________________
२३२
* जेलमें मेरा जैनाभ्यास
[तृतीय
दुःखित हों, पीड़ित हों तथा वध-बन्धन सहित रोके हुए हों अथवा अपने जीवनकी वाञ्छा करते हों कि कोई हमारी रक्षा करे, ऐसी दीन प्रार्थना करनेवाले हों तथा क्षुधा, तृषा, खेद आदिकसे पीड़ित हों तथा शीत उष्णतादिकसे पीड़ित हों तथा निर्दय पुरुषोंकी निर्दयता से रोके हुए मरणके दुःखको प्राप्त हों तो इस प्रकारके दीन, दुःखी जीवोंके कष्ट व दुःखों को दूर करनेका उपाय करते रहना चाहिये और मुक्त करा देना चाहिये ।।
(६२) मनुप्यको सदा प्रमोदभावना भाते रहना चाहिये । जैसे कि पुरुष तप,शास्त्राध्ययन और यम-नियमादिकके पालनेमें संलग्न हों: ज्ञान ही जिनके नत्र हो: इन्द्रियाँ, मन और कषायों को जीतने वाले हों; स्वतन्वाभ्यास करने में चतुर हो; जगतको चमत्कृत करनेवाले चारित्रसे जिनकी आत्माएँ श्राश्रित हों: ऐसे पुम्पों के गुणोंमें मेरा चित्त अनुरक्त रहे।
(६३) मनुष्यको सदा माध्यस्थ्य भावना भाते रहना चाहिये । जैसे कि कोई अज्ञानी जीव अपने ऊपर मिथ्या आक्षेप लगावे; कटु वचन बोले; अनुचित व्यवहार करे या अपने अहित के लिये प्रयत्न करे तो उसकेलिये भी मेरे चित्तमें क्रोध न उपजे-उससे मैं शत्रुताका व्यवहार न करूं-उससे उदासीन-माध्यस्थ्य भाव रक्खू ।
(६४) जिस प्रकार रेशमका कीड़ा अपने ही मुखसे तारोंको निकालकर अपनेको उसमें लपेट लेता है और मन्तमें नाना प्रकार के