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________________ ३०८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय ३ - संसार में संपत्ति या विपत्ति, संयोग या वियोग से जो कुछ सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं, वे सब पूर्व जन्म में उपार्जन किये गये पुण्य-पापके फल हैं। जिस समय ऐसा विचार किया जाता है अर्थात् उनपर चित्तको एकाग्र किया जाता है, तब “विपाक विचय" नामक धर्मध्यानका तृतीय भेद सिद्ध होता है । ४ – जब मृलसे शिखर पर्यन्त लोकके श्राकारपर, उसमें जीवकी गति श्रगतिपर तथा जन्म-मरणपर स्थिर और शुद्ध मनसे विचार किया जाता है, तब "संस्थानविचय" नामक धर्म ध्यानका चतुर्थ भेद सिद्ध होता है। धर्मध्यानके आलम्बन धर्मध्यान रूप पर्वतपर चढ़नेकेलिये शास्त्रों में चार आलम्बन बताये हैं। आध्यात्मिक और ताविक शास्त्रों का पढ़ना, गुरु दिसे पूछ कर शंकाका समाधान करना, मनन करने योग्य विषयोंपर तर्क-वितर्क करना तथा अभ्यस्त तत्वांका कथन करना । ये चार आलम्बन ध्यान करनेवाले प्राणियोंको ग्रहण करने चाहिये । धर्मध्यानकी विशुद्धिकेलिये भावनाएँ ध्यानकी विशुद्धिकेलिये १ - अनित्य, २- अशरण, ३संसार और ४ –एकत्व, इन चार भावनाओंका नित्य बार बार चिन्तन करते रहना चाहिये, जब तक कि उत्कृष्ट रुचि उत्पन्न न हो जाय ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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