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* गुणस्थानका अधिकार *
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लिये प्रतिक्षण लालायित रहता है और विपरीत दर्शन या मिथ्या दृष्टिके कारण रागद्वेषकी प्रबल चोटका शिकार बनकर तात्त्विक सुखसे विमुख रहता है । इसी भूमिकाको जैनशास्त्रमें 'बहिरात्मभाव' किंवा 'मिथ्यादर्शन' कहा है। इस भूमिकामें जितनी आत्माएँ वर्तमान होती हैं, उन सबोंकी आध्यात्मिक स्थिति एक सी नहीं होती अर्थात् सबके ऊपर मोहकी दोनों शक्तियोंका आधिपत्य होनेपर भी उसमें थोड़ा-बहुत तर-तम भाव अवश्य होता है । किसीपर मोहका प्रभाव बहुत ज्यादा, किसीपर ज्यादा, किसीपर कम होता है। इस प्रकारकी तमाम आत्माओंको अबस्थाको पहिला गुणस्थान कहते हैं। ___ जो श्रात्माएँ पहिल गुणस्थानमें होती हैं, वे मोहनीय कर्मके क्षय आदिसे चतुर्थादि गुणस्थानको प्राप्त करती हैं। लेकिन कोई आत्मा जब तत्वज्ञान-शन्य किंवा मिथ्यादृष्टि होकर प्रथम गुणस्थानकी ओर झुकती है. तब बीचमें उस अधःपतनोन्मुख प्रात्मा की जो कुछ अवस्था होती है, वही दूसरा गुणस्थान है। इस अवस्थामें प्रथम गुणस्थानकी अपेक्षा आत्म-शुद्धि अवश्य कुछ अधिक होती है, इसलिये इसका स्थान पहिले के बाद रक्खा गया है । जैसे खीर आदि मिष्ट भोजन करनेके बाद जब वमन हो जाता है, तब मुखमें एक प्रकारका विलक्षण स्वाद अर्थात् न अति मधुर न अति अम्ल जैसे प्रतीत होता है । इसी प्रकार दूसरे गुणस्थानके समय आध्यात्मिक स्थिति विलक्षण पाई जाती है, क्योंकि