकके भी पाँच अतीचार होते हैं, जो कि त्यागने योग्य हैं। संक्षेपमें उनका स्वरूप यह है: १-मनमें आर्तध्यान या रौद्रध्यान का चिन्तन करना; २-वचनसे सावध वचन बोलना; ३-कायसे सावध कार्य ॐ "वाक्कायमानसानां, दुःप्रणिधानान्यनादरस्मरणे । सामायिकस्यातिगमाः म्यान्ते पञ्चमावेन ॥" -स्वामी समन्तभद्राचार्य। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड मनुष्य-जीवनकी सफलता * २८१ intercitare करना; ४-सामायिकको निरादार भावसे करना और ५-सामायिकका तथा उसके समयका स्मरण न रखना । सामायिकमें किसी भी सांसारिक कार्यकी चिन्ता रखनी या कुकथा-राजकथा, *देशकथा, खोकथा और भक्तकथा करना । सामायिक करते समय सामायिक करनेवालेको बत्तीस दोष और टालने चाहिये । वे बत्तीस दोष-दस मनके, दस वचनके और बारह कायके, इस तरह होते हैं। श्रावकका दसवाँ व्रत 'देशावकाशिक' है, जिसको दूसरा शिक्षाबत भी कहते हैं। इसका अर्थ है-देशकी मर्यादा कर लेना। इस व्रत में और छठे व्रतमें केवल इतना ही अन्तर है कि छठा व्रत जीवन पर्यन्त ग्रहण किया जाता है और यह व्रत एक दिनकेलिये ग्रहण किया जाता है। ॐ व्रत दो प्रकारसे लिये जाते हैं--किसी वस्तु का त्याग दो प्रकारसे किया जाता है। एक जीवन पर्यन्त और दूसरा अल्पकाखकेलिये । यावजीवन त्यागको शास्त्रमें 'यम' और परिमितकालीन त्यागको 'नियम' शब्दसे कहा गया है । यथा: "नियमो यमश्च विहितो, द्वधा भोगोपभोगसंहारे । नियमः परिमितकालो, यावजीवं यमो प्रियते ॥" -स्वामी समन्तभद्राचार्य। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय तमाम बातोंका असली मन्तव्य सिर्फ यही है कि जहाँ तक और जिस प्रकार सम्भव हो, वहाँ तक इच्छाओं और श्रावश्यकताओंको कम किया जाय। तमाम उमरमें न मालूम क्या-क्या इच्छायें पैदा हों, इस कारण काफ़ी गुंजाइश रखकर व्रत ग्रहण किये जाते हैं-नियम लिये जाते हैं। पर इन नियमोंको और भी संकुचित बनानेके ख्यालसे प्रत्येक दिनकी आवश्यकता और इच्छाओंको देखते हुये, प्रत्येक दिन नियम और लिये जाते हैं। जैसे आज मैं असुक कोस तक जाऊँगा, अमुक-अमुक वस्तुओंका भोगोपभोग करूँगा । बानीका सबका मेरे त्याग है । इत्यादि । जो क्रिया छठे व्रतके अनुसार आ रही थी, उससे कहीं घटकर प्राणी क्रियाका भागी हो, इस कारण यह दसवाँ व्रत प्रत्येक दिन सुबहको ग्रहण किया जाता है और शामको या दूसरे दिन सुबहको विचार किया जाता है कि जो त्याग या नियम हमने किया था, उसमें कोई दूपण तो नहीं लगा है। अगर भूल चूकमें कोई दृषण लग गया हो तो उसकेलिये प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप करना पड़ता है, ताकि भविष्यमें दुबारा भूल न हो। इस व्रतमें अल्पकालीन प्रत्याख्यान भी किया जाता है। जैसे सूरज उदयसे एक घंटे तक या दाई घंटे तक या दोपहर तक या तीन पहर तक इत्यादिमें खाना खाने और पानी पीने ' अर्थात् किसी किस्मकी खाने पीनेकी कोई वस्तु नहीं खाई या पी । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड] * मनुष्य-‍ -जीवनकी सफलता # २८३ जाती है। इनको नियमपूर्वक ग्रहण किया जाता है और नियम पूर्वक पारण अर्थात् खान-पान किया जाता है । अगर उपरोक्त प्रत्याख्यानोंमें जान कर या भूलमें कोई दूषण लग जाता है तो उसका प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप किया जाता है, ताकि भविष्य में दुबारा भूल न हो । ऊपर लिखे हुये व्रत - प्रत्याख्यान करनेका केवल इतना ही मतलब है कि मनुष्यका इन्द्रियों और मनपर काबू हो और त्याग तथा तपस्याका महाबरा बढ़े। इनके करने से अशुभ कर्मों के पुंजके पुंज नष्ट हो जाते हैं । W श्रावकका ग्यारहवाँ व्रत 'प्रोषधोपवास' है, जिसको तीसरा शिक्षाव्रत भी कहते हैं। इसका अर्थ है प्रोषध - द्वितीया - पञ्चमीअष्टमी - एकादशी - चतुर्दशी आदि पर्वके दिनों में उपवास करना । साधुपना तो जन्म पर्यन्तकेलिये ग्रहण किया जाता है और प्रोषध कुछ समयकेलिये ग्रहण किया जाता है। गृहस्थोंके लिये साधुपना धारण करना कठिन अवश्य है, पर ध्यान हर गृहस्थ अथवा श्रावकका उसी ओर रहना चाहिये कि वह कौन समय हो कि मैं संसारसे निकल कर साधुपना ग्रहण करूँ । इस व्रतके अनुसार गृहस्थ ( श्रावक या श्राविका ) एक दिन, दो दिन, चार दिन या ज्यादा दिन, जिसमें जैसी शक्ति हो, उसके अनुसार प्रोषध अथवा अस्थायी साधुपना ग्रहण करते हैं। यह व्रत कम-से-कम एक दिन Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय MARAHMADIRAOMIncommons रात यानी चौबीस घंटेकेलिये ग्रहण किया जा सकता है। यह व्रत अठारह दूषणों रहित किया जाता है। यह ख्याल करके कि कल मुझे प्रोषध करना है। इसलिये । आज मैं खूब खालू या नहा लूँ या अमुक काम कलके बजाय आज कर लू, इत्यादि प्रकारकी सावध क्रिया करनेसे दूषण लगता है । इस व्रतमें मन, वचन और कायसे पटकायका अर्थात् सर्व प्रकारकी हिंसाका त्याग किया जाता है । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कपायोंका सर्वथा त्याग किया जाता है। किसी प्रकारकी खाने, पीने या लगानेकी कोई भी वस्तु उपयोगमें नहीं लाई जा सकती। प्रमादरहित धर्मध्यान ध्याना पड़ता है। इस प्रतमें दिन में मोना या कोई निठल्लेपनकी बातें करना निषिद्ध हैं। स्नान, कुल्ला प्रादि नहीं किया जाता है। बिछाने व अोढ़ने के मामूली वन रक्खे जाते हैं, जिनको अच्छी प्रकार देख-भाल करके इस्तेमालमें लाया जाता है, ताकि किसी जीव-जन्तुकी बिराधना न हो जाय । लघुनीत श्रादिकेलिये भूमि देखकर रक्खी जाती है। यह प्रोषध एकान्तस्थान या प्रोषधशालामें किया जाता है। किसी प्रकारकी सावद्य क्रिया करनेका इसमें निषेध है। सुबह-शाम प्रतिक्रमण किया जाता है। इस बातका विशेष ध्यान रखा जाता है कि किसी प्रकारकी हिंसा न हो और चित्त शान्त रहे । इसमें तमाम सांसारिक झंझटोंसे मुक्त हो । जाना पड़ता है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * मनुष्य जीवनकी सफलता # २८५ इस प्रकार के प्रोषधत्रत हर गृहस्थको कम-से-कम एक मासमें दो - हर महीने में हर चतुर्दशीको करना आवश्यक है और ज्यादा किये जायँ तो और अच्छा है । प्रोषध करनेके पहले शाम को और दूसरे दिन सुबह प्रतिक्रमण किया जाता है। इसकेद्वारा व्रत में अगर जानकारी में या अज्ञान में कोई-कोई दूषरण लग गया हो तो उसके लिये प्रायश्चित्त किया जाता है, ताकि भविष्य में दुबारा भूल न हो* । श्रावकका बारहवाँ व्रत, 'अतिथिसंविभाग' है, जिसको चौथा शिक्षाव्रत भी कहते हैं । इसका अर्थ है-साधु-साध्वियों को दान देना । दान दो प्रकार के होते हैं, एक सुपात्रदान दूसरा कुपात्रदान । सुपात्रदान वह है, जो साधु, मुनि, महात्माओं को दिया जाता है। क्योंकि इस दानद्वारा ऐसी आत्माओं का पोषण होता है, जिन्होंने सांसारिक सारे कार्यो को छोड़ दिया है और जो कि अपनी श्रात्मोन्नति के साधने में लगे हुये हैं। कुपात्रदान वह है, जिससे उन लोगोंका पोषण होता है, जो विषयों और संसारी राटारमन * जो श्रावक या श्राविका श्रावकके बारह व्रत या कम धारण → करते हैं, उनकेलिये प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल प्रतिक्रमण करना ज़रूरी है। इस क्रिया केद्वारा अगर किसी व्रतमें दूषण लगा हो तो उसके लिये पश्चाताप तथा प्रायश्चित किया जाता है, ताकि भविष्य मैं ध्यान रहे । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय ne. In में लगे हों। साधु, मुनि तो दान ग्रहण करके आत्मोन्नति व शुम कर्म करते हैं और पाखंडी दान ग्रहण करके कुकर्म और अशुभ कर्मोको करते हैं। इस कारण जहाँ तक संभव हो, वहाँ तक गृहस्थको सुपात्रदान देना चाहिये । इसके अतिरिक्त वर्तमान समयमें बहुतसे दान किये जाते हैं। उनमें यह देखना चाहिये कि इससे कोई अनर्थ तो नहीं होता है। यदि ऐसा हो तो दान नहीं देना चाहिये। विद्यादान, अभयदान, अनाथों व अपाहिज व बेवाओंको दान देना भी उचित है। गृहस्थोंको इस बातका अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि पहिले तो साधुका मिलना ही कठिन है। यदि सौभाग्यवश वे मिल जाय तो प्रेम व आदरसे उन्हें दान देना चाहिये । जो वस्तु उनके लेनके योग्य हो, उसको अशुद्ध नहीं करनी चाहिये और जो वस्तु उनके लेनेके प्रतिकूल हो, उसे शुद्ध कर देनी नहीं चाहिये। ऐसा करनेसे दान देनेवाले व लेनेवाले, दोनोंको दूषण लगता है। सदा विनयपूर्वक दान देना चाहिये । दान देने में लाभ-संकोच पानेसे उसका समस्त महत्त्व चला जाता है। इसलिये यदि दान देना हो तो उदार चित्तसे देना चाहिये। गृहस्थ अथवा श्रावक धर्म स्वर्णके समान है। जैसे किसीको एक तोला, किसीको दो तोले, किसीको पाँच तोले, किसीको बारह तोले-जिसको जितने सोनेकी आवश्यकता हो, उसको उतना सोना काटकर प्रासानीसे दिया जा सकता है। इसी प्रकार भावक Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * मनष्य-जीवनको सफलता * २८७ ...... . के बारह व्रत हैं, इनमेंसे जिसको जैसी शक्ति हो, वह उतने हीएकसे लेकर बारह व्रत तक ग्रहण कर सकते हैं। इन समस्त व्रतोंका अभिप्राय यह है कि इच्छा, मन व इन्द्रियोंकी विषय-वासनाएँ कम की जायँ । कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ ) की गति मंद की जाय । सदा बुरे विचारों व भावोंसे दूर रहा जाय और अच्छे विचार व भावोंका सदा मनन किया जाय । ऐसा करनेम मनुष्यकी आत्मा क्रम-क्रमसे उच्च अवस्थाकी ओर अर्थात् त्यागकी ओर अग्रगामी होती जाती है। ___ बस, यही मनुष्य-जन्मको सफल बनानेका प्रारम्भिक सरल और सीधा रास्ता है। ___ यदि गृहस्थ अथवा श्रावक या श्राविका बारह व्रत पालते हुये अपने मनुष्य-जन्मको और भी अधिक सफल बनानेका विचार रखते हों तो उनको श्रावककी प्रतिमाएं धारण करनी चाहिये । ___ जो श्रावक मुनिपद ग्रहण करनेको तो असमर्थ हैं, लेकिन श्रावक के बारह व्रत पालनेसे विशेष पराक्रम तथा त्याग करना चाहते हैं, बे एक विशेष त्याग-मार्गको ग्रहण करते हैं, जिसे 'प्रतिमा' कहते हैं। ये प्रतिमाएँ ग्यारह प्रकारकी होती हैं। जो श्रावक प्रतिमा धारण 'दंसणवयसामाइय-,पोसहसचित्तराइभत्ते य । ब्रह्मारंभपरिग्गाह-, मणुमणमुद्दिमदंदे ॥" Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास - तृतीय - करनेका विचार करते हैं, वे पहिले अपने घर-बार व व्यापारका सारा भार अपने बड़े पुत्र या भ्राता या जो कोई योग्य सम्बन्धी हो, उसको सौंप देते हैं और आप स्वयं घर छोड़कर किसी एकान्त स्थानमें या प्रोषधशालामें निवास करके प्रतिमाओंका पालन करना प्रारम्भ कर देते हैं । पहिली प्रतिमा एक मासकी, दूसरी दो मासकी, इसी प्रकार हर प्रतिमामें पिछला काल मिलाकर एकमहीना बढ़ता चला जाता है। अर्थात् दसवीं में दस महीने और ग्यारहवीं में ग्यारह महीने लगते हैं। इस प्रकार ग्यारह प्रतिमाओं में पाँच वर्ष छह महीने का समय लगता है । पहिली प्रतिमासे दूसरी प्रतिमामें, दूसरीसे तीसरी प्रतिमामें, इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रतिमात्रओमें पूर्व-पूर्व की प्रतिमासे नियम, प्रत्याख्यान और तपस्या बढ़ती हुई होती है । यहाँ तक कि ग्यारहवीं प्रतिमामें करीब-करीब साध वृत्ति हो जाती है । बाल लौंच करना; भिक्षासे सूझता प्रहार लेना पृथ्वीपर शयन करना; अल्प वर रखना; इंस, मशक. शीत, उष्ण श्रादि परीपहें सहन करना आदि बातें यहींपर हो जाती है । इस प्रकारकी क्रिया करके प्राणी बहुत हद तक अपने मनुष्यजन्मको सफल बना सकता है। अर्थात्-(१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (७) प्रोषध, (५) सचित्तत्याग, (६) रात्रिभुक्तियाग, (७) ब्रह्मचर्य, (८) भारम्भत्थाग, (१) परिग्रहत्याग, (१०) अनुमतित्याग और (११) उदिष्टत्याग, ये श्रावककी ग्यारह प्रतिमाएँ है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * मनुष्य जीवनकी सफलता * यदि मनुष्य के भाव - विचार इससे भी ऊपर बढ़ने के हों ' अर्थात् मनुष्य जन्मको पूर्णतया सफल बनानेके हों तो उसको मुनिवृत्ति ग्रहण करनी चाहिये । मुनिवृत्तिका स्वरूप निम्न प्रकार है: २८६ मुनिवृत्ति धारण करना तो सरल है, पर उसका पालना महा कठिन है। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि साधुवृत्ति में जीतेजी मरना है । पर जिन्होंने इसके उद्देश्य को समझ लिया है, उनके लिये कोई मुश्किल चीज नहीं है। मुनिवृत्ति केवल वही स्त्री या पुरुष धारण कर सकते हैं, जिनका हर प्रकारसे सांसारिक सुख, आराम, वैभव व पदार्थोंसे - धन धान्य. स्त्री पुत्र, बन्धु, मित्र, भूमि, मान, अपमान, प्रेम, मोह, कष्ट, क्रोध, लोभ, यहाँ तक कि जीवन-मृत्यु से भी राग-द्वेष हट गया हो । मुनिको निम्नलिखित व्रत धारण करने पड़ते हैं, जिनको उसे जीवन पर्यन्त धैर्य व पुरुषार्थ और शान्ति भावसे निवाहने पड़ते हैं। १- किसी प्रकारकी हिंसा मन, वचन और कायसे करे नहीं, करावे नहीं और करनेवालेको भला समझे भी नहीं । ------ २- किसी प्रकारकी असत्य भाषा मन, वचन और कायसे बोले नहीं, बुलवावे नहीं और बोलनेवालेको भला जाने भी नहीं । ३ - किसी प्रकारका श्रदत्तादान अर्थात् बग़ैर दी हुई वस्तु, मन, वचन और कायसे ले नहीं, लिवावे नहीं और लेनेवालेको भला जाने भी नहीं । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय ४ - किसी प्रकारका मैथुन अर्थात् विषय-भोग मन, वचन और कायसे सेवे नहीं, सिवावे नहीं और सोनेवालेको भला जाने भो नहीं । ५ – परिग्रह अर्थात् धन, धान्य, भूमि आदि मन, वचन और कायसे रखे नहीं रखावे नहीं और रखनेवालेको भला जाने भी नहीं । २६० उपरोक्त पाँच महाव्रतोंके अतिरिक्त और भी बहुत से नियमों को मुनि पालन करते हैं । यथा: - १ - नंगे पैर और नंगे सिर रहते हैं। सदा पैदल चलते हैं । किसी भी प्रकारको सवारी, जैसे:- मोटर, रेल, घोड़ा, बैलगाड़ी आदिपर नहीं चढ़ते हैं । २ - चतुर्मास में अवश्य एक-स्थानपर चार मासके लिये निवास करते हैं, वरना सदा भ्रमण किया करते हैं। अधिक-सेअधिक एक स्थानमें एक माससे अधिक नहीं ठहरते हैं। इसके अतिरिक्त जहाँ एक चतुर्मास कर लेते हैं, वहाँ वे तीन वर्ष तक चतुर्मास नहीं करते हैं। ३ - मामूली श्वेत वस्त्र रखते हैं । कोई सिला हुआ कपड़ा नहीं पहनते हैं । मामूली सूत्र व धर्मग्रन्थ और मामूली काष्ठके भोजन व जलकेलिये पात्र रखते हैं। वे उतना ही सामान रखते हैं, जिसे वे स्वयं लेकर चल सकें। वे किसी जानवर या आदमीपर अपना सामान लादकर नहीं चलते हैं। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • मनुष्य-जीवनकी सफलता * २६१ - ४-वे हजामत नहीं बनवाते । एक वर्ष में दो बार अपने सर व डाढ़ीके बालोंका लौंच कर लेते हैं अर्थात् हाथसे उखाड़ लेते हैं। __५-उनकी विधिपूर्वक जो भोजन व जल मिल जाता है, उसे ही ग्रहण करते हैं। वे कोई साग-भाजी या फल नहीं खाते हैं और न कचा जल-कुये, नदी व तालाबका पानी पीते हैं। वे अचित्त आहार व अचित्त जल-गरम पानी लेते हैं। यदि उनके निमित्त. खाना बनाया जाय या जल गरम किया जाय तो वे उसे नहीं ग्रहण करते हैं। वे उसे अशुद्ध समझते हैं। सिर्फ दिन में ही खाते व पीते हैं। रात्रिमें कोई वस्तु ग्रहण नहीं करते हैं। ६-सदा नीचे देखकर चलते हैं और स्थानको प्रागेसे भाड़कर बैठते हैं। ताकि कोई चलता-फिरता जीव मर न जाय । रात्रिमें दीपक नहीं जलाते हैं। किसी प्रकारकी शोभा वगैरा नहीं करते हैं। किसीके घर नहीं बैठते हैं। किसी प्रकारका मेलातमाशा नहीं देखते हैं। किसी गृहस्थसे अपनी सेवा नहीं कराते हैं। किसी प्रकारका नशा, तम्बाक, पान-सुपारी आदि नहीं खाते-पीते हैं । स्वयं जाकर भोजन व जल लाते हैं। -बाईस प्रकारके परीषह* अर्थात् तकलीकोंको प्रसन्नता व शान्तिपूर्वक सहन करते हैं । जैसे-यदि नियमपूर्वक भोजन या * "पुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनारम्यारतिबीच निषधाशय्याकोशवधवाजालाभरोगतृणस्पर्शमजसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ।" -उमास्वाति। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय जल न मिले तो प्रसन्नचितसे निर्जल और निराहार रह जाते हैं। गर्मीमें पंखा नहीं करते हैं। ठंड में आँचसे नहीं तापते हैं या मर्यादा के बाहर वन, जैसे-सौर या कम्बल नहीं रखते हैं। डंसमच्छरकी परीषह सहन करते हैं। यदि ठहरनको स्थान नहीं मिलता है तो वृक्षके नीचे ठहर जाते हैं। यदि कोई बुरा-भला या गाली आदि दे या कोई दुष्ट जन वार भी करे तो शान्तिपूर्वक सहन कर लेते हैं । इस प्रकार नाना प्रकारकं परीषह वे सहन करते हैं। ८-बयालीस दोष टालके आहार ग्रहण करते हैं । जैसेअमिपर कोई वस्तु होगी तो उसे नहीं ग्रहण करेंगे। कई पानी, या सब्जीसे स्पर्श होगा तो नहीं ग्रहण करेंगे। यदि स्त्री पञ्च को दृध पिला रही हो तो उससे श्राहार नहीं लेंगे। यदि कोई वस्तु किवाड़ोंके अन्दर या ताले में रक्खी हो तो उसे नहीं लेंगे। दीनतासे दान नहीं माँगेंगे। इसी प्रकार बहुतसे अनेक दोष टालकर पाहार ग्रहण करते हैं। ___ -जैसी जिस मुनिकी शक्ति हो. उसके अनुसार तपस्या. नियम, अविग्रह, आतापना आदि करते हैं। कोई एक दिन, कोई दो दिन, यहाँ तक कि सात दिन, पन्द्रह दिन, महीना, दो महीना, चार महीने तककी तपस्या करते हैं। तरह-तरह के नियम व अविग्रह करते हैं और सूर्यको गर्मी और रात्रिकी ठंडको सहन करने की तपस्या करते हैं । कोई-कोई केवल छाछपर ही रहते हैं। इस प्रकार नाना प्रकारकी तपस्या व त्याग करते हैं। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख) * मनुष्य-जीवनकी सफलता - २६३ १०-राग-द्वेष नहीं करते । क्रोध, मान, माया और लोम नहीं करते । निन्दा नहीं करते। रति-अरति नहीं करते । मिथ्या दर्शन शल्य नहीं रखते। अनुराग नहीं करते । प्राणी मात्रको अपनी श्रात्माके तुल्य समझते हैं। सदा शान्ति भाव रखते हैं। ११-यदि जानकारीमें या अज्ञानतासे कोई दोष लग जाता है तो गुरु महाराजकी सेवा में तत्काल निवेदन करते हैं और जो वे प्रायश्चित्त देते हैं, उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। ज्ञानका काफी अभ्यास करते हैं। ज्ञानाचार, दर्शनाचार. चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचारमें सदा प्रवृत्त रहते हैं। सदा वैराग्य सहित रहते हैं। अपनी आत्मा और दूसरों की आत्माका भी कल्याण करते हैं। सदा बात ध्यान और गैद्र ध्यानका त्याग करते हैं और मदा धर्म ध्यान रखते हैं। १२-साधुको दिनचय्यां इस भाँति है: मुनि रात्रिका एक पहर जब बाकी रहे तब उटे और उस समय स्वाध्याय या रात्रिका प्रतिक्रमण करे, इसके बाद दिनके पहिले पहरमें प्रतिलेखना तथा स्वाध्याय करे, दिनके दूसरे पहरमें एक पहर तक ध्यान करे, तीसरे पहरमें मधुकरी वृत्तिसे भिक्षा-आहार आदि करे, चौथे पहरमें पढ़े तथा प्रतिलेखन करे और सायंकालमें दिनका आवश्यक प्रतिक्रमण करे, रात्रिके पहले पहरमें स्वाध्याय करे और दूसरा पहर निर्मल ध्यानमें बिताये, इस प्रकार मध्य रात्रि बीत जानेपर एक पहर निद्रा ले। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जेलमें मेरा जैनाभ्यास. वृतीय १३-मुनि महात्मा पुरुष सदा मन, वचन और कायको शुभ कार्यों में प्रवाते रहते हैं; सदा अपनी आत्माकी आलोचना, निन्दा करते रहते हैं; जब अन्त समय आया हुआ जानते हैं, तब 'संथारा' ग्रहण करते हैं अर्थात् प्राहार-पानीका त्याग कर शरीर की ममता छोड़ देते हैं और अपने पापोंकी निन्दा-आलोचना करते हैं। चौरासी लाख जीवयोनिसे क्षमा-प्रार्थना करके धर्म ध्यान ध्याते हुये समाधि भावसे देह त्याग करते हैं। मुनियों में जो मुनि उत्कृष्ट ज्ञान, ध्यान, तप आदि करते हैं, उन्हें 'उपाध्याय पदवी' दी जाती है। ये उपाध्यायजी समस्त शास्रोंके उपाङ्गोंके जानकार होते हैं। अपनी अमृत वाणीसे उपदेश देकर भव्य जीवोंको प्रतिबोध करते हैं और उन्हें तारते हैं। वे ज्ञानके भंडार, दयाके सागर और भव्य जीवों को ज्ञानरूपी नेत्रके दातार होते हैं। ___जो उपाध्यायजी और भी अधिक अपने मनुष्य-जन्मको सफल बनाना चाहते हैं. वे विशेष पुरुषार्थ और पराक्रम फोड़ते हैं और 'प्राचार्य पद' को प्राप्त करते हैं। प्राचार्यजी ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपमाचार और वीर्याचार आप पालते हैं और दूसरोंको पलवानेका प्रयत्न करते हैं। वे छत्तीस गुणों और पाठ संपदाओंसे युक्त होते हैं। मुनि, उपाध्याय और प्राचार्य जो कि उत्कृष्ट कतव्यपालनमें संलम है अर्थात् तीव्र, तपस्या, ज्ञान और ध्यान करते Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बएड * मनुष्य-जीवनकी सफलता * २६५ हैं, वे चार घनघाती कर्म अर्थात् ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और मोहनीय कर्मको क्षय करके केवलज्ञानीके पदको प्राप्त करते हैं । जिसका मतलब यह है कि वे समस्त संसारकी घटनाओं व समस्त जीव मात्रकी अन्तर्गत व भावनाओंको पूर्ण रीतिसे देखते व जानते हैं । अन्त समयमें आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्मको भी क्षय करके अर्थात सर्व प्रकारके कर्मोंसे मुक्त होकर और चौरासी जीवयोनिको छोड़कर निर्वाण पदको प्राप्त करते हैं और सदाकेलिये अपनी आत्माको आवागमनके चक्करसे रहित करते हैं। इस प्रकार वे मनुष्य-जन्म पानका जो उत्कृष्ट-सेउत्कृष्ट उद्देश्य है, वह प्राप्त करते हैं अर्थात् सिद्ध गतिको प्राप्त करते हैं। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानका स्वरूप लानका सम्बन्ध चित्त अर्थात् मनसे है। अर्थात् - मन, वचन और कायकी हानिकारक अशुभ प्रवृत्तियोंको रोककर सुख देनेवाली शुभ प्रवृत्तियों में स्थिर रहना, कपायकं वेगको दबाना और इन्द्रियोंका निग्रह करना, 'ध्यान' कहलाता है | और एमी अवस्थामें प्रवृत्तनेवाला प्राणी 'ध्यानम्थ, ध्यानस्थित या ध्यानमग्न' कहलाता है । संक्षिप्त शब्दोंमेंअपने लक्ष्यपर चित्तको एकाग्र करना ध्यान कहलाता है। ध्यानके सामान्य रीनिस ( १ ) शुभ और ( २ ) अशुभ. इस तरह दो और विशेष रीतिने ( १ ) पात ( ) रौद्र (३) धर्म और ( ४ ) शुल, इस तरह चार विभाग-भेद शाम्र में किये गये हैं। इन चाम पहिले दो अशुभ और पिछले दो शुभ है। पौदगलिक दृष्टिकी मुग्यताके किंवा प्रात्म-विस्मृति के समय जो ध्यान होता है, वह अशुभ और पौद्गलिक दृष्टिकी गीणता व प्रात्मानुसन्धान दशाम जो ध्यान होता है, वह शुभ है। अशुभ यान संसारका कारण और शुभ ध्यान मोक्षका कारण है। प्रात्त ध्यान शुभ और अशुभ कर्मों के उदयमे इष्ट (अभिलषितक) योग (मिलन) से और अनिष्ट ( अनिमलपिन ) के वियोग * "एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्"। -उमास्वाति । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ध्यानका स्वरूप * २६७ (विच्छेद ) से तथा अनिष्टके संयोग और इटके वियोगसे मनमें जो संकल्प-विकल्प पैदा होते हैं-उथल-पुथल उत्पन्न होती है, उसे 'श्रार्तध्यान' कहते हैं। इसके चार भेद हैं: १-अनिष्टसंयोग, २-इष्टसंयोग, ३-रोगोदय और ४भोगेच्छा। १-अनिष्टसंयोग-जिन प्राणियों तथा वस्तुओंसे, जैसेमर्प, सिंह, चोर. मृत्यु आदिसे अपना तथा अपने हितषियोंका बुरा तथा नुकमान होनेकी सम्भावना होती है. उनके शीघ्र नाश हो जानेमें जो चिन्तन तथा इच्छा होती है, उसे 'अनिष्टसंयोग आनध्यान कहते हैं। __ -इटसंयोग-मोहनीय कमके उदय से सुखकारी वस्तुओं सं, जैसे-सुन्दर म्री, धन. कुटुम्बकी वृद्धि, बाग-बगीचे, सवारी, नौकर-चाकर श्रादिसे देवताक समान मुम्बाकी इच्छाका करना अथवा जो भोग और उपभोग मिले हो, उनकी रहरहकर सराहना व याद करना, इत्यादि प्रकार के संकल्प विकल्पोंको 'इष्टसंयोग प्रात्तध्यान' कहते हैं। * किसी-किसी जगह 'इष्टसंयोग' नामक प्राध्यानकी जगह 'इष्ट वियोग' नामका प्राध्यान भी माना गया है। उसका अर्थ यह किया गया है कि जो पदार्थ अपनेको प्रिय मालूम देने हैं, उनके वियोग हो जानेपर मनुष्य के जो क्लेशित परिणाम होते हैं, जैसे-पुत्रके वियोगमें, धनके नाशमें, अपयश होने आदिमें, उसे 'इष्टवियोग मार्त यान' कहते हैं। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास *# [तृतीय ३ - रोगोदय - संसार में समस्त प्राणी आरोग्य-सुखकी इच्छा रखते हैं । पर अशुभ वेदनीय कर्मोदयके कारण जीवको नाना प्रकार के रोगादि खड़े हो जाते हैं। उनके कारण हाय-हाय दुःख व सन्ताप करना और उनके आरामकेलिये अनेक औपधोपचार करने में तन्मग्न होना, रोगकी वृद्धिसे शोकातुर और हानिसे हर्षित होना, इत्यादि प्रकार के ख्यालातको 'रोगोदय आतं ध्यान' कहते हैं । २६८ ४ - भोगेच्छा - पाँचों इन्द्रियोंके विषय -संवनकी तीव्र इच्छा का होना । जैसे- श्रॉखोंसे सुन्दर-सुन्दर स्त्रियों को देखने की इच्छा रखना: नाकसे बढ़िया-बढ़िया फूल और इतर सँघने की ख्वाहिश रखना; कानसे अच्छे-अच्छे गाने सुनने की अभिलाषा रखना; सुन्दर और सुस्वादु भोजन करने की इच्छा रखना; दूसरोंकी सुख व आनन्द भोगते देखकर कुढ़ना, स्पर्धा करना, इत्यादि प्रकार के विचारोंको भोगेच्छा श्रतिध्यान' कहते हैं । ध्यान ध्यानेवाले प्राणीमें प्रायः चार लक्षण पाये जाते हैं । यथा - १. - आक्रन्दन - रुदन करना । २-चिनमे शोक करना । ३–आँखोंसे श्रम गरना और ४- विलाप करना । अगर भव्य मनुष्य अनिष्टका संयोग, इष्टका वियोग, रोगादि दुःखों की प्राप्ति और भोगादि सुखोंकी अप्रामि नहीं चाहते हैं तो उनको आर्तध्यान कदापि नहीं ध्याना चाहिये । उनको ' सदा धर्मध्यान अर्थात् अच्छे व शुभ विचारोंका ध्यान करते Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एखड] * ध्यानका स्वरूप * २६१ - रहना चाहिये। जैसे-हमको व्यर्थ शोक-सन्ताप नहीं करना चाहिये, अगर कोई रोग या तकलीफ हो जाय तो शान्ति पूर्वक उसको सहते हुए उसके विनाशका उपाय करना चाहिये, अगर जीवनमें आनन्द और सुखप्रद वस्तुओंकी प्राति नहीं हुई है तो उसकेलिये शान्ति पूर्वक उपाय करना चाहिये और तब भी यदि वे नहीं प्राप्त हों तो अपने पूर्व-जन्मका अशुभ काँका उदय समझना चाहिये । इस तरह मनुष्यको सदा शुभ विचार रखने चाहिये । यदि अज्ञानवश बुरे विचार श्रावें भी तो तुरन्त उन्हें दूर कर देना चाहिये । छट गुणस्थान तक इस प्राध्यानका होना संभव है। रोद्रध्यान जैसे मदिरापान करनेसे मनुष्यकी बुद्धि खगब हो जाती है और वह बुरे कर्मा में आनन्द मानता है। उसी प्रकार यह जीव अनादिकालसे कम-रूपी मदिराके नशेमें मतवाला हो रहा है, जिसके प्रभावसे इसके अन्तःकरणमें बुरे-बुरे विचार पैदा होते हैं, जिन्हें ज्ञानियोंने “रौद्रध्यान" कहा है। रोद्रध्यानके चार भेद हैं। यथा १-हिंसानुबन्ध, २-मृषानुबन्ध, ३-तस्करानुबन्ध और ४-विषयसंरक्षणानुबन्ध । १-हिंसानुबन्ध-जिस प्राणीका चित्त सदा छेदन, भेदन, ताड़न, बन्धन बाँधना, दमन करना. प्रहार करना आदि कर्मों में Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास [तृतीय अनुराग मानता है अथवा जिसको दया कदापि नहीं आती है, वह सदा "हिंसानुबन्ध रौद्रध्यान" ध्याता रहता है । इस ध्यानको ध्यानेवाला निम्नलिखित कार्य करता रहता है:___जीवोंकी शिकार करते हुये, कल्ल करते हुये, दुःखसे चिवार मारते हुये या किसीको मरते हुये देखकर आनन्द मानता है और कहता है कि बहुत अच्छा हुआ। उसको तो यह दण्ड या तकलीफ मिलनी ही चाहिये थी। यह क्या अच्छी शिकार है ! मर्प, बिच्छू आदि हिन्सक जीवोंका मारना अति उत्तम है। नरमेध, अश्वमेध श्रादि यज्ञ करनेसे म्वर्ग मिलता है । वह हिंसा द्वारा बनी हुई वस्तुओं का उपयोग करता है । जैसे-चमड़ेके जूते, हड्डीकी चीजें, पंखोंकी वस्तुयें, रेशमके कीड़ों द्वारा बना हुआ रेशम इत्यादि वस्तुओंका उपयोग करता है या कराता है या करनेको भला मानता है। यह जीव 'हिंमानुबन्ध रौद्रध्यान'का बन्धन करता है। २-मृषानुबन्ध-जो प्राणी सदा दृमरोंको धोखा देने व ठगनका विचार किया करता है और अमत्य कर्मो में आनन्द मानता है, वह 'मृपानुबन्ध गदध्यान' ध्याया करता है। इस ध्यानके ध्यानेवाला व्यक्ति निम्नलिखित प्रशुभ कार्य किया करता है:-वृद्ध, गंगी या निकम्मे वरका अच्छी कन्याके माथ विवाह कराता है: गाय, घोड़ा, बैल आदि पशुओंको अच्छा कह कर बिकवाता है; नकली मालको असली कह कर और झूठे Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] ३०१ मालको सच्चा कह कर बेचता है; कोई धरोहर रख जाय तो उसे हजम कर जाता है; व्यापार में धोखा देता है या झूठ बोलता है; अच्छे में खराब अथवा नयेमें पुराना माल मिला कर उसे असली और नया माल कह कर बेचता है अपने स्वार्थसे झूठा पन्थ चलाता है; ब्रह्मचारी कहा कर व्यभिचार करता है; अन्धे लूले, लँगड़ों, अपाङ्गोंकी हँसी उड़ाता है । इत्यादि । * ध्यानका स्वरूप # ३- तस्करानुबन्ध - जो प्राणी सदा चोरी करनेका विचार किया करता है और अपने भाई चोरोंको नई-नई नाना प्रकारकी चोरी करने अथवा ठगने की तरकीबें सोचा तथा बताया करता है. और प्रशंसा किया करता है, वह 'तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान' ध्याया करता है । इस ध्यानका ध्यानेवाला व्यक्ति निम्न लिखित अशुभ विचार किया करता है: - किस तरह अमुक धनीके घर में चोरी करूँ अथवा डाँका गरूँ, किस तरह ताले अथवा लोहेकी मजबूत तिजूरियोंको तोड़ डालू साहूकार बनकर झूठी डंडी बनाऊँ या और किसी तरह से साहूकारोंका रुपया मारूँ जो इस प्रकार सोचा-विचारा करता है अथवा चोरोंका माल खरीदता है, जबरदस्ती कमजोरों की मिल्कियतपर अपनी मालकीयत जमाता है, वह 'तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान' ध्याया करता है। ४ - विषय संरक्षणानुबन्ध - जो प्राणी सदा इसी बात में दत्तचित्त रहता है कि किस प्रकार मैं अपने धन, जन, सम्पत्ति या Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय ऐश्वर्यकी वृद्धि करूँ, जिससे मेरी विषयकामना पूर्ण हो सके और जो सदा कल्पित तरकीबें सोचा करता है, वह विषय संरक्षणानुबन्ध रौद्रध्यान' ध्याया करता है । ___ इस ध्यानके ध्यानेवाला निम्नलिखित अशुभ कर्मोको किया करता है । अगर वह राजा है तो सदा यह विचारा करता है कि किन तरकीबोंसे मैं अपने राज्यकी वृद्धि और शत्रुओंसे रक्षा कर सकता हूँ, इस कारण वह सदा नाना प्रकार के बुरे व घातक विचार मनमें लाया करता है और तरह-तरह की तरकीबें ( 126 ) रचा करता है। इत्यादि। अगर वह धनी है तो मदा विचारा करता है कि किन-किन तरकीबोंसे मैं अपने धनकी वृद्धि कर सकता हूँ और किस प्रकार चोर, डाकुओं और बदमाशास अपनी सम्पत्तिकी रक्षा कर सकता हूँ। इत्यादि। कुछ प्राणी अपने शरीरको पुष्ट करने के विचारसे अखाद्यवस्तुओंका सेवन करते हैं और बुर-बुरे विचार चित्त में लाया करते हैं। इत्यादि । जो प्राणी मदा अपने संरक्षण करने और अन्यको परिताप पहुँचाने की क्रिया अथवा विचार किया करते हैं, वे सदा 'विषयसंरक्षणानुबन्ध' ध्यानको ध्याया करते हैं। गैद्रध्यान ध्यानवाले प्राणी प्रायः चार लक्षण पाये जाते हैं- ' १-हिंसक कार्य करना तथा उनका अनुमोदन करना. २-मूठे कर्म करना तथा उनका अनुमोदन करना, ३-चोरीका कर्म करना Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड • ध्यानका स्वरूप * ३०३ तथा उनका अनुमोदन करना और ४-अपने धन और सुखोंकी * रक्षामें दत्तचित्त रहना और उनका अनुमोदन करना । अगर प्राणी हिंसानुबन्ध, मृपानुबन्ध, तस्करानुबन्ध और विषयसंरक्षणानुबन्ध विचागंसे बचना चाहते हैं अर्थात सुख और शान्ति चाहते हैं तो उनको गैद्रध्यान कदापि नहीं ध्याना चाहिये और सदा धमध्यान अर्थात अच्छे व शुभ विचारोंका ध्यान करते रहना चाहिये । जैसे जहाँ तक मुमकिन हो वहाँ तक किसी प्रकार के चलत-फिरने तथा अन्य अदृश्य जीवोंकी हिंमा नहीं करनी चाहिये । यदि कोई प्राणी हिंसा करता हो तो उसे समझा बुझाकर रोकना चाहिये। कभी झट नहीं बोलना चाहिये । सदा सचाई और इमानदारी के साथ व्यापार या अन्य कार्य करने चाहिये । किसी प्रकारकी चोरी नहीं करनी चाहिये । अथवा विश्वासघात नहीं करना चाहिये । सदा धन, स्त्री, पुत्र, ऐश्वयक रक्षणमें दत्त चिन नहीं होना चाहिये अर्थात जितनी रक्षाकी आवश्यकता है, उतना ही करते रहना चाहिये। इसके अतिरिक्त हिंसा, भूठ, चोरी और संरक्षण सम्बन्धी विचार तक मनमें नहीं लाने चाहिये और यदि अज्ञानवश उपयुक्त बुरे विचार भाभी जॉय तो तुरन्त उनको दूर कर देना चाहिये । स्पष्टीकरण ये बात और रौद्र ध्यान पापोंसे भरे हुये हैं। ये दोनों ध्यान बिना अभ्यासके-पूर्व कर्माके उदयसे-स्वभावसे ही उत्पन्न Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय होते हैं और जहाँ तक कोंकी प्रबलता रहती है, वहाँ तक निरन्तर हृदयमें बेचैनी किया करते हैं। जिन आत्माओंने उच्च स्थानकी अपेक्षासे संयम ग्रहण कर लिया है अथवा ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, मुनि आदिका भेष धारण कर लिया है. उनको तो ये दोनों निकृष्ट और बुरे ध्यान बातकी बातमें अर्थात एक क्षण में नरकगामी बना देते हैं। ___ ये दोनों ध्यान मोक्षमार्गमें मुख्य बाधक हैं। इस कारगण जो भव्य प्राणी अपने संसार को कम करना चाहते हैं, उनको इन दोनों ध्यानोंको अपने चित्त में कदापि स्थान नहीं देना चाहिये अर्थात अपने मन को इन्द्रिय, विषय, कपाय, प्रमाद आदि अशुभ कर्मोकी ओर कदापि नहीं जाने देना चाहिये । मदा शुभ भाव अथवा शुक्ल और धर्म ध्यान ध्याने रहना चाहिये । जिनका वर्णन अगले पृष्टोंमें किया जाता है। पंचम गुगाम्थानक तक ही इन ध्यानोंके रहने की संभावना है। शुभ ध्यान शुभ ध्यान दो प्रकार के होते हैं। एक धमध्यान दमग शुक्ल ध्यान । शुभ ध्यानकी सफलताके वास्ते ज्ञानका होना अत्यन्त आवश्यक है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान सम्बन्धी बातें, जो दोनों ध्यानों में एक सी है, पहिले हम उनका ही यहाँ वर्णन करते हैं और बादमें धर्मध्यान और शुक्लध्यानका अलग-अलग वर्णन करेंगे। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * ध्यानका स्वरूप ३०५ ध्यानका चित्त अर्थात् मनसे मुख्य सम्बन्ध है । चित्तके ज्ञानियोंने आठ दोष बताये हैं, जो निम्न प्रकार हैं। भव्य प्राणियों को इनसे अपने चित्तको बचाना अत्यन्त आवश्यक है । १-धार्मिक अनुष्टानमें ग्लानिका उत्पन्न होना। २-धार्मिक क्रिया करते हुए चित्तमें उद्वेगका बना रहना। ३-चित्तमें भ्रान्ति रहना अर्थात् एक कार्यके बदले दूसरा कार्य करने लगना। ४-मनका स्थिर न रहना अर्थात् चंचलता बनी रहना । ५-चालू कामको छोड़ कर दूसरे कामों में लगना । ६-सांसारिक कार्यो में ऐसे लीन हो जाना कि जिससे आगेपीछेकी सुध-बुध न रहे। -वर्तमानमें करने योग्य कार्यको छोड़ कर कालान्तरमें करने योग्य कायको करना। ८-प्रारम्भ किये हुये कार्यको छोड़ देना। अशुभ ध्यानमें तो चित्तकी प्रवृत्ति बिना प्रयत्न-स्वाभाविक रीतिसे होती है क्योंकि उसका आत्माके साथ अनादिकालसे सम्बन्ध है । परन्तु शुभ ध्यानमें प्रवृत्ति होना बहुत मुश्किल है। शुभ ध्यानमें प्रवेश करनेकेलिये प्रथम सम्यक्त्वकी आवश्यकता है। धर्मध्यानको गृहस्थ अथवा मुनि दोनों ध्या सकते हैं, पर शुक्लध्यानको केवल मुनि ही ध्या सकते हैं। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय प्रश्न उठता है कि ध्यान करनेकी आवश्यकता क्या है ? उत्तर निम्नप्रकार है:-सम्पूर्ण कर्मों का सर्वथा क्षय होना अर्थात् कर्मबन्धनसे बिलकुल छूट जाना ही मोक्ष है। यह मोक्ष प्रात्माका भान हुए बिना प्राप्त नहीं हो सकता। चित्तकी समता बिना श्रात्म-ज्ञान होना दुर्लभ है। तथा चित्तकी समता भी चित्त-विक्षपादि मलीनताको दूर करनेवाले शुभ ध्यानके बिना उत्पन्न नहीं हो सकती। इसलिये शुभगति अथवा मोक्षकी प्रापिकेलिये गृहस्थ और मुनियोंको धर्मध्यान और मुनिको शुक्लध्यान ध्याना चाहिये। ध्यानमें मनकी स्थिरता रखने के लिये स्थान, द्रव्य, काल और भावकी शुद्धिकी अत्यन्त आवश्यकता है। १. स्थान-बगीचा, पर्वतकी गुफा, समुद्र तथा नदी-नट, वृक्षोंके कुञ्ज, गाँव या नगरका एकान्त स्थान, जहाँ स्त्री. नपुंसक, पशु आदिका आना-जाना न हो और कोई क्रिम्मका कोलाहल न होता हो। इस प्रकारके एकान्त स्थान ध्यान की मिद्धिकेलिये उत्तम होते हैं। २. द्रव्य-जहाँ गाना-बजाना, स्त्री आदिक चित्र, मांस, मदिरा इत्यादि द्रव्य हो; वहाँ चित्त का स्थिर होना कठिन है । ध्यान काष्ठ के पट्टपर, पत्थरकी शिलापर या ऊनी या शुद्ध मूनी वनके पासन पर करना चाहिये । ध्यान करनेवाले व्यक्तिको हलका भोजन करना चाहिये । ध्यानकी सिद्धि कलिय पूर्व अथवा उत्तर दिशाकी और मुंह करके ध्यान करना श्रेष्ठ है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वण्ड ] ३०७ ३. काल - दिन और रात्रिका दूसरा पहर और रात्रिका चौथा पहर ध्यान करनेके वास्ते अति उत्तम बताये गये हैं । * ध्यानका स्वरूप * ४. भाव- मैत्रीभाव, प्रमोदभाव, करुणभाव और मध्यस्थभाव, इन चारों ही भावोंके होनेसे शुभ ध्यान ठीक तरह से ध्याया जाता है। इन चार भावनाओंको विचारते हुये जीव राग, द्वेष, विषय, कपाय, मोह आदि शत्रुओं का नाश करने में समर्थ होता है । धर्मध्यान धर्मध्यान - यह ध्यान अशुभ कर्मोंका नाश करता है तथा किंचित शुभ कर्मका भी नाश करता है और निर्जरा और पुण्य प्रकृतियोंका उपार्जन करता है। धर्मध्यानके चार भेद कहे हैं: १ - आज्ञाविचय. २ - अपायविचय, ३ - विपाकविचय और ४ -- संस्थानविचय । १ -- आत्माका उद्धार करने के लिये भगवान की जो आज्ञाएँ हैं, उनका आदरपूर्वक चिन्तन करनेसें, उनपर मनको एकाम करने से "आज्ञाविचय" नामक धर्मध्यानका प्रथम भेद सिद्ध होता है। २- जब राग, द्वेप और कपाय, इन दोषोंसे होनेवाली हानियों पर विचार किया जाता है, तथा राग-द्वेषादि दोषोंकी शुद्धिकेलिये विचार किया जाता है तथा चित्तको एकाग्र किया जाता है, तब "अपायविचय” नामक धर्मध्यानका द्वितीय भेद सिद्ध होता है । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय ३ - संसार में संपत्ति या विपत्ति, संयोग या वियोग से जो कुछ सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं, वे सब पूर्व जन्म में उपार्जन किये गये पुण्य-पापके फल हैं। जिस समय ऐसा विचार किया जाता है अर्थात् उनपर चित्तको एकाग्र किया जाता है, तब “विपाक विचय" नामक धर्मध्यानका तृतीय भेद सिद्ध होता है । ४ – जब मृलसे शिखर पर्यन्त लोकके श्राकारपर, उसमें जीवकी गति श्रगतिपर तथा जन्म-मरणपर स्थिर और शुद्ध मनसे विचार किया जाता है, तब "संस्थानविचय" नामक धर्म ध्यानका चतुर्थ भेद सिद्ध होता है। धर्मध्यानके आलम्बन धर्मध्यान रूप पर्वतपर चढ़नेकेलिये शास्त्रों में चार आलम्बन बताये हैं। आध्यात्मिक और ताविक शास्त्रों का पढ़ना, गुरु दिसे पूछ कर शंकाका समाधान करना, मनन करने योग्य विषयोंपर तर्क-वितर्क करना तथा अभ्यस्त तत्वांका कथन करना । ये चार आलम्बन ध्यान करनेवाले प्राणियोंको ग्रहण करने चाहिये । धर्मध्यानकी विशुद्धिकेलिये भावनाएँ ध्यानकी विशुद्धिकेलिये १ - अनित्य, २- अशरण, ३संसार और ४ –एकत्व, इन चार भावनाओंका नित्य बार बार चिन्तन करते रहना चाहिये, जब तक कि उत्कृष्ट रुचि उत्पन्न न हो जाय । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * ध्यानका स्वरूप * ३०६ १ - अनित्य भावना - द्रव्यार्थिक नयसे, अविनाशी स्वभाव का धारक जो आत्मा द्रव्य है उससे भिन्न रागादि विभाव रूप कर्म हैं। उनके स्वभावसे ग्रहण किये हुये स्त्री पुत्रादि सचेतन, 'सुवर्णादि अचेतन द्रव्य और इन दोनोंसे मिले हुए मिश्र द्रव्यादि जो वस्तुएँ हैं, वे सब अनित्य और अविनाशी हैं। ऐसी भावना जिस प्राणी के हृदय में रहती है. उसका तमाम पौद्गलिक पदार्थोंपर से ममत्व हट जाता है। जैसे वमन किये हुये दूधपर से ममत्वका अभाव हो जाता है । वह आत्मा हमेशा अक्षय. अनन्त सुखका स्थान जो मोक्ष है, उसे पाता है। ❤ - अशरण भावना - इस संसार में अशुभ कर्म के उदय होनेपर कोई सहायता नहीं कर सकता है। जिस प्रकार हिरणों के झुंडमें से जब सिंह एक हिरmको पकड़ लेता है, तब दूसरे जान लेकर भागते हैं और किसी अवस्थामें उसे नहीं छुड़ा सकते। उसी प्रकार अपनी ही आत्मा अपनेको तारने अथवा डुबाने वाली है। ऐसे भाव रखने वाली आत्मा द्रव्य तथा सांसारिक बातों से मोह छोड़ कर निज आत्मा स्वरूप सिद्ध अवस्थाको प्राप्त करता है । ३ - संसार भावना - इस संसार में अपनी आत्माने अपने शरीर के पोषण के वास्ते समस्त पुद्गलोंका स्पर्श तथा उपयोग किया है अर्थात द्रव्यसे तमाम वस्तुओं में हो आया है। क्षेत्रसे सब स्थानों में हो आया है । कालसे बीस क्रोड़ाक्रोड़ सागरके जैसे कालचक्रमें अनन्त बार हो आया है। भावसे यह क्रोध, मान, माया Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० * जेल में मेरा जैनाभ्यास # [तृतीय और लोभ इत्यादि विषयों में रमण कर रहा है । इस प्रकार यह आत्मा अनन्त कालसे भ्रमण कर रहा है । पर इसकी गज आज तक नहीं सरी है । जो आत्मा इस संसार भ्रमण में घृणा लावेगा वही मोक्ष पावेगा । ४- एकत्व भावना - इस आत्माको अपार आनन्द देने वाला सिर्फ एक केवलज्ञान ही है । वही आत्माका सहज गुण है। वही विनाशी और हितकर्ता है और द्रव्य सज्जनादि कोई हितकर्ता नहीं है । क्यों कि अन्य पदार्थ आत्माको दुःख देनेवाले हैं; ऐसा समझ कर सर्व वस्तुओं से ममत्वको हटा कर सिर्फ आत्मापर ही जो दृष्टि जमावेगा, वही आत्मा तम्बकी खोज कर निजानन्द अर्थात् मोक्ष पदको प्राप्त करेंगा | धर्मेध्यानके प्रकारान्तर शास्त्र में ध्येय भेदकी अपेक्षा धर्मध्यानके चार प्रकार और भी कहे गये हैं- १ - पिण्डस्थ, २– पदस्थ ३ - रूपस्थ और ४- रूपातीत । १ – पार्थिवी आग्नेयी आदि पाँच धारणाओंका एकाग्रतासे जो चिन्तन किया जाता है, उसे "पिण्डस्थ" नामका पहला ध्यान कहा है। २- नाभि में या हृदय में सोलह पाँम्बुड़ीके, चौबीस पाँखुड़ीके तथा मुखपर आठ पाँखुड़ीके कमलकी कल्पना करना और उसकी प्रत्येक पॉवुडीपर वर्णमाला के अ आ इ ई आदि अक्षरों Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * ध्यानका स्वरूप * ३११ की अथवा पंच परमेष्ठिमंत्रके अक्षरोंकी स्थापना करके मनकी एकाग्रतापूर्वक उनका चिन्तन करना “पदस्थ" नामका दूसरा ध्यान कहा है। ३-अहन्त भगवानकी शान्त दशाका निर्मल स्वरूप हृदय में स्थापन करके स्थिरचित्त होकर जो ध्यान किया जाता है, उसे "रूपस्थ" नामका तीसरा ध्यान कहा है। ४-निरञ्जन-निर्मल सिद्ध भगवानका पालम्बन लेकर उनके साथ आत्माके एकपनका अपने हृदयमें एकाग्रतापूर्वक जो चिन्तन किया जाता है, उसे "रूपातीत" नामका चौथा ध्यान कहा है। धर्मध्यानका फल धमध्यान मुनियों तथा गृहस्थों की आत्माओंको शुद्ध करता है, लेश्याओं का निर्मल बनाता है, दुष्कर्मा को जलाता है तथा कामाग्नि के लिये मेघ समान है। यद्यपि यह धमध्यान पालम्बन सहित है नथापि निरन्तर अभ्यास करनेसे शुद्ध होता हुआ यह क्रमक्रमसे ध्यान करनेवाले को पालम्बन रहित निर्मल शुद्ध ध्यान तक पहुँचा देता है। स्पष्टीकरण जो भव्य प्राणी अपने संसारको कम करना चाहते हैं अथवा कर्मबन्धनसे छूटना चाहते हैं, उनको संसारको असार जानकर Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय विरक्त भावसे देखना चाहिये, जैसे कि कमल पानीमें रहता हुआ पानीसे अलहदा रहता है। इस कर्मबन्धनसे छूटनेका मुख्य गुरु चित्त और इन्द्रियोंको काबूमें रखना है अर्थात् इन्द्रियों और मनको कभी बुरे विषयों और बुरे विचारोंकी ओर नहीं जाने देना है। मनुष्यको सदा अच्छे विचार और शुभ भावना ध्याना चाहिये । जैसे-एक-न-एक दिन हमको अवश्य मरना है। इस कारण कोई अशुभ विचार व कर्म न करना चाहिये । जैसा बीज बोओगे वैसा फल पाओगे। शुभ कर्म करोगे शुभ फल पाओगे, दुष्कर्म करोगे दुष्फल मिलेगा। संसार में यह आत्मा अकेला पाया है और अकेला ही जायगा। जो गृहस्थकी मर्यादा है उसके बाहर गृहस्थको नहीं जाना चाहिय । सदा शुभ विचार मनसे और न्याय-युक्त कार्य कायसे और मृदु और कोमल वचन मुखसे उच्चारित करते रहना चाहिये। कभी किसी प्राणी-मात्रके प्रति हमको बुरे ख्याल या बुरे विचार कभी नहीं लाने चाहिये । केसीसे ईपी. द्वंप तथा अहंकार और मान नहीं करना चाहिये । शुक्लध्यान जिस ध्यानमें विषयों का सम्बन्ध होनेपर भी वैराग्य-बलसे वेत्त बाहरी विपयोंकी ओर नहीं जाता है तथा शारीरिक छेदनदिन होनेपर भी स्थिर हुआ चित्त ध्यानसे लेशमात्र भी नहीं वगता है, उसको "शुक्लध्यान" कहते हैं। "उत्तराध्ययन" सूत्र में कहा है कि Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * ध्यानका स्वरूप * ३१३ - - "गं जाय जीय पंच" अर्थात् एक मन को जीतनेसे पाँच इन्द्रियाँ वशमें हो जाती हैं। और भी कहा है कि मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमाक्षयोः" अर्थात् कर्मसे बाँधनेवाला तथा छुड़ानेवाला मन ही है। "प्रसन्नचन्द्र" राजर्पिकी भाँनि मनको जीतनकी आवश्यकता है । श्रीकृष्ण कहते हैं कि "हे अर्जुन ! उनको वश करना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि मन अनि चपल है परन्तु निरन्तर अभ्यास करने और वैराग्यसे मन वशमें हो सकता है।" शुक्लध्यान सिफ़ आदर्श मुनि ही ध्या सकने हैं, गृहस्थको शक्तिम मवथा बाहर है। शुक्लध्यानका आलम्बन मुनीश्वरोको शुक्ल ध्यानपर चढ़ने केलिये क्षमा, मार्दव, आर्जव और निर्लोभता, ये चार आलम्बन बताये गये हैं। शुक्लध्यानक भंद शलध्यानके चार भेद हैं--(१) पृथक्त्ववितर्कवीचार, (२) एकत्ववितर्कवींचार. ( ३ ) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और (४) व्युपरतक्रियानिवृनि । इनमसे पहले दो 'श्रुतकेवली'के और पीछेके दो 'कवली के होते हैं। ___ *"शुक्ल चाय पूर्वविदः", "पर केवलिनः", :पृथचकन्यवितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि" । -उमास्वाति। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय - शुक्लध्यानके चार पदोंमेंसे आदिके दो पद शब्द, अर्थ तथा योगका कुछ आलम्बन लेते हैं, अतः ये आलम्बनसहित हैं और अन्तके दो पद केवलीभगवानके मोक्ष,जानेके पहिले अन्तिम कालमें होते हैं, अत: ये दोनों परम शुद्ध और पालम्बनरहित होते हैं। शुक्ल ध्यानीक जब तीनों योग रहते हैं. तब मनोयोग,वचनयोग और काययोग बदलते रहते हैं-शब्दस अर्थम और अर्थसे शब्द में संक्रमण होता रहता है। उस समय में विचार तथा नानावितर्क सहित शल ध्यिानका प्रथम पाद-पहिला भेद 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति' होता है। ___ शब्द, अर्थ और योगके आश्रयसे संक्रमण तीन प्रकारका जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । ( १ ) एक शब्दका पालम्बन लेकर फर दूसरे शब्दका पालम्बन लेकर ध्यान करना शब्दसंक्रमण है। (२) काययोगसे वचनयोग और वचनयोगमे मनायोगम प्रवृत्त होना 'योगसंक्रमण है । और ( ३ ) एक पदार्थका विचार कर फिर उसे छोड़कर मरे पदार्थका विचार करना 'अर्थमंक्रमगा है। शब्दसंक्रमणा, अर्थमंक्रमण और योगमंक्रमगा, इस तरह तीन संक्रमण हैं। शक्लध्यानकं प्रकरणमे जो वीचार शब्द आता है. उसका अर्थ उक्त मंक्रमण है। जिस अवस्थामें शुक्लध्यानी मुनिक नीन योगामसे एक ही योग होता है. उस समय बहुपनेका प्रभाव होनेसे संक्रमण नहीं * "येकयोगकाययोगायोगानाम्", "वितर्क : श्रुतम्", "वीचारोऽर्थम्यानयोगसंक्रान्तिः"। -उमास्वाति। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ध्यानका स्वरूप * ३१५ होता है। ऐसी अवस्थामें 'एकत्ववितर्कवीचार' नामक शक्लध्यानका द्वितीय पाद होता है। जिस समय मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय होनेसे चार घातिया कोका क्षय होजाता है उस समय सम्पूर्ण अतिशयों सहित निर्मल केवलज्ञान प्रकट होजाता है। केवलज्ञान प्राप्त हो जानेपर वीतराग जिनेन्द्र भगवानकी जगत के कल्याणकारी मार्गमें 'जिन' नामकर्मके उदयसे तथा अहिंसारूप दयाके अनन्त प्रवाह के बहनसे स्वतः प्रवृत्ति होती है । उस समय केवली भगवान तच्चरूपी अमृतकी वृष्टि करके संसारमें परम शक्ति उत्पन्न करते हैं तथा मोक्षका मार्ग दिखलाकर जगत की सेवा करते हैं। जब शुक्लध्यानी केवली भगवान अन्त समय में स्थूल काययोगको सूक्ष्म करते हैं तथा सूक्ष्म काययोगमें रहकर मनायोग और वचनयोगको रोकते हैं, उस समय केवल सूक्ष्म काययोगकी सूक्ष्म क्रियाके रहजानेसे 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति' नामका शक्लध्यानका तृतीय पाद होता है। अरहन्त भगवान् जब मोक्ष स्थानकेलिये गमन करते हैं. उस समय वे सूक्ष्मकाययोगका भी निरोध करके पाँच हस्व स्वरके उचारण कालकी बराबर मेरु पर्वतकी तरह निश्चल रहते हैं। मर्थात् शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होते हैं । यही 'व्युच्छिन्नक्रिया' या 'व्युपरतक्रियानिवृत्ति' नामका शुक्लध्यानका चतुर्थ पाद होता है। इस पादमें समस्त अर्थकी समाप्ति होजाती है तथा मोक्ष पद निकट रह जाता है। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३१६ जेलमें मेरा जैनाभ्यास. तृतीय शुक्लध्यानकी योग्यता और उसकी प्राप्ति शुक्लध्यान-अवस्था प्राप्त करनेकेलिये चित्तकी पूर्ण स्थिरता, आत्माकी अपरिमित शक्ति, वनऋषभनाराचसंहनन तथा स्थिर और अत्यन्त दृढ़ वैराग्य होना चाहिये । इस पञ्चम कालमें अर्थात वर्तमान समय में इन साधनोंका अभाव है। अतः जब तक ये साधन प्राप्त न हों, तब तक आगामी काल में प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हुये शक्लध्यान की भावना भाना चाहिये । शक्लध्यानकी भावना भानेमें निम्नलिखित भावनाएँ अत्यन्त सहायता प्रदान करनेवाली हैं १-यह शरीर अशुभ और अशुचि है। २-संसारमें भ्रमण करना हुश्रा यह जीव अनन्त पुद्गल परावर्तन कर चुका है। ३-यह जगन अस्थिर है-विनश्वर है। ५-सम्पूर्ण पाप आत्माको हानि पहुँचानवाले हैं। जीवको इन चार भावनाओंका मदा चिन्तन करते रहना चाहिये। स्पष्टीकरण जो योगी चौरामी लक्ष जीवयोनिमें बचना चाहते हैं अर्थात् मुनिके इच्छुक हैं, उनकी मदा शुक्लध्यान में रमण करते रहना । चाहिये । जिन्होंने संमारकी समस्त पोद्गलिक वस्तुओंसे मोहका । त्याग कर दिया है और अपनी आत्माके असली स्वरूपको जान Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * ध्यानका स्वरूप * ३२७ लिया है, वे इस ध्यानको ध्याकर अनन्त-अक्षय-अमर पदको प्राप्त कर सकेंगे। जो इस ध्यानमें मग्न होते हैं, उन्हें दुनियाँके कोई भी दुःख क्लेश नहीं पहुँचा सकते । वे सदा आनन्दमग्न रहते हैं। जैसे कि 'गजसुकमालजी' के सिरपर उनकी ध्यान अवस्थामें 'सोमल' ब्राह्मणने अपने पूर्वभवक वैरक कारण मट्टी की बाढ़ बाँध कर उसमें जलती हुई तेज अग्निके अंगारे रख दिये थे, जिससे कि 'गजमुकमाल' मुनिका सिर खदबद करने लगा था। पर मुनिने अपने ध्यान में यही सोचा कि यह शरीर मुझसे पृथक है एवं नाशवान है और मेरी आत्मा अजर, अमर. अखण्ड और अविनाशी है । इस कारण मुझको अपने शरीर का कुछ ख्याल नहीं करना चाहिये और ध्यानमें प्रारूढ़ रहना चाहिये । जिसका परिणाम यह हुआ कि गजसुकमाल मुनिको केवलज्ञान और केवलदर्शनकी प्राति हुई और उन्होंने उसी समय निर्वाणपदकी प्राप्ति की। इसी प्रकार एक नहीं अनेक मुनियों ने जिन्होंने अपनी प्रात्माके असली स्वरूपको पहचान लिया था, नाना प्रकारके मारणान्तिक कष्टोंको शान्ति और सरल भावसे सहकर परम आनन्द अवस्थाको प्राप्त किया और मोक्ष पधारे । आधुनिक समयमें भी बहुतसे प्रात्मकल्यागी मुनियोंने समयपर अन्न-जल न मिलने के कारण जंगलों में शान्ति भावसे परिपहोंको सहते हुए 'सन्थारा' धारण किया है और 'पण्डितमरण' किया है। इसी प्रकार संसारमें भव्य प्राणियोंको, जिन्हें अपना मनुष्य-जन्म Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय कृतार्थ करना है, उन्हें सदा अपनी मर्यादाका पालन करते रहना चाहिये और अगर संकटका समय था जाय तो उन्हें मर्यादाका उल्लङ्घन न करना चाहिये । क्योंकि यह एक संकटका समय ही आत्माके बलाबलकी कसौटी है। जो प्राणी संकट के समय में अपनी मर्यादाका पालन करते हुए अपने प्राणोंपर बाजी लगा देते हैं, वे अपने मनुष्य जन्मको सफल बनाते हैं । ध्यानके लाभ पहले कहा जा चुका है कि मनकी एकाग्रताको 'ध्यान' कहते | इसका अर्थ अभ्यासीकी दृष्टिसे ऐसा भी किया जा सकता है. कि मनको एक बनानेका कार्य ध्यानका है। मनका एकाग्र करना या मनको किसी एक ओर लगा देना एक ही बात है। शूरवीर रण में विजय प्राप्त करता है. वह मनकी एकाप्रताका प्रभाव है। मुनि मोक्षमार्ग में परिषह सहन करता है, वह मनकी एकाताका प्रभाव है। विद्यार्थी परीक्षा में पास होता है, वह मनकी एकताका प्रभाव है। साधक किसी विद्या या मन्त्र की सिद्धि करता है, वह मनकी एकाग्रताका प्रभाव है। कवि कोई तलस्पर्शी, अलंकृत, रसपूर्ण, निर्दोष और रमणीय कविता करता है, वह मनकी एकाताका प्रभाव है। मेम्मरेजमके जो अद्भुत चमत्कार देखने में आते हैं, वह मनकी एकाग्रताका प्रभाव है। मनकी एकामताका बड़ा जबरदस्त प्रभाव है। संसार में जितने अद्भुत और विशिष्ट कार्य हुए हैं, होते हैं, और हो सकते हैं, वे सब इसी मनकी Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * ध्यानका स्वरूप ३१६ एकाग्रताके फल हैं। मनकी एकाग्रताके बिना संसारका और परमार्थका कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। मनकी एकाग्रतासेध्यानसे एक नृकोट परमात्मा तक बन सकता है। ऐसे लोकातिशायी ध्यान और ध्यानी केलिये हमारा शतशः नमस्कार है। व्यवहारमें भी ध्यानसे अनेक लाभ होते हैं। यथा:--धीमारी का दूर हो जाना या कम पड़ जाना; स्मरण शक्तिका बढ़ जाना; शारीरिक बलका बढ़ जाना: बुद्धिका निर्मल हो जाना; परिणामों का कोमल हो जाना, प्रकृति में सौजन्य, सौम्य आदि गुणोंका आविभाव हो जाना. इत्यादि । विशेष किमी भी विषय के भेद जो होते हैं, वे किसी दृष्टि-विशेषकी वजह से होते हैं। श्रात, रौद्र. धम और शुक्ल, ये चार ध्यानके भंद किसी और दृष्टिस हैं। ध्यानकं शुभ और अशुभ, ये दो भेद किमी और दृष्टिस हैं। शक्तध्यानकी बात छोड़ दीजिए । वह अपने अनुभवका विषय नहीं है। वह मुनियों की चीज हैं। लेकिन शंप तीन ध्यानोंका विषय गृहस्थमात्रके अनुभवका विषय है। उनके प्रत्यकके अलग-अलग भेद हम पूर्व में बतला प्राय हैं। वे भेद भी किसी-न-किसी भिन्न-भिन्न दृष्टि से किये हुए हैं। ___उसी प्रकार एक अन्य दृष्टिसे भी ध्यानके भेद होते हैं। वह दृष्टि है समयकी। एक ध्यान ऐसा होता है जो अल्पकाल या Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० * जलमें मेरा जनाभ्यास * [तृतीय किसी निश्चित समय तक ही किया जाता है और दूसरा ध्यान वह होता है जो कि जीवोंके व्यवहारनयसे महीनों रहता है। तीनों संध्याओं में जो सामायिक किया जाता है: पिण्डस्थ पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत जो ध्यानके भेद पूर्व में कहे जा चुके हैं, वे मेस्मरेजम, प्राणायाम आदि सब ध्यान 'अल्पकालीन' हैं। क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्गृष्टिको जो सांसा रिक अन्य अनेक कार्य करते हुए भी आत्मा का ध्यान बना रहता है. वह बीमार की जबतक बीमारी दूर न हो जाय तब तक और अनेक कार्य करते हुए जो अपनी बीमारीका ध्यान बना रहता है, वह किसी अभिमानीको अन्य अनेक कार्य करते हुए भी अपने मानापमानका जो हर समय ध्यान- ख्याल बना रहना है. वह: श्रीरामचन्द्रजीको सीताके वियोग में छह महीने तक इट वियोग' नामका ध्यान बना रहा और उसमें उनकी यह हालत हो गई कि वे जंगल के वृत्तों से पूछते फिरे कि आपने क्या मेरी सीता देखी है ? यह उसी तरह श्रीदेवीको भी श्री कृष्ण के वियोग में छह महीने तक 'वियोग' नामका धार्तव्यान बना रहा और जिसकी वजह से श्रीबलदेव जी श्रीकृष्णके शत्रको छह महीने तक कन्धेपर घरे फिरे और उसे हिलाते घुलाते और खिलाते-पिलाते रहे, यह: इत्यादि सब 'चिरकालीन' ध्यान है। इस 'चिरकालीन' ध्यानके बीच में अन्य अनेक ध्यान होजाते है Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ple ३२१ अवश्य, क्योंकि कोई भी ध्यान हो, अधिक-से-अधिक होता वह अन्तर्मुहूर्त तक ही है । अन्तर्मुहूर्तके बाद अवश्य ही कोई दूसरा ध्यान हो जायगा । इससे अधिक किसीका भी मन एक विषयपर स्थिर नहीं रह सकता। लेकिन फिर भी वह चिरकाल तककी ध्यानसन्तति व्यवहार में एक ही ध्यान कहलाता है । ] खण्ड * ध्यानका स्वरूप * * " उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिशेधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्" - उमास्वाति । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनाएँ ततस्त्रकारोंने मोक्षार्थी प्राणियोंकेलिये बारह प्रकारकी " भावनाओं (अनुप्रेक्षाओं) का वर्णन किया है। वे इस प्रकार हैं १ अनित्य, २ अशरण, ३. संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६ अशचि. ७ श्राव, ८ संवर, ह निजरा. १० लोक. ११ बोधिदुर्लभ और १२ धर्मस्त्राख्यातत्व* । (१) अनित्य--इन्द्रियोंके विषय, धन, यौवन, जीवितव्य आदि पानीके बुलबुले के समान है-अस्थिर अर्थात अनित्य हैं, एसा विचार करना अनित्य भावना है। ___ यह भावना 'भरत' नामक चक्रवर्तीने भाई थी। जिसके कारण वे केवलज्ञान प्राप्त कर दम हजार मुकटबन्ध गजाओंको दीक्षा दे लक्ष पूर्वका साधुपना पाल मोक्ष पधार। किस प्रकार उनकी अंगूठी गिरी और किस प्रकार उन्होंने पुद्गल को असार समझा। इत्यादि वृत्तान्त अन्य जैन शाम्रोमें दिया हुअा है, वहाँसे समझना चाहिय। • अनिन्याशरणसंसार कन्चान्यवाशुर माश्रवसंवरनिर्जरालोकोधिदुलमधर्मस्वास्यातवानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ।" -उमास्वति । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भावनाएँ * ३२३ (२) अशरण--जैसे बनके एकान्त स्थानमें सिंहके द्वारा पकड़े हुए मृगकी कोई शरण नहीं होता है, उसी प्रकार इस संसारमें कालके गालमें पड़ते हुये जीवोंकी भी कोई रक्षा करने वाला-शरण नहीं है। इस प्रकार चिन्तन करना 'शरण' भावना है। किस प्रकार 'प्रभूतधन' सेठके पुत्रने रोगको वेदनाके कारण अपनेको अनाथ जाना; किम प्रकार उन्होंने दीक्षा ली; किस प्रकार 'श्रेणिक' राजाको नाथ-अनाथका भेद समझाया और किस प्रकार अशरण भावनाके कारण अपने मनुष्य-जन्मको उन्होंने सफल बनाया। इत्यादि बातें अन्य जैनशास्त्रोंसे जानना चाहिये । (३) संसार-यह जीव निरन्तर एक देहसे दूसरी देहमें जन्म ले-लकर चतुगतिमें परिभ्रमण किया करता है जिसके कारण इसकी अनेकों दुःख उठाने पड़ते हैं । अतएव यह संसार दुःखमय है, इत्यादि संसार के स्वरूपका चिन्तन करना 'संसार' भावना है। किस प्रकार 'मलीकुमारी ने अपने पूर्वभवके मित्र छहों राजाओंको बोध देकर दीक्षा ली; किस प्रकार तीर्थक्कर पदको प्राप्त कर निर्वाण पद प्राप्त किया; किस प्रकार छहों राजाओंको संसार भावना भाते हुए जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ और किस प्रकार दीक्षा ले उन्होंने अपना मनुष्य-जन्म सफल किया। इत्यादि वर्णन अन्य जैन शास्त्रोंसे अवलोकन करना चाहिये। * "संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः" -पूज्यपादाचार्य। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** जेल में मेरा जैनाभ्यास # [तृतीय ( ४ ) एकत्व - जन्म, जरा, मरण, रोग, वियोगादि महा दुःखोंमें अपने को असहाय - एकाकी चिन्तन करना अर्थात् सुखदुःख सहने में मैं अकेला हूँ, मेरा कोई साथी नहीं है, इत्यादि विचार करना 'एकत्व' भावना है। ३२४ किस प्रकार 'मृगापुत्र कुमार को मुनि महाराजको देखकर जातिस्मरण ज्ञान हुआ; किस प्रकार उन्होंने अपने माता-पिता से आज्ञा माँगी और किस प्रकार इस जगत् में कोई किसीका नहीं है- धन धरती में, पशु स्थानमें, धान्य कोठो में, वस्त्र गठरी में, स्त्री दरवाजे तक, माता बाजार तक, स्वजन श्मशान तक और यह शरीर चिता तक जायगा, आगे शुभाशुभ कर्मके साथ जीव अकेला ही जायगा, इस प्रकार एकत्व भावना भाते हुए संयम धारण कर एकलविहारी हो मोक्ष प्राप्त की । इत्यादि बातोका वर्णन अन्य जैन शास्त्रोंसे जान लेना चाहिये । ( ५ ) अन्यत्व - शरीर-कुटुम्बादिसे अपने स्वरूपको भिन्न चिन्तन करना 'अन्यत्व' भावना है। किस प्रकार 'नमि' राजाको दाहवर उत्पन्न हुआ; किस प्रकार चन्दन घिसनेमें रानियोंके एक-एक कङ्गनका बजना बन्द हो गया; किस प्रकार अन्यत्व भावना भाते हुए उन्हें नींद आ गई और योग चला गया; किस प्रकार उन्होंने संयम धारण कर इन्द्रको उसके प्रश्नोंका उत्तर दिया और किस प्रकार संयम धारा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * भावनाएँ * ३२५ - - धना कर वे मोक्ष गये । इत्यादि बातोंका वर्णन अन्य जैन शास्त्रों से समझ लेना चाहिये। (६) अशुचि-यह शरीर हाड़, माँस, मल, मूत्र आदि अशुचि पदार्थासे भरा हुआ महा अपवित्र है। इस प्रकार अपने शरीरके स्वरूपका चिन्तन करना 'अशुचि' भावना है। किस प्रकार 'सनत्कुमार' चक्रवर्तीने अपने स्वरूपका मद कियाः किस प्रकार उनको कुष्ट रोग हुआ और किस प्रकार मंयम पाल नीरोग हो उन्होंने मोक्षको प्राप्त किया । इत्यादि वर्णन अन्य जैन शाम्रास जानना चाहिये । (७) आम्रव-मिथ्यात्व. अविरति, कपायादिकांसे कर्मोका श्राव होता है। श्राव ही संसार में परिभ्रमणका कारण और आमाके गुणों का घातक है। इस प्रकार अाम्रवके स्वरूपका चिन्तन करना 'मानव' भावना है। किस प्रकार 'समुद्रपाल ने चोरको बन्धनमें देखकर अशुभ कर्मा का ख्याल किया: किस प्रकार प्रास्रव भावना भाते हुए उन्होंने वैराग्य प्राप्त किया और किस प्रकार वे दीक्षा धारण कर, कर्म क्षय कर मोक्ष गये । इत्यादि बातों को अन्य जैन शास्त्रोंसे समझ लेना चाहिये। (८) *मंवर-गुप्ति. सामेति, धर्म, अनुप्रक्षा, परीपहसन आदिसे आते हुए कर्म रुकते हैं। इस प्रकार संवरके स्वरूपको चिन्तन करना 'संवर' भावना है। * "प्रानवनिरोधः संवरः", "स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रक्षापरीपहजपचारित्रैः।" -उमास्वाति । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय किस प्रकार 'हरीशबल' नामक चाण्डाल आत्मघात करने गया; किस प्रकार •मुनि महाराजने उसे प्रतिबोध दिया; किस प्रकार उसने संयम पाल ब्राह्मणोंको संवरके बारेमें प्रतिबोध दिया; किस प्रकार उनसे हिंसारूप धर्मका त्याग कराया और धर्म स्वीकार कराया और किस प्रकार मुनिराज करणी कर मोक्ष गये । इत्यादि विचारना चाहिये । (१) निजग--निर्जरा कर्मों की किस प्रकार होती है कैसे उपायोंसे होती है; इत्यादि निर्जराके स्वरूपको बारम्बार चिन्तन करना 'निर्जरा' भावना है। किस प्रकार 'अर्जुन' मालीने अपने कर्मों की निजरा कर मोक्ष प्राप्त किया । इत्यादि विचारना चाहिये । (१०) लोक-लोक कितना बड़ा है. उसमें क्या-क्या रचना है: कौन-कौन जानिके जीवोंका कहाँ-कहाँ निवास है। इत्यादि लोक के स्वरूपको चिन्तन करना लोक भावना है। बनारसके तपोवन में दुष्कर तपम्वी 'शिवराज ऋपिको किम प्रकार विमङ्गज्ञान हुआ; किम प्रकार भगवान के पास आते ही उनका अज्ञान मिट गया: किम प्रकार उन्होंने संसारका असली स्वरूप देख लोक भावना भान हुए दीक्षा ली और किस प्रकार वे संयम पाल मोक्ष गये । इत्यादि विचारना चाहिये । (११) बोधि-दुर्लम-सम्यग्दर्शन. सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र, इस रखत्रय को 'बोधि' कहते हैं। इस बोधिकी प्राप्ति होना Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * भावनाएं * ३२७ अतिदुर्लभ है । इसकी दुर्लभताका बारम्बार चिन्तन करना 'बोधिदुर्लभ' भावना है। किस प्रकार 'भरत' चक्रवर्तीने अपने ६८ भाइयोंसे आज्ञा • माननेको कहा; किस प्रकार वे ऋषभदेवजीके पास गये और किस प्रकार वे ऋषभदेव भगवानका उपदेश सुनकर सम्यक्त्व. युक्त चारित्र अङ्गीकार कर मोक्ष गये । इत्यादि विचारना चाहिये। (१२) धर्मस्वाव्यातत्व-वस्तुका स्वभाव 'धर्म' कहलाता है। आत्माका शुद्ध निमल स्वभाव ही अपना धर्म है तथा दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप वा अहिंसा रूप धर्म है: इत्यादि धर्मके स्वरूप को बारम्बार चिन्तन करना 'धमम्वाख्यातत्त्व' भावना है। किस प्रकार 'धर्मरुचि मास.क्षमनके पारने 'नागश्री ब्राह्मणी के गये; किस प्रकार उसने कटुक तुम्बका शाक वैरायाः किस प्रकार गुरुजीको दिखाया; किस प्रकार गुरुजीने निर्वध स्थान पर पठानको कहा: किस प्रकार चींटियाँ मरी; किस प्रकार अपने पंट को निर्वध स्थान जानकर खा गये और किस प्रकार शान्त भावसे धर्म भावना भात हुए काल करके सर्वार्थसिद्धि महाविमानमें देवता हुए । इत्यादि विचारना चाहिये। __ अनेक प्राणियोंने उपरोक्त एक-एक भावनाको भाते हुये मोक्ष को प्राप्त किया है । जो प्राणी अपना मनुष्य-जन्म सफल बनाना चाहते हैं, उनको उपरोक्त भावनाओंको सदा ध्याते रहना चाहिये। - Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम इतस्त्रकारोंने संमयके सात भेद बतलाये हैं। वे निम्न २ प्रकार हैं: १-सामायिक, २-छदोपस्थापना, ३-परिहारविशुद्धि, ४-सूक्ष्मसाम्पराय, ५-यथाख्यात, ६-देशविरति और -अविरति । (१) सामायिक-जीवको जो मम भावकी ( राग-द्वपके अभावकी ) प्रानि होती है, वह सामायिक संयम है। इसके (क) इत्वर और (ख) यावत्कथित, ये दो भेद हैं। (क)-इत्वरसामायिक मंयम वह है, जो उपस्थापनार्थी शिष्यों को स्थिरता प्राप्त करने के लिये पहले-पहल दिया जाता है और जिसकी काल-मर्यादा उपस्थापन पर्यन्त-बड़ी दीक्षा लेने तक मानी गई है। यह मंयम भग्न-ऐगवन क्षेत्रमें प्रथम तथा अन्तिम तीथकरके शासन के समय ग्रहण किया जाता है। इसके धारण करनेवालाको प्रतिक्रमग सहित पांच महात्रन अङ्गीकार करने पड़ते हैं तथा उस समयके म्वामी 'स्थितकल्पी' होते है। (ख) यावत्कथित सामायिक संयम वह है, जो ग्रहण करने के समयसे जीवन पर्यन्त पाला जाता है। यह संयम भरत-ऐराबत तंत्रमें मध्यवर्ती बाईस तीर्थकरोंक शासनमें प्रहण किया Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संयम * ३२६ जाता है। महाविदेह क्षेत्रमें तो यह संयम सब समयमें लिया जाता है । इस संयमके धारण करनेवालोंको महावत चार और कल्पस्थितास्थित संयम होता है। (२) छेदोपस्थापना-प्रथम संयम-पर्यायको छेद कर फिरसे उपस्थापन (व्रतारोपण ) करना-पहले जितने समय तक संयमका पालन किया हो. उनने लमयको व्यवहारमे न गिन कर और दुबारा संयम ग्रहण करनेके समयसे दीक्षा-काल गिनना व छोटे-बड़का व्यवहार करना छेदोपस्थापना मंयम' कहलाता है। इसके (क) मानिचार और (ख) निरतिचार. ये दो भेद हैं: (क) सातिचार बंदोपस्थापना संयम वह है, जो किसी कारणसे मूलगुणोंका--महात्रतोंका--भङ्ग हो जानेपर फिरसे ग्रहण किया जाता है। ___(ख ) निरतिचार दोपस्थापना उस सयमको कहते हैं, जिमको इत्वरसामायिक संयमवाले बड़ी दीक्षाके रूप में ग्रहण करते हैं। यह संयम, भरत-ऐरावत क्षेत्रमें प्रथम तथा चरम तीर्थकरके साधुओं को होता है और एक तीर्थ के साधु, दूसरे तीर्थमें जब दाखिल होते हैं। तब उन्हें पुनर्दीक्षाके रूपमें यही संयम दिया जाता है ! * जैसे श्रीपार्श्वनाथके केशी-गाङ्गेय आदि सान्तानिक साधु, भगवान् महावीरके तीर्थ में जब दाखिल हुये थे, तब उन्हें दिया गया था। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास - [तृतीय (३) परिहारविशुद्धि संयम-वह है जिसमें परिहार विशुद्धि' नामकी तपस्या की जाती है। परिहारविशुद्धि' तपस्या यह है कि:-- ___ नौ साधुओंका एक गण (समुदाय ) होता है, जिसमेंसे चार तपस्वी बनते हैं और चार उनके परिचारक ( तीन सेवक और एक वाचनाचार्य ) का काम करते हैं। जो तपस्वी हैं, वे ग्रीष्मकालमें जधन्य एक, मध्यम दो और उत्कृष्ट तीन उपवास करते हैं । शीतकालमें जघन्य दो, मध्यम तीन और उत्कृष्ट चार उपवास करते हैं और वर्षाकालमें जघन्य तीन, मध्यम चार और उत्कृष्ट पाँच उपवास करते हैं । तपस्वी पारणा दिन अभिग्रह सहित आयंबिल व्रत करते हैं। यह क्रम छह महीने तक चलता है। ___ दूसरं छह महीने में पहलके तपस्वी तो परिचारक बनते हैं और परिचारक तपस्वी । दूसरे छह महीने में तपम्वी बने हुये साधुओंकी तपम्याका वही क्रम होता है, जो पहिले तपस्वियोंकी तपस्याका होता है। परन्तु जो साधु परिचारक-पद ग्रहण किय हुये होते हैं, वे सदा आयंबिल ही करते हैं। दूसरे छह महीने के बाद, तीसरं छह महीने के लिये वाचनाचार्य ही तपम्वी बनता है: शेष आठ साधुओंमसे कोई एक वाचनाचार्य और बाकी के सब परिचारक होते हैं। इस प्रकार तीसरे छह महीने पूर्ण होने के बाद अठारह मासकी यह 'परिहारविशुद्धि' नामक तपस्या समाप्त होती है। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * संयम - ३३१ - इसके बाद वे जिनकल्प ग्रहण करते हैं अथवा वे पहिले जिस गच्छ या टोलेके रहे हों, उसीमें दाखिल हो जाते हैं या फिर भी वैसी ही तपस्या शुरू कर देते हैं। परिहारविशुद्धि संयमके निर्विश्यमान और निविष्टकायिक, ये दो भेद हैं। वर्तमान परिहार विशुद्धिको 'निर्विश्यमान' और भूत परिहारविशुद्धिको 'निर्विष्टकायिक' कहते हैं। (४) सूक्ष्मसांपराय-जिस संयममें सम्पराय ( कपाय) का उदय सूक्ष्म (अतिस्वल्प) रहता है, वह 'सूक्ष्मसम्पराय संयम' है। इसमें लोभ कषाय उदयमान होता है, अन्य नहीं । यह संयम दसवें गुणस्थानवालोंको होता है । इसके (क) संक्लिश्यमानक और (ख) विशुद्धयमानक, ये दो भेद हैं। (क) उपशमणिसे गिरनेवालोंको दसवें गुणस्थानकी प्रापिके समय जो संयम होता है, वह 'संक्लिश्यमानक सूक्ष्म सांपराय संयम' है. क्योंकि उस समयके परिणाम संक्लेश-प्रधान ही होते जाते हैं। उपशमणिसे क्षपकणिपर चढ़नेवालोंको दसवें गुणस्थानमें जो संयम होता है, वही 'विशुद्धयमानक सूक्ष्मसाम्पराय संयम' है, क्योंकि उस समयके परिणाम विशुद्धि-प्रधान ही होते हैं। (५) जो संयम यथातथ्य है अर्थात् जिसमें कषायका उदयलेश भी नहीं है, वह 'यथाख्यात संयम' है। इसके ( क ) छानास्थिक और (ख) अछामास्थिक, ये दो भेद हैं । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय - - (क) छाद्मास्थिक यथाख्यात संयम वह है, जो ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवालोंको होता है । ग्यारहवें गुणस्थानकी अपेक्षा बारहवें गुणस्थानमें विशेषता यह है कि ग्यारहवेंमें कषाय का उदय नहीं होता, उसकी सत्तामात्र रहती है; और बारहवेंमें तो कषायकी सत्ता भी नहीं रहती। (ख) अछामास्थिक यथाख्यात संयम कंवलियों को होता है। सयोगी केवलीका संयम 'सयोगि-यथाख्यात' और अयोगी केवलीका संयम 'अयोगि-यथाख्यात है। (६) कर्मबन्ध-जनक प्रारम्भ-समारम्भसे किसी अंशमें निवृत्त होना 'देशविरति संयम' कहलाता है। इसके अधिकारी गृहस्थ हैं। (७) किसी प्रकारके संयमका स्वीकार न करना 'अविरति' है। यह दशा पहिलसे चौथे तक चार गुणस्थानों में पाई जाती है। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या अधिकार FASTमाका सहज स्वरूप स्फटिकके समान निर्मल है। aats उससे भिन्न परिणाम जो कृष्ण-नील आदि अनेक रंग वाले पुद्गल विशेषके असरसे होते हैं, उन्हें 'लेश्या' कहते है। दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि जिसकद्वारा आत्मा कोसे लिप्त होता है तथा जो योग और कपायकी तरंगसे उत्पन्न होती हो उसको तथा मनके शुभाशुभ परिणामको 'लश्या' कहते हैं। ज्ञानियोंने लेश्याकं मुख्य दो भेद बताये हैं । १-द्रव्य श्या, और २-भाव लश्या। १-द्रव्य लेश्या-कर्म वर्गणास बनती है। फिर भी वे पाठ कर्मोसे भिन्न हैं। जैसे कार्मण शरीर। २-भाव लश्या-आत्माका परिणाम-विशेष है, जो संक्लेश और योगसे अनुगत है। ___ संक्लेशके तीत्र, तीव्रतर, तीव्रतम; मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद हैं। भाव लेश्या अनेक प्रकारकी है। तथापि ज्ञानियोंने संक्षेपमें छह विभाग करके शास्त्रमें उसका स्वरूप दिखाया है। "जोगपडत्ती बेस्सा कषायउड्याएरंजिया होई" -गोम्मटसार । अर्थात् कषायोदयसे अनुरक्षित योगोंकी प्रवृत्तिको "बेश्या" कहते हैं। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय १-कृष्ण लेश्या, २-नील लेश्या, ३-कापोत लेश्या, ४-तेजो लेश्या, ५-पद्म लेश्या और ६-शुक्ल लेश्या। ___ नीचे लिखे दृष्टान्तसे छहों लेश्याओं का स्वरूप प्रासानीसे समझमें आ जायगा। ___ कोई छहों पुरुष जम्बू फल खाने की इच्छा करते हुए चले जा रहे थे। इतनेमें जामुनके :वृक्षको देख कर उनमेंसे एक पुरुष बोला-“लीजिये, जामुनका वृक्ष तो आ गया। अब फलोंके लिये ऊपर चढ़नेकी अपेक्षा फलोंसे लदी हुई बड़ी-बड़ी शाख वाले इस वृक्ष को काट गिराना ही अच्छा है।" यह सुन कर दूसरेने कहा-"वृक्ष काटनेसे क्या लाभ ? केवल शाखाओंको काट दो।" तीसरंने कहा- यह भी ठीक नहीं, छोटी-छोटी शाखाओंको काट लेनेसे भी तो काम निकल सकता है।” चौथेने कहा-"शाखायें भी क्यों काटते हैं ? फलोंके गुच्छोंको तोड़ लीजिये ।' पाँचवाँ बोला-"गुच्छोंसे क्या प्रयोजन ? उनमेंसे कुछ फलोंको ही ले लेना अच्छा है।” अन्तमें छठे पुरुषने कहा-"ये सब विचार निरर्थक हैं: क्योंकि हम लोग जिन फलों को चाहते हैं, वे तो नीचे भी बहुतसे गिर पड़े हैं। क्या उनसे अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता ?" ___ इस दृष्टान्तसे लेश्याओंका स्वरूप स्पष्ट जाना जा सकता है। छहों पुरुषोंमें पूर्व-पूर्व मनुष्योंके परिणामोंकी अपेक्षा उत्तर-उत्सर मनुष्यों के परिणाम शुभ, शुभतर और शुभतम पाये जाते हैं। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * लेश्या अधिकार * ३३५ उत्तर-उत्तर पुरुषोंके परिणामों में संक्लेशकी न्यूनता और मृदुताकी अधिकता पाई जाती है। प्रथम पुरुपके परिणामोंको कृष्ण लेश्या, दूसरेके परिणामोंको नील लेश्या, तीसरेके परिणामों को कपोत लेश्या, चौथेके परिणामोंको तेजो लेश्या, पाँचवेंके परिणामोंको पद्म लेश्या और छठेके परिणामोंको शुक्ल लेश्या समझना चाहिये। अब अलग-अलग लण्याओंके पुद्गलोंका वर्ण व प्रात्मा पर प्रभाव व उनके प्रभावसे प्राणी कैसे-कैसे अशुभ और शुभ कम करता है. उसका वर्णन करते हैं: १-काजलके समान कृष्णवर्णके लेश्या जातीय पुद्गलोंके सम्बन्धसे आत्मामें ऐसा परिणाम होता है, जिससे हिंसा आदि पांचों श्रावोंमें प्रवृत्ति होती है। मन, वचन तथा शरीरका संयम नहीं रहता; स्वभाव क्षुद्र बन जाता है; गुण-दोषकी परीक्षा किये बिना ही कार्य करनेकी आदतसी हो जाती है और क्रूरता श्रा जाती है. यह परिणाम कृष्ण लेश्या' है। इस लेश्यामें मरने वाला जीव सातवें नरक तक पहुँचता है और तेतीस सागरकी आयुःस्थिति प्राप्त करता है। ___२--आशोक वृक्षके समान नीले रंगके लेश्या-जातीय पुद्गलोंसे ऐसा परिणाम प्रात्मामें उत्पन्न होता है कि जिससे ईर्ष्या, असहिष्णता तथा माया-कपट होने लगते हैं; निर्लजता प्रा जाती है; विषयोंकी लालसा प्रदीत हो उठती है; रस-लोलुपता Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ * जेल में मेरा जनाभ्यास : [ननीय होजाती है और सदा पौद्गलिक सुखकी खोज की जाती है, यह परिणाम 'नील लेश्या' का है । इस लेश्यामें मरने वाला जीव चौथे नरक तक पहुंचता है और सत्रह सागरकी आयुः स्थिति तक पाता है। ३--कबूतरके गले के समान रक्त तथा कृष्ण वर्णके पुद्गलोंसे इस प्रकारका परिणाम प्रात्मामें उत्पन्न होता है, जिससे बोलने, काम करने और विचारनेमें सब कहीं वक्रता ही वक्रता होती है; किसी विषयमें सरलता नहीं होती; नास्तिकता आती है और दूसरोंको कष्ट हो, ऐसा भाषण करनेकी प्रवृत्ति होती है. यह परिणाम--'कापोत लेश्या'का है । इस लश्यामं मरनेयाला जीव तीसरे नरक तक पहुँचता है और सान सागरकी श्रायुः स्थिति तक पाता है। ४--तोतेकी चोंचके समान रक्त वर्णके लश्या-जातीय पुदगलोस एक प्रकारका आत्मामें परिणाम होता है, जिससे कि नम्रता आ जाती है; शठता दूर हो जाती है: चपलता रुक जाती है; धर्मम रुचि तथा दृढ़ता होती है और लोगोंका हित करनेकी इच्छा होती है, यह परिणाम 'तेजो लेश्या'का है। इस लेश्यामें मरने वाला जीव पहिले दूसरे स्वर्ग तक पहुँचता है और दो सागरको आयुः स्थिति तक पाता है। ५-हल्दीके समान पीले रंगके श्या-जातीय पुद्गलोंसे एक तरहका परिणाम प्रात्मामें होता है, जिससे क्रोध, मान, आदि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखड * लेश्या अधिकार * ३३७. कषाय बहुत अंशोंमें मन्द हो जाते हैं; चित्त प्रशान्त हो जाता है। आत्मसंयम किया जा सकता है; मित-भाषिता और जितेन्द्रियता आ जाती है. यह परिणाम "पद्म लश्या' का है । इस लेश्यामें मरनेवाला जीव पाँचवें स्वर्ग तक पहुँच सकता है और दस सागरकी आयुः स्थिति तक पाता है। ६-'शुक्ल लेश्या उस परिणामको समझना चाहिये, कि जिससे आत-रौद्र-ध्यान बन्द होकर धर्म-शुक्ल ध्यान होने लगता है। मन, वचन और शरीरको नियमित बनाने में रुकावट नहीं आती, कपायकी उपशन्ति होती है और वीतराग-भावकी वृद्धि करनेकी भी अनुकूलता हो जाती है। ऐसा परिणाम शङ्खके समान स्वेत वर्णके लेश्या जातीय-पुद्गलोंके सम्बन्धसे होता है। इस लेयामें मरनेवाला जीव सर्वार्थसिद्धि विमान तक पहुँचता है और ३३ सागर तककी स्थिति तक पा सकता है। जीव अधिक-से-अधिक चौदह अवस्थाओंमें रह सकता है अर्थात् जीवके चौदह भेद हैं: १--सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, २--सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त ३-बादर एकन्द्रिय अपर्याप्त, ४-बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, ५-- बेइन्द्रिय अपर्याप्त, ६-येइन्द्रिय पर्याप्त, तेइन्द्रिय अपर्याप्त, ८-तेइन्द्रिय पर्यात, --चउरिन्द्रिय अपर्याप्त, १०--चउरिद्रिय पर्याप्त, ११--प्रसन्नी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त १२--असन्नी पञ्चेन्द्रिय Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ [तृतीय * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * पर्याप्त १३-सन्नी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और १४--सन्नी पञ्चे- । न्द्रिय पर्याप्त । ___ कौन-कौनसे जीवस्थानमें कौन-कौनसी लेश्या पाई जाती है उनका अब वर्णन किया जाता है: १--संझिद्विकमें अर्थात अपर्याप और पर्याप्र संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में छहों लेश्याएं होती हैं। २-अपर्याप्त बादर एकेन्द्रियमें कृष्ण श्रादि पहिली चार लेश्याएं होती हैं। ३-शेष ग्यारह जीवस्थानोंमें यानी अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त तथा पर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्र और पर्याप्र त्रीन्द्रिय अपर्याप्त तथा पर्याप्त चतुरिन्द्रिय और अपान तथा पर्यात अमंज्ञि पञ्चन्द्रियोंमें कृष्रम, नील और कापोत लेश्याएँ होती है। कृष्ण आदि तीन लेश्यायें मब एकेन्द्रयों के लिये साधा. रण हैं। किन्तु अपर्याप्त बादर एकेन्द्रियमें इतनी विशेषता है कि उसमें तेजों लेश्या भी पाई जाती है। क्योंकि तेजो लेश्यावाले ज्योतिषी आदि देव जब उसी लश्यामं मरते हैं और बाहर पृथ्वीकाय, जलकाय या वनम्पतिकायमें जन्म लेते हैं. तब उन्हें अपर्याप्र अवस्थामें भी तेजो लेश्या होती है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * लेश्या अधिकार * ३३६ यह नियम है कि जीव जिस लेश्यामें मरता है अर्थात् मृत्यु वाप्त करता है, जन्म लेते समय भी उसके वही लेश्या होती है । अपर्याप्त और पर्याप्तका अर्थः-- १--जो जीव अपर्याप्त नाम कर्मके उदयसे पूर्ण इन्द्रियाँ प्राप्त करनेसे पूर्व अर्थात् पेश्तर ही मृत्युको प्राप्त होता है, उसे 'अपयाप्त जीव कहते हैं। २-जो जीव पर्याप नाम कर्मके उदयसे पूर्ण इन्द्रियाँ प्राप्त करनेके बाद मृत्युको प्राप्त होता है, उसे 'पयांम' जीव कहते हैं। योगोंका लेश्याओंके साथ सम्बन्ध जिस प्रकार एक पके तालाबमें मोरियों द्वारा पानी आया करता है, उसी प्रकार श्रात्मारूपी तालाबमें योगरूपी नालियों द्वारा लश्यारूप निर्मल और गदला जल पाया करता है। ये योगरूपी नालियाँ पन्द्रह प्रकारकी होती हैं। __ चार मनकी, चार वचनकी और 'सात कायकी। इनमेंसे कुछ वे द्वार हैं, जिनके जरियेसे स्वच्छ जल अथवा शुभ लेश्या; और कुछ के द्वार हैं, जिनके जरियेसे गदला जल अथवा अशुभ लश्यारूपी जल आया करता है, वे निम्न प्रकार हैं: * मृत्यु के प्रायः अन्तर्मुहूर्त पहिले नूतन जन्मसम्बन्धी लेश्या प्राप्त हो जाती है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय - - योग शुभ अशुभ अशुभ शुभ - मन सत्य मनो योग असत्य मनोयोग मिश्र मनोयोग व्यवहार मनो योग वचन सत्य वचन योग असत्य वचनयोग मिश्र वचन योग व्यवहार वचन योग काय औदारिक काय वैक्रियिक काय पाहारिक काय कार्मण काय ___ योग योग योग योग औदारिक काय वैक्रियिक काय पाहारिक मिश्र मिश्र योग मिश्र योग . योग । इस कारण भव्य प्राणियोंको अशुभ योगोंको त्यागना चाहिये और शुभ योर्गोको ग्रहण करना चाहिये । दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि जो अपने मनुष्य जन्मको सफल बनाना चाहते हैं अर्थात् कर्म बन्धनोंसे छूटना चाहते हैं, उनको शुरूकी तीन लेश्याएँ यानी कृष्ण, नील और कापोन अथवा हिंसा, निर्दयता, दुष्परिणामता, ईर्ष्या, माया, कपट, लम्पटता, धोखा, झूठ, चोरी, मिथ्यात्व, नास्तिकता आदि अशुभ बातोंको छोड़ना चाहिये। और तेजो, पद्म और शुक्ल अथवा नम्रता, सरलता, सत्यता, अकपायपना, शान्ति, रागद्वेष रहितता, संयम, सम्यक्त्व, आदि शुभ गुणों सहित होना चाहिये। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान अधिकार जंग जो दर्शन आस्तिक हैं अर्थात् आत्मा, उसका पुन जन्म, उसकी विकासशीलता तथा मोक्ष-योग्यता माननेवाले हैं, उन सबमें किसी-न-किसी रूप में श्रात्माके क्रमिक विकासका विचार पाया जाना स्वाभाविक है। अतएव आर्यावर्त्त के जैन, वैदिक और बौद्ध इन तीनों प्राचीन दर्शनों में उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है। यह विचार जैन दर्शन में गुणस्थानके नामसे, वैदिक-दर्शन में भूमिकाओं के नामसे और बौद्ध दर्शन में अवस्थाओंके नामसे प्रसिद्ध हैं । गुणस्थानका विचार जैसा जैन दर्शन में सूक्ष्म तथा विस्तृत है वैसा अन्य दर्शनोंमें नहीं है, तो भी उक्त तीनों दर्शनोंकी उस विचार के सम्बन्धों में बहुत समता है अर्थात संकेत, वर्णनशैली आदिकी भिन्नता होनेपर भी वस्तु तत्रके विषय में तीनों दर्शनोंका भेद नहीं के बराबर है । वैदिक-दर्शन के योगवशिष्ठ, पातञ्जलयोग आदि प्रग्थों में आत्माकी भूमिकाओं का अच्छा विचार है । गुणस्थानोंका स्वरूप गुणों ( आत्मशक्तियों) के स्थानको अर्थात् विकासकी क्रमिक अवस्थाओंको 'गुणस्थान' कहते हैं । दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि मोह और योगके निमित्तसे सम्यक्ज्ञान, Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय - सम्यग्दर्शन और सम्यक् चरित्र रूप भात्माके गुणोंकी तारतम्य रूप.(हीनाधिकतारूप ) अवस्था विशेषको 'गुणस्थान' कहते हैं। • जैन शास्त्रमें गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्दका मतलब आत्मिक शक्तियोंके आविर्भावकी-उनके शुद्ध कार्यरूपमें परिणत होते रहनेकी तर-तम भावापन्न अवस्थाओंसे है। पर आत्माका वास्तविक स्वरूप शुद्ध चेतना और पूर्णानन्दमय है। उसके ऊपर जब तक तीव्र आवरणोंके घने बादलोंकी घटा छाई हो, तब तक उसका असली स्वरूप दिखाई नहीं देता। किन्तु प्रावरणों के क्रमशः शिथिल या नष्ट होते ही उसका असली स्वरूप प्रकट होजाता है। जब आवरणोंकी तीव्रता आखिरी हद्दकी हो, तब श्रात्मा प्राथमिक अवस्थामें-अविकसित अवस्थामें पड़ी रहती है और जब आवरण बिलकुल ही नष्ट होजाते हैं तब श्रात्मा चरम अवस्था-शुद्ध स्वरूपकी पूर्णतामें वर्तमान होजाता है। जैसे-जैसे आवरणोंकी : तीव्रता कम होती जाती है, वैसे-वैसे आत्माकी प्राथमिक अवस्थाको छोड़कर धीरे-धीरे शुद्ध स्वरूपका लाभ करता हुआ चरम अवस्थाकी ओर प्रस्थान करता है। प्रस्थानके समय इन दो अवस्थात्रोंके बीच उसे अनेक नीची. ऊँची अवस्थाओंका अनुभव करना पड़ता है। प्रथम अवस्थाको अविकासकी अथवा अधःपतनकी पराकाष्ठा और चरम अवस्था को विकासकी अथवा उत्क्रान्तिकी पराकाष्ठा समझना चाहिये । इस विकास-क्रमकी मध्यवर्तिनी सब अवस्थाओंको अपेक्षासे Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * गुणस्थान अधिकार * ३४३ - उच्च भी कह सकते हैं और नीच भी। अर्थात् मध्यवर्तिनी कोई भी अवस्था अपनसे ऊपर वाली अवस्थाकी अपेक्षा नीच और नीचे वाली अवस्थाकी अपेक्षा उच्च कही जा सकती है। विकास की ओर अग्रसर आत्मा वस्तुतः उक्त प्रकारकी संख्यातीत आध्यात्मिक भूमिकाओंका अनुभव करता है। पर जैनशास्त्र में संक्षेपमें वर्गीकरण करके उनके चौदह विभाग किये हैं, जो कि चौदह गुणस्थान कहलाते हैं। ___ सब प्रावरणों में मोहका प्रावरण प्रधान है अर्थात् जब तक मोह बलवान और तीत्र है, तब तक अन्य सभी प्रावरण बलवान् और तीत्र बने रहते हैं। इसके विपरीत मोहके निर्बल होते ही अन्य आवरणोंकी वैसी ही दशा हो जाती है। इस लिये आत्माके विकास करने में मुख्य बाधक मोहकी प्रबलता और मुख्य सहायक मोहकी निर्बलता समझनी चाहिये । इसी कारण गुणस्थानोंकी विकास-क्रम-गत अवस्थाओंकी कल्पना मोहशक्तिकी उत्कटता, मन्दता तथा अभावपर अवलम्बित है। मोहकी प्रधान शक्तियाँ दो हैं । इनमेंसे पहली शक्ति, आत्मा को दर्शन अर्थात् स्वरूप-पररूपका निर्णय किंवा जड़-चेतनका विभाग या विवेक करने नहीं देती; और दूसरी शक्ति आत्माको विवेक प्राप्त कर लेनेपर भी तदनुसार प्रवृत्ति अर्थात् अभ्यासपरपरिणतिसे छूट कर स्वरूप-लाम नहीं करने देती। व्यवहारमें पग-पगपर यह देखा जाता है कि किसी वस्तुका यथार्थ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय दर्शन-बोध कर लेनेपर ही उस वस्तुको पाने या त्यागनेकी चेष्टा की जाती है और वह सफल भी होती है । आध्यात्मिक विकास. गामी अात्माकेलिये भी मुख्य दो ही कार्य हैं। पहिला स्वरूप तथा पररूपका यथार्थ दर्शन किंवा भेदज्ञान करना और दूसरा स्वरूपमें स्थित होना । इनमेंसे पहिले कार्यको रोकनेवाली मोहकी शक्ति जैनशास्त्रमें 'दर्शनमोह' और दूसरे कार्यको रोकनेवाली मोहकी शक्ति 'चरित्रमोह' कहलाती है । दूसरी शक्ति पहिली शक्तिकी अनुगामिनी है अर्थात् पहली शक्ति प्रबल हो, तब तक दूसरी शक्ति कभी निवृत्त नहीं होती, और पहिली शक्तिके मन्द, मन्दतर, और मन्दतम होते ही दूसरी शक्ति भी क्रमशः वैसी ही होने लगती है अथवा यों कहिये कि एक बार अात्मा स्वरूप-दर्शन कर पावे तो फिर उसे स्वरूप-लाभ करनेका मार्ग प्राप्त हो ही जाता है। __ अविकसित किंवा सर्वथा अधःपतित प्रात्माकी अवस्था प्रथम गुणस्थान है। इसमें मोहको उक्त दोनों शक्तियोंके प्रबल होनेके कारण आत्माकी आध्यात्मिक-स्थिति बिलकुल गई हुई सी होती है । इस भूमिकाके समय आत्मा चाहे कितनी ही श्राधिभौतिक उन्नति क्यों न कर ले, पर उसकी प्रवृत्ति तात्विक लक्षसे सर्वथा शून्य होती है। जैसे दिग्भ्रमवाला मनुष्य पूर्वको पश्चिम समझ कर गति करता है और अपने इष्टस्थानको नहीं पहुँचता; उसका सारा श्रम एक तरहसे वृथा हो जाता है। वैसे ही प्रथम भूमिकावाला आत्मा पररूपको स्वरूप समझ कर उसीको पानेके Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गुणस्थानका अधिकार * ३४५ लिये प्रतिक्षण लालायित रहता है और विपरीत दर्शन या मिथ्या दृष्टिके कारण रागद्वेषकी प्रबल चोटका शिकार बनकर तात्त्विक सुखसे विमुख रहता है । इसी भूमिकाको जैनशास्त्रमें 'बहिरात्मभाव' किंवा 'मिथ्यादर्शन' कहा है। इस भूमिकामें जितनी आत्माएँ वर्तमान होती हैं, उन सबोंकी आध्यात्मिक स्थिति एक सी नहीं होती अर्थात् सबके ऊपर मोहकी दोनों शक्तियोंका आधिपत्य होनेपर भी उसमें थोड़ा-बहुत तर-तम भाव अवश्य होता है । किसीपर मोहका प्रभाव बहुत ज्यादा, किसीपर ज्यादा, किसीपर कम होता है। इस प्रकारकी तमाम आत्माओंको अबस्थाको पहिला गुणस्थान कहते हैं। ___ जो श्रात्माएँ पहिल गुणस्थानमें होती हैं, वे मोहनीय कर्मके क्षय आदिसे चतुर्थादि गुणस्थानको प्राप्त करती हैं। लेकिन कोई आत्मा जब तत्वज्ञान-शन्य किंवा मिथ्यादृष्टि होकर प्रथम गुणस्थानकी ओर झुकती है. तब बीचमें उस अधःपतनोन्मुख प्रात्मा की जो कुछ अवस्था होती है, वही दूसरा गुणस्थान है। इस अवस्थामें प्रथम गुणस्थानकी अपेक्षा आत्म-शुद्धि अवश्य कुछ अधिक होती है, इसलिये इसका स्थान पहिले के बाद रक्खा गया है । जैसे खीर आदि मिष्ट भोजन करनेके बाद जब वमन हो जाता है, तब मुखमें एक प्रकारका विलक्षण स्वाद अर्थात् न अति मधुर न अति अम्ल जैसे प्रतीत होता है । इसी प्रकार दूसरे गुणस्थानके समय आध्यात्मिक स्थिति विलक्षण पाई जाती है, क्योंकि Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय उस समय प्रात्मो न तो तत्त्वज्ञानकी निश्चित भूमिकापर है और न तत्त्वज्ञान-शून्य भूमिकापर है। अथवा जैसे कोई व्यक्ति चढ़ने की सीढ़ियोंसे खिसक कर जब तक जमीनपर आकर नहीं ठहर जाता, तब तक बीच में एक विलक्षण अवस्थाका अनुभव करता है। तीसरा गुणस्थान श्रात्माकी उस मिश्रित अवस्थाका नाम है, जिसमें न तो केवल सम्यक् दृष्टि है और न केवल मिथ्या दृष्टि, किन्तु आत्मा उसमें डोलायमान आध्यात्मिक स्थितिवाला जाना जाता है। अतएव उसकी बुद्धि स्वाधीन न होने के कारण सन्देहशील होती है अर्थात् उसके सामने जो कुछ आया, वह सब सच है: न तो वह तत्त्वको एकान्त अतत्त्व रूपसे ही जानती है और न तत्त्व-अतत्त्वका वास्तविक पूर्ण विवेक ही कर सकती है। कोई उत्क्रान्ति करनेवाली आत्मा प्रथम गुणस्थानसे निकल कर सीधे ही तीसरे गुणस्थानको प्राप्त कर सकती है और कोई अपक्रान्ति करनेवाला आत्मा भी चतुर्थ श्रादि गुणस्थानसे गिरकर तीसरे गुणस्थानको प्राप्त करता है । इस प्रकार उत्क्रान्ति करनेवाली और अपक्रान्ति करनेवाली-दोनों प्रकारकी आत्माओं का आश्रय स्थान तीसरा गुणस्थान है। यही तीसरे गुणस्थानकी दूसरे गुणस्थानसे विशेषता है। इस अवस्थामें विकासगामी आत्मा (आत्म) स्वरूपका मान करने लगता है अर्थात् उसकी जो अब तक पररूपमें Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ «] * गुरणस्थानका अधिकार * ३६७ स्वरूपकी भ्रान्ति थी, वह दूर हो जाती है । अतएव उसके प्रयत्नकी गति उलटी न होकर सीधी हो जाती है अर्थात् वह विवेकी बनकर कर्त्तव्य- श्रकर्त्तव्यका वास्तविक विभाग कर लेता है । इस दशाको जैनशास्त्र में 'अन्तरात्म-भाव' कहते हैं क्योंकि इस स्थितिको प्राप्त करके विकासगामी आत्मा अपने अन्दर वर्तमान सूक्ष्म और सहज शुद्ध परमात्म-भाव को देखने लगती है । यह दशा विकाश क्रमकी चतुर्थ भूमिका किंवा चतुर्थ गुणस्थान है, जिसे पाकर आत्मा पहले पहल आध्यात्मिक शान्तिका अनुभव करती है। इस भूमिका में आध्यात्मिक दृष्टि यथार्थ होनेके कारण आत्मा विपर्यास-रहित होती है। जिसकी जैनशास्त्र में 'सम्यग्दृष्टि' किंवा 'सम्यक्त्व' कहा है । खगड 3 चतुर्थी की अर्थात् पञ्चमी आदि सब भूमिकाएँ सम्यग्दृष्टि वाली ही समझनी चाहिए, क्योंकि उनमें उत्तरोत्तर विकास तथा दृष्टिकी शुद्धि अधिकाधिक होती जाती है । चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूप-दर्शन करनेसे आत्माको अपूर्व शक्ति मिलती है और उसको विश्वास होता है कि अब मेरा साध्य विषयक भ्रम दूर हुआ अर्थात् अब तक जिस पौद्गलिक व बाह्य सुखको मैं तरस रहा था, वह मिथ्या है। इस प्रकार समझने लगता है । मोहकी प्रधान शक्ति दर्शनमोहको शिथिल करके स्वरूपदर्शन कर लेने के बाद भी जब तक उसकी दूसरी शक्ति चारित्रमोहको शिथिल न किया जाय, तब तक स्वरूप लाभ किंवा Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय स्वरूप स्थिति नहीं हो सकती। इसलिये वह मोहकी दूसरी शक्ति को मन्द करने के लिए प्रयास करती है। जब वह उस शक्तिको अंशतः शिथिल कर पाती है तब उसकी और भी उत्क्रान्ति हो जाती है। जिसमें अंशतः स्वरूप- स्थिरता या परिस्थिति त्याग होनेसे चतुर्थ भूमिकाकी अपेक्षा अधिक शान्ति-लाभ होता है । यह 'देशविरति' नामका पाँचवाँ गुणस्थान है । इस गुणस्थान में विकासगामी आत्माको यह विचार होने लगता है कि यदि अल्प-विरति से ही इतना अधिक शान्ति-लाभ हुआ तो फिर सर्वविरति - जड़ भावोंके सर्वथा परिहार से कितना शान्ति-लाभ न होगा । इस विचारसे प्रेरित होकर व प्राम श्राध्यात्मिक शान्तिके अनुभव से बलवान होकर वह विकासगामी आत्मा चारित्रमोहको अधिकांशमें शिथिल करके पहलेकी अपेक्षा भी अधिक स्वरूप- स्थिरता व स्वरूप लाभ प्राप्त करनेकी चेष्टा करती है । इस चेष्टा में कृतकृत्य होते ही उसे सर्व विरति संयम प्राप्त होता है । जिसमें पौद्गलिक भावोंपर मूर्च्छा बिलकुल नहीं रहती और उसका सारा समय स्वरूपकी अभिव्यक्ति करने के काम में ही खर्च होता है। यह 'सर्वविरति' नामका छठा गुणस्थान है । इसमें आत्म-कल्याणके अतिरिक्त लोक-कल्याणकी भावना और तदनुकूल प्रवृति भी होती हैं, जिससे कभी-कभी थोड़ी-बहुत मात्रामें प्रमाद आ जाता है । पाँचवें गुणस्थानकी अपेक्षा इस छठे गुणस्थान में स्वरूप- अभिव्यक्ति अधिक होनेके 1 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * गुणस्थानका अधिकार * ३४६ Contact : A कारण यद्यपि विकासगामी आत्माको आध्यात्मिक शान्ति पहलेसे अधिक ही मिलती है तथापि बीच-बीचमें अनेक प्रमाद उसे * शान्ति-अनुभवमें बाधाएँ पहुँचाते रहते हैं। शान्ति-अनुभवमें जो बीच-बीच में अनेक प्रमाद उसको बाधा पहुँचाते हैं, उनको वह सहन नहीं कर सकती। अतएव सर्वविरति-जनित शान्ति के साथ अप्रमाद-जनित विशिष्ट शान्तिका अनुभव करनेकी प्रवल लालसोसे प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमादका त्याग करती है और स्वरूपकी अभिव्यक्तिक अनुकूल मनन-चिन्तनके सिवाय अन्य सब व्यापारोंका त्यागकर देती है। यही 'अप्रमत्तसंयत' नामक सातवाँ गुणस्थान है। इसमें एक ओर अप्रमाद-जन्य उत्कट सुखका अनुभव आत्माको उस स्थितिमें बने रहने केलिये उत्तेजित करता है और दूसरी ओर प्रमाद-जन्य पूर्व वासनाएँ उसे अपनी ओर खींचती हैं। इस खींचातानीमें विकासगामी आत्मा कभी प्रमादकी तन्द्रा और कभी अप्रमादकी जाप्रति अर्थात् छठे और सातवें गुणस्थानमें अनेक बार जाती-आती रहती है। जिस प्रकार भवरमें पड़ा हुआ तिनका इधरसे उधर और उधरसे इधर चलायमान होता रहता है, उसी प्रकार छठे और सातवें गुणस्थानके समय विकासगामी ' आत्मा अनवस्थितसी बन जाती है। ' प्रमादके साथ होनेवाले इस आन्तरिक युद्ध के समय विकासगामी आत्मा यदि अपना चरित्र-बल विशेष प्रकाशित करती है Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास [तृतीय - तो फिर वह प्रमादों-प्रलोभनोंको पारकर विशेष अप्रमत्त-अवस्था प्राप्त कर लेती है। इस अवस्थाको पाकर वह ऐसी शक्ति-वृद्धिकी तैयारी करती है कि जिससे शेष रहे-सहे मोहबलको नष्ट किया जा सके । मोहके साथ होनेवाले भावी युद्धकेलिये की जानेवाली तैयारीकी इस भूमिको पाठवाँ गुणस्थान कहते हैं। ___ पाठवें गुणस्थानसे आगे बढ़नेवाली प्रात्मायें दो श्रेणियोंमें विभक्त हो जाती हैं। एक श्रेणीवाली तो ऐसी होती हैं जो मोहको एक बार सर्वथा दबा लेती हैं, पर उसे निर्मूल नहीं कर पातीं। अतएव जिस प्रकार किसी बर्तनमें भरी हुई भाप कभी-कभी अपने वेगसे ढक्कनको नीचे गिरा देती है अथवा जिस प्रकार राखके नीचे दबी हुई अग्नि हवाका कोरा लगनेसे अपना कार्य करने लगती है, उसी प्रकार पहिले दबा हुआ मोह आन्तरिक युद्धमें थकी हुई उन प्रथम श्रेणीवाले आत्माओंको अपने वेगसे नीचे पटक देता है। एक बार सर्वथा दबाये जानेपर भी मोह, जिस भूमिकासे आत्माको हार दिलाकर नीचे की ओर पटकता है वही ग्यारहवाँ गुणस्थान है । मोहको क्रमशः दबाते-दबाते सर्वथा दबाने तकमें आत्माको उत्तरोत्तर अधिक-अधिक विशुद्धतावाली दो भूमिकाएँ अवश्य प्राप्त करनी पड़ती हैं, जो नौवाँ तथा दसवाँ गुणस्थान कहलाता है। ग्यारहवाँ गुणस्थान अधःपतनका गुणस्थान है। क्योंकि उसे पानेवाली आत्मा आगे न बढ़कर एक बार तो अवश्य नीचे गिरती है। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * गुणस्थानका अधिकार * दूसरी श्रेणीवाली आत्माएँ मोहको क्रमशः निर्मूल करते-करते अन्तमें उसे सर्वथा निर्मूल कर ही डालती हैं । सर्वथा निर्मूल करनेकी जो उच्च भूमिका है वही बारहवाँ गुणस्थान है। इस गुणस्थानके पाने तक में अर्थात् मोहको सर्वथा निर्मूल करनेसे पहिले बीच में नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान आत्माको प्राप्त करना पड़ता है। इसी प्रकार देखा जाय तो चाहे श्रात्मा पहिली श्रेणी चढ़े चाहे दूसरी श्रेणी चढ़े, पर वे सब नौवाँ दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करती ही हैं। दोनों श्रेणीवाली आत्माओं में अन्तर इतना ही होता है कि प्रथम श्रेणीवालों की अपेक्षा दूसरी श्रेणीवालों में आत्म शुद्धि व आत्मबल विशिष्ट प्रकारका पाया जाता है। जैसे किसी एक दर्जे के विद्यार्थी भी दो प्रकारके होते हैं। एक प्रकारके तो ऐसे होते हैं। जो सौ कोशिश करनेपर भी एक बारगी अपनी परीक्षा में पास होकर आगे नहीं बढ़ सकते। पर दूसरे प्रकार के विद्यार्थी अपनी योग्यता के बलसे सब कठिनाइयोंको पार कर उस कठिनतम परीक्षाको बेधड़क पास कर ही लेते हैं । उन दोनों दलके उस अन्तरका कारण उनकी आन्तरिक योग्यताकी न्यूनाधिकता है । वैसे ही नौवें तथा दसवें गुणस्थानको प्राप्त करनेवाली उक्त दोनों श्रेणिगामी आत्माओं की आध्यात्मिक विशुद्धि न्यूनाधिक होती है जिसके कारण एक श्रेणीवाले जीत्र तो दसवें गुणस्थानको पाकर अन्त में ग्यारहवें गुणस्थान में मोहसे हार खाकर नीचे गिरते हैं और अन्य श्रेणीवाले जीव दसवें गुणस्थान को पाकर इतना अधिक ३५१ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास - [तृतीय आत्म-बल प्रकट करते हैं कि अन्तमें वे मोहको सर्वथा क्षीण कर बारहवें गुणस्थानको प्राप्त कर ही लेते हैं। जैसे ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्य पुनरावृत्तिका है, वैसे ही बारहवाँ गुणस्थान अपुनरावृत्तिका है। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थानको पानेवाली आत्मा एक बार उससे अवश्य गिरती है और बारहवें गुणस्थानको पानेवाली उससे कदापि नहीं गिरती, बल्कि ऊपरको ही चढ़ती है । किसी एक परीक्षामें नहीं पास होनेवाला विद्यार्थी जिस प्रकार परिश्रम व एकाग्रतासे योग्यता बढ़ा कर फिर उस परीक्षाको पास कर लेते हैं, उसी प्रकर एक बार मोहसे हार खानेवाली आत्माको अप्रमत्त-भाव व आत्म-बलकी अधिकतासे फिर माहको अवश्य क्षीण कर देती है। उक्त दो श्रेणीवाली प्रात्माओंकी तर-तम-भावापन्न श्राध्यात्मिक विशुद्धि, मानों परमात्मभाव-रूप सर्वाच्च भूमिकापर चढ़नकी दो नसेनियाँ हैं। जिनमेंसे एकको जैनशास्त्र में 'उपशम श्रेणी' और दूसरीको 'क्षपक श्रेणी' कहा है। पहिली कुछ दूर चढ़ाकर गिरानेवाली और दूसरी चढ़ानेवाली है। पहिली श्रेणीसे गिरनेवाला जीव आध्यात्मिक अधःपतनके द्वारा चाहे प्रथम गुणस्थान तक क्यों न चला जाय, पर उसकी वह अधःपतित स्थिति कायम नहीं रहती। कभी-न-कभी वह फिर दूने बलसे और दूनी सावधानीसे तैयार होकर मोह शत्रुका सामना करता है और अन्तमें दूसरी श्रेणीकी योग्यता प्राप्त कर माहका सर्वथा क्षय कर डालता है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * गुणस्थानका अधिकार * ३५३ व्यवहारमें अर्थात् आधिभौतिक क्षेत्र में भी यह देखा जाता है कि जो एक बार हार खाता है, वह पूरी तैयारी करके हरानेवाले शत्रुको फिर से हरा सकता है। परमात्म-भावका स्वराज्य प्राप्त करनेमें मुख्य बाधक मोह है । जिसको नष्ट करना अन्तरात्मभाव के विशिष्ट विकास पर निर्भर है। मोहका सर्वथा नाश हुआ कि अन्य आवरण जो जैनशास्त्र में 'घातिकर्म' कहलाते हैं, वे प्रधान सेनापतिके मारे जाने के बाद अनुगामी सैनिकोंकी तरह एक साथ तितर-बितर हो जाते हैं। फिर क्या देरी, विकासगामी आत्मा तुरन्त ही परमात्मभावका पूर्ण आध्यात्मिक स्वराज्य पाकर अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूपको पूर्णतया व्यक्त करके निरतिशय ज्ञान, चारित्र श्रादिका लाभ करता है तथा अनिर्वचनीय स्वाभाविक सुखका अनुभव करता है । जैसे पूर्णिमाकी गतमें निरभ्र चन्द्रकी सम्पूर्ण कलाएँ प्रकाशमान होती हैं, वैसे ही उस समय आत्माकी चेतना आदि सभी मुख्य शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। इस भूमिकाको जैनशास्त्रोंमें तेरहवाँ गुणस्थान कहा है। इस गुणस्थान में चिरकाल तक रहने के बाद श्रात्मा दग्ध रज्जु के समान शेष आवरणोंकी अर्थात् अप्रधानभूत अघाति कर्मोंको उड़ाकर फेंक देनेकेलिए 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान' रूप पवनका आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारोंको सर्वथा रोक देती है । यही आध्यात्मिक विकासकी Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय - पराकाष्ठा किंवा चौदहवाँ गुणस्थान है। इसमें आत्मा 'समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति शक्लध्यान' द्वारा सुमेरुकी तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके अन्तमें शरीरत्याग-पूर्वक व्यवहार और परमार्थ दृष्टिसे लोकोत्तर स्थानको प्राप्त करता है। यही निर्गुण ब्रह्मस्थिति है, यही सर्वाङ्गीण पूर्णता है, यही पूर्ण कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थकी अन्तिम सिद्धि है और यही अपुनरावृत्ति स्थान है। क्योंकि संसारका एक मात्र कारण मोह है, जिसके सब संस्कारोंका निश्शेष नाश हो जानेके कारण अब उपाधिका संभव नहीं है। ऊपर आत्माकी जिन चौदह अवस्थाओंका विचार किया है उनका तथा उनके अन्तर्गत-अवान्तर संख्यातीत अवस्थाओंका बहुत संक्षेप ( मुख्तसर ) में वर्गीकरण करके शास्त्रकारोंने शरीर धारी आत्माकी सिर्फ तीन अवस्थाएँ बतलाई हैं: १-बहिरात्म-अवस्था २-अन्तरात्म-अवस्था और ३परमात्म-अवस्था। १-पहिली अवस्थामें आत्माका वास्तविक विशुद्ध रूप अत्यन्त आच्छादित रहता है, जिसके कारण प्रात्मा मिथ्याध्यास वाला होकर पौद्गलिक विलासोंको ही सर्वस्व मान लेता है और उन्हींकी प्रापिकेलिये संम्पूर्ण शक्तिका व्यय करता है। ____२-दूसरी अवस्थामें आत्माका वास्तविक स्वरूप पूर्णतया तो प्रकट नहीं होता, पर उसके ऊपरका प्रावरण गाढ़ा न होकर Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * गुणस्थानका अधिकार * ३५५ शिथिल, शिथिलतर, शिथिलतम बन जाता है, जिसके कारण उसकी दृष्टि पौद्गलिक विलासोंकी ओरसे हटकर शुद्ध स्वरूप की ओर लग जाती है। इसीसे उसकी दृष्टिमें शरीर आदिकी जीर्णता व नवीनता अपनी अर्थात् आत्माकी जीर्णता व नवीनता नहीं है। यह दूसरी अवस्था ही तीसरी अवस्थाका दृढ़ सोपान है। ३-तीसरी अवस्थामें आत्माका वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाता है अर्थात् उसके ऊपरके घने श्रावरण बिलकुल विलीन हो जाते हैं। निम्नलिखित गुणस्थान इन तीन प्रात्माओंमें पाये जाते हैं: पहिला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्म-अवस्था का चित्रण है। चौथेसे बारहवें तकके गुणस्थान अन्तरात्मअवस्थाका दिग्दर्शन है और तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान परमात्मअवस्थाका वर्णन है। गुणस्थानोंका संक्षेपमें वर्णन पूर्व-पूर्व गुणस्थानकी अपेक्षा उत्तर-उत्तर गुणस्थानमें ज्ञान आदि गुणोंकी शुद्धि बढ़ती जाती है,अशुद्धि घटती जाती है। अतएव आगे-आगेके गुणस्थानों में अशुभ प्रकृतयोंकी अपेक्षा शुभ प्रकृतियाँ अधिक बाँधी जाती हैं और अशुभ प्रकृतियोंका बन्धन क्रमशः रुकता जाता है। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय गुणस्थानका अर्थ मोह और योगके निमित्तसे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्ररूप आत्माके गुणोंकी तारतम्यरूप (हीनाधिकतारूप) अवस्था-विशेषको गुणस्थान कहते हैं। चौदह गुणस्थानोंके नाम १-मिथ्यादृष्टि, २-शास्वादन सम्यकदृष्टि, ३-सम्यगमिथ्यादृष्टि मिश्र, ४-अविरति सम्यग्दृष्टि, ५-देशविरत, ६प्रमत्तसंयम, ७-अप्रमत्तसंयम, --निवृत्त अपूर्वकरण, :अनिवृत्ति बादरसम्पराय, १०-सूक्ष्मसम्पराय, ११-उपशान्त कषाय वीतरागछद्मस्थ. १२-क्षीणकपाय वीतरागद्मस्थ, १३-सयोगी केवली और १४-अयोगी केवली गुणस्थान । १-पहिला गुणस्थान संसारके समम्त अध:पतित आत्माओं में पाया जाता है अर्थात् नरक, तिर्यंच मनुष्य और देवगतिमें भी पाया जाता है या यों कहना चाहिये कि मिथ्यात्वी जीवमात्रमें पाया जाता है। इस गुणस्थानका जीव अनन्त समय तक भ्रमण करता रहता है। २-दूसरा गुणस्थान-सम्यग्दृष्टिसे मिथ्यादृष्टिमें आनेमें जिसना अल्प-से-अल्प समय लगता है, उस समयमें जीव इस गुणस्थान-अवस्थामें रहता है। जो जीव इस गुणस्थानको स्पर्श ' Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ___ * गुणस्थानका अधिकार * ३५७ कर लेता है, वह अपने अनन्त संसारका अन्त कर सिर्फ अर्धपुद्गलपरावर्तन संसार भोगना बाकी रखता है। __३-तीसरा गुणस्थान-जब जीव न केवल सम्यकदृष्टि है और न केवल मिथ्यादृष्टि है अर्थात् संदेहशील है, ऐसी अवस्था में वह इस गुणस्थानमें होता है। इसकी स्थिति कुछ दूसरे गुणस्थानसे अच्छी होती है। इस गुणस्थानवाला जीव कुछ कम अर्ध पुद्गलपरावर्तन संसार भोगना बानी रखता है। ४-चौथा गुणस्थान-इस गणस्थानमें जीव सम्यकदृष्टि तो होता है पर अव्रती होता है अर्थात् सुदेव, सुगुरु और सुधर्मपर श्रद्धा व प्रतीति रखता है, वीतराग धर्म सच्चा मानता है और चार तीर्थकी भक्ति करता है, पर व्रत-त्याग वगैरः नहीं करता है। अगर इस गुणस्थानमें श्रानेसे पश्तर आयुका बन्ध न पड़ा हो तो नरक, तिर्यंच, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, स्त्री और नपुंसक नहीं होता अर्थात् अच्छी योनिको प्राप्त करता है। ___५-पाँचवाँ गुणस्थान-इस गुणस्थानमें जीव सम्यक् दृष्टि होता है और त्याग, प्रत्याख्यान व तपस्या वगैरः भी करता है। यह गुणस्थान श्रावकका है। इस अवस्थावाला जीव जघन्य तीन और उत्कृष्ट पन्द्रह भव करके अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है। ६-छठा गुणस्थान--यह गुणस्थान उन साधुओं व मुनियों को प्राप्त होता है जिन्होंकी कषाय, चपलता व प्रमाद मन्द नहीं Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय हुआ है पर वे मुनियोंकी क्रिया ठीक-ठीक पालते हैं। इस गुणस्थानवाले मुनि जघन्य उसी भवमें और उत्कृष्ट तीन तथा पन्द्रह भवमें मोक्ष प्राप्त करते हैं । ७ - सातवाँ गुणस्थान - इस गुणस्थानको वे मुनि प्राप्त करते हैं जिन्होंने मद, विषय, कषाय, निन्दा, विकथा आदि दूर कर दी हैं अर्थात् निर्मल और स्वच्छ साधुपना पालते हैं । इस गुणस्थान वाले मुनि ज्यादा-से-ज्यादा तीन भवमें और कम-से-कम उसी भवमें मोक्ष प्राप्त करते हैं। -- आठवाँ गुणस्थान — इस गुणस्थान से मुनिका मोह जो बड़ा बलिष्ठ और प्रबल कर्म है उसके साथ युद्ध शुरू हो जाता है । जो मुनि मोहको दबाता लेते हैं पर सर्वथा निर्मूल नहीं कर पाते हैं वे नौवें तथा दसवें गुणस्थानको प्राप्त करते हुए ग्यारहवें गुणस्थानको प्राप्त कर लेते हैं और वहाँ जाकर उनका दबा हुआ मोह मानिन्द दबी भाके उमड़ पड़ता है और वे मुनि नीची अवस्था में गिर जाते हैं। पर जो मुनि मोहको सर्वथा निर्मूल करते चले जाते हैं वे नौवें तथा दसवें में होते हुये और ग्यारहवेंका छोड़ते हुये बारहवें गुणस्थानको प्राप्त कर लेते हैं । वहाँसे वे ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ते हुये मोक्षको प्राप्त करते हैं। ज्यादा-से-ज्यादा तीन भव और कम-से-कम उसी भवमें वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। " १ – १० – नौवें व दसवें गुणस्थानोंमें मुनि माह कर्मकी प्रकृतियोंको कम करते हैं और शान्त स्वरूपके। प्राप्त करते Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * गुणस्थानका अधिकार * ३५६ जाते हैं। इन गुणस्थानोंवाले मुनि कम-से-कम एक भवमें और ज्यादा-से-ज्यादा तीन भवमें मोक्ष प्राप्त करते हैं। ११--ग्यारहवाँ गुणस्थान-इस गुणस्थानमें मोह-प्रकृति उबल पड़ती है। जिसका परिणाम यह होता है कि मुनि एक नीची अवस्थाको प्राप्त करते हैं । और अगर नीची अवस्था प्राप्त कर लेनेके पेश्तर इस गुणस्थानमें मृत्यु हो जाती है तो अनुत्तरविमान में पैदा होते हैं। १२-बारहवाँ गुणस्थान-इस गणस्थानमें मुनि माह-प्रकृतियोंको सर्वथा निर्मूल कर डालते हैं। इस अवस्थामें मुनि क्षायिक भाव, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक यथाख्यात चारित्र प्राप्त करते हैं। इनके अलावा भाव सत्य, कारण सत्य, अकषायी, वीतरागी, भाव निर्ग्रन्थ श्रादि गुणोंको प्राप्त करते हैं और महा ध्यानी, महाज्ञानी होकर अन्तमुहूर्त इस गुणस्थानमें रहकर तेरहवें गणस्थानको प्राप्त करते हैं। इस गणस्थानके आखिरी समयमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मोका क्षय करके तेरहवें गुणस्थानको प्राप्त करते हैं । इस गुणस्थानमें मृत्यु नहीं होती है। __१३-तेरहवाँ गुणस्थान-इस गुणस्थानमें मुनिको केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि गुणोंकी प्राप्ति होती है । इस अवस्थामें मुनि कम-से-कम एक अन्तमुहूर्त और ज्यादा-से-ज्यादा कुछ कम Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAADMAARAAD M AA VAdmaavatman. ३६० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय एक क्रोड पूर्व तक रह सकता है। इस गुणस्थानमें मुनिका निर्वाण नहीं होता है। १४-चौदहवाँ गणस्थान-इस गणस्थानमें अयोगी केवली अपने सारे कर्मोको क्षय करके मन, वचन और कायकी क्रियाको एक दम बन्द करके मोक्ष पदको प्राप्त करते हैं । गणस्थानोंके सम्बन्धमें विशेष जानकारीकेलिये कुछ मुख्यमुख्य बातें और समझ लैनी उपयोगी होंगी: ध्यान चार होते हैं. जिन्हें कि पहले ध्यान अधिकारमें हम कह आये हैं: १-बात ध्यान, २-रौद्र ध्यान, ३-धर्म ध्यान और ४शुक्ल ध्यान । निम्नलिखित ध्यान निम्नलिखित गुणस्थानोंमें पाये जाते हैं: १-पहिले तीन गुणस्थानोंमें आत्त और रौद्र, ये दो ही ध्यान तर-तम भावसे पाये जाते हैं। २-चौथे और पाँचवें गणस्थानमें उक्त दोनों ध्यानोंके अतिरिक्त सम्यक्त्वके प्रभावसे धर्मध्यान भी होता है। ३-छठे गणस्थानमें आर्त और धर्म, ये दा ध्यान होते हैं। ४-सातवें गुणस्थानमें सिर्फ धर्मध्यान ही होता है। ५-आठवेंसे बारहवें गुणस्थान तक अर्थात् पाँच गुणस्थानोंमें धर्म और शुक्ल, ये दो ही ध्यान होते हैं। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - खण्ड * गुणस्थान अधिकार * ३६१ ६-तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें सिर्फ शुक्ल ध्यान ही होता है। लेश्या छह होती हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं: १-कण २-नील ३-कापोत ४-तेज ५-पद्म और ६-शुल लेश्या । प्रत्येक लेश्या असंख्यात लोकाकाश-प्रदेशप्रमाण अध्यवसायस्थान (संल्केश-मिश्रित परिणाम ) रूप है। इसलिये उसके तीत्र, तीव्रतर, तीव्रतमः मन्द, मन्दतर, मन्दतम उतने ही भेद समझने चाहिये। पहली तीन-कृष्ण, नील और कापोत अशुभ लेश्या मानी गई हैं। पिछली तीन-तेज, पद्म और शुक्ल शुभ लेश्या मानी गई है। १-कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओंको छठे गुणस्थानमें अति मन्दतम और पहिले गुणस्थानमें अति तीव्रतम मानकर छठे गुणस्थान तक उनका सम्बन्ध होता है। २-सातवें गुणस्थानमें आर्त तथा रौद्र ध्यान न होनेके कारण परिणाम इतने विशुद्ध होते हैं कि जिससे उस गुणस्थानमें अशुभ लेश्याएं सर्वथा नहीं होनी, किन्तु तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। ३-पहिले गुणस्थानमें तेज और पद्म लेश्याको प्रति मन्दतम और सातवें गुणस्थानमें अति तीव्रतम; इसी प्रकार शुक्ल लेश्याको २४ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जेलमें मेरा जैनाभ्यास . 20 पहिले गुणस्थानमें अति मन्दतम और तेरहवें गुणस्थानमें अति तीव्रतम मानकर उपर्युक्त गुणस्थानोंमें उनका सम्बन्ध बतलाया गया है। संक्षेपमें यों कहना चाहिये कि पहिले छह गुणस्थानोंमें छह लेश्याएँ; सातवें गुणस्थानमें तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ और आठवेंसे लेकर तेरहवें तक छह गुणस्थानों में केवल शुक्ल लेश्या मानी गई है। चौदहवें गुणस्थानमें कोई भी लेश्या नहीं मानी गई हैं। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व अधिकार स किसी जीवका संसार-संसरणका काल अधिक-सेअधिक अर्ध पुद्गल परावर्तन और कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, वह निश्चय -सम्यग्दर्शन प्रहण करके चतुर्गति रूप संसारको पार करनेवाले मोक्ष सुखकी बानगी लेता है । अन्तर्मुहूर्तसे लगाकर अर्ध पुद्गल परावर्तन कालके जितने समय हैं, उतने ही सम्यक्त्वके भेद हैं । जिस समय जीवको सम्यक्त्व प्रकट होता है, तभी से आत्म-गुण प्रकट होने लगते हैं और सांसारिक दोष नष्ट हो जाते हैं। सम्यक्त्वके आठ विवरण हैं: - १ - स्वरूप, २ – उत्पत्ति, ३ – चिन्ह, ४ - गुण, ५-- भूषण, ६- दोष, ७-- नाश और ८ - श्रतिचार | सम्यक्त्वका स्वरूप आत्म-स्वरूपकी सत्य प्रतीति होना, दिन-प्रतिदिन समता भाव में उन्नति होना और क्षण-क्षण में परिणामोंकी विशुद्धि होना, इसीका नाम 'सम्यग्दर्शन' है । सम्यक्त्वकी उत्पत्ति चतुर्गतिमें सभी जीवोंको सम्यग्दर्शन प्रकट होता है। वह किसी-किसी जीवको अपने-आप प्रगट होता है । अपने-आप Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय प्रगट होनेवाला सम्यग्दर्शन 'निसर्गज' कहलाता है। और किसीकिसीको गुरूपदेशसे भी प्रगट होता है। गुरूपदेशसे प्रगट होनेवाला सम्यग्दर्शन 'अधिगमज' कहलाता है। सम्यक्त्वके चिन्ह आत्मा अपने में ही आत्म-स्वरूपका परिचय पाता है, उसमें उसे कभी सन्देह नहीं उपजता और उसका छल कपट-रहित वैराग्य भाव रहता है। यही सम्यग्दर्शनका चिन्ह है। अथवा (१) शम-कदाग्रह और ममत्वका उपशमन (२) संवेग-सांसारिक बंधनोंका भय (३) निर्वेद-वैराग्य अर्थात् सांसारिक पदार्थोंसे दूर होने की इच्छा (४) अनुकम्पा-दूमरे जीवोंका दुःख दूर करनेकी भावना (५) आस्तिक्य-सद्धर्मपर अटल श्रद्धान होना ये पाँच लिङ्ग अर्थात् सम्यक्त्वके चिन्ह हैं। सम्यग्दर्शनके पाठ गुण करुणा, मैत्री, सजनता, स्वलघुता, समता, श्रद्धा, उदासीनता और धर्मानुराग, ये सम्यक्त्वके पाठ गुण हैं। सम्यक्त्वके पाँच भूषण जैनधर्मकी प्रभावना करनेका अभिप्राय, हेय-उपादेयका विवेक, धीरज, सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका हर्ष और तत्त्व विचारमें चतुराई, ये पाँच सम्यग्दर्शनके भूषण हैं। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * सम्यक्त्व अधिकार * ३६५ सम्यक्त्वके पच्चीस दोष सम्यग्दर्शन पञ्चीस दोपोंसे रहित होना चाहिये । उसके पच्चीस दोष ये है:-आठ मद,पाठ मल, छह अनायतन और तीन मूढ़ता: आठ मदः जाति, धन, कुल. रूप, तप, बल, विद्या और अधिकरण इनका गर्व करना । ये आठ प्रकारके महामद हैं। पाठ मलःजिन-वचनमें सन्देह, श्रात्म-स्वरूपसे चिगना, विपयोंकी अभिलाषा, शरीरादिसे ममत्व, अशुचिमें ग्लानि, सहधर्मियांस द्वेष, दूसरोंकी निन्दा, धर्म-प्रभावनाओंमें प्रमाद, ये आठ मल सम्यग्दर्शनको दृषित करते हैं । छह अनायतन: कुगुरु, कुदेव, कुधर्मके उपासकांकी और गुरु, कुदेव और कुधर्मकी प्रशंसा करना, ये छह अनायतन हैं। तीन मूढ़ताः देवमूढ़ता अर्थात् सच्चे देवका स्वरूप नहीं जानना, गुरुमूढ़ता अर्थात् निर्ग्रन्थ मुनिका स्वरूप नहीं समझना और धम. * अधिकरणके स्थानपर कहीं-कहीं 'पूजा' मी मानी गई है। यथाः "ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपो वपुः । अष्ठावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥" Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय मूढ़ता अर्थात् जिनभाषित धर्मका स्वरूप नहीं समझना, ये तीन मूढ़ताएँ हैं । सम्यक्त्व-नाशके पाँच कारण सम्यक्त्वके घातक मुख्य पाँच कारण ये हैं: - १ - ज्ञानका अभि मान, बुद्धिकी हीनता, निर्दय वचनोंका भाषण, क्रोधी परिणाम और प्रमाद । सम्यक्त्वके पाँच प्रतीचार सम्यक्त्व के पाँच अतिचार हैं। शङ्का, काङ्क्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव, ये पाँच सम्यक्त्वके अतिचार हैं। इनका वर्णन पहले किया जा चुका है 1 उपरोक्त पाँच प्रकारके अतिचार सम्यग्दर्शनके उज्ज्वल परिरणामोंको मलीन करते हैं। मोहनीय कर्म की जिन सात प्रकृतियों के अभाव से सम्यग्दर्शन प्रकट होता है । वे निम्न प्रकार हैं: सम्यक्त्वकी घातक चारित्रमोहनीय की चार और दर्शनमोहनीयकी तीन, इस प्रकार सात प्रकृतियाँ हैं। वे इस प्रकार है:१ - अनन्तानुबन्धी क्रोध, २ - अभिमानके रेंगसे रंगी हुई अनन्तानुबन्धी मान, ३ - अनन्तानुबन्धी माया, ४ - परिग्रहको पुष्ट करने वाली अनन्तानुबन्धी लोभ, ५ - मिध्यात्व, ६ - मिश्रमिध्यात्व और ७ - सम्यक्त्वमोहनीय। इनमें से शुरू की छह प्रकृतियाँ व्यात्रिणी Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखण्ड * सम्यक्त्व अधिकार * ३६७ - - के समान सम्यक्त्वके पीछे पड़कर उसे भक्षण करनेवाली हैं और सातवीं स्त्रीके समान सम्यक्त्वका सकंप व मलीन करनेवाली है। जो प्राणी उपरोक्त सात प्रकृतियोंको उपशमाता है, वह औपशमिकसम्यग्दृष्टि है और जो सातों प्रकृतियोंको क्षय करनेवाला है, वह क्षायिकसम्यग्दृष्टी है। यह सम्यक्त्व कभी नष्ट नहीं होता। सात प्रकृतियों से कुछका क्षय हो और कुछका उपशम हो तो वह क्षयोयशमसम्यक्त्वी है। उसे सम्यक्त्वका मिश्ररूप स्वाद मिलता है। छह प्रकृतियाँ उपशम हों व क्षय हों अथवा कोई क्षय और कोई उपशम हो, केवल सातवीं प्रकृति सम्यक्त्वमोहनीयका उदय हो तो वह वेदकसम्यक्त्वधारी होता है। सम्यक्त्व नौ प्रकारका होता है:-क्षयोपशमसम्यक्त्व तीन प्रकारका है, वेदक सम्यक्त्व चार प्रकारका है और उपशम तथा क्षायिक, ये दो प्रकार । क्षयोपशमसम्यक्त्वके तीन भेदः १-अनन्तानुबन्धी चौकड़ोका क्षय और दर्शनमोहनीय त्रिकका उपशम । यह परिणामका पहिला भेद है। २-अनन्तानुबन्धी चौकड़ी और महामिथ्यात्वका क्षय और मिश्रमिथ्यात्व और सम्यक्त्वमोहनीयका उपशम । यह परिणाम का दूसरा भेद है। ३-अनन्तानुबन्धी चौकड़ी, महामिध्यात्व और मिश्रका क्षय और सम्यक्त्वमोहनीयका उपशम । यह परिणामका तीसरा भेद है। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय वेदकसम्यक्त्वके चार भेदः१-जहाँ अनुन्तानुबन्धी चौकड़ीका क्षय और महामिथ्यात्व और मिश्रका उपशम और सम्यक्त्वमोहनीयका उदय हो, उस परिणामको प्रथम क्षयोपशमवेदक सम्यक्त्व कहते हैं। २-जहाँ अनन्तानुबन्धी चौकड़ी और महामिथ्यात्वका क्षय मिश्रका उपशम और सम्यक्त्वमोहनीयका उदय हो. उस परिणामको द्वितीय क्षयोपशमवेदक सम्यक्त्व कहते हैं। ३–जहाँ अनन्तानुबन्धी चौकड़ी, महामिथ्यात्व और मिश्रका क्षय और सम्यक्त्वमोहनीयका उदय हो, उस परिणामको क्षायिक वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। ४-जहाँ अनन्तानुबन्धी चौकड़ी, महामिथ्यात्व और मिश्रका उपशम और सम्यक्त्वमोहनीयका उदय हो, उस पदिणामको उपशम वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। उपशम तथा क्षायिक दो भेदः १-जो अनन्तानुबन्धी चौकड़ी, महामिथ्यात्व. मिश्र और सम्यक्त्वमोहनीयको उपशमाता है, वह 'औपशमिक सम्यक्दृष्टि है। २-जो अनन्तानुबन्धी चौकड़ी, महामिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्वमोहनीयका क्षय करता है, वह 'क्षायिकसम्यग्दृष्टि' है। यह क्षायिकसम्यक्त्व जिनकालिक मनुष्योंको होता है । जो जीव ' श्रायुका बन्ध करनेके बाद इसे प्राप्त करते हैं, वे तीसरे या चौथे भवमें मोक्ष प्राप्त करते हैं; परन्तु अगले भवकी आयु बाँधनेके पहिले Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * सम्यक्त्व अधिकार * ३६६ जिनको यह सम्यक्त्व प्राप्त होता है, वे वर्तमान भवमें ही मुक्तिको प्राप्त करते हैं। उपशम श्रेणी-भावी औपशमिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति चौथे, पाँचव, छठे या सातवें में से किसी गुणस्थानमें हो सकती है परन्तु आठवें गुणस्थानमें तो उसकी प्राप्ति अवश्य ही होती है। औपशमिक सम्यक्त्वक समय आयुर्वन्ध, मरण, अनन्ता. नुबन्धी कपायका बन्ध तथा अनन्तानुबन्धी कपायका उदय, ये चार बातें नहीं होती। पर उससे च्युत होने के बाद हो सकती हैं। सम्यक्त्व-सत्ताकी निश्चय, व्यवहार, सामान्य और विशेष, ऐसी चार विधिका वर्णन किया जाता है। १-मिथ्यात्वके नष्ट होनसे मन, वचन व कायके अगोचर जो आत्माकी निर्विकार श्रद्धानकी ज्योति प्रकाशित होती है, उसे निश्चय सम्यक्त्व जानना चाहिय । २-जिसमें योग, मुद्रा, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदिकं विकल्प हैं, यह व्यवहार सम्यक्त्व है। ३-ज्ञानको अल्प शक्तिके कारण मात्र चेतना चिन्हके धारक आत्माको पहिचान कर निज और परके स्वरूपका जानना सामान्य सम्यक्त्व है। ४-हेय, ज्ञय, उपादेयके भेदाभेदका विस्तार रूपसे सममना विशेष सम्यक्त्व है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व अधिकार (शेषांश) ४-कालास्तिकाय-द्रव्यसे भूत और भविष्यत्कालकी अपेक्षासे अनन्त है, क्षेत्रसे व्यवहारकालकी अपेक्षासे अढ़ाई द्वीप-प्रमाण है और मृत्युकालकी अपेक्षासे लोकाकाश प्रमाण है, कालसे आदि-अन्त रहित है, भावसे वर्णादि-रहित अर्थात् अरूपी है और गुणसे पर्याय-परिवर्तनकारी है। * यह अधिकार द्वितीय खण्डमें दिया गया है। वहाँ यह लगभग ४० पृष्ट से भी अधिक होगया था। पाठकोंको इतना बड़ा एक अधिकार पढ़नेमें अरुचिकर होता। इसलिये वहाँ थोड़ासा देकर यहाँ उसका शेषांश दिया गया है। इसका दूसरा कारण यह भी है कि तृतीय खण्डमें प्राध्यात्मिक विषय रक्खे गये हैं। नवतस्वाधिकारका यह 'शेषांश' प्राध्यात्मिक विषयसे अधिक संबन्ध रखता है। क्योंकि इस 'शेषांश' में मात्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप, इन सात तस्त्रोंका मुख्यतया वर्णन है । ये सात तत्व मोशामिलापी पुरुष के लिये प्रति उपयोगी है। -सम्पादक। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नवतत्त्व अधिकार * ३७१ - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल, इन चार द्रव्योंके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुणकी अपेक्षासे बोस भेद हुये । (२०) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, इन तीनोंके स्कन्ध, देश और प्रदेश अलग-अलग होते हैं। इसलिये इम प्रकारसे इनके नौ भेद और हुये और कालका केवल एक ही भेद होता है। इसलिये सब मिलाकर इनके दस भेद इस अपेक्षासे और हुये। (१०) इस प्रकार अरूपी अजीव द्रव्योंके कुल भेद तीस हुये । (३०) वर्णके पाँच प्रकारके पुद्गल, गन्धके दो प्रकारके पुद्गल, रसके पाँच प्रकारकं पुद्गल, स्पर्शके आठ प्रकारके पुद्गल और संस्थानके पाँच प्रकार कहे गये हैं। १-एक वर्णके पुद्गलके दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श और पाँच संस्थान हो सकते हैं। इस प्रकार एक वर्णके पुद्गलके बीस भेद होते हैं। कुल वर्ण पाँच प्रकार के हैं। इसलिये कुल वर्णके सौ भेद हुये । (१००) २-एक गन्धके पुद्गलके पाँच वर्ण, पाँच रस, आठ स्पर्श और पाँच संस्थान हो सकते हैं । इस प्रकार तेईस भेद हुये और चूंकि गन्ध दो प्रकारकी होती है। इस कारण गन्धके छयालीस भेद हुये । (४६) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय ३-एक रसके पुद्गलके पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श, और पाँच संस्थान हो सकते हैं। इस प्रकार एक रसके पुद्गलके बीस भेद हुये और कुल रस पाँच हैं। इसलिये कुल रसके भेद सौ हुये । (१००) ४-एक स्पर्शक पुद्गलके पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध, पाँच संस्थान और छह स्पर्श हो सकते हैं। इसलिये एक स्पर्शके पुद्गलके तेईस भेद हुए और स्पर्श आठ प्रकार के हैं। इसलिये कुल भेद एक सौ चौरासी हुए । (१८४) ___ गुरु लघु नहीं होता, चिकना खुरखुरा नहीं होता, ठंडा गरम नहीं होता। इस प्रकार इस अपेक्षासे स्पर्श के केवल बह भेद ही पाये जाते हैं। ५-संस्थान पाँच प्रकारक माने हैं। गोल, त्रिकोण, चतुर्भुज, परिमण्डल (चूड़ी जैसा) और लम्बायमान (लकड़ी जैसा लम्बा) । प्रत्येक संस्थानके पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श, इस अपेक्षासे बीस भंद हुए। कुल संस्थान पाँच है। इसलिये संस्थान-आश्रित कुल भेद सौ हुए । (१००) अजीव अरूपी और रूपी व्यके सब मिलकर ३० + १०० + ४६+ १००+१८४ + १०० = ५६० भेद हुए। शास्त्रकारोंने पुद्गलके छह भेद अन्य अपेक्षास भी किये हैं। यथा Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * नवतत्त्व अधिकार # ३७३ १ - स्थूल-स्थूल, जैसे पृथ्वी - पर्वतादिकः २ -स्थूल, जैसे जल, दूध आदि तरल पदार्थ, ३ - स्थूल सूक्ष्म, जैसे छाया, आताप आदि नेत्र- इन्द्रियगोचरः ४ – सूक्ष्म-स्थूल, जैसे नेत्रके बिना अन्य चार इन्द्रियोंसे ग्रहण - योग्य शब्द, गन्ध आदि । ५ - सूक्ष्म, जैसे कर्मोकी वर्गणाएँ और ६ - सूक्ष्म सूक्ष्म, जैसे परमाणु । पुण्य 'पुनाति -- आत्मानं पवित्रयतीति पुण्यम्' - आत्माको जो पवित्र करे वह 'पुण्य' है। अर्थान् जीवके शुभ परिणाम के निमित्त से पुद्गल के जो शुभ कर्म रूपी शक्ति होती है, उसको 'पुण्य' कहते हैं। समस्त संसार में शुभ अशुभ कर्मके रज रूपी पुद्गल ठसाटस भरे हुये हैं। जीव अर्थात् प्राणो जैसे मन, वचन और कायसे शुभ-अशुभ कर्म करता है, उसके अनुसार आत्म- प्रदेशोंपर रज रूपी पुद्गल चिमट जाते हैं। इन कर्म-पुद्गलों का पूरा विवरण 'कर्म अधिकार' में किया गया है, वहाँ देखना चाहिये । पुण्य कर्मोंका बाँधना मुशकिल है, पर भोगना आसान है । बड़े त्याग, सेवा, इन्द्रिय-दमन आदि पुण्यका बन्ध होता है । पर इसके फलोंका भोगना बड़ा प्रिय लगता है । पुण्य मोक्षका कारण नहीं है । पुण्य से संसार में हर प्रकारके सुख व वैभवकी प्राप्ति होती है । शास्त्रकारोंने पुण्यको स्वर्णकी बेड़ीसे उपमा दी है । संसारी जीव सुख, सम्पत्ति, वैभव आदिके बड़े अभिलाषी होते हैं। इस Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ** जेलमें मेरा जैनाभ्यास *# [तृतीय कारण उनको पुण्य उपार्जन करना चाहिये । शास्त्रकारोंने पुण्यउपार्जन करने के लिये अनेक मार्ग-साधन बताये हैं । यथा: १ - अन्नका दान, २- पानीका दान, ३ - पात्रका दान, ४मकानका दान, ५ - वस्त्रका दान, ६ - मनसे शुभ चिन्तन करना, ७ - वचनसे शान्ति देना - शरीरसे सेवा आदि करना और ९ - वृद्धों व गुणियों को नमस्कार आदि करना । १- अन्नका दान: सच्चे त्यागी मुनियों-साधुओंका शुद्ध आहार दान देना । इनके अलावा अनाथ, अपाहिज असहाय, विधवा, अकाल पीड़ितों आदिको अन्न दान अर्थात् भोजन देना । २- पानीका दानः सच्चे त्यागी मुनियों-- साधुओंका शुद्ध व चित्त पानी वैराना | इनके अलावा मनुष्यों, पशुओं आदिकलिये प्याऊ आदिका प्रबन्ध करना । " ३- पात्र का दान: सच्चे त्यागी मुनियों-- साधुओंको पात्र ( काष्ठके वर्तन ) आदि देने । इनके अलावा जिन अनाथों, असहायों, बेवाओं, निर्धनों के पास पात्र न हों तो उन्हें पात्र देना । - ४- मकानका दानः- साधु-मुनि सदा भ्रमण किया करते हैं। उनके कोई मकान नहीं होते हैं। अगर वे भ्रमण करते भावें तो उनके ठहरने केलिये Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड *नवतत्त्व अधिकार * ३७५ Sanction साताकारी मकान अथवा स्थान आदिका प्रबन्ध करना । जो आदमी धर्मशाला आदि बनवाते हैं, वे भी पुण्य उपार्जन करते हैं। ५-वस्त्रका दान: सच्चे त्यागी, मुनियों और साधुओंको स्वच्छ और शुद्ध वस्त्र वैराना । इनके अलावा अनाथों, असहायों, विधवाओं, वृद्धों, आदिको वस्त्र दान देना और जाड़ोंमें जो निधन मनुष्य हों उनकी वस्त्रसे सहायता करनी चाहिये । ६-मनमें शुभ चिन्तनः प्रत्येक प्राणीको सदा अपने मनसे दूसरोंके प्रति अर्थात् प्राणीमात्रके वास्ते शुभ चिन्तन व शुभ भावना रखनी चाहिये । कभी किसीके प्रति बुरे ख्याल स्वप्न तकमें भी नहीं लाने चाहिये। ७-वचनसे शान्ति देनाः अगर कोई प्राणी दुःख, तकलीफ, कष्ट या सन्ताप अवस्थामें है तो उसको शान्ति देनी चाहिये । इसके अलावा सदा कोमल और मृदु वचनोंसे बोलना चाहिये । अर्थात् कभी क्रोध, घृणा, कठोरताके शब्द नहीं बोलने चाहिये। सदा गुणियोंके गुणगान करते रहना चाहिये। ८-कायसे सेवाः अगर कोई साधु या मुनि तकलीफ या कष्टमें हो तो उसकी सेवा भक्ति करनी चाहिये । इसके अलावा कष्ट-पीड़ित, रोगियों, Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय कमजोरों श्रादिकी सेवा शुश्रूषा करनी चाहिये । निर्बलों, असहायों और अबलाओंकी बलवानों और निर्दयोंसे रक्षा करनी चाहिये। ६-गुणियोंको नमस्कारः सच्चे और त्यागी मुनियों और साधुओंको नमस्कार अर्थात् बन्दना आदि करना। इसके अलावा बुजुर्गों, विद्वानों, गुणियों आदिको नमस्कार करना चाहिये । इसके अलावा और दूसरे कार्योंसे भी पुण्यका उपार्जन होता है। जैसे:-विद्यादान देना, अभयदान देना, आदि। __ सदा सुपात्रको दान देना चाहिये । इसके अलावा दान व साहाय्य तो सिर्फ उन्हींका होना चाहिये, जो उसके पात्र हैं अर्थात् जो जरूरत वाले हैं। अकसर ग़फ़लत और लेहतलालीकी वजहसे ऐसे मनुष्योंको दान पहुँच जाता है, जो उसका दुरुपयोग करते हैं। ऐसी अवस्थामें बजाय पुण्यके पापका ही बन्ध हो जाता है। हाँ ! दान देनेवालेके भाव यदि शुद्ध हैं तो उससे पुण्य ही होता है । इस कारण दान सदा सोच-समझ और देख-भाल कर देना चाहिये । बहुतसे धूर्त, पाखंडी, प्रमादी दान ले जाकर कुव्यसन और व्यभिचार आदिमें लगाते हैं। जो प्राणी सुपात्र-दान देते हैं, वे बयालीस प्रकारसे पुण्यके फलको भोगते हैं: १-सातावेदनीय, २-उच्च गोत्र, ३-मनुष्य गति, ४-देव गति, ५-मनुष्यानुपूर्वी, ६-देवानुपूर्वी, ७-पञ्चेन्द्रिय जाति, Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड) * नवतत्त्व अधिकार * ३७७ ८-औदारिक शरीर, E--वैक्रियिक शरीर, १०-आहारिकशरीर, ११-तैजस शरीर, १२-कार्मण शरीर, १३-औदारिक अङ्गोपाङ्ग, १४-वैक्रियिक अङ्गोपाङ्ग, १५-पाहारिक अङ्गोपाङ्ग, १६-वऋषभनाराचसंहनन, १७-समचतुरस्रसंस्थान, १८शुभ वर्ण, १६-शुभ गन्ध, २०-शुभ रस, २१-शुभ स्पर्श, २२-शुभ, २३-सौभाग्य, २४-सुस्वर, २५-यशः कीर्ति, २६-देवायु, २७-मनुष्यायु, २८-तिर्यगायु, २६-तीर्थंकर, ३०-मनुष्यगत्यानुपूर्व्य, ३१-देवगत्यानुपूर्व्य, ३२-अगुठलघु, ३३-परघात, ३४-उच्छ्वास, ३५-श्रातप, ३६-उद्योत, ३७-शुभविहायोगति, ३८-त्रम, ३६-वादर, ४०-पर्याप्त, ४१-प्रत्येकशरीर, ४२-स्थिर नाम कर्म। ___ पुण्य और पाप दोनों संसारके कारण हैं। पाप लोहेकी बेड़ी के समान है तो पुण्य सोनेकी बेड़ीके समान है । अाखिर बेड़ीबन्धन दानों हैं। इस कारण आत्मार्थी प्राणियोंको तो दोनों त्याज्य हैं । फिर वह पुण्य कैसे करता है ? - जैसे किसान जब चावलोंकी खेती करता है, तब उसका मुख्य उद्देश्य चाँवल उत्पन्न करनेका रहता है और चाँवलोंका जो पलाल (भूसा) है, उसमें उसकी इच्छा नहीं रहती, तथापि उसको बहुत-सा पलाल मिल ही जाता है। इस प्रकार मोक्ष चाहनेवाले जीवोंको वाञ्छा बिना ही पुण्यकी प्राप्ति हो जाती है और उस पुण्य से स्वर्गमें इन्द्र-लौकान्तिकदेव आदिकी विभूति तकको जीव प्राप्त Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय करता है। वहाँपर भी धर्ममें बुद्धिको दृढ़ करके चतुर्थ गुणस्थानके योग्य जो अपनी अविरत अवस्था है उसको नहीं छोड़ता हुआ भोगोंका सेवन करते हुए भी धर्मध्यानसे देवायुको पूर्ण कर, स्वर्गसे आकर तीर्थंकर श्रादि पदको प्राप्त कर, पूर्वजन्ममें भावित की हुई जो विशिष्ट-भेद-ज्ञानकी वासना है उसके बलसे मोहको नहीं करता है और मोहरहित होनेसे श्रीजिनेन्द्रकी दीक्षाको धारण कर पुण्य तथा पापसे रहित जो निज-पर आत्मा का ध्यान है. उसके द्वारा मोक्षको जाता है। और जो मिथ्यादृष्टि है, वह तो तीव्र निदानबन्धक पुण्यसे चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण श्रादिके समान भागोंको प्राप्त कर नरकको जाते हैं। पुण्य प्रकृति तेरहवें गुणस्थान तक लगी हुई हैं। पुण्य की प्रशंसा शास्त्रों में अनेक स्थानपर की है। इस कारण श्रादरनेके स्थानपर आदरणीय है और मोक्ष होते समय त्याग ता उनका स्वयं ही हो जाता है। पाप अशुभ परिणामोंसे युक्त जीव पाप रूप होता है। दूसरे शब्दोंमें यो कहना चाहिये कि जिस कर्मका फल दुःख रूप हो, उसे पाप कहना चाहिये । पाप कर्मो से जीव अनादि कालसे घिरा हुआ है । यह कर्म आत्माको मलीन कर देते हैं । इसका बाँधना बड़ा सरल है, पर इसका परिणाम भोगना बड़ा दुष्कर है। शास्त्रकारोंने पापको लोहेकी बेड़ीसे उपमा दी है। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * नवतस्त्व अधिकार # ३७६ समस्त लोक अशुभ कर्म अर्थात् पापके पुद्गल ठसाठस भरे हुये हैं । जब कोई जीव अशुभ कर्म अथवा पाप करता है तो अशुभ कर्मोंके रज रूपी पुद्गल उसकी आत्मा के प्रदेशोंपर मिट जाते हैं, वे उसी समय या समय आनेपर अपना अशुभ फल देते हैं । अज्ञानी व भोले प्राणी पापको हँस-हँसकर बाँध लेते हैं, पर इसके परिणामसे उनका रो-रो कर भी पीछा नहीं छूटता है । प्राणी प्रथम भावपाप करता है, तत्पश्चात् द्रव्यपाप करता है । अशुभ प्रकृति परिणमन रूप द्रव्यपाप कर्म है । वह श्रात्माके ही अशुभ परिणामोंका निमित्त पाकर उत्पन्न होता है । शास्त्रकारोंने पापके अठारह भेद फरमाये हैं । वे निम्न प्रकार हैं: १ - प्राणातिपात अर्थात् जीवकी हिंसा करना । २ - मृषावाद अर्थात् असत्य - झूठ बोलना । ३ - अदत्तादान अर्थात् बग़ैर दी हुई वस्तु लेनीचोरी करना । ४ - मैथुन अर्थात् कुशीलका सेवन करना । ५ - परिग्रह अर्थात् द्रव्य - धन आदि रखना और ममता बढ़ानी । ६ - क्रोध अर्थात् अपनेको तपाना-कोप करना । -मान अर्थात् अहङ्कार ( घमण्ड ) करना । ८- माया अर्थात् कपट, ठगई इत्यादि करना । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय ६-लोभ अर्थात् तृष्णा बढ़ाना-गृद्धिपणा रखना। १०-राग अर्थात् स्नेह रखना-प्रीति करना । ११-द्वेष अर्थात् अनिच्छित वस्तुपर घृणा करना। १२-कलह अर्थात् क्लश करना । १३-अभ्याख्यान अर्थात् झूठा कलक्क लगाना । १४-पैशून्य अर्थात् दूसरोंकी चुगली खाना । १५-पर-अपवाद अर्थात् दूसरोंकी निन्दा करना । १६-रति-अरति अर्थात् पाँचों इन्द्रियोंके तेईस विषयोंमेंसे इच्छित वस्तुपर प्रसन्न होना और अनिच्छित वस्तुपर अप्रसन्न होना। १५-मायामृषावाद अर्थात् कपटसहित झूठ बोलनाकपटमं भी कपट करना। ___१८-मिथ्यादर्शनशल्य अर्थात् कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर श्रद्धा रखना। जो अज्ञानी प्राणी उपरोक्त अठारह पापोंका सेवन करते हैं, उनको निम्नलिखित बयासी कर्म-प्रकृतियाँ भागनी पड़ती हैं: ज्ञानावरणीयकी पाँच, दर्शनावरणीयकी नौ, वेदनीयकी एक, मोहनीयकर्मकी छब्बीस, आयुष्यकर्मकी एक, नामकर्मकी चौंतीस, गोत्रकर्मकी एक और अन्तरायकर्मकी पाँच । इस प्रकार बयासी प्रकृतियाँ होती हैं। इनका वर्णन 'कर्म अधिकार' में है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * नवतश्व अधिकार * ३८१ प्रास्त्रव जिस प्रकार नावमें छिद्र होनेसे पानी आनेके कारण वह नाव डूब जाती है, उसी प्रकार संसार रूपी समुद्रमें आस्रव रूपी छिद्रसे पाप रूपी पानीके भर जानेसे आत्मा रूपी नाव डूब जाती है। अर्थात् कोंके आनेके द्वारको 'प्रास्त्रव' कहते हैं। कोंके आनेके द्वार अनेक हैं। उनका वर्णन शास्त्रकारोंने इस प्रकार किया है: शाखकारोंने बीस प्रकार, बयालीस प्रकार और सत्तावन प्रकारसे प्रास्त्रव होना बताया है। बीस भेद इस प्रकार हैं: १-मिथ्यात्वको सेव तो श्रास्रव, २-अत्रत अर्थात् प्रत्याख्यान नहीं करे तो पासव, ३-पाँच प्रमाद सेवन करे तो आस्रव, ४-पचीस कषाय सेवन करे तो आस्रव, ५-अशुभ योग प्रवत्वे तो श्रास्रव, ६-प्राणातिपात अर्थात् जीवकी हिंसा करे तो बास्त्रव, ७-मृषावाद अर्थात् झूठ बोले तो पासव, ८-अदत्तादान अर्थात् चोरी करे तो प्रास्त्रव, ६-मैथुन अर्थात् कुशील सेवन करे तो आस्रव, १०-परिग्रह अर्थात् धन, कंचन आदि रक्खेतोपात्रव,११-श्रोत्रेन्द्रिय वशमें न रक्खे तो श्रास्रव, १२-चक्षुरिन्द्रिय वशमें न रक्खे तो प्रास्त्रव, १३-नाणेन्द्रिय वशमें न रक्खे तो पासव, १४-रसेन्द्रिय वशमें न रक्खे तो प्रास्रव, १५-स्पर्शेन्द्रिय वशमें न रक्खे तो श्रास्रव, १६-मनकों Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय - वशमें न रक्खे तो आस्रव, १७-वचनको वशमें न रक्खे ता आस्रव, १८--कायको वशमें न रक्खे तो भास्रव, १६-भंड उपकरण अर्थात् सामान आदि असावधानीसे रक्खे तो भास्रव, २०-सुई कुशमात्र असावधानीसे ले या रक्खे तो श्रास्रव । बयालीस प्रकारका आस्रव इस भाँति मानते हैं: पाँच इन्द्रियोंके विषयोंसे, चार कषायोंसे, तीन अशुम योगोंसे, पञ्चीस क्रियाओंसे, पाँच अव्रतोंसे, इस प्रकार ब्यालीस प्रकारसे भी आस्रवका होना माना गया है। सत्तावन प्रकारसे प्रास्रवका होना इस प्रकार बतलाया है:उपरोक्त ब्यालीस प्रकारों में पन्द्रह योग और शामिल कर देनेसे आस्रवके सत्तावन प्रकार हो जाते हैं । आस्रवको करनेवाली पच्चीस क्रियाएँ ये हैं: १-देव, गुरु और धर्मकी भक्ति आदि करना सम्यक्त्व क्रिया; २-अन्य कुदेव, कुगुरु, कुधर्म की स्तुति करना मिथ्यात्व क्रिया; ३-कामादिकसे गमनागमनादिरूप करना प्रयोग क्रिया; ४-ईर्यापथ अर्थात् गमनकेलिये क्रिया करना ईर्यापथ क्रिया; ५-वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशय हो जानेपर आङ्गोपाङ्ग नामकर्मकी प्राप्तिसे आत्माको मन, वचन और कायके योग्य पुद्गलोंके ग्रहण करनेकी जो शक्ति होती है, वह समादान क्रिया; ६-क्रोधके आवेशसे जो क्रिया हो वह प्रादोषिकी क्रिया; ७-दुष्टताकेलिये उद्यम करना कायिकी क्रिया -हिंसाके Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वण्ड] * नवतत्व अधिकार # ३८३ उपकरण शस्त्रादिकका ग्रहण करना आधिकरणकी क्रिया; ६ - अपने व परायेके दुःखोत्पत्तिका जो कारण हो, वह पारतापिकी क्रिया; १० – आयु, इन्द्रिय, बल, प्राणों आदिका वियोग करना प्रारणातिपातकी क्रियाः ११ – रोगाधिकता के कारण प्रमादी होकर रमणीय रूपका आवरण करना दर्शन क्रिया; १२ - प्रमाद के कारण वस्तुके स्पर्शनार्थं प्रवर्त्तनेसे स्पर्शन क्रिया; १३विषयोंके नये-नये कारण मिलाना प्रात्ययिकी क्रिया; १४ - स्त्रीपुरुषों व पशुओं के बैठने सोने- प्रवर्त्तने के स्थान में मल-मूत्र आदि क्षेपण करना समंतानुपात क्रिया; १५ - बिना देखी शोधी भूमिपर बैठना, शयन करना आदि अनाभोग क्रिया; १६ - परके करने योग्य क्रियाको स्वयम् करना स्वहस्त क्रियाः १७ -- पापोत्पादक प्रवृत्तिको भला समझना व श्राज्ञा करना निसर्ग क्रिया; १८आलस्य से प्रशस्त क्रिया न करना अथवा अन्यके किये हुए पापाचरणका प्रकाश करना विदारण क्रिया; १६ - चारित्रमोहके उपद्रवसे परमागमकी आज्ञानुसार प्रवत्तनेमें असमर्थ होकर अन्यथा प्ररूपण करना आज्ञाव्यापादिकी किया; १० - प्रमादसे व श्रज्ञानता से परमागमकी उपदेश की हुई विधिमें अनादर करना अनाकाङ्क्षा क्रियाः २१ - छेदन-भेदन आदिकी क्रियामें तत्परता होना तथा अन्यके आरम्भ करनेमें हर्प मानना आरम्भ क्रिया; २२ -- परिग्रहकी रक्षाकेलिये प्रवृत्ति करना पारिप्राहिकी क्रिया: २३ - - ज्ञान दर्शनादिकमें कपटरूप उपाय करना माया Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास # [तृतीय क्रियाः २४ -- मिध्यात्वका कार्य करना व करनेवालेको उस कार्यमें दृढ़ करना मिध्यादर्शन क्रियाः २५ - संयमको बात करनेवाले कर्मके उदयसे संयम रूप नहीं प्रवर्त्तना अप्रत्याख्यान क्रिया । ये पचीस क्रियाएँ आस्रवकी कारण हैं । बन्ध इस तत्त्वका वर्णन 'कर्म अधिकार' में किया जा चुका है । संवर जिस प्रकार छिद्र सहित नौका जो समुद्र में पड़ी हुई है. उसके छिद्र बन्द कर देने से जलका आना बन्द हो जाता है; उसी प्रकार संसार रूपी समुद्र में जो आत्मा रूपी नौका पड़ी हुई है, जिसके छिद्र रूपी श्रस्रवको रोकनेसे कर्म रूपी जल नहीं आता है। इस कर्मागम द्वारके रोकनेको 'संवर' कहते हैं । अर्थात् श्रस्रवके निरोधको संवर कहते हैं । जो पुरुष संवर धारण करता है, उसका यह कर्त्तव्य है कि वह पाप रूपी जलका अर्थात् मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय आदिका सर्वथा लोप करके संयम अवस्था अर्थात् शुभ भावना, शुभ विचारों का ध्यान - चिन्तन करे । संवर धारण करनेसे मनुष्य अपने संसारको कम करता है । शास्त्रकारोंने संवर के सामान्य प्रकारसे बीस भेद कहे हैं और विशेष प्रकारसे सत्तावन भेद कहे हैं, जो निम्न प्रकार हैं: -- "अस्त्रवनिरोधः संवरः " -उमास्वाति । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार * १-सम्यक्त्वका धारण करना, २-व्रत-प्रत्याख्यानका करना, ३-प्रमादका त्याग करना, ४-कषाय नहीं करना, ५-- शुभ विचारोंका हृदय में संचार करना, ६-दया पालनी ७-सत्य बोलना, ८-बिना दी हुई वस्तु नहीं लनी,ह-ब्रह्मचर्यका पालन करना, १०-निर्ममत्व होना, ११-१२-१३-१४--१५श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रस और स्पर्श इन्द्रियका निग्रह करना, १६मनको वशमें रखना, १४-वचन और कायका निग्रह करना, १६-भण्डोपकरणोंको सावधानीसे लेना और सावधानीसे रखना और २०-सुई-कुशमात्र भी यत्नसे लेना और यत्न से रखना। संवरके सत्तावन भेद इस प्रकारसे हैं:-- - पाँच समिति, तीन गुमि, बाईस परिषह, दस यतिधर्म, बारह भावना और पाँच चारित्र । पाँच समितिः १--ईर्या समिति, २-भाषा समिति, ३-एषणा समिति, ४--प्रादाननिक्षेपणा समिति और ५--परिठावणीयाउत्सर्ग समिति । तीन गुप्तिः-- .. १-मनोगुप्ति, २-वचनगुप्ति और कायगुप्ति । बाईस परिषहः Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास. [तृतीय १-क्षधा, २-तृषा, ३-शीत, ४-उष्ण, ५--दंशमशक, ६-अचेल, ७-अरति, ८-स्त्री, --चर्या, १०-निषद्या, ११-शय्या, १२-अक्रोध, १३--वध १४-याचना, १५अलाम, १६-रोग, १७-तृण, १८-मल, १६-सत्कारपुरस्कार, २०-प्रज्ञा, २१-अज्ञान और २२-प्रदर्शन । दस यतिधर्म: १-क्षमा, २-मुक्ति, ३-आर्जव, ४-माईव, ५-लाघव, ६-सत्य, ७-संयम,८-तप, ६-त्याग और १०-ब्रह्मचर्य छ । बारह भावना: १-अनित्य, २--अशरण, ३--संसार, ४-एकत्व, ५अन्यत्व, ६-अशुचि, ७--श्रास्रव, ८-संवर, ६-निर्जरा, १०-लोक, ११-बोधि और १२--धर्मस्वाख्यातत्व । पाँच चारित्रः १-सामायिक, २-छेदोपस्थापनीय, ३-परिहारविशुद्धि, ४-सूक्ष्मसम्पराय और ५-यथाख्यात । निर्जरा जिस प्रकार समुद्र में पड़ी हुई किसी नौकाके छिद्र तो बन्द कर दिये, जिससे कि श्राता हुआ पानी रुक गया, लेकिन जो पानी उसमें पहले भर गया है, वह जब तक न निकाला जायगा, तब *"उत्तम-समामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमतपस्स्यागाधिन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः।" -उमास्वाति । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * नवतत्त्व अधिकार * ३८७ तक नौकाका पार लगना कठिन है । उसी प्रकार आत्मा रूपी नौका में जो पाप रूपी पानी भरा हुआ है, उसको निकालनेका उपाय मनुष्यको करना चाहिये | ऐसा किये बिना यह आत्मा| संसार-समुद्र से पार नहीं हो सकती । कर्म रूपी जलको आत्मा रूपी नौकासे निकालने के उपायको 'निर्जरा' कहते हैं। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि श्रात्म प्रदेशोंपर जो अशुभ कर्मों के परमाणु लगे हुए हैं, उनको दूर करने के उपायको निर्जरा कहते हैं। जिस प्रकार एक चिकने घड़ेको गर्म पानी व सोड़ा आदि लगाकर साफ़ किया जाता है, उसी प्रकार कम्मल से मलीमस आत्मा तपः- संयम आदिसे पवित्र की जाती है । आत्मामें जो संचित कर्म हैं, उनको दूर करनेकेलिये अथवा आत्माको शुद्ध करने के लिये शास्त्रकारोंने बारह विधियाँ बताई हैं: १ - अनशन - 'अशनं- भोजनम् । न अशनमिति अनशनम्' अर्थात् आहार- पानीका त्याग करना । * यह एक तप है । इसमें श्राहार- पानीका त्याग किया जाता है । सामर्थ्यवान् प्राणी सर्व प्रकारके आहार पानीका त्याग कर देते हैं। एक दिनका, दो दिनका, महीने भरका, साल भरका इत्यादि जितनी अपनी सामर्थ्य हो - उसके अनुसार त्याग करते हैं और जिनमें इतनी सामर्थ्य नहीं होती, वे थोड़ा भी कर सकते हैं। आहार मात्र का त्याग कर केवल Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [ तृतीय २ - श्रवमौदर्य अर्थात् भोजनकी अधिक रुचि होनेपर भी कम आहार करना । ३ - भिक्षाचर्या अर्थात् शुद्ध आहार आदिका लेना । ४ - रसपरित्याग अर्थात् मीठा, घृत, तेल आदिका त्याग करना । ५ - कायक्लेश अर्थात् वीर, गोदोहन, वश्र आदि आसन करना । ६- पड़िसंलीणता अर्थात् इन्द्रिय योग आदि कर्म-बन्धके कारणों से आत्म-निग्रह करना । ये छह तप 'बाह्य तप' कहलाते हैं + । ७- प्रायश्चित्त अर्थात् खाने-पीने, उठने-बैठने या अन्य किसी तरीसे कोई दोष लग गया हो तो आत्माको शुद्ध करनेके लिये आलोचना, वन्दना करना । देवक ८ - विनय अर्थात् गुरु आदिका भक्ति-भावसे अभ्युत्थानादि द्वारा आदर-सत्कार करना । जल ही ले सकते हैं । उद्दीप्त इन्द्रियोंको और मनको वशमें करनेके लिये मुनि इस तपका आचरण करते हैं। + " अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः” । —उमास्वाति । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नववस्व अधिकार ३८६ -वैय्यावृत्य अर्थात् दस प्रकारके प्राचार्यादिकोंकी सेवा करना। १०-स्वाध्याय अर्थात् शाखोंकीवाचना-पृच्छना आदि करना। ११-ध्यान अर्थात् मनको एकाग्र करना । १२-व्युत्सर्ग अर्थात् कायके व्यापारका त्याग करना । ये पिछले छह तप 'आभ्यन्तर तप' कहलाते हैं । जो पुरुष अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश, इन छह प्रकारके बहिरज तप तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, इन छह प्रकारके अन्तरङ्ग तपोंको कर सकते हैं, वे बहुतसे कोंकी निर्जरा करते हैं। ___ अनेक कर्मों की शक्तियोंके गलानेको समर्थ द्वादश प्रकारके तपोंसे बड़ा हुआ मनुष्यका जो शुद्धोपयोग है, वही-'भाव निर्जरा' है और भाव निर्जराके अनुसार नीरस होकर पूर्व में बंधे हुए काँका एक देश खिर जाना 'द्रव्य निर्जरा' है। _____ जो पुरुष कर्मों के निरोधसे संयुक्त है, आत्म-स्वरूपका जाननेवाला है, वह पर कार्योसे निवृत्त होकर आत्मकार्यका उद्यमी होता १--दस प्रकार के प्राचार्यादि ये है:"प्राचार्योपाध्याय तपस्वि-शैक्ष-ग्लान-गण-कुल-संघ-साधु-मनोज्ञानाम्।" -उमास्वाति। • "प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्तिस्वाध्यायच्युसर्गध्यानान्युत्तरम्।" -ठमास्वाति । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय है, तथा अपने स्वरूपको पाकर गुणगुणीके अभेदसे अपने ज्ञानगुणको आपमें अभेद रूपसे अनुभव में लाता है। वह पुरुष सर्वथा प्रकार वीतराग भावोंकेद्वारा, पूर्वकालमें बँधे हुए कर्मरूपी धूलको उड़ा देता है अर्थात् कर्मोंको खपा देता है । मोक्ष बन्धका प्रतिपक्षी मोक्ष है अर्थात् उक्त चारों प्रकार के बन्धसे मुक्त होना - छूटना, उसीका नाम 'मोक्ष' है । मोक्षकी प्राप्ति केवलज्ञानपूर्वक है अर्थात पहिले केवलज्ञान हो जाता है, तब मोक्ष होता है। इस कारण पहिले केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण कहते हैं । मोहनीय कर्मके क्षय होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त्त पर्यन्त क्षीणकषाय नामका बारहवाँ गुणस्थान पाकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इन तीनों कर्मोंका नाश होनेपर केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । केवलज्ञान होनेके पश्चात् वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन चार अघातिया कर्मोंका नाश हो जाना अर्थात् आगामी कर्मबन्धके कारणोंका सर्वथा अभाव और पूर्व संचित कर्मोकी सत्ताका सर्वथा नाश हो जाना ही मोक्ष है । "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" अर्थात् सम्यग्दर्शन युक्त ज्ञान और चारित्र ही मोक्षका मार्ग है। ज्ञान और दर्शन आत्मा के अनादि-अनन्त गुण हैं, मोक्ष होनेके बाद वे Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरड * नवतत्त्व अधिकार * ३६१ भी कायम रहते हैं । झान बिना दर्शन नहीं और दर्शन बिना ज्ञान नहीं, दोनोंका जोड़ा है। इनको स्वच्छ बना सम्पूर्णता प्राप्त करनेका साधन चरित्र और तप हैं। ये सादि-सान्त हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो शब तक इनकी आवश्यकता है। इन चारों प्रकारके गुणाराधनसे मोक्ष प्राप्त होता है। समस्त कर्मोके नष्ट हो जानेके पश्चात् मुक्त जीव लोकके अन्त भाग तक ऊपरको जाता है। जिस तरह मिट्टीसे लिपटी हुई तुंबी जब तक मिट्टीके कारण भारी रहती है, तब तक पानीमें डूबी रहती है, परन्तु ज्यों ही उसकी मिट्टी धुल जाती है, त्यों ही वह पानीके ऊपर आजाती है। इसी प्रकारसे कर्मके मारसे दबा हुआ आत्मा ज्यों ही उनसे छूट कर हलका होता है, त्यों ही वह ऊपरको गमन करता है। जीवका जब ऊर्ध्व-गमनका स्वभाव है तो फिर लोकके अन्तमें ही क्यों ठहर जाता है ? अलोकाकाशमें क्यों नहीं चला जाता है ? इसका उत्तर यह है अलोकाकाशमें धर्मास्तिकायके प्रभाव होनेसे आत्मा गमन नहीं कर सकती है अर्थात् धर्मादिक पाँच द्रव्योंका निवास लोकाकाशमें ही है, अलोकाकाशमें नहीं है। और जीव और पुद्गलको गमन करनेमें सहायक धर्म द्रव्य ही होता है, जिसका कि भागे प्रभाव है। इसलिये जीवके गमनका भी प्रभाव है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय इसी कारण मुक्त जीव लोकके अन्त में जाकर सिद्ध स्थानमें ठहर जाता है । यदि कोई प्रश्न करे कि मुक्त जीवोंमें कुछ भेद है कि नहीं तो उसका उत्तर इस प्रकार है: -- वास्तव में तो सिद्धों में कोई भेद नहीं है अर्थात् सब एकसे हैं, परन्तु हम संसारी जीवों की अपेक्षासे निम्न लिखित अनुयोगों से सिद्धों में भेद-व्यवहार हो सकता है: -- क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व | क्षेत्रकी अपेक्षासे - भरत, महाविदेह आदि किस क्षेत्र से मुक्त हुए; काल की अपेक्षासे - किस काल में मुक्त हुए लिङ्गकी अपेक्षासेतीन भावलिङ्गों में से किस लिङ्गसे क्षपकश्रेणी चढ़ कर मुक्त हुए; तीर्थकी अपेक्षा - किस तीर्थंकरके तीर्थ में मुक्त हुए व तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त की या सामान्यकेवली होकर मोक्ष प्राप्त की; चारित्रकी अपेक्षासे - किस चारित्र से कर्मोंसे मुक्त हुए; प्रत्येकबुद्ध बोधित की अपेक्षा - मुक्तिको प्राप्त करने केलिये जो साधुवृत्ति धारण की, वह अपने ही ज्ञानसे- समझसे धारण की अथवा दूसरेके उपदेशसे; ज्ञानकी अपेक्षासे - मनः पर्यवज्ञानसे केवलज्ञान हुआ अथवा अवधिज्ञानसे; अवगाहना की अपेक्षासे चौदहवें - * "क्षेत्र कालगतिलिङ्ग तीर्थ चारित्रप्रत्येकवुद्धिबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्यारूपबहुत्वतः साध्याः । " -उमास्वाति । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार * ३६३ गुणस्थानमें शरीरकी कितनी अवगाहना थीं; अन्तरकी अपेक्षासे-- अमुक जीवके सिद्ध हो जानेके कितने समय बाद अमुक जीव सिद्ध हुए; संख्याकी अपेक्षासे-अमुक समयमें एक साथ जितने जीव सिद्ध हुए उनकी कितनी संख्या थी और अमुक समयमें एक साथ जितने जीव सिद्ध हुए उनकी कितनी संख्या थी; अल्पबहुत्वकी अपेक्षासे--अमुक-अमुक समयमें एक साथ सिद्ध हुए जीव थोड़े थे अथवा अधिक; इत्यादि । जिस शरीरसे आत्मा सिद्धपदको प्राप्त करती है, उस शरीरसे तीसरा भाग कम सिद्धस्थानमें आत्मप्रदेशकी अवगाहना रह जाती है। जैसे:-मान लो ५०० धनुष्की अवगाहनावाली कोई आत्मा सिद्ध हुई तो उसकी अवगाहना वहाँ ३३३ धनुप् और ३२ अङ्ग लकी रह जायगी । और जो आत्मा ७ हाथवाली अवगाहनासे सिद्ध हुई तो उसकी अवगाहान सिद्ध स्थानमें ४ हाथ और १६ अंगुलकी रह जायगी। ऐसा इसलिये होता है कि शरीरमें मुख, नासिका, कर्ण, उदर आदि स्थानोंमें कुछ पोल रहती है । उस पोलमें श्रात्म-प्रदेश नहीं रहते। वह पोल-आत्म-प्रदेश-शून्य स्थान शरीरमें नाम कर्मके विपाकका परिणाम है। इसलिये नाम कर्मके प्रभावमें " आत्म-प्रदेश शून्य स्थान सिद्धाकृतिमें नहीं रहता। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमेष्ठी अधिकार | न दर्शन में पाँच परमेष्ठी माने गये हैं। इनके जपसे अथवा स्मरण से मोक्ष पद तककी प्राप्ति होती है तो फिर सांसारिक मनोऽभिलषित पदार्थोंकी प्राप्ति हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? पञ्च परमेष्ठी में-- पाँच पदोंमें समस्त धर्मात्मा का समावेश हो जाता है । उन पाँचों परमेष्ठियोंका, जिसमें नमस्कार पूर्वक उल्लेख है, सूत्र निम्न प्रकार है। उसमें पाँचों परमेष्ठियों को नमस्कार अथवा वन्दना भी है: " णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाएं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ।” इसमें पहिले पदमें संसार में जितने अरिहन्त हैं, उनकी वन्दना; दूसरे में जो आत्मायें सिद्ध अथवा भगवान् हो गये हैं, उनकी वन्दना; तीसरे में संसारमें जितने श्राचार्य महाराज हैं, उनकी वन्दना; चौथे में संसार में जितने उपाध्यायजी हैं, उनकी वन्दना और पाँचवें में संसार में जितने साधु-मुनि हैं, उनकी वन्दना की जाती है। यह अर्धमागधी भाषाका सूत्र है । यहाँ यह प्रश्न स्वयम् उठता है कि इन आत्मायोंके क्या गुण हैं जिनकी वजह से ये वन्दनीय माने गये हैं ? इस कारण यह Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *परमेष्ठी अधिकार * ३६५ आवश्यक प्रतीत होता है कि उक्त पाँच परमेष्ठियोंके संक्षेपमें कुछ गुण बताये जायें। क्योंकि बिना गुण जाने किसीमें भी भक्तिभावका होना असम्भव है। णमो अरिहंताणं अरिहंतजी जिनको तीर्थंकर आदि भी कहते हैं, उनमें निम्नलिखित गुण, अतिशय आदि होते हैं। जिस प्रकार संसारमें चक्रवर्ती अनेक ऋद्धि-सिद्धियों और वैभवके धनी होते हैं, उसी प्रकार धार्मिक संसारके अरिहन्त देव चक्रवर्ती होते हैं। जिस प्रकार स्वर्ण और पारा आँचके प्रयोगसे एक अपूर्व रसायन बन जाता है, उसी प्रकार जो प्राणी निम्नलिखित बीस बातोंमेंसे एक बातका भी दत्तचित्त होकर पाराधन कर लेता है। वह तीर्थंकर पदका बन्ध कर लेता है और वह तीसरे भवमें तीर्थंकर पदको अवश्य प्राप्त करके स्वयम् भवसागरसे पार होता है और अनेक प्राणियोंको पार लगाता है। वे बीस बातें निम्न प्रकार हैं: १-अरिहन्त, २-सिद्ध, ३-प्रवचन, ४-शास्त्र, ५-स्थविर-वृद्ध, ६-बहुसूत्री-पण्डित और७-तपस्वी, इन सातोंकी • दत्तचित्त होकर सेवा करनेसे;८-बार-बार ज्ञान में उपयोग लगानेसे; -सम्यक्त्व निर्मल पालनेसे; १०-गुरु भादि पूज्य जनोंका Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय दत्तचित्त हो कर विनय करनेसे; ११-देवसी, रायसी, पाक्षिक, चौमासी और सम्वत्सरीका प्रतिक्रमण निरन्तर करनेसे; १२-- ब्रह्मचर्यादि व्रतोंको वगैर दूपण पालनेसे, १३-सदैव वैराग्य भाव रखनेसे; १४-बाह्य और आभ्यन्तर (गुप्त) तपश्चर्या करनेसे; १५-सुपात्रको दान देनेसे; १६-गुरु, रोगी, तपस्वी, वृद्ध और नवदीक्षित आदिकी वैय्यावृत्य अर्थात् सेवा-भक्ति करने से; १७-पूर्ण क्षमा-भाव रखनेसे; १८-नितान्त और नित्य नया ज्ञानाभ्यास करनेसे; १६-जिनेश्वरके वचनोंका आदर--मानपूर्वक पालन करनेसे और २० तन, मन और धनसे जैनधर्मकी उन्नति करनेसे। __ उन माता-पिताओंको धन्य है अथवा वे बड़े पुण्यके अधिकारी होते हैं जो तीर्थकर सरीखे पुत्रको जन्म देते हैं। जब तीर्थकर भगवान् गर्भ में आते हैं, तब उनकी मातेश्वरी चौदह स्वप्न देखती हैं। वे इस प्रकार हैं:-- १-ऐरावत हस्ति, २-श्वेत बैल, ३-शार्दूल सिंह, ४लक्ष्मी देवी, ५-पुष्पकी माला, ६-पूर्ण चन्द्रमा, ७-सूर्य, ८-इन्द्रध्वजा, -पूर्ण कलश, १०-पद्मसरोवर, ११-क्षीर समुद्र, १२-देवविमान, १३-रमोंका ढेर और १४-निधूम अग्निकी ज्वाला। मातेश्वरी इन दैदीप्यमान और अतीव हर्षोत्पादक स्वप्नोंका फल अपने पतिसे पूछती हैं। पति अति पवित्र और बड़ी ऊँची Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खएड * परमेष्ठी अधिकार * भावनाओंके एक विशिष्ट पुण्यवान् और गम्भीर पुरुष होते हैं। बे सकल शात्रोंके ज्ञाता, भद्रपरिणामी और अवधिज्ञान-विशिष्ट होते हैं। वे अपने विशिष्ट ज्ञानबलसे यह जान लेते हैं कि हमारे एक लोकातिशायी पुत्र होनेवाला है। सवा नव महीने पूर्ण होनेपर उत्तम योग व शुभ मुहूर्त में पूर्ण मतिज्ञान, अतिज्ञान और अवधिज्ञानसहित प्रभु जन्म लेते हैं। जन्मोत्सव मनानेकेलिये चौंसठ इन्द्र भगवानको मेरुपर्वत पर पण्डुकवनमें ले जाते हैं और वहाँपर बड़े धूम-धामसे उत्सव मनाते हैं। इनके अलावा छप्पन कुमारिका देवियाँ भी जन्म महोत्सव करती हैं। बादमें तीर्थंकर भगवानके माता-पिता जन्मोत्सव मनाते हैं। बाल अवस्थाके बाद अगर भोगावली कर्म बाकी होते हैं तो भगवान् गृहस्थ धर्मका पालन करते हैं। दीक्षा धारण करनेसे पेश्तर एक वर्ष तक नित्यप्रति एक करोड़ पाठ लाख स्वर्ण मोहरोंका दान करते हैं । बादमें लौकान्तिक देवोंके निवेदनपर प्रारम्भ-परिग्रहका सर्वथा त्याग कर दीक्षा धारण करते हैं। उसी समय उन्हें मनःपर्यवज्ञानकी प्राप्ति होती है। वब कुछ काल तक घातीय कोका क्षय करनेके वास्ते ध्यान, तप आदि व्रतोंका अाराधन करते हैं और जो कोई देव-दानव-मनुष्यपशु आदिके उपसर्ग आते हैं, उन्हें समभावसे सहन करते हैं। घातीय कोंके क्षय होनेपर अर्थात् मोहनीय कर्मके क्षय होनेपर झानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मका क्षय हो जाता Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास - तृतीय है और तब अनन्त गुणात्मक यथाख्यातचारित्र, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तदानवीर्य आदि लब्धियोंकी उन्हें प्राप्ति होती है । घातीय कोंके क्षय करनेसे उन्हें 'अरिहन्त पद'की प्राप्ति होती है। अरिहन्त भगवान् बारह गुण सहित होते हैं और अठारह दोष रहित होते हैं। मोहनीय कर्मके क्षय होनेसे अनन्तगुणात्मक यथाख्यातचारित्र वाले होते हैं । ज्ञानावरणीय कर्मके क्षय होनेसे अनन्तकेवलज्ञान की प्राप्ति होती है, जिससे समस्त संसारकीरूपी और अरूपीसमस्त रचनाके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको जानने लग जाते हैं। दर्शना. घरणीय कर्मके क्षय होनेसे केवलदर्शनकी प्राप्ति होती है, जिससे संसारकी समस्त रूपी और अरूपी वस्तुओंको देखने लगते हैं। अन्तराय कर्मके क्षय होनेसे अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धिकी प्राप्ति होती है; अनन्त तेजस्वी होते हैं; अनन्त बल पुरुषार्थके धनी होते हैं; अनन्त क्षायिक सम्यक्त्व & "तुत्पिपासाजरातक,-जन्मान्तकभयस्मयाः । न रागद्वेष मोहारच, यस्याप्तः स प्रकीर्यते ॥" -स्वामी समन्तभद्राचार्य । अर्थात् जिसमें चुधा, नृपा, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, (च) से चिन्ता, मद, अरति, खेद, स्वेद, निद्रा और आश्चर्य, ये अठारह दोष नहीं होते, वह 'अरिहन्त' है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * परमेष्ठी अधिकार # ३६६ अर्थात् प्रत्येक रूपी और अरूपी वस्तुका यथार्थ और सत्य स्वरूपके जाननेवाले होते हैं; वज्रवृषभनाराचसंहनन अर्थात् संसारमें समस्त प्राणियों से बलिष्ठ और मजबूत शरीर वाले होते हैं; समचतुरससंस्थान अर्थात् शरीरका बड़ा सुन्दर और उच्च वनाव होता है; चौतीस अतिशय अर्थात् जहाँ भगवान् की समवसरण सभाकी रचना होती हैं, वहाँ अशोकवृक्ष, रत्नजड़ित महा प्रभाशाली सिंहासन, भामण्डल, छत्र, चमर, देवकृत अचिन्त पुष्पोंकी वर्षा आदि अनेक वैभवयुक्त वस्तुएँ दिखाई देती हैं; जहाँ भगवान् विराजते हैं या पधारते हैं, वहाँ मनोज्ञ ऋतु, मनोज्ञ रास्ता, चित्त जलकी वर्षा और हर प्रकारकी शान्ति श्रादि रहती है। भगवान् अर्धमागधी भाषा में व्याख्यान देते हैं, जो हर प्रकारके प्राणी आसानीसे समझ सकते हैं; भगवान् के समक्ष या समवसरण में प्राणियों के बैरभाव मिट जाते हैं; भगवान् के शरीर में मैल आदि नहीं लगता है; भगवान के आहार-विहारको चर्म- चतु वाला नहीं देख सकता है: भगवान्‌के अतिशयसे उनके चारों ओर बीसों कोस तक हर प्रकारकी शान्ति व प्रसन्नता छाई रहती है और अनेक अतिशय होते हैं; भगवान्‌की वाणी बड़ी सुन्दर मनोज्ञ और इस प्रकारकी होती है कि प्रत्येक प्राणी सरलता से समझ जाता है; भगवान् के वचन परस्पर विरोध- रहित होते हैं; सदा देश-काल- भावानुसार बोलते हैं; थोड़ा बोलते हैं और बहुत अर्थ निकलता है; अगर किसी श्रोता के शंका हो तो भगवान् Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४०० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय उसे स्वयम् साफ कर देते हैं। आदि अनेक गुणयुक्त भरिहन्त भगवान होते हैं। इनके अलावा किसी प्रकारका भगवानमें दोष नहीं होता है। जैसे-कभी क्रोध नहीं करते अर्थात् सदा शान्त रहते हैं । मान, माया, लोभ रहित होते हैं अर्थात् सर्वथा अभानी, अमायावी, अलोभी होते हैं। कभी असत्य नहीं बोलते अर्थात् सदा सत्यभाषी होते हैं । भय नहीं करते अर्थात् सदा अभय होते हैं । किसी प्रकार की हिंसा नहीं करते। क्रीड़ा नहीं करते अर्थात् सर्व प्रकारकी क्रीड़ाके भगवान् त्यागी होते हैं । भगवान् सदा ज्ञानवन्त, माहात्म्यवन्त, यशस्वी, वैराग्यवन्त, रूपवन्त, वीर्यवन्त, प्रयत्नवन्त, उत्साही और अनेक गुण युक्त होते हैं। तीर्थंकर भगवानके पाँच कल्याणक अथवा महा शुभ समय बताये गये हैं: १-अवतरनेको 'च्यवन कल्याणक', जन्मको 'जन्म कल्याणक', दीक्षाको 'दीक्षा कल्याणक', केवलज्ञान उत्पन्न होनेको 'केवलज्ञान कल्याणक' और मोक्ष पधारनेको 'मोक्ष कल्याणक' कहते हैं। शासकारोंने 'णमो अरिहंताण'का शब्दार्थ संक्षिप्तमें निम्न प्रकार किया है: Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * परमेष्ठी अधिकार * ४०१ (क) संसार रूप गहन वनमें अनेक दुःखोंके देनेवाले मोहादि रूप शत्रुओंका हनन करनेवाला जो अरिहन्त देव हैं, उनकोद्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो। .. (ख ) सूर्य मण्डलका आच्छादन करनेवाले मेघके समान ज्ञानादि गुणोंके आवरणोंका हनन करनेवाले जो अरिहन्त देव हैं, उनको द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो। (ग) आठ कर्म रूप शत्रुओंके नाश करनेवाले अरिहन्त भगवानको द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो। (घ) पाँचों इन्द्रियोंके विषय, कषाय, परीषह, वेदना तथा उपसर्ग, ये सब जीवोंकेलिये शत्रुभूत हैं। इन शत्रुओके नाशक अरिहन्त देवको द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो। प्रश्न-उक्त लक्षणोंसे युक्त भगवानको नमस्कार करनेका क्या कारण है ? उत्तर--यह संसार एक महाभयङ्कर, कठिन और दुर्गम वन है। उसमें भ्रमण करनेसे सन्तप्त जीवोंको भगवानका स्मरण परमपदका मार्ग दिखानेमें निमित्त रूप होता है। अतः सर्व जीवों के वे परमोपकारी होनेसे नमस्कार करने के योग्य हैं। अतएव उनको अवश्य नमस्कार करना चाहिये । प्रश्न--अरिहंत भगवानका ध्यान किसके समान तथा किस रूपमें करना चाहिये ? Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय उत्तर - अरिहंत भगवान् ‌का ध्यान चन्द्रमण्डल के समान श्वेतवर्ण में करना चाहिये । पृथ्वीपर एक समय में संसार में जघन्य बीस और उत्कृष्ट एक सौ साठ तथा एक सौ सत्तर तक अरिहंत हो सकते हैं। ४०२ ' णमो सिद्धाणं' प्रश्न - 'णमो सिद्धाणं' इस दूसरे पदसे जिन सिद्धोंको नमस्कार किया गया है, उन सिद्धों का क्या स्वरूप है अर्थात् सिद्ध किनको कहते हैं ? उत्तर -- जिन्होंने चिरकाल से बँधे हुए आठ प्रकार के कर्मरूपी इन्धन समूहको जाज्वल्यमान शुक्लध्यानरूपी अग्नि से जला दिया है, उनको सिद्ध कहते हैं । अथवा - जो मोक्ष नगरी में चले गये हैं, उनको सिद्ध कहते हैं। अथवा - जिनका कोई भी कार्य अपरिपूर्ण नहीं रहा है, उनको सिद्ध कहते हैं । अथवा - शासन के प्रवर्त्तक होकर सिद्ध रूपसे जो मङ्गलत्वका अनुभव करते हैं, उनको सिद्ध कहते हैं । अथवा -जो नित्य पर्यवसित अनन्तस्थितिको प्राप्त होते हैं, उनको सिद्ध कहते हैं। अथवा - जिनसे भव्य जीवोंको गुण-समूहकी प्राप्ति होती है, उनको सिद्ध कहते हैं। pin संसारी आत्मा के जो कर्म लगे हुए हैं, जिनकी कि वजहसे । संसारी आत्मा संसार - परिभ्रमण किया करता है और अपने सुख-स्वरूपका अनुभव नहीं कर सकता, उनको आठ विभागों में बाँटा गया है। क्योंकि आत्मा के आठ महागुणों का, जिनके अन्दर Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * परमेष्ठी अधिकार # ४०३ • अनन्त गुण समाविष्ट होते हैं, वे घात करते हैं । वे आठ कर्म घातिया और अघातियाके भेदसे दो प्रकारकें हैं। 'अघातिया' शब्द में 'नम्' समास ईषदर्थमें हुआ है। अरिहन्त भगवान के चार घातिया ही कर्म नष्ट हुए हैं, जिसकी वजहसे उनके अनन्त चतुष्टय प्रादुर्भूत हो गये हैं। और चार अघातिया अभी मौजूद हैं, जिसकी वजहसे शरीर आदि भी अरिहन्त भगवान के मौजूद रहते हैं । लेकिन 'सिद्ध भगवान्' के चार घातिया और चार अघातिया अर्थात् आठों ही कर्म नष्ट हो गये हैं। जिसकी वजहसे उनके आठ गुण प्रगट हो जाते हैं। सिद्ध भगवान्‌के आठ गुण ये हैं: ( १ ) सम्यक्त्व, (२) दर्शन, (३) ज्ञान, ( ४ ) अगुरुलघुत्व, (५) श्रवगाहनत्व, (६) सूक्ष्मत्व, (७) अनन्तवीर्य और (८) अव्याबाधत्वं । उक्त गुणों के अन्तर्गत सिद्धों में अनेक गुण और होते हैं, उनमें से कुछ संक्षेपमें यहाँ कहे जाते हैं: सिद्ध भगवान् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तबल, अनन्तवीर्य अनन्तसुख और अनन्तक्षायिक सम्यक्त्वके धनी होते हैं, उनकी आत्माका विस्तार सदा एकसा रहता है, अमूर्त हैं, न हलके हैं न भारी हैं, पाँच प्रकारका ज्ञानावरणीय कर्म क्षय करके उन्हें अनन्त केवलज्ञान प्रकट हुआ, दो प्रकारका वेदनीय कर्म क्षय करके वाघा-पीड़ा रहित हुए, दो प्रकारका मोहनीय कर्म Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय AAAAAAAAAAAAAAAA... क्षय करके लघुभूत हुए, चार प्रकारका आयु कर्म क्षय करके अमर हुए, चार प्रकारका नाम कर्म क्षय करके अमूर्त हुए, दो प्रकारका गोत्र कर्म क्षय करके शरीर दोष रहित हुए, पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म क्षय करके अनन्त शक्तिके धारक हुए। सिद्ध भगवानके कोई वर्ण नहीं, कोई रस नहीं, कोई स्पर्श नहीं, कोई वेद नहीं, कोई गंध नहीं, काय नहीं, कर्म नहीं, जन्म नहीं, मरण नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, वियोग नहीं, मोह नहीं, निरंजन निराकार आदि अनेक गुण युक्त ये सिद्ध भगवान् सिद्धशिलापर सदाकाल विराजमान रहते हैं और उपरोक्त अनेक लोकोत्तर गुणोंको प्रास्वादन करते हैं। प्रभ-उक्त लक्षणोंसे युक्त सिद्धोंको नमस्कार करनेका क्या कारण है ? ___ उत्तर--अविनाशी तथा अनन्त ज्ञान, दर्शन चारित्र और वीर्य रूप चार गुणों के उत्पत्ति-स्थान होनेसे, उक्त गुणोंसे युक्त होनेके कारण, अपने विषयमें अतिशय प्रमोदको उत्पन्न कर अन्य भव्य जीवोंकेलिये आनन्द उत्पादनके कारण होनेसे वे अत्यन्त उपकारी हैं । अतः उनको नमस्कार करना उचित है। प्रश्न--सिद्धोंका ध्यान किसके समान तथा किस रूपमें करना चाहिये ? उत्तर-सिद्धोंका ध्यान उदित होते हुए सूर्यके समान रक्त वर्णमें करना चाहिये । सिद्ध भगवान संख्यामें अनन्त हैं। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * परमेष्ठी अधिकार # 'एमो आइरियाणं' 'मो आइरियाणं' इस तीसरे पदसे आचार्योंको नमस्कार किया गया है। उनका स्वरूप क्या है अर्थात् श्राचार्य में क्या क्या गुण होते हैं ? खण्ड ] ४०५ उत्तर - जो मर्यादा पूर्वक अर्थात् विनय पूर्वक जिन शासनके अर्थका सेवन अर्थात् उपदेश करते हैं, उनको आचार्य हैं। अथवा - जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचारके पालन करनेमें अत्यन्त प्रवीण हैं तथा दूसरोंको उनके पालन करनेका उपदेश देते हैं, उनको आचार्य कहते हैं। अथवा --जो पाँच महाव्रत, पाँच आचार*, पाँच समिति, तीन गुप्ति, पाँच इन्द्रियवशित्व करें, नब बाढ़ ब्रह्मच कषायको त्यागें, इन छत्तीस गुण युक्त श्राचार्य महा और आठ सम्पदा अर्थात् सूत्र सम्पदा, शरीर सम्पदा, व मति संपदा, उपयोग संपदा, वाचना संपदा, संग्रह संपदा और तेजः संपदाके धनी होते हैं। इत्यादि अनेक गुण युक्त होते हैं। आचार्य महाराज बावन अनाचीके टालनेवाले, अठारह हजार शीलाङ्ग आदि अनेक गुण युक्त होते हैं । €1 संपदा, चार * (१) दर्शनाचार, (२) ज्ञानाचार, (३) चारित्राचार, ( ४ ) तप प्राचार और ( ५ ) वीर्याचार, ये प्राचार्य महाराजके 'पाँच आचार' कहलाते हैं। समिति, गुप्ति आदिका वर्णन पहले प्रकरणों में किया जा चुका है। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जेलमें मेरा जैनाभ्यास. तृतीय Sammadrama अथवा-जो मर्यादा मुर्वक विहार रूप भाचारका विधिवत् पालन करते हैं तथा दूसरोंको उसके पालन करानेका उपदेश देते हैं, उनको आचार्य कहते हैं। अथवा-जो योग्य अयोग्यका अलगअलग निश्चय करने में चतुर और यथार्थ उपदेश देनेमें प्रवीण होते हैं, उन्हें प्राचार्य कहते हैं। स-उक्त लक्षणों युक्त आचार्योंको नमस्कार करनेका उत्तर-सद् व्यवहारके उपदेश करनेके कारण जिनको परोपकारी होने की प्राप्ति हुई है, जो सर्वजन-मनोरंजक हैं, सब जनोंके मनोंको प्रसन्न करने वाले हैं, संसारके जीवोंमेंसे भव्य जीवोंको जिन-वाणीका उपदेश देकर उनको प्रतिबोध करते हैं और सम्य प्राप्ति कराते हैं, किसीको देश विरतकी प्राप्ति, किसीको सर्वा प्राप्ति कराते हैं तथा कुछ जीव उनके उपदेशका श्रवण कर भद्र-परिणामी हो जाते हैं। इस प्रकारके उपकारके कर्ता शान्त मुद्राके धारक उक्त आचार्य क्षण मात्रकेलिये भी कषायग्रस्त नहीं होते । अतः वे अवश्य नमस्कार करनेके योग्य हैं। ___ उक्त आचार्य नित्य प्रमाद रहित होकर अप्रमत्त धर्मका कथन करते हैं, राज-कथा, देश-कथा, स्त्री-कथा, भक्त-कथा, सम्यक्त्वमें शिथिलता तथा चरित्रमें शिथिलताको उत्पन्न करने वाली विकथाका वर्जन करते हैं, मल और पापसे दूर रहते हैं तथा देश और कालके अनुसार विभिन्न उपायोंसे शिष्य मोदिको Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * परमेष्ठी अधिकार # दि प्रवचनका अभ्यास कराते हैं, साधुजनोंको क्रिया धारण कराते हैं, जैसे सूर्य अस्त हो जानेपर घर में स्थित घट -.. पदार्थ नहीं दीखते हैं तथा प्रदीपके प्रकाशसे वे दीखने ल‍ उसी प्रकार केवलज्ञानी सूर्यके समान श्रीतीर्थकर देवके मु रूप महल में जानेके पश्चात् तीनों लोकोंके पदार्थो करनेवाले दीपक के समान आचार्य ही होते हैं । अवश्य नमस्कार करना चाहिये । जो भव्य जीव ऐसे निरन्तर नमस्कार करते हैं, वे जीव धन्य माने ज उनका भवक्षय शीघ्र हो जाता है । ४०७ प्रश्न- आचार्योंका ध्यान किसके समान तथा किस रूप में करना चाहिये ? उत्तर - आचार्यो का ध्यान स्वर्णके समान पी चाहिये । उक्त गुणोंके अलावा आचार्यजी साधुकं स० भी सम्पन्न होते हैं । 'णमो उवज्झायाणं' ‘णमो उवज्झायाणं' इस चौथे पदसे उपाध्यायोंको नमस्कार किया गया है। इन उपाध्यायोंका क्या स्वरूप है और उपाध्याय किनको कहते हैं ? जो ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार छेद, चार मूल सूत्र और बत्तीसवें आवश्यकजीके जानकार होते हैं, उनको उपाध्यायजी कहते हैं । अथवा - जिनके समीपमें रह कर अथवा आकर Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय शिष्यजन अध्ययन करते हैं उनको उपाध्याय जी कहते हैं। पर जो समीपमें रहें हुए अथवा आये हुए साधु आदि जनों द्वान्तका अध्ययन कराते हैं, उनको उपाध्यायजी कहते हैं। 4-जिनके समीपत्वसे सूत्रके द्वारा जिन प्रवचनका अधिक परण होता है, उनको उपाध्यायजी कहते हैं। अथवा क ध्यान करते हैं, उनको उपाध्यायजी कहते हैं। उपयोगपूर्वक ध्यानमें प्रवृत्त होकर पाप कर्मका त्याग बाहर निकल जाते हैं, उनको उपाध्यायजी कहते हैं । अथवा--मानसिक पीड़ाकी प्राप्ति, कुबुद्धि की प्राप्ति तथा दुर्ध्यान की प्राप्ति जिनके द्वारा अपहत होती है, उनको उपाध्यायजी कहते हैं। श्र -जो ज्ञानके भण्डार, दयाके सागर, ज्ञान रूपी नेत्रके स्नेक गुण युक्त होते हैं, उन्हें उपाध्यायजी कहते हैं। . . . लक्षणोंसे युक्त उपाध्यायजीको नमस्कार करने का क्या हेतु है .. उत्तर-उक्त उपाध्यायजी पचीस गुण युक्त होते हैं, द्वादशाङ्गी आदि सूत्रोंके धारक और सूत्र और अर्थक विस्तार करनेमें रसिक होते हैं, आये हुए या रहे हुए शिष्यों व साधुओंको जिन वचनोंका अभ्यास कराते हैं । इस हेतु भव्य जीवोंके ऊपर उपकारी होने के कारण उनको नमस्कार करना चाहिये। प्रश्न-उपाध्यायोंका ध्यान किसके समान तथा किस रूपमें करना चाहिये? Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * परमेष्ठी अधिकार * JA - उत्तर-उनका ध्यान मरकतमणिके समान में करना चाहिये। उक्त गुणों के अलावा उपाध्यायजी : गुण सम्पन्न होते हैं। ‘णमो लोए सव्वसाहणं 'णमो लोऐ सव्वसाहूणं' इस पदके द्वारा साध किया गया है। । एक प्रश्न-उन साधुओंके क्या लक्षण हैं ? ही भ्रा जो किसी प्रकारकी हिंसा नहीं करे; किस ता है : बोले अर्थात् सदा सत्य बोले; बगैर दी हुई निज ले पूर्ण ब्रह्मचर्य पाले, किंचित मात्र परिग्रहावसे नहीं रक्खे; तीन करण और तीन योगसे अर्थानों कायसे कोई पाप करे नहीं, करावे नहीं और ५. नहीं है, में इन्द्रियों-नेत्र, नासिका, कर्ण, जिह्वा आ.. तीनों करण और तीनों योगोंसे वशमें रक्खे, क्रोध, मान, माया और लोभको तीन करण और तीन योगसे करे नहीं, करावे नहीं और करतेको 'भला जाने नहीं । साधु अनेक परिषहोंको जीतते हैं। जैसे अगर शुद्ध और निर्दोष आहार और जल नहीं मिलता है तो प्रसन्नता और शान्तिभावसे क्षुधा और तृषा परिषहको सहन करते हैं। जाड़ोंमें अग्निसे तापते । नहीं; कम्बल, सौर मादि प्रौढ़ते नहीं, सिर्फ मर्यादित मामूली कपड़ा Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्‌‌य में होन * जेल में मेरा जैनाभ्यास # [तृतीय र शान्तिभाव से शीत परिषह सहन करते हैं। गर्मियों में नहीं, स्नानादि करते नहीं, शान्तिभावसे उष्ण परि रते हैं। डाँस, मच्छर आदि काटते हैं तो मसहरी, धूएँ ग नहीं करते हैं, शान्तिभाव से उस कष्टको सहन करते और निर्दोष वस्त्र नहीं मिलता है तो शान्तिभाव से न करते हैं। चौमासेके चार महीनेके सिवाय उनमें एक महीने से ज्यादा ठहरते नहीं और सदा करते हैं; इस प्रकार जो स्थानका और मार्गका परिउसे शान्तिभाव से सहन करते हैं । भक्षार्थं जायँ या तो रास्ते में या किसीके घरपर बैठते नहीं और खड़े रहते हैं या चलते रहते हैं । चतुर्मासमें या • जैसा स्थान ठहरनेको मिल जाता है तो उसमें ही रहते हैं। अगर कोई गृहस्थ या अन्य अज्ञानी शद कहे या मारे या पीटे तो क्रोध नहीं करते, बल्कि शान्तिभाव से उसे सहन करते हैं । अगर कोई रोग उत्पन्न होता है तो अगर शुद्ध और निर्दोष औषधि मिलती है तो ग्रहण करते हैं, बरना शान्तिभावसे परिषहको सहन करते हैं । साधु लोग पृथ्वी पर या काष्ठके तख्तेपर शयन करते हैं; शीतकालमें पराल - घास की आवश्यकता होती है; अगर वह नहीं मिलती है तो समभावसे कष्टको सहन करते हैं । अगर कोई अज्ञानी उनसे हँसी मजाक करता है तो वे शान्तिभावसे । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * परमेष्ठी अधिकार * - उसे सहन करते हैं। इस प्रकारसे साधु लोग अरे परिषहोंको शान्तिभावसे सहन करते हैं। . . ऊपर जो शुद्ध और निर्दोष आहार कहा गया मतलब है कि छयानवे प्रकारके दोषसे अगर औषधि, वस्त्र आदि शुद्ध हो तो वे ग्रहण कर हैं। उनमें से कुछ उदाहरणार्थ यहाँ दिये जाते हैं.. १-गृहस्थ साधुके वास्ते बाहार बनाकर प्राचार्य से अगर गृहस्थ अपने भोजनमें साधुके विचारसे कु ते हैं तथा बनाता है ता भी नहीं लेना ३-माल लाकर गृह.५, लेना ४-काई वस्तु तालमें या बन्द किवाड़ों में हेमा ५-रास्तेमें लाकर दे ता नहीं लेना ६-आड़मेंसे । अन्य स्थानसं कोई वस्तु लाकर दे तो नहीं ले सबल छीन कर दे तो नहीं लेना-भागीदार दे तो नहीं लना :--स्त्री अगर बच्चे को दूध पिला रहा .ता उससे आहार नहीं लेना १०--मान, माया और लोभादिके साथ दान ग्रहण नहीं करना ११--भूखों या ब्राह्मणादिकलिये अगर भोजन बना हो तो नहीं लेना १२--सदा एक घरसे श्राहार नहीं लेना १३--जिनके यहाँ अखाद्य वस्तु बनती हों उनके यहाँसे आहार नहीं लेना १४-जो मना करे कि हमारे यहाँ न श्राओ वहाँ नहीं जाना १५--कोई वस्तु सचित्त वस्तुके स्पर्शमें हो तो उसे नहीं लेना १६--द्वारपर भिखारी खड़ा हो तो उस गृह Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय -गना १७--जिस आहारका रस, वर्ण, गन्ध • जाना वोर सेवा मन्दिर पुस्तकालय 222 काल नं.लेखक शीर्षक जेल में प्रेग जैनात्यान। पण इको मलकसी काया हरण और वायु, थिवा कारसे Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * परमेष्ठी अधिकार * पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। दस प्रकारका करते हैं; बारह प्रकारका तप करते हैं । अठारह सर्वथा त्याग करते हैं । इनके अतिरिक्त श्राप परिणामी, निरभिमानी, संयमी, निस्स्वार्थी युक्त होते हैं। प्रश्न- उक्त लक्षणोंसे युक्त साधुजीको क्या हेतु है ? उत्तर - जो आत्मा के कल्याणका सदा ध्य उन्हें साधु कहते हैं । वे हमसे अधिक धर्म रूप रहते करनेमें अतितत्पर रहते हैं। ऐसे साधुओंका परम आवश्यक है । प्रश्न - साधुत्रों का ध्यान किसके समान करना चाहिये ? उत्तर - साधुयों का ध्यान आषाढ़ के मेव ना चाहिये । उक्त गुण युक्त माधु में विचरते हैं। एक समय में समस्त जार कोड और उत्कृष्ट नव हजार "1 समान इया ३ द्वीप और प सारमें कम-से-कम रण साधु-साध्वी ह Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्रवती वासुदेव-बलदेव में चक्रवर्ती, वासुदेव-बलदेव, श्रादि भी अनेक नि माननीय पुरुष होते हैं। इनकी विभूति छह खण्डका साधन करते हैं। इनके हजारों होते हैं। छह खण्डोंमें हजारों देश व उनके तो चक्रवर्तीकी आज्ञा मानते हैं अर्थात् सेवामें ० रानियाँ और लाखों दास-दासी आदि होते हैं । दल आदि लाखों करोड़ोंकी संख्यामें इनकी वर्तीके चौदह रत्न होते हैं। एक-एक रत्नके ति हैं। चक्रवर्तीके चौदह रत्न इस प्रकार हैं: रत्न, छह खण्ड साधनका रास्ता बताता है। .) दण्ड के ऊपर शीत तथा धूपसे रक्षा करता है। में कोस रहेका प्रबन्ध करता है। (४) खङ्ग रत्न का मिर छेद डालता है । (५) मणि "चन्द्र-जैमा प्रकाश करता है। (६) गादि नदियों को पार करती है। वाररके तमाम फ़ौज व चक्रवर्तीको सी प्रकार प्रह अश्व, न, पुरोहित, सेनापति, चर्म, ' र रखा जट-जैमा प्रक । इ रथ रत्न भी अपना-अपनकार्य करते हैं। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * चक्रवर्ती-वासुदेव बलदेव . - - जब चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं, तब इनकी स्वप्न देखती हैं। स्वप्न वही होते हैं जो तीर्थंकर की हैं। इनके अतिरिक्त बहुत सी ऋद्धियाँ होत उपर्युक्त ऋद्धियोंको त्याग कर संयम लेते हैं मोक्षको प्राप्त करते हैं और जो राज्य करते हैं, वे नरकमें जाते हैं। इनके समयमें साधु और पाँचों गतिमें जानेवाले जीव होते हैं। वासुदेव-पूर्व भव में निर्मल तप संयम हैं और वहाँसे आयु पूर्णकर बीच में एक भव करके उत्तम कुल में जन्म लेते हैं। जब जन्म मातेश्वरी सात स्वप्न देखती हैं। शुभ रह वस्थाको प्राप्त करते हैं और बादमें राज्य वासुदेवपदकी प्राप्ति होनेपम् न्हें सात रत्न हैं:-(१)सुदर्शनचक्र, (२) अमोघखङ्ग, ( ६ ) काम (४) पुष्पमाला, (५) धनुष्य अमोघवाण, (६) कौस्तुभ और (७) महारथ । ये महाबलवान् और महासुन्दर हा इनकी ऋद्धि व सिद्धि चक्रवर्तीसे आधी होती है । ___वासुदेवके जन्मसे पूर्व पृथ्वीपर प्रतिवासुदेव र है। यह भी पुण्यवान और वैभव सहित होता है, कम होता है। वासुदेव प्रतिवासुदेवको मारकर अधिकारी बनता है और तीन खण्डमें स्क रा Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय na.ANAMARANrNAAAAAAna... वासुदेवके पहिले जन्म लेते हैं अर्थात् वासुदेवसे 'दोनोंकी मातेश्वरी अलहदा-अलहदा होती हैं, पर में जब ये गर्भ में आते हैं तो इनकी माता चार मे हैं । बादमें जन्म लेकर अनेक वैभव व । इनका वैभव वासुदेवके मुकाबिले आधेसे ह. इन दोनों भाइयों में असीम प्रेम होता है। राज्य करते हैं और तीनों खण्डका साधन करते - कर नरक जाते हैं। वासुदेवकी मृत्युके बाद तारण करके महातपस्या करते हैं और अन्तमें Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक अधिकार मजिस प्रकार एक झाड़ या छींका लटका रहता है, इसी प्रकार अथवा लोक अलोकाकाशमें तनुवात घनवात और उसके बाद घनोदधिके श्राध है। अर्थात् जिस प्रकार पानीके आधारपर है, उसी प्रकार यह लोक आकाशमें तनुवात घनोदधिके आधारपर ठहरा हुआ है। ___ लोकसे अलोकका भेद करनेवाली ध' काय, पुद्गल, जीव और काल द्रव्य । हैं, वह अलोक है । दूसरे शब्दों में यह अलोकमें सिवाय पोलके और कोई किसी प्रक अरूपी वस्तु नहीं है। यह लोक नीचे सात रज्जु लम्बा और चौड़ा है। ऊपरकी ओर अनुक्रमसे प्रदेश-प्रदेश कम होते-होते. सार ऊपर आवें वहाँ, दोनों दीपककी संधिके स्थानपर एक र रह गया है। आगे क्रम-क्रमसे बढ़ता-बढ़ता दुसरे तार सन्धिके स्थानपर साढ़े तीन रज्जु ऊपर भावे वहा है और आगे क्रम-क्रमसे घटता घटता-तीसर Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय . म्थानपर साढ़े तीन रज्जु आवे वहाँ एक रज्जु तर संपूर्ण लोक नीचेसे ऊपर तक सीधा गौर तीन सौ तेतालीस रज्जु घनाकार है। में विभक्त हैं:। नीचेका लोक, २-मध्य अथवा तिर्खा अथवा ऊँचा लोक। कमें निगोद और सात नरक हैं । पहिले नरकके ऊपर और नीचके एक-एक आंतरेको छोड़ कर कारके भवनवासी देव हैं । इस प्रकार निगोदसे अधोलोक है। इसके बाद मध्यलोक शुरू विस्तार पहिले नरकसे ज्योतिमण्डल नरकके ऊपर, और हम लोग जहाँ रहते हैं क 14, आठ प्रकारके व्यन्तर और आठ प्रकारके यन्तर देव रहते हैं । बादमें पृथ्वीके ऊपर जम्बूद्वीप, लवण, धातकीखण्ड द्वीप कालोदधि समुद्र, पुष्कराध द्वीप, मानुपर्वत श्रादि असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। इनसे पाठ • ऊँचाईपर चन्द्र, सूर्य, गृह, नक्षत्र और तारा-मण्डल हैं। डेढ़ रज्जु ऊँचाई परसे ऊर्ध्वलोक शुरू हो जाता है। लोकमें बारह देवलोक, नौ प्रैवेयक, पाँच अनुरसिद्ध शिला है। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लोक अधिकार तीनों लोकोंका विस्तार घनाकार जो ३४३ खण्ड ] उसका हिसाब इस प्रकार है: निगोदसे सातवें नरक तक सातवें नरकसे छठे नरक तक छठे नरकसे पाँचवें नरक तक पाँचवें कसे चौथे नरक तक चौव नरकसे तीसरे नरक तक तीसरे नरकसे दूसरे नरक तक दूसरे नरकसे पहिले नरक तक पहिले नरकसे तिरछे लोक तक पहिला दूसरा देव लोक तीसरा- चौथा देव लोक पाँचवाँ छठा देव लोक सातवाँ आठवाँ देव लोक नवव-दसवाँ देव लोक ग्यारहवाँ-बारहवाँ देव लोक नवयैवेयक के देव लोक पाँच अनुत्तर विमान सिद्ध क्षेत्र Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जनाभ्यास * [तृतीय 20. ............................................ अधोलोक श्राकाशान्तर (शुद्ध आकाशमें) इसके + (हवा); इसके आधारपर घनवात गमूह), इसके आधारपर घनोदधि (पिण्ड के आधारपर टिका हुआ है। तनुवात, पर प्रत्येक नरक अवलम्बित है। प्रत्येक दुनियाँके समान है। ढंगसे प्रत्येक नरक घनोदधि आदिकी मोटाई घनोदधिकी गोटाई घनवातकी तनुवातकी मोटाई मोटाई ४ योजन ६ योजन जन तोत्र, पृथ्वीपिण्ड, वास और विस्तार Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * लोक अधिकार * - नाम गोत्र पृथ्वी पिण्ड की गोलाई रक-यास २५०० घम्मा रत्नप्रभा १८०००० वंसा शर्करप्रभा | १३६००० सेला वालुप्रभा १२८००० अंजना पङ्कप्रभा १२०००० रिट्ठा धूमप्रभा । १८०००० मघा । तमःप्रभा ११६००० माघवी | तमस्तमः १०८००० ३००८ 8888 प्रभा प्रत्येक नरकके पृथ्वीपिण्डमेंसे एक और एक हजार योजन नीचे छोड़कर पाथड़े और अन्तरे हैं। सिवाय सातवें बावन हजार योजन ऊपर और साढ़े बावा. छोड़कर सिर्फ तीन हजार योजनकी पोल है। कि कुम्भियों और नेरिये ( नारकी ) हैं । उसका सफ़ेमें दिया जाता है । पाथड़ोंमें नरकवास हैं, जि कुम्भियाँ और असंख्यात नेरिये (नारकी ) है Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ वर्ष १ सागर |६|अंक ... | १७८००० योजन दूसरा १३०००० तीसरी १२६००० - ३ सागर २५००००० १५ ध० | १ साँगर १२ अं० . १५००००० ३२॥ ध० | ३ सागर * जेलमें मेरा जैनाभ्यास: ७ सागर - - चौथी । ११८००० १००००००६२।। ध० | ७ सागर : १० पाँचवीं ११६००० ३००००० १२५ ध० | १० सागर १७ सागर - छठी ११४००० " ६६६६५/ २५० ध० / १७ सागर २२ सागर ५ ५०० ध० | २२ सागर ३३ सागर - सातवीं ३०००० [तृतीय - emed-1 R Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * लोक अधिकार * नरकोंके गोत्रसे, उनकी व्यवस्थासे मतलब है की निम्न प्रकार व्यवस्था है। , १–रत्नप्रभा नरक-कृष्णवर्ण भयंक २-शर्कराप्रभा-भाले-बीसे भी अधिक है । ३-वालप्रभा-भड़भूजेकी भाड़की र ऊष्ण रतीसे व्याप्त है । ४-पङ्कप्रभ कीचड़से व्याप्त है । ५-धूमप्रभाअधिक तेज धूयंसे व्याप्त है। ६-तमःप्र. व्याप्त है और ७-तमस्तमःप्रभा-घोरा से व्याप्त है। __ये नरक बिल गोल, त्रिकोण, चौकोण - हैं। उनमें कई-एक संख्यात योजन योजन लम्ब चौड़े हैं। जैसे ढोलको । तरफ पृथ्वी रहती है और भीतर पोल . पृथ्वी स्कन्धोंके बीच ढोलके भीतर बिल होते हैं। ___ नारकी जीव सदा ही अशुभतर लेश्य विक्रिया करनेवाले होते हैं । निरन्तर अशुभ कारण उनके परिणामादि भी सदा अशुभ ५ ___ नारकी जीव परस्पर एक दूसरे । टु करते रहते हैं अर्थात् कुत्तों की तरह निर Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय न प्रथम तीन नरकके नेरिये अम्बाम्बरीष जातिके देवोंसे पीड़ित और दुःखित किये जाते हैं । अनेक अज्ञानी पुरुष मेढ़ों, भैंसों, हाथियों र परस्पर लड़ाते हैं और उनकी हार-जीतसे राशा देखते हैं । उसी प्रकार तीसरे नरक - दुष्ट कौतुकी देव अवधिज्ञानसे उनके र परस्पर लड़ते तथा दुःखी व पीड़ित शा देखते हैं। जो बारह अन्तरे हैं, वे असंख्यात योजनके = ३ योजनके ऊँचे हैं। उनमेंसे ऊपरका एक रोड़ कर शेष दस अन्तरोंमें दस प्रकारके प्रकार के होते हैं: --- २ - नाग कुमार ३ – सुवर्ण कुमार ४ कुमार ६ - द्वीप कुमार ७- ७- उद्धि कुमार - वायु कुमार और १० - - स्तनित कुमार | के दो दो इन्द्र होते हैं। इस प्रकार बीस लाखों भवन हैं, जो छोटे से छोटे जम्बू द्वीप के ड़ उसंख्यात द्वीप समुद्रके समान है । खं सामाजिक और आत्मरक्षक देव दो (बड़ी) इन्द्रः णियाँ होती हैं और C Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * लोक अधिकार . हज़ारों देवियाँ होती हैं। इन्द्र के और इन्द्राणिय सैकड़ों देव और देवियाँ अभ्यन्तर, मध्य अ होते हैं। इनके अलावा इनके और अनेक वै हिस्सा दक्षिण और उत्तर दो हिस्सोंमें विभ जातिके व्यन्तर देवता रहते हैं, जिसके १-पिशाच, २-भूत, ३-यक्ष, ५ ६-किंपुरुष, ७-महोरग और ८-गर दो-दो इन्द्र होते हैं, इस प्रकार सोलह इन्द्र । _____ जो सौ योजनका पृथ्वीपिण्ड ऊपर रहा है ऊपर और दस योजन नीचे छोड़कर बीचमें पोल है। उसमें आठ स्वतन्त्र हिस्से । तनुवात, घनवात, घनोदधि और आकाश हिस्समें असंख्यात नगर हैं। इनमें देव रहते हैं। उनके नाम इस प्रकार है: पानपत्री, ३-ईसीवाई, ४-भूईबाई, ५कन्दिया, ७-कोहंड और ८-पहंग देव । प्र और उत्तरमें विभाजित है और प्रत्येक हिस्से है। इस प्रकार बाणव्यन्तर देवोंके सोलह इन्द्र * "व्यन्तराः किनारकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वगता + "पूर्वयोः द्वीन्द्राः।" --उमास्व Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास #* [तृतीय चार-चार हज़ार सामानिक देव, सोलहरक्षक देव, चार अप्रमहिषी इन्द्राणियाँ, रेवार और सात अनीका होती हैं । इसके षट्के ८००० देव, मध्य परिषद् के १०००० १२००० देव होते हैं । देवोंकी आयुष्य जघन्य १०००० वर्षकी की होती है। योजन तो जहाँ हम रहते हैं उस पृथ्वीके |योजन ऊपर हैं। इस प्रकार यह तिरछा लोक की ऊँचाई अथवा मोटाईका है, जिसमें नौ - हम पहिले पृष्ठों में कर आये हैं, बाक्क्री मण्डलका वर्णन हम यहाँ करेंगे । कि हम लोग रहते हैं, असंख्यात उसमें अढ़ाई द्वोपमें ही रहते हैं । अढ़ाई | भूमि हैं । एक वह जहाँ मनुष्य खेती ये करते हैं, उसे 'कर्मभूमि' कहते हैं। दूसरी कर्म नहीं करते हैं अर्थात् जिनकी सारी शे जाती हैं, उन्हें 'अकर्मभूमि' या 'भोगदीपके बाहर मनुष्य नहीं पाये जाते हैं । 'लचर, पक्षी आदि जानवर ही होते ; वे सब गोलाकार हैं । पहिले द्वीप Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वण्ड * लोक अधिकार * है, उसके चारों तरफ सागर है, फिर द्वीप है, फिर समुद्र अथवा महासागर है। इस प्रका द्वीप और समुद्रोंका चला गया है। पहिला द्वीप 'जम्बू द्वीप' है। यह १० चौड़ा अर्थात् गोलाकार है। इसके बाद द समुद्र' है । लवण समुद्र की चौड़ा दो लाख योजनकी है । इसके ब जिसकी चौड़ाई (rariins ) चार लाख बाद ‘कालोदधि समुद्र' है, जिसकी चौड़ाई लाख योजनकी है। इसके बाद 'पुस्करार्ध द्वीप योजनका है। पर इसके मध्य में 'मानुषं द्वीपको दो हिस्सों में बाँटता है। यह भी है जिसके अन्दर-अढाई द्वीपमें म केवल तिर्यश्च ही तियश्च तमाम द्वीप इसीलिये इसका नाम 'मानुषोत्तर पर्वत 'पुष्कराध समुद्र' है । इसके बाद 'वारुणी 'वारुणीवर समुद्र' है । इसके बाद 'क्षीरवर 'क्षीरवर समुद्र' है । इम प्रकार असंख्. हैं और प्रत्येक असंख्यात योजनके व्या • "प्राजमानुषोत्तराः मनुष्याः ।' Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेल में मेरा जैनाभ्यास : [तृतीय अढ़ाई द्वीप 'भरत',एक ऐरावत' और दो 'महाविदेह' हैं। पमें दो भरत, दो ऐरावत और दो महा परत, दो ऐरावत और दो महाविदेह हैं। की कर्मभूमियाँ हैं। रु', एक 'उत्तरकुरु', एक 'हरिवास', हमवास' और एक 'एरण्यवास' है। द्वीपमें दो देवकुरु, दो उत्तरकुरु, दो हरि[स. दो हेमवास और दो एरण्यवास हैं। दो देवकुरु, दो उत्तरकुरु, दो हरिवास दो पौर दो एरण्यवास हैं। ... अकर्मभूमि हैं। जम्बू दीप 'सुदर्शनमेरु पर्वत' है। वह मल्ल स्थम्भके । ऊँचाई एक लाख योजनकी है । पृथ्वीमें पर निन्यानवे हजार योजन है। इसकी .ई (Diauct Care) है । यह क्रमसे ' एक हजार योजन चौड़ा रह गया है। दशाल वन, नन्दन वन, सोमनस नीचे भद्रशाल वन है। उससे पाँच Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] * लोक अधिकार * सौ योजन ऊपर नन्दन वन है । उससे सोमनस वन हैं और उससे छत्तीस हजार वन है । इस पाण्डुक वनमें स्वर्णमय हैं। पूर्व में पण्डुकशिला और पश्चि दो दो सिंहासन हैं। जिनपर जम्बू विदेहके क्षेत्रों में जन्मे हुए चार तीर्थ दक्षिण में पाण्डुक शिला हैं, इमपर भरत ५ करोंका और उत्तर में रक्त शिला है, जिसपर ऐ हुए तीर्थकरों का जन्मोत्सव होता है । मेरु पर्वत के दक्षिणने ४५००० यो अन्दर भरत नामका क्षेत्र हैं । इस भ नामका पर्वत है। इस क्षेत्र में गङ्गा नदियाँ हैं, जो चूलहमवत पर्वतसे नि नदियों में चौदह चौदह हज़ार उपनदियाँ - मेरु पर्वत के उत्तर दिशामें ४५००० ये दूसरा द्वार है उसके अन्दर भरत क्षेत्र इसमें 'रक्ता' और 'रक्तोदा' नाम शिखरी पर्वत से निकलती हैं । जम्बू द्वीपमें भरत क्षेत्रकी ह • पर्वत है और ऐरावत क्षेत्रकी हद्दक. भरत क्षेत्रको वैताढ्य पर्वत छह खंडों में विभाजित करती हैं। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय पर्वत और रक्ता और रक्तावती नदी छह तो हैं। - पर्व और पश्चिममें भद्रशाल वन और ख योजन लम्बा है। उत्तर और .. पर्वतसे इसकी हद्द होती है। इन क्षेत्रकी चौड़ाई ३३६३४ योजनकी है। , नरु पर्वतके कारण दो भाग हो गये हैं। और दूसरा पश्चिम-महाविदेह। पूर्व महाविदेह दी और पश्चिम-महाविदेहके मध्यमें सीतोदा के दो दो भाग हो गये हैं। इस प्रकार महा गये हैं। , 'विजय' होनेसे बत्तीस विजय महा चौथे भारे जमी रचना सदा रहती है। राखरी, इन दोनों पर्वतों के प्रत्येक छोरसे में निकली हुई हैं और प्रत्येक डाढ़पर 'स प्रकार छप्पन अन्तीप होते हैं । 'ते हैं। ये अकर्मभूमियाँ हैं । पन्द्रहमियाँ जो पहिले बता आये हैं और एक मनुष्य क्षेत्र हैं। । क्षेत्र में अनादि कालसे फिरता फिरता रहेगा। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखएउद्वीप, कालोदधि समुद्र और अभ्यन्तर पुष्करार्द्ध द्वीपमें इस प्रकार चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, महाग्रह और तारागण हैं: खण्ड नम्बर द्वीप और समुद्र के नाम चन्द्र सूर्य - नक्षत्र । महाग्रह तारागण जम्बू द्वीप १७६ १३३६५० कोडाकोड़ ३५२ लोक अधिकार * १०५६ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लमें मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय साथ ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र और ६६६७५ क' हैं। एक-एक पिटकपर नक्षत्रके भी ६६ पिटक हैं। । ग्रहके भी ६६ पिटक हैं और ग्रह हैं। ये चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, का पर्वतके चारों ओर प्रदक्षिणा प्रथात् घड़ी पल, दिन, रात्रि आदिका ते हुए सूर्य, चन्द्रमादिक द्वारा सूचित नाहर सूर्य, चन्द्रमादिके सब ज्योतिष्क पहाई द्वीपके बाहर समयका विभाग लोक कके बादसे 'ऊर्ध्वलोक' श्रारम्भ र इस प्रकार है:जासे डेढ़ रज्जू ऊपर मेरु पर्वतके दूसरे देवलोक हैं। इनसे आध रज्जू लोक, इनसे आध रज्जू ऊपर छठा, इससे आध रज्जू ऊपर पाठवा, इससे आध रज्जू नवाँ उँचा ग्यारहवाँ और बारहवाँ अगनाई, संख्या उनके Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नम्बर प्रतर अचाई घन विस्तार ऊँचाई |अगनाई। संख्या | जघन्याय | उत्कृष्टायु | रमें रज्जूमें रूण्ड] - - - २ १३ ५००योजन २७०० ३२००००० पल्य १ | सागर २ - १६|| रज्जू २ १३ " २७०० २८००००० - साधिक पल्य १ ॥ सागर २ | सागर ७ - ६००योजन २६०० १२००००० - १० - .२ २६००८००००० साधिक )| साधितः ।। "गर २) सा * लाक अधिकार Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ 9 ११ १२ ब्रह्म लान्तव महाशुक सहस्रार आनत प्राणत आरुण अचुत नार नाहेन्द्रेन्द्र ७००००| 50000 ब्रह्म ेन्द्र ६०००० २४०००० लान्तवेन्द्र ५०००० २००००० महाशुक्रन्द्र ४०००० १६०००० सहस्रारद्र ३०००० १२०००० प्राणतेन्द्र २०००० ८०००० | | अच्युतेन्द्र १०००० ४०००० ८००० ६००० ४००० २००० १००० ५०० २५० १२५ ५००० ६००० ४००० २००० १००० ५०० २५० ६ " ८००० | ५ " ६०००१ ५ ” 100 8" २००० ४ " १००० ३ " ५०० ३ ” जेल में मेरा जैनाभ्यास #* [तृतीय Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड) * लोक अधिका पाँचवे देवलोकके अन्तमें ' लोकान्तिक देव सम्यक् दृष्टि अवसर चेतानेवाले होते करनेवाले होते हैं। चूंकि कारण ये 'लौकान्तिक' कहला' ये देव नौ प्रकार के होते पूर्व में श्रादित्य देव, अग्निकोण में । नैऋत्य कोण में गदतोय देव, पश्चिम अव्यावाध देव, उत्तरमें अग्निदेव श्री विमानोंमें रहते हैं। नव बारहवें देवलोकसे एक विस्तारमें नवप्रैवेयक देवलो त्रिकमें तीन-तीन प्रतर हैं। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में मेरा जैनाभ्यास * सुमनस् २ त्रिक शा ०७ । १००० २२०० ---- प्रियदर्शन अमोह सुप्रतिभद्र यशोधर ३ त्रिक । १०० १००० २२०० ----- [तृतीय Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] * लोक अधिकार *# अनुत्तर विम नवमैवेयकसे एक रज्जु ऊपर म में चारों दिशामें चार इक्कीस योजनकी अंगनाई चौड़े विमान हैं। पूर्व में विज और उत्तर में अपराजित वि देहमान होता है । और उत्कृष्ट तैंतीस सागरकी : इन सर्वार्थसि यह विमान एक लाख योजन है । यह उपरोक्त विमानों मान एक हाथ है और जघ आयु है । यह सब विमानों में हुए | हवा बड़े मोती लटके तीस रागनियाँ निकलती हैं विजय, वैजयन्त, जय पाँचों विमान 'अनुत्तर वि विमानके निवासी देव अनुत्तर विमानवाले तं भवमें मोक्ष प्राप्त करते Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में मेरा जैनाभ्यास * सिद्धक्षेत्र [तृतीय पैतालीस हजार योजनकी आठ योजनकी मध्य में घटती किनारेपर मक्खी ३०२४६ योजनकी परिधि मिय, उलटे छत्रके समान एक योजन ऊपर, सीधे मनुष्य ..न, ३३३ धनुष और ३२ अंगुल सिद्ध भगवान् हैं । 'नवग्रैवेयक, पाँच अनुत्तर विमान न घनोदधि और आकाश वेयक और अनुत्तर विमान हैं । बाद घनवात, उसके बाद । इस प्रकार घिरा हुआ है है। वृक्षकी छाल एकसी दधि कहीं बहुत ज्यादा तू पतली है । पर लोक इस भाँति है: Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड * लोक अधिकार लोकके तलेसे लेकर एक राजूकी के तक तीनों वातवलयोंकी मोटाई सा प्रत्येक वातवलय बीस-बीस मध्यमें बीस-बीस हजार ये लोकके कोनोंपर पहिला योजन और तीसरा चार यों वलय मध्य लोक तक सोलह र मध्य लोककी बगलों में पहः चारका और तीसरा तीन योज.. योजन मोटे हैं। मध्य लोकसे ऊपर पाँचवें रे सात योजनकी, घनवात पाँच योजनकी है। तीनों मिलकर पाँचवें देवलोकसे ऊपर पाँच योजनका, दुसग चार तीनों बारह योजनके हैं। है । यह १५७५ धनुषकी घनवात और इसके अ सिद्धशिलाके एक योज. भागमें सीधे मनुष्य लोग ३३३ धनुष और ३२ भगवान् अलोकसे Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमें मेरा जैनाभ्यास तृतीय amnne unwe.mmunmu m my. स्तर खड़ा होता है, उसी प्रकार दह राज ऊंची और चौदह ती है। यह भ्रम जीवोंसे कि केवल इसमें प्रमजीक । प्रकार के स्थावर जीव भी व नहीं पाये जाते हैं। मिवाय शिव जब स्थावर जीव की प्रायु श्रायु के अन्तमद्दत काल बाकी गगान्तिक ममदान करता है। उस मनाली में बाहर जहाँ वह म्यावर सो इम अपेक्षामं वसनालाम दमरे बमनाली में बाहर का न्च करना है. तर मरण के कम के उदय वम होकर • विग्रह गतिम मनाली र कंवली भगवान जब प्रदेश नमनाली और 'ते हैं, मो इस तरह भी चांकि केवली भगवान बाहर त्रस जीवोंका Page #475 -------------------------------------------------------------------------- _