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________________ खण्ड * गुणस्थान अधिकार * ३४३ - उच्च भी कह सकते हैं और नीच भी। अर्थात् मध्यवर्तिनी कोई भी अवस्था अपनसे ऊपर वाली अवस्थाकी अपेक्षा नीच और नीचे वाली अवस्थाकी अपेक्षा उच्च कही जा सकती है। विकास की ओर अग्रसर आत्मा वस्तुतः उक्त प्रकारकी संख्यातीत आध्यात्मिक भूमिकाओंका अनुभव करता है। पर जैनशास्त्र में संक्षेपमें वर्गीकरण करके उनके चौदह विभाग किये हैं, जो कि चौदह गुणस्थान कहलाते हैं। ___ सब प्रावरणों में मोहका प्रावरण प्रधान है अर्थात् जब तक मोह बलवान और तीत्र है, तब तक अन्य सभी प्रावरण बलवान् और तीत्र बने रहते हैं। इसके विपरीत मोहके निर्बल होते ही अन्य आवरणोंकी वैसी ही दशा हो जाती है। इस लिये आत्माके विकास करने में मुख्य बाधक मोहकी प्रबलता और मुख्य सहायक मोहकी निर्बलता समझनी चाहिये । इसी कारण गुणस्थानोंकी विकास-क्रम-गत अवस्थाओंकी कल्पना मोहशक्तिकी उत्कटता, मन्दता तथा अभावपर अवलम्बित है। मोहकी प्रधान शक्तियाँ दो हैं । इनमेंसे पहली शक्ति, आत्मा को दर्शन अर्थात् स्वरूप-पररूपका निर्णय किंवा जड़-चेतनका विभाग या विवेक करने नहीं देती; और दूसरी शक्ति आत्माको विवेक प्राप्त कर लेनेपर भी तदनुसार प्रवृत्ति अर्थात् अभ्यासपरपरिणतिसे छूट कर स्वरूप-लाम नहीं करने देती। व्यवहारमें पग-पगपर यह देखा जाता है कि किसी वस्तुका यथार्थ
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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