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खण्ड]
*मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश *
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दुःख भोगता हुआ कालको प्राप्त होता है । ठीक इसी प्रकार हम अज्ञानी प्राणी मी अपने हित-अहितको न देखते हुए अपने अशुभ कर्मों में अपने को इस बुरी प्रकार बाँध लेते हैं कि जिससे हमें भारी रोदना व दुःख भोगना पड़ता है। यहाँ तक कि भोगते हुए पीछा नहीं छूटता है और अन्त में मृत्युको प्राप्त करना पड़ता है।
(६५) जिन्होंने इन्द्रियों के विषय भोगनेकी तृप्तिको नहीं रोका, उम्र परिपहें नहीं जीती और मनको चपलता नहीं छोड़ी, वे मुनि आत्माक निश्चयस निश्चयसे न्युन हो जाते हैं।
(६६) मनुष्यता पाकर उसमें भी फिर जगत्पूज्य मुनिदीक्षा को ग्रहण कर विद्वानों को अपना हित विचार कर अशुभ कर्म अवश्य ही छोड़ना चाहिये।
(६७) जिन नियोंने अपने अन्तःकरणकी शुद्धताकेलिये उत्कट मिथ्यात्वरूपी विष वमन नहीं किया, तत्त्वोंको प्रमाणरूप नहीं जान सकते हैं; क्योंकि मिथ्यात्वरूपी विष ऐसा प्रबल है कि इसका लेशमात्र भी यदि हृदय में रहे तो तत्त्वार्थका ज्ञान-श्रद्धान प्रमाण रूप नहीं होता।
(६८) मुनिपना संसारमें सर्वोत्कृष्ट वस्तु है। चक्रवर्ती और इन्द्र भी इस पदको अपना मस्तक झुकाते हैं। प्रात्म-हितका यह •माक्षान् साधन है और इसीलिये यह पद स्वीकार किया जाता हैं। लेकिन कितने ही निर्दय और निर्लज्ञ प्राणो इस पदको स्वीकार