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खण्ड
* ध्यानका स्वरूप *
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की अथवा पंच परमेष्ठिमंत्रके अक्षरोंकी स्थापना करके मनकी एकाग्रतापूर्वक उनका चिन्तन करना “पदस्थ" नामका दूसरा ध्यान कहा है।
३-अहन्त भगवानकी शान्त दशाका निर्मल स्वरूप हृदय में स्थापन करके स्थिरचित्त होकर जो ध्यान किया जाता है, उसे "रूपस्थ" नामका तीसरा ध्यान कहा है।
४-निरञ्जन-निर्मल सिद्ध भगवानका पालम्बन लेकर उनके साथ आत्माके एकपनका अपने हृदयमें एकाग्रतापूर्वक जो चिन्तन किया जाता है, उसे "रूपातीत" नामका चौथा ध्यान कहा है।
धर्मध्यानका फल धमध्यान मुनियों तथा गृहस्थों की आत्माओंको शुद्ध करता है, लेश्याओं का निर्मल बनाता है, दुष्कर्मा को जलाता है तथा कामाग्नि के लिये मेघ समान है। यद्यपि यह धमध्यान पालम्बन सहित है नथापि निरन्तर अभ्यास करनेसे शुद्ध होता हुआ यह क्रमक्रमसे ध्यान करनेवाले को पालम्बन रहित निर्मल शुद्ध ध्यान तक पहुँचा देता है।
स्पष्टीकरण जो भव्य प्राणी अपने संसारको कम करना चाहते हैं अथवा कर्मबन्धनसे छूटना चाहते हैं, उनको संसारको असार जानकर