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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[तृतीय
विरक्त भावसे देखना चाहिये, जैसे कि कमल पानीमें रहता हुआ पानीसे अलहदा रहता है। इस कर्मबन्धनसे छूटनेका मुख्य गुरु चित्त और इन्द्रियोंको काबूमें रखना है अर्थात् इन्द्रियों और मनको कभी बुरे विषयों और बुरे विचारोंकी ओर नहीं जाने देना है। मनुष्यको सदा अच्छे विचार और शुभ भावना ध्याना चाहिये । जैसे-एक-न-एक दिन हमको अवश्य मरना है। इस कारण कोई अशुभ विचार व कर्म न करना चाहिये । जैसा बीज बोओगे वैसा फल पाओगे। शुभ कर्म करोगे शुभ फल पाओगे, दुष्कर्म करोगे दुष्फल मिलेगा। संसार में यह आत्मा अकेला पाया है और अकेला ही जायगा। जो गृहस्थकी मर्यादा है उसके बाहर गृहस्थको नहीं जाना चाहिय । सदा शुभ विचार मनसे
और न्याय-युक्त कार्य कायसे और मृदु और कोमल वचन मुखसे उच्चारित करते रहना चाहिये। कभी किसी प्राणी-मात्रके प्रति हमको बुरे ख्याल या बुरे विचार कभी नहीं लाने चाहिये । केसीसे ईपी. द्वंप तथा अहंकार और मान नहीं करना चाहिये ।
शुक्लध्यान जिस ध्यानमें विषयों का सम्बन्ध होनेपर भी वैराग्य-बलसे वेत्त बाहरी विपयोंकी ओर नहीं जाता है तथा शारीरिक छेदनदिन होनेपर भी स्थिर हुआ चित्त ध्यानसे लेशमात्र भी नहीं वगता है, उसको "शुक्लध्यान" कहते हैं।
"उत्तराध्ययन" सूत्र में कहा है कि