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३४४ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय दर्शन-बोध कर लेनेपर ही उस वस्तुको पाने या त्यागनेकी चेष्टा की जाती है और वह सफल भी होती है । आध्यात्मिक विकास. गामी अात्माकेलिये भी मुख्य दो ही कार्य हैं। पहिला स्वरूप तथा पररूपका यथार्थ दर्शन किंवा भेदज्ञान करना और दूसरा स्वरूपमें स्थित होना । इनमेंसे पहिले कार्यको रोकनेवाली मोहकी शक्ति जैनशास्त्रमें 'दर्शनमोह' और दूसरे कार्यको रोकनेवाली मोहकी शक्ति 'चरित्रमोह' कहलाती है । दूसरी शक्ति पहिली शक्तिकी अनुगामिनी है अर्थात् पहली शक्ति प्रबल हो, तब तक दूसरी शक्ति कभी निवृत्त नहीं होती, और पहिली शक्तिके मन्द, मन्दतर, और मन्दतम होते ही दूसरी शक्ति भी क्रमशः वैसी ही होने लगती है अथवा यों कहिये कि एक बार अात्मा स्वरूप-दर्शन कर पावे तो फिर उसे स्वरूप-लाभ करनेका मार्ग प्राप्त हो ही जाता है। __ अविकसित किंवा सर्वथा अधःपतित प्रात्माकी अवस्था प्रथम गुणस्थान है। इसमें मोहको उक्त दोनों शक्तियोंके प्रबल होनेके कारण आत्माकी आध्यात्मिक-स्थिति बिलकुल गई हुई सी होती है । इस भूमिकाके समय आत्मा चाहे कितनी ही श्राधिभौतिक उन्नति क्यों न कर ले, पर उसकी प्रवृत्ति तात्विक लक्षसे सर्वथा शून्य होती है। जैसे दिग्भ्रमवाला मनुष्य पूर्वको पश्चिम समझ कर गति करता है और अपने इष्टस्थानको नहीं पहुँचता; उसका सारा श्रम एक तरहसे वृथा हो जाता है। वैसे ही प्रथम भूमिकावाला आत्मा पररूपको स्वरूप समझ कर उसीको पानेके