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खण्ड ]
* ध्यानका स्वरूप *
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१ - अनित्य भावना - द्रव्यार्थिक नयसे, अविनाशी स्वभाव का धारक जो आत्मा द्रव्य है उससे भिन्न रागादि विभाव रूप कर्म हैं। उनके स्वभावसे ग्रहण किये हुये स्त्री पुत्रादि सचेतन, 'सुवर्णादि अचेतन द्रव्य और इन दोनोंसे मिले हुए मिश्र द्रव्यादि जो वस्तुएँ हैं, वे सब अनित्य और अविनाशी हैं। ऐसी भावना जिस प्राणी के हृदय में रहती है. उसका तमाम पौद्गलिक पदार्थोंपर से ममत्व हट जाता है। जैसे वमन किये हुये दूधपर से ममत्वका अभाव हो जाता है । वह आत्मा हमेशा अक्षय. अनन्त सुखका स्थान जो मोक्ष है, उसे पाता है।
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- अशरण भावना - इस संसार में अशुभ कर्म के उदय होनेपर कोई सहायता नहीं कर सकता है। जिस प्रकार हिरणों के झुंडमें से जब सिंह एक हिरmको पकड़ लेता है, तब दूसरे जान लेकर भागते हैं और किसी अवस्थामें उसे नहीं छुड़ा सकते। उसी प्रकार अपनी ही आत्मा अपनेको तारने अथवा डुबाने वाली है। ऐसे भाव रखने वाली आत्मा द्रव्य तथा सांसारिक बातों से मोह छोड़ कर निज आत्मा स्वरूप सिद्ध अवस्थाको प्राप्त करता है ।
३ - संसार भावना - इस संसार में अपनी आत्माने अपने शरीर के पोषण के वास्ते समस्त पुद्गलोंका स्पर्श तथा उपयोग किया है अर्थात द्रव्यसे तमाम वस्तुओं में हो आया है। क्षेत्रसे सब स्थानों में हो आया है । कालसे बीस क्रोड़ाक्रोड़ सागरके जैसे कालचक्रमें अनन्त बार हो आया है। भावसे यह क्रोध, मान, माया