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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[तृतीय
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सम्यग्दर्शन और सम्यक् चरित्र रूप भात्माके गुणोंकी तारतम्य रूप.(हीनाधिकतारूप ) अवस्था विशेषको 'गुणस्थान' कहते हैं। • जैन शास्त्रमें गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्दका मतलब आत्मिक
शक्तियोंके आविर्भावकी-उनके शुद्ध कार्यरूपमें परिणत होते रहनेकी तर-तम भावापन्न अवस्थाओंसे है। पर आत्माका वास्तविक स्वरूप शुद्ध चेतना और पूर्णानन्दमय है। उसके ऊपर जब तक तीव्र आवरणोंके घने बादलोंकी घटा छाई हो, तब तक उसका असली स्वरूप दिखाई नहीं देता। किन्तु प्रावरणों के क्रमशः शिथिल या नष्ट होते ही उसका असली स्वरूप प्रकट होजाता है। जब आवरणोंकी तीव्रता आखिरी हद्दकी हो, तब श्रात्मा प्राथमिक अवस्थामें-अविकसित अवस्थामें पड़ी रहती है और जब आवरण बिलकुल ही नष्ट होजाते हैं तब श्रात्मा चरम अवस्था-शुद्ध स्वरूपकी पूर्णतामें वर्तमान होजाता है। जैसे-जैसे आवरणोंकी : तीव्रता कम होती जाती है, वैसे-वैसे
आत्माकी प्राथमिक अवस्थाको छोड़कर धीरे-धीरे शुद्ध स्वरूपका लाभ करता हुआ चरम अवस्थाकी ओर प्रस्थान करता है। प्रस्थानके समय इन दो अवस्थात्रोंके बीच उसे अनेक नीची. ऊँची अवस्थाओंका अनुभव करना पड़ता है। प्रथम अवस्थाको अविकासकी अथवा अधःपतनकी पराकाष्ठा और चरम अवस्था को विकासकी अथवा उत्क्रान्तिकी पराकाष्ठा समझना चाहिये । इस विकास-क्रमकी मध्यवर्तिनी सब अवस्थाओंको अपेक्षासे