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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[द्वितीय
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सामान्यतया घटका तीन तरहसे-नित्य, अनित्य और अवक्तव्य रूपसे विचार किया गया है । इन तीन वचन-प्रकारोंको उक्त चार वचन-प्रकारोंके साथ मिला देनेसे सात वचनप्रकार होते हैं । इन सात वचन-प्रकारोंको जैन-शास्त्रों में 'सप्तभङ्गीन्याय' कहते हैं । सप्त यानी सात और भङ्ग यानी वचन अर्थात् सात वचन-प्रकारके समूहको सप्तभङ्गी-न्याय कहते हैं । इन सातों वचनप्रयोगोंको भिन्न-भिन्न अपेक्षासे भिन्न-भिन्न दृष्टि से समझना चाहिये। किसी भी वचन-प्रकारको एकान्त दृष्टिसे नहीं मानना चाहिये । यह बात तो सरलतासे समझमें आसकती है कि यदि एक वचन-प्रकारको एकान्त दृष्टिसे मानोगे तो दूसरे वचन-प्रकार असत्य होजायेंगे।
यह सप्तभङ्गी ( सात प्रयोग-वचन ) दो भागों में विभक्त की जाती है । एकको कहते हैं सकलादेश और दूसरेको विकलादेश । अमुक अपेक्षासे यह घट अनित्य ही है, इस वाक्यसे अनित्यधर्मके साथ रहते हुये घटके दूसरे धर्मों को बोधन करनेका कार्य सकलादेश करता है। सकल यानी तमाम धर्मों का आदेश यानी कहनेवाला। यह प्रमाण-वाक्य भी कहा जाता है; क्योंकि प्रमाण वस्तुके तमाम धर्मोको स्पष्ट करनेवाला माना जाता है। अमुक अपेक्षासे घट अनित्य ही है, इस वाक्यसे घटके केवल अनित्यधर्मको बतानेका कार्य विकलादेशका है। विकल यानी अपूर्ण अर्थात् अमुक वस्तु-धर्मको आदेश यानी कहनेवाला विकलादेश