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गुणस्थान अधिकार
जंग
जो दर्शन आस्तिक हैं अर्थात् आत्मा, उसका पुन
जन्म, उसकी विकासशीलता तथा मोक्ष-योग्यता माननेवाले हैं, उन सबमें किसी-न-किसी रूप में श्रात्माके क्रमिक विकासका विचार पाया जाना स्वाभाविक है। अतएव आर्यावर्त्त के जैन, वैदिक और बौद्ध इन तीनों प्राचीन दर्शनों में उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है। यह विचार जैन दर्शन में गुणस्थानके नामसे, वैदिक-दर्शन में भूमिकाओं के नामसे और बौद्ध दर्शन में अवस्थाओंके नामसे प्रसिद्ध हैं ।
गुणस्थानका विचार जैसा जैन दर्शन में सूक्ष्म तथा विस्तृत है वैसा अन्य दर्शनोंमें नहीं है, तो भी उक्त तीनों दर्शनोंकी उस विचार के सम्बन्धों में बहुत समता है अर्थात संकेत, वर्णनशैली आदिकी भिन्नता होनेपर भी वस्तु तत्रके विषय में तीनों दर्शनोंका भेद नहीं के बराबर है । वैदिक-दर्शन के योगवशिष्ठ, पातञ्जलयोग आदि प्रग्थों में आत्माकी भूमिकाओं का अच्छा विचार है ।
गुणस्थानोंका स्वरूप
गुणों ( आत्मशक्तियों) के स्थानको अर्थात् विकासकी क्रमिक अवस्थाओंको 'गुणस्थान' कहते हैं । दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि मोह और योगके निमित्तसे सम्यक्ज्ञान,