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* परमेष्ठी अधिकार *
भावनाओंके एक विशिष्ट पुण्यवान् और गम्भीर पुरुष होते हैं। बे सकल शात्रोंके ज्ञाता, भद्रपरिणामी और अवधिज्ञान-विशिष्ट होते हैं। वे अपने विशिष्ट ज्ञानबलसे यह जान लेते हैं कि हमारे एक लोकातिशायी पुत्र होनेवाला है।
सवा नव महीने पूर्ण होनेपर उत्तम योग व शुभ मुहूर्त में पूर्ण मतिज्ञान, अतिज्ञान और अवधिज्ञानसहित प्रभु जन्म लेते हैं। जन्मोत्सव मनानेकेलिये चौंसठ इन्द्र भगवानको मेरुपर्वत पर पण्डुकवनमें ले जाते हैं और वहाँपर बड़े धूम-धामसे उत्सव मनाते हैं। इनके अलावा छप्पन कुमारिका देवियाँ भी जन्म महोत्सव करती हैं। बादमें तीर्थंकर भगवानके माता-पिता जन्मोत्सव मनाते हैं। बाल अवस्थाके बाद अगर भोगावली कर्म बाकी होते हैं तो भगवान् गृहस्थ धर्मका पालन करते हैं। दीक्षा धारण करनेसे पेश्तर एक वर्ष तक नित्यप्रति एक करोड़ पाठ लाख स्वर्ण मोहरोंका दान करते हैं । बादमें लौकान्तिक देवोंके निवेदनपर प्रारम्भ-परिग्रहका सर्वथा त्याग कर दीक्षा धारण करते हैं। उसी समय उन्हें मनःपर्यवज्ञानकी प्राप्ति होती है। वब कुछ काल तक घातीय कोका क्षय करनेके वास्ते ध्यान, तप
आदि व्रतोंका अाराधन करते हैं और जो कोई देव-दानव-मनुष्यपशु आदिके उपसर्ग आते हैं, उन्हें समभावसे सहन करते हैं। घातीय कोंके क्षय होनेपर अर्थात् मोहनीय कर्मके क्षय होनेपर झानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मका क्षय हो जाता