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________________ ३१० * जेल में मेरा जैनाभ्यास # [तृतीय और लोभ इत्यादि विषयों में रमण कर रहा है । इस प्रकार यह आत्मा अनन्त कालसे भ्रमण कर रहा है । पर इसकी गज आज तक नहीं सरी है । जो आत्मा इस संसार भ्रमण में घृणा लावेगा वही मोक्ष पावेगा । ४- एकत्व भावना - इस आत्माको अपार आनन्द देने वाला सिर्फ एक केवलज्ञान ही है । वही आत्माका सहज गुण है। वही विनाशी और हितकर्ता है और द्रव्य सज्जनादि कोई हितकर्ता नहीं है । क्यों कि अन्य पदार्थ आत्माको दुःख देनेवाले हैं; ऐसा समझ कर सर्व वस्तुओं से ममत्वको हटा कर सिर्फ आत्मापर ही जो दृष्टि जमावेगा, वही आत्मा तम्बकी खोज कर निजानन्द अर्थात् मोक्ष पदको प्राप्त करेंगा | धर्मेध्यानके प्रकारान्तर शास्त्र में ध्येय भेदकी अपेक्षा धर्मध्यानके चार प्रकार और भी कहे गये हैं- १ - पिण्डस्थ, २– पदस्थ ३ - रूपस्थ और ४- रूपातीत । १ – पार्थिवी आग्नेयी आदि पाँच धारणाओंका एकाग्रतासे जो चिन्तन किया जाता है, उसे "पिण्डस्थ" नामका पहला ध्यान कहा है। २- नाभि में या हृदय में सोलह पाँम्बुड़ीके, चौबीस पाँखुड़ीके तथा मुखपर आठ पाँखुड़ीके कमलकी कल्पना करना और उसकी प्रत्येक पॉवुडीपर वर्णमाला के अ आ इ ई आदि अक्षरों
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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